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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १६५ - १६६
कर देना चाहिए | इसके अतिरिक्त पहली पृथिवीके नीचे और दूसरी पृथिवीके ऊपर एक-एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्रमें नारकियोंके बिल न होनेसे इन दो हजार योजनोंको भी कम कर देने पर (१८००००+ ३२००० - ३००० ) = शेष २०६००० योजनोंसे रहित एक राजू प्रमाण पहली पृथिवी के प्रति (विक्रान्त) और दूसरी पृथिवीके प्रथम ( स्तन ) इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तराल रहता है ।
तीसरी पृथिवी से छठी पृथिवी तक परस्थान अन्तराल दु- सहस्स - जोयराधिय- रज्जू तवियादि - पुढवि-रुणं । छट्टो त्ति 'परट्ठासो विच्चाल - पमाणमुद्दिट्ट ॥ १६५॥
अर्थ :- दो हजार योजन श्रधिक एक राजूमेंसे तीसरी श्रादि पृथिवियोंके बाहुल्यको घटा देनेपर जो शेष रहे उतना छठी पृथिवी पर्यन्त ( इन्द्रक बिलोंके ) परस्थानमें अन्तरालका प्रमाण कहा गया है ।। १६५ ।।
विशेषार्थ :- गाथामें एक राजूमें दो हजार योजन जोड़कर पश्चात् पृथिवियोंका बाहुल्य घटाने का निर्देश है किन्तु १७० श्रादि गाथाओं में बाल्य से २००० योजन घटाकर पश्चात राजूमेंसे कम किया गया है । यथा-
१ राज
२६००० योजन |
छठी एवं सातवीं पृथिवीके इन्द्रकों का परस्थान अन्तराल सम-कवि-रूऊणद्ध रज्जु-जुदं चरिम भूमि-रुणं ।
"मघस्सि चरिम - इंदय - प्रवहिद्वाणस्स विच्चालं ॥१६६॥
अर्थ :---सौ के वर्गमेंसे एक कम करके शेषको आधा कर और उसे एक राजूमें जोड़कर लब्धमेंसे अन्तिम भूमिके बाल्यको घटा देनेपर मघवी पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक और (माधवी पृथिवीके) . अवधिस्थान इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तरालका प्रमाण निकलता है ।। १६६ ।।
विशेषार्थ :- सौ के वर्गमेंसे एक घटाकर आधा करनेपर - (१०० - १ = ६६६६ ) ÷ २८४६६६३ योजन प्राप्त होते हैं । इन्हें एक राजूमें जोड़कर लब्ध ( १ राजू + ४९९९३ यो० ) में से अन्तिम भूमिके बाहत्य ( ८००० यो० ) को घटा देनेपर ( १ राजू +४९९९३ यो० ) --- ८००० यो० = १ राजू – ( ८००० यो० – ४६६६३ यो० ) = १ राजू – ३०००३ योजन छटी पृथिवीके अन्तिम लल्लक इन्द्रक और सातवी पृ० के अवधिस्थान इन्द्रकके परस्थान अन्तरालका प्रमाण प्राप्त होता है ।
१. ब. परिट्टा २. द. ज. ठ. मघवस्स ।