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गाथा : २१२-२१६ ] तदिनो महाहियारो
[ ३२५ सप्तादि-धातुओंका एवं रोगादिका निषेध अट्ठि-सिरा-रुहिर-घसा-मुत्त-पुरीसाणि केस-लोमाई ।
'चम्म-बह-मस-पहुवी ण होति देवारण संघडणे ॥२१२॥
अर्थ :-देवोंको शरीर रचनामें हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मूत्र, मल, केश, रोम, चमड़ा, नख और मांस आदि नहीं होते हैं ॥२१२॥
वष्ण-रस-पंध-फासे' अइसय-बेकुब्ब-दि-ब-खंदा हि ।
णेदेसु रोयवावि-उपठिदी कम्माणुभावेण ॥२१३।।
मर्थ :-उन देवोंके वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्शके विषयमें अतिशयताको प्राप्त वैऋियिक दिव्य-स्कन्ध होते हैं, अतः कर्मके प्रभावसे रोग आदिकी उत्पत्ति नहीं होती है ।।२१३॥
भवणवासियोंमें उत्पत्ति समारोह 'उप्पण्णे सुर-भवणे पुव्वमणुग्धाउिदं कयारण-जुगं । उघडदि तम्मि समए पसरदि पाणंद-भेरि-रयो ॥२१४॥
प्रायफ्णिय भेरि-रवं ताणं वासम्हि कय-जयंकारा । एंति परिवार-देवा देवीयो पमोद-भरिदाश्रो ॥२१५।।
यायंता जयघंटा-पडह-पड़ा-किदिबसा य गायति ।
संगीय-गट्ट-मागध-देवा एदार देवीप्रो ॥२१६॥
अर्थ :-सुरभवनमें उत्पन्न होनेपर पहिले अनुद्घाटित दोनों कपाट खुलते हैं और फिर उसी समय प्रानन्द भेरीका शब्द फैलता है । भेरीके शब्दको सुनकर पारिवारिक देव और देवियाँ हर्षसे परिपूर्ण हो जयकार करते हुए उन देवोंके पास पाते हैं। उस समय किल्विषिक देव' जयघण्टा, पटह और पट बजाते हैं तथा संगीत एवं नाट्यमें चतुर मागध देव-देवियाँ गाते हैं ॥२१४-२१६।।
१. द. व. के. चम्मह, ज. ठ. पंचमह। २. द. क. ज. ठ, पासे। ३. गेहेसु रोपवादि-उठिदि, क. ज. छ. गेण्हेसु रोयवादि उवविदि। ४. द. ब. क. ज. छ. उप्पण-सुर-विमाणे ।