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तिलोयपत्ती
एक्क रस- वण्ण-गंधं दो पासा सह-कारणमसद्द | दंतरिवं यध्वं तं परमाणु भणंति बुधा ||१७||
[ गाथा : ९७ १०१
अर्थ :- जिसमें ( पाँच रसोंमेंसे ) एक रस, ( पांच वर्षों में से ) एक वर्ण, ( दो गंधों में से ) एक गंध श्रीर ( स्निग्ध- रूक्ष मेंसे एक तथा शीत-उष्ण में से एक ऐसे ) दो स्पर्श ( इसप्रकार कुल पांच गुण ) हैं और जो स्वयं शब्दरूप न होकर भी शब्दका कारण है एवं स्कन्धके अन्तर्गत है, उस द्रव्यको ज्ञानीजन परमाणु कहते हैं ||१७||
अंतावि - मज्झ हीरणं प्रपदेसं इंदिएहि ण हि 'गेज्झं ।
जं बन्धं प्रविभत्तं तं परमाणु कर्हति जिणा ||२८||
अर्थ :-- जो द्रव्य अन्त, आदि एवं मध्यसे विहीन, प्रदेशोंसे रहित ( अर्थात् एक प्रदेशी हो ), इन्द्रियद्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकने हर है उसे गिभग परमाणु
और
कहते हैं ||१८||
परमाणुका मुद्गलत्व
पुरंति गलंति जदो पुरण- गलशोहि पोग्गला तेण ।
परमाणु च्चिय जावा इय दिट्ठ बिट्टिवादम्हि ||६||
अर्थ :- क्योंकि स्कन्धोंके समान परमाणु भी पूरते हैं और गलते हैं, इसीलिए पूरण - गलन क्रियाओंके रहनेसे वे भी पुद्गलके अन्तर्गत हैं। ऐसा दृष्टिवाद अंग में निर्दिष्ट है || ९९ ॥ परमाणु पुद्गल ही है
वण्ण-रस-गंध-फासे पूरण-गलणाइ सध्व- कालम्हि ।
खंद पिव कुणमाणा परमाणू पुग्गला "तम्हा ॥ १०० ॥
अर्थ :- परमाणु स्कन्धकी तरह सब कालोंमें वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श, इन गुणोंमें पुरण- गलन किया करते हैं, इसलिए वे पुद्गल ही हैं ||१०० ॥
नय अपेक्षा परमाणुका स्वरूप
प्रादेस-मुत्तमुत्तो ' धातु- चउक्कस कारणं जो दु ।
सो यो परमाणू परिणाम - गुणो य खंदस्स ॥ १०१ ॥
१. द. क. ज. ठ. सोमं । २. द. ज. य. तस्स । ३. द. ज. ऊ धाउ । ४ द. क. ठ. जादु