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गाथा : २६५-२६६ ]
विदुषो महाहियारो
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बांसकी जड़ सदृश
अर्थ :- श्रायुबन्धके समय शिलाकी रेखा सदृश क्रोध, शैल सदृश मान, माया और किमिराग | किरमिच (लालरंग) ] सदश लोभ कथाका उप होनेपर नरकाका बन्ध होता है ||२४||
किव्हा मरिक
गोल- काऊणुदयादो बंधिऊण णिरयाऊ । ताहि जुत्तो पावद णिरयं महाघोरं ॥२६५॥
अर्थ :--कृष्ण,
नील अथवा कापोत इन तीन लेश्याओं का उदय होनेसे ( जीव ) नरकायु
बांधकर और मरकर उन्हीं लेश्याओंोंसे युक्त हुआ महा-भयानक नरकको प्राप्त करता है ||२२५ ||
३. ज ठ चरिमंतो
अशुभ- लेश्या युक्त जीवोंके लक्षण
किव्हा दि-ति-लेस्स-जुदा जे पुरिसा ताण लक्खणं एदं ।
गोत्तं तह स-कलत्तं एवकं बंछेदि मारिदु दुट्ठो ॥ २६६ ॥
धम्मदया- परिचत्तो प्रमुक्क- वइरो पर्यड कलह न्यरो |
बहु-कोहो कि हाए जम्मदि धूमादि- चरिमंते ॥ २६७॥
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अर्थ :---जो पुरुष कृष्णादि तीन लेश्याओं सहित होते हैं, उनके लक्षण इसप्रकार हैंऐसे दुष्ट पुरुष ( अपने ही ) गोत्रीय तथा एक मात्र स्वकलत्रको भी मारनेकी इच्छा करते हैं, दयाधर्मसे रहित होते हैं, कभी शत्रुताका त्याग नहीं करते, प्रचण्ड कलह करने वाले और बहुत कधी होते हैं । कृष्ण लेश्याधारी ऐसे जीव धूमप्रभा पृथिवीसे लेकर अन्तिम पृथिवी पर्यन्त जन्म लेते हैं । २६६-२६७।।
बिसयासत्तो विसदी माणी विष्णाण - वज्जिदो मंदो । अलसो भीरू माया-पवंच- बहुलो य णिद्दालू ॥ २६८ ॥ परवंचणप्पसस्तो लोहंधो घण्ण धण-सुहाकंखो । बहु-सण्णा णीलाए जम्मदि तबियादि धूमंतं ॥ २६६ ॥
१. द. ब. क. ज. ठ. प्रत्योः गाथेयं अग्रिम - गाभायाः पश्चादुपलभ्यते । ४. द. ज ठ धण्णधष्णसुहाकंखी । क. धरण धरण सुहाकंखी ।
२. ब. परिचितो ।