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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५५-५६ विदिशामें अड़तालीस-अड़तालीस श्रेणीबद्ध बिल हैं तथा द्वितीयादि पटलसे सप्तम पृथिवीके अन्तिम पटल पर्यन्त एक-एक दिशा एवं विदिशामें क्रमश: एक-एक घटते हुए श्रेणीबद्ध बिल हैं, अतः सप्तम पृथिवीके पटलकी दिशाओंमें तो एक-एक श्रेणीबद्ध है किन्तु विदिशात्रोंमें उनका प्रभाव है इसीलिए सप्तम पृथिवीमें ( एक इन्द्रक और चार दिशाओंके चार श्रेणीबद्ध इसप्रकार मात्र ) पात्र बिल कहे गये हैं।
श्रेणीबद्ध बिलोंके प्रमाण निकालने की विधि इढिदयप्पमारणं रूऊणं 'अट्ठ-ताडिया रिणयमा ।
उणणवदीतिसएसुअवणिय सेसो 'हवंति तप्पडला ।।५।।
अर्थ :-इष्ट इन्द्रक प्रमाणमें से एक कम कर अवशिष्टको पाठसे गुणा करनेपर जो गुरणनफल प्राप्त हो उसे तीनसौ नवासीमेंसे घटा देनेपर नियमसे शेष विवक्षित पाथड़ेके श्रेणीबद्ध सहित इन्द्रकका प्रमाण होता है ।।५८॥
विशेषार्थ :-मानलो–इष्ट इन्द्रक प्रमाण ४ है । इसमें से एक कम कर ८ से गुणित करें, पश्चात् गुणनफलको ( प्रथम पृथिवीके प्रथम पापड़ेमें इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंकी संख्या) ३८६ मेंसे घटा देनेपर इष्ट प्रमाण प्राप्त होता है । यथा-इष्ट इन्द्रक प्रमाण (४ -१-३)x८=२४ । ३८६ -- २४-३६५ चतुर्थ पाथड़ेके इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण प्राप्त हुआ। ऐसे अन्यत्र भी जानना चाहिए ।
प्रकारान्तरसे प्रमाण निकालनेकी विधि अहवा
इच्छे' पदर-विहीरणा उणवण्णा अट्ठ-ताडिया णियमा ।
सा पंच-रूव-जुत्ता इच्छिद-सेदिदया होति ॥५६।। अर्थ :- अथवा इष्ट प्रतरके प्रमाणको उनचासमेंसे कम कर देनेपर जो अवशिष्ट रहे उसको नियमपूर्वक पाठसे गुणा कर प्राप्त राशिमें पांच मिलादें । इसप्रकार अन्तमें जो संख्या प्राप्त हो वहीं विवक्षित पटलके इन्द्रकसहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमारण होती है ।।५।।
विशेषार्थ :-कुल प्रतर प्रमाण संख्या ४६ मेंसे इष्ट प्रतर संख्या ४ को कमकर अवशेषको ८ से गुणित करें, पश्चात् ५ जोड़ दें । यथा---(४९ – ४ =४५)x==३६०+५= ३६५ विवक्षित
१. द. इट्टतदिया। २. द. 8. हुवंति। ३. [इ8 ] ।