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गाथा : ८.१० ] विदुनो महायिारो
[१४१ सर्वलोकको असनालीपनेकी विवक्षा अहवा
उववाद-मारणंतिय-परिणद-तस-लोय-पूरणेण गदो।
केवलियो अवलंबिय सम्ध-जगो होदि तस-भाली ॥८॥ अर्थ :- अथवा--उपपाद और मारणांतिक समुद्घातमें परिणत त्रस तथा लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त केवलीका प्राश्रय करके सारा लोक प्रस-नाली है ।।८।।
विशेषार्थ :- जीवका अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर नवीन पर्यायजन्य प्रायुके प्रथम समयको उपपाद कहते हैं । पर्यायके अन्तमें मरणके निकट होनेपर बद्धायुके अनुसार जहाँ उत्पन्न होना है, वहाँके क्षेत्रको स्पर्श करने के लिए प्रात्मशोका शरीर से बाहर निकालना मारणान्तिक समुदघात है । १३ ३ गुणस्थानके अन्तमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेष तीन अघातिया कर्मोकी स्थितिक्षयके लिए केवलीके (दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूर्ण आकारसे ) अात्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना केवली समुद्घात है, इन तीनों अवस्थाओं में सजीव प्रस-नालोके बाहर भी पाये जाते हैं ।
रत्नप्रभा-पृथिवीके तीन-भाग एवं उनका बाहल्य खर-पंकप्पम्बहुला भापा 'रयणप्पहाए पुढवीए । बहलत्तणं सहस्सा सोलस चउसीवि सीवी य॥६॥
१६००० । ८४००० । ८०००० । अर्थ :-रत्नप्रभापृथिवीके खर, पंक और अब्बहुलभाग क्रमशः सोलह हजार, चौरासी हजार और अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्यवाले हैं ।।६।।
विशेषार्थ :-रत्नप्रभापृथिवीका-(१) खरभाग १६००० योजन, (२) पंकभाग ८४००० योजन और (३) अब्बहुल भाग ८०००० योजन मोटा है ।
खरभागके एवं चित्रापृथिवीके भेद खरभागो णादवो सोलस-भेदेहि संजुदो णियमा । चित्तादीनो खिदिनो तेसिं चित्ता बहु-वियप्पा ॥१०॥
१. द. रयणप्पहायि पुढवीए, ई, रयणप्पहा य युद्धवीरग। २. द. व सोल ।