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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ८१-५४ अर्थ :-इसप्रकार श्रीवीरभगवान् मूलतंत्रकर्ता, ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ इन्द्रभूति गणधर उपतन्त्र-कर्ता और शेष प्राचार्य अनुतन्त्रकर्ता हैं ।।८०॥
सूत्रकी प्रमाणता णिण्ण?-राय-दोसा महेसिणो 'दट्व-सुत्त-कत्तारो ।
किं कारणं परिणदा कहिदु सुत्तस्स पामण्णं ॥१॥
अर्थ :-रागढ़ पसे रहित गणधरदेव प्रत्र्यश्रुतके कर्ता हैं, यह कथन यहाँ किस कारणसे किया गया है ? यह कथन सूत्रको प्रमाणताका कथन करनेके लिए किया गया है ।।१।।
नय प्रमाण और निक्षेपके बिना अर्थ निरीक्षण करनेका फल जो रा पमाण-णयहि णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्थं ।
तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पउिहादि ॥२॥
अर्थ : जो नय और प्रमाण तथा निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता है, उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ प्रयुक्त ही प्रतीत होता है ॥८२।।
प्रमाण एवं नयादिका लक्षण गाणं होदि पमारणं गानो वि रणादुस्स हिदय-भावत्यो ।
रिणक्खेप्रो वि उबानो, जुत्तीए अत्थ-पडिगहणं ॥३॥ अर्थ : सम्यग्ज्ञानको प्रमाण अोर ज्ञाताके हृदयके अभिप्रायको नय कहते हैं। निक्षेप भी उपायस्वरूप हैं । युक्तिसे अर्थका प्रतिग्रहण करना चाहिए ॥५३॥
रत्नत्रयका कारण इय गायं अवहारिय आइरिय-परंपरागदं मणसा ।
पुस्याइरियाआराणुसरणनं ति-रयण-णिमित्तं ॥४॥
अर्थ :-इसप्रकार प्राचार्यपरम्परासे प्राप्त हुए न्यायको मनसे अवधारण करके पूर्व प्राचार्यों के प्राचारका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है ।।४।।
३ ब. एउ यि पादुसहहिदय
१. ६. ज. क. ठ. दिव्यपुत। २. क. द. ज. ब. ठ. सामण्णं। भावत्यो, क. राज वि रणादुसहहिंदयभावत्यो ।