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तिलोयपत्ती
[ गाथा : १६३-१६७ प्रायुको अपेक्षा भवनवासियोंका सामर्थ्य दस-बास-सहस्साऊ जो देवो' माणुसाण सयमेयकं । मारिदुमह-पोसेदु सो सक्कवि अप्प-सत्तीए ॥१६३॥ खेत्त दिवढ-सय-धणु-पमाण-प्रायाम-वास-बहलत्त। बाहाहि वेढे 'उष्पाडेदु पि सो सक्को ॥१६४॥
दं १५० ।
अर्थ :-जो देव दस हजार वर्षको प्रायुवाला है, वह अपनी शक्ति से एकसी मनुष्योंको मारने अथवा पोसने के लिए समर्थ है, तथा वह देव डेढ़सौ धनुष प्रमाण लम्बे, चौड़े और मोटे क्षेत्रको बाहुओंसे वेष्टित करने और उखाड़ने में भी समर्थ है ।।१६३-१६४।।
एषक-पलिदोबमाऊ उप्पाडे' महीए छक्खड ।
तम्गद-पर-तिरियारणं मारे पोसिद् सक्को ॥१६॥ प्रर्थ :-एक पल्योषम प्रायु वाला देव पृथिबीके छह खण्डोंको उखाड़ने तथा वहाँ रहने बाले मनुष्य एवं तिर्यंचोंको मारने अथवा पोसने के लिए समर्थ है ॥१६॥
उहि-उवमाण-जीवी जंबदीवं समग्गमुक्खलिदु। तग्गद-पर-तिरियाणं मारेदु पोसिटु सक्को ॥१६६॥
प्रर्य :-एक सगरोपम काल तक जीवित रहनेवाला देव समग्र जम्बूद्वीपको उखाड़ फेंकने अर्थात् तहस-नहस करने और उसमें स्थित मनुष्य एवं तिर्यचोंको मारने अथवा पोसनेके लिए समर्थ है ॥१६६॥
पायुकी अपेक्षा भवनवासियोंमें विक्रिया दस-वास-सहस्साऊ सद-हवाणि विगुन्वणं कुणदि । उक्कस्सम्मि जहणे सग-रूवा मज्झिमे विविहां ॥१६७।।
२. द. ज, 6. वेदेदु।
३. द. व ज. ४, उप्पादेदु ।
४. द. ब. फ.
ज. .
१. ब. देवाउ। जंवूदीवस्स उग्गमे ।