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गाथा : १६७-१६६ ] विदुप्रो महायिारो
[ २०१ पहली पृथिवीके इन्द्रक-बिलोंका स्वस्थान अन्तराल पवणवदि-जुव-घउस्सय-छ-सहस्सा जोयणावि बे कोसा। एक्करस-कला-बारस-हिदा य घम्भिवयारण विच्चालं ॥१६७॥
जो ६४६६ । को २ । । अर्थ :--धर्मा पृथिवी के इन्द्रक बिलोंका अन्तराल छह हजार चार सौ निन्यानबै योजन, दो कोस और एक कोसके बारह भागोंमेंसे ग्यारह-भाग प्रमाण है ॥१६७||
विशेषार्थ :-गाथा १५६-१६२ के नियमानुसार पहली पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल (५०००० - २०००) x ४ – (१x१३) =६४९९३५ योजन अथवा ६४९९ योजन २३
(१३ - १)x४ कोस है।
पहली और दूसरी पृथिवियोंके इन्द्रक-बिलोंका परस्थान अन्तराल रयणप्पह-चरमिदय-सक्कर-पुढविदयाण विच्चालं । दो-लक्ख-णव-सहस्सा जोयण-हीणेकक-रज्जू य ॥१६॥
छ । रिण । जो २०६००० । अर्थ :-रत्नप्रभा पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक श्रीर शर्करा प्रभाके प्रादि ( प्रथम ) इन्द्रकविलोंका अन्तराल दो लाख नौ हजार ( २०६००० ) योजन कम एक राजू अर्थात् १ राजू - २०९००० योजन प्रमाण है ॥१६॥
दूसरी पृथिवीके इन्द्रकोंका स्वस्थान अन्तराल एक्क-विहीणा जोयण-ति-सहस्सा धणु-सहस्स-चत्तारि । सत्त-सया बसाए एक्कारस-इंदयाण विच्चालं ॥१६॥
जो २६९L | दंड ४७००। प्रर्थ :-वंशा पृथिवीके ग्यारह इन्द्रक बिलोंका अन्तराल एक कम तीन हजार योजन और चार हजार सातसौ धनुष प्रमाण है ।।१६६।।