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१२ ] तिलोयपपणती
[ गाथा ५०-५३ अर्थ :-तीर्थंकरों (अरिहन्तों) और सिद्धोंके अतीन्द्रिय, अतिशयरूप आत्मोत्पन्न, अनुपम तथा श्रेष्ठ सुखको निःश्रेयस-सुख कहते हैं ।।४९।।
__। इसप्रकार मोक्ष सुखका कथन समाप्त हुआ ।।
श्रुतज्ञानकी भावनाका फल सुदणाण-भावणाए णाणं मत्तंड-किरण-उज्जोयो ।
चंदुज्जलं चरित णियवस-चित्त हवेदि भब्वाणं ॥५०।।
अर्थ :-श्रुतज्ञानको भावनासे भव्य जीवोंका ज्ञान सूर्यको किरणोंके समान उद्योतरूप अर्थात् प्रकाशमान होता है; चरित्र चन्द्रमाके समान उज्ज्वल होता है तथा चित्त अपने बशमें होता है ॥५०।।
परमागम पढ़ने का फल कणय-धराधर-धीरं मूढ-त्तय-विरहिवं 'हयटुमलं ।
जायदि पवयण-पढणे सम्म सगमणुवमाणं ॥५१।।
अर्थ :-प्रवचन (परमागम) के पढ़नेसे सुमेरुपर्वतके समान निश्चल' ; लोकमूढता, देवमूढता और गुरुमुढता, इन तीन (मूढताओं) से रहित और शंका-कांक्षा आदि पाठ दोषोंसे विमुक्त अनुपम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है ।।५।।
आर्ष वचनोंके अभ्यासका फल सुर-खेयर-मणुवाणं लभंति सुहाई प्रारिसन्भासा' । तत्तो णियाण-सुहं णिण्णासिव दारुणट्ठमला ॥५२।।
॥ एवं हेदु-मादं ।। अर्थ :-पार्ष वचनोंके अभ्याससे देव, विद्याधर तथा मनुष्यों के सुख प्राप्त होते हैं और अन्तमें दारुण प्रष्ट कर्ममलसे रहित मोक्षसुखकी भी प्राप्ति होती है ॥५२॥
। इसप्रकार हेतुका कथन समाप्त हुआ ।
श्रुतका प्रमाण विविहत्थेहि अणंत संखेज्ज अक्षराण गरणरणाए । एदं पमाणमुदिदं सिस्सारणं मइ-वियासयरं ।।५३।।
॥पमाणं गदं ॥
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१. द. हय मग्गमलं । क. ज. ठ. हयगमलं । म. हट्ठमय।
२. द. ब. परिसंभासा ।