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गाथा : ६०-६२ ] बिदुप्रो महायिारो
[ १५७ ( चतुर्थ ) पाथड़ेके इन्द्रक सहित श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण प्राप्त हुआ। ऐसे अन्यत्र भी जानना चाहिए।
इन्द्रक-बिलोंके प्रमाण निकालने की विधि उद्धि पंचोरणं भजिदं अट्रेहि सोधए लद्ध।
एगुणवण्णाहितो' सेसा तत्थिदया होति ॥६०॥ प्रर्थ : (किसी विवक्षित पटलके श्रेणीबद्ध सहित इन्द्रकके प्रमाणरूप) उद्दिष्ट संख्या से पाँच कम करके आठसे भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे, उसको उनचासमेंसे कम कर-देनेपर अवशिष्ट संख्याके बराबर वहाँके इन्द्रकका प्रमाण होला है ।। ६० ।।
विशेषार्थ :-विवक्षित पटलके इन्द्रक सहित श्रेणीबदोंके प्रमारणको उद्दिष्ट कहते हैं । यहाँ चतुर्थ पटलकी संख्या विवक्षित है, अत: उद्दिष्ट (३६५) में से ५ कम कर आठसे भाम दें । भागफल को सम्पूर्ण इन्द्रक पटल संख्या ४९ मेंसे कम कर देखें । यथा-उद्दिष्ट (३६५ – ५= ३६०):८४५; ४९ – ४५ - ४ चतुर्थ पटलके इन्द्रककी प्रमाण संख्या प्राप्त होती है ।
मादि (मुख), उत्तर (चय) और गच्छका प्रमारण आदीयो रिपबिट्टा रिणय-णिय-चरिमिंदयस्स' परिमाणं ।
सन्यत्थुत्तरमळं णिय-णिय-पवराणि गच्छारिए ॥६१॥ अर्थ :--अपने-अपने अन्तिम इन्द्रकका प्रमाण प्रादि कहा गया है, चय सर्वत्र पाठ है और अपने-अपने पटलोंका प्रमाण गच्छ या पद है ।।६।।
विशेषार्थ :- आदि और अन्त स्थानमें जो हीन प्रमाण होता है उसे मुख ( बदन ) अथवा प्रभव तथा अधिक प्रमाणको भूमि कहते हैं । अनेक स्थानोंमें समान रूपसे होने वाली वृद्धि अथवा हानिके प्रमाणको चय या उत्तर कहते हैं 1 स्थानको पद या गच्छ कहते हैं।
आदिका प्रमाण तेणववि-जुत्त-दुसया पण-जुद-दुसया सयं च तेत्तीसं । सत्तत्तरि सगतीसं तेरस रयणप्पहादि-प्रादीनो ॥६२॥
। २६३ । २०५ । १३३ । ७७ । ३७ । १३ ।
१. ठ. द. ब. ऊरणावणाहिती। क, अगाविणा। २. द. ठ. चरिमंदयस्य । क. ठ. सवाछु
सरमट्ट।