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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १४७.१५१ अह्वा उत्तर-इंदेसु पुच्च-णिदं हवेदि अदिरित्तं ।
पडिइंदादि-चउहं प्राउ-पमाणाणि इंद-समं ॥१४७॥ अर्थ :-प्रथवा-उत्तरेन्द्रों ( वैरोचन, धरणानन्द प्रादि ) को पूर्वमें जो प्रायु कही गयी है उससे कुछ अधिक होती है 1 प्रतीन्द्रादिक चार देवोंकी आयुका प्रमाण इन्द्रोंके सदृश है ।।१४७॥
एक्क-पलिदोषभाऊ सरीर-रक्खारण होवि चमरस्स । वइरोयणस्स' अहियं भूवाणंक्स्स कोडि-पुव्वाणि ॥१४८।।
प१। प १ । पुको १1 अर्थ :-चमरेन्द्रके शरीर-रक्षकोंकी एक पल्योपम, वैरोचन इन्द्रके शरीर-रक्षकोंकी एक पल्योपमये प्रति तोर मतानन्द के शादी रक्षकोंकी प्राय एक पूर्वकोटि प्रमाण होती है ।।१४८॥
धरणिदे अहियाणि बच्छर-कोडी हदेवि वेणुस्स । तणुरक्खा-उवमाणं अदिरित्तो वेणुधारिस्स ॥१४॥
पुको १ । व को १ । व को १ । अर्थ :--धरणानन्दमें शरीर-रक्षकोंको एक पूर्वकोटिसे अधिक, वेणुके शरीर-रक्षकोंकी एक करोड़ वर्ष और वेणुधारीके शरीर-रक्षकोंकी आयु एक करोड़ वर्षसे अधिक होती है ।।१४।।
पत्तेक्कमेक्क-लक्खं वासा पाऊ सरीर-रक्खाणं । सेसम्मि दखिणिदे उत्तर-इंदम्मि अदिरिता ॥१५०॥
व १ ल । व १ ल । अर्थ :-शेष दक्षिण इन्द्रोंके शरीर-रक्षकोंमेंसे प्रत्येककी एक लाख वर्ष और उत्तरेन्द्रोंके शरीर-रक्षकोंकी प्रायु एक लाख वर्षसे अधिक होती है ।।१५०।।
अढाइज्जा दोणि य पल्लारिण दिवढ-प्राउ-परिमाणं । प्रादिम-मझिम बाहिर-तिप्परिस-सुराण चमरस्स ॥१५१॥
प । प २।प ।
१. द. बसरोयरस्स।