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१४० ] तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ६-७ अर्थ :-नारकियोंकी निवास १ भूमि, २ परिमाण (संख्या). ३ प्रायु, ४ उत्सेध,५ अवधिज्ञान, ६ गुणस्थानादिकोंका वर्णन, ७ उत्पद्यमान जीवोंकी संख्या, ८ जन्म-मरणके अन्तर-कालका प्रमाण, । एक समयमें उत्पन्न होनेवाले और मरनेवाले जीवोंका प्रमाण, १० मरकसे निकलनेवाले जीवोंका वर्णन, ११ नरकमतिके आयु-बन्धक परिणाम, १२ जन्मभूमि, १३ नानादुःखोंका स्वरूप, १४ सम्यक्त्वग्रहरणके कारण और १५ नरक्रमें उत्पन्न होनेके कारणोंका कथन, तीर्थङ्करके बचनसे निकले हुए इसप्रकार ये पन्द्रह अधिकार इस नारक-प्रज्ञप्ति नामक महाधिकारमें संक्षेपसे कहे गये हैं ॥२-५।।
सनालीका स्वरूप एवं ऊँचाई लोय-बह-मझ-देसे तरुम्मि सारं व रज्जु-पदर-जुदा । तेरस-रज्जुच्छेहा किचूणा होदि तस-गाली ॥६॥ ऊण-पमाणं दंडा कोडि-तियं एक्कवीस-लक्खाणं । बासद्धिं च सहस्सा दुसया इगिदाल दुतिभाया ।।७॥ ..
। ३२१६२२४१1३। अर्थ :-वृक्षमें (स्थित) सारकी तरह, लोकके बहुमध्यभागमें एक राजू लम्बी-चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची असनाली है। सनालौकी कमीका प्रमाण तीन करोड़, इक्कीस लाख, बासठ हजार, टोसौ इकतालीस धनुष एवं एक धनुषके तीन-भागोंमेंसे दो (3) भाग है ॥६-७॥
विशेषार्थ :-सनालीकी ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है। इसमें सातवें मरकके नीचे एक राज प्रमाण कलकल नामक स्थावर लोक है, यहाँ स जीव नहीं रहते श्रतः उसे (१४ -१)-१३ राजू कहा गया है । इसमें भी सप्तम नरकके मध्यभागमें ही नारकी ( श्रस ) हैं। नीचेके ३६६ET योजन ( ३१६६४६६६ धनुष ) में नहीं हैं।
इसीप्रकार ऊर्ध्वलोकमें सर्वार्थसिद्धिसे ईषत्प्राग्भार नामक पाठवीं पृथिवीके मध्य १२ योजन ( ६६००० धनुष ) का अन्तराल है, पाठवीं पृथिवीकी मोटाई ८ योजन ( ६४००० धनुष ) है
और इसके ऊपर दो कोस (४००० धनुष ), एक कोस ( २००० धनुष ) एवं १५७५ धनुष मोटाई वाले तीन वातवलय हैं । इस सम्पूर्ण क्षेत्रमें भी वस जीव नहीं हैं इसलिए गाथामें १३ राजू ऊँची अस नालीमेंसे ( ३१६६४६६६ धनुष + ६६००० धनुष + ६४००० धनुष + ४००० धनुष + २००० धनुष और + १५७५ धनुष ) =३२१६२२४१ धनुष कम करनेको कहा गया है ।