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का प्रचार यूनान के पिथेगोरस की स्मृति ताजी करती है । ॐ ज्यामिति में अनुपात सिद्धान्त का तिलोयपत्ती में विशेष प्रयोग हुआ है । लोकाकाश का धनफल निकालने की प्रक्रिया को विस्तृत किया गया है और भिन्न-भिन्न रूप की आकृतियाँ लोक के घनफल के समान लेकर छोटी आकृतियों से उन्हें पूरित कर घनफल की उनमें समानता दिखलाई गई हैं। इस प्रकार लोक को प्रदेशों से पूरित कर, छोटी कतियों से पूरित कर तो विक्षि जैनाचार्यों ने प्रयुक्त की हैं वे गणितीय इतिहास में अपना विशेष स्थान रखेंगी ।
जहां तक ज्योतिर्लोक विज्ञान की विधियाँ हैं वे तिलोयपण्णत्ती अथवा ग्रन्य करणानुयोग ग्रन्थों में एक सी हैं । समस्त श्राकाश को गगनखण्डों में विभाजित कर मुहूर्तों में ज्योतिबिम्बों की स्थिति, गति, सापेक्ष गति, वीथियां श्रादि निर्धारित की गयीं। इनमें योजन का भी उपयोग हुआ । योजन शब्द कोई रहस्यमय योजना से सम्बन्धित प्रतीत होता है। ऐसा ही चीन में "ली" शब्द से अभिप्राय निकलता है । अंगुल के माप के आधार पर योजन लिया गया, और अंगुल के तीन प्रकार होने के कारण योजन के भी तीन प्रकार हो गये होंगे। सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों के भ्रमण में दैनिक एवं वार्षिक गति को मिला लिया गया । इससे उनकी वास्तविक वीथियाँ वृत्ताकार न होकर समापन एवं असमापन कु तल रूप में प्रकट हुईं। जहां तक ग्रहों और सूर्य चन्द्रमा की पृथ्वीतल से दूरी का संबंध है, उनमें प्रयुक्त योजन का अभिप्राय वह नहीं हैं जैसा कि हम साधारणतः सोचते हैं और जमीन के ऊपर की ऊँचाई चन्द्र, सूर्य की ले लेते हैं। वे उक्त ग्रहों की पारस्परिक कोणीय दूरियों के प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं। इस विषय पर शोध लगातार चल रही है । यह भी जानना श्रावश्यक है कि इस प्रकार योजन माप में चित्रातल से जो दूरो ग्रह श्रादि को निकाली गयी वह विधि क्या थी और उसका प्राधार क्या था । क्या यह दूरी छायामाप से ही निकाली जाती थी अथवा इसका श्रीर कोई प्राधार था ? सज्जनसिंह लिक एवं एस. डी. शर्मा ने इस विधि पर शोध निबन्ध दिये हैं जिनसे उनकी मान्यता यह स्पष्ट होती है कि ये ऊँचाईयाँ सूर्य पथ से उनकी कोरणीय बूरियां बतलाती होंगी । किन्तु यह मान्यता केवल चन्द्रमा के लिये अनुमानत: सही उतरती है ।
योजन के विभिन्न प्रकार होने के साथ ही एक समस्या और रह जाती है । वह है रज्जु के माप को निर्धारित करने की। इसके लिए रज्जु के अद्धं च्छेद लिए जाते हैं और इस संख्या का संबंध चन्द्रपरिवारादि ज्योतिबिम्ब राशि से जोड़ा गया है। इसमें प्रमाणांगुल भी शामिल होते हैं जिनकी प्रदेश संख्या का मान पत्य समयराशि से स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार रज्जु का मान
देखिये, “तिलोयपणती का गणित" जम्बूदीपत्तीसंगो, झोलापूर, १९५८ ( प्रस्तावना ) १-१०५ तथा देखिये "गरिता संग्रह", शोलापुर, १९६३ (प्रस्तावना )