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गाथा : १३३-१३६ ] तदियो महाहियारो
[ ३०३ अर्थ : - सप्त-धातुप्रोंसे रहित होने के कारण निश्चयसे उन देवोंके वीर्यका क्षरण नहीं होता। केवल वेद-नोकषायकी उदीरगाके शान्त होनेपर उन्हें संकल्पसुख उत्पन्न होता है ॥१३२॥
इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकोंकी छत्रादि-विभूतियाँ बहुविह-परिवार-जुदा देविदा विविह-छत्त-पहुदीहि ।
सोहंदि विभुदोनि पडिहंदाती य सत्तारो ॥१३३॥ पर्थ :-बहुत प्रकारकं परिवारसे युक्त इन्द्र और प्रतीन्द्रादिक चार ( प्रतीन्द्र, त्रायस्त्रिश, सामानिक और लोकपाल ) देव भी विविध प्रकारको छत्रादिरूप विभूतिसे शोभायमान होते हैं ॥१३३॥
पडिइंदादि चउण्हं सिंहासण-पादयत्त-चमराणि ।
णिय-णिय-इंद-समारिण पायारे होंति किचूणा ॥१३४।। अर्थः -प्रतीन्द्रादिक चार देवोंके सिंहासन, छत्र और चमर ये अपने-अपने इन्द्रोंके सदृश होते हुए भी आकार में कुछ कम होते हैं ।।१३४।।
इन्द्र-प्रतीन्द्रादिकोंके चिह्न सव्र्योस इंदाणं चिण्हाणि तिरीटमेव मणि-खचिदं ।
पडिइंदादि-चउण्हं घिण्हं मउई मुणेदव्या ।।१३५॥ अर्थ :-सब इन्द्रोंका चिह्न मणियोंसे खचित किरीट ( तीन शिखर वाला मुकुट ) है और प्रतीन्द्रादिक चार देवोंका चिह्न साधारण मुकुट ही जानना चाहिए ।।१३।। पोलगशालाके प्रागे स्थित असुरादि कुलोंके चिह्न-स्वरूप
वृक्षोंका निर्देश पोलगसाला-पुरवो चेत्त-दुमा होति विविह-रयणमया । असुर-प्पहुवि-कुलाणं ते चिण्हाई' इमा होति ॥१३६॥
१. ब. क. ज. ठ. चिण्हा इंदमाहोति ।