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शेष क्षेत्र में यव प्राकृतियां २५ समाती हैं । एक थव का क्षेत्रफल (राजू२)४१ वर्ग राजू=* वर्ग राजू एक यव का घनफल = १.४७ घन राजू-१९ घन राजू अथवा है। २५ यवों का घन=kx २५ प्रन राजू अथवा २५ ,
(५) यव मध्य क्षेत्र--बाहुल्य ७ राजू वाली यह प्राकृति आधे मुरज के समान होती है। इसमें मुख १ राजू भूमि पुन: ७ रानू है जैसा कि यवमुरज क्षेत्र होता है, किन्तु इसमें मुरज न डालकर केवल अद्धं यवों से पूरित करते हैं । इसप्रकार इसमें ३५ अर्द्ध यव इस यबमध्य क्षेत्र में समाते हैं ।
एक श्रद्धघव का क्षेत्रफल -:x वर्गराज = वर्गराजू एक अर्द्ध यव वा घनफल-६४७ घनराजू धनराजू इसप्रकार ३५ अर्द्धयों का घनफल=५' x ३५ घनराम= ३४३ घनराजू इसप्रकार यव मध्य क्षेत्र का घनफल ३४३ घनराज होता है । संदृष्टि में = एक अद्ध यव का
घनफल है । as संदृष्टि का अर्थ है कि १४ राजू उत्सेत्र को पांच बराबर भागों में बांटा जाये।
(६) मन्दराकार क्षेत्र : उपरोक्त आकृतियों के ही समान आकृति लोक की लेते हैं जहाँ भूमि ६ राज, मुख १ राजू, ऊँचाई १४ राजू, और मोटाई ७ राजू लेते हैं। समानुपात के सिद्धान्त पर विभिन्न उत्सेधों पर व्यास निकालकर 'मुह भूमि जोगदले' सूत्र से विभिन्न निर्मित वेत्रासनों के घनफल निकालकर जोड़ देने पर सम्पूर्ण लोक का घनफल ३४३ धनराजू प्राप्त करते हैं । इसे सविस्तार ग्रंथ में देखें, क्योंकि बचने वाली शेष आकृतियों को जोड़कर पुनः घनफल निकालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है।
(७) दूष्य क्षेत्र : उपरोक्त प्राकृतियों के ही समान लोक की प्राकृति लेते हैं जहाँ भूमि ६. राजू, मुख १ राजू, ऊँचाई १४ राजू लेते हैं तथा बाहल्य ७ राजू है । इसमें से मध्य में २: यव निकालते हैं जो मध्य में १ राजू चौड़ाई वाले होते हैं । बाहर : राजू भूमि तथा ३ राजू मुख वाले दो क्षेत्र निकालते हैं । बीच में यव निकल जाने के पश्चात् शेष क्षेत्रों का घनफल भी निकाला जा सकता है । इसप्रकार बाहरी दोनों प्रवण क्षेत्रों का धनफल=१८ धनराजू ।