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तिलोयपण्णती
[ गाथा : ६८-१०० चउवीस-वीस-बारस-अट्ट-पमारणारिस होंति लक्खाणि ।
सय-कदि-हद'-चवीसं सीदि-सहस्सा य चउ-हीणा ॥९॥ २४००००० । २०००००० । १२००००० । ८००००० । २४०००० । ७९९९६ ।
चत्तारि 'च्चिय एदे होंति असंखेज्ज-जोयणा दा । रयणप्पह-पहुदीए कमेण सव्वाण पुढवीणं ॥६॥
अर्थ :-रत्नप्रभादिक-पृथिवियोंमें क्रमश: चौबीस लाख, बीस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चौबीससे गुणित सौ के वर्ग प्रमाण अर्थान् दो लाख चालीस हजार, चार कम अस्सी हजार और चार, इतने बिल असंख्यात योजन प्रमारण विस्तार वाले हैं ।।९८-९९॥
विशेषार्ष: रत्नप्रभादिक प्रत्येक पृथिवीके कुल बिलोंके वें भाग प्रमाण बिल असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । यथा
पहली--पृ० में–३०००००० का ३ - २४००००० बिल असंख्यात यो० विस्तार वाले। दूसरी- , --२५००००० का २०००००० तीसरी-, -१५००००० का ३=१२००००० । चौथी -- , -१०००००० का ३६००००० पाँचवीं-- , -३० ०००० का =२४०००० छठी- , -६६६६५ का ३=७६६६६ सातवीं-,, -५ का ३-४
सर्व बिलोंका तिरछे रूपमें जघन्य एवं उत्कृष्ट अन्तराल संखेज्ज-हंद-संजुद-णि रय-बिलारणं जहण्ण-विच्चालं । छक्कोसा तेरिच्छे उक्कस्से 'संदुगुणिदं तु ॥१०॥
को ६ । १२ ।
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१. द. सयकदिदि । २. द. रचिय, ब. रविन । ३. ६. जहण-विस्थारं। ४. ६. ब. दुगुरिणदो।