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५६ ] ___ तिलोयपगत्ती
[ गाथा : १८६-१८७ अर्थ :-लोकके अन्त तक अर्धभाग सहित पांच (५३) धनराजू और सातवीं पृथिवी तक बाई धनराजू प्रमाण घनफल होता है ।।१८५।।
(I)-२४१४७ = : घनराजू; | (+) : २४१४७ ]= धनराजू ।
विशेषार्थ :- गाथा १८४ के चित्रणमें ट ठ ठे दें क्षेत्रका घनफल निम्नलिखित प्रकारसे है :
लोकके अन्तमें ठ ठे भुजाका प्रमाण राजू है और सप्तम पुथिवीपर ट दे भुजाका प्रमाण राजू है । यहाँ गा० १८१ के नियमानुसार भुजा (8) और प्रतिभुजा (ॐ) का योग (+), राजू होता है, इसका प्राधा (0x3 हुआ। इसको एक राजू व्यास और सात राजू मोटाईसे गुरिणत करने पर (१९४४) अर्थात् ५ धनराजू घनफल प्राप्त होता है।
सप्तम पृथिवीपर झ ट ट में क्षेत्रका घनफल भी इसी भाँति है .भुजा ट ट राजू है और प्रतिभुजा झ में राजू है । इन दोनों भुजाओंका योग (+)= राज हया । इसका अर्थ करनेपर (x)- राजू प्राप्त होता है । इसे एक राजू व्यास और ७ राजू मोटाईसे गुरिंगत करनेपर (22xFx)- ५ अर्थात् २१ धनराजू धन फल प्राप्त होता है ।
उभसि परिमाणं बाहिम्मि अभंतरम्मि रज्जु-घरणा । छविखवि-पेरंता तेरस वोरूव-परिहत्ता ॥१८६॥
३३.१३ बाहिर-छम्भाएसु" प्रदरणीदेसुहवेदि अयसेसं । स-तिभाग-छक्क मेत्तं तं चिय अभंतरं खेत्तं ॥१८७॥
अर्थ:-छठी पृथिवीतक बाह्य और अभ्यन्तर क्षेत्रौंका मिश्रधनफल दो से बिभक्त ते रद्ध धनराजू प्रमाण है 11१८६॥
। (+): २४ १४७ ] = घनराजू ।
१. द. ब, क, ज. क. वाहिरछन्भासेसु।
२. द. ब. अवसेस।
३. द. ब..