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तिलोयपण्यात्ती
[ गाथा : १८४ अर्थ :-उपर्युक्त घनफलोंको मिलाकर और सकलको दुगुनाकर इसमें मध्यम क्षेत्रके एनफलको जोड़ देनेपर चारसे गुरिणत और सातसे भाजित लोकके बराबर सम्पूर्ण अधोलोकके घनफलका प्रमाण निकल पाता है ।।१८३।।
विशेषार्थः । गा० १८० के चित्रण में अ, ब और स नामके दो-दो क्षेत्र हैं, अत: । २४३+४०५ -- ७३६ धनराजूमें २ का गुणा करनेसे (७३३४२) १४७ घनराजू प्राप्त हुआ । इसमें मध्यक्षेत्र अर्थात् असनालीका (७४१४७) = ४६ घनराजू जोड़ देनेसे ( १४७ - ४९)- १६६ धनराजू पूर्ण अधोलोकका घनफल प्राप्त हुअा, जो संदृष्टि रूप ३४३४४७ राजूके बराबर है।
लघु भुजाओंके विस्तारका प्रमाण निकालनेका विधान एवं प्राकृति
रज्जुस्स सत्त-भायो तिय-छ-दु-पंचेक्क-चउ-सहि हवा । खुल्लय-भुजाण रंदा वसादी यंभ बाहिरए ॥१४॥
१३ 1 1 1 ५ । १४१ ! १४ ! १७ | अर्थ :--राजूके सातवें भागको क्रमशः तीन, छह, दो, पाँच, एक, चार और सातसे गुणित-करनेपर वंशा आदिकमें स्तम्भोंके बाहर छोटी भुजाओंके विस्तारका प्रमाण निकलता है ॥१८४॥
_ विशेषार्थ :-सात राजू चौड़े और सातराजू ऊँचे अधोलोकमें एक-एक राजूके अन्तरालसे जो ऊँचाई-रूप रेखाएँ डाली जाती हैं, उन्हें स्तम्भ कहते हैं । स्तम्भोंके बाहरवाली छोटी भुजाओंका प्रमाण प्राप्त करनेके लिए राजूके सातवें (3) भागको तीन, छह, दो, पाँच, एक, चार और सातसे गुणित करना चाहिए । इसकी सिद्धि इसप्रकार है :
___ अधोलोक नीचे सात राजू और ऊपर एक राजू चौड़ा है। भूमि ( ७ राजू ) में से मुख घटा देनेपर ( ७ -- १= ) ६ राजूकी वृद्धि प्राप्त होती है । जब ७ राजूपर ६ राजूकी वृद्धि होती है तब एक राजूपर राजूकी वृद्धि होगी। प्रथम पृथिबीकी चौड़ाई ॐ अर्थात् एक राज और दूसरी पृथिवीकी (+ ) राजू है । इसीप्रकार तृतीय आदि शेष पृथ्यियोंकी चौड़ाई क्रमश: २५ 3. ॐ और राजू है ( यह चौड़ाई गा० १७८, १७६ के चित्रणमें दर्शाई गयी है ), अधोलोककी भूमि अन्तमें अर्थात् सात राजू है। दूसरी और तीसरी पृथिवीके मुखोंमेंसे बीच (सनाली) का एक-एक राजु कम कर देनेपर क्रमश: और राजू अवशेष रहता है, इसका प्राधा कर देनेपर प्रत्येक दिशामें और राजू बाहरका क्षेत्र रहता है । चौथी-पाँचवीं पृथ्वियोंके मुखोंमेंसे बीचके तीन अर्थात् राजू घटा देनेपर शेष (२-२) और ( -3') " राजू शेष रहता है,