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गाथा : १४४-१४६ ]
तदिश्रो महाहियारो
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अर्थ : चमरेन्द्र सौधर्मसे, वैरोचन ईशानसे, वेषु भूतानन्दसे श्रीर वेणुधारी धरणानन्दसे ईर्षा करता है । इसप्रकार ये आठ सुरेन्द्र परस्पर नानाप्रकारको विभूतियोंको देखकर मात्सर्यसे एवं कितने ही स्वभाव से ईर्षा करते हैं ।। १४२-१४३॥
॥ इन्द्रोंका वैभव समाप्त हुआ ।
भवनवासियोंको संख्या
भावण देवाण दस विकप्पाणं । बिगुल पढम-मूल-हूदा ।।१४४ ।।
|| संखा समत्ता |
अर्थ :---दस भेदरूप भवनवासी देवोंका प्रसारण श्रसंख्यात जगच्छ्रे गोरूप है, उसका प्रमाण घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगच्छ्रेणी मात्र है ॥ १४४ ॥
संखातीदा सेढी तीए पाल
|| संख्या समाप्त हुई ॥ भवनवासियोंकी श्रायु
ररणा करेक्क - उबमा चमर-दुगे होदि श्राउ परिमाणं । तिष्णि पलिदोषमाणि सूबारबादि- जुगलम्मि ।। १४५ ॥
सा १ । प ३ ।।
वेणु-दुगे पंच-दलं पुण्ण-यसि सु दोणि पल्लाई । जलपहुवि - सेसयारां दिवड्ढ- पल्लं तु पत्ते ॥१४६॥
। ५ ५ । ५२ । प ३ | सेस १२ ।
श्रथं : – चमरेन्द्र एवं वैरोचन इन दो इन्द्रोंकी प्रायुका प्रमाण एक सागरोपम भूतानन्द एवं घररणानन्द युगलकी तीन पल्योपम, वेणु एवं वेणुधारी इन दो इन्द्रों की ढाई पत्योपम, पूर्ण एवं वशिष्ठकी दो पल्योपम तथा जलप्रभ आदि शेष बारह इन्द्रोंमेंसे प्रत्येककी प्रायुका प्रमारण डेढ पल्योपम है ।। १४५-१४६।।
१. द. व. क. ज. उ. जिंदगुणगार ।