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तिलोय पण्णत्ती
निवास स्थानोंके भेद एवं स्वरूप
सुराण होदि तिविहा गं ।
भरणा शनण-पुराण रयण पहाए भवणा बीब-समुद्दाण उबरि भवणपुरा ||२२|| दह- सेल - कुमादी रम्माणं उवरि होंति श्रावासा जागादीण केसि तिय- खिलया भवामेवकमसुराणं ॥२३॥
[ गाथा : २२-२४
|| भवरण - वण्णरणा समता ||८||
अर्थ :- भवनवासी देवोंके निवास स्थान भवन, भवनपुर और प्रावासके भेदसे तीन प्रकार के होते हैं । इनमेंसे रत्नप्रभा पृथिवीमें भवन, द्वीप समुद्रोंके ऊपर भवनपुर एवं रमणीय तालाब, पर्वत तथा वृक्षादिकके ऊपर आवास हैं । नागकुमारादिकोंमेंसे किन्हीं के भवन, भवनपुर एवं श्रावास - रूप तीनों निवास हैं परन्तु असुरकुमारोंके केवल एक भवनरूप ही निवास स्थान होते हैं ।।२२-२३ ।। 11 का वर्णन समाप्त हुआ ||८||
पद्धिक, महद्धक र मध्यम ऋद्धिधारक देवोंके भवनों के स्थान
प्रष्प-महद्धिय-मज्झिम-भावण देवाण होंति भवणाणि ।
दुग- बादाल- सहस्सा लक्खमधोधो खिदीए गंतूणं ॥ २४ ॥ ।
२००० | ४२००० | १००००० ।
|| अप्पमहद्धिय-मज्झिम भावण देवाण रिणवास-खेत्तं समत्तं ॥९॥
अर्थ : अपद्धिक, महद्धिक एवं मध्यम ऋद्धिके धारक भवनवासी देवोंके भवन क्रमशः
चित्रा पृथिवीके नीचे-नीचे दो हजार, बयालीस हजार और एक लाख योजन- पर्यन्त जाकर हैं ||२४||
विशेषार्थ :- चित्रा पृथिवी से २००० योजन नीचे जाकर अल्पऋद्धि धारक देवोंके ४२००० योजन नीचे जाकर महाऋद्धि धारक देवोंके और १००००० योजन नीचे जाकर मध्यम ऋद्धि धारक भवनवासी देवोंके भवन हैं ।
इसप्रकार प्रपद्धिक, महर्दिक एवं मध्यम ऋद्धिके धारक भवनवासी देवोंका निवास क्षेत्र समाप्त हुआ ।। 8 ।।
१. द. भुवरण ।