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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १३८.१४३ चैत्यवृक्षोंके मूल में जिनप्रतिमाएँ एवं उनके प्रागे मानस्तम्भोंकी स्थिति
चेत्त-दुमा-मूलेसु पत्ते वकं चउ-दिसासु चेट्टते'।
पंच जिणिद-प्पडिमा पलियंक-ठिदा परम-रम्मा ॥१३।।
अर्थ :-प्रत्येक चैत्यवृक्षके मूलभागमें चारों ओर पल्यंकासनसे स्थित परम रमणीय पांचपांच जिनेन्द्र प्रतिमाएँ विराजमान हैं ।।१३।।
पउिमाणं अग्गेसु रयणत्थंभा हवंति वीस फुडं । पडिमा-पीढ-सरिच्छा पीडा थंभारण यादव्या ॥१३६॥ एक्केक्क-माणथंभे अट्ठाबीसं जिणिव-पडिमानो ।
चरम दिमास सिंहामणादि-विण्णास-जुत्तानो ॥१४०।। मर्थ :-प्रतिमानोंके प्रागे रलमय बीस मानस्तम्भ होते हैं । स्तम्भोंकी पीठिकाएँ प्रतिमाओंकी पोठिकानोंके सदृश जाननी चाहिए। एक-एक मानस्तम्भके ऊपर चारों दिशाओं में सिंहासन प्रादिके विन्याससे युक्त अट्ठाईस जिनेन्द्र-प्रतिमाएं होती हैं ॥१३६-१४०॥
सेसाप्रो वपणाम्रो चउ-वण-मझत्थ-चेसतरु-सरिसा'।
छत्तादि-छत्त-पडवी-जुाण जिणणाह-पडिमाणं ॥१४१॥ पर्ष :-छत्रके ऊपर छत्र प्रादिसे युक्त जिनेन्द्र-प्रतिमानोंका शेष वर्णन चार पनोंके मध्यमें स्थित चैत्य वृक्षोंके सदृश जानना चाहिए ।।१४१॥
चमरेन्द्रादिकोंमें परस्पर ईर्षाभाव चरिंदो सोहम्मे ईसवि बइरोयणो य ईसाणे । भूदाणंदे' वेणू थरणाणंदम्मि "वेणुधारि ति ॥१४२॥ एदे अट्ठ सुरिंदा अण्णोण्णं बहुविहारो भूदीयो । वळूण मच्छरेणं ईसंति सहायदो केई ॥१४३॥
॥ इंदविभवो समत्तो ।
१. ६. चेठ्ठलो। २. द. क. ज. उ. पुर्द । ३. द. छ. सहस्सा। ४. द. ब. क. ज. ठ. जुदाणि । ५. ब. ईसाणो। ६. ब. ईसाणंदे। ७, ब. क. वेणुधारि। ८. ६. इंदविभवे । ६. द. य, समत्ता ।