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गाथा: ५५ - ५७ ]
विदुओ महाहियारो
इन्द्र एवं श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या
विशि-शिविसाणं गिलिदा अट्ठासीबी जुदा य तिण्णि सया । जुत्ता उपणववी समहिया
सीमंतएण
[ १५५
होंति ।। ५५ ।।
३८८ । ३८६ ।
अर्थ :- सभी दिशाओं और विदिशाओंके कुल मिलाकर तीनसौ अठासी श्रेणीबद्ध बिल हैं । इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल मिला देने पर सब तीनसौ नवासी होते हैं ।। ५५ ।।
विशेषार्थ :- प्रथम पृथिवीमें १३ पाथड़े ( पटल) हैं, उनमेंसे प्रथम पाथड़ेकी दिशा और विदिशाके गीबद्ध बिलोंको जोड़कर चार गुणा करनेपर सीमन्तक इन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध बिल ( ४६+४८= ६७ x ४ = ३८८ प्राप्त होते हैं और इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल और जोड़ देने से ( ३८८ + १ ) = ३८ ६ बिल प्राप्त होते हैं ।
क्रमशः श्ररणीबद्ध - बिलोंको हानि
उणवदी तिष्णि सथा पढमाए पदम - पत्थडे' होंति । मिवियादिसु हीयते माघवियाए पुढं पंच ॥ ५६ ॥
। ३८६ ।
अर्थ :- इसप्रकार प्रथम पृथिवीके प्रथम पाथड़े में इन्द्रकसहित श्रेणीबद्ध बिल तीनसी नवासी ( ३६ ) हैं । इसके आगे द्वितीयादिक पृथिवियों में हीन होते-होते माघवी पृथिवीमें मात्र पाँच ही बिल रह गये हैं ।। ५६ ।।
अट्ठाणं पि दिसाणं एक्केक्कं हीयते जहा- कमसो । एक्केषक - होयमाणे पंच च्चिय होंति परिहाणे || ५७||
अर्थ :- प्राठों ही दिशाओं में यथाक्रम एक-एक बिल कम होता गया है । इसप्रकार एक-एक बिल कम होनेसे अर्थात् सम्पूर्ण हानिके होनेपर अन्तमें पांच ही बिल शेष रह जाते हैं ।। ५७ ॥
विशेषार्थ :- सातों पृथिवियोंके ४६ पटल घीर ४६ ही इन्द्रक बिल हैं । प्रथम पृथिवीके प्रथम पटलके प्रथम इन्द्रककी एक-एक दिशा में उनचास उनचास श्रेणीबद्ध बिल और एक-एक
१. क. पंथडे 1 २. द. पर जियं व ठ. संरज्जियं । क. जं रज्जियं ।