________________
प्रस्तावना तिलोयपण्णत्ती : प्रथम खण्ड
( प्रथम तीन महाधिकार ) १. ग्रन्थ-परिचय :
समग्र जैन वाङमय प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप से चार अनुयोगों में व्यवस्थित है। करणानुयोग के अन्तर्गत जीव और कर्म विषयक साहित्य तथा भूगोलखगोल विषयक साहित्य गभित है। वैदिक वाङमय और बौद्ध वाट मय में भी लोक रचना से सम्बन्धित बातों का समावेश तो है परन्तु ये स्वतन्त्र गंथ जैट परपरा में उपलब्ध हैं वैसे उन परम्पराओं में नहीं देखे जाते ।
तिलोयपण्णत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) करणानुयोग के अन्तर्गत लोकविषयक साहित्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। यह प्राकृत भाषा में लिखी गई है। यद्यपि इसका प्रधान विषय लोकरचना का स्वरूप वर्णन है तथापि प्रसंगवश धर्म, संस्कृति व पुराण-इतिहास से सम्बन्धित अनेक बातों का वर्णन इसमें उपलब्ध है।
ग्रंथकर्ता यतिवृषभ ने इस रचना में परम्परागत प्राचीन ज्ञान का संग्रह किया है न कि किसी नवीन विषय का । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही ग्रंथकार ने लिखा है
मंगलपहुदिच्छक्कं वक्खाणिय विबिह-गंथ-जुत्तीहि । जिरणबर मुहणिक्कतं गणहरदेवेहिं गथित पदमालं ।।८५। सासद-पदमावण्णं पवाह-रुवत्तणेण-दोसेहिं । णिस्सेसेहि विमुनकं आइरिय-अणुवकमानादं ।।६।। भब्व-जणाणंदयरं वौच्छामि अहं तिलोयपण्णत्ति ।
रिणब्भर-भत्ति-पसादिद-वर-गुरु-चलणाणुभावेण ॥७॥ रचनाकार ने कई स्थानों पर यह भी स्वीकार किया है कि इस विषय का विवरण और उपदेश उन्हें परम्परा से गुरु द्वारा प्राप्त नहीं हुआ है अथवा नष्ट हो गया है । इसप्रकार यतिवृषभाचार्य प्राचीन सम्माननीय ग्रंथकार हैं । धवलाकार ने तिलोयपण्णत्ती के अनेक उद्धरण अपनी टीका में उद्धृत किए हैं । आचार्य यतिवृषभ ने एकाधिकबार यह उल्लेख किया है कि 'ऐसा दृष्टिवाद अंग में