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तिलायपपणासी
[ गाथा : ७०-७४ अर्थ :-यहाँ अवपिणीके चतुर्थकालके अन्तिम भागमें तैतीस वर्ष, पाठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर वर्षके श्रावण नामक प्रथम माहमें कृष्णपक्षको प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्रके उदित रहनेपर धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥६८-६९॥
सावण-बहुले-पाडिव-रुद्दमुहुत्ते' सुहोदये' रविणो ।
अभिजिस्स पढम-जोए जुगस्स प्रादी इमस्स पुढं ॥७॥ अर्थ :-श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन रुद्रमुहूर्तके रहते हुए सूर्यका शुभ उदय होनेपर अभिजित् नक्षत्रके प्रथम योगमें इस युगका प्रारम्भ हुमा, यह स्पष्ट है ।।७।।
__ भावकी अपेक्षा अर्थकर्ता । णाणावरणप्पहुदी णिच्छय-ववहारपाय अतिसयए। संजादेण अणतं णाणेणं सणेण सोक्खेणं ॥७१॥ विरिएण तहा खाइय-सम्मत्तेरणं पि दाण-लाहेहिं ।
भोगोपभोग-णिच्छय-यवहारेहिं च परिपुण्णो ॥७२॥
अर्थ :-ज्ञानावरणादि चार-घातियाकर्मोके निश्चय और व्यवहाररूप विनाशके कारणोंकी प्रकर्षता होने पर उत्पन्न हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन चार-प्रनन्तचतुष्टय तथा क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिकउपभोग इसप्रकार नवल ब्धियोंके निश्चय एवं व्यवहार स्वरूपोंसे परिपूर्ण हुए ।।७१-७२!!
दसणमोहे गट्ट धादि-त्तिदए चरिस-मोहम्मि ।
सम्मत्त णाण-दसण-बीरिय-चरियाइ होंति खइयाइं ॥७३॥ अर्थ :-दर्शनमोह, तीन घातियाकर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) और चारित्रमोहके नन होनेपर ऋमसे सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य और चारित्र, ये पाँच क्षायिकभाव प्राप्त होते हैं ॥७॥
जादे अणंत-णाणे ण? छदुमट्ठिदियम्मि" णाणम्मि ।
णयविह-पदत्थसारो दिव्यझणी कहइ सुत्तत्थं ॥७४॥ अर्थ :-अनन्तज्ञान अर्थात् केवलज्ञानकी उत्पत्ति और छद्मस्थ अवस्थामें रहनेवाले मति, श्रत, अवधि एवं मनःपर्ययरूप चारों-ज्ञानोंका अभाव होनेपर नौ प्रकारके पदार्थों ( सात-तत्त्व और पुण्य-पाप) के सारको विषय करनेवाली दिव्यध्वनि सूत्रार्थको कहती है ।।७४।।
१. द. ब. सुद्द मुहत्ते। २. ब. सुहोदिए, क. सुहोदए । ३. द. प्रादीइ यिमस्स, क. प्रादी यिमस्स । ४. ब. परपुण्यो। ५. ६. ब. चदुमट्टिदिदम्मि ।