________________
गाथा : १०२-१०७ ] पढमो महाहियारो
[ २३ अर्थ :---जो नय विशेषकी अपेक्षा कथंचित् मूर्त एवं कथंचित् अमूर्त है, चार धातुरूप स्कन्धका कारण है और परिणमन-स्वभावी है, उसे परमाणु जानना चाहिए ।।१०१।।
___उवसन्नासन्न स्कंधका लक्षरण परमाणूहिं अणंताणतेहि बहु-विहेहि-दन्वेहि ।
'उवसप्रणासष्णो ति य सोखंदो होदि पामेण ।।१०२॥ प्रर्थ : नानाप्रकारके अनन्तानन्त परमाणु-द्रव्योंमे उबसनासम्म नामसे प्रसिद्ध एक स्कन्ध उत्पन्न होता है ।। १०२॥
सत्रासनसे अंगल पर्यन्त के लक्षण 'उवसण्णासण्णो वि य गुरिणदो अट्ठोहि होदि णामेण । सण्णासण्यो ति तदो दु इदि खंधो पमाण? ॥१०३।। 'अट्ठोहि गुणिदेहि सण्णासण्णेहि होदि सुडिरेणू । तित्तिय-मेत्तहदेहि तुडिरेणूहि पि तसरेणू ॥१०४।। तसरेण रथरेण उत्तम-भोगावणीए वालग्ग । मज्झिम-भोग-खिदीए वालं पि जहण्ण-भोग-खिदिवालं ।।१०।। कम्म-महीए वालं लिक्खं जूवं जवं च अंगुलयं ।
इगि-उत्तरा य भणिदा पुन्यहि अट्ठ-गुणिदेहि ॥१०६।। अर्थ :-उवसनासनको भी पाठसे मुरिणत करनेपर सन्नासन्न नामका स्कन्ध होता है अर्थात् आठ उवसनासन्नोंका एक सन्नासन्न नामका स्कन्ध होता है। पाठसे गुरिणत सनासनों अर्थात् पाठ सम्नासनोंसे एक श्रुटिरेणु और इतने ( पाठ ) ही त्रुटिरेणुभोंका एक प्रसरेण होता है। त्रसरेणुसे पूर्व पूर्व स्कन्धों द्वारा पाठ पाठ गुरिगत रथरेणु, उत्तमभोगभूमिका बालाग्र, मध्यम-भोगभूमिका चालान, जघन्य-भोगभूमिका बालान, कर्म-भूमिका बालाग्र, लोख, जू', जौ और अंगुल, ये उत्तरोत्तर स्कन्ध कहे गये हैं ।।१०३-१०६।।
अंगुलके भेद एवं उत्सेधांगुलका लक्षण तिवियप्पमंगुलं तं उच्छेह-पमाण-अप्प-अंगुलयं ।
परिभासा-णिप्पण्णं होदि हु'उच्छेह-सूइ-अंगुलियं ॥१०७॥ १. द. ज. स. प्रोसपणामणो। २. द. के. अटे, ज. ठ, प्र?दि। ३. द. ज. क. 2. उदिसेहमूवि अगुलयं ।