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पुण्य प्रसंगों पर प्रकाशित होकर विद्वजमों में समादरणीय हुए हैं । इन अंथों की तैयारियों में कई बार तिलोयपण्णत्ती का अवलोकन करना होता था क्योंकि विषय की समानता है और साथ ही तिलोयपणती प्राचीन ग्रन्थ भी है। 'सिद्धांतसारदीपक' के प्रकाशन के बाद माताजी की यह भावना बनी कि तिलोयपणती की अन्य हस्तलिखित प्रतियाँ जुटा कर एक प्रामाणिक संस्करण विस्तृत हिन्दी टीका सहित प्रकाशित किया जाए। आप तभी से अपने संकल्प को मूर्त रूप देने में जुट गई और अनेक स्थानों से आपने हस्तलिखित प्रतियां भी मंगवा लीं। पर प्रतियों के मिलान करने से ज्ञात हुआ कि उत्तर भारत की लगभग सभी प्रतियां एकसी हैं । जो कमियाँ दिल्ली और बम्बई की प्रतियों में हैं वे ही लगभग सब में हैं । अतः कुछ विशेष लाभ नहीं दिखाई दिया। अब दक्षिण भारत में प्रतियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की गई। संयोग से मूडबद्री मठ के भट्टारक स्वामी ज्ञानयोगी चारुकीतिजी का आगमन हुआ। वे उदयपुर माताजी के दर्शनार्थ भी पधारे। माताजी ने तिलोयपगत्ती के सम्बन्ध में चर्चा की तो वे बोले कि मूडबद्री में श्रीमती रमारानी जैन शोध संस्थान में प्रतियाँ हैं पर वे कन्नड़ लिपि में हैं अत: वहीं एक विद्वान बैठाकर पाठान्तर भेजने की व्यवस्था करनी होगी । वहाँ जाकर उन्होंने पाठभेद भिजवाये भी परन्तु ज्ञात हुआ कि वहाँ की दोनों प्रतियाँ अपूर्ण हैं । इन पाठान्तरों में कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, कुछ छूटी हुई गाथाएं भी इनमें मिली हैं अत: बड़ी व्यग्रता थी कि कोई पूर्ण प्रांत मिल जाए। खोज के प्रयत्न चलते रहे तभी अशोकनगर उदयपुर में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वामी कर्मयोगी चारुकीतिजी पधारे । उन्होंने बताया कि वहां एक पूर्ण प्रति है, शीघ्र ही लिप्यन्तरण मंगाने की योजना बनी और वहाँ एक विद्वान रख कर लिप्यन्तरण मँगाया गया, यह प्रति काफी शुद्ध, विश्वसनीय और प्राचीन है । फलतः इसी प्रति को प्रस्तुत संस्करण को आधार प्रति बनाया गया है । यों अन्य सभी प्रतियों के पाठ भेद टिप्पण में दिये हैं।
तिलोयपण्णत्ती विशालकाय नंथ है। पहले यह छोटे टाइप में दो भागों में छपा है। परंतु विस्तृत हिंदी टीका एवं चित्रों के कारण इसकी स्थूलता बहुत बढ़ गई है अतः अब इसे तीन खण्डों में प्रकाशित करने की योजना बनी है। प्रस्तुत कृति (तीन महाधिकारों का) प्रथम खंड है । दूसरे खंड में केवल चौथा अधिकार-लगभग ३००० गाथाओं का होगा। तीसरे अर्थात् अंतिम खड में शेष पांच अधिकार रहेंगे।
श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा इसके प्रकाशन का व्ययभार बहन कर रही है, एतदर्थ हम महासभा के अतीव आभारी हैं ।
पूज्य माताजी का संकल्प प्राज मूर्त हो रहा है, यह हमारे लिये प्रत्यंत प्रसन्नता का विषय है । पूर्णतया समालोचक दृष्टि से सम्पादित तो नहीं किंतु अधिकाधिक प्रामाणिकता पूर्वक सम्पादित