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विद्वानों ने स्वीकार किया है कि अभी भी इस काल निर्णय को निश्चित नहीं कहा जा सकता है मोर श्रागे सुदृढ़ प्रमाण मिलने पर इसे निश्चित किया जाये । प्राचार्य शिवार्य, वट्टकेर, कुन्दकुन्द श्रादि ग्रंथरचयिताओं के वर्ग में यतिवृषभ प्राचार्य आते हैं जिनका ग्रंथ आगमानुसारी ग्रंथ समूह में श्राता है जो में संग्रहीत आगम के कुछ प्रार्थी द्वारा अप्रामाणिक एवं स्याज्य माने जाने के पश्चात् आचार्य परम्परा के ज्ञानाधार से स्मृतिपूर्वक लेख रूप में संग्रहीत किये गये । उनकी पूर्ववर्ती रचनाएं क्रमश: अग्गायणिय, दिट्टिवाद, परिकम्म, मूलायार, लोयविरिच्छय लोय विभाग लोगाइणि, रही हैं ।
१. गणित परिचय :
सन् १९५२ के लगभग डा० हीरालाल जैन द्वारा मुझे तिलोयपण्णत्ती के दोनों भागों के गणित संबंधी प्रबन्ध को तैयार करने के लिए कहा गया था। इन पर तिलोयपत्ती का गणित' प्रबन्ध तैयार कर 'जम्बूदीवपण्णत्ती संगही' १६५८ में प्रकाशित किया गया । उसमें कुछ अशुद्धियाँ रह गईं थीं जिन्हें सुधार कर यह प्रायः १०५ पृष्ठों का लेख वितरित किया गया था। वह लेख सुविस्तृत था तथा तुलनात्मक एवं शोधात्मक था । यहाँ केवल रूपरेखायुक्त गणित का परिचय पर्याप्त होगा ।
तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ में जो सूत्रबद्ध प्ररूपण है उसमें परिणाम तथा गणितीय (करण) सूत्र दिये गये हैं तथा उनका विभिन्न स्थलों में प्रयोग भी दिया गया है । ये सूत्र ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है | श्रागम - परम्परा प्रवाह में आया हुआ यह गणितीय विषय अनेक वर्ष पूर्व का प्रतीत होता है । क्रियात्मक एवं रैखिकीय, अंकगणितीय एवं बीजगणितीय प्रतीक भी इस ग्रन्थ में स्फुट रूप से उपलब्ध है जिनमें से कुछ हो सकता है, नेमिचंद्राचार्य के ग्रन्थों की टीकाएँ बनने के पश्चात् जोड़ा गया हो ।
सिंहावलोकन के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि जो गणित इस ग्रन्थ में वरिणत है वह सामान्य लोकप्रचलित गणित न होकर लोकोत्तर विषय प्रतिपादन हेतु विशिष्ट सिद्धान्तों को आधार लेकर प्रतिपादित किया गया है । यथा : संख्याओं के निरूपण में सख्यात, श्रसंख्यात एवं अनन्त प्रकार वाली संख्याएँ--राशियों का प्रतिनिधित्व करने हेतु निष्पन्न की गई है। उनके दायरे निश्चित किये गये हैं, उन्हें विभिन्न प्रकारों में उत्पन्न करने हेतु विधियाँ दी गई हैं, और उन्हें संख्यात से यथार्थ असंख्यात रूप में लाने हेतु असंख्यातात्मक राशियों संख्यानों को युक्त किया गया है। इसीप्रकार असंख्यात से यथार्थ अनन्तरूप में लाने के लिए संख्याओं को अनन्तात्मक राशियों से युक्त किया गया है । यह संख्याप्रमाण है। इसीप्रकार उपमा प्रमाण द्वारा राशियों के परिमाण का बोध किया गया है।