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गाथा : ८५-९० । पढमो महाहियारो
[ १९ ग्रंथ प्रतिपादनकी प्रतिज्ञा संगागरिन्छ कि हगवाणिय विविहांथ-जुत्तीहिं । जिणवर-मुह-णिक्कंतं गरगहर-देवेहिं 'गथित-पबमालं ।।८।। सासद-पदमावण्णं पवाह रुवत्तगण दोसेहिं । णिस्सेसेहि विमुक्कं प्राइरिय-अणुषकमानादं ॥८६।। भव्य-जणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपणत्ति ।
णिन्भर-भत्ति-पसादिद-बर-गुरु-चलणाणुभावेण ॥७॥ अर्थ :-विविध ग्रन्थ और युक्तियोंसे (मंगलादि छह -मंगल, कारण, हेतु, प्रमाण, नाम और कर्ता का ) व्याख्यान करके जिनेन्द्र भगवानके मुखसे निकले हुए, गणधरदेवों द्वारा पदोंकी ( शब्द रचना रूप ) मालामें गूथे गये, प्रवाह रूपसे शाश्वतपद (अनन्तकालीनताको ) प्राप्त सम्पूर्ण दोषोसे रहित और प्राचार्य-परम्परासे पाये हुए तथा भव्यजनोंको आनन्ददायक 'त्रिलोकप्रज्ञप्ति शास्त्रको मैं अतिशय भक्ति द्वारा प्रसादित उत्कृष्ट-गुरुके चरणोंके प्रभावसे कहता हूं ॥८५-८७।।
ग्रन्थके नव अधिकारोंके नाम सामण्ण-जग-सरूवं तम्मि ठियं णारयारण लोयं च । भाषण-णर-तिरियाणं वेंतर-जोइसिय-कप्पयासीणं ॥८॥ सिद्धारणं लोगो सि य 'अहियारे पयद-विट्ठ-रणव-भए । तम्मि रिणबद्धे जीवे पसिद्ध-वर-वण्णणा-साहिए ।।८।। वोच्छामि सयलभेदे भन्वजणाणंद-पसर-संजणणं ।
जिण-मुह-कमल-विणिग्गय-तिलोयपण्णत्ति-णामाए ॥६॥
अर्थ :-जगतका सामान्यस्वरूप तथा उसमें स्थित नारकियोंका लोक, भवनवासी, मनुष्य, तिर्यंच, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पबासी और सिद्धोंका लोक, इसप्रकार प्रकृतमें उपलब्ध भेदरूप नौ अधिकारों तथा उस-उस लोकमें निबद्ध जीवोंको, नयविशेषांका आश्रय लेकर उत्कृष्ट वर्णनासे
१. क. ज. ठ. गंथित । २. ब. महियारो, क. अहिपारे। ३. ब. लयं =नय विशेषम्, द. बोच्छामि सयलईए, क. बोन्द्रामि सयलईए. ४. ब. जगारगदएसरसं ।