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ही स्वीकार करने की दृष्टि रही है सर्वत्र । प्रतियों के पाठान्तर टिप्पण में अंकित कर दिए हैं। हिन्दी टीका के विशेषार्थ में तो सही पाठ या संशोधित पाठ की ही संगति बैठती है, विकृत की नहीं । कहीं कहीं सब प्रतियों में एकसा विकृत पाठ होते हुए भी गाथा में शुद्ध पाठ ही रखा गया है।
गणित और विषय के अनुसार जो संदृष्टियाँ शुद्ध हैं उन्हें ही मूल में ग्रहण किया गया है, विकृत पाठ टिप्पणी में दे दिये हैं ।
पाठालोचन और पाठसंशोधन के नियमों के अनुसार ऐसा करना यद्यपि अनुचित है तथापि व्यावहारिक दृष्टि से इसे श्रतीव उपयोगी जानकर अपनाया गया है ।
कानड़ी लिपि से लिप्यन्तरणकर्त्ता को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है, उनका उल्लेख प्रति के परिचय में किया गया है; हमारे समक्ष तो उनकी ताजा लिखी देवनागरी लिपि ही थी ।
प्राकृत भाषा प्रभेदपूर्ण है और इसका व्याकरण भी विकसनशील रहा है अत: बदलते हुए नियमों के आधार पर संशोधन न कर प्राचीन शुद्ध रूप को ही रखने का प्रयास किया है। इस कार्य श्री हरगोबिन्द शास्त्री कृत पाइअसद्दमहणयों से पर्याप्त सहायता मिली है । यथासम्भव प्रतियों का शुद्ध पाठ ही संरक्षित हुआ है ।
प्रथमबार सम्पादित प्रति में सम्पादकद्वय ने जो सम्भवनीय पाठ सुझाए थे उनमें से कुछ ताड़पत्रीय कानड़ी प्रतियों में ज्यों के त्यों मिल गए हैं। वे तो स्वीकार्य हुए ही हैं। जिनगाथाओं के छूटने का संकेत सम्पादक द्वय ने किया है, वे भी इन कानड़ी प्रतियों में मिली हैं और उनसे अर्थ प्रवाह की संगति बैठी है । प्रस्तुत संस्करण में अब कल्पित, सम्भवनीय या विचारणीय स्थल अत्यल्प रह गए हैं तथापि यह दृढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता कि व्यवस्थित पाठ ही ग्रन्थ का शुद्ध और अन्तिम रूप है । उपलब्ध पाठों के आधार पर अर्थ की संगति को देखते हुए शुद्ध पाठ रखना ही बुद्धि का प्रयास रहा है । श्राशा है, भाषा शास्त्री और पाठ विवेचक अपने नियम की शिथिलता देख कोसेंगे नहीं अपितु व्यावहारिक उपयोगिता देख उदारतापूर्वक क्षमा करेंगे ।
५. प्रस्तुत संस्करण की विशेषताएँ :
तिलोयपण्णत्ती के प्रथम तीन अधिकारों का यह पहला खण्ड है। इसमें केवल मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद ही नहीं है अपितु विषय सम्बन्धी विशेष विवरण की जहां भी आवश्यकता पड़ी है वह विस्तारपूर्वक विशेषार्थ में दिया गया है। गणित सम्बन्धी प्रमेयों को, जहां भी जटिलता दिखाई दी है