________________
१४८ ]
तिलोयपगत्ती
[ गाथा : ३१-३३ । उष्ण एवं शीतबिलोंकी संख्या वासोदीलक्खाणं उण्ह-बिला पंचवीसदि-सहस्सा। . पणहरि सहस्सा अदि-'सीद-बिलारिण इगिलक्खं ।।३१।।
८२२५००० । १७५००० अर्थ :- नारकियोंके उपर्युक्त चौरासीलाख बिलोंमेंसे बयासीलाख पच्चीस हजार बिल डारण और एक लाख पचहत्तर हजार विल अत्यन्त शीत हैं ।।३१।।
विशेषार्थ :- रत्नप्रभापृथिवीके बिलोंसे चतुर्थपृथ्वी पर्यन्तके बिल एवं पाँचवीं धूमप्रभा पृथिवीको बिल राशिके तीनबटेचारभाग (२००१००५३), अर्यात् ३० लाख + २५ लाख + १५ लाख+ १० लाख + २२५००० -- ८२२५००० बिलों पर्यन्त अति उष्ण वेदना है। पांचवीं पथिवीके शेष विलोंके एक बटे चारभाग (२००९१०x१) से सातवीं पृथिवी पर्यन्त बिल अर्थात् ७५००० +९९९९५ + ५=१७५००० बिलोंमें अत्यन्त शोत वेदना है।
बिलोंकी अति उष्णताका वर्णन मेरु सम-लोह-पिडं सौदं उण्हे बिलम्मि पक्खित्तं ।
ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे मयण-खंडं व ॥३२।। अर्थ :-उष्ण बिलोंमें मेरुके बराबर लोहेका शीतल पिण्ड डाल दिया जाय, तो वह तलप्रदेश तक न पहंचकर बीच में ही मैंगण (मोम) के टुकड़े के सदृश पिघलकर नष्ट हो जायगा । तात्पर्य यह है कि इन बिलोंमें उष्णताकी वेदना अत्यधिक है ॥३२॥
बिलोंकी अति-शीतलताका वर्णन मेरु-सम-लोह-पिडं उण्हं सोदे बिलम्मि पक्खितं ।
ण लहदि तलप्पदेसं विलीयदे लवण-खंडं व ॥३३॥
अर्थ :-इसीप्रकार, यदि मेरुपर्वतके बराबर लोहेका उष्ण पिण्ड उन शीतल बिलोंमें डाल दिया जाय, तो वह भी तल-प्रदेश तक नहीं पहुंचकर बीचमें ही नमकके टुकड़े के समान विलीन हो जावेगा ।।३३1
१. द. ब. प्रदिसीदि।