________________
२४८ }
तिलोयगणतो
[ गाथा : ३००-३०४ पर्य :--विषयों में आसक्त, मति-हीन, मानी, विवेक-बुद्धिसे रहित, मूर्ख, आलसी, कायर, प्रचुर माया-प्रपंच में संलग्न, निद्राशील, दूसरोंको ठगनेमें तत्पर, लोभसे अन्धा, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक एवं बहुसंज्ञा (आहार-भय-मैथुन और परिग्रह संज्ञानोंमें ) पासक्त जीव नील लेश्याको धारण कर धूमप्रभा पृथिवी पर्यन्त जन्म लेता है ।।२६८-२६६॥
अप्पाणं मण्णता अण्णं णिदेदि अलिय-दोसेहि । भीरू, सोक-विसण्णो परावमाणी असूया अ' ॥३०॥ अमुणिय-कज्जाकज्जो धूवंतो 'परम-पहरिसं वहइ । अप्पं पि बि मण्णंतो परं पि कस्स वि एण-पत्तिमई ॥३०१।। थुव्वंतो देइ धणं मरिदु बंछदि' समर-संघट्ट । काऊए संजुत्तो जम्मदि धम्मादि-मेघतं ॥३०२॥
|| पाऊ-बंधण-परिणामा समत्ता ।।११।। अर्थ :-जो स्वयंकी प्रशंसा और मिथ्या दोषोंके द्वारा दूसरोंकी निन्दा करता है, भीरु है, शोकसे खेद खिन्न होता है, परका अपमान करता है, ईर्ष्या ग्रस्त है, कार्य-अकार्यको नहीं समझता, चंचलचित्त होते हुए भी अत्यन्त हर्षका अनुभव करता है, अपने समान ही दूसरोंको भी समझकर किसीका भी विश्वास नहीं करता है, स्तुति करने वालोंको धन देता है और समर-संघर्षमें मरनेकी इच्छा करता है, ऐसा प्राणी कापोत लेश्यासे संयुक्त होकर घमासे मेघा पृथिवी पर्यन्त जन्म लेता है ।।३००-३०२।।
।। इसप्रकार आयु-बन्धक परिणामोंका कथन समाप्त हुअा ।।११।।
रत्नप्रभादि नरकोंमें जन्म-भूमियोंके प्राकारादि इंदय-'सेढीबद्ध-प्पइण्णयाणं हवंति उरिम्मि । बाहिं बहु अस्सि-जुदो अंतो वड्ढा अहोमुहा-कंठा ।।३०३।। चेटु दि जम्मभूमी सा घम्म पहुवि-खेत्त-तिदयम्मि । ट्टिय -कोत्थलि-कुभी-मोद्दलि-मोग्गर-मुइंग-णालि-णिहा ॥३०४॥
३. द. वदि ।
१. द.ब. क. ज.ट. मसूयाय। २. द, ब. ज. क. ठ, परमपहर सम्बहइ। ४. द. ब. ज. क. ठ. इंदियसेढी। ५ ६. उब्विय, ब, क ज. ठ. उत्तिय ।