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गाथा : ४१-४४ ]
तदिनो महाहियारो वेदीणभंतरए वण-संढा वर-विचित्त-तरु-णियरा । पुक्खरिणोहि समग्गा तप्परदो दिव-वेदीनो' ॥४१॥
।। कूड़ा गदा ॥१२॥
प्रर्ष :--वेदियोंके भीतर उत्तम एवं विविध प्रकारके बृक्ष-समुह और वापिकानों से परिपूर्ण वन-समूह हैं तथा इनके आगे दिव्य वेदियाँ हैं ॥४१॥
॥ इसप्रकार कूटोंका वर्णन समाप्त हुअा ।।१२।।
कूटोंके ऊपर स्थित-जिन-भवनोंका निरूपरग फूडोवरि पक्कं जिणवर-भवणं 'हवेदि एक्केक्कं । वर-रयण-कंचणमयं विचित्त-विष्णास'-रमणिज्जं ॥४२॥
अर्थ :- प्रत्येक कुटके ऊपर उत्तम रत्नों एवं स्वर्णसे निर्मित तथा विचित्र विन्याससे रमणीय एक-एक जिनभवन है ॥४२॥
चउ-गोउरा ति-साला वीहि पडि माणथंभ-णव-थहा । घण"-धय-चेत्त-खिदीयो सन्वेसु जिण-णिकेदेसु ॥४३॥
अर्थ :- सब जिनालयों में चार-चार गोपुरोंसे संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ एवं नौ स्तूप तथा ( कोटोंके अन्तरालमें क्रमश: ) वन, ध्वज और चैत्य-भूमियाँ हैं ॥४३।।
गंदादिलो ति-मेहल ति-पीढ-पुष्याणि धम्म-विभवाणि । चउ-वण-मझेसु ठिदा चेत्त-तरू तेसु सोहंति ॥४४॥
प्रयं:-उन जिनालयोंमें चारों वनोंके मध्यमें स्थित तीन मेखलाओंसे युक्त नन्दादिक बापिकायें एवं तीन पीठोंसे संयुक्त धर्म-विभव तथा चैत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं ।।४४।।
१. द. दिवदेवीओ । २. व. हुवेदि । ३. द. व. क, विणणाणरमरिणज। ४. द. ब. क. ज. ठ. ५. ब. क. ज. ठ. रावधय ।
परि।