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तिलोपपत्ती
वासु दाढीसु पक्खी जलचरेसु जाऊणं । णिरएसु वच्चति ॥२६१॥
संखेज्जाऊ - जुत्ता
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सिलोव्ख ।
[ गाथा : २६१-२६४
अर्थ :- नरकों से निकले हुए उन जीवोंमेंसे कितने ही जीव व्यालों ( सर्पादिकों) में, ढों वाले ( तीक्ष्ण दाँतों वाले व्याघ्रादिक पशुओंों) में (गुद्धादिक) पक्षियोंमें तथा जलचर जीवों में जन्म लेकर और संख्यात वर्षकी आयु प्राप्तकर पुन: नरकोंमें जाते हैं ।। २९१॥
केसव - बल - चक्कहरा ण होंति कइयावि गिरय-संचारी । जायंते तित्थयरा तदीय-खोणीश्र परियंतं ॥२६२॥
अर्थ :- नरकोंमें रहने वाले जीव वहाँसे निकलकर नारायण (प्रतिनारायण ), बलभद्र और चक्रवर्ती कदापि नहीं होते हैं। तीसरी पृथिवी पर्यन्तके नारकी जीव वहाँसे निकलकर तीर्थंकर हो सकते हैं । २९२ ।।
श्रातुरिम-खिदो चरिमंगधारिणो संजदा थ घूमंतं । घट्टतं देसवदा सम्मत्तधरा केह चरितं ॥ २६३ ॥
॥ श्रागमण वण्ण्णा समत्ता ॥ १० ॥
अर्थ :- चौथी पृथिवी पर्यन्तके नारकी वहांसे निकलकर चरम-शरीरी, धूमप्रभा पृथिवी तकके जीव सकलसंयमी एवं छठी पृथिवी - पर्यन्तके नारकी जीव देशव्रती हो सकते हैं। सातवीं पृथिवीसे निकले हुए जीवोंमेंसे विरले ही सम्यक्त्वके धारक होते हैं ।। २९३ ।।
11 इसप्रकार श्रागमका वर्णन समाप्त हुआ || १०॥
नरकायुके बन्धक परिणाम
उस बंध-समये सिलो व सेलो व वेणु-मूले य । frferror कसा प्रोदयम्हि बंधेदि णिरयाउं ॥ २६४ ॥
१. द. ब. ज. क. छ. बालीसु । २. द. क. ज. ठ. दालीसु ३ द. व. क. ज. उ. सिलोन्य
४. ज. द. किंमिशउकसा उदयभि द कसानोदयंमि, क. कसाया उदयंमि ।
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