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२६ तैलाद्रक्षेजलाद्रक्षेत्, रक्षेद् शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या, एवं वदति पुस्तगा ॥ ६६ ॥ श्री श्री श्री
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[४] ज--इस प्रति का नाम 'ज' प्रति है । यह भी डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल के सौजन्य से श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, मन्दिरजी ठोलियान, जयपुर से प्राप्त हुई है । इसका आकार १३ " × ५" है । इसमें कुल २०६ पत्र हैं । १८ में क्रम के दो पत्र हैं और २१ वाँ पत्र नहीं है अत: गाथा संख्या २२६ से २७२ ( प्रथम अधिकार ) तक नहीं है । पृष्ठ २२ तक की लिपि एक्सी है, फिर भिन्नता है । पत्र संख्या १८२ भी नहीं है जबकि १८५ संख्या वाले दो पत्र हैं ।
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इस प्रति में प्रशस्ति पत्र नहीं है ।
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[५] य - इस प्रति का नाम 'य' प्रति है । यह श्री दिगम्बर जैन सरस्वती भवन, ब्यावर से प्राप्त हुई है । वहाँ इसका वि० नं० १०३६ और जन० नं० "अंकित है । यह ११३”× <६३" श्राकार की है। कुल पत्र २४६ हैं । प्रत्येक पत्र में बारह पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३८-३९ अक्षर हैं। पत्रों की दशा ठीक है, अक्षर सुपाठध हैं एवं सुन्दरतापूर्वक लिखे गए हैं। 'ॐ नमः सिद्ध ेभ्यः' से ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है । अन्त में प्रशस्ति इस प्रकार लिखी गई है
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संवत् १७४५ वर्षे शाके १६१० प्रवर्त्तमाने आषाढ़ वदि ५ पंचमी श्रीशुक्रवासरे। सग्गामपुरे मथेनविद्या विनोदेनाले खि प्रतिरियं समाप्ता । पं० श्रीबिहारीदास शिष्य घासीरामदयाराम पठनार्थम् ।
श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन झालरापाटन इत्यस्यार्थ पन्नालाल सोनीत्यस्य प्रबन्धेन लेखक नेमिचन्द्र माले श्रीपालवासिनालेखि त्रिलोकसार प्रज्ञप्तिरियम् । विक्रमार्क १९६४ तमे वर्षे वैशाख कृष्णपक्षे सप्तम्यां तिथों रविवासरे ।
( फोटो कापी करा कर इसका मात्र चतुर्थाधिकार मंगाया गया है )
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यहाँ तिलोय पणत्ति की एक अन्य हस्तलिखित प्रति और भी है जिसका वि० नं० ३८९ और जन० नं० ४११ है । इसमें ५१८ पत्र है । पत्र का आकार ११" x ४" है । प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ हैं और प्रति पंक्ति में ३१-३२ अक्षर पत्र जीर्ण हैं अक्षर विशेषसुपाठ्य नहीं हैं । ॐ नमः सिद्धेभ्यः' से ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ हुआ है और अन्त में लिखा है