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गाथा : १८४-१८७ ] तदिनो महाहियारो
[ ३१६ अर्थ :-असुरकुमारादि दस-प्रकारके भवनवासी देव अनेक रूपोंको विक्रिया करते हुए अपने-अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रको पूरित करते हैं ॥१८३।।
|| अवधिज्ञानका कथन समाप्त हुमा ।।
भवनवासी-देवोंमें गुणस्थानादिका वर्णन
गुरग-जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो। उवजोगा कहिदव्या एदाण कुमार-देवाणं ॥१८४।।
अर्थ :- अब इन कुमार-देवोंके क्रमश: गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा प्रादि चौदह मार्गणा और उपयोगका कथन करना चाहिए ।।१४।।
भवण-सुराणं प्रवरे दो 'गुणठाणं च तम्मि चउसंखा ।
मिच्छाइट्ठी सासरा-सम्मो मिस्सो विरक्सम्मा ॥१८॥
मर्थ :-भवनबासी देवोंके अपर्याप्त अवस्थामें मिथ्यात्व और सासादन ये दो तथा पर्याप्त अवस्थामें मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यक्त्व, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि ये चार गुणस्थान होते हैं ॥१८॥
उपरितन गुणस्थानोंकी विशुद्धि-विनाशके फलसे भवनवासियोंमें उत्पत्ति
ताण अपच्चक्खाणावरणोदय-सहिद भवण-जीवाणं । विसयाणंद-जुदाणं गाणादिह राग-पारायं ॥१६॥
सघिरदावि उपरिम दसगुणदाणाण-हेदु भूदायो। जामो विसोहियानो कइया वि-ण-ताश्रो जायते ॥१७॥
अर्थ: अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदय सहित, विषयोंके आनन्दसे युक्त, नानाप्रकारकी राग-क्रियाओंमें निपुण उन भवनवासी जीवोंके देशविरत-पादिक उपरितन दस गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदापि नहीं होते हैं ॥१८६-१८७॥
१. व. गुणाणं वउ ।