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गाथा : ३४-३७ ] विदुयो महाहियारो
[ १४६ बिलोंकी अति दुर्गन्धताका वर्णन अज-गज-महिस तुरंगम-खरो?-मज्जार-अहि-णरादीपं ।
कुहिदाणं गंधादो णिरय-बिला ते अणंत-गुणा ॥३४॥ अर्थ :-नारकियोंके वे बिल बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊँट, बिल्ली, सर्प और मनुष्यादिकके सड़े हुए शरीरोंके गंधकी अपेक्षा अनन्तगुणी दुर्गन्धसे युक्त हैं ॥३४।।
__ बिलोंकी अति-भयानकताका वर्णन करवत्तकं छरीदों' खइरिंगालाति-तिक्ख-सूईए ।
कुजर-चिक्कारादो गिरय-बिला वारुण-तम-सहावा ॥३५॥ अर्थ:-स्वभावतः अन्धकारसे परिपूर्ण-नारकियोंके ये बिल करीत या प्रारी, छरिका, खदिर (खैर) के अंगार, प्रतितीक्ष्ण सुई और हाथियोंकी चिंघाड़से अत्यन्त भयानक हैं ।।३।।
बिलोंके भेद इंदय सेढीबद्धा पइण्याइ य हवंति 'तिवियप्पा ।
ते सव्वे णिरय-बिला दारुण-दुक्खाण संजणणा ॥३६॥
अर्थ :-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकके भेदसे तीन प्रकारके ये सभी नरकबिल नारकियोंको भयानक दुःख उत्पन्न करनेवाले होते हैं ॥३६॥
विशेषार्थ : सातों नरक पृथिवियोंमें जीवोंको उत्पत्ति स्थानोंके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक--ये तीन नाम हैं । जो अपने पटलके सर्व बिलोंके ठीक मध्यमें होता है, उसे इन्द्रक बिल कहते हैं । इन्द्रक बिलकी चारों दिशात्रों एवं विदिशात्रों में जो बिल पंक्तिरूपसे स्थित हैं उन्हें श्रेणीबद्ध तथा जो श्रेणीबद्ध बिलोंके बीचमें बिखरे हुए पुष्पोंके समान यत्र तत्र स्थित हैं उन्हें प्रकीर्णक
रत्नप्रभा-प्रादिक-पृथिवियोंके इन्द्रक-विलोंकी संख्या तेरस-एक्कारस-णव-सग-पंच-ति-एक्कईदया होति ।
रयणप्पह-पहुदोसु पुढवीसु प्राणु-पुन्योए ॥३७॥ - .
१. द. ठ, करवकय छुरीदो। क. कुरवकयधुरीदो। [ कक्षककवारणारिदो ] । २. द. ब. खरिगालातिक्वसूईए। ३. द. व. ह्वति वियप्पा ।