Book Title: Samveg Rangshala
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बिनचंदसूरीश्वर रचित एवं श्री पद्नसूरीश्वर अनुवादित संवेग-रंग-शाला हिन्दी अनुवाद संपादक पु. श्री जयानंदविजयजी For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। णमो वद्धमाणस्स ।। ।। णमो राइंदसूरिस्स ।। आचार्य देव श्री जिनचंद्रसूरिश्वरजी रचित एवं श्री पद्मसूरीश्वरजी अनुवादित सवेगरंगशाला : दिव्याशीष : आ.श्री विद्याचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. मुनिराज श्री रामचंद्रविजयजी म.सा. : संपादक : मुनिराज श्री जयानंदविजयजी : प्राप्ति स्थान : शा देवीचंद छगनलालजी श्री आदिनाथ राजेन्द्र सदर बाजार, भीनमाल __ जैन पेढी ३४३०२९ साँy, ३४३०२६ फोन : (02969) 220387 फोन : 254221 श्री विमलनाथ जैन पेढ़ी बाकरा, राज. ३४३ ०२५ शा नागालालजी वजाजी खींवसरा महाविदेह भीनमाल धाम शांतिविला अपार्टमेन्ट, तीन बत्ती, तलेटी हस्तगिरि लिंक रोड, काजी का मैदान, गोपीपुरा, सूरत पालीताणा - ३६४ २७० फोन : 2422650 फोन : (02848) 243018 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रकाशक : श्री गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति, भीनमाल, राज संचालक : १. सुमेरुमल केवलजी नाहर, भीनमाल, राज. २. मीलियन ग्रुप, सूराणा, राज. मुंबई, दिल्ली, विजयवाडा ३. एम.आर. इम्पेक्स, १६-ए हनुमान टेरेस, दूसरा माला, तारा टेम्पल लेन लेमीग्टन रोड, मुंबई-७, फोन-२६८०१०८६ ४. श्री शांतिदेवी बाबुलालजी बाफना चेरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई, महाविदेह भीनमालधाम, पालीताना, ३६४२७० ५. संघवी जुगराज, कांतिलाल, महेन्द्र, सुरेन्द्र, दिलीप, धीरज, संदीप, राज, जैनम, अक्षत बेटा पोता कुंदनमलजी भुताजी श्री श्रीमाळ वर्धमान गौत्रीय आहोर (राज.) कल्पतरु ज्वेलर्स, ३०५ स्टेशन रोड, संघवी भवन, थाना, (५) ४००६०९ ६. दोशी अमृतलाल चीमनलाल पांचशो वोरा थराद पालीताना में उपधान कराया उसकी साधारण की आय में से । ७. शत्रुजय तीर्थे नव्वाणुंयात्रा के आयोजन निमित्ते शा. जेठमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, प्रेमचन्द, गौतमचंद, गणपतराज, ललीतकुमार, विक्रमकुमार, पुष्पक, विमल, प्रदीप, चिराग, नितेष बेटा-पोता कीनाजी संकलेचा परिवार मेंगलवा, फर्म-अरिहन्त नोवेल्हटी, GF3 आरती शोपींग सेन्टर, कालुपुर टंकशाला रोड, अहमदाबाद. ८. थराद निवासी भणशाळी मधुबेन कांतिलाल अमुलख भाई परिवार ९. शा कांतिलाल केवलजी गांधी सियाना निवासी द्वारा २०६२ में पालीताना में उपधान करवाया उस समय साधारण की आय से । १०. लहेर कुंद ग्रुप, शा जेठमलजी कुंदनमलजी मेंगलवा (जालोर) ११. २०६३ में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस समय पद्मावती सुनाने के उपलक्ष में शा चंपालाल, जयंतिलाल, सुरेशकुमार, भरतकुमार प्रिन्केश, केनित, दर्शित चुन्नीलालजी मकाजी कासम गौत्र त्वर परिवार गुड़ा बालोतान् 'जय चिंतामणी' १०-५४३ संतापेट नेल्लूर (आ.प्र.) १२. पू. पिताश्री पूनमचंदजी मातुश्री भुरीबाई के स्मरणार्थे पुत्र पुखराज, पुत्रवधु लीलाबाई पौत्र फुटरमल, महेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार, अशोक कुमार, मिथुन, संकेश, सोमील, बेटा पोता परपोता शा पूनमचंदजी भीमाजी रामाणी गुडाबालोतान् नाकोडा गोल्ड, ७० कंसारा चाल, बीजा माले, रुम नं. ६७, कालबादेवी मुंबई नं. २. For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. शा सुमेरमल, मुकेशकुमार, नितीन, अमीत, मनीषा, खुशबु बेटा पोता पेराजमलजी प्रतापजी रतनपुरा बोहरा परिवार, मोदरा (राज.) राजरतन गोल्ड प्रोड, के. वी. एस. कोम्पलेक्ष, ३ / १ अरुंडलपेट, गुन्टूर. १४. एक सद् गृहस्थ, धाणसा १५. श्रीमती सकुदेवी सांकलचंदजी नेथीजी हुकमाणी परिवार, पांथेजी, राज. राजेन्द्र ज्वेलर्स, ४ रहेमान भाई बि.एस. जी. मार्ग, ताडदेव, मुंबई - ३४. १६. स्व. हस्तीमलजी भलाजी नागोत्रा सोलंकी स्मृति में हस्ते परिवार बाकरा (राज.) १७. शा दूधमल, नरेन्द्रकुमार, रमेशकुमार बेटा बोता लालचंदजी मांडोत परिवार बाकरा (राज.) मंगल आर्ट, दोशी बिल्डींग ३ - भोईवाडा, भूलेश्वर, मुंबई - २ १८. कटारीया संघवी लालचंद रमेशकुमार, गोतमचंद, दिनेशकुमार, महेन्द्रकुमार, रवीन्द्रकुमार बेटा पोता सोनाजी भेराजी धाणसा (राज.) श्री सुपर स्पेअर्स, ११-३२- ३ए पार्क रोड, विजयवाडा, सिकन्द्रबाद. १९. गुलाबचंद राजकुमार छगनलालजी कोठारी अमेरीका, आहोर (राज.) २०. शा शांतिलाल, दीलीपकुमार, संजयकुमार, अमनकुमार, अखीलकुमार बेटा पोता मूलचंदजी उमाजी तलावत आहोर (राज.) राजेन्द्र मार्केटींग, पो.बो. नं. १०८, विजयवाडा. २१. शा समरथमल सुकराज, मोहनलाल महावीरकुमार, विकासकुमार, कमलेश, अनिल, विमल, श्रीपाल भरत फोला मुथा परिवार सायला (राज.) अरुण एन्टरप्राईजेस, ४ लेन, ब्राडी पेठ, गुन्टूर - २. २२. शा नरपतराज, ललीतकुमार महेन्द्र, शैलेष, निलेष, कल्पेश, राजेश, महीपाल, दिक्षीत, आशीष, केतन, अश्वीन, सींकेश, यश बेटा पोता खीमराजजी थानाजी कटारीया संघवी आहोर (राज.) कलांजली ज्वेलर्स, ४/२, ब्राडी पेठ, गुन्टूर - २. २३. शा तीलोकचंद मयाचंद एन्ड कं. ११६, गुलालवाडी, मुंबई - ४. २४. शा लक्ष्मीचंद, शेषमल, राजकुमार, महावीरकुमार, प्रवीणकुमार, दीलीपकुमार, रमेशकुमार बेटा पोत प्रतापचंदजी कालुजी कांकरीया मोदरा (राज.) गुन्टूर. २५. शांतिरुपचंद रवीन्द्रचंद्र, मुकेश, संजेश, ऋषभ, लक्षित, यश, ध्रुव, अक्षय बेटा पोता मिलापचंदजी मेहता, जालोर - बेंगलोर. २६. एक सद्गृहस्थ (खाचरौद ) २७. शा भंवरलाल जयंतिलाल, सुरेशकुमार, प्रकाशकुमार, महावीरकुमार श्रेणिककुमार, प्रितम, प्रतीक, साहिल, पक्षाल बेटा पोता - परपोता शा समरथमलजी सोगाजी दुरगाणी बाकरा (राज.) जैन स्टोर्स, स्टेशन रोड, अंकापाली - ५३१००१. For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.शा गजराज, बाबुलाल, मीठालाल, भरत, महेन्द्र, मुकेश, शैलेष, गौतम, नीखील, मनीष, हनी बेटा पोता, रतनचंदजी, नागोत्रा सोलंकी साँथू (राज.) फूलचंद भवरलाल, १०८ गोवींदप्पा नायक स्ट्रीट, चेन्नई-१. २९. शेठ माँगीलाल, मनोहरमल, बाबुलाल जयंतिलाल जुठमल बेटा पोता सुमेरमलजी कुन्दनमलजी लुंकड गोल उमेदाबाद (राज.) ३०.संघवी भंवरलाल मांगीलाल, महावीर नीलेश, बन्टी, बेटा पोता ___ हरकचंदजी श्री श्रीमाल परिवार आलासन राजेश इलेक्ट्रीकल्स ४८, राजा बिल्डींग, तिरुनेलवेली - ६२७००१ ३१.भंसाली भंवरलाल, अशोकुमार, कांतिलाल, गोतमचंद, राजेशकुमार, राहुल, आशीष, नमन, आकाश, योगेश, बेटा बोता लीलाजी कसनाजी मु. सरत. मंगल मोती सेन्डीकेट, १४/१५ एस. एस. जैन मार्केट, एम.पी. लेन चीकपेट क्रोस, बेंगलोर - ५३. ३२.स्व. मातृश्री मोहनदेवी पिताजी श्री गुमानमलजी की स्मृति में पुत्र कांतिलाल जयन्तिलाल, सुरेश, राजेश सोलंकी जालोर प्रविण एण्ड कं. १५-८-११०/२, बेगम बाजार, हैदराबाद - ५०००१२. ३३.शा. कान्तीलालजी, मंगलचन्दजी हरण, दाँसपा, मुम्बई ३४.गोल्ड मेडल इन्डस्ट्रीस प्रा. ली., रेवतडा, मुम्बई, विजयवाडा, दिल्ली ३५.राज राजेन्द्रा टेक्सटाईल्स एक्सपोर्टस लिमीटेड १०१, राज भवन, दौलतनगर, बोरीवली (ईस्ट), मुम्बई, मोधरा निवासी ३६. संघवी पुखराजजी नेकाजी, धाणसा निवासी संघवी इलेक्ट्रीकल्स, १३०, ओपनकारा स्ट्रीट, कोइमबटूर - ६४१००१. शा. देवीचंद छगनलालजी | श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन पेढी सदर बाजार साँथ - 343026 भीनमल-343029 (राज) __(राज.) फोन : (02969) 220387 फोन : 02973 - 254221 श्री विमलनाथ जैन पेढी बाकरा गाँव- 343025 (राज.) शा. नागालाल वजाजी खींवसरा महाविदेह भीनमाल धाम गोपीपुरा, काजी का मैदान तलेटी हस्तिगिरि, लिंक रोड, शांतिविला अपार्टमेन्ट, सुरत, (गुजरात) पालीताणा -364270 फोन : 2422650 फोन : (02848) 243018 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAGRO C CG0 पद (आर्थिक सहयोगी शा. जेठमलजी केनाजी संकलेचा मेंगलवा (राज.) प्रत ५०० - श्री भुती जैन संघ ज्ञान खाता प्रत २५० श्री अभिनन्दन स्वामी जैन संघ साईबाग, अहमदाबाद प्रत २०० EASYGALOGY For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द __ आत्मा से परमात्मा बनने के लिए संवेग का मार्ग ही संपूर्ण निर्विघ्न मार्ग है। आत्मा शब्द संसारवर्ती जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है और परमात्मा शब्द मुक्ति के जीवों के लिए विशेष प्रयुक्त होता है। संसार से मुक्त होने वाला ही मुक्ति में पहुँच सकता है। संसारी आत्मा बंधन में है। बंधन अनेक प्रकार के हैं। सभी बन्धनों का मूल बंधन कर्म है। कर्म है तो दूसरे बंधन है। कर्म नहीं तो एक भी बंधन नहीं। हर समझदार आत्मा मूल की ओर लक्ष्य देता है। रोग हो तो रोग का मूल कारण नष्ट होते ही रोग नष्ट हो जाता है अतः रोग के मूल कारण को दूर करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही संसार का मूल कारण जो कर्म उसको दूर करने के लिए प्रत्येक समझदार व्यक्ति को प्रत्यन करना चाहिए यह सिद्धांत निश्चित है। जगत में उपचार अनेक प्रकार के है। जो उपचार जहाँ कार्य कर सके वहाँ उसी उपचार को करना हितकर है। कर्म को भी रोग की संज्ञा दी हुई है। कर्मरोग को दूर करने के लिए अनेक प्रकार के उपचार अनंतानंत तीर्थंकर भगवंतोंने दर्शाये हैं। उन सभी उपचारों में सर्व श्रेष्ठ उपचार प्रत्येक भव्यात्मा के लिए एक ही है। और वह है 'संवेग रसायण का पान करना।' यह 'संवेग रसायन दो कार्य करता है। रोग को मिटाता है और शक्ति को प्रकट करता है। संवेग शब्द का अर्थ संवेग रंगशाला नामक इस ग्रंथ में स्पष्ट रूप से दर्शाया है संवेग यानि भव-संसार का भय और मोक्ष की अभिलाषा संसार का भय रोग को मिटाता है, मोक्ष की अभिलाषा आत्म शक्ति को प्रकट करता है। हमारे दैनिक क्रियाओं के सूत्रों में भी संवेग की बातें अनेक प्रकार से आयी हुई है उसमें सर्वश्रेष्ठसूत्र प्रार्थना सूत्र और उसमें प्रथम प्रार्थना "भवनिव्वेओ" भव निर्वेद संसार पर अरुचि अर्थात् संसार का भय, भय जनक पदार्थ पर ही अरुचि होती है। दुक्खक्खओ-कम्मक्खओ-दुःखों का क्षय-कर्मों का क्षय अर्थात् मोक्षाभिलाषा। ऐसे अनेक प्रकार के शब्दों के प्रयोग द्वारा संवेग रसायण की बातें गुंथी हुई है। जिन पदार्थों से, व्यक्तियों से स्थान से जिसे भय लगता है वह उन-उन से दूर रहने के लिए सतत प्रयत्नशील होता है। यह अटल नियम है। जिन आत्माओं को संसार भय जनक है ऐसा खयाल आया वे आत्माएँ संसार से भयभीत बनी थीं, बन रही हैं और बनेगी। संसार से भयभीत आत्मा को संसार बंधन स्वरूप लगता है, बंधन का कारण कर्म है तो अब कर्म से मुक्त बनने के लिए प्रयत्न करना और कर्म रोग है रोग को मिटाने के लिए रोग का निर्णय किया जाता है। जगत में एक न्याय प्रचलित है लोहा लोहे से कटता है। वैसे कर्म को मिटाने के लिए कर्म ही करना। कर्म के दो भेद है शुभ-अशुभ। अशुभ को दूर करने के लिए शुभ कर्म करना। शुभ कर्म काया से, वचन से, एवं मन से होते हैं। इन तीनों योगों से शुभ कर्म करने के लिए अतीव विस्तृत मार्गदर्शन इस 'संवेगरंगशाला' नामक ग्रंथ के अन्दर प्राप्त होता है। संवेग के रंग रूप शुभ कर्म से अशुभ कर्म रूप कचरा निकल जायगा फिर शुभ कर्म भी अल्प मानसिक प्रयास से दूर हो जायेंगे। कर्म दूर होते ही आत्मा अपने मूल स्वभाव में आकर अपने स्वयं के घर में स्वगृह में जाकर निवास करेगा। यह ग्रंथ वि.सं. ११२५ में रचा गया है। रचनाकार श्री जिनचंद्रसूरिजी नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरीश्वरजी के बड़े गुरुभ्राता है। अतः इन्होंने आगम ग्रन्थों का अमृत खोज-खोजकर इस संवेगरंगशाला में भर दिया है। आ.श्रीमुक्तिप्रभ सूरीश्वरजी की प्रस्तावना में आ. श्री. पद्मसूरीश्वरजीने हिन्दी अनुवादकर प्रस्तावना में इस ग्रंथ के विषय में विचार व्यक्त किये है। जो इस संपादन में वे प्रस्तावनाएँ दी है। For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुझे इस ग्रंथ की हिन्दी अनुवाद की पुस्तक देखने में आयी अतीव सुंदर आत्मोपकारक लगी और पुनः प्रकाशित करने की इच्छा हुई। जहां-जहां पूर्व प्रकाशित में अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर हुई उसे सुधारने का उपयोग किया है। फिर भी भूले रह गयी हो और पाठकवर्ग के ध्यान में आवे तो संपादक को सूचित करने की कृपा करें। इस ग्रंथ में निम्न बातें हैं जिसमें इसके बाद रचे गये ग्रंथों में वृद्धि हुई है। जैसे वंकचूल की कथा में उसे युद्ध में रोग की बात लिखी है अन्य कथाओं में कौए से बोटा हुआ पानी पीने से रोग होने की बात आयी है। रानी द्वारा मुझ पर बलात्कार किया ऐसा राजा को कहने का वर्णन है। पृ. ४३-५२ आर्य महागिरि की कथा स्थूल भद्रजी के वर्णन में उपकोशा के घर चातुर्मास का वर्णन है जब कि अन्य कथाओं में कोशा के घर का वर्णन आता है। पृ. १६६ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति सूरि में सांभोगिकपना पृथक होने का वर्णन अन्य कथानकों में आता है इसमें नहीं है । पृ. १६९ अर्णिका पुत्र आचार्य के वर्णन में अन्य ग्रंथों में नदी में गिराने पर शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दू जल में गिरने पर चिंतन का वर्णन आता है जो इसमें नहीं है । पृ. २२८. वसुराजा की कथा में पाठक द्वारा परिक्षा का वर्णन इसमें नहीं है। नारद का शिष्यों को पढ़ाने का वर्णन अन्य कथानकों में नहीं है। पृ. २४४ बाहुबली की कथा इन्द्र द्वारा दोनों भाईयों को समझाने का वर्णन इसमें नहीं है। इसमें दंडरत्न हाथ में आने का वर्णन है जब कि अन्य कथानकों में चक्ररत्न को याद करने का एवं फेंकने का वर्णन है। पृ. २५४ स्थूलभद्र सूरि की कथा में यहां तीन पुत्रियों के स्मरण शक्ति की बात है। अन्य कथाओं में सातों बहनों के स्मरण शक्ति की बात है । पृ. २८५ दृढ़प्रहारी की कथा में अन्य कथाओं में चार हत्या की बात है। इसमें तीन की बात है । पृ. २८८ इस प्रकार कथाओं में परिवर्तन हुआ है। यह ग्रंथ नामानुसार आत्मा में संवेगरंग को उत्पन्न करने वाला, वृद्धि करने वाला और इसके उपदेश द्वारा स्व पर कल्याण करने वाला उत्कृष्टतम ग्रंथ है। आराधक आत्मा को इस ग्रंथ का वांचन, मनन, चिंतन एवं इस पर आचरण कर ग्रंथकार के परिश्रम को सफल बनाकर स्व कल्याण करना चाहिए। ताडपत्र पर इस ग्रंथ को लिखवाने वाले की जो प्रशस्ति दी है। इससे ऐसा लगता है कि उस समय ज्ञान लिखवाने वाले अति अल्प होंगे। जिससे लिखवाने वाले की ऐसी प्रशस्ति लिखी गयी है। उसने लिखवाने की उदारता की तभी यह ग्रंथ हमको उपलब्ध हुआ है। पाठक गण इसे पढ़कर आत्म कल्याण साधे । यही । जालोर, वि.सं. २०६४ अषाड सुद १४ दि. २९/७/२००७ For Personal & Private Use Only - जयानंद iii = Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जेमां पदे पदे वाक्ये - वाक्ये ने श्लोके श्लोके संवेगनी छोळो उछळी रही छे, एवा आ ग्रन्थनुं नाम संवेगरंगशाळा छे. आ ग्रन्थरत्ननी रचना करनार समर्थतार्किक महावादी श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी कृत संमतितर्क ग्रन्थ पर असाधारण टीका लखनार पू. आचार्यदेव श्री अभयदेवसूरि महाराजना वडील गुरुबन्धु पूज्यपाद आचार्यदेव श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज छे. आ ग्रन्थ खास करीने एज पुण्यात्माओने लाभ करनार निवडशे के जे हृदयथी एम माने छे के हुं आत्मा छं, अनादिकाळथी संसार समुद्रमां रखडी रह्यो छं, हुं शाश्वत छं, पण मारी वर्तमान अवस्था अशाश्वत छे. मारी आ अनंत रखडपट्टीनो अंत लाववो होय तो 'संवेग' गुणनो वेग मारे वधारवो जोईए. विना संवेग मारा संसारनो अंत आववानो नथी; केम के वगर संवेगे लांबाकाळ सुधी पण तपेलुं तप, सेवेलुं शील कायकष्ट रूप छे, आचरेलुं अनुपम चारित्र एने मेळवेलुं घणुं बधुं ज्ञान पण खरेखर फोतरा खांडवा जेवुं छे. आ वात ग्रन्थकारना शब्दोमां जोईए तो - सुचिरं पितवो तवियं, चिन्नं चरणं सुयं पि बहु पढियं । जइ नो संवेगरसो, ता तं तुसखण्डणं सव्वं ॥ पण वांचनार एम पूछशे के, संवेग एटले शुं? तेनो उत्तर पण ग्रन्थकार नीचेना शब्दोमां आपे छेएसो पुण संवेगो, संवेगपरायणेहिं परिकहिओ । परमं भवभीरुत्तं, अहवा मोक्खाभिकंखित्तं ।। तीर्थंकर भगवंतो संवेगनो अर्थ आ प्रमाणे कहेलो छे. अत्यंत संसारनो भय अथवा मोक्षनी अभिलाषा. अत्यंत संसारनो भय एटले चारे गतिनो भय. चारे गतिमां नरकगति अने तिर्यंच गतिनो भय तो लगभग बधा ज मनुष्योने छे. कोई पूछीए के, सुखी युरोपियनना कुतरा तरीके जन्म लेवो छे? तो ते तरत ज ना पाडशे. आपणे कहीए के, मोटरमां बेसवा मळशे, दररोज माणस नवडावशे, सारं सारुं खावानुं मळशे. वगेरे वगेरे भौतिक सुखो बतावीए तो पण ते ना ज पाडशे. केम के तिर्यंच- पशु के ढोर थवं कोईने गमतुं नथी. ज्यारे नरकमां तो दुःख ने दुःख ज होय छे. त्यां जवानुं मन कोने थाय? त्यारे रही बाकीनी बे गति. एक मनुष्य अने बीजी देवगति. आ मनुष्यगतिमां पण दीन-दुःखी अने कंगाळकुलमां जन्म लेवानुं कोई इच्छतुं नथी. तेमज देवलोकमां पण बीजा स्वामी देवोनी गुलामी करवी पडे. तेना हुकमथी पशु थई तेने पीठ उपर बेसाडवा पडे. तेवुं कोईने पसंद नथी. त्यारे संसारी जीवने शुं पसंद छे ? संसारनुं भौतिक सुख. सामे संवेग गुण आपणने कहे छे के, आ संसारना सुखोने मोक्षरूप सुख मेळववा खातर लात मारता शीखो. अने आ शिक्षण तमारा हैयामां परिणाम पामे ए माटे आ ग्रन्थनुं पुनः पुन वाचन, मनन अने निदिध्यास करो. आ संवेग गुण मेळववानी जेने इच्छा थती नथी. तेने आ ग्रन्थकार दुर्भव्य के अभव्य तरीके ओळखावे छे. आ उपरथी समजी शकाशे के, आ संवेग गुणनी जीवनमां केटली आवश्यकता छे? कहेवुं होय तो एम पण कही शकाय के, मंत्रोमां जेम नमस्कार महामंत्र सर्वश्रेष्ठ छे, पर्वतोमां जेम श्री शत्रुंजय सर्वश्रेष्ठ छे, देवोमां जेम वीतराग परमात्मा सर्वश्रेष्ठ छे तेम सर्व गुणोमां शिरोमणि भावने भार संवेग गुण गुणमां सर्वश्रेष्ठ छे. iv For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ ग्रन्थमां चार मुख्यद्वारनुं कथन करवामां आव्युं छे. संवेगगुणनी प्राप्ति थया पछी आराधना कया क्रमे करवी अथवा ए गुणने प्राप्त करवा पण आ आराधना केवी रीते करवी तेनुं आमां स्पष्ट वर्णन छे. आ चार द्वारो (१) परिकर्मविधि द्वार ( २ ) परगणसंक्रमण द्वार (३) ममत्वउच्छेद द्वार अने (४) समाधिलाभ द्वार छे. आ चारे मुख्य द्वारोमां पेटाद्वारो पहेलाना १५, बीजाना १०, त्रीजाना ९ अने चोथाना ९ छे. ते पेटाद्वारोनुं वर्णन विस्तारथी छे, जे जिज्ञासुओने वांची जवा भलामण छे. पहेला परिकर्मविधिद्वारमां आत्माने ते ते द्वारोमां बतावेली आराधना द्वारा संस्कारी बनाववानो छे. मोहराजानुं साम्राज्य गजबनुं छे. जीवने क्यां अने क्यारे फसावी दे, तेनो पत्तो नथी. माटे एना संकजामां जीव फसाई न जाय तेनी सावधानी माटे आ बधा पेटा द्वारोनी विधिपूर्वक आराधना करवानी कही छे.. आ द्वारमां साधु अने श्रावकना उपकरणोनुं जेम वर्णन छे, तेम गुरु पासेथी ग्रहणशिक्षा अने आसेवनशिक्षा लई आत्माना सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्रनो विकास करनारा गुणोनुं पण वर्णन छे. अहिं ग्रहणशिक्षानो अर्थ ए समजवानो छे के, गुरु महाराज पासेथी साधुपणुं अने श्रावकपणुं शी रीते आराधवं एनी समजण लेवी अने आसेवन शिक्षानो अर्थ ए छे के, ए समजणने जीवनमां जीवीने आत्मसात् करवी. आ शिक्षाओ विनय विना आवती नथी माटे पेटाद्वारमां विनयद्वार पण पाडवामां आव्युं छे. विनयनो भंग करी जे साधु के श्रावक धर्ममां आगळ वधवा मागे छे, ते कदी पण आगळ वधी शकतो नथी. केम के परमात्मानुं शासन विनयने धर्मना मूळ तरीके ओळखावे छे. उत्तराध्ययन सूत्र जे प्रभुभाषित छे, तेना ३६ अध्ययनोमां पहेलुं अध्ययन विनय अध्ययन छे. केम के विनय न होय तो बाकीना अध्ययनमां बतावेला गुणो जीवनमां यथार्थरूपे आवी शकता नथी. माटे ज प्रथम अध्ययन विनयनुं राखवामां आव्युं छे. आ सिवायना बीजा प्रथम मुख्यद्वारना पेटाद्वारो जे समाधिद्वार, मनोनुसिट्ठीद्वार, अनियतविहारद्वार, राजद्वार वगेरे द्वारो जे बताववामां आव्या छे ते जिज्ञासुओने ग्रन्थमां जोई लेवानी अमारी भलामण छे. प्रत्येक पेटाद्वारनुं वर्णन जो करवामां आवे तो प्रस्तावना ज स्वयं एक ग्रन्थ बनी जाय. हवे बीजुं द्वार परगणसंक्रमण नामनुं छे. एना पेटाद्वारो १० छे. दरेके दरेक द्वारमां गुरुआज्ञानी मुख्यता, कषायने वोसिराववानी भावना, साधुने सर्वथा स्त्री परिचयनो त्याग, दश प्रकारनी सामाचारीनुं विधिपूर्वक पालन वगेरे बताववामां आव्युं छे. आ आचारोमां ज्यां ज्यां स्खलना थाय छे, त्यां त्यां गुरु-शिष्यभावमां खामी आवे छे. एक गच्छना आचार्य बीजा गच्छना आचार्य उपर जेवो वात्सल्यभाव राखवो जोईए तेवो राखी शकता नथी अने साधक सामाचारीनुं पालन करवामां शिथिल बनवाथी स्वच्छंदी बने छे. त्रीजुं मूलद्वार ममत्व उच्छेद नामनुं छे. आना नव पेटाद्वारो छे. तेमां शरूमां आलोचनाविधानद्वार मूकवामां आव्युं छे आत्माने हळवो करवा माटे प्रत्येक साधु अने श्रावके करेला पापनुं प्रायश्चित्त लेवानुं होय छे. तेमां प्रायश्चित्त केवी रीते लेवुं, एना आपनारनी लायकात, लेती वखतनी विधि वगेरेनुं वर्णन विस्तारथी करवामां आव्युं छे. आलोचना नही लेनार साधु श्रावक सशल्य कहेवाय छे, अने शल्यवाळो साधना करे तो पण ज्यां सुधी शल्यनी आलोचना न ले त्यां सुधी शुद्ध थतो नथी. वगेरे वगेरे घणो सुंदर विचार आमां करवामां आव्यो छे. आ द्वारमां शय्या - संथारो वगरे क्या करवो, प्रत्याख्यान आदि द्वारा शरीर, इन्द्रियोने अने मनने केवी रीते For Personal & Private Use Only V Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काबुमां लेवा, खमवा खमाववा द्वारा ए कषायोने केवी रीते अंकुशमां राखवा तेनुं आबेहूब वर्णन करवामां आव्युं छे. अहिं शय्या शब्दनो अर्थ वसति समजवानो छे. साधुनी वसति केवी होय? आजु बाजु पाडोश होय ते पण केव होय? स्त्रीना शब्दो ज्यां न संभळाय. रूप न देखाय वगेरे वगेरे वातोनुं वर्णन करी साधकने खूब खूब सावचेत रहेवा सूचन करवामां आव्युं छे. छेल्लुं चोथुं समाधिलाभ द्वार छे. आना पेटाद्वारो नव छे. आ दरेक पेटाद्वारोना अवान्तर द्वारो पण आपवामां आव्या छे. अमांना एक एक द्वार आराधना माटे ध्यान खेंचे तेवा छे. तेमां पण चतुःशरणगमन, सुकृतअनुमोदन ने दुष्कृत-निंदा द्वारो, जे पेटाद्वारोमां पण अवांतर द्वारो छे-ते सविशेष ध्यान खेंचे तेवा छे. अरिहंत आदिनुं शरण शा माटे स्वीकारवानुं छे? ए तारको राजकुलमां जनम्या हता. सुखसामग्रीमां उछरी मोटा थया हता. ऋद्धिना ढगला वच्चे एमनुं जीवन पसार थई रह्युं हतुं. माताना गर्भमां आवतां जेमने ईन्द्रादि देवताओ मता हता, तेमणे पण माथाना वाळ उखेडी लोच करी स्वपर हितार्थे प्रवज्यानो स्वीकार कर्यो अने ज्यां सुधी घाती कर्मोनो क्षय न थयो त्यां सुधी पलांठी वाळीने तेओ बेठा पण नहीं. आवा परमात्माने शरणे एटला माटे ज जवानुं छे के "संसारना गमे तेटला सुंदर मनमोहक के सानुकूण सुखो मळे तो पण ते त्याज्य छे" आवी बुद्धि आवे त्यारे ज आ परमात्माने शरणे साची रीते जई शकाय छे. बाकी परमात्मानुं शरणुं मळतुं नथी. ए वात निश्चित छे. आ रीते परमात्मानुं शरणुं प्राप्त करनार जे पुण्यशाली आत्मा भूतकाळना दुष्कृतोनी गर्हा करे, सुकृतोनी अनुमोदना करे अने आत्माने अरिहंतमय बनाववा तेनुं ध्यानादि करे छे अने अवश्य संघयणादि सामग्री संपन्न होय तो ते, ते ज भवमां अथवा बहु ज थोडा भवमां सकलकर्मनो क्षय करी मुक्तिपदने पामे छे. संसार कर्म राजा ऊभो करेलो निर्दयता अने निष्ठुरतापूर्वकनो तमाशो छे. संसारी जीवो ए तमाशो के नाटक भजवनारा नाटकीआ छे. चार गति ए नाटकशाळानी रंगभूमि छे. कर्मराजा ए नाटकनो सूत्रधार ( मेनेजर) छे. ग्रंथकार कहे छे के आ निर्दय एवा कर्मराजाने पनारे जो तमारे न पडवुं होय तो संवेगगुणना स्वरूपने आ ग्रन्थमांथी गुरुमुखे सांभळो, सांभळ्या पछी समजो, समज्या पछी श्रद्धा करो अने पछी जीवनमां उतारवा सतत प्रयत्नशील बनो. आ रीतनो प्रत्यन सतत चालु हशे तो कर्मराजा तमारा पगमां नमतो आवशे. अहिं तमे मुक्तिना सुखनो नमुनो चाखशो अने ज्यां सुधी मुक्तिमां नहिं जाओ त्यां सुधी संसारना सुखो तमारी पगचंपी करशे, अने त्यारे तमारे तो एनी साथे अणबनाव रहेशे तेमज बहु नजीकमां तमे सर्कल कर्मनो क्षय करी मुक्तिपदना भोक्ता बनशो. आ ग्रन्थनी खूबी ए छे के द्वारो अने पेटाद्वारोना वर्णनमां सिद्धान्तसिद्ध दृष्टांतो आपीने ते द्वारो अने पेटद्वानी समजण खूब ज सुंदरी रीते आपी छे. आ ग्रन्थनी वात कोई प्राचीन ग्रन्थमांथी ग्रन्थकारे लीधेली होय तेम जणाय छे. केम के रचयिता पू. जिनचंद्रसूरिजी महाराज छे. अने जे वात करवामां आवी छे ते भगवान महावीरना स्वहस्तदीक्षित शिष्य महसेन राजर्षिनी छे. भगवान महावीर निर्वाण पाम्या पछी भगवान गौतमस्वामीजीने केवळज्ञान थाय छे. तेमने आ लघुबंधु पोतानी वृद्धावस्थामां कंपते शरीरे पूछे छे के ज्यारे शरीर विशिष्ट तपनी आराधनामां उपयोगी न रहे त्यारे अंतिम आराधना केवी रीते करवी ? एना खुलासा सविस्तर रीते भगवान गौतमस्वामीजी महाराज कहे छे ए ज आ ग्रन्थनो विषय छे. ट्रंकमां संवेगरंगशाळा एटले मोहनी सामे विंझाती शमशेर. एनी एक एक गाथामां मोहनी वेदना अने चीत्कारना डुसकां संभळाय छे. एमां संभळाय छे शिवसुंदरीना पायलनो झंकार. एनी गौरवगाथा एटले क्रूर अने vi For Personal & Private Use Only . Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकराल एवा कालने क्रूर थप्पडो. एमां आपेली कथाओमां शेताननी शेतानियत जेम संभळाय छे तेम वीरनी वीरता पण वर्णवाय छे अने कायरोनी कायरतानी कमनसीब कहाणी पण छे. संवेगरंगशाळाना श्लोको एटले मोहनी छाती उपर उपराउपरि गोठवायेली तोपो कहो के तीर कामठां कहो, आजनी भाषामां बोंब कहो के जुना जमानानी बंदूको कहो. जे कहेवू होय ते कहो पण ए वात चोक्कस छे के आ ग्रन्थ वांचनार भव्य जीव थोडा कालमां निजना मोहनो नाश अने स्व-स्वरूपनी अनुभूति करे छे. मोहमां पागल बनेला कायरोनी कमनसीब कथा सांभळी कर्मनी क्रूरता भरी कतल करनारा पण कंपी उठे छे. बीजी बाजु वीरपुरुषोए मोहनी सामे बतावेल शौर्यनां सन्मान पण स्थळे-स्थळे देखाय छे. टुंकमां संवेगरंगशाळा आपणनें कहे छे, "ओ मोहनिद्रमां मस्त बनेला मानवी! तुं तारी आत्मानी आंखने उघाड, उठ, बेठो था. मात्र बेठा थये नहि चाले पण ऊभो था अने आ ग्रन्थमां बतावेला बळवान शस्त्रो स्वीकारी मोहनी सामे लडाई लडवा मांड. ओ अज्ञानना अंधकारमा अथडा जरा विचार कर, विचार कर. क्यां तारी आराधनानी उत्तम सामग्री अने क्यां तारी मोहमस्तता? आ मोहस्तीने मारीने मूळ स्वरूपने प्रगट करवू होय तो आ ग्रन्थ, पुनः पुन रटण कर." आ ग्रन्थ एटले रत्नत्रयीनी पांगरेली वसंतऋतु, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रनी पानखरऋतु. आ कथा कोई कल्पनाना गुंथेला तार नथी पण आत्माने हितकार तथ्योर्नु पथ्य छे. संसार शेतरंजनी पाशवलीला आ ग्रन्थ आबेहूब दर्शावे छे. बारमी सदीनी प्रथम पच्चीसीमां लखायेल आ ग्रन्थ ए मात्र कोई पुस्तक के पानाओना ढग नथी. सिद्धांत के नियमोनी यादी नथी. मात्र अहेवालोनो हिमालय नथी पण संसार सागर पार करवा कर्ममत्स्योनी कतल करनार होडी छे. मात्र होडी ज नहि पण मुक्ति महालयमां सादि अनंतकाल पर्यंत महालवा माटेनुं महान् यानपात्र छे. एनो एक एक श्लोक मोहनी सामे मशीनगन छे. ए- एक पद कर्म सामे रीवोल्वर छे. एनो एक एक अक्षर ए मिथ्यात्वमातंगने महात करवा मृगादिराज छे. एनो एक एक अधिकार अविरतिने उखेडवा एने कषायवृक्षोने कापवा कुहाडो छे. वधुं शुं कहीए! आ ग्रन्थ एटले साक्षात् मिथ्यात्वनुं मोत, अविरतिनी विरति (विराम) अने कषायोनी कुटिलानी क्रूर कहाणीना कथन साथे तेनी करपीण कतल तेमज मन, वचन अने कायाना योगनो अयोग छे. - आचार्य देव श्री रामचंद्र सूरीश्वरजी के शिष्यरत्न मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी. चारित्र लेने के बाद भी संवेगरंग का प्रकटीकरण न हुआ तो समझ लेना कि वह आत्मा अभव्य या दुर्भव्य है। जब तक संसार का तीव्र भय और मोक्षाभिलाषा तीव्र न बनें तब तक समझना कि वैराग्य-संवेगरंग का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। -जयानंद vii For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ ७२ प्रवेशक मंगलाचरण संसार अटवी में धर्म की दुर्लभता धर्माधिकारी ग्रंथ रचना का हेतु और महिमा महासेन राजा की कथा विरप्रभु का उपदेश महासेन राजा के पुत्र को उपदेश महासेन राजा का पुत्र को हितोपदेश, विष की परीक्षा महासेन राजा का रानी कनकवती को हितोपदेश महासेन मुनि को प्रभु की हित शिक्षा श्री गौतमस्वामी का महासेन मुनि को उपदेश-ज्ञान की सामान्य आराधना दर्शन-चारित्र की सामान्य आराधना तप की सामान्य आराधना-संक्षिप्त और विशेष आराधना का स्वरूप मधुराजा का प्रबन्ध सुकोशल मुनि की कथा सुकोशल मुनि की कथा-विस्तृत आराधना का स्वरूप श्री मरुदेवा माता का दृष्टांत आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा परिकर्म द्वार अर्ह नामक अंतर द्वार अर्ह नामक अंतर द्वार-वंकचूल की कथा चिलाती पुत्र की कथा लिंग नामक दूसरा द्वार कुलबालक मुनि की कथा शिक्षा नामक तीसरा द्वार और उसके भेद इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा आसेवन शिक्षा का वर्णन ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता मथुरा के मंगु आचार्य की कथा अंगारमर्दक आचार्य की कथा-ग्रहण आसेवन शिक्षा के भेद साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म साधु का विशिष्ट आचार धर्म viji अनुक्रम पृष्ठ विषय विनय नामक चौथा द्वार विनय द्वार-विनय पर श्रेणिक राजा की कथा समाधि नामक पाँचवा द्वार और उसकी महिमा समाधि द्वार-नमि राजार्षि की कथा मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार दुर्गता नारी की कथा अनियत विहार से गृहस्थ-साधु के साधारण गुण सेलक सूरि की कथा राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार साधु को वसति दान देने से लाभ वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा नौवाँ परिणाम द्वार-इस भव और परभव का हित चिंतन-श्रावक की भावना श्रावक की भावना पुत्र को अनुशास्ति योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा कालक्षेप-पौषधशाला कैसी और कहाँ करानी? श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा द्वार पुत्र प्रतिबोध सुस्थित घटना द्वार आलोचना द्वार काल परिज्ञान द्वार मृत्युकाल जानने के ग्यारह उपाय अणसण प्रतिपति द्वार त्याग नामक दसवाँ द्वार सहस्रमल्ल की कथा मरण विभक्ति नामक ग्यारहवाँ द्वार जयसुंदर और सोमदत्त की कथा उदायी राजा को मारने वाले की कथा ११२ w9. V MMMMMMMMS १३३ १४३ १४५ १४६ १४८ १४९ १५१ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय इंगिनी मरण पादपोपगमन मरण अधिगत मरण नामक बारहवाँ द्वार सुंदरी नंद की कथा पंडित मरण की महिमा श्रेणी नामक तेहरवाँ प्रतिद्वार - स्वयंभूदत्त की कथा स्वयंभूदत्त की कथा भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्वार एकत्व भावना वाले मुनि की कथा आर्य महागिरि का प्रबन्ध एलकाक्ष नगर का इतिहास गजानपद पर्वत का इतिहास-संलेखना नामक प्रन्द्रहवाँ प्रतिद्वार गंगदत्त की कथा दिशा द्वार आचार्य की योग्यता शिवभद्राचार्य का प्रबंध क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार आचार्य नयशील सूरि की कथा अनुशास्ति द्वार साध्वी और स्त्री संग से दोष परगण संक्रमण द्वार सुकुमारिका की कथा सुकुमारिका की कथा - सिंह गुफावासी मुनि की कथा प्रवर्तिनी को अनुशास्ति साध्वियों को अनुशास्ति वैयावच्य की महिमा शिष्यों की गुरु प्रति कृतज्ञता परगण संक्रमण विधि सुस्थित गवेषणा द्वार उप-संपदा द्वार परीक्षा द्वार पडिलेहणा द्वार सुस्थित गवेषणा द्वार पडिलेहणा द्वार हरिदत्त मुनि का प्रबंध पडिलेहणा द्वार पृच्छा द्वार - आलोचना विधान द्वार लज्जा से दोष छुपानेवाले ब्राह्मण पुत्र की कथा सूरतेज राज का प्रबंध ममत्व विच्छेदन द्वार पृष्ठ १५२ १५३ १५४ १५५ १५८ १६० १६१ १६३ १६६ १६८ १६९ १७५ १७८ १८० १८१ १८२ १८४ १८७ १८८ १८९ १९० १९१ १९२ १९५ १९६ १९८ २०१ २०२ २०३ २०४ २०७ २०८ २१२ २१९ विषय सूरतेज राजा का प्रबंध- अवंतीनाथ और नरसुंदर की कथा - दूसरा शय्या द्वार दो तोतों की कथा संस्तारक नामक तीसरा द्वार गजसुकुमार की कथा अर्णिका आचार्य की कथा पुत्र नियमक नामक चौथा द्वार दर्शन नामक पाँचवा द्वार हानि नामक छट्टा द्वार पच्चक्खाण नामक सातवाँ द्वार क्षमापना नामक आठवाँ द्वार स्वयं क्षामणा नामक नौवाँ द्वार चंडरुद्राचार्य की कथा अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार सासु बहू और पुत्री की कथा मृषावाद द्वार वसु राजा और नारद की कथा समाधि लाभ द्वार मृषावाद द्वार वसु राजा और नारद की कथा - अदत्तादान द्वार श्रावक पुत्र और टोली का दृष्टांत-मैथुन विरमण द्वार मैथुन विरमण द्वार मैथुन विरमण द्वार तीन सखी आदि की कथा - परिग्रह पापस्थानक द्वार लोभानंदी और जिनदास का प्रबंध क्रोध पाप स्थानक द्वार प्रसन्नचंद्र राजर्षि की कथा मान पाप स्थानक द्वार मान पाप स्थानक द्वार - बाहुबली का दृष्टांत माया पाप स्थानक द्वार साध्वी पंडरा आर्या की कथा - दो वणिक पुत्र की कथा लोभ पाप स्थानक द्वार कपिल ब्राह्मण की कथा For Personal & Private Use Only प्रेम पाप स्थानक द्वार प्रेम पाप स्थानक द्वार अहंत्रक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा द्वेष पर धर्मरुचि की कथा कलह पाप स्थानक द्वार पृष्ठ २२० २२४ २२६ २२७ २२८ २३० २३२ २३४ २३५ २३६ २३८ २४१ २४४ २४५ २४७ २४८ २४९ २५० २५१ २५२ २५३ २५४ २५५ २५६ २५७ २५८ २५९ २६० २६१ ix Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय कलह द्वार हरिकेशीबल की कथा कलह द्वार हरिकेशीबल की कथा हरिकेशीबल की कथा अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार-रुद्र और अंगर्षि की कथा अरति रति द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा समाधि लाभ द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा पैशुन पाप स्थानक द्वार सुबंधु मंत्री और चाणक्य की कथा परिवाद पाप स्थानक द्वार सती सुभद्रा की कथा माया मृषावाद पाप स्थानक द्वार कूट तपस्वी की कथा मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार जमाली की कथा जालिमद द्वार जातिमद द्वार ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत कुलमद द्वार-मरिचि की कथा रूपमद द्वार दो भाइयों की कथा बलमद द्वार मल्लदेव की कथा श्रुतमद द्वार - स्थूलभद्र की कथा तपमद द्वार हूढ़ प्रहारी की कथा लाभमद द्वार ढंढणकुमार का हृष्टांत ऐश्वर्यमद द्वार - दो व्यापारियों की कथा क्रोधादि निग्रह नामक तीसरा द्वार प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार लौकिक ऋषि की कथा मांसाहार और उसके दोष अभयकुमार की कथा कंडरीक की कथा अगड़त की कथा पाँचवा प्रतिबंध त्याग द्वार सम्यक्त्व नामक छठा द्वार श्री अरिहंतादि छह की भक्ति नामक सातवाँ द्वार एवं कनकरथ की कथा श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार श्रावक पुत्र का दृष्टांत-श्राविका की कथा श्राविका की कथा - हुंडिका यक्ष का प्रबंध सम्यग्ज्ञानोपयोग नामक नौवाँ द्वार यव साधु का प्रबंध X पृष्ठ २६२ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७० २७१ २७२ २७३ २७५ २७६ २७७ २७९ २८१ २८३ २८५ २८८ २८९ २९१ २९४ २९५ २९६ २९७ ३०० ३०३ ३०६ ३१४ ३१५ ३१७ ३१८ ३१९ ३२४ ३२५ ३२६ ३२८ विषय पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार चारुदत्त की कथा पुत्रवधुओं की कथा ग्यारहवाँ चार शरण द्वार बारहवाँ दुष्कृत गर्हा द्वार तेरहवाँ सुष्कृत अनुमोदना द्वार भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार नग्गति राजा की कथा सेठ पुत्र की कथा सेठ पुत्र की कथा तापस सेठ की कथा श्री महावीर प्रभु का प्रबंध सुलस और शिवकुमार की कथा शौचवादी ब्राह्मण का प्रबंध शिवराजर्षि की कथा वणिक पुत्र की कथा शील पालन नामक पंद्रहवाँ द्वार इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार श्रोत्रेन्द्रिय की आसक्ति का दृष्टांत चक्षु इन्द्रिय का हृष्टांत गंध में गंध प्रिय का प्रबंध सोदास एवं ब्राह्मण की कथा तप नामक सतरहवीं द्वार ब्रह्मदत्त का प्रबंध पीठ, महापीठ मुनियों की कथा नंद मणियार की कथा प्रतिपत्ति नामक दूसरा द्वार सारणा एवं कवच नामक तीसरा, चौथा द्वार कवच नामक चौथा द्वार समता नामक पाँचवा द्वार ध्यान नामक छट्टा द्वार लेश्या नामक सातवाँ द्वार छह लेश्या का दृष्टांत दूसरा दृष्टांत फल प्राप्ति नामक आठवीं द्वार विजहना नामक नौवाँ द्वार ग्रंथकार की प्रशस्ति For Personal & Private Use Only पृष्ठ ३२९ ३३७ ३४३ ३४४ ३४८ ३५४ ३५६ ३५७ ३५८ ३५९ ३६० ३६१ ३६२ ३६३ ३६५ ३६७ ३७२ ३७३ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८३ ३८४ ३८७ ३९३ ३९४ ३९८ ३९९ ४०१ ४०२ ४०६ ४१६ . Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेशक प्रवेशक रंगशाला का अर्थ है नाट्य भूमि अथवा नाट्य मंच, जहाँ पर नाटक खेला जाता है। यह रंगशाला दो प्रकार की होती है। प्रथम संसार रंगशाला, जहाँ अनेक आत्माएँ विविध प्रकार का अभिनय कर रही हैं और दूसरी संसार से मुक्त कराने वाली संवेग रंगशाला । संसार रंगशाला के सूत्रधार मोह राजा हैं, तथा राग द्वेषादि उसके प्रतिनिधि हैं। जब कि संवेग रंगशाला के सूत्रधार धर्मराजा हैं, और तीर्थंकर, गणधर आदि उसके प्रतिनिधि हैं। संसार रंगशाला का स्वरूप अति विशाल और विलक्षण है। संसार का अर्थ ही 'संसरण' परिभ्रमण का है, वह लाख करोड़ बार ही नहीं, परन्तु संख्यातीत अनंतानंत बार संसारी जीव इस संसार रूपी नाट्य मंच के पात्र बनकर विविध प्रकार के अभिनय, नृत्य गान कर रहा है। संसार रूपी नाटक का कोई ऐसा पात्र न होगा, जिसका इस संसारी जीवात्मा ने वेश धारण न किया हो, वह भी एक बार ही नहीं, अनन्त बार धारण किया। कभी राजा का वेश धारण किया, कभी रंक बना, कभी पशु, कभी पक्षी के वेश में, कभी नरक-जीव बना तो कभी देव रूप धारण किया। इस प्रकार विविध वेश धारण करके संसारी आत्मा अनादि अनंतकाल से चार गति रूपी चौरासी लाख योनिमय संसार रूपी रंगभूमि पर नृत्य कर रहा है। अनादि अनंतकाल से इसी तरह परिभ्रमण कर रहा है, फिर भी वह थका नहीं है और न ही उसे अपना सच्चा आत्मज्ञान हुआ है। संसार रंगशाला के मुख्य सूत्रधार मोहराजा द्वारा प्रदत्त महामोहमय मदिरा पान कर अपनी सम्पूर्ण चेतना खो बैठा है, उसे यह भी ज्ञान नहीं है कि 'मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? मुझे कहाँ जाना है? मेरा क्या स्वरूप है?' इस प्रकार वह मोहाधीन जीवात्मा अपना वास्तविक परिचय भूल गया है। वह जिस अवस्था में है, चाहे पशु है अथवा पक्षी है, राजा है या रंक है, दुःख और दीनता का अनुभव करता हुआ भी वह अपने आप को सुखी मानता है और उसमें हर्ष होता है। उसीमें तन्मय रहता है, परन्तु उसका वास्तविक जीवन करुणामय, बीभत्स स्वरूप वाला, रौद्र परिणाम वाला, एवं अद्भुत हास्यमय दीन हीन भिखारी के समान है। वह ऊपर से श्रृंगार सदृश सुन्दर दृष्टिगोचर होता है, परंतु अन्दर से वह रोग, शोक, जरा, मृत्यु आदि से लिप्त होने के कारण भयानक है एवं मोह ममता के कारण वात्सल्य वाला लगता है। इस प्रकार दुःखमय समस्त नौ रस' इस संसार रंगशाला में समाये हुए हैं। संवेग रंगशाला के प्रतिनिधि श्री तीर्थंकर परमात्मा संसारी आत्माओं की भयंकर करुणा जन्य अवस्था को देखकर अपनी वात्सल्यता की अमिदृष्टि से जीवात्माओं को मोहराजा के बंधन से सदा के लिए मुक्त कराने का प्रयास करते हैं। वे जीवों को संसार का यथार्थ स्वरूप समझा-बुझाकर संसार रंगशाला की पात्रता से मुक्ति दिलाकर संवेग रंगशाला का पात्र बनाते हैं । उस जीव को पुद्गलानंदी से आत्मानंदी बनाते हैं, इतना ही नहीं वे स्वयं भक्त से भगवान, नर से नारायण और आत्मा से परमात्मा बनने के मार्गदर्शक बनते हैं। यही तीर्थ स्थापना है, जिसे 'जिन शासन' कहा जाता है। यही वास्तविक संवेग रंगशाला है। इस रंगशाला में वैराग्यमय शान्त रस होता है। श्री संवेगरंगशाला 'संवेग' शब्द 'सम् उपसर्ग' 'विज् धातु' में 'धज प्रत्यय' लगने से बना है जिसका अर्थ है विक्षोभ, उत्तेजना, प्रचंडगति अथवा वेदना । अर्थात् मोक्षानंद की बात का विक्षोभ होना, मोक्ष प्राप्ति की उत्तेजना होना, मोक्ष प्राप्ति में उत्साहपूर्वक शीघ्रगामी बनना, इस प्रकार मोक्ष अभिलाषा के लिए तड़पाने वाली पीड़ावेदना आदि में संवेग का प्रयोग होता है। योगशास्त्र के दूसरे प्रकाश श्लोक १५ वें की टीका में लिखा है। 1. १. शृंगार रस, २. हास्य रस, ३. करुण रस, ४ रौद्र रस, ५. वीर रस, ६. भयानक रस, ७. बिभत्स रस, ८. अद्भुत रस, ६. शांत रस। 1 . For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला प्रवेशक 'संवेगो मोक्षाभिलाषः।' अर्थात् मोक्ष साधना की उत्कट अभिलाषा संवेग है। सर्वार्थ सिद्धि में भी संवेग की व्याख्या मिलती है कि 'संसार दुःखान्नित्य- भीरुता संवेगः' अर्थात् संसार के दुःखों से हमेशा डरना, उससे सावधान रहना संवेग है। आचार्य श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय के सातवें सूत्र में कहा है - 'जगत्कायस्वभावौ च संवेग वैराग्यार्थम्।' अर्थात् जगत के स्वभाव के चिन्तन से संसार के प्रति मोह दूर होता है वह संवेग है। इसी प्रकार काया के अस्थिर, अशुचि और असारता स्वभाव के चिन्तन से अन्यसत्ति, भाव उत्पन्न होता है, वही वैराग्य है। ___ इस संवेग रंगशाला का अचिन्त्य महाप्रभाव है। इसका पात्र बनते ही जीव का स्वरूप बदल जाता है। वह मुमुक्षु कहलाने लगता है। मुमुक्षु बनने पर वह संसार के स्वरूप को वास्तविक नहीं मानता, मोहराजा का झूठा जाल समझता है, भौतिक सर्व पदार्थ उसे क्षणिक मधुरता व सुन्दरता रहित असार दिखाई देने लगते हैं। वह संसार को दुःखमय, अशुचिमय, पापयुक्त, अज्ञानमय, प्रमादमय और कषाय-युक्त मानता है। अपने को ज्ञानमय, दर्शनमय, चारित्रमय एवं पूर्ण सहजानंदमय बनाने की पवित्र भावना उसके प्रत्येक आत्मप्रदेश में गूंज उठती है। संसार से मुक्त होने की और स्वात्मा के स्वरूप प्रकट करने की तीव्र अभिलाषा अथवा मोक्ष प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा रखने वाला उत्कट संवेग उत्पन्न होता है। संवेग की महिमा का गुण गान परम पूज्य ग्रन्थकार श्री ने स्वयं इसी ग्रन्थ में ५५वें श्लोक में किया है : एसो पुण संवेगो, संवेग परायणेहिं परिकहिओ । परमं भव भीरुत्तं, अहवा मोक्खभिकंखित्तं ।। अर्थात् :- संवेग रस के ज्ञाता श्री तीर्थंकर परमात्मा और गणधर भगवंत ने संसार के तीव्रभय को अथवा मोक्ष की अभिलाषा को संवेग कहा है। ग्रन्थकार श्री ने आगे और भी वर्णन किया है कि-संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्त्वों का जिसमें विस्तार हो वह शास्त्र श्रेष्ठतम शास्त्र कहलाता है। संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण श्रेष्ठ पुरुषों को ही मिलता है। चिरकाल तक तप किया हो, शुद्धचारित्र का पालन किया हो, बहुश्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो, परन्त संवेग रस प्रकट न हआ हो तो वह सब निष्फल है। दीर्घकाल तक संयम पालन तप आदि पालन का सार ही संवेग है। पूरे दिन में यदि क्षण भर भी संवेग रस प्रकट नहीं हुआ तो इस बाह्य काया की कष्ट रूप क्रिया से क्या लाभ? जिसको पक्ष में, महीने में, छह महीने में अथवा वर्ष के अंत में संवेग रस प्रकट नहीं हुआ उसे अभव्य अथवा दुर्भव्य जीव जानना। अतः संवेग के बिना दीर्घ आयुष्य, अथवा सुख संपत्ति, सारा ज्ञान, ध्यान संसार वर्धक है। और भी कहा है कि 'कर्म व्याधि से पीड़ित भव्य जीवों के लिए उस व्याधि को दूर करने का एकमात्र उपाय संवेग है। इसलिए श्री जिन वचन के अनुसार संवेग की वृद्धि के लिए आराधना रूपी महारसायन इस ग्रन्थ को कहूँगा, जिससे मैं स्वयं और सारे भव्यात्मा भाव आरोग्यता प्राप्त करके अनुक्रम से अजरामर मोक्षपद प्राप्त करेंगे। __ संवेगरंगशाला नामक इस आराधना शास्त्र में नाम के अनुसार ही सभी गुण विद्यमान हैं। इसके मुख्य चार विभाग हैं। (१) परिक्रम विधि द्वार, (२) परगण संक्रमण द्वार, (३) ममत्व विमोचन द्वार और (४) समाधि लाभ द्वार। इसमें भी भेद, प्रभेद, अन्तर भेद आदि अनेक भेदों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। वह विषयानुक्रमणिका देखने से स्पष्ट हो जायगा। इस महाग्रन्थ का विषय इतना महान विस्तृत है कि उसको समझाने For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेशक श्री संवेगरंगशाला के लिए कई और महान् ग्रन्थ बन सकते हैं। वह तो स्वयं को पढ़ने से ही अनुभव हो सकता है। इस महाग्रन्थ के कर्ता परमपूज्य महा-उपकारी आचार्य भगवंत श्री जिनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा हैं। ये नवांगी टीकाकार परम गीतार्थ आचार्य देव श्री अभयदेव सूरीश्वरजी महाराज के बड़े गुरु भाई थे। उनके अति आग्रह से इस ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ के विषय में श्री देवाचार्य रचित 'कथा रत्न कोष' की प्रशस्ति में इस तरह उल्लेख मिलता है। __ आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी वयरी वज्र शाखा में हुए हैं। जो आचार्यश्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी के शिष्य थे, उन्होंने 'संवेग रंगशाला' ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ११३९ में की थी। वि.सं. ११५० में विनय तथा नीति से श्रेष्ठ सभी गुणों के भंडार श्री जिनदत्त गणी नामक उनके शिष्य ने उसे सर्व प्रथम पुस्तक रूप में लिखा है। तथा आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी के शिष्य आचार्य श्री प्रसन्न सूरिजी की प्रार्थना से श्री गुणचन्द्र गणि ने इस ग्रन्थ को संस्कारित किया है। एवं आचार्य श्री जिनवल्लभ गणी ने इस ग्रन्थ का संशोधन किया है। विशेष परिचय इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में देख लें। खरतर गच्छ पट्टावली के अनुसार आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी नाम से कई आचार्य हुए हैं। परन्तु ये आचार्य श्री जिनेश्वर सूरीश्वरजी के शिष्य आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिजी हुए हैं, ये प्रथम जिनचन्द्र सूरिजी कहलाते हैं। इन्होंने अपने जीवनकाल में सात महाग्रन्थों की रचना की है। इसमें सर्वश्रेष्ठ रचना यह संवेग रंगशाला नामक आराधना शास्त्र है। पूज्य ग्रन्थकार श्री ने स्वयं अनुभव गम्य शास्त्रीय रहस्य केवल परोपकार भाव से लिखा है। स्याद्वाद दृष्टि से ज्ञाननय और क्रियानय, द्रव्यास्तिकनय और पर्यायास्तिकनय, निश्चय नय और व्यवहार नय आदि विविध अपेक्षाओं का सुन्दर समन्वय किया है। इस महाग्रन्थ का एकाग्र चित्त से श्रवण और अध्ययन करें एवं इसे कंठस्थ कर हृदयस्थ करें तो वह आत्मा समाधिपूर्वक जीवन यात्रा सफल कर सकता है। इस महाग्रन्थ की प्रशंसा कई ग्रन्थों में मिलती है। श्री गुणचन्द्र गणि ने वि.सं. ११३९ में रचित प्राकृत महावीर चरित्र में लिखा है कि संवेग-रंगशाला न केवलं कब्ज विरयणा जेण । भव्य जण विम्हयकरी विहिया संजम पवितो वि ।। अर्थात् आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीजी ने केवल संवेग रंगशाला काव्य रचना ही नहीं की अपितु भव्यजनों को विस्मय करानेवाली संयम वृत्ति का संपूर्ण विधान कहा है। तथा श्री जिनदत्त सूरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी उत्तरार्ध में रचित प्राकृत 'गणधर सार्धशतक' नामक ग्रन्थ में प्रशंसा लिखी है कि संवेगरंगशाला विसालसालोवमा कया जेण । रागाइवेरिभयभीत-भव्वजणरक्खणनिमित्तं ।। अर्थात् श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी ने रागादि वैरियों से भयभीत भव्यात्माओं के रक्षण के लिए विशाल किल्ले के समान संवेग-रंगशाला की रचना की है। तथा आ. जिनपति सूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में रचित पंचलिंगी विवरण में प्रशंसा की है कि For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला नर्तयितुं संवेगं पुनर्गुणा लुप्तनृत्यमिव कलिना । संवेग - रंगशाला येन विशालव्यरचि रुचिरा ।। अर्थात् आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी ने कलिकाल से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे ही फिर मनुष्यों को संवेग का नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसी प्रकार १२९५ में सुमति गणि द्वारा रचित गणधर सार्धशतक की संस्कृत बृहद् वृत्ति में उल्लेख मिलता है तथा चन्द्र तिलक उपाध्याय द्वारा रचित वि.सं. १३१२ अभयकुमार चरित्र संस्कृत काव्य में इसी ग्रन्थ के विषय में दो पद्य मिलते हैं। इसी प्रकार और भी इस ग्रन्थ के विषय में उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान काल में अन्तिम आराधना के लिए उपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज रचित पुण्य प्रकाश का स्तवन सुनाया जाता है, वह इस संवेग रंगशाला ग्रन्थ के ममत्व व्युच्छेद और समाधि लाभ विभाग का संक्षेप है। उसका अवलोकन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है। पाटण, जेसलमेर आदि जैन शास्त्र भण्डारों में आराधना विषयक छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। उन सबमें प्राचीन और विशाल आधार यह संवेग रंगशाला - आराधना शास्त्र विदित होता है। इसकी कुल दस हजार तिरपन ( १०,०५३) प्राकृत गाथाएँ हैं। जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना, आराधना का मुख्य मार्ग का इसमें वर्णन किया है। इसे पढ़ने से वैराग्य की उर्मियाँ प्रवाहित होती हैं। वैराग्यबल जागृत होता है। त्यागी जीवन के अलौकिक आनन्द का पूर्णरूप से अनुभव होता है। परम हितकारक इस ग्रन्थ का पठन-पाठन, व्याख्यान, श्रवण करना इत्यादि से प्रचार करना परम आवश्यक है। तथा चतुर्विध श्री संघ के लिए यह ग्रन्थ स्व- परोपकारक है। परम पूज्य ग्रन्थकार महर्षि ने इस महान् ग्रन्थ में आगम रहस्य का अमृतपान तैयार किया है, उसकी महिमा परिपूर्ण रूप में समझाने की अथवा वर्णन करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। परम पूज्य आचार्यदेव श्रीविजयभद्रंकर सूरीश्वरजी महाराज के गुजराती अनुवाद का ही अनुकरण कर मैंने एक श्रुतज्ञान की उपासना की भावना से यह शुभ उद्यम किया है। फिर भी इसमें छद्मस्थता के कारण कोई क्षति अथवा शास्त्र विरुद्ध लिखा गया हो, तदर्थ त्रिविध-त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडं देता हूँ। वाचक वर्ग उस भूल को सुधारकर पढ़ें। अन्त में सभी पुण्यशाली आत्माएँ महारसायन के अमृतपान समान इस महाग्रन्थ का वांचन, चिन्तन, मनन कर आराधना में विकास साधकर परम शान्ति-जनक संवेगमय समाधि प्राप्तकर अजरामर रूप बनें। यही एक हार्दिक शुभ मंगल कामना है। वि.सं. २०४१ फाल्गुण चौमासा, दि. ६-३-८५ 4 प्रवेशक विषय प्रेमी के लिए कोई कार्य अकार्य नहीं होता । विषय विमुख से कोई अकार्य नहीं होता । For Personal & Private Use Only पंन्यास पद्मविजय छोटी दादावाड़ी, दिल्ली -जयानंद . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण श्री संवेगरंगशाला || णमो वद्धमाणस्स ॥ || नमोऽस्तु श्री-जिन-प्रवचनाय ॥ ।। प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वराय नमः ।। श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर-प्रणीत গ্রী সোমঠাপ্লালা अर्थात् (वैराग्यरंग की नाट्य भूमि या नाट्यशाला) भावानुवाद ग्रन्थकार का मंगलाचरण : रेहइ जेसिं पयनहपरंपरा उग्गमन्तरविरुचिरा । नमिरसुरमउडसंघट्ट-खुडिय-वररयण राइ व्व ।।१।। अहव सिवपहपलोयणमणहत्थप्पईवपंति व्व । तिहुयणमहिए ते उसभप्पमुहतित्थाहिवे नमह ।।२।। अर्थात् उदय हुए सूर्य की कान्ति समान, लालवर्णयुक्त, नमस्कार करते हुए देवताओं के मुकुट के संघट्ट (स्पर्श) से गिरे हुए रत्नों की सुशोभित श्रेणी सदृश निर्मल तथा मोक्षमार्ग की खोज करने की इच्छावाले भव्य जीवात्मा के हाथ में रही हुई दीपक-श्रेणी समान, तेजस्वी, शोभायमान, पैर के नखों की श्रेणी वाले, तीन जगत के पूजनीय, श्री ऋषभदेव परमात्मा को और अन्य तीर्थंकर भगवंतों को हे भव्य प्राणियों! नमस्कार करों। अज्जवि य कुतित्थिहत्थिसत्थमच्चत्थमोत्थरइ जस्स । दुग्गनयवग्गनहनिवहभीसणो तित्थमयनाहो ।।३।। तं नमह महावीरं, अणंतरायं पि परिहरिय रायं । सुगयंपि सिवं सोमं पि चत्तदोसोदयारंभं ।।४।। अर्थात् महामुश्किल से जिसे समझ सके ऐसे दुर्गम नयवाद रूपी नख के समूह से भयंकर जिसका तीर्थशासनरूपी सिंह आज भी अन्य मतावलम्बी रूपी हाथियों के समूह पर अत्यन्त आक्रमण करता है ऐसे श्री श्रमण भगवान महावीर प्रभु को तुम नमस्कार करो, जो कि भगवंत अनन्त राग वाले होने पर भी राग के त्यागी हैं, सुगत बुद्ध होते हुए भी शिव-कल्याण के करने वाले और सोम अर्थात् चन्द्र होते हुए भी रात्रि के उदयरूपी आरम्भ के त्यागी हैं। यहाँ पर ग्रन्थकार ने विरोधाभास अलंकार से स्तुति की है। इसे दूर करने के लिए अनंतरायं अर्थात् अन्तराय बिना, परिहरियरायं अर्थात् राग के त्यागी, सुगत अर्थात् सम्यग् ज्ञान वाले होने से शिव अर्थात् उपद्रव हरने वाले और सोम अर्थात् सौम्यता गुण वाले होने से प्रभु चत्तदोसोदयारंभ अर्थात् रागादि दोषों के उदय और आरंभ के त्यागी हैं। ऐसा भी अर्थ हो सकता है। - 5 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंवेगरंगशाला मंगलाचरण जे निव्वाणगया विहु नेहदसावज्जिया वि दिप्पंति । ते अपुव्वपईवा जयन्ति सिद्धा जय पसिद्धा ।।५।। अर्थात् निर्वाण हुए और स्नेहदशा से रहित अपूर्व दीपक के सदृश, जगत प्रसिद्ध श्री सिद्ध परमात्मा विजयी हैं। यहाँ दीपक के पक्ष में निर्वाण हुए अर्थात् बुझे हुए और स्नेह-तेल तथा दशा-बत्ती ऐसा अर्थ करना, परंतु सिद्ध परमात्मा ऐसे नहीं हैं वे तो तेल और बत्ती के बिना ही प्रकाश के पुंज रूप हैं इसलिए वे अपूर्व दीपक समान हैं। हजारों अतिशयरूपी सुन्दर सुगन्धी से खुशबू फैलाते श्री जिनेश्वर के मुखरूपी सरोवर से प्रकट हुआ श्रुतरूपी कमल का मूल, नाल आदि के समान जो पाँच प्रकार के आचार का हमेशा पालन करने वाले और उसीका उपदेश देने वाले ऐसे गुण समूह के धारक श्री गौतमस्वामी आदि जो गणधर (आचार्य) हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ। सतत सूत्र के दान से आनंदित बनें मुनिवर रूपी भ्रमरों से घिरे हुए और नित्य चारित्र गुण से श्रेष्ठ हाथी के समान श्री उपाध्याय भगवंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। इस श्लोक में श्री उपाध्याय भगवंत को हाथी से तुलना की है. उनके पास हाथी समान ज्ञानरूपी महाकाया है. चरण गणरूपी चाल-गति है. ज्ञान न दानरूपी मद झरता है, वहाँ मुनि रूपी भौंरों का समूह मदरूपी ज्ञान दान लेने के लिए स्वाध्याय का श्रेष्ठ संगीत गाते हैं। जो करुणा रस से परिपूर्ण हृदयवाले, धर्म में उद्यमी जीव की सहायता करने वाले और दुर्जय कामदेव को जीतनेवाले तथा तपोनिधान रूप तपस्वी मुनिवर्य हैं। उनको मैं नमन करता हूँ। गुणरूपी राजा की राजधानी के समान श्री सर्वज्ञ परमात्मा की महावाणी को मैं नमस्कार करता हूँ कि जो वाणी संसाररूपी भयंकर कुएँ में गिरते हुए प्राणियों के उद्धार के लिए निष्पाप रस्सी के समान है। वह उत्तम प्रवचन (वाणी) विजयी है कि उन्मार्ग में जाते हुए बैल तीक्ष्ण परोण को देखकर जैसे वह सन्मार्ग में चलता है वैसे प्राणी प्रेरक प्रवचन को प्राप्तकर संसार मार्ग को छोड़कर मोक्ष मार्ग स्वीकार करता है। जो तो चिन्ता (ज्ञान) रूपी रहट को तैयार कर धर्म तथा शक्ल दो शभ ध्यान रूपी बैलों की जोडी द्वारा आराधना रूपी घडों की माला से आराधक जीव रूपी पानी को जो संसार रूपी कएँ में से खींचकर उच्चे स्थान (स्वर्ग या मोक्ष) में पहुँचाते हैं उन रहट तुल्य निर्यामक गुरु भगवंतों को तथा मुनिराजों को सविशेष नमस्कार करता हूँ। सद्गति की प्राप्ति के लिए मूल आधारभूत इस (ग्रंथ में जो परिकर्म विधि आदि कही जायगी) चार प्रकार की स्कंध वाली आराधना को जो प्राप्त हो गये हैं उन मुनियों को मैं वंदन करता हूँ और ऐसे गृहस्थों का अभिनन्दन (प्रशंसा) करता हूँ। वह आराधना भगवती जगत में हमेशा विजयी रहे कि जिसको दृढ़तापूर्वक लगे हुए भव्य प्राणि 'नाव में बैठकर समुद्र पार करते हैं वैसे भयंकर भव समुद्र को पार उतर सकते हैं।' अतः संसार से पार उतरने के लिए आराधना नाव समान है। अब श्रुतदेवी की स्तुति करते हैं। हे श्रुतदेवी! नित्य विजयी हो कि जिसके प्रभाव से मंद बुद्धि वाले भी कवि अपने इष्ट अर्थ को प्राप्त करने में समर्थ बन जाते हैं। 1. १. परिकर्म विधि, २. परगण में संक्रमण, ३. ममत्व उच्छेद, ४. समाधिलाभ ये चार स्कंध हैं। 2. इस ग्रंथ के रचना काल के समय में (वीर निर्वाण १०५५ के बाद) श्रुतदेवी देव योनि की देवी है ऐसी मान्यता प्रारंभ हो गयी थी। अतः जिनवाणी की पूर्व में स्तुति कर पुनः श्रुतदेवी की स्तुति की है। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार अटवी में धर्म की दुर्लभता श्री संवेगरंगशाला अब अपने पूज्य गुरुदेव की स्तुति करते हैं : जिनके चरण कमल के प्रभाव से मैंने सब लोगों में प्रशंसनीय सूरिपदवी प्राप्त की है, वे देवों से अथवा पंडितों द्वारा पूजनीय मेरे गुरु भगवंत को मैं वंदन करता हूँ। इस तरह समस्त स्तुति समूह को इस स्तुति द्वारा जैसे सुभट हाथियों के समूह द्वारा शत्रुरूपी प्रतिपक्ष को चकनाचूर करता है वैसे विघ्नों रूपी प्रतिपक्ष को चकनाचूर करने वाला मैं स्वयं अल्पमति वाला होने पर भी महान् गुणों के समूह से श्रेष्ठ सद्गुरु के चरणकमल अथवा चारित्र के प्रभाव से भव्यात्माओं को हितकारक कुछ अल्पमात्रा में कहता हूँ। संसार अटवी में धर्म की दुर्लभता :- अंकुश बिना यमराज रूपी सिंह हिरन तुल्य संसारी जीवों के समूह को जहाँ पर हमेशा मारता है, विलासी दुर्दान्त इन्द्रिय रूपी शिकारी जीवों से वह अति भयंकर है, पराक्रमी कषायों का विलास जहाँ पर फैला हुआ है, कामरूपी दावानल से जो भयानक है, फैली हुई दुर्वासना रूपी पर्वत की नदियों के पूर के समान दुर्गम्य है और तीव्र दुःख रूपी वृक्ष सर्वत्र फैले हुए हैं, ऐसी विकट अटवी रूपी गहन इस संसार में लम्बे मार्ग की मुसाफिरी करने वाले मुसाफर के समान मुसाफरी करते जीवों को गहरे समुद्र में मोती की प्राप्ति करने के समान, गाड़ी के जुआ (धूरी) और समीला के दृष्टान्त सदृश मनुष्य जीवन अति दुर्लभ है, उसे अति मुश्किल से प्राप्त करने पर भी उर्वरा भूमि में उत्तम अनाज प्राप्ति, अथवा मरुभूमि में कल्पवृक्ष की प्राप्ति के समान, मनुष्य जीवन में भी अच्छा कुल, उत्तम जाति, पंचेन्द्रिय की सम्पूर्णता, पटुता, लम्बी आयु आदि धर्म सामग्री, उत्तरोत्तर विशेष रूप से प्राप्त करना दुर्लभ है, उसे भी प्राप्त कर ले फिर भी सर्वज्ञ परमात्मा कथित कलंक रहित धर्म अति दुर्लभ है। क्योंकि वहाँ पर भी भावि में कल्याण होने वाला हो, संसार अल्प शेष रहा हो, अति दुर्जय मिथ्यात्व मोहनीय कर्म निर्बल बना हो, तब जीवात्मा को सद्गुरु के उपदेश से अथवा अपने आप नैसर्गिक राग-द्वेष रूपी कर्म की ग्रन्थी-गाँठ का भेदन होने से धर्म की प्राप्ति होती है। वह धर्म कैसा है उसे कहते बड़े पर्वत की अति तेज रफ्तार वाली महानदी के बहाव में डूबते जीव को नदी के किनारे का उत्कृष्ट आधार मिल जाय, भिखारी को निधान मिल जाये, विविध रोगों से दुःखी रोगी को उत्तम वैद्य मिल जाये और कुएँ में गिरे हुए को बाहर निकलने के लिए किसी के हाथ का मजबूत सहारा मिल जाय वैसे अत्यन्त पुण्य की उत्कृष्टता द्वारा प्राप्त हो सके ऐसे चिन्तामणी और कल्पवृक्ष को भी जीतनेवाला महान् उपकारी सर्वज्ञ कथित निष्कलंक धर्म को जीव प्राप्त करता है, इसलिए ऐसे परमधर्म को प्राप्तकर आत्मा को अपने हित के लिए ही खोज करनी चाहिए। वह हित ऐसा होना चाहिए कि जो किसी भी अहितकर निमित्त से, कहीं पर भी कभी भी बाधित न हो। ऊपर कहे अनुसार अनुपम-सर्वश्रेष्ठ, कभी भी नाश नहीं होने वाला और दुःख रहित, शुद्ध श्रेष्ठ हित (सुख) मोक्ष में मिलता है। वह मोक्ष कर्मों के संपूर्ण क्षय से होता है, और यह कर्मक्षय भी विशुद्ध आराधना करने से होता है, इसलिए हितार्थी भव्य जीवों को हमेशा उस शुद्ध धर्म की आराधना में उद्यम करना चाहिए। क्योंकि उपाय बिना उपेय की सिद्धि नहीं होती है। इस प्रकार की आराधना करने की इच्छावाला भी यदि उस आराधना का स्वरूप कथन करने वाले समर्थ शास्त्रों को छोड़कर, मनस्वी रीति से कितना भी उद्यम करें फिर भी सम्यग् आराधना को नहीं जान सकता है। इसलिए मैं तुच्छ बुद्धि वाला होते हुए भी, गुरु भगवंत की परम कृपा से और शास्त्रों के आलम्बन के द्वारा गृहस्थ और साधु उभय सम्बन्धी अति प्रशस्त महाअर्थ युक्त, मोक्ष और 1. श्रुतदेवी की स्तुति के बाद अपने गुरुदेव की स्तुति करना कहाँ तक योग्य है। यह धर्म प्रेमियों को अवश्य विचारणीय है। संपादक For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला उसके हेतु से युक्त आराधना - शास्त्र कहूँगा । अब आराधक को उद्देश्य कर कहते हैं : धर्म के अधिकारी :- आराधना की इच्छा करने वाले को प्रथम से ही तीन योगों को रोकना चाहिए। क्योंकि बेकाबू मन, वचन, काया ये तीनों योग सर्व अशुभ- असुख के सर्जक हैं। इसी निरंकुश तीनों योग के द्वारा आत्मा मलिन होती है। वह इस प्रकार से : मनोयोग :― असमंजस अर्थात् अन्याय रूपी निरंकुशता, विविध विषय रूपी अरण्य में परिभ्रमण करते अरति, रति और कुमति आदि हथिनियों तथा कषायरूपी अपने बच्चों आदि महासमूह के साथ तथा अनेक गुणरूपी वृक्षों का नाश करने वाला प्रमाद रूपी मद से मदोन्मत्त बना हुआ यह मन रूपी हाथी स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की कर्मरूपी रज द्वारा आत्मा को मलिन करता है। धर्माधिकारी वचन योग :- निरर्थक बोलती प्रतिक्षण अलग-अलग शब्दों को धारण करती और विलास - सुनने वालों का मनोरंजन करती वाणी (वचन) भी असती के समान स्वार्थ निरपेक्ष प्रवृत्ति वाली क्षण-क्षण में शब्द रूपी रंग को बदलने वाली अनर्थ को करने वाली है। काय योग :- आत्मा का अन्याय-अहित करनेवाली, पापकारी प्रवृत्ति-व्यापार वाली, सर्वविषय में सभी प्रकार से अंकुश बिना रहने वाली और तपे हुए लोहे के गोले के समान जहाँ स्पर्श करेगी वहीं जलाने वाली, ऐसे सर्वत्र हिंसादि करने वाली यह काया भी कल्याणकारी नहीं है। इन तीनों में निरंकुश एक भी योग इस लोक और परलोक के दुःख का बीज रूप है, तो वे तीनों जब साथ में मिल जाये तब क्या नहीं करते? अर्थात् महाअनर्थ करते हैं। इसलिए उन योगों के निरोध का प्रयत्न करना चाहिए। वह योग निरोध किस तरह होता है? उसे कहते हैं : उन दुष्ट योगों का निरोध प्रशस्त ग्रन्थों के अर्थ का चिन्तन करने से, उनकी रचना करने से, सम्यक् कार्य का आरम्भ करने से होता है, अन्यथा नहीं होता है। क्योंकि उन ग्रन्थों का अर्थ चिन्तन करने से मन का निरोध होता है, उस ग्रन्थ को बोलने से वचन का निरोध होता है और उस ग्रन्थ को लिखना आदि क्रिया करने से काया का निरोध होता है। इन कार्यों में सम्यक् प्रकार से तीनों योगों को जोड़ने से उनके असद् व्यापार को रोका जा सकता है। इस तरह कर्म बंध में एक प्रबल कारण योगों के प्रचार को रोकने वाले महात्मा ही हैं अथवा मेरी आत्मा ही है। योग निरोध से लाभ कहते हैं : योग निरोध का फल :- इस तरह योग निरोध होने से प्रथम उपकार प्रस्तुत ग्रन्थ का सर्जन होता है और दूसरा उपकार संवेग का वर्णन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रशम सुख का लाभ होता है। संवेग की महिमा :- स्वप्न में भी दुर्लभ संवेग के साथ निर्वेद आदि परमार्थ तत्त्वों का जिसमें विस्तार हो वही शास्त्र श्रेष्ठ कहलाता है। जिस शास्त्र में पूर्व जन्म के अनादि के अभ्यास से स्वयं सिद्ध और बाल-बच्चें, स्त्री आदि सब कोई सरलता से जान सकें ऐसे काम और अर्थ की प्राप्ति तथा राजनीति के उपाय अनेक प्रकार से कथन करने वाले जो वर्णन है, उन शास्त्रों को मैं निरर्थक समझता हूँ। इस कारण से संवेगादि आत्महितार्थ के प्ररूपक इस शास्त्र के श्रवण और चिन्तन मनन आदि करने में बुद्धिशाली जीवों को हमेशा प्रयत्न करना चाहिए । क्योंकि संवेग गर्भित अति प्रशस्त शास्त्र का श्रवण धन्य पुरुष को ही मिलता है, और श्रवण करने के बाद भी वह समरस (समता) की प्राप्ति तो अति धन्य पुरुष को ही होती है। और भी कहा है कि 8 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ रचना का हेतु और महिमा श्री संवेगरंगशाला जह जह संवेग रसो वण्णिज्जइ तह तहेव भव्वाणं । भिज्जंति खित्तजलमिम्मयाऽऽकुंभ व्व हिययाइं ।।४९।। सारो ऽवि य एसो च्चिय दीहरकालंपि चिण्णचरणस्स । जम्हा तं चिय कंडं जं विंधइ लक्खमज्झे वि ।।५०।। पानी से भरा हुआ मिट्टी का कच्चा घड़ा जैसे गीला होकर भेदित होता है जैसे-जैसे संवेग रस का वर्णन किया जाये, वैसे-वैसे भव्यात्माओं के अशुभ भावों का भेदन होता है। और लम्बे काल तक संयम पालन करने का सार भी संवेग रस की प्राप्ति है क्योंकि बाण उसे कहते हैं जो लक्ष्य का भेदन करें, वैसे आराधना उसे कहते हैं जिससे संवेग प्रकट हो। दीर्घकाल तक तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और बहुत श्रुतज्ञान का भी अभ्यास किया हो फिर भी यदि संवेगरस प्रकट न हुआ हो तो वह सर्व छिलकों को कूटने के समान निष्फल जानना। जिसके हृदय के अन्दर समग्र दिन में एक क्षण भी संवेग रस प्रकट न हो उस निष्फल बाह्य क्रिया के कष्ट का क्या फल मिलने वाला है? पाक्षिक में, महीने में, छह महीने में, या वर्ष के अन्त में भी जिसको संवेगरस प्रकट नहीं हुआ। उस आत्मा को दुर्भव्य अथवा अभव्य जानना। जैसे शरीर के सौन्दर्य में चक्षु है, पति-पत्नी, माता-पुत्र, गुरु-शिष्य आदि युगल रूप जोड़े में परस्पर हित बुद्धि है, और भोजन में नमक सारभूत है वैसे परलोक के विधान (हित) में संवेगरस का स्पर्श करना सारभूत है। संवेग के अनुभवी ज्ञाताओं ने भव (संसार) के अत्यन्त भय को अथवा मोक्ष की तीव्र अभिलाषा को संवेग कहा है ।।५५।। ग्रन्थ रचना का हेतु और उसकी महिमा :- इसलिए केवल संवेग की वृद्धि के लिए ही नहीं परन्तु कर्मरूपी रोग से दुःखी होते भव्य जीवों को और मेरी आत्मा को भी नीरोगी बनाने के लिए, लम्बे समय से सुने हुए गुरुदेव रूपी वैद्य के उपदेश में से वचनरूपी द्रव्यों को एकत्रित करके, भाव आरोग्यता का हेतुभूत, यह अजरामर करने वाला आराधना रूपी रसायण शास्त्र बनाने का मैंने आरम्भ किया है। यह आराधना-संवेगरंगशाला रूपी चन्द्र की किरणों के नीचे रहे हुए दिव्य ज्ञान कान्ति वाले आराधक जीवरूपी चन्द्रकान्त मणि में से पापरूपी पानी प्रतिक्षण झरता है। अर्थात् इस संवेगरंगशाला में कही गयी आराधना करने से पापों का प्रतिक्षण नाश होता है। जैसे कतक फल का चूर्ण जल को निर्मल करता है वैसे जिसका रहस्य संवेग है उस संवेगरंगशाला को पढ़ने वाले, श्रवण करने वाले और उसके अनुसार आराधना करने वालों के कलुषित मन को निर्मल और शान्त करता अब इस ग्रन्थ को वेश्या की और उसके साधु को विलासी की उपमा दी है। इस कारण से इसके पदों में अलंकार का लालित्य है, वेश्या के चरण में अलंकार हैं, सरल, कोमल और सुन्दर हाथ से सुशोभित अखण्ड शरीर के लक्षणों से श्रेष्ठ होती है, उत्तम सुवर्ण और रत्नों के अलंकारों से उज्ज्वल शरीर वाली, कान को प्रिय लगे ऐसी भाषा बोलने वाली, विविध आभूषणों से भूषित शरीर वाली, प्रशान्त रस-उन्माद वाली, अन्य लोगों को विषय सुख देने वाली है, बहुत मान, हाव-भाव द्वारा परपुरुष को काम का आनन्द देने वाली, मिथ्या आग्रह बिना की, कभी भी उसको कितना ही धन मिल जाय तो भी उस धन को बहुत नहीं मानने वाली-असंतोषी, बहुत व्यक्ति के पास से अर्थ को प्राप्त करने वाली, जन्म से लेकर काम के विविध आसन अथवा नृत्य सम्बन्धीकरण के अभ्यास वाली होती है। ऐसी महावेश्या के समान आराधना विधि रूप संवेगरंगशाला है। For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ग्रंथ के नाम में हेतु और संबंध यह संवेगरंगशाला पदों से अलंकृत है जो सरल, कोमल और शुभ अर्थ से शोभित है, अखण्ड काव्य के लक्षणों से श्रेष्ठ है, जिसके अन्दर सुन्दर शब्दों रूपी से उज्ज्वल देदीप्यमान स्वरूप होने से उज्ज्वल आकृति वाली, श्रोता के कान को सुख देने वाली, कल्याणकारी शब्दों से युक्त, काव्यों के विविध अलंकारों द्वारा शोषि समग्र शरीर वाली है तथा उछलते प्रशान्त रस से उन्माद वाली है, विशेषतया परलोक विषय के देवादि सुख को देने वाली है और बहुत मानपूर्वक प्रकटकर वाचक श्रोतादि को श्रेष्ठ आनंद उत्पन्न कराने वाली है। तथा इसकी रचना असद् गाथाओं से रहित है, इसमें किसी स्थान पर भी अनर्थरूपी कालिमा नहीं है और अनेक ग्रन्थों में से एकत्रित किये हुए अर्थ रूप तत्त्वों वाली है तथा प्रारम्भ काल से कारक की विभक्तियों के विधान के लिए परिश्रम वाली महावेश्या के समान संवेगरंगशाला है। यह संवेगरंगशाला रूपी वेश्या हमेशा अपनी समता की रमणता में तत्पर है, मोह का विनाश करने वाली, ज्ञान का विस्तार करने में तत्पर, अखण्डित व्रतों से युक्त और साधुता में विलास करने में चतुर है। अप्रशम राग-द्वेष विषयादि में प्रीति करने वाली, नित्य काम की आशा करने वाली, विविध भागों में युवावस्था वाली, अपने मनपसन्द विलासों में चतुर के नेत्रों को आनन्द देने वाली और चिन्तन मनन के योग्य वचन वाली यह आराधना संवेगरंगशाला है। वेश्या नेत्रों को आनन्द देने वाली और दर्शनीय मुख वाली होती है अर्थात् वेश्या जैसे विलासी के चित्त को हरण करती है वैसे यह संवेगरंगशाला सभी साधुओं के मन का हरण करेगी और इसी तरह परिवार और परिग्रह के संग की इच्छा छोड़ने वाले वैरागी सद् गृहस्थों को भी यह संवेगरंगशाला निर्वृत्ति शान्ति का अथवा सर्व विरति के निमित्त रूप अवश्य बनेगी ।।६।। जैसे अति निपुण बढ़ई पुरानी लकड़ी, ईंट या पत्थर आदि वस्तुओं को तोड़ फोड़कर संधिस्थान मिलाकर, मोटा-पतला या लम्बा-छोटा बनाकर दसरा आकार देकर सुन्दर मन्दिर, मकान रूप में बनाता है वैसे ही करने के लिए मैं भी तत्पर बना हूँ। श्रुत के अन्दर देखने में आये हुए, और प्राचीन इस प्रारब्ध ग्रन्थ में उपयोगी कोई गाथा, श्लोक, आधी गाथा, अथवा दो-तीन आदि अनेक श्लोक के समूह रूप कुलक आदि को भी कुछ ग्रहण करके तथा कुछ छोड़कर, किसी स्थान पर बढ़ा चढ़ाकर, किसी स्थान पर कम कर मैं उस व्याख्या के द्वारों में उपकारी बनूँ इस तरह पराये भी इस ग्रन्थ में किसी भी स्थान पर जोदूंगा। नये ग्रंथ की रचना करने के लिए अपना ज्ञान और अभिलाषा होने पर भी अपने काव्य की रचना का अभिमान छोड़ने के लिए अन्य कवियों की रचना भी अपनी रचना में शामिल करता हूँ, इससे कवि की जिम्मेदारी के भार से हल्का होता हूँ अर्थात् स्वयं को उन विषयों का ज्ञान होने पर भी अन्य ग्रन्थकार के पाठ या साक्षी देकर अपनी रचना विश्वसनीय उत्तर देने वाली बनती है और अपनी जवाबदारी का भार कम होता है और दूसरों का केवल उपकार करने के लिए मेरा यह प्रारम्भ है, इससे वह भी स्व-पर उभय के वचनों द्वारा युक्ति-युक्त बनेगा। ऐसा देखने में भी आता है कि जब अधिक ग्राहक आते हैं तब सामान्य व्यापारी अपनी और अन्य व्यापारी के दुकान में रही हुई वस्तुओं को एकत्रित कर बड़ा व्यापारी बन जाता है। ग्रन्थ के नाम में हेतु और सम्बन्ध :- इस ग्रन्थ में कहा जायगा वह प्रस्तुत आराधना को गुण निष्पन्न नाम से जिसका अर्थ निश्चित है, ऐसे यथार्थ संवेगरंगशाला नाम से कहूँगा। अर्थात् इस आराधना का नाम संवेग रंगशाला रखते हैं। इस संवेगरंगशाला में साधु और गृहस्थ विषयक आराधना जिस तरह नवदीक्षित महासेन ने पूछा था और श्री गौतम गणधर ने जिस प्रकार उसे कहा था तथा जिस प्रकार उसने सम्यक्त्व की आराधना कर वह राजा मोक्ष प्राप्त करेगा, इस तरह से मेरे द्वारा कही गयी इस आराधना को एकाग्र चित्त से सुनो और हृदय में धारण करो ।।७६।। अब कथा रूप आराधना का वर्णन करते महासेन राजा का दृष्टांत कहते हैं। 1. इस अनुवाद में प्रथम वेश्या का स्वरूप बताकर फिर संवेगरंगशाला को उपमित की है। गुजराती अनुवाद में दोनों का साथ-साथ में वर्णन दिया है। 10 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा महासेन राजा की कथा धन-धान्य से परिपूर्ण बहुत नगरों और गाँवों के समूह से रमणीय, रमणीय रूप और लावण्य वाली युवतियों से सर्व दिशाओं में शोभायमान तथा सर्व दिशाओं में से आये हुए व्यापारी जहाँ विविध प्रकार के बड़ेबड़े व्यापार करते हैं और व्यापार से धनाढ्य बने हैं। बहुत धनाढ्यों ने जहाँ श्रेष्ठ देव मंदिर बनाये हैं। उन देव मंदिरों के ऊँचें शिखरों के अंतिम विभाग में उड़ती हुई श्वेत ध्वजाओं के समूह से आकाश भी जहाँ ढक गया है तथा आकाश में रहे विद्याधरों ने जिनकी सुन्दर गुण समूह से प्रशंसा की है तथा रमणीय गुण के समूह से प्रसन्न हुए मुसाफिरों ने जिस देश में आकर निवास करने की इच्छा की है, ऐसे इस जम्बू द्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में कच्छ नाम का देश है। भारत में तो गोविंद अर्थात् वासुदेव एक ही है, हली अर्थात् बलदेव भी एक है और अर्जुन भी एक ही है, जब कि यह देश सैंकड़ों गोविंद अर्थात् गाय समूह से युक्त है, हली अर्थात् किसान भी सैंकड़ों हैं और अर्जुन नामक वृक्ष की कोई संख्या नहीं है, इसी तरह यह देश भारत की महत्ता की भी उपेक्षा करता है । वहीँ युवा स्त्री जैसे वस्त्र से अंगोंपांग लपेटकर रखती है वैसे यह नगर किल्ले से युक्त था, सूर्य का बिम्ब जैसे अत्यन्त प्रभा से युक्त होता है, वैसे नगर बहुत मार्गों से युक्त था और विभक्ति वर्ण, नाम आदि से युक्त प्रत्यक्ष मानों शब्द विद्या व्याकरण हो वैसे सुन्दर अलग-अलग वर्ण के नाम वाले भिन्न-भिन्न मोहल्लें-गली आदि थें, और वह नगर बड़ी खाई के पानी से व्याप्त और गोलाकार किल्ले से घिरा हुआ होने से मानो लवण समुद्र की जगत से घिरा हुआ जम्बू द्वीप की समानता की स्पर्धा को करता था तथा हमेशा चलते विस्तृत नाटक और मधुर गीतों से प्रजाजन को सदा आनन्द की वृद्धि कराता था, और परचक्र के भय से रहित होने से कृतयुग अर्थात् सुषमा काल के प्रभाव को भी जो विडम्बना करता था, महान विशाल ऋद्धि के विस्तार से युक्त बड़े धनाढ्य मनुष्य वहाँ हमेशा दान देते थें, इससे मैं मानता हूँ कि वैश्रमण - कुबेर भी उनके सामने साधु के समान धन रहित दिखता था अर्थात् कुबेर सदृश धनिक दातार वहाँ निवास करते थें और हिमालय समान उज्ज्वल और विशाल मकानों से सभी दिशायें ढक गयी थीं, इस तरह देवनगरी के समान उस देश में श्रीमाल नामक नगर था । उस नगर के अन्दर के भाग में पद्म समान मुख वाली सुन्दर स्तन वाली विकसित कमल के समान नेत्र वाली स्त्रियाँ थीं वैसे बाहर विभाग में ऐसी ही बावडियाँ थीं। उनमें भी पद्म रूप मुख सदृश मधुर जल भरा हुआ था और नेत्ररूपी विकासी कमल थें। उस नगर के अन्दर के भाग में बहुत सामन्तों वाले और प्रसिद्ध कवियों के समूह से शोभित उद्यान की श्रेणियाँ थीं और बाहर के विभाग में बहुत वृक्षों वालीं और बन्दरों के समूह से शोभित प्रसिद्ध वन-पंक्तियाँ थीं। इस तरह गुण-श्रेणी से शोभित होने पर भी उस नगर 'एक महान् दोष था कि जहाँ धार्मिकजन याचक को अपने सन्मुख आकर्षण करते थें। 1इस नगर में रहने वाले लोगों को धन का लोभ नहीं था परन्तु निर्मल यश प्राप्ति करने का लोभ था । मित्रता साधुओं से थी। राग श्रुतज्ञान में था । चिन्ता नित्यमेव धर्म क्रिया में थी। वात्सल्य साधर्मिकों के प्रति था। रक्षा दुःख से पीड़ित प्राणियों की करते थें और तृष्णा सद्गुण में थी ।। ९९ ।। उस नगर का पालन करने वाला महासेन नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा की महिमा ऐसी थी कि नमस्कार करते राजाओं के मणि जड़ित मुकुट से राजा की पादपीठ (पैर रखने का स्थान) घिसकर, मुलायम 1. यहाँ विरोधाभास अलंकार इस प्रकार घटाया है कि-मार्गण यानि बाण तो फेंकने के बाद फेंकने वाले से विपरीत मुखकर दूर जाता है और यहाँ मार्गण - याचक धर्मियों के सन्मुख आते हैं। श्री संवेगरंगशाला For Personal & Private Use Only 11 . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा हो गया था। शरदऋतु के सूर्य से भी अधिक प्रचण्ड प्रताप वाला, शत्रुओं के मदोन्मत्त हाथियों के कुम्भ स्थल को तीक्ष्ण तलवार से निर्दयता से खतम करने वाला और नगर के दरवाजे की परिघी के समान मजबूत भुजदण्ड से प्रचण्ड शत्रुओं को भी नाश करने में शूरवीर था तथा अपने रूप से कामदेव को भी पराभव करने वाला, चन्द्र समान मुख वाला, कमल के समान नेत्र वाला और अत्यन्त प्रचुर सेना वाला वह राजा था। वह एक होने पर भी अनेक रूप वाला हो इस तरह सौभाग्य गुण से स्त्रियों के हृदय में, दानगुण से याचकों के हृदय में और विद्वता से पंडित के हृदय रूपी घर में निवास करता था। अर्थात् विविध गुणों से प्रजाजन को आनन्द देता था। उसकी विजय युद्ध यात्रा में समुद्र के फेन के समूह के समान उज्ज्वल छत्र के विस्तार से ढक गया दिशा-चक्र मानो आनन्द से हँसता था ऐसा शोभता था। शत्रुओं को तो उसने सुसाधु के समान राज्य की मूर्छा छुड़वा दी थी। उनके विषय सुख का त्याग करवाकर और भिक्षावृत्ति से जीवन व्यतीत करने वाले वे होने से मानो वह उनका धर्मगुरु बना हुआ था। वह राजा जब युद्ध के अन्दर हाथ में पकड़ी हुई तलवार चलाता था, तब उसमें से उछलते नीलकान्ति की छटा से उसका हाथ मानो धूमकेतु-तारा उगा हो ऐसा दिखता था। बुद्धि का प्रकर्ष तो महात्मा जैसा था कि ऐसा कुछ नहीं कि जिसको नहीं जाने, समझे, परन्तु निर्दाक्षिण्य (चतुराई रहित) और खलता (दुष्टता) को वह जानता भी नहीं था अर्थात् उसकी बुद्धि सम्यग् होने से दोष उसमें नहीं था। वह बहुत श्रेष्ठ हाथी घोड़ों से युक्त और बहुत विशाल पैदल सेना वाला था। वह राजा सुखी था। वह बड़ा आश्चर्य था ।।१००।। उस राजा में एक ही दोष था कि स्वयं सद्गुणों का भण्डार होने पर भी उसने सर्वशिष्ट पुरुषों को हाथ बिना, वस्त्र बिना और नाक बिना के कर दिये थे। यहाँ विरोधाभास अलंकार है, उसे रोकने के लिए कर-चुंगी बिना, वसण-व्यसन बिना और अन्य के प्रति आशा या शिक्षा नहीं करने वाला था अर्थात राजा दान इतना देता था कि शिष्ट पुरुष को हाथ बिना के बना दिये थे, ऐसे श्रेष्ठ कपड़े पहनता था कि दूसरे वस्त्र बिना दिखते थे, तथा राजा ने ऐसी इज्जत प्राप्त की थी, उसके सामने उसके जैसी किसी की भी इज्जत आबरू नहीं रही थी। शरदऋतु को भी जीतने वाली मुखचन्द्र के कान्तिवाली अमर्यादित अनेक रूप से युक्त और सुशोभित सुन्दर शणगार से लक्ष्मी देवी समान, उत्तम कुल में जन्मी हुई, उत्तम शील से अलंकृत, पति के स्नेह में विशेषतया प्रिय, पतिभक्ता, सद्गुणों में आसक्त कनकवती नामक रानी थी। उसका सारी कलाओं की कुशलता से युक्त, रूपवान, गुण का भण्डार, सौम्य आदि गुणवाला, मानो राजा का दूसरा रूप हो, इस तरह जयसेन नाम का पुत्र था। उस राजा के सुविशुद्ध बुद्धि के प्रकर्ष से संशयों को दूर कर सर्व पदार्थों का निश्चय करने वाले तथा नयगर्भित महाअर्थ को जानने वाले, प्रशस्त शास्त्रों के चिंतन में उद्यमशील, संधि, विग्रह, यान, आसन आदि छह गुणों में स्थिर चित्तवाले और अपने स्वामी के कार्य सिद्ध करने में जीवन को सफल मानने वाले, वफादार स्वामी भक्त एवम् गाढ़ प्रेम होने के कारण परस्पर अलग नहीं होने वाले, श्रेष्ठ कवियों के समान अपूर्व अर्थ चिन्तन करने में अटूट इच्छा वाले और सर्वत्र प्रसिद्ध यश वाले, धनंजय, जय, सुबन्धु आदि मंत्री थे। उसके ऊपर राज्य की जिम्मेदारी रखकर राजा अपनी इच्छानुसार क्रीड़ा करता था। वह किसी समय उछलते श्रेष्ठ झांझर की कोमल झंकार वाली तथा नाच करते, उछलते, बड़े देदीप्यमान हार से सुशोभित कंठ वाली, निर्मल हार और लम्बे कंदोरे के टूटते डोरी वाली विविध प्रकार के नृत्य करती नर्तकी का नाटक देखता था, किसी समय हाथ की अंगलियों से अंकुश पकड़कर अत्यन्त रोषयुक्त दुष्ट मदोन्मत्त हाथी के स्कन्ध ऊपर बैठकर लम्बे पथ वाले वन में लीलापूर्वक क्रीड़ा करके मनुष्यों के आग्रह को मना करने में कायर वह राजा अपने महल में वापिस आता था। किसी दिन मद का पान करते बहुत भ्रमरों से भूषित, अर्थात् 12 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला मद झरते हाथियों के समूह को, तो किसी दिन अति वेग वाले घोड़े को दौड़ाते नचाते देखता था, किसी समय श्रेष्ठ कोमल काष्ठ से बने हुए सुन्दर रथ के समूह को तो किसी दिन उत्कृष्ट राजा के भाव को जानने वाले महासुभटों को देखता था । इस तरह राज्य धर्म की देखभाल करते हुए भी वह राजा हमेशा आत्मधर्म के निमित्त पुण्य, पाप, बंध, मोक्ष आदि तत्त्वों को समझाने वाली युक्ति वाले, अनेक विभागों को बताने वाले, संसार के स्वरूपों को सूचित करने वाले और सभी दोषों का नाश करने वाले आगम शास्त्र 'अर्थ में दत्तचित्त होकर नयेनये भावों को आश्चर्यपूर्वक सुनता था । इस तरह पूर्व जन्मोपार्जित महान पुण्य के समूह से सर्व इच्छाओं से पूर्ण हुआ उस राजा के दिन विविध क्रीड़ा से व्यतीत होते थें । वह राजा किसी दिन सभा में बैठा था उसके दाहिने और बायें दोनों ओर नवयुवतियों द्वारा उज्ज्वल चामर ढोले जा रहे थें, दूर देश से राजाओं का समूह आकर चरण कमल में नमस्कार कर रहे थें, और स्वयं अन्यान्य सेवकों के ऊपर मधुर दृष्टि को फेंक रहा था, उस समय पर काँपते शरीर वाला, सिर पर सफेद बाल वाला और इससे मानो वृद्धावस्था का गुप्तचर हो ऐसा कंचुकी शीघ्र राजा के पास आकर बोला कि - आदरपूर्वक आयी हुई स्त्रियों के मुखरूप कमलों को विकसित (प्रसन्न ) करने में चन्द्र तुल्य, सुखरूपी लताओं के मूल स्वरूप क्रीड़ा से शोभती हुई भुजाओं से अति समर्थ और सर्व सम्पत्ति युक्त हे देव! कमल के पत्र समान लम्बे नेत्र वाली लक्ष्मी से आपकी जय हो! जय हो! इस तरह स्तुतिपूर्वक आशीर्वाद देकर कहा कि लाखों शत्रुओं का पराभव करने वाले हे स्वामिन्! हमारी विनती है कि अन्य पुरुषों से रखवाली करते जाग्रत और सर्व दिशाओं में देखते हुए हम अन्तपुरः में होने पर भी जंगली हाथी के समान, रोकने में असमर्थ एक भयंकर पुरुष किसी स्थान से अचानक आया । वह मानो तीक्ष्ण शस्त्र से युक्त साक्षात् विष्णु के समान, पर्वत सदृश महान् शरीर वाला, वीर वलय धारण करने वाला, बड़ी भुजाओं वाला और अक्षुब्ध मन वाला, निर्भय वह पहरेदार की भी अवगणना करके कनकवी रानी के निवास में जैसे पति अपने घर में प्रवेश करता है वैसे गया है। हे राजन् ! तीक्ष्ण धार वाली तलवार के प्रहार भी उसके वज्र स्तम्भ समान शरीर पर लगता नहीं है, और गर्व से उद्भट सुभट भी उसके फूँक की हवा मात्र से गिर गये हैं। मैं मानता हूँ कि उसने करुणा से ही हमारे ऊपर प्रहार नहीं किया है। अन्यथा यम स उसे कौन रोक सकता है? हे स्वामिन्! इससे पूर्व हमने कभी नहीं सुना और न ही देखा ऐसा प्रसंग आ गया है, इसमें कुछ भी समझ में नहीं आता है, अतः अब आपकी जो आज्ञा हो वह हम करने को तैयार हैं ।। १२४ ।। इस प्रकार सुनकर क्रोध के आवेग से उद्भ्रान्त भृकुटी द्वारा भयंकर, ऊँचे चढ़े भाल प्रदेश वाला, बारबार होंठ को फड़फड़ाते और वक्र भृकुटी वाले राजा ने ताजे कमल के पत्र समान लम्बी अपनी आँखों से सिद्ध पुरुषाकार वाले, पराक्रमी, सामन्त, सुभट और सेनापतियों के ऊपर देखा, यम की माता के समान राजा की भयंकर दृष्टि को देखकर अति क्षोभित बनें सभी सामन्त आदि मानों चित्र में चित्रित किये हों इस तरह भय से स्तब्ध हो गये। इस व्यतिकर को सुनकर अभिमान रहित बनें सेनापति तथा सुभट भी उत्तम साधुओं के समान तुरन्त संलीनता में मन लगाने के समान शून्य मन वाले हो गयें। हाथ में तलवार को धारण करते राजा भी सभा को शून्य शान्त देखकर बोला- व्यर्थ में पराक्रम का अभिमान करने वाले 'हे अधर्म सेवकों! तुम्हें धिक्कार है! मेरी नजर के सामने से जल्दी दूर हट जाओ' ऐसा बोलता हुआ कटिबंधन से बद्ध होकर उसी समय राजसभा से बाहर निकल गया। उसके बाद चण्ड, चपल, मंगल, विश्वभर आदि अंग रक्षकों ने मस्तक पर अंजलि जोड़कर भक्तिपूर्वक राजा को विनती की कि - हे राजन् ! आप हमें क्षमा करें। हमें आज्ञा दीजिए और इस उद्यम से आप रुक जाएँ। हमारी प्रथम प्रार्थना भंग करने योग्य नहीं है, यदि आप स्वयं नहीं रुकते तो भी एक क्षण आप For Personal & Private Use Only 13 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा रूप बनकर देखें। क्योंकि स्वामी का मधुर दृष्टिपात भी किये हुए कार्यों में विघ्नों का नाशक होता है। इस प्रकार विनय युक्त शब्द सुनकर क्रोध से कुछ उपशान्त होकर राजा ने आँखों के इशारों से उनको कुछ अनुमति दी, इससे बाण, भाले, तलवार, भल्लि, बरछी आदि शस्त्रों सहित अखण्ड मजबूत बख्तर से सुशोभित शरीर वाले वे चण्ड आदि अंग रक्षक चलें। चलते हुए वे क्रमशः अन्तःपुर में पहुँचकर और वहाँ उन्होंने उस पुरुष को रानी के साथ शय्या में बैठा हुआ देखा, इससे उससे कहा कि-अरे! म्लेच्छ समान अधम आचरण करने वाला, हे पुरुषाधम! राजा की मुख्य पट्टरानी को भोगने की इच्छा वाला आज तूं यमराज के मुख में प्रवेश करेगा। जो कि अपने पाप से ही मारा गया है, तुझे मारना योग्य नहीं है, फिर भी हमारी इच्छानुसार निश्चय तूं मारा जायगा। ऐसा होने पर भी यदि तुझे जीने की इच्छा हो तो विनयपूर्वक नमस्कार कर राजा से क्षमा याचना कर अथवा युद्ध के लिए सामने आ जा। अब भी समय है कि जब तक यम की दृष्टि समान हमारी बाण की श्रेणि तेरे ऊपर नहीं गिरती तब तक महल का स्थान छोड़कर बाहर निकलकर और एक क्षण अपना पराक्रम बतला। ऐसा कहकर अत्यन्त मत्सर और अति उत्साहपूर्वक आवेश वाले प्रहार करते हैं, उसके पहले ही उसने कहा-अरे मूढ़ समान! तुम नहीं जानते, तीक्ष्ण नखों से हाथियों के कुम्भ स्थलों को भेदने वाले केसरी सिंह को कोपायमान भी हिरनों का टोला (समूह) क्या कर सकता है? अथवा विकराल और देदीप्यमान मणि से तेजस्वी चढ़ी हुई फण के समूह वाले और रोष से भरे हुए सर्यों के समूह भी गरुड़ का क्या कर सकते हैं? अतः क्रोध से भरा हुआ प्रहार करने का यह निष्फल फटाटोप (फुकार) रख दो, क्योंकि शक्ति के अतिरिक्त प्रयत्न करने से मृत्यु होती है, और तुम्हारे राजा की रानी को चाहते हुए मुझे तुम अयोग्य कहते हो वह भी तुम्हारी विमूढ़ता का परिणाम है। क्योंकि मैंने अपने सामर्थ्य से उसकी पत्नी को ग्रहण की है, इससे तुम्हारे राजा का स्वामीत्व कभी से खत्म हो गया, अब रानी का पति वह नहीं है मैं स्वयं हूँ, और इस तरह तुम्हारे जैसे के समक्ष, इस प्रकार यहाँ रहते मुझे किसी प्रकार का कलंक भी नहीं है, क्योंकि जार पुरुष तो चोर वृत्ति वाला होता है, मैं तो तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष बैठा हूँ, फिर भी यदि तुमको मेरे प्रति रोष हो तो तुम्हें कौन रोक सकता है? मेरे ऊपर प्रहार करो, किन्तु समझना कि यह वह पुरुष नहीं है कि जिसके उपर शस्त्र का आक्रमण कर सको। ऐसा कह कर वह रुक जाता है, इतने में क्रोधातुर वे सैनिक शस्त्रों को उठाकर प्रहार करते हैं कि उसके पहले ही उस पुरुष ने उन सबको स्तम्भित कर दिया उसके बाद उनको वज्रलेप से बनाये हो अथवा पत्थर में गड़े हों ऐसे स्थिर शरीर वाले बना दिये, और वह पुरुष एक क्षण क्रीड़ा करके अल्प भी मन में क्षोभ बिना कनकावती को अपने हाथ से उठाकर प्रस्थान कर गया। यह सारा वृतान्त राजा ने जाना ।।१५१।। तब उसने विचार किया कि-ऐसी शक्ति वाला क्या यह कोई देव, विद्याधर अथवा विद्या सिद्ध होगा? यदि वह देव हो तो उसे यह मानुषी स्त्री का क्या काम? और यदि विद्याधर हो तो वह भी भूमिचर स्त्री की इच्छा नहीं करता, और यदि विद्या सिद्ध हो तो निश्चय ही वह भी विशिष्ट रूप वाली पाताल कन्या आदि दिव्य स्त्रियाँ होने पर भी इस स्त्री को क्यों ग्रहण करे? अथवा मृत्यु नजदीक आने के कारण धातु क्षोभ होने पर किसके हृदय में अकार्य करने की इच्छा नहीं होती है? अर्थात् जब मृत्यु नजदीक आती है तब ऐसे कार्य करता है। अथवा ऐसे विचार करने से क्या लाभ? वह भले कोई भी हो, वर्तमान में उसकी उपेक्षा करना योग्य नहीं है। यदि मैं स्त्री की भी रक्षा नहीं कर सकता, तो पृथ्वी मण्डल के राज्य की रक्षा किस तरह करूँगा? तथा मेरा यह कलंक लम्बे काल तक अन्य देशों में भी जाहीर होगा। इस कारण से रामचन्द्रजी भी सीता को लेने के लिए लंका गये थे। इसलिए वह दुराचारी जब तक दूर देश में नहीं पहुँचता उसके पहले ही मैं स्वयंमेव वहाँ जाकर उस अनार्य को शिक्षा करूँ। और इस तरह बहुत लम्बे काल पूर्व सिखी हुई मेरी 14 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला स्तम्भिनी आदि विद्याओं के बल की परीक्षा करूँ, ऐसा सोचकर कुछ सुभटों के साथ राजा चला। राजा को जाते देखकर उसके पीछे बड़ा सैन्य भी चला। सैन्य, चलते ऊँचे हाथियों से अति भयंकर था, मगरमच्छ आदि चिह्नों वाली ध्वजाओं के समूह से शोभित रथ वाला, श्रेष्ठ सेवकों से सब दिशाओं से भरा हुआ, सर्व दिशाओं में फैले हुए घोड़ों का समूह वाला, गणनायक और दण्डनायकों से युक्त, युवतियों को और कायर को डराने वाला, युद्ध सामग्री उठाये हुए ऊँटों का समूह वाला, वेग वाले वाहनों के चलने से उड़ी हुई भूमि की रजवाला, उसमें सुभट, हाथियों, घोड़े आदि के रत्नों के अलंकार से सुशोभित वाहन तलवार आदि महाशस्त्रों से भयजनक भय से काँपते बालकों को मार्ग से भगाने वाला, प्रसन्न हुए भाट चारण उसकी बिरुदावली गाया जानेवाला, घोड़ों के हेयारव से भयभीत बने ऊँटों के समूह वाला, छत ऊपर चढ़े मनुष्यों द्वारा देखा जाता, हर्ष से विकसित नेत्र वाले महासुभटों से युक्त, बलवान शत्रुओं को क्षय करने में समर्थ तेजस्वी यश वाला, महान चतुरंग सैन्य नगर में से तुरन्त महासेन राजा के पीछे चला। उस समग्र सेना से घिरा हुआ, श्रेष्ठ घोड़े के ऊपर बैठा हुआ और उसके ऊपर ऊँचा श्वेत छत्र युक्त वह राजा जब थोड़ी दूर गया तब गाल कुछ विकसित हों, इस तरह धीरे से हँसकर उस पुरुष ने एक राजा के सिवाय अन्य समग्र सेना को चित्र समान स्तम्भित कर दी। ऐसी स्थिति देखकर अत्यन्त विस्मय होकर महासेन विचार करने लगा कि-अहो! महापापी होने पर भी ऐसी सुन्दर शक्ति वाला कैसे? ऐसे शक्तिशाली पुरुष को अकार्य करने का ज्ञानी पुरुषों ने निषेध किया है, किन्तु यह ऐसा अकार्य क्यों करता है? मैं मानता हूँ कि यह स्तम्भनादि करने वाला मन्त्र भी ऐसे ही अधम होंगे, इससे परस्पर सदृश प्रकृति वाला उनका सम्बन्ध हुआ है। अतः ऐसा सोचने से क्या प्रयोजन है? मैं भी उसे स्तम्भित करने के लिए सद्गुरु के पास से लम्बे काल से अभ्यास की हुई स्तम्भन विद्या का स्मरण करूँ। उसके बाद सर्व अंगों में रक्षा मन्त्र के अक्षरों का स्थापन करके. वाय रूप श्वासोच्छ्वास का निरोध (कुम्भक) करके, नासिका के अन्तिम भाग में नमाये हुए स्थिर नेत्र कमल वाले राजा, कमल के मकरन्द रस के समूह समान सुन्दर सुवास तथा श्रेष्ठ फैलने वाला प्रकाश किरणों वाला स्तम्भन कारक 'परब्रह्म' मंत्र का स्मरण करने लगा। उसके पश्चात क्षणमात्र समय जाते जब राजा ने उस पुरुष की ओर देखा, तब कुछ हंसते हुए उस पुरुष ने कहा-हे राजन्! चिरंजीव, पहले मेरी गति मंद हो गयी थी, वह तेरी स्तंभन विद्या से अब मेरी पवन वेग गति हो गयी है। इससे यदि तुझे स्त्री का प्रयोजन हो तो शीघ्रगति से पीछे आओ. ऐसा बोलते वह शीघ्रता से चलने लगा। उस समय राजा ने विचार किया कि-अहो! मेरी चिरकाल से अध्ययन की हुई विद्या भी आज निष्फल क्यों गयी? अथवा एक पराक्रम सिवाय अन्य सभी निष्फल है, परन्तु अब मैं अपने पराक्रम से ही कार्य सिद्ध करूँगा, ऐसा सोचकर दृढ़ चित्त वाला और बढ़ते उत्साह वाला वह राजा तुरन्त केवल एक तलवार साथ लेकर उसके पीछे चलने लगा ।।१७७।। 'यह राजा जा रहा है, यह देवी जा रही है, और यह वह पुरुष जा रहा है।' ऐसा लोग बोल रहे थे इतने में तो वह बहुत दूर पहुँच गया। प्रति समय चाबूक के मारने से घोड़े को दौड़ाते तीव्रगति से मार्ग का उल्लंघन करके राजा 'जब थोड़े अन्तर पर रहे हुए उस पुरुष को देखने पर भी पकड़ नहीं सका, इतने में तो बादल बिना की बिजली अदृश्य होती है वैसे रानी अदृश्य हो गयी और वह पुरुष भी किल के समान निश्चल बनकर राजा के सन्मुख खड़ा रहा ।।१८०।। राजा ने उसे अकेला देखकर विचार किया कि क्या स्वप्न है अथवा कपट है, या मेरा दृष्टि बंधन किया है? ऐसे विकल्प क्यों करूँ? इसे ही जान लूँ क्योंकि अज्ञात पुरुष पर प्रहार करना भी योग्य नहीं है। उसके बाद विस्मयपूर्वक राजा ने कहा-भो अनन्त शक्तिशाली! तूंने मेरी पत्नी का ही हरण नहीं किया, परन्तु पराक्रम से 15 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा मेरे मन का भी हरण किया है। इसलिए कहो कि आप कौन हो? ऐसे प्रभाव से शोभित आपने आपके कुल को ऐसे अकार्य से मलिन क्यों किया? उसने भी कुछ हँसकर कहा-हे राजन्! मैंने शोभा और कलंक ये दो कार्य किये हैं वह सत्य है, परन्तु नगर के सर्व लोगों के समक्ष हरण करते तूं अपनी पत्नी की भी रक्षा नहीं कर सकता है और अपयश की भी चिंता न करके तूंने तो एकमात्र कुल को कलंकित ही किया है। इस तरह हे मुग्ध! तूं अपने महान् कुल कलंक को नहीं देखता और उल्टे मेरे पुरुषार्थ को भी दोष रूप में मानता है। अथवा दूसरे के दोष देखने में मनुष्य हजार नेत्रवाला बनता है और पर्वत समान महान भी अपने दोष को जाति अंध (जन्म से अंध) के समान देखता नहीं है, इस तरह से तूंने सारे कुल को मलिन किया है, कि जिससे सुकृत्यरूपी बादल का समूह तो भी वह निर्मल नहीं हो सकता है। हे भद्र! असाधारण पराक्रम बिना तेरे सदृश राजत्व केवल बोलने के लिए ही कहलाता है। तूं नाममात्र से ही राजा है। अथवा तो इसमें तेरा क्या दोष है? तेरे पूर्व पुरुष ही इस विषय में अपराधी हैं कि जिन्होंने असमर्थ होने पर भी तुझे राजा रूप में स्थापन किया है, अथवा हे राजन्! उनका भी क्या दोष है? विषयासक्त मनवाले तेरे जैसे कुमति वालों की ऐसी ही दशा होती है। यह सुनकर लज्जा से प्रदोषकाल के समान तेजहीन नेत्र कमल बन्द वाला राजा विचार करने लगा कि मेरे जीवन के पुरुषार्थ को तथा बल और बुद्धि के प्रकर्ष को धिक्कार है, कि मैंने पूर्व पुरुषों को भी कलंकित किया है। जघन्य मैंने केवल अपनी लघुता नहीं की, लेकिन महान् उपकारी विद्या गुरुजनों की भी लघुता करवाई है। ऐसे जन्म से भी क्या प्रयोजन? ऐसे जन्म लेने के बाद जीते रहने से भी क्या लाभ? कि जो अपने पूर्वजों की लेशमात्र भी लघुता (हल्कापन) हो ऐसे कार्य में प्रवृत्ति करें? इस पुरुष ने जो विषयों में मूढ़मति वाला आदि कहा है वह सब सत्य कहा है, अन्यथा मुझे ऐसी विडम्बना क्यों होती? इस पुरुष को शस्त्र नहीं लग सकते हैं तथा मंत्र-तंत्र में भी इसके सामने मेरी कुशलता नहीं चलेगी, मैं उद्योगी होने पर इसे जीत लूँ ऐसा श्रेष्ठ बल कहाँ मिलने वाला है? इससे अच्छा यह है कि अब तापसी दीक्षा लेना योग्य है क्योंकि वापिस जाकर नगर के लोगों को अपना मुँह किस तरह दिखलाऊँ? इस तरह अति विषाद रूपी पिशाच से व्याकुल हुआ चित्तवाला राजा जैसे ही तलवार छोड़ने के लिए तैयारी करता है, उसके पहले, उस पुरुष ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये ।।२०।। और कहा कि-हे महाशय! शोक छोड़ दो, इन विविध क्रीड़ाओं से क्या हुआ यह मायावी इन्द्रजाल है, सत्य नहीं है, मैं पुरुष नहीं हूँ तथा मुझे तेरी स्त्री से कोई प्रयोजन भी नहीं है। हे राजन्! तेरा तापस मार्ग में जाने का पराक्रम सामान्य नहीं है, किन्तु इस प्रस्ताव द्वारा मुझे कहना है कि मैं देव हूँ और पूर्व स्नेह के कारण प्रथम देवलोक से तुझे प्रतिबोध करने के लिए आया हूँ। हे मित्र! तूं क्यों भूल गया है कि जिस पूर्वभव में यमुना नदी के प्रदेश में अनेक लक्षण युक्त शरीर वाला तूं हाथी था, वहाँ महान् राजा के समान सात अंग' से श्रेय, विषय में आसक्त, झरते मद के विस्तार वाला, रोषपूर्वक शत्रु हाथियों का नाश करने वाला, बहुत हाथियों के समूह से घिरा हुआ तूं उस स्थान में स्वेच्छानुसार घूमता फिरता था। एक दिन हाथी के मांस को खाने की इच्छा वाले युवा भिल्लों ने तुझे देखा, इससे उन्होंने सांकल के बंधन बांधने आदि उपायों से और बाण के प्रहार से तेरे परिवार युक्त सारे हाथियों के समूह का नाश किया, तूंने तो अप्रमत्तत्ता से और भागने की कुशलता से, उनके उपाय रूपी पीड़ाओं को दूर से त्यागकर उनसे बचकर चिरकाल तक अपना रक्षण किया, परन्तु उसके बाद अन्य किसी दिन उन्होंने तुझे पकड़ने के लिए सरोवर में 1. राजा के पक्ष में स ' अंग - १. राजा, २. मंत्री, ३. मित्र, ४. भंडार, ५. देश, ६. वाहन, ७. सैन्य। इन सात अंग युक्त राज्य। हाथी के पक्ष में-चार पैर, सूंढ, पूच्छ और लिंग। इन सात अंग से श्रेष्ठ। 16 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला उतरने के मार्ग पर खड्डा खोदकर ऊपर घास आदि डालकर खड्डा ढक दिया और उसके ऊपर इस तरह धूल बिछा दी कि जिससे वह खड्डा जमीन जैसा हो गया, उसके बाद वृक्षों की घटा में छुपकर वे तुझे देखते रहे तूं भी उनको नहीं देखने से निःशंक मन वाला पूर्व की तरह पानी पीने आते विवश अंग वाला अचानक उस गड्ढे में गिरा, अरे तूं अतिपिड़ित है, चिर जीवित है, अब कहाँ जायगा? ऐसा कोलाहल करते युवा भिल्ल वहाँ आये और उन्होंने निर्दयता से तेरे कुंभस्थल को चीरकर उसमें से मोती और जीते ही तेरे दाँत को भी निकाल लिये उस समय भयानक वेदनारूप प्रबल अग्नि की ज्वालाओं के समूह से तपा हुआ तूं एक क्षण जीकर उसी समय मर गया। वहाँ से गंगा नदी के प्रदेश में हिरन रूप में उत्पन्न हुआ, वहाँ भी बाल अवस्था में तुझे तेरे यूथ के नायक हिरन ने मार दिया। वहाँ से मरकर मगध देश में शालि नामक गांव में सोमदत्त नाम के ब्राह्मण का तूं बन्धुदत्त नामक पुत्र हुआ और वहाँ ब्राह्मण के योग्य विद्याओं का तूंने अभ्यास किया, इससे यज्ञ की विधि में परम चतुरता से तूं 'यज्ञ चतुर' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इससे लोग जहाँ किसी स्थान पर स्वर्ग के लिए अथवा रोग शान्ति के लिए यज्ञ करते थे उसमें तुझे सर्वप्रथम ले जाते थे। वहाँ तूं भी यज्ञ की विधि को समझाता, विविध पाप स्थानों में प्रवृत्ति करता और परलोक के भय का अपमान करके अपने हाथ से बकरों को अग्नि में होमा करता था। ऐसा करते हुए बहुत समय व्यतीत हुआ एक दिन राजा ने बड़ा अश्वमेघ नामक महायज्ञ प्रारम्भ किया। उसमें राजा ने तुझे बुलाया, और परमभक्ति पूर्वक सत्कार किया, यज्ञ के लिए लक्षण वाले घोड़ों को एकत्रित किए। उन घोड़ों को तूंने वेद शास्त्र की प्रसिद्ध विधि से मंत्रित किया, इतने में ऐसी यज्ञ विधि देखते, एक घोड़े के बच्चे को किसी स्थान पर ऐसा देखा है ऐसा इहा अपोह (चिन्तन) करते-करते जातिस्मरण ज्ञान हुआ, और उस ज्ञान से उसे जानकारी हुई कि-पूर्व जन्म में यज्ञ विधि में विचक्षण बनें मैंने भय से कांपते बहुत पशु आदि को यज्ञ में होमा हैं। इस प्रकार पूर्व जन्म का पाप जानकर भय से दुःखी उसने चिंतन किया कि-अहो! मनुष्य धर्म के वास्ते भी पाप को किस तरह इकट्ठा करता है? ।।२२५।। भोले व्यक्तियों को वे कहते हैं कि-'यज्ञ में मरे हुए जीव स्वर्ग में जाते हैं और अग्नि में होम से देव तृप्त होते हैं।' वे पापी यह नहीं समझते कि यदि यज्ञ से मरे हुए स्वर्ग जाते हैं तो स्वर्ग के अभिलाषी स्वजन सम्बन्धियों को उसमें होम करना योग्य गिना जायगा। अथवा प्रचंड पाखंड के झूठे मार्ग में पड़े हुए भद्रिक परिणामी लोगों का इसमें क्या दोष है? इस विषय में वेद पाठक अपराधी है। इससे यदि मैं इस पापिष्ठ अति दुष्ट प्रवृत्तिवाले पाठक को मार दूं तो यज्ञ निमित्त में लाये हुए ये घोड़े जीते रहेंगे। ऐसा विचारकर उसने कठोर खूर से उसके छाती पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे तूं उसी समय प्राण मुक्त हुआ। और अति हिंसा की अभिलाषा के आधीन बनें अति पाप से पहले नरक के अन्दर घटालय (घड़े के समान स्थान में) नामक नरकावास में तूं नरक रूप में उत्पन्न हुआ, जब मुहूर्त मात्र में छह प्रकार की पर्याप्ति से वहाँ तूं पूर्ण शरीर वाला बना, तब किलकिलाट शब्द को करते अत्यन्त निर्दय, महाक्रूर बिभत्स रूप वाले और भयानक परमाधामी देव शीघ्रतापूर्वक वहाँ आयें, और अरे! दुःख भोगते तूं वज्र के घड़े में किसलिए रहा है, बाहर निकल! ऐसा कहकर वज्रमय संडासी द्वारा तेरे शरीर को खींचकर निकाला, उसके बाद करुण स्वर से चीख मारते तेरे शरीर को उन्होंने तीक्ष्ण शस्त्र से सूक्ष्म-सूक्ष्म टुकड़े करके काटा, अति सूक्ष्म टुकड़े करने के बाद फिर पारे के समान शरीर मिल गया, भय से कांपते और भागते तुझे उन्होंने सहसा पकड़ा उसके बाद तेरी इच्छा न होने पर भी तुझे पकाने के लिए नीचे जलती हुई तेज अग्नि वाले वज्र की कुंभि में जबरदस्ती डाला। और वहाँ जलते शरीर वाला प्यास से अत्यन्त दुःखी होता, तूं उनके सामने विरस शब्दों में कहने लगा कि-तुम्हीं माता पिता हो, भाई, स्वजन, - 17 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा बन्धु और स्वामी तुम्ही हो, तुम्हीं मेरे शरण रूप हो, और रक्षक हो तथा आप ही मेरे देव हो। अतः एक क्षण मुझे छोड़ दो, अब मेहरबानी करके शीतल पानी पिलाओ। इस प्रकार तूंने कहा, तब मधुरवाणी से उन्होंने कहा कि-अरे! वज्रकुंभि के मध्य में से निकालकर इस बिचारे को शीतल पानी पिलाओ तब अन्य परमाधामियों ने तहत्ति रूप स्वीकार करके तपे हुए अति गरम कलई, ताँबा और सीसे के रसपात्र भरकर (यह ठंडा जल है) ऐसे बोलते हुए उन महापापियों ने तुझे वह रस पिलाया, तब अग्नि समान उससे जलते और इससे गले को हिलाते इच्छा न होते हुए भी तेरे मुख को संडासी से खोलकर उस रस को गले तक पिलाया, फिर उस रस से जलते सम्पूर्ण शरीर वाला और मूर्छा आने से आँखें बंद हो गयी, इससे तूं जमीन पर गिर पड़ा, पुनः क्षण में चैतन्य आया 'असिवन में ठंडी है अतः वहाँ जाऊ' ऐसा संकल्पकर तूं वहाँ गया, परन्तु वहाँ के वृक्ष के पत्ते तलवार समान होने से, उसके नीचे बैठने से पत्तों द्वारा तेरा शरीर छेदन होने लगा। और वहाँ से भी तुझे उन्होंने उछलते तरंगों से व्याप्त, आवर्त्तवाली और प्रज्वलित अग्नि समान वैतरणी नदी के पानी में फेंका, वहाँ भी बिजली के समान उद्भट भयंकर बड़े-बड़े तरंगों की प्रेरणा के वश होकर डुबना, ऊपर आना, आगे चलना, रुक जाना आदि से व्याकुल बना, सर्व अंगों से युक्त तूं सूखे वृक्ष के लकड़े जैसे किनारे पर आ जाते हैं। वैसे महा मुसीबत से दुःख पूर्वक उस नदी के सामने किनारे पर पहुँचकर वहाँ बैठा, तब हर्षित बनें उन परमाधामियों ने बैठे हुए ही तुझे पकड़कर बैल के समान अतीव भार वाले रथ में जोड़ा और भाले समान तीक्ष्ण धार युक्त परोण (तलवार) से बार-बार तुझे छेदन करते थे। उसके बाद वहाँ तूं थक गया और जब किसी भी स्थान पर नहीं जा सका तब भारी हथौड़े द्वारा हे महाभाग्य तुझे चकनाचूर कर दिया ।।२५०।। इसके अतिरिक्त भी विकट शिलाओं के ऊपर तुझे जोर से पछाड़ा, भालाओं से भेदन किया, करवतों से छेदन किया, विचित्र यन्त्रों से पीसा, और अग्नि में पकाये हुए तेरे शरीर के मांस के टुकड़े कर तुझे खाने लगे, तथा विचित्र दण्डों के प्रहारों से बार-बार ताड़न किया, परमाधामियों ने बड़े शरीर वाले पक्षियों के रूप बनाकर तुझे दो हाथ से ऊँचा करके, करुण स्वर से रोते हुए भी अति तीक्ष्ण नखों से तथा चोंच से बार-बार मारा। इस प्रकार हे नरेन्द्र! नरक में उत्पन्न होकर तूंने जो दुःख अनुभव किया वह सर्व कहने के लिए तीन जगत के नाथ परमात्मा ही समर्थ हो सकते हैं। इस तरह एक सागरोपम तक भयंकर नरक में रहकर वहाँ असंख्य दुःखों को सहन करके, वहाँ से आयुष्यपूर्णकर तूं इस भरत क्षेत्र के अन्दर राजगृह नगर में भिखारी के कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, वहाँ भी अनेक रोग से व्याप्त शरीरवाला था, समयोचित भोजन, औषध और स्वजनों से भी रहित अत्यन्त दीनमन वाला, भिक्षा वृत्ति से जीने वाला तूंने यौवन अवस्था प्राप्त की, तब भी अत्यन्त दुःखी था, तूं बार-बार चिंतन करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो क्योंकि मनुष्यपने में समान होने पर भी और इन्द्रियाँ भी तुल्य होने पर भी मैं भिक्षा से जीता हूँ और ये धन्य पुरुष अति विलास करते हैं। कई तो ऐसा शोक करते हैं कि-अरे! आज हमने कुछ भी दान नहीं दिया, तब मैं तो क्लेश करता हूँ कि आज कुछ भी नहीं मिला। कई धर्म के लिए अपनी विपुल लक्ष्मी का त्याग करते हैं जबकि मेरे द्वारा कई स्थान पर खण्डित हुआ खप्पर भी नहीं छोड़ता हूँ, कई विवाहित श्रेष्ठ युवतियाँ होने पर भी वे मेरे सामने नजर भी नहीं करती, तब मैं तो केवल संकल्प रूप में ही प्राप्त हुई स्त्रियों से सन्तोष-हर्ष धारण करता हूँ अर्थात् स्त्री के सुख को स्वप्न में सेवन करता हूँ। कई उत्तम सुवर्ण जैसी कान्ति वाली काया को भी अशुचिमय मानते हैं, जबकि मैं रोग से पराभूत अपनी काया की प्रशंसा करता हूँ। कई भाट लोग 'जय हो, चिरम् जीवो, कल्याण हो' ऐसी विविध स्तुति करते हैं, तब भिक्षा के लिए गया हुआ मैं तो कारण बिना भी आक्रोश-तिरस्कार को प्राप्त करता हूँ। कई मनुष्य कठोर 18 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला शब्द बोलते हैं, फिर भी सुनने वाले मनुष्य उससे संतोष मानते हैं और आशीर्वाद देने पर भी लोग मेरा गला हाथ से पकड़ कर निकाल देते हैं, इससे कठोर पाप का भंडार, तुच्छ प्रवृत्ति वाला और रोग से पराभूत मुझे संयम लेना ही अच्छा है, क्योंकि उसमें भी कार्य यही करने का है। जैसे कि-साधु जीवन में मलिन शरीर वाला रहना, भिक्षा वृत्ति करना, भूमिशयन, पराये मकान में रहना, हमेशा सर्दी, धूप, सहन करना और अपरिग्रही जीवन जीना, क्षमा धारण करनी, परपीड़ा का त्याग, शरीर भी दुर्बल ही रहता है। यह सब जन्म से लेकर मेरे लिए स्वभाव सिद्ध है, और ऐसा जीवन तो साधु को परम शोभाकारक होता है, गृहस्थ को नहीं होता है। यह सत्य है कि योग्य स्थान पर प्राप्त हुए दोष भी गुण रूप बनते हैं। ऐसा विचार करके परम वैराग्य को धारण करते तूंने तापस दीक्षा ली और दुष्कर तपस्या करने लगा। फिर अन्तकाल में मरकर तूं जम्बूद्वीप के अन्दर भरत क्षेत्र में वैताढ्य पर्वत के ऊपर रथनूपुर चक्रवाल नामक नगर में चंडगति नाम से उत्तम विद्याधर की विद्युन्मती नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। तेरा उचित समय में जन्म हुआ और तेरा वज्रवेग नाम रखा, फिर अत्यन्त सुन्दर रूप युक्त शरीर वाला तूं कुमार बना, तब अल्पकाल में सारी कलाओं के समूह में कुशलता प्राप्त की और आकाशगामिनी आदि अनेक विद्याओं का भी तूंने अभ्यास किया। उसके पश्चात् मनुष्यों के नेत्रों को आनन्ददायी, मनस्विनी स्त्रियों में मन रूपी कमल को विकसित करने में सूर्य समान, सन्मान का पात्र रूप, तरुण अवस्था प्राप्त होने पर तूं कामदेव के समान शोभने लगा। फिर हाथी के जैसे समान वयवाले मित्रों से घिरा हुआ तूं नगर में तीन-चार रास्ते वाले चौराहे में निःशंकता से घूमने लगा और प्रचुर वनों में और सरोवर में भी रमण करने लगा। एक दिन तूंने झरोखे में बैठे हेमप्रभ विद्याधर की सुरसुन्दरी नामक पुत्री को देखा। हे भाग्यशाली! उसका यौवन, लावण्य, रूप, वैभव और सौभाग्य ने तेरे हृदय को उसके प्रति आकर्षित कर दिया। और तेरे दर्शन से विकसित नेत्र कमल वाली उसके चित्त में कुसुम युद्ध कामदेव पुष्प रूप शस्त्र वाला होने पर भी वज्र के प्रहार के समान पीड़ा देने लगा, केवल पास में रही सखियों की लज्जा से विकार को मन में दबाकर उसने सूंघने के बहाने तुझे नील कमल बतलाया। इस तरह उसने तुझे अंधकारी रात्री का संकेत किया, इससे हर्ष के आवेग से पूर्ण अंग वाला तूं अपने घर गया। उसके बाद मित्रों को अपने-अपने घर भेजकर तूं करने योग्य दिनकृत्यों को करके मध्यरात्री में केवल एक तलवार की सहायता वाला एकाकी अपने घर से निकला। कोई भी नहीं देखे इस तरह तूं चोर के समान धीरे से खिड़की द्वारा प्रवेश करके पलंग पर उसके पास बैठा 'दिन में देखा था वह प्रवर युवान है' ऐसा उसने जानकर हर्षित हुई उसने पति के समान तेरी सेवा की। उसके बाद परस्पर विलासी बातों की गोष्ठी में एक क्षण पूर्ण करके तूंने उससे कहा कि-हे सुतनु! तेरा यह स्वरूप विसदृश परस्पर विरुद्ध क्यों दिखता है? शरीर की शोभा चन्द्र की ज्योत्सना की भी हंसी करे ऐसा सुन्दर क्यों है? और तेरा यह वेणी-बन्धन से बांधा हुआ केश कलाप सर्प समान काला भयंकर क्यों दिख रहा है? और तूं लक्षणों से विद्यमान पति वाली दिखती है और तेरा शरीर पति संगम का सुख नहीं मिला हो ऐसा शुष्क क्यों दिखता है? इसलिए हे सुतनु! इसका परमार्थ कहो! क्या तूंने पति को छोड़ दिया है? अथवा अन्य में आसक्त होने से उसने ही तुझे छोड़ दिया है?।।२८८।। तब कछ नेत्र कमल बंधकर उसने कहा कि __हे सुभग! इस विसदृशता (परस्पर विरुद्धता) में रहस्य क्या है वह तूं सुन! यौवनारूढ़ हुई मेरा यहीं पर रहने वाले कनक प्रभ नामक विद्याधर पुत्र के साथ गाढ़ प्रेमपूर्वक विवाह हुआ। विवाह के बाद तुरन्त मेरे भाग्य के दोष से अथवा उसके वेदनीय कर्म के वश वह मेरा स्वामी अग्नि तुल्य दाहज्वर में पकड़ा गया। इससे अग्नि 19 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा से तपी हुई लोहे की कढ़ाई में जैसे डाला हो वैसे वह लगातार उछलने लगा, कांपने लगा, दीर्घ निसासा छोड़ने लगा और विरस चिल्लाने लगा। इससे उसके पिता सर्व कार्य छोड़कर रोग की शान्ति के लिए विविध औषध के अनेक प्रयोग करने लगे। वह औषध नहीं, वह मणि नहीं, वह विद्या नहीं और वह वैद्य नहीं कि उसके पिता ने उसकी शान्ति के लिए उसका उपयोग नहीं किया हो। खाना, पीना, स्नान विलेपन आदि को छोड़कर शोक के भार से भारी आवाज वाले पास बैठे स्वजन रोने लगे। उसकी माता भी शोक के वश होकर अखंड झरते नेत्र के आँसू वाली, जिससे मानों दोनों आँखों से गंगा सिन्धु नदी का प्रवाह बहता हो इस तरह रोने लगी। निष्कपट ऐसे प्रेम को धन्य है। भयानक वन के दावानल से जले हुए वृक्ष का ठूंठ के समान उनके स्नेहीजन भी निस्तेज बने खेद करने लगें। इस तरह उसके दुःख से नगर के लोग भी दुःखी हुए और विविध प्रकार के सैंकड़ों देव, देवियों की मान्यता मानने लगें, फिर भी प्रतिक्षण दाहज्वर अधिकतर बढ़ता रहा और जीने की आशा ह बनकर वैद्य समूह भी वापिस चला गया। तब उसने ऐसा चिन्तन किया कि - अहो ! थोड़े समय भी आपत्ति में पड़े जीव को इस संसार के अन्दर किसी तरह कोई भी सहायता नहीं कर सकता है ।। ३०० ।। माता-पिता सहित अतिवत्सल और स्नेही बन्धु वर्ग भी आपत्ति रूप कुएँ में गिरे हुए अपने सम्बन्धी को देखने पर भी किनारे के पास खड़े-खड़े शोक ही करते हैं, इस जीव का किसी से थोड़ा भी रक्षण नहीं हो सकता है। परन्तु वे लोग तो प्रसन्नता से रहते हैं, यह आश्चर्यभूत मोह की महान महिमा है। इसलिए यदि किसी तरह भी मेरा यह दाहज्वर थोड़ा भी उपशम हो जाय तो स्वजन और धन का त्याग करके मैं जिन दीक्षा स्वीकार करूँगा। उसके पश्चात् भाग्योदय से दिव्य औषधादि बिना भी जब, शुभ परिणामस्वरूप औषध से वह निरोगी हुआ तब स्वजनों को अनेक प्रकार से समझाकर श्री गुणसागरसूरिजी के पास दीक्षित हुए, छट्ट, अट्ठम आदि दुष्कर तपश्चर्या में तत्पर होकर वे विहार कर गये। इस तरह हे महाशय ! तुमने मेरी विसदृशता का जो कारण पूछा था, वह सारा जैसा बना था वैसा तुम्हें कह दिया । । ३०६ ।। इस तरह बात सुनकर हे महासेन राजा ! तब तूंने विचार किया कि -अनार्य कार्य में आसक्त मेरे पुरुष जीवन को धिक्कार हो, बुद्धि को भी धिक्कार हो, मेरे गुणरूपी पर्वत में वज्र गिरे, और मेरा शास्त्रार्थ में पारगामीत्व भी पाताल में चला जाये। उत्तम कुल में जन्म मिलने से उत्पन्न हुआ अभिमान गुफा में जाये और बिचारी नीति भी दूसरे उत्तम पुरुष का आश्रय करे। क्योंकि कुत्ते के समान निर्लज्ज मैं श्रेष्ठ पुरुष के मस्तक मणि के समान उस पुरुष जिसका मन किया है, उस स्त्री को भोगना चाहता हूँ। वह धन्य ! कृतपुण्य है ! उसका ही मनुष्य जीवन सफल है, और उसने ही शरद के चन्द्र समान उज्ज्वल कीर्ति प्राप्त की है। वह एक कनक प्रभ ही जिन कुल रूप आकाश का प्रकाशक चन्द्र है कि जिसने महामोहरूपी घोर शत्रु को लीलामात्र से चकनाचूर कर दिया हैं । हे पापी हृदय ! इस प्रकार के पुरुषों के सच्चरित्र को सुनकर भी उत्तम मुनियों से निषेधित परस्त्री के भोग में तुझे क्या आसक्ति है? हे मन ! श्रेष्ठ लावण्य से पूर्ण सर्व अंगवाली, प्रकृति के सौभाग्य की भण्डार, सर्व अंगों से मनोहर चेष्टावाली, प्रकृति से ही शब्दादि पांचों इन्द्रियों के सुन्दर विषयों की पराकाष्ठा को प्राप्त करने वाली, मनोहर सर्व अंगों पर श्रृंगार से प्रकट हुआ गौरव धारण करने वाली, कामदेव के निधान समान होने पर भी पवन से हिलते पीपल के पत्ते समान चंचल चित्त वाली इन परस्त्रियों में और अपनी पत्नी में भी तूं राग मत कर । जासि तुच्छमिह सुहं जाणसि दुक्खं पि मेरुगिरिगरुयं । जाणसि य चलं जीयं जाणसि तुच्छाउ लच्छीओ ।। ३१७ ।। 20 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला जाणसि अथिरा नेहा जाणसि खणभंगुरं समत्थमिमं । तह वि हु गिहवासं कीस? जीव! नो चयसि एत्ताहे ।।३१८।। तूं यहाँ का सुख अच्छा मानता है, परन्तु परिणाम से मेरु पर्वत के समान महान् दुःखदायी है वह भी जानता है? यह स्नेह अस्थिर है वह जानता है? और लक्ष्मी तुच्छ है, वह भी जानता है? जीवन चंचल है वह जानता है और यह समस्त संयोग क्षणभंगुर है वह भी जानता है तो फिर हे जीवात्मा! अब भी तूं गृहवास का त्याग क्यों नहीं करता?।।३१७-३१८।। इस तरह बहुत अधिक वैराग्य मार्ग में मन मुड़ने से तूंने दोनों हाथ जोड़कर उस स्त्री से कहा कि-हे सुतनु! तुम मेरी माता हो, और तेरा पति वह मेरा पिता है कि जिसने चारित्र रूपी रस्सी से मुझे पाप रूपी अकार्य के कुएँ में से बाहर निकाला है आज से सांसारिक कार्यों में मुझे वैराग्य हुआ है, हे सुरसुंदरी! तूं भी अपने पति के मार्ग के अनुसार दीक्षा स्वीकार कर। क्योंकि-महाप्रचंड वायु से वृक्ष के पत्ते समान आयुष्य चंचल है, लक्ष्मी अस्थिर है, यौवन बिजली समान चपल है, विषय विष समान दुःख जनक है। प्रियजन का संयोग वियोग से युक्त है, शरीर रोग से नाशवान् है और अति भयंकर जरा-वृद्धावस्था वैरिणी के समान प्रतिक्षण आक्रमण कर रही है। इस तरह उसे हित शिक्षा देकर उसके घर से निकलकर जिस मार्ग से आया उसी मार्ग से निकलकर तूं शीघ्र तेरे घर पहुँच गया। फिर वहाँ रहते हुए तूं संसार की असारता को देखता हुआ विचार करता था, उस समय काल निवेदक ने यह एक गाथा (श्लोक) सुनायी जह किंपि कारणं पाविऊण जायइ खणं विरागमई । तह जइ अवट्ठिया सा, हवेज्ज ता किं न पज्जत्तं ।।३२६ ।। अर्थात्- 'यदि किसी भी निमित्त को प्राप्तकर एक क्षण भी वैराग्य बुद्धि प्रकट हो जाय और वह स्थिर रहें तो क्या प्राप्त नहीं होता? अर्थात् एक क्षण भी वैराग्य की प्राप्ति बहुत लाभदायक है।'।।३२६ ।। यह गाथा सुनकर सविशेष उछलते शुभभाव वाले तूंने प्रभात का समय होते ही घर में प्रेम नहीं होने से कुछ मनुष्यों के साथ वन उद्यान की शोभा देखने के लिए निकला। वहाँ उद्यान में एक स्थान पर चारण श्रमण मुनि को देखा। उस मुनि में प्रशस्त गुण रत्नों रूप शणगार था, उन्होंने मोहमल्ल के दृढ़ दर्प को नष्ट कर दिया था, देह की कान्ति से सब दिशाओं को विभूषित की थी, पापी लोगों की संगति से वे पराङ्मुख थे, योग मार्ग में उन्होंने मन स्थिर किया था। वे कर्म शत्रु को जीतने में उत्कृष्ट साहसिक थें। पृथ्वी पर उतरे हुए पूनम के चंद्र के समान सौम्यता से वे मनुष्य के चित्त को रंजन करते थे, अति विशिष्ट शुभलेश्या वाले, भव्य लोक को मोक्षमार्ग प्रकाश करने वाले, क्रोध, मान, भय, लोभ से रहित, वादियों के समूह से विजयी होने वाले, एक पैर के ऊपर शरीर का भार स्थापन कर, एक पैर से खड़े होकर सूर्य सन्मुख दृष्टि करने वाले, मेरुपर्वत के शिखर समान निश्चल, और प्राणियों के प्रति वात्सल्य वाले वे काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहे हुए थे। इस प्रकार के गुण वाले उन मुनि को देखकर हर्षित नेत्र वाला तूं उनके चरणों में गिरा और कहने लगा कि-हे भगवंत! अब आप मोक्षमार्ग के उपदेश द्वारा मुझ पर कृपा करो, आपके दो चरणरूप चिंतामणी का दर्शन सफल हो। ऐसा कहने से उन्होंने महाकरुणा से काउस्सग्ग ध्यान पूर्णकर योग्य जानकर कहा-हे भव्य! तुम सनो: इस लाखों दुःखों से भरे हुए अनादि अनन्त संसार में जीव महा मुसीबत से भाग्य-योग द्वारा मनुष्य जीवन प्राप्त करता है। उसमें भी आर्य देश, आर्य देश में भी उत्तम कुल आदि श्रेष्ठ सामग्री मिलनी कठिन है, और 21 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा उसमें भी सौभाग्य ऊपर मंजरी समान जिन धर्म की प्राप्ति उत्तरोत्तर महा मुश्किल से होती है। क्योंकि मनुष्य अथवा देव की लक्ष्मी मिल जाय, भाग्ययोग से मनुष्य जन्म मिल जाये परन्तु अचिन्त्य चिन्तामणि के समान अति दुर्लभ जिन धर्म नहीं मिलता। इस तरह रत्न निधान की प्राप्ति समान धर्म को अतीव कठिनता से प्राप्त करके भी अनेक मानव अति तुच्छ विषयों की आसक्ति से महामूढ़ बनकर इस मानव भव को निष्फल बना देते हैं। इसके कारण वे बिचारे हमेशा जन्म-जरा-मरण रूपी पानी से परिपूर्ण और बहुत रोगरूपी मगरमच्छों से भयंकर संसार समुद्र का अनंत बार सेवन करते हैं। अतः ऐसा कौन बुद्धिमान होगा कि जो बहुत चिरकाल तक दुःखों को सहनकर महा मुश्किल से प्राप्त हुए करोड़ सुवर्ण मोहर को एक कोड़ी के लिए गवाँ दे ? धम्मत्थकाममोक्खा चउरो किर होन्ति एत्थ पुरिसत्था । ताण पुण सेसपुरिसत्थउभावो वरो धम्मो || ३४२ ।। इस संसार में जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ साधन करने योग्य हैं, उसमें भी अन्तिम तीन पुरुषार्थ की सिद्धि में हेतु रूप एक धर्म ही श्रेष्ठ माना जाता है ।। ३४२ ।। फिर भी अधिक मात्रा में मदिरा के रस का पान करने वाले पागल मनुष्य के समान मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह में उलझन के कारण जीव उस धर्म को यथार्थ स्वरूप में नहीं जानता है। इसलिए है महायशस्वी! मिथ्यात्व के सर्व कार्यों का त्यागकर तूं केवल एक श्री जिनेश्वर को ही देव रूप में और मुनिवर्य को गुरु रूप में स्वीकारकर, प्राणिवध, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के पापों को छोड़ दे ! इन पापों को छोड़ने से जीव भव भय से मुक्त होता है। इससे श्रेष्ठतम अन्य धर्म तीन जगत में एक भी नहीं है और इस धर्म से रहित जीव किसी तरह मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः सार रहित और अवश्य विनाशी शरीर का केवल आत्म गुण रूपी धर्म उपार्जन करने के सिवाय अन्य कोई फल नहीं है। और महावायु से पद्मिनी पत्ते के अन्तिम भाग में लगे हुए जल बिन्दु के समान अस्थिर इस जीवन का भी धर्मोपार्जन बिना दूसरा कोई फल नहीं है। उसमें भी सर्वविरति से विमुख जीव इस धर्म के पूर्ण रूप से प्राप्त करने के लिए शक्तिमान नहीं होता है और इसकी प्राप्ति बिना जीव मोक्ष भी प्राप्ति नहीं कर सकता है, और उस मोक्ष के अभाव में सर्व क्लेश रहित एकान्तिक अत्यधिक अनन्त सुख अन्यत्र नहीं मिल सकता है। इस तरह के सुख वाले मोक्ष की प्राप्ति के लिए यदि तेरी इच्छा हो तो जिन दीक्षा रूपी नौका को ग्रहणकर के संसार समुद्र से पार हो जाओ। इस तरह चारण मुनि के कहने से हर्ष के आवेश में उछलते रोमांचित वाले और भक्ति से विनम्र बने तूंने उस मुनिवर्य के पास दीक्षा ली। उसके पश्चात् सकल शास्त्र को गुरुमुख से सुनकर अभ्यास किया, बुद्धि से सर्व परमार्थ तत्त्व को प्राप्त किया, छह जीव निकाय की रक्षा में तत्पर बना, गुरुकुलवास में रहते हुए विविध तपस्या करते तूं गुरु महाराज, ग्लान, बाल आदि मुनियों की वैयावच्च करते अपने पूर्व पापमय चरित्र की निन्दा करते नये-नये गुणों की प्राप्ति के लिए परिश्रम करता था और विशेषतया प्रशमरूपी अमृत से कषायरूपी अग्नि को शान्त करते इन्द्रियों के समूह को वश करने वाला तूं चिरकाल तक संयम की साधनाकर और अन्त में अनशन स्वीकारकर शुभ ध्यान से आयुष्य पूर्णकर सौधर्म कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ । और वह सुरसुंदरी भी उसी दिन ही दीक्षा लेकर दीक्षा का पालन करके पूर्व स्नेह के कारण वहाँ तेरी देवी रूप में उत्पन्न हुई। और वहाँ देवलोक में मेरे साथ तेरा कोई अपूर्व राग हुआ, इससे एक क्षण भी वियोग के दुःख को सहन नहीं करते अपना बहुत काल पूर्ण हुआ, फिर च्यवनकाल में तूं मुझे केवलज्ञानी के पास ले गया और वहाँ केवली भगवंत को अपना पूर्वभव तथा भावी जन्म 22 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला के विषय में पूछा। तब उन्होंने भी अतितीव्र असंख्य दुःखों से भरा हुआ हाथी आदि के पूर्व जन्मों का वर्णन किया और भावी राजा का वर्तमान जन्म भी कहा। उस समय दोनों हाथ जोड़कर तूंने स्नेहपूर्वक कहा, 'हे सुभग! यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है इसे तुम निष्फल मत करना' ऐसा कहकर मुझसे कहा कि-जब मैं महा विषय के राग से विमूढ़ राजा बनूँ, तब तूं इस हाथी आदि भवों का वर्णन सुनाकर मुझे प्रतिबोध करना कि जिससे मैं पुनः पाप स्थान में आसक्त न बनूँ और जिन धर्म का सारभूत चारित्र से रहित होकर दुःखों का कारण रूप दुर्गतियों में न गिर जाऊँ। तेरी प्रार्थना मैंने स्वीकार की तूं च्यवनकर यहाँ राजा हुआ, और वह देवी कनकवती नामक तेरी रानी हुई। प्रायः कर सुखी जीव धर्म की बात सुनते हैं फिर भी धर्म की इच्छा नहीं करते हैं। इस कारण से प्रथम तुझे अति दुःख से पीड़ित बनाकर मैंने यह वृत्तान्त कहा है। इससे मैं तेरा वह मित्र हूँ, तूं वह देव है, और जो कहे हैं वे तेरे भव हैं, अतः महाभाग! अब जो अतिहितकर हो उसे स्वीकार करो ।।३६६।। देव ने जब ऐसा कहा तब महासेन राजा अपने सारे पूर्व जन्मों का स्मरण करके मूर्छा से आँखें बंद कर और क्षणवार सोने के समान चेष्टा रहित हो गया। उसके बाद शीतल पवन से चेतना आने से राजा महासेन ने दोनों हाथ जोड़कर, आदरपूर्वक नमस्कार करके कहा-आप वचन के पालन हेतु यहाँ पधारे हैं, इससे केवल स्वर्ग को ही नहीं परन्तु पृथ्वी को भी शोभित किया है। यद्यपि तेरी प्रेम-भरी वात्सल्यता के बदले में तीन जगत की संपत्तियाँ दान में दे दूँ तो भी कम है, इसलिए आप कहो कि मेरे द्वारा किस तरह आपका प्रत्युपकार हो सके? देव ने कहा कि जब तूं श्री जिनेश्वर भगवान के चरण कमल में दीक्षा स्वीकार करेगा तब हे राजन्! निःसंशय तुम ऋण मुक्त होंगे। राजा ने 'उसे स्वीकार किया' फिर शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले राजा को उसके स्थान पर पहुँचाकर देव जैसे आया था वैसे वापिस स्वर्ग में चला गया। राजा भी अपने-अपने स्थान पर सुभट हाथी, घोड़ें, महल और रानी को देखकर मन में आश्चर्यपूर्वक विचार करने लगा कि-अहो! देव की शक्ति! उन्होंने उपद्रव दिखाकर पुनः उसी तरह उपशम कर दिया कि उसे दृष्टि से देखने वाला मनुष्य भी समझ नहीं सकता है। ऐसे अति सामर्थ्यपूर्वक देवभव का स्मरण करके भी हे जीवात्मा! तेरी बुद्धि मनुष्य के तुच्छ कार्यों में क्यों राग करती है? अथवा हे निर्लज्ज! वमन पित्त आदि अशुचिवाले और दुर्गन्धमय मल से सड़ने वाले भोगों में तुझे प्रेम क्यों उत्पन्न होता है? अथवा क्षणभंगुर राज्य और विषयों की चिन्ता छोड़कर तूं एक परम हेतुभूत मोक्ष की इच्छा क्यों नहीं करता? और वह उत्तम दिन कब आयेगा कि जिस दिन सर्व राग का त्यागकर उत्तम मुनियों के चरण की सेवा में आसक्त होकर मैं मृगचर्या मृग के समान विहार करूँगा? वह उत्तम रात्री कब आयेगी कि जब काउस्सग्ग ध्यान में रहे मेरे शरीर को खम्भे की भांति से बैल अपनी खुजली के लिए कंधा या गर्दन घिसेंगे? मेरे लिये कब वह मंगलमय शुभ घड़ी आयेगी जब मैं स्खलित आदि वाणी के दोषों से रहित श्री आचारांग आदि सूत्रों का अभ्यास करूँगा? अथवा वह शुभ समय कब होगा कि जब मैं अपने शरीर को नाश करने के लिए तत्पर बने जीव के प्रति भी करुणा की विनम्र नजर से देखूगा? या कब गुरु महाराज द्वारा अल्प भूल को भी कठोर वचनों से जाग्रत कराता हुआ मैं हर्ष के वेग से परिपूर्ण रोमांचित होकर गुरु की शिक्षा को स्वीकार करूँगा? और वह दिन कब आयगा कि जब लोक-परलोक में निरपेक्ष होकर मैं आराधना करके प्राण-त्याग करूँगा? इस प्रकार संवेग रंग प्राप्त करते राजा जब विचार करता है। उसी समय संसार की अनित्यता की विशेषता बताने के लिए मानों न हो, इस तरह सूर्य अस्त हो गया। उसके पश्चात् सूर्य की लाल किरण के समूह से व्याप्त हुआ जीवलोक मानो जगत का भक्षण करने की इच्छावाला यम क्रूर आँखों की प्रभा के विस्तार से घिरा हो ऐसा लाल दिखा, अथवा विकास होती संध्या पक्षियों के कलकलाट से मानों ऐसा कह रही हो कि यम के - 23 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा की कथा समान यह अंधकार फैल रहा है, इसलिए हे मनुष्यों! आत्महित करना चाहिए। फिर मुनि के समान रात्री के आवेग को निष्फल करने वाले और अंधकार को हटाने वाले तेज से निर्मल तारा समूह प्रकाशित हुआ । फिर समय होने पर जैसे सीप में से मोती का समूह प्रकट होता है वैसे चन्द्र पूर्व दिशा रूप शुक्ति (सीप) संपुट में उदय हुआ। इस प्रकार रात्री का समय हुआ तब रात्री के प्रथम प्रहर के कार्य करके सुखशय्या में बैठकर राजा विचार करने लगा कि : - वह पुर, नगर, खेटक, कर्बट, मंडल, गाँव आश्रम आदि धन्य हैं कि जहाँ पर तीन जगत के गुरु श्री महावीर परमात्मा विचरते हैं । यदि तीन जगत के एक बन्धुरूप भगवान इस नगर में पधारें तो मैं दीक्षा लेकर दुःखों को तिलांजली दे दूँ। इस तरह विचार करते राजा के चिंतन प्रवाह को प्रतिपक्ष (विरति) प्रति कोपायमान अविरति रोकती है वैसे प्रतिपक्ष चिंतन दशा के प्रति कोपायमान निद्रा ने रोक दिया, अर्थात् शुभचिंतन करते राजा सो गये और विचार प्रवाह रुक गया । रात्री के अंतिम समय राजा को स्वप्न आया कि अपने आपको उत्तम बल वाले पुरुष द्वारा बड़े पर्वत के शिखर पर आरूढ़ कराता हुआ देखा। प्रातः मांगलिक और जय - सूचक बाजों की आवाज से जागृत होकर राजा विचार करने लगा कि - निश्चय ही आज मेरा कोई परम अभ्युदय होगा । किन्तु जो महाभाग मुझे पर्वत आरोहण करने में सहायक हुआ है वह पुरुष उपकार द्वारा मेरा परम अभ्युदय में एक हेतुभूत होगा ऐसा दिखता है। राजा इस प्रकार विकल्प कर रहा था, इतने में द्वारपाल ने शीघ्रता से आकर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर कहा कि - हे देव! हाथ में पुष्प की माला लेकर उद्यानपालक आपके दर्शन के लिए दरवाजे पर खड़ें हैं तो इस विषय में मुझे क्या करना चाहिए? राजा ने कहा- उन्हें जल्दी ले आओ। इससे उसने आज्ञा को स्वीकारकर उसी समय उद्यानपालकों को लेकर राजा के पास ले आया। उद्यानपालकों ने राजा को नमनकर पुष्पमाला अर्पण की और हाथ जोड़कर कहा - हे देव! आप विजयी हो ! आपको बधाई हो कि - तीन लोक को प्रकाश करने में सूर्य के समान, तीन भवनरूपी सरोवर में खिले हुए कमलों की भ्रान्ति करते उज्ज्वल यश के विस्तार वाले, ।।४००|| तीन छत्रों ने जाहिर किये हुए स्वर्ग, मृत्यु और पाताल के श्रेष्ठ स्वामित्व वाले, तीन गढ़ से घिरे हुए, मणिमय सिंहासन ऊपर बैठे हुए, हर्ष की मस्ती वाले, देवों ने वधाने के लिए फेंके हुए प्रचुर पुष्पों की अंजलि द्वारा पूजे गये, संशयों को नाश करने में समर्थ, शास्त्र की धर्म कथा को करने वाले, इन्द्र हाथ से सहर्ष कुमुद और बर्फ समान उज्ज्वल चामरों के समूह से पूजित, विकसित श्रेष्ठ पत्तों वाले अशोक वृक्ष द्वारा आकाश मंडल को शोभायमान करने वाले, सूर्य से भी प्रचंड तेजस्वी भामण्डल से अन्धकार को नाश करने वाले, देवों ने बजाई हुई दुंदुभि की अवाज से प्रकटित अप्रतिम शत्रुओं के विजय वाले, गणनातीत मनोहर सुरेन्द्र और असुरेन्द्र के समूह से पूजित चरण कमल वाले और शरणागत वत्सल भगवान श्री महावीर देव स्वयंमेव पधारे हुए हैं । । ४०५ ।। ऐसी बधाई को सुनने से अत्यन्त श्रेष्ठ हर्ष द्वारा शरीर में प्रकट हुआ निबिड रोमांचित वाला तीन लोक की भी लक्ष्मी हस्त कमल में आयी हो इस तरह मानता हुआ और 'वे ये भगवान पधारे हैं कि जिन्होंने स्वप्न में मुझे पर्वत के शिखर ऊपर आरूढ़ किया है, अतः उनके द्वारा में संसार पारगामी बनूँगा ।' ऐसा चिंतन करते राजा उन उद्यानपालकों को साढ़े बारह लाख सोने की मोहर प्रेमपूर्वक दान देकर जल्दी ही सारा अंतपुर और नगर लोगों से घिरा हुआ तथा याचकों से स्तुति करवाता, हाथी पर बैठकर जगद् गुरु को वंदन करने के लिए नगर में चला, फिर दूर से भगवान के छत्र ऊपर छत्र देखकर प्रसन्न मनवाले उसने छत्र चामरादि राज चिह्न को छोड़कर पांच प्रकार के अभिगम सहित उत्तर दिशा के द्वार से समवसरण में प्रवेश किया, हर्ष के आवेश से 24 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरप्रभु का उपदेश श्री संवेगरंगशाला विकसित नेत्रों वाला वह राजा प्रभु की तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी पीठ को स्पर्श करते मस्तक द्वारा बार-बार नमस्कार कर और हस्तपल्लव ललाट पर लगाकर स्तुति करने लगा कि : 'निर्मल केवल ज्ञान के प्रकाश द्वारा मिथ्यात्व रूपी भयंकर अंधकार के विस्तार को नाश करने वाले हे भगवंत! आपकी जय हो! फैले हुए प्रबल कलिकाल रूपी बादलों को बिखेरने में महावायु के समान आपकी जय हो! उग्र पवन के समान महावेग वाले इन्द्रियों रूपी घोड़ों के समूह को वश करने से आप तीन भुवन में प्रसिद्ध हे भगवंत! आपकी जय हो! तीनों जगत में प्रसिद्ध सिद्धार्थ राजा के कुलरूपी कमल को खिलने के लिए सूर्य समान आपकी जय हो! जिनके सूर्य समान उग्र महान् प्रताप से कुतीर्थियों की महिमा नष्ट हुई ऐसे आप श्री की जय हो! युद्ध, रोग, अशिव आदि के उपशम भाव में समर्थ और केवल आपका ही नामोच्चार करने योग्य हे देव! आपकी जय हो! हे देवेन्द्रों के समूह से वंदनीय, दृढ़ राग द्वेष रूपी काष्ठ को चीरने में आरा तुल्य और मोक्ष सुख आपके हाथ में है ऐसे हे महावीर परमात्मा आप विजयी हो! और हे अरिहंत देव! उपसर्ग समूह के सामने भी आपकी अक्षुब्धता-स्थिरता गजब की थी तो आपके चरण अंगुली दबाने मात्र से भी चलित शिखर वाले मेरु पर्वत की उपमा आपको कैसे दें? हे नाथ! आपका तेज और सौम्यता अद्वितीय है उसकी उपमा सूर्य और चन्द्र से कैसे दे सकते हैं? क्योंकि दिन और रात के अंतिम समय में सूर्य और चन्द्र का तेज मन्द अल्प हो जाता है परन्तु आपका तेज और सौम्यता अखण्ड है। हे जिनेश्वर भगवान! आपकी गंभीरता को भी, दुष्ट प्राणियों के क्षोभ को जो (समुद्र) छुपा नहीं सकता सहन नहीं कर सकता (उछलने लगता है) उस समुद्र के जैसी कैसे कहा जाय? अतः समुद्र की गंभीरता सामान्य है आपकी गंभीरता सर्वश्रेष्ठ है। इस तरह सारी उपमाएँ अति असमान होने पर भी हे भुवननाथ! यदि आपको उपमा दे तो आपकी ही उपमा आपको दे सकते हैं, और इस विश्व में आपके समान कोई नहीं है, ऐसा मैं समझता हूँ। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति कर गौतम स्वामी आदि गणधरों को नमस्कार कर के प्रसन्न चित्त वाला राजा अपने योग्य स्थान पर पृथ्वी पर बैठा। उसके बाद श्री जगद्गुरु वीर परमात्मा ने नर, तिर्यंच और देव सब समझ सके ऐसी सर्व साधारण वाणी द्वारा (मागध भाषा में) अमृत की वृष्टि समान धर्म उपदेश देना प्रारंभ किया ।।४२२।। वीरप्रभु का उपदेश : हे देवानुप्रिय! यद्यपि तुम्हें भाग्योदय द्वारा अति मुश्किल से समुद्र में पड़े रत्न के समान अति दुर्लभ मनुष्यत्व मिला है और चिन्तामणी के समान मनवांछित सकल प्रयोजन के साधन में एक समर्थ लक्ष्मी भी भुजबल से तुमने प्राप्त की है। तुम्हारे पुण्य प्रकर्ष से इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि किसी प्रकार का दुःख अल्प भी तुमने नहीं देखा है, खिले हुए नील कमल की माला समान दीर्घ नेत्रों वाली तरुण स्त्रियों में तुम्हें अत्यन्त गाढ़ राग हुआ परन्तु वह राग अभी तक कम नहीं हुआ, तो भी तुम एक क्षण के लिए मन को राग द्वेष रहित बनाकर, मनुष्य जन्मादि जो तुम्हें मिला है उसके स्वरूप के विषय में निपुण बुद्धि से इस तरह बार-बार चिन्तन करो किः- यह जन्म, मुश्किल से मिला हुआ मनुष्य जीवन धर्म आराधना नहीं करने से बेकार ही खत्म हो जाता है तो पुनः भाग्योदय द्वारा महा मुश्किल से प्राप्त होता है। क्योंकि-पृथ्वीकाय आदि में जीव असंख्यकाल तक रहता है और वह जीव वनस्पति में गया हुआ वहाँ अनन्तकाल तक रहता है। इसी प्रकार अन्य विविधहीन योनियों में अनेक बार परिभ्रमण करते जीव को पुनः इस मनुष्य भव की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है? समस्त अन्य मनोवांछित कार्यों को यह जीव देवलोकादि में प्राप्त कर सकता है फिर भी शिव सुख साधन में समर्थ यह उत्तम मनुष्य जीवन निश्चय ही दुर्लभ है। 25 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला विरप्रभु का उपदेश अति महाक्लेशों से मिलने वाली, दुःख से रक्षण कर सके ऐसी लक्ष्मी है। वह भी स्वजन, राजा, चोर, याचक आदि सर्व की साधारण है। परन्तु आपत्ति का कारणभूत, मूढ़ता करनेवाली, एक ही जन्म के सम्बन्ध वाली, और शरद के बादल के समान अस्थिर उस लक्ष्मी में आनन्द मानना-राग करना हानिकारक है। और जिस किसी भी प्रकार से वर्तमान में इष्ट वियोगादि दुःख नहीं आया, तो इससे क्या हुआ? इससे सदाकाल उसका अभाव हुआ है? ऐसा निश्चय नहीं है। क्योंकि सिद्धों को छोड़कर तीनों लोक में ऐसा अन्य जीव नहीं है कि जिसे शारीरिक-मानसिक दुःख प्रकट न हो। इस कारण से ही भव भीरु मनवाले महापुरुषों को सर्व संग का त्यागकर मोक्ष सुख के लिए सतत् उद्यम करना चाहिए। यदि इस संसार में इष्ट वियोग आदि थोड़ा भी दुःख न हो तो कोई भी मोक्ष के लिए दुष्कर तपस्या न करता। इस बात का दृढ़तापूर्वक विचार करों। और स्त्रियों में जो राग है वह भी किंपाक के फल समान प्रारम्भ में मधुर और अन्त में कड़वा है। असंख्य भवों को बढ़ाने वाली मन के शुभाशय को नाश करने वाली और उत्तम पुरुषों के त्याग करने योग्य स्त्री को मन से भी याद नहीं करना चाहिए। इस जगत में जो कोई भी संकट है, जो कोई दुःख है और जो कोई निन्दापात्र है उन सबका मूल यह एक स्त्री ही है। भव समुद्र को पार भी उन्होंने ही किया है, और उन्होंने ही सच्चारित्र से पृथ्वी को पवित्र किया है जिन्होंने ऐसी स्त्री को दूर से त्यागा है। इसलिए हे महानुभावों! अति निपुण बुद्धि से विचारकर, सदा धर्म-धन को प्राप्त करें, और उस व्यापार का उत्कंठा से आचरण करें ।।४४२।। प्रभु ने जब ऐसा कहा, तब सविशेष बढ़ते शुभ भाव वाले राजा प्रभु को नमस्कार करके और दोनों हस्त कमल को मस्तक पर लगाकर कहने लगा कि-हे नाथ! प्रथम निजपुत्र का राज्याभिषेक करूँगा, उसके बाद आपके चरण कमल में संयम स्वीकार करूँगा। त्रिभुवन गुरु ने कहा-हे राजन्! तुम्हें ऐसा करना योग्य है, क्योंकि स्वरूप को जानने वाले ज्ञानी संसार में अल्प भी राग नहीं करते हैं। फिर जिनेश्वर भगवान के चरणों में नमन करके राजा ने अपने महल में जाकर सामंत, मंत्रियों आदि प्रधान पुरुषों को बुलाकर गद्-गद् शब्दों में कहा किअहो! मुझे अब दीक्षा लेने की बुद्धि जागृत हुई है, इसलिए मैंने सत्ता के मद से अथवा अज्ञानता से जो कोई तुम्हारा अपकार रूप आचरण कुछ भी किया हो उस सर्व को खमाता हूँ मुझे क्षमा करना, और इस राज्य की वृद्धि करना। इस तरह उनको शिक्षा देकर जब शुभ मुहूर्त आया, तब उस पवित्र दिन में महा महोत्सवपूर्वक जयसेन पुत्र को राज्य पर स्थापन किया। फिर सामंत, मन्त्रीमण्डल आदि मुख्य परिजन सहित स्वयं स्नेह से उस नये राजा को दोनों हाथ की अंजलि से नमन करके हित शिक्षा दी कि : __ स्वभाव से ही सदाचार द्वारा शोभते हे वत्स! यद्यपि तुझे कुछ भी सिखाने की जरूरत नहीं है, फिर भी मैं कुछ थोड़ा कहता हूँ कि-हे पुत्र! स्वामी, मन्त्री, राष्ट्र, वाहन, भण्डार, सेना और मित्र ये सातों के परस्पर उपकार से यह राज्य श्रेष्ठ बनता है। अतः सत्त्व को प्रगट कर के और बुद्धि से जैसे औचित्य का रक्षण हो सके इस तरह विचारकर इन सातों अंगों की प्राप्ति के लिए और वृद्धि के लिए तुम प्रयत्न करना। उसमें सर्वप्रथम तो तूं अपनी आत्मा को विनय में जोड़ना; उसके बाद अमात्यों को फिर नौकर और पुत्रों को और उसके बाद प्रजा को विनय में जोड़ना। हे वत्स! उत्तम कुल में जन्म, स्त्रियों के मन का हरण करने में चोर समान रूप, शास्त्र परिकर्मित बुद्धि और भुज बल, और वर्तमान में विवेकरूपी सूर्य को आच्छादित करने में प्रचण्ड शक्ति वाला, मोहरूपी महा बादलों का अति घन समूह समान यह खिलता हुआ यौवन रूपी अन्धकार, पण्डितों को प्रशंसनीय प्रकृति और प्रजा द्वारा शिरोमान्य होती आज्ञा, इसमें से एक-एक भी निश्चय ही दुर्जय है, इसके गर्व से बचना दुष्कर हैं तो फिर सभी का समूह तो अति दुर्जय बनता है। और हे पुत्र! जगत में भयंकर माना गया लक्ष्मी का 26 - - For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा के पुत्र को उपदेश श्री संवेगरंगशाला मद भी पुरुष को अतिविकल बनाकर शीघ्र कमीना बना देता है, तथा लक्ष्मी मनुष्यों को श्रुति-बहरा, वचनरहित और दृष्टि-रहित कर देती है। उसमें विसंवाद क्या है? अर्थात् वह उसका ऐसा ही कार्य है। और वह आश्चर्य है कि समुद्र में से देवों ने विष, लक्ष्मी आदि सात रत्न निकालें। उससे समुद्र में जन्मी हुई जहर की बहन होने पर भी मनुष्य को नहीं मारती है! परंतु विष रूपी लक्ष्मी से कईयों की मृत्यु आदि होती है। और पूर्व के पुण्यकर्म के परिपाक से वैभव, श्रेष्ठ कुल, श्रेष्ठ रूप और श्रेष्ठ राज्य भी मिलता है, लेकिन सर्व गुणों का कारणभूत विनय नहीं मिलता है। अतः अभिमान को त्यागकर विनय को सीखना परन्तु मद का अभिनय नहीं करना क्योंकिहे पुत्र! विनय से नम्र आत्माओं में महामूल्य वाले गुण प्रकट होते हैं। पृथ्वीतल में विद्वानों द्वारा मुख रूपी दण्ड द्वारा जिसका यश रूपी पटह बजाया गया है। ऐसी धर्म, काम, मोक्ष, कलाएँ और विद्याएँ ये सभी विनय से मिलती हैं। लक्ष्मी भी विनय से मिलती है। जब दर्विनीत को मिली हई लक्ष्मी भी नाश होती है। इसलिए जीव लोक में सर्व गुणों का आधारभूत विनय ही है। अधिक क्या कहें? जगत में ऐसा कुछ नहीं कि जो विनय से प्राप्त न हो! इस कारण से हे पुत्र! कल्याण का कुल भवन समान विनय को तुम जरूर स्वीकार करना। और सत्त्व की, गोत्र की, और धर्म की रक्षा में बाधा न पहुँचे इस तरह धन का उपार्जन करना, उसको बढ़ाना और रक्षण करना तथा सुपात्र में सम्यग् रूप में दान देना, राज्य संपत्ति के ये चार भेद हैं। इसलिए हे पुत्र! तुम इन चारों के विषय में भी परम प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना। साम, भेद, दाम और दण्ड ये चार प्रकार की राजनीति है, उसे भी हे प्रिय पुत्र! तूं शीघ्र जान लेना, परन्तु उसमें यदि पूर्व-पूर्व की नीति से कार्य असाध्य बनें तो यथाक्रम दूसरी, तीसरी आदि नीतियों का यथायोग्य जहाँ-जहाँ जिसका प्रयोग हो, वहाँ-वहाँ उस तरह से सोच-विचारकर प्रयोग करना। क्योंकि यदि साम नीति से कार्य होता हो तो भेद नीति का उपयोग मत करना, और भेद नीति में साम या दाम नीति का उपयोग मत करना। इसी प्रकार दाम आदि अन्य नीति का उपयोग नहीं करना। और नीति का सदैव प्राणप्रिय पत्नि के समान रक्षा करना, और अनीति को अन्याय रूप दुष्ट शत्रु के समान हमेशा रोकना, वस्त्र, आहार, पानी, आभूषण, शय्या, वाहन आदि का भोग करने के पूर्व उसमें विष का विकार है या नहीं? वह अप्रमत्त भाव से भृगराज आदि पक्षियों से जान लेना। विष की परीक्षा : तमरू, तोता और मैना ये पक्षी प्रकृति से ही नजदीक में रहे सर्प का जहर देखकर उद्विग्न होकर करुण स्वर से रोते हैं। विष को देखकर चकोर की आँखें तुरन्त विरागी बनती है (बन्द हो जाती है) क्रौंच पक्षी स्पष्ट रूप में नाचता है, और मत्त कोकिल मर जाती है। भोजन करने के इच्छुक को अन्न की परीक्षा के लिए थोड़ा आहार अग्नि में डालकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए और उसके चिह्न भी सम्यग् रूप से जान लेने चाहिए। यदि उसमें विष हो तो उसकी ज्वाला धुंएँ जैसी हो जाती है, अग्नि श्याम हो जाये और शब्द फटकर जैसे निकले तो समझना उसमें विष है। और ऐसे भोजन को स्पर्श करने से मक्खी आदि निश्चय रूप से मर जाती है। तथा विष मिश्रित अन्न में से जल्दी पानी नहीं छुटता है, जल्दी गीला नहीं होता है, रंग जल्दी बिगड़ जाता है, दहीं में श्याम और दूध में ताम्बे जैसी सामान्य लाल रेखाएँ हो जाती हैं। विष मिश्रित सर्व गीले पदार्थ सूखने लगते हैं। सूखे पदार्थों का रंग बदल जाता है और कठोर हो वह कोमल तथा कोमल हो वह कठोर हो जाते हैं। आवरण या ढेर वाली वस्तु में दाग हो जाते हैं और लोह, मणि आदि विष से मेल समान कलुषित हो जाता है। इस तरह हे पुत्र! सामान्यतया शास्त्र युक्ति से विष मिश्रित पदार्थों को जानकर उसका दूर से त्याग करना। 1. सुइवायदिट्टिहरणे नराण लच्छिए को विसंवायो। जं न कुणति गरल सहोयरा वि मरणं तमच्छरीयं ।।४५६।। 2. अभिधान चिंतामणि कोष, 27 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा का पुत्र को हितोपदेश, विष की परीक्षा और चार से छह कान में बात न जाय इस तरह गुप्त मंत्रणा करना, देश और काल के तारतम्य को जानने में कुशल बनना। उत्तम पदार्थों का दान कोई भी ऐसे वैसे को नहीं करना, और दान करे तो भी पात्रता देखना। सर्व कार्यों को अच्छी तरह परीक्षापूर्वक करना। उसमें भी सन्धि-विग्रह की परीक्षा विशेषतया करना, सर्वत्र औचित्य को जानना! कृतज्ञ, प्रियभाषी और सर्व विषय में उचित-अनुचित, पात्रापात्र कार्याकार्य, वाच्यावाच्य आदि का ज्ञाता बनना, श्रेष्ठ साधु के समान हे पुत्र! सदा निद्रा, भूख और तृषा का विजय सहन करना। सर्व परीषह सहन करने में समर्थ होना, अनाग्रही और गुणिजनों के प्रति वात्सल्य वाला बनना। मदिरा, शिकार और जुएँ को तो हे पुत्र! देखना भी नहीं। क्योंकि उससे इस लोक और परलोक में होने वाले दुःख नजर के सामने दिखते हैं और शास्त्रों में भी सुना जाता है। केवल विषय वासना को रोकने में असमर्थता के कारण सिवाय, स्त्रियों का अति परिचय तथा उनका विश्वास मत करना, क्योंकि-उन स्त्रियों से भी बहुत प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। तथा क्रोध, लोभ, मद, द्रोह, अहंकार, और चपलता का त्यागी बनना। तूं मत्सर, पैशुन्य, परोपताप और मृषावाद का भी त्याग करना। और सर्व आश्रमों (धर्मों) की तथा वर्णों की उनके वर्ण अनुसार मर्यादा का स्थापक या रक्षक बनना। तथा दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना। - और तूं अति ज्यादा कर प्रजा पर डालेगा तो सूर्य के समान तूं प्रजा का उद्वेग कारक बनेगा और अति हल्का कर (टैक्स) से चन्द्र के समान पराभव का पात्र बनेगा। अतः अति कठोर या अति हल्का कर लेने से भाव को बुद्धिपूर्वक अलग रखकर सर्वत्र द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुरूप व्यवहार करना। दीन, अनाथ, दूसरे से अति पीड़ित तथा भयभीत आदि सबके दुःखों का पिता के समान, सर्व प्रयत्नों से जल्दी प्रतिकार करना और जो विविध रोगों का घर है और आज-कल अवश्य नष्ट होने वाले शरीर के लिए भी अधर्म के कार्य में रुचि मत करना। हे पुत्र! ऐसा कुलीन कौन होगा कि तुच्छ सुख के लिए मूढ़ मति वाला बनकर असार शरीर के सुखों के लिए जीवों को पीडा दे। और देव. गरु तथा अतिथि की पूजा. सेवा. विनय करने में तत्पर बनना। द्र में शौचवाला होना। धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाला, तथा धार्मिक जनता के वात्सल्य को करने वाला होना। सर्व जीवों की शुभ प्रवृत्ति सुख के लिए होती है और वह सुख धर्म के बिना नहीं मिलता है इसलिए हे पुत्र! धर्मपरायण बनना। तथा हे पुत्र! तूं 'मेरे रात्री, दिन कौन से गुण में व्यतीत होते हैं ऐसा विचार करते सदा स्थिर बुद्धि वाला बनेगा तो इस लोक और परलोक में दुःखी नहीं होगा। हे पुत्र! हमेशा सदाचार से जो महान हो उनके साथ परिचय करना। चतुर पुरुष के पास कथा श्रवण करना। और निर्लोभ बुद्धि वाले के साथ प्रीति करना। हे पुत्र! सत्पुरुषों के द्वारा निर्देश की हुई अधम आत्म प्रशंसा (स्व प्रशंसा) जो कि विष मूर्छा के समान पुरुष को विवेक रहित करती है उसका त्याग करना। जो मनुष्य आत्म प्रशंसा करता है निश्चय वह निर्गुणत्व की निशानी है, क्योंकि यदि उसमें गुण होता तो निश्चय अन्य जन अपने आप उसकी प्रशंसा करते। स्वजन या परजन की भी निन्दा विशेषकर त्याग करने योग्य है। आत्महित की अभिलाषा वाला तूं सदा परगुण को देखने वाला, गुणानुरागी बनना। हे पुत्र! परगुण प्रति मात्सर्य, स्वगुण की प्रशंसा, अन्य को प्रार्थना करना, और अविनीतपन, ये दोष महान् व्यक्ति को भी हल्का बना देते हैं ।।५००।। ___ पर निन्दा का त्याग, स्वप्रशंसा सुनकर भी लज्जालु होना, संकट में भी प्रार्थना नहीं करना और सुविनीतमय जीवन वाला व्यक्ति छोटा हो तो भी वह महान् बन जाता है। परगुण ग्रहण करना, परजन सज्जन की इच्छानुसार चलना, हितकर और मधुर वचन बोलना, तथा अति प्रसन्न स्वभाव यह बिना मूल और मन्त्र का वशीकरण है। 28 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन राजा का पुत्र को हितोपदेश श्री संवेगरंगशाला हे पुत्र! तुम्हें वैसा करना है कि जिससे प्रथम मन में वृद्ध अवस्था और फिर शरीर में वृद्ध अवस्था आ जाय, अर्थात वृद्ध होने के पूर्व भोगादि में सन्तोष धारण करना तथा हे वत्स! जिसने अति उन्माद यौवन को अपवाद बिना निर्दोष व्यतीत किया, उसने दोष भण्डार जैसे इस संसार में, इस जन्म में कौन-सा फल प्राप्त नहीं किया? अर्थात् उसने पूर्णरूप से सब कुछ प्राप्त किया है। यह श्रेष्ठ स्वभाव वाला है, यह शास्त्र के परमार्थ को ह जानता है. यह क्षमावंत है और यह गणी है इत्यादि किसी धन्य परुष की ही ऐसी घोषणा सर्वत्र फैलती है। तथा हे वत्स! गुणों के समूह को अपने जीवन में इस तरह स्थिर करना कि जिससे मुश्किल से दूर हो सके ऐसे दोषों को रहने का अवकाश ही न रहे। पथ्य और प्रमाणोपेत भोजन का तूं ऐसा भोगी बनना कि वैद्य तेरी चिकित्सा न करे। केवल राज्य नीति के कारण उन्हें तूं अपने पास रखना। अधिक क्या कहूँ? हे पुत्र! तूं बहुत धर्म महोत्सव या आराधना करना, सुपात्र की परम्परा को हमेशा अपने पास रखना। अच्छे बाँस के समान और सरल प्रकृति वाला बनकर चिरकाल तक वर्तन करना। सौम्यता से प्रजा की आँखों को आनन्ददायी, कला का स्थान और प्रतिदिन गुणों की वृद्धि करते हुए चन्द्र जैसे समुद्र की वृद्धि करता है वैसे तूं प्रजाजन की वृद्धि करने वाला होना। प्रकृति से महान्, प्रकृति से दृढ़ धीरता वाला, प्रकृति से ही स्थिर स्वभाव वाला, प्रकृति से ही सुवर्ण रत्नमय निर्मल कान्तिवाला उत्तम वंश वाला, और पण्डितों का अनुकरण करने वाला हे पुत्र! तूं जगत में मेरु पर्वत के समान चिरकाल स्थिर प्रभुत्व को धारण करना। तथा गम्भीरता रूपी पानी से अलंकृत, गुणरूपी मणि का निधि, और अनेक नमस्कार के समह को स्वीकार करते तूं समुद्र के समान मर्यादा का उल्लंघन मत करना और इस संसार को असार, भयानक मानकर इससे उद्विग्न बनकर राज्य योग्य पुत्र को राज्यभार देकर आत्मसाधना के लिए अतिशीघ्र चारित्र-पथ का स्वीकारकर आत्मा को मुक्ति का राज्य प्राप्त करवाना। इस प्रकार महासेन राजा विविध युक्तियों से पुत्र को शिक्षा देकर सामंत, मन्त्री आदि को तथा नगर के लोगों को प्रेमपूर्वक कहता है कि इसके बाद अब यह तुम्हारा स्वामी है, चक्षुरूप है, और आधार है, इसलिए मेरे समान इसकी आज्ञा में सदा प्रवृत्ति करना। और राज्य को प्राप्तकर मैंने हास्य से क्रोध से या लोभ से यदि तुमको दुःखी किया हो वह अब मुझे क्षमा करने योग्य है। आप मुझे क्षमा करना ।।५१५ ।। फिर रानी कनकवती को उपदेश दिया कि-हे देवी! तूं भी अब मोह प्रमाद को छोड़कर सर्व विरति का आचरण कर और संसारवास से मुक्त हो। जहाँ हमेशा विनाश करने वाला यमराज निश्चय से पास में ही रहता है, उस संसार में स्वजन, धन और यौवन में राग करने का स्थान कौन-सा है? संयम के लिए तैयार हए राजा की वाणी रूप वज्र से दुःखी हुई रानी आँसू के प्रवाह से व्याकुल हुई इस प्रकार बोली साध-जीवन तो वद्धत्व में योग्य है. अब वर्तमान में संयम लेने का कौन-सा प्रसंग है? राजा ने कहा-बिजली की चमक के समान चंचल जीवन में वृद्धत्व आयगा या नहीं उसको कौन जानता देवी ने कहा-तुम्हारी सुन्दर शरीर की कान्ति दुःसह परीषहों को कैसे सहन करेगी? राजा-हड्डी और चमड़ी से गूंथी हुई इस काया में क्या सुंदरता है? देवी-थोड़े दिन अपने घर में ही रहो, किसलिए इतने उत्सुक हो रहे हो? राजा-श्रेय कार्य बहुत विघ्नोंवाले होते हैं, इसलिए एक क्षण भी रुकना योग्य नहीं है। देवी-फिर भी अपने पुत्र की राजलक्ष्मी का श्रेष्ठ उत्सव तो देखो। - 29 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला महासेन राजा का रानी कनक्वतीको हितोपदेश राजा-संसार में अनन्त बार परिभ्रमण करते क्या नहीं देखा गया है? देवी-विशाल राजलक्ष्मी होने पर भी दुष्कर इस चरित्र से क्या लाभ है? राजा-शरद ऋत के बादल समान नाशवंत इस लक्ष्मी में तझे क्यों विश्वास होता है? देवी-पाँच इन्द्रियों के विषयभूत पाँच प्रकार के श्रेष्ठ विषयों को अकाल क्यों छोड़ते हो? राजा-आखिर में दुःखी करने वाले उन विषयों का स्वरूप जानकर कौन उसका स्मरण करे? देवा-तुम जब दीक्षा स्वीकार करोगे, तब स्वजन-वर्ग चिरकाल विलाप करेगा तो।। राजा-धर्म निरपेक्षता के कारण स्वजन वर्ग अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही विलाप करते हैं। इस तरह दीक्षा विरुद्ध बोलती रानी को देखकर राजा बोला-हे महानुभावे! इसमें तुझे राग क्यों होता है? आज से तीसरे भव में मेरे वचन सुनकर सर्व संग का त्यागकर तुमने दीक्षा ली थी, वह क्यों भूल गयी हो? तुम सौधर्म देवलोक में मेरी देवी रूप में उत्पन्न हुई थी और वर्तमानकाल में दृढ़ प्रेम बढ़ने से मुझ पर रागी बनी तूं पुनः यहाँ भी मेरी पत्नी बनी है। ऐसा राजा ने जब कहा तब रानी पूर्व जन्म के वृत्तान्त को स्मरणकर दोनों हाथ जोड़कर बोली कि हे राजन्! वृद्ध गाय समान विषयरूपी कीचड़ में फंसी हुई मुझे उपदेश रूपी रस्सी द्वारा खींचकर तुमने उद्धारकर बाहर निकाला है। अब मेरा विवेक रत्न प्रकट हुआ है। मेरी घर- निवास की इच्छा भी खत्म हो गयी है, और मेरा मोह नष्ट हो गया है। इससे पूर्व के सदृश वर्तमान में भी श्रमण दीक्षा को स्वीकार करूँगी। आज से स्वप्न तुल्य गृहवास से कोई प्रयोजन नहीं है ।।५३२।। इस तरह रानी के कहने से राजा का उत्साह विशेष बढ़ गया और स्नान विधि करके स्फटिक समान उज्ज्वल वस्त्रों को धारणकर कैद में बंद और बाँधे हुए अपराधी मनुष्यों को छोड़कर नगर में सर्वत्र अमारिपटह की उद्घोषणा कर श्री जिन मंदिर में पूजा, सत्कार और महा महोत्सव करवाकर, कर माफ करके, धार्मिक मनुष्यों को सन्तोष देकर, सेवक वर्ग का सम्मान करके, याचकों को मुँह मांगा दान देकर, उचित विनयादिपूर्वक प्रजावर्ग को समझाकर, अनुमति प्राप्तकर, शरीर में उछलते हर्ष से रोमांचित बना हुआ राजा रानी के साथ हजारों पुरुषों द्वारा उठाई हुई शिबिका में बैठकर श्री जिनेश्वर भगवान के चरण कमल के पास में जाने के लिए चला। उस समय मकानों के शिखर पर चढ़कर नगर जन अत्यन्त अनिमेष नजर से उनके दर्शन कर रहे थे, और हृदय को सन्तोष देने में चतुर तथा सद्भूत यथार्थ महाअर्थ वाली श्रेष्ठ वाणी द्वारा अनेक मंगल-पाठक उनकी स्तुति कर रहे थे। उसके बाद गंभीर दुंदुभि के अव्यक्त आवाज से सम्मिश्रित असंख्य शंखों के बजाने से प्रकट हुई जीज द्वारा आकाश भी गूंज उठा, और प्रलयकाल के पवन से उछलते खीर समुद्र की आवाज का खयाल दिलाने वाले चार प्रकार के बाजों को सेवक बजाने लगे, तथा परम हर्ष के आवेश में निकलते आँसू के जल से भीगी हुई आँखों वाली, संक्षोभवश खिसक गये, कंदोरा आदि आभूषण के समूह वाली और मानव समूह को आनन्द देने में समर्थ वारांगनाओं ने सर्व आदरपूर्वक अनेक प्रकार के अंगों को मरोड़कर श्रेष्ठ नृत्य किया। इस तरह परम वैभव के साथ समवसरण के स्थान पर आया हुआ राजा पालकी में से उतरकर प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुति करने लगा कि-जन्म-मरण के भय को निवारण करने वाले, शिव सुखदाता, दुर्जय कामदेव को जीतने वाले, इन्द्रों द्वारा वंदनीय, स्तुत्य, लोग समूह के पापों का नाश करने वाले हे श्री वीर भगवान! आप विजयी रहें। इस तरह स्तुतिकर ईशान कोने में जाकर रत्नों के अलंकार और पुष्पों के समूह को शरीर पर से उतारें और फिर प्रभु को इस प्रकार विनती की कि- 'हे जगत् गुरु! हे करुणा निधि! प्रव्रज्या रूपी नौका का दान करके हे नाथ! मुझको अब इस भव समुद्र से पार उतारो।' राजा ने जब ऐसा कहा तब तीन भवन में एक 30 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासेन नुनि को प्रभु की हित शिक्षा श्री संवेगरंगशाला सूर्य सदृश प्रभु ने अपने हाथ से उसको असंख्य दुःख से मुक्त करने में समर्थ दीक्षा दी, ।।५४५ ।। फिर भगवान ने शिक्षा दी :प्रभु की हित शिक्षा : अहो! यह दीक्षा तुमने महान् पुण्योदय से प्राप्त की है। इस कारण से अब तुमको प्रयत्नपूर्वक प्राणिवध, असत्य, अदत्तादान, मैथुन तथा परिग्रह के आरम्भ को मन, वचन, काया के योग द्वारा करना कराना और अनुमोदन तीन करण द्वारा यावज्जीव तक अवश्य छोड़ देना चाहिए, और कर्म के नाश में मूल कारण बारह प्रकार के तप में विशेष रूप में हमेशा प्रमाद को छोड़कर शक्ति अनुसार प्रयत्न करना चाहिए। धन धान्यादि द्रव्यों में, गाँव, नगर, खेत, कर्बट आदि क्षेत्र में, शरद् आदि काल में तथा औदयिक आदि भावों में अल्प भी राग अथवा द्वेष भन से भी करने योग्य नहीं है, क्योंकि-फैले हुए संसाररूपी महावृक्ष का मूल ये राग-द्वेष हैं। ऐसी चिरकाल तक शिक्षा देकर प्रभु ने कनकवती साध्वी को चन्दनबाला को सौंपा और महासेन मुनि को स्थविर साधुओं को सौंपा। उसके बाद वह महात्मा महासेन स्थविर मुनियों के पास सूत्र अर्थ का अध्ययन करते गाँव, नगरों से विभूषित वसुन्धरा के ऊपर विचरने लगे। इधर कुछ दिनों में केवली पर्याय का पालन कर श्री महावीर प्रभु ने पावापुरी में अचल और अनुत्तर शिव सुख (निर्वाण पद) को प्राप्त किया। उस समय महासेन मुनि ने इस तरह विचार किया-अहो! कृतान्त को कोई असाध्य नहीं है, ऐसे प्रभु ने भी नश्वर भाव को प्राप्त किया है। जिनकी पादपीठ नमन करते इन्द्रों के समूह के मणिमय मकट से घिस जाती है, जिनके चरण के अग्रभाग से दबने पर पर्वत सहित धरती तल कम्पायमान होता है पृथ्वी तल को छत्र और मेरुपर्वत को दण्ड करने का जिसमें श्रेष्ठ सामर्थ्य है और कल्पवृक्ष आदि श्रेष्ठ प्रातिहार्य की शोभा से जिनका ऐश्वर्य प्रकट हुआ है उनको भी यदि अत्यन्त दुर्निवार अनित्यतावश करता है तो असार शरीर वाले मुझ जैसे की क्या गणना है? अथवा तीन जगत के एक पूज्य जगद्गुरु का शोक करना योग्य नहीं है क्योंकि उन्होंने कर्म की गाँठ को तोड़कर शाश्वत स्थान प्राप्त किया है। मैं ही शोक करने योग्य हूँ, क्योंकि जैसे कोई व्यक्ति बेडियों से अत्यन्त जकड़ा हुआ कैदखाने में रहा है, वैसे संसार में आज भी कठोर कर्म के बन्धन से जकड़ा हुआ मैं रहा हूँ अथवा जरा से जर्जरीत मुझे इस शरीर से क्या विशेष लाभ होने वाला है कि जिससे मैं नित्य तपस्या करने में उद्यम नहीं कर रहा हूँ? इसलिए इसके बाद मुझे विशेष आराधना करनी चाहिए, परन्तु निश्चिंत और सुविस्तृत अर्थ वाली उक्त विशेष आराधना को किस तरह जानना? अथवा इस चिन्तन से क्या लाभ? अभी केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले गणधरों के इन्द्र श्री गौतम स्वामी के पास जाऊँ, और एकाग्र चित्तवाला होकर साधु और गृहस्थ सम्बन्धी भेद-प्रभेद वाली उक्त आराधना की विधि को पूँछु। और मैं वहाँ जाकर उस विधि को विस्तारपूर्वक जानकर स्वयं आचरण करूँ और अन्य भी योग्य जीवों को कहूँ। प्रथम सम्यक् प्रकार से जानना, फिर उसका आचरण करना और उसके बाद दूसरों को उपदेश देना, क्योंकि-जिसने अर्थ को यथार्थ रूप से नहीं जाना वह उपदेशक अपना और दूसरों का नाश करता है। ऐसा सोचकर कलिकाल पर विजय प्राप्त करने में बद्धलक्ष्य वाले प्रत्यक्ष धर्मराजा के समान वे महात्मा महासेन मुनि श्री गौतम स्वामी के पास चले। प्रलयकाल में सूखी हुई गंगा नदी के पवन से तरंग प्रवाह जैसे मन्द चलता है, वैसे तप से शरीर दुबला हो जाने से धीरेधीरे भूमि के ऊपर कदम रखते शरीर पर लगी हुई पापरज को लगातार साफ करते हो इस तरह वृद्धावस्था के कारण, हाथ, पैर, मस्तक, पेट आदि सर्व अंगों से काँपते हुए, युग प्रमाण दृष्टि से आगे देखते हुए उनके (गुरु 1. पढ़मं सम्मं नाणं पच्छा करणं परोवएसो या अमुणियजहट्टियत्था, परमप्पाणं च नासिंति ।।५६५|| 31 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला श्री गौतमस्वामी का महासेन मुनि को उपदेश-ज्ञान की सामान्य आराधना गौतम के) पास जाकर विनयपूर्वक शरीर को नमाकर उस महासेन मुनि ने तीन प्रदक्षिणापूर्वक श्री गौतम गणाधीश को वन्दन किया और हर्षावेश से विकसित नेत्र वाले, खिले हुए कलियों समान हस्त कमल को ललाट पर लगाकर अद्भुत वचनों से स्तुति करने लगे : हे त्रिलोक के सूर्य! हे जगद्गुरु! हे वीर जिन के प्रथम शिष्य! हे भयंकर भवाग्नि से संतप्त शरीर वाले जीवों की शान्ति के लिए मेघ समान! आपकी विजय हो। नयोरूपी महा उछलते तरंगों वाली बारह निर्मल अंग वाली (द्वादशांगी रूप) गंगा नदी के आप उत्पादक होने से हे हिमवंत महापर्वत तुल्य गुरुदेव! आप विजयी बनो। अक्षीण महानसी लब्धि द्वारा पन्द्रह सौ तापसों को परम तृप्ति देने वाले, तथा अत्यन्त प्रसिद्ध अनेक लब्धियों रूपी उत्तम समृद्धि से सम्पन्न, हे प्रभु! आपकी जय हो। हे धर्मधुरा को धारण करने वाले एक वीर! आप विजयी बनों। हे सकल शत्रुओं को जीतनेवाले गुरुदेव! आपकी जीत हो! और सर्व आदरपूर्वक देव यक्ष और राक्षसों द्वारा वंदन किये जाते चरण कमल वाले, हे प्रभु! आप विजयी बनें। जगत् चुडामणि श्री वीर प्रभु ने तीर्थ रूप में बतलाये हुए निर्मल छत्तीस गुणों की पंक्ति के आधारभूत, हे भगवंत! मेरे ऊपर कृपा करो, और हे नाथ! मुझे साधु और गृहस्थ की आराधना की विधि विस्तारपूर्वक भेद-प्रभेद दृष्टान्त और युक्ति सहित समझाओं ऐसा कहकर वह मुनि रुक गया। तब स्फुरायमान मणि समान मनोहर दाँत की कान्ति से आकाश तल को उज्ज्वल करते हो इस तरह श्री गौतमस्वामी ने इस प्रकार कहा- ।।५७७।। हे देवानुप्रिय! हे श्रेष्ठ गुण रत्नों की श्रेष्ठ खान! हे अति विशुद्ध बुद्धि के भण्डार! तुमने यह सुन्दर पूछा है क्योंकि-कल्याण की परम्परा से पराङ्गमुख पुरुषों की सुदृष्ट परमार्थ को जानने की मनोरथ वाली बुद्धि कभी भी नहीं होती है। इसलिए हे निरुपम धर्म के आधारभूत दुर्धर और प्रकृष्ट ताप के भार को उठाने वाले महामुनि महासेन! यह मैं कहता हूँ, उसे तुम सुनो। इस तरह दीक्षित महासेन मुनि ने साधु और गृहस्थ की आराधना को जिस तरह पूछा था और श्री गौतम प्रभु ने जिस तरह महासेन मुनि वरिष्ठ को कहा था उसी तरह में अर्थात् जिनचन्द्र सूरि सूत्रानुसार कहता हूँ। इस जिन शासन में राग-द्वेष को नाश करने वाला और अनुपकारी भी अन्य जीवों को अनुग्रह करने में तत्पर श्री जिनेश्वर देव ने इस आराधना को शिवपथ का परमपथ कहा है। अति गहरे जल वाले समुद्र में गिरे हुए रत्न के समान व्यवहार नय मतानुसार कोई जीव भाग्य से यदि किसी तरह उस आराधना को प्राप्त करता है, तो उसकी नित्य उत्तरोत्तर वृद्धि द्वारा प्रति समय में आत्मा को विशिष्ट कार्यों में स्थिर करना चाहिए। इस तरह करने से श्री जिन शासन में प्रसिद्ध आराधना के क्रम में कुशल आत्मा को जैसे संपूर्ण सेवाल से भरे तालाब में कभी कछुआ चन्द्र दर्शन प्राप्त करता है, वैसे मोक्ष मार्ग प्राप्त होता है। और उसका मनुष्य जीवन सफल होता है। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या प्रयोजन? अब जो ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप की निरतिचार आराधना करने की है, वह चार स्कन्ध वाली आराधना यहाँ कहते हैं। यह आराधना सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार की है, उसमें प्रथम सामान्य से कहते हैं :ज्ञान की सामान्य आराधना : सूत्र पढ़ने का जो समय कहा है, उस सूत्र को उस काल में ही, सदा विनय से, अतिसन्मानपूर्वक, उपधान पुरस्सर तथा जो जिसके पास अध्ययन करना हो उसका उस विषय में निश्चय रूप से अनिह्नवणपूर्वक, सूत्र, अर्थ और तदुभय को विपरीत रूप नहीं परन्तु शुद्ध रूप से इस तरह ज्ञान के आठ आचार के पालनपूर्वक जो श्रेष्ठ वाचना, पृच्छना, परावर्तना, प्ररूपणा-धर्म कथा और उसी की ही परम एकाग्रता से जो अनुप्रेक्षा करना। 32 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन- चारित्र की सामान्य आराधना श्री संवेगरंगशाला ये पांच प्रकार का स्वाध्याय । वह दिन में या रात्री में करना। उसमें भी अकेले अथवा पर्षदा में रहकर करना । उसमें भी सुखपूर्वक सोये हुए या जागृत दशा से करना । उसमें भी खड़े रहकर, बैठकर या थक जाने से कभी स्थिर, चलित अथवा स्खलित - पतित बने हुए, स्वस्थ रहे अथवा दुस्थित, स्वतन्त्र, परतन्त्र तथा छींक, उबासी, या खांसी प्रसंग पर अथवा बहुत कहने से क्या ? जिस किसी अवस्था में रहने पर भी जिसके चित्त का उत्साह कम न होता हो उस उत्साह से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ज्ञान का ग्रहण, धारण तत्त्व से परतन्त्रता वाला है, ऐसा समझकर सम्यग् ज्ञान गुण से युक्त ज्ञानी पुरुष रत्नों की हमेशा भक्ति सेवा करनी चाहिए और उन्हें अतिमान देना चाहिए। इस तरह के आठ प्रकार का आचार पालन, पांच प्रकार के स्वाध्याय और विनय भक्ति पूर्वक सम्यग् ज्ञान की आराधना है। दर्शन की सामान्य आराधना : जो स्वरूप से गम्भीर अर्थ वाले होने से मुश्किल से समझ में आये ऐसें, जीव, अजीव आदि सर्व सद्भूत पदार्थ हैं उसे, अनुपकारी प्रति भी अनुग्रह करने में तत्पर, परम ऐश्वर्य वाले श्री जिनेश्वर भगवान का कथन होने से मेरी कथंचित् अल्प बुद्धि होने के कारण समझ में नहीं आये तो भी 'वह ऐसा ही है' ऐसे भाव से हमेशा उसमें शंका बिना जैसा है वैसा स्वीकारता है वह (१) निःशंकित आचार जानना, तथा यह अन्य दर्शन मिथ्या है, तो भी अमुक गुणों से वह दर्शन सम्यक् है ऐसा समझकर उसकी आकांक्षा नहीं करनी वह (२) निष्कांक्षित आचार है। शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान का फल मिलेगा या नहीं मिलेगा? ऐसी शंका करना, तथा सूखे पसीने से मलीन वस्त्र या शरीर वाले मुनियों को देखकर दुर्गंच्छा नहीं करनी वह (३) निर्विचिकित्सा आचार है ।। ६०० ।। कुतीर्थियों की अल्प भी पूजा प्रभावना आदि अतिशय को देखकर मन में विस्मय नहीं करना, मोहमूढ़ न बनना वह (४) अमूढ़ दृष्टि आचार है। ये चार प्रकार निश्चयनय के है । धर्मात्माजनों के गुणों की प्रशंसा करके उत्साह बढ़ाना वह (५) उपबृंहणा आचार है। जो गुणों से चंचल हो उन्हें उन गुणों में स्थिर करना वह (६) स्थिरीकरण आचार है। तथाविध साधर्मिकों का यथाशक्ति वात्सल्य करना वह (७) वात्सल्य आचार है। और श्री अरिहंत भगवंत कथित प्रवचन (शासन) की विविध प्रकार से प्रभावना करनी उसके यश की महिमा बढ़ाना वह (८) प्रभावाच है। चार प्रकार व्यवहार नय के है। और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का यही अर्थ है, यही निश्चय परमार्थ है और इसके बिना सर्व अनर्थ है। इस तरह भाव से चिन्तन करना तथा निर्मल सम्यक्त्व गुणों से महान् पुरुषों का नित्यमेव जो भक्ति करनी उन्हें सन्मान देना वह सभी दर्शन आराधना जानना । चारित्र की सामान्य आराधना : सर्व सावद्य (पापकारी) योग के त्यागपूर्वक सत् प्रवृत्ति करना वह चारित्र है और जो पांच महाव्रतों का पालन, दस प्रकार के क्षमादि यति धर्म, पड़िलेहण, प्रमार्जना आदि, तथा दस प्रकार की चक्रवाल रूप पृच्छाप्रतिपृच्छादि साधु समाचारी का पालन करना वह चारित्र की आराधना अथवा दसविध वैयावच्च में, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्ति में, बयालीस दोष रहित पिण्ड विशुद्धि में, तीन गुप्ति में, पांच समिति में अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आश्रित यथाशक्ति अभिग्रह स्वीकार करने में, इन्द्रियों के दमन करने में, और क्रोधादि कषायों के निग्रह करने में, प्रतिपत्ति अर्थात् जिनाज्ञा पालन रूप आराधना तथा अनित्यादि बारह भावना, और पांच महाव्रत सम्बन्धी पच्चीस भावना का हमेशा चिंतन करना और विशेष अभिग्रह स्वीकार करने रूप बारह प्रकार की भिक्षु प्रतिमा 1. एस अट्टे, एस परमट्टे सेसे अणट्टे भगवती सूत्र For Personal & Private Use Only 33 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला तप की सामान्य आराधना-संक्षिप और विशेष आराधना का स्वरूप का जो सम्यक् पालन करना तथा सामायिक, छेदोपस्थापनिका, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म संपराय, तथा यथाख्यात ये पांच चारित्र यथाशक्ति सेवन करना तथा उत्तम चारित्र रत्न से परिपूर्ण पुरुषसिंह साधु महात्माओं के प्रति जो हमेशा भक्ति, विनय आदि करना वह सब चारित्र की आराधना है। तप की सामान्य आराधना : मन को खेद न हो, शरीर को बाधा न हो, इन्द्रियाँ विकलता को प्राप्त न करें, रूधिर मांस आदि शरीर की धातुओं की पुष्टि और क्षीणता भी न हो, तथा अचानक वात, पित्त आदि धातु दूषित न बनें, आरम्भ किये हुए संयम गुणों की हानि न हो, परन्तु उत्तरोत्तर उन गुणों की वृद्धि हो उस तरह से उपवास आदि ६ प्रकार के बाह्य तप में तथा प्रायश्चित्त आदि ६ प्रकार के अभ्यंतर तप में प्रवृत्ति करना और 'इस लोक परलोक' के सर्व सुख की इच्छा को सर्वथा त्यागकर बल, वीर्य पुरुषार्थ को हमेशा छुपाये बिना विधिपूर्वक तप करना चाहिए इस तप का श्री जिनेश्वर भगवान ने आचरण किया है श्री जिनेश्वर देव ने उपदेश दिया है इसलिए तीर्थंकर पद प्राप्त कराने वाला है अतः संसार का नाशक है, निर्जरा रूप फल देने वाला है, शिव सुख का निमित्त रूप है, मन से सोचे हुए अर्थ को प्राप्त कराने वाला है, दुष्कर कार्य होने रूप चमत्कार-आश्चर्य कराने वाला है, सर्व दोषों का निग्रह करने वाला है, इन्द्रियों का दमन करने वाला है, देवों को भी वश करने वाला है, सर्व विघ्नों का हरने वाला है, आरोग्य कारक है, और उत्तम मंगल के लिए यह तप योग्य है। ऐसा समझकर इन हेतुओं से अनेक प्रकार से करने योग्य होने से और परम पवित्र होने से, उसे करने का उद्यम करना और करने में परम संवेग-उत्साह-आदर प्राप्त करना और विविध तप गुण रूपी मणि के रोहणगिरि समान पुरुषसिंह महातपस्वी महात्माओं के प्रति विनय सन्मान आदि करना। यह सब तपाचार की आराधना है ।।६२२।। संक्षिप्त और विशेष आराधना का स्वरूप : ___ इस तरह सामान्यतया कही हुई इस आराधना के विशेष स्वरूप में भी दो भेद कहे हैं, संक्षेप और विस्तार से। उसमें विशेष आराधना भी संक्षेप में इस तरह होती है। साध अथवा श्रावक यदि वह अत्यन्त अस्वस्थ, महा रोगी आदि हो तो विस्तार सहित आराधना के लिए उसे अनुचित जानकर गुरु महाराज उसको अत्यन्त तीव्र रोग के आधीन देखकर भी उसने अगर चित्त में सन्ताप को प्राप्त न किया हो और आराधना की इच्छा वाला हो ऐसे गृहस्थ और साधु के पास उसके द्वारा अर्जित पापों की आलोचना करवाकर पाप रूपी शल्य का उद्धार करवाते हैं। और ऐसे गुरु महाराज का योग न मिले तो स्वयंमेव साहस का आलंबन लेकर श्रावक या साधु अपनी भूमिका के अनुसार चैत्यवंदन आदि यथायोग्यकर, ललाट पर दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर हृदयरूपी उत्संग में श्री अरिहंत भगवंत को तथा श्री सिद्धों को बिराजमानकर इस प्रकार बोले : भावशत्रु को नाश करने वाले श्री अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो तथा परम अतिशयों से समृद्धशाली सर्व श्री सिद्ध परमात्माओं को नमस्कार हो। मैं यहाँ रहकर आपको वंदन करता हूँ, वहाँ पर रहे अप्रतिहत केवलज्ञान के प्रकाश से वे मुझे वंदन करते देखें। फिर विनति करे कि-मैंने पूर्व में भी निश्चय रूप में सत् क्रिया से प्रसिद्ध संविग्न और सुकृत योगी श्री सद् गुरुदेव के आगे मेरे सर्व मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण किया था, तथा उनके समक्ष ही मैंने संसार रूपी पर्वत को भेदन करने में दृढ वज्र समान जीवाजीव आदि पदार्थों की रुचि स्वरूप सम्यक्त्व को स्वीकार किया था। अभी भी उनके समक्ष भव भ्रमण के कारण रूप सम्पूर्ण मिथ्यात्व को विशेष स्वरूप से त्रिविध-त्रिविध द्वारा त्याग किया है और पुनः उनके समक्ष सम्यक्त्व को भी स्वीकार करता हूँ और उसके पूर्व में भी मुझे भाव शत्रुओं के समूह को नाश करने में सद्भूतार्थ श्रेष्ठ अरिहंत नाम के श्री भगवंत मेरे 34 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुराजा का प्रबन्ध श्री संवेगरंगशाला देव हैं और साधु महाराज मेरे गुरु हैं ऐसी मेरी प्रतिज्ञा थी और अभी भी वही मेरी प्रतिज्ञा सविशेषतया दृढ़ बनें। इन व्रतों को भी पुनः विशेष रूप से स्वीकार करता हूँ तथा पूर्व में मुझे समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव था और वर्तमान में भी आपके समक्ष मेरा वह मैत्रीभाव विशेष रूप में दृढ हो। ऐसा करके फिर सर्व जीवों को मैं खमाता हूँ वे मुझे क्षमा करें, उनसे मेरी मैत्री ही है, उनके ऊपर मन से भी द्वेष नहीं है, इस तरह क्षमापना करे। तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि के प्रति राग उसका भी मैंने सर्वथा त्याग किया है, शरीर के राग का भी त्याग किया है। इस तरह राग का त्यागकर भव से उद्विग्न बनकर वह त्रिविध अथवा चतुर्विध आहार का साकार या अनाकार पच्चक्खाण से त्याग करे। फिर अत्यन्त भक्तिपूर्वक वह पंचपरमेष्ठि मन्त्र का जाप करते हुए सद्ध्यान पूर्वक अपना आयुष्य पूर्ण करें। इस संक्षिप्त आराधना में मधुराजा का और दूसरा निश्चल प्रतिज्ञा वाले सुकोशल मुनि का दृष्टान्त कहा है ।।६४१।। वह इस प्रकार से : मधुराजा का प्रबन्ध जीवाजीवादि तत्त्वों को विस्तारपूर्वक जाननेवाला और परम समकित दृष्टि युक्त, इतना ही नहीं, किन्तु शास्त्र में श्रावक के जितने गुण कहे हैं, उन सभी गुणों से युक्त मथुरा नगरी में मधु नाम का राजा था, वह नाम धन्य राजा एक समय क्रीड़ा के लिए परिमित सेना के साथ उद्यान में गया। वहाँ क्रीड़ा करते उसे रामदेव के भाई द्वारा गुप्त रूप में जानकर शत्रुजय नामक प्रतिशत्रु ने महान् सेना से घेर लिया, और आक्षेपपूर्वक कहा कि यदि जीने की इच्छा हो तो भुजबल का मद छोड़कर मेरी आज्ञा को मस्तक पर चढ़ा। उस समय मधुराजा बोला-अरे पापी! ऐसा बोलकर तूं अभी क्यों जीता है? ऐसा तिरस्कार करते भृकुटी चढ़ाकर भयंकर बनकर बख्तर रहित शरीर वाला दर्प रूपी उद्धत श्रेष्ठ हाथी ऊपर चढकर वह जीवन से निरपेक्ष होकर उसके साथ युद्ध करने लगा। उस युद्ध में हाथियों के गले कटने लगे, उसमें महावत हाथियों के ऊपर से नीचे गिरने लगे, अग्रेसर हाथी भी उसमें से पीछे हटने लगे, उसमें हाथी रथ आदि के बन्धन टूट रहे थे, योद्धाओं के जहाँ दाँत से होंठ कुचलते जाते थे, जहाँ श्रेष्ठ योद्धा मर रहे थे, श्रेष्ठ तलवार उसमें टूट-फूट रही थीं। डरपोक लोग वहाँ से भाग रहे थे, अंगरक्षकों का उसमें छेदन हो रहा था, भाले की नोंक से जहाँ परस्पर कॉख (बगल) भेदन हो रहे थे, वहाँ बहुत रथ टूट रहे थे, वहाँ परस्पर भयंकर प्रहार हो रहे थे, वह धरती सर्वत्र रुधिर से लाल बन गयी थी, और कटे हुए मस्तकों से भयंकर दिखने लगी थी। इस तरह युद्ध द्वारा मधुराजा ने शत्रु पक्ष को दुःखी बना दिया, परंतु शत्रुओं के द्वारा लगातार शस्त्रों का समूह फेंकने से घायल अंग बना हुआ, हाथी की पीठ के ऊपर बैठा युद्ध भूमि में से निकलकर मधुराजा अत्यन्त सत्त्वशाली मन से वैरागी बनकर मान और शोक से युक्तायुक्त विचार करने लगा कि बाह्य दृष्टि से राज्य भोगते हुए भी निश्चय से श्री जिन-वचन रूपी अमृत द्वारा वासित मेरे मन में यह मनोरथ था कि सैंकड़ों जन्मों की परम्परा का कारणभूत राज्य को आज त्याग करूँ, कल छोड़कर और मोक्ष में हेतुभूत सर्वज्ञ कथित दीक्षा को ग्रहण करूँ, फिर उसे निरतिचार युक्त पालन करूँ, अन्तकाल में विधि अनुसार निष्पाप होने के लिए चार शरण स्वीकारकर, दुष्कृत निन्दा और सुकृत अनुमोदना आदि आराधना विधिपूर्वक करूँगा, परन्तु अभी यहाँ पर प्रासुक-शुद्ध भूमि नहीं है, संथारे की सामग्री नहीं है, वैसे निर्यामक भी नहीं है, अहा हा! अकाल में आकस्मिक मेरी यह कैसी अवस्था हो गयी है? अथवा ऐसी अवस्था में मुझे अब लम्बा विचार करने से क्या लाभ है? हाथी की पीठ पर ही मेरा संथारा हो, मेरी ही आत्मा मेरा निर्यामक बनें। ऐसा चिंतनकर उसी समय मधुराजा ने द्रव्य, भाव, शस्त्रों का त्याग किया और उसी क्षण में आत्मा को परम संवेग में - 35 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला सुकोशल मुनि की कथा स्थिर कर दिया, मुक्ति का एक लक्ष्य बना दिया, हाथी, घोड़ें, रथ और मनुष्यों के समूह को, स्त्रियों को, विविध भण्डार, पर्वत नगर और गाँवों सहित सारी पृथ्वी को त्रिविध-त्रिविध रूप से वोसिरा दिया। अठारह पाप स्थानकों का त्याग किया। सर्व समूह और सर्व द्रव्य, क्षेत्र आदि के राग का भी त्याग किया। उसके बाद धर्म ध्यान में तन्मय और आर्त्त-रौद्र- ध्यान का त्यागी बनकर वह बुद्धिमान राजा चिरकाल के दुष्ट आचरणों की निन्दा करके सर्व इन्द्रियों के विकारों को रोककर, अनशन विधि को स्वीकारकर, सभी प्राणि-मात्र से क्षमा याचना करते हुए, सुख दुःख आदि द्वन्द्व प्रति मध्यस्थ भाव रखने वाला भक्तिपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा कि-भाव शत्रुओं का विनाश करने वाले सर्वज्ञ श्री अरिहंत देवों को मेरा नमस्कार हो, कर्म के समूह से मुक्त सर्व सिद्धों को मेरा नमस्कार हो, नमस्कार हो! धर्म के पांच आचारों में रक्त आचार्य महाराज को मैं नमस्कार करता हूँ, सूत्र के प्रवर्तक श्री उपाध्याय भगवंत को नमन करता हूँ और क्षमादि गुणों से युक्त सर्व साधुओं को भावपूर्वक नमस्कार करता हूँ। इस तरह पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते उसने आयुष्य पूर्ण किया और शुभप्रणिधान के प्रभाव से वहाँ से सात सागरोपम के आयुष्य वाला तीसरे सनत्कुमार देवलोक में देदीप्यमान शरीर वाला देव हुआ। इस प्रकार मधुराजा का वर्णन संक्षेप से कहा, अब सुकोशल महामुनि का वर्णन करते हैं ।।६६८।। सुकोशल मुनि की कथा साकेत नामक महान् नगर में कीर्तिधर नामक राजा राज्य करता था। उसकी सहदेवी नाम की रानी और उसका सुकोशल नामक पुत्र था। अन्य किसी दिन वैराग्य प्राप्तकर राजा ने सुकोशल का राज्याभिषेक कर सद्गुरु के पास में संयम लिया, ज्ञान क्रिया रूप ग्रहण और आसेवन दोनों प्रकार की शिक्षा की स आराधना करते वह गाँव, नगर आदि में ममता रहित विचरने लगा। एक समय उन्होंने साकेतपुर में भिक्षार्थ प्रवेश किया और उसकी रानी सहदेवी ने उसे देखकर 'मेरे पुत्र को गलत समझाकर यह साधु न बना दे'। ऐसा चिंतनकर उसने कीर्तिधर महामुनि को सेवक द्वारा नगर से निकलवा दिया, इससे 'अरे रे! यह पापिनी अपने स्वामी का भी अपमान क्यों करवा रही है?' इस तरह अत्यन्त शोक से उसकी धावमाता गद्गद् स्वर से रोने लगी, उस समय सुकोशल ने पूछा-माताजी! आप क्यों रो रही हैं? मुझे बतलाइए। उसने कहा-हे पुत्र! यदि तुझे सुनने की इच्छा हो तो कहती हूँ-जिसकी कृपा से यह चतुरंग बल से शोभित राजलक्ष्मी तूंने प्राप्त की है वे प्रवर राजर्षि कीर्तिधर राजा चिरकाल के पश्चात् यहाँ आये हैं, उन्हें हे पुत्र! तुरन्त वैरी के समान इस तेरी माता ने अभी ही नगर से बाहर निकलवा दिया है। इस प्रकार का व्यवहार किसी हल्के कुल में भी नहीं दिखता है, जब तीन भवन में प्रशंसा पात्र तेरे कुल में यह एक आश्चर्य हुआ है। हे पुत्र! अपने मालिक का इस प्रकार पराभव देखकर अन्य कुछ भी करने में असमर्थ होने से मैं रोकर दुःख को दूर कर रही हूँ। उसे सुनकर आश्चर्यचकित होते हुए सुकोशल राजा पिता मुनि को वन्दन करने के लिए उसी समय नगर से बाहर निकल गया. अन्यान्य जंगलों में स्थिर दृष्टि से देखते उसने एक वृक्ष के नीचे काउस्सग्ग ध्यान में कीर्तिधर मुनि को देखा, तब परम हर्ष आवेश से विकस्वर रोमांचित वाला वह सुकोशल अत्यन्त भक्तिपूर्वक पिता मुनि के चरणों में गिरा और कहने लगा किहे भगवंत! अपने प्रिय पुत्र को अग्नि से जलते घर में छोड़कर पिता का चले जाना क्या योग्य है? हे पिताजी! आप मुझे हमेशा जरा, मरण रूपी अग्नि की भयंकर ज्वालाओं के समूह से जलते हुए इस संसार में छोड़कर दीक्षित हुए? अभी भी हे तात! भयंकर संसार रूपी कुएँ के विवर में गिरे हुए मुझे दीक्षा रूपी हाथ का सहारा देकर बचाओ, इस तरह उसका अत्यन्त निश्चल और संसार प्रति परम वैराग्य भाव देखकर कीर्तिधर मुनिराज ने उसे दीक्षा दी। 36 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकोशल मुनि की कथा-विस्तृत आराधना का स्वरूप श्री संवेगरंगशाला सुकोशल को दीक्षित बने जानकर अति दुःखार्त बनी सहदेवी महल पर से गिरकर मर गयी और मोग्गिल नामक पर्वत में शेरनी रूप में उत्पन्न हुई, इधर वे मुनिवर्य तप में निरतिचार संयम में उद्यम करते और दुःसह महापरीषहों रूपी शत्रुओं के साथ युद्ध में विजय द्वारा जय पताका को प्राप्त करते अप्रतिबद्ध विहार से विचरते उसी ही श्रेष्ठ पर्वत में पहुँचे. वहाँ उन्होंने वर्षाकाल प्रारम्भ किया. इससे पर्वत की गफा के मध्य में स्वाध्याय ध्यान में दुर्बल शरीर वाले उन्होंने चातुर्मास रहकर चातुर्मास पूर्णकर शरत्काल में निकले, विहार में उन्हें आते हुए देखकर पूर्व के वैर से अति तीव्र क्रोध वाली बनी वह शेरनी सहसा उनके सामने दौड़ी, उसे आते देखकर महोत्सव वाले, अक्षुब्ध मन वाले मुनियों ने भी आनन्द से 'श्वापद का यह तीव्र उपसर्ग उपस्थित हुआ है' ऐसा मानकर सागार पच्चक्खाण करके अदीन और धीर मन वाले, उन्होंने दोनों हाथ लम्बेकर नाक के अग्रभाग में दृष्टि जोड़कर मेरु के समान अचल जब काउस्सग्ग करके खड़े रहे, तब शेरनी ने आकर सुकोशल मुनि को शीघ्र पृथ्वी पर गिरा दिया और उसका भक्षण करना आरम्भ किया तब उस उपसर्ग को सम्यग् रूप से सहन करते उस महात्मा ने इस प्रकार चिंतन किया कि-शारीरिक और मानसिक दुःखों से भरे हुए संसार में जीवों को उन दुःखों के साथ योग होना सुलभ है, अन्यथा इस संसार में पाँच सौ साधु सहित खंधकाचार्य घानी में पिलाकर अत्यन्त पीड़ा से क्यों मर गये? अथवा काउस्सग्ग में रहे और तीन दण्ड के त्यागी दण्ड साधु का शीर्ष अति रुष्ट बना यवन राजा बिना कारण से क्यों छेदन करे? इसलिए इस भव समुद्र में आपदाएँ अति सुलभ ही हैं, परन्तु सैंकड़ों जन्मों के दुःखों को नाश करने वाला जिन धर्म ही दुर्लभ है। चिन्तामणि के समान, कामधेनु और कल्पवृक्ष के समान यह दुर्लभ प्राप्ति वाला धर्म भी पुण्य के संयोग से महा मुश्किल से मुझे मिला है ।।७०० ।। इस प्रकार धर्म प्राप्ति होने से अनादि संसार में अतिचार रूप दोषों से रहित और सदाचरण रूप गणों से श्रेष्ठ मेरा यह जन्म ही सफल है। केवल एक ही दुःख रूप चिन्ता है कि जो मैं इस शेरनी के कर्म बन्धन में कारण रूप बना हूँ। अतः जिन-जिन मुनियों ने अनुत्तर मोक्ष को प्राप्त किया है उनको मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि वे अन्य जीवों के कर्म बन्धन के कारण नहीं बने हैं। मैं अपनी आत्मा का शोक नहीं करता हूँ परन्तु कर्म से परतन्त्र श्री जिन वचन से रहित मिथ्यामति वाली दुःख समुद्र में पड़ी हुई इस शेरनी का शोक करता हूँ। ऐसा चिंतन मनन करते उनका शरीर कर्ममल और उस जन्म का आयुष्य परस्पर स्पर्धा करते हों इस तरह तीनों एक साथ में ही सहसा क्षीण हो गये। इससे उत्तरोत्तर बढ़ते ध्यानरूपी अग्नि से सकल कर्मवन जल जाने से अंतकृत् केवली होकर महा सत्त्ववान् सुकोशल राजर्षि ने एक समय में सिद्धि गति प्राप्त की। अथवा उत्तम प्रणिधान में एक बद्धलक्ष्य वालों को क्या दुःसाध्य है? भयानक बीमारी या महा संकट के समय साधु और गृहस्थ संबंधी कर्म का नाश करने वाली इस संक्षेप वाली विशेष आराधना को कहा है। विस्तृत आराधना का स्वरूप : अति सुबद्ध सुन्दर नगर के समान विस्तृत आराधना के ये मूल चार द्वार हैं (१) परिकर्म विधि (२) परगण में संक्रमण (३) ममत्व का उच्छेद और (४) समाधि लाभ। ये चारों द्वार क्रमशः यथार्थ रूप में कहेंगे। इसलिए प्रस्तुत अर्थ आराधना के विस्तार का प्रस्ताव करने में ये चार मुख्य होने से वे मूल द्वार है और इन चार द्वारों में योग्यता, लिंग, शिक्षा आदि नाम वाले प्रतिद्वार हैं - 37 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला श्री मरुदेवा माता का दृष्टांत और उसके अनुक्रम से पन्द्रह, दस, नौ और नौ प्रतिद्वार हैं। उसका वर्णन फिर उस द्वार में विस्तृत विवरण के प्रसंग पर करेंगे, केवल ये द्वार की अर्थ-व्यवस्था (वर्णन पद्धति) इस तरह कही है। परिकर्म विधि द्वार में 'अहं द्वार आदि से त्याग द्वार' पर्यंत जो वर्णन करेंगे, उसमें कहीं-कहीं पर गृहस्थ, साधु दोनों संबन्धी, और कहीं पर दोनों का विभाग कर अलग-अलग रूप में कहेंगे, उसके बाद मरण विभक्ति द्वार से प्रायः साधु के योग्य ही कहेंगे, क्योंकि श्रावक भी उसको विरति की भावना जागृत होने से उत्कृष्ट श्रद्धा वाले अन्त में निरवद्य प्रवज्या ग्रहण करके काल कर सकता है, इसलिए उसे अब आप सुनो ।।७१६ ।। इस विषय में अब अधिक कहने से क्या प्रयोजन? अतिचार रूपी दोष से रहित निर्दोष आराधना को अंतकाल में अल्प पुण्य वाला प्राप्त नहीं कर सकता है। क्योंकि जैसे ज्ञान, दर्शन का सार शास्त्र में कहा हुआ उत्तम चारित्र है, और जैसे चारित्र का सार अनुत्तर मोक्ष कहा है जैसे मोक्ष का सार अव्याबाध सुख कहा है वैसे ही समग्र प्रवचन का भी सार आराधना कहा है, चिरकाल भी निरतिचार रूप में विचरणकर मृत्यु के समय में ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाले अनन्त संसारी होते हुए देखे हैं। क्योंकि बहुत आशातनाकारी और ज्ञान चारित्र के विराधक का पुनः धर्म प्राप्ति में उत्कृष्ट अन्तर अर्ध पुद्गल परावर्तन असंख्यकाल चक्र तक कहा है, और मरने के अन्त में माया रहित आराधना करने वाली मरुदेवा आदि मिथ्यादृष्टि भी महात्मा सिद्ध हुए भी दिखते हैं। वह इस प्रकार : श्री मरुदेवा माता का दृष्टांत नाभि राजा के मरुदेवा नामक पत्नी थी, वह ऋषभदेव प्रभु ने दीक्षा लेने के शोक से संताप करती हुई हमेशा आंसू झरने के प्रवाह से मुख कमल को धोती हुई रो रही थी और कहती कि-मेरा पुत्र ऋषभ अकेला घूम रहा है, श्मशान, शून्यघर, अरण्य आदि भयंकर स्थानों में रहता है और अत्यन्त निर्धन के समान घर-घर पर भीख मांग रहा है और यह उसका पुत्र भरत घोड़ें, हाथी, रथ वगैरह उत्कृष्ट सम्पत्ति वाला तथा भय से नम्रता युक्त सामन्तों के समूह वाला राज्य भोग रहा है। हा! हा! हताश! हत विधाता! मेरे पुत्र को ऐसा दुःख देने से हे निघृण! तुझे कौन-सी कीर्ति या कौन से फल की प्राप्ति होने वाली हैं? इस तरह हमेशा विलाप करती और शोक से व्याकुल बनकर रोती उसकी आँखों में मोतिया आ गया। जब त्रिभवन के एक प्रभु श्री ऋषभदेव को विमल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट होने से देवों ने मणिमय सिंहासन से युक्त समवसरण की रचना की, तब केवल ज्ञान की उत्पत्ति को सुनकर मरुदेवी के साथ हाथी के ऊपर बैठकर प्रभु को वंदनार्थ के लिए आते भरत महाराजा जगद्गुरु का छत्रातिछत्र आदि ऐश्वर्य देखकर विस्मयपूर्वक कहने लगे कि-हे माताजी! सुर, असुरादि तीनों जगत से पूजित चरण कमल वाले आपके पुत्र को र जगत में आश्चर्यकारक उनका परम ऐश्वर्य देखो! आप आज तक जो मेरी ऋद्धि की आदर से प्रशंसा करते थें और मुझे उपालंभ देते थे परंतु मेरी ऋद्धि तुम्हारे पुत्र की ऋद्धि से एक करोड़वाँ भाग की भी गिनती में नहीं है। हे माताजी! देखो तीन छत्ररूपी चिह्नों से शोभता, बड़ी शाखाओं वाला, मनोहर अशोक वृक्ष है, और तीन भवन की शोभा विस्तारपूर्वक बताने वाला रम्य यह प्रभु का आसन है। हे माताजी! देखो! पंचवर्ण के रत्नों से रचित द्वार वाला, चांदी, सोना और मणि के तीन गढ़ से सुंदर तथा घुटने तक पुष्पों के समूह से भूषित समवसरण की यह भूमि है। और हे माताजी! एक क्षण के लिए ऊपर देखो! आते-जाते देवों के समूह से शोभित 1. दिवा मिच्छादिट्टी, अमाइणो लक्खणेण सिद्धा या आराहियमरणंता, मरुदेवाई महासत्ता 11७२२।। 38 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला और विमान की पंक्तियों से यह आकाश मण्डल भी ढक गया है, और यह आकाश दुंदुभि की आवाज से व्याप्त होकर गूंज उठा है। हे माताजी! देखो, इस तरफ इन्द्रों का समूह मस्तक को नमाकर प्रभु की स्तुति करते हैं, देखो। इस तरफ अप्सराएँ नाच रही हैं, और ये किन्नर हर्षपूर्वक गाने गा रहे हैं। ___ भरत महाराजा की बातें सुनकर और जिनवाणी का श्रवण करने से हर्ष प्रकट हुआ, हर्ष समूह से नेत्रपटल आनन्दाश्रुजल से धुलकर साफ हो गये, निर्मल नेत्रों वाली मरुदेवी ने छत्रातिछत्र आदि ऋषभदेव की ऋद्धि देखकर मोह समाप्त हो गया, और शुक्लध्यान को प्राप्त करने से उनके सब कर्म खत्म हो गये। उसी समय उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। और उसी समय आयु पूर्ण होने से मुक्ति पुरी में पधारी ।।७३९।। इस अवसर्पिणी काल में मरुदेवी माता ने सर्वप्रथम शिव सुख की सम्पत्ति प्राप्त की। इस तरह अन्तिम आराधना मोक्ष के सुख का कारणभूत है। यह सुनकर संशय से व्याकुल चित्तवाले बने हुए शिष्य महासेन मुनि ने गुरु गौतम गणधर को विनयपूर्वक नमस्कार करके पूछा कि-यदि मुनिवरों को मृत्यु के समय में प्रवचन के साररूप में यह आराधना करनी है तो अभी शेषकाल में तप, ज्ञान, चारित्र में क्यों प्रयत्न-कष्ट सहन करना। गुरु गणधर ने कहा-उसका कारण यह है कि-यावज्जीव प्रतिज्ञा का पालन करना उसे आराधना कहा है, प्रथम उसका भंग करे तो मृत्यु के समय उसे वह आराधना कहाँ प्राप्त होगी? अतः मुनियों को शेषकाल में भी यथाशक्ति दृढ़तापूर्वक अप्रमत्त भाव से मृत्यु तक आराधना करते रहना चाहिए जैसे हमेशा जपी हुई विद्या मुख्य साधना किये बिना सिद्ध नहीं होती है वैसे ही जीवन पर्यन्त प्रव्रज्या रूपी आराधना की साधना किये बिना उनसे मरणकाल की आराधना भी सिद्ध नहीं होती है। जैसे पूर्व में क्रमशः अभ्यास न किया हो ऐसा सुभट यद्यपि युद्ध में समर्थ हो, फिर भी शत्रु सुभटों की लड़ाई में वह उनसे जय पताका को प्राप्त नहीं कर सकता है, वैसे पूर्व में शुभयोग का अभ्यास न किया हो वह मुनि भी उग्र परीषह के संकट युक्त मृत्युकाल में आराधना की निर्मल विधि को प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि निपुण अभ्यासी भी अत्यन्त प्रमादी होने के कारण स्वकार्य को सिद्ध नहीं कर सकता, तो मृत्यु के समय कैसे सिद्ध कर सकेगा? इस विषय में विरति की बुद्धि से भ्रष्ट हुए क्षुल्लक मुनि का दृष्टान्त देते हैं ।।७४७।। वह इस प्रकार है : आराधना विराधना के विषय में क्षल्लक मनि की कथा महीमण्डल नामक नगर था। उसके बाहर उद्यान में ज्ञानादि गुण रूपी रत्नों के भण्डार रूप श्रीधर्मघोष सूरीश्वरजी महाराज पधारें। उनका निर्मल गुण वाले पांच सौ मुनियों का परिवार था, देवों से घिरा हुआ इन्द्र शोभता है वैसे शिष्यों से घिरे हुए वे शोभते थे, फिर भी समुद्र में वड़वानल समान, देवपुरी में राहु के सदृश, चन्द्र समान उज्ज्वल परन्तु उस गच्छ में संताप कारक, भयंकर, अति कलुषित बुद्धि वाला, अधर्मी, सदाचार और उपशम गुण बिना का, केवल साधुओं को असमाधि करने वाला रुद्र नाम का एक शिष्य था। मुनिजन के लिए निन्दापात्र कार्यों को बार-बार करता था। उसे साधु करुणापूर्वक मधुर वचनों से समझाते थें कि-हे वत्स! तूने श्रेष्ठ कुल में जन्म लिया है, तथा तुझे उत्तम गुरु ने दीक्षा दी है, इसलिए तुझे निन्दनीय कार्य करना अयुक्त है। ऐसे मीठे शब्दों से रोकने पर भी जब वह दुराचार से नहीं रुका, तब फिर साधुओं ने कठोर शब्दों में कहा कि-हे दुःशिक्षित! हे दुष्टाशय! यदि अब दुष्ट प्रवृत्ति करेगा तो धर्म-व्यवस्था के भंजक (नाश करने वाले) तुझे गच्छ में से बाहर निकाल दिया जायगा। इस तरह उलाहना से रोष भरे उसने साधुओं को मारने के लिए सभी मुनियों के पीने योग्य पानी के पात्र में उग्र जहर डाल दिया। उसके बाद प्रसंग पड़ने पर जब साधु पीने के लिए - 39 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा उस पानी को लेने लगे तब उन साधुओं के चारित्र गुण से प्रसन्न बनी देवी ने कहा कि - ओ मुनियों! इस जल में रुद्र नामक तुम्हारे दुष्ट शिष्य ने जहर डाला है, इस कारण से कोई न पीये । यह सुनकर श्रमणों ने उसी समय उस दुष्ट शिष्य और उस पानी का त्रिविध - त्रिविध त्याग किया। उसके बाद मुनिजन को मारने के अध्यवसाय से अत्यन्त पाप उपार्जन करने से महाभारे कर्मी वह उसी जन्म में ही अति तीव्र रोगाकुल शरीर वाला बना, भगवती दीक्षा छोड़कर इधर-उधर घर में रहता हुआ, बहुत पाप कर्म की बुद्धि वाला, बिना भिक्षा वृत्ति से जीता, मनुष्यों के मुख से 'यह दीक्षा भ्रष्ट है, अदर्शनीय है, अत्यन्त दुष्ट चेष्टावाला है' ऐसे शब्दों से प्रत्यक्ष अपमानित होता, आहट्ट - दोहट्ट को प्राप्त करता, स्थान-स्थान पर रौद्र ध्यान को करता, व्याधियों रूपी अग्नि से व्याकुल शरीर वाला, अति क्रूर मति वाला, मरकर सब नारकियों के प्रायोग्य पाप बन्धकर नरक में फिर, अत्यन्त तुच्छ और निंदनीय तिर्यंच की विविध योनियों में, वहाँ से पुनः प्रत्येक भव में एकान्तरित तिर्यंच की अन्तर गतिपूर्वक अर्थात् बीच-बीच में अति तीक्ष्ण लाखों दुःखों का स्थान स्वरूप घम्मा, वंशा, शैला आदि सातों नरक पृथ्वीओं में उस नरक के उत्कृष्ट आयुष्य का बन्ध करते हुए अनुक्रम से उत्पन्न हुआ। उसके बाद जलचर, स्थलचर, खेचर की योनियों में अनेक बार उत्पन्न हुआ, फिर द्वींद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति में भी विविध प्रकार की अनेक योनियों के अन्दर अनेक बार उत्पन्न हुआ, वहाँ से जल, अग्नि, वायु और पृथ्वीकाय में असंख्य काल तक उत्पन्न हुआ, इस तरह वनस्पतिकाय में अनन्तकाल तक उत्पन्न हुआ। उसके बाद मनुष्य होने पर भी बर्बर, अनार्य, नीच, चंडाल, भिल्ल, चमार, धोबी आदि जातियों में उत्पन्न हुआ प्रत्येक जन्म में भी मनुष्यों का द्वेष पात्र बना और अति दुःखी हालत में जीवन व्यतीत करता था । तथा कहीं शस्त्र से चीरा जाता, कहीं पत्थर से चूर होता, तो कहीं पर रोग से दुःखी होता, कहीं पर बिजली से जलता, कभी मच्छीमार मारता, कहीं पर ज्वर से मरता, कहीं अग्नि से जलता, कभी गांठ बन्धन या फांसी से मरता, कभी गर्भपात से मरता, कभी शत्रु से मरता, कभी यन्त्र में पिलाया जाता, कभी शूली पर चढ़ाया जाता, कभी पानी में डूबता, कहीं गड्ढे में फेंका जाता, इत्यादि महा दुःखों को सहन करते बार-बार मृत्यु के मुख में गया ।।७७३।। इस तरह अनंत जन्मों की परम्परा तक दुःखों को सहन करने से पाप कर्म हल्के और कषाय कम होने से चूर्णपुर नामक श्रेष्ठ नगर में वैश्रमण सेठ की गृहिणी वसुभद्रा नामक पत्नी की कुक्षी से पुत्र रूप में जन्म और नियत समय पर उसका गुणाकर नाम रखा। वह शरीर और बुद्धि के साथ बढ़ने लगा। उसके पश्चात् एक दिन वहाँ श्री तीर्थंकर परमात्मा पधारें, वहाँ अनेक मनुष्यों के साथ गुणाकर भी उसी समय उनको वंदन के लिए गया, और जगन्नाथ को वंदन कर वहाँ पृथ्वी पर बैठा। फिर प्रभु ने हजारों संशय को नाश करने वाली, शिव सुख को प्रकट करने वाली, कुदृष्टि, मिथ्यात्व और अज्ञान को दूर करने वाली, कल्याण रूपी रत्नों को प्रकट करने के लिए पृथ्वी तुल्य उपदेश दिया। इससे अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध हुआ । कइयों ने विरति धर्म स्वीकार किया, और कइयों ने मिथ्यात्व का त्यागकर सम्यक्त्व को स्वीकार किया। फिर अति हर्ष के समूह से रोमांचित देहवाले उस गुणाकर ने उचित प्रसंग प्राप्तकर जगद्गुरु को नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि - हे भगवंत ! पूर्व जन्म में मैं कौन था ? इस विषय में मुझे जानने की बहुत तीव्र इच्छा है, अतः आप कहिए । जगत्प्रभु ने उसे हितकर जानकर रुद्र नामक क्षुल्लक साधु के भव से लेकर उसके सारे पूर्व भवों का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहा। उसे सुनकर भय • व्याकुल मनवाला हुआ और गाढ़ पश्चात्ताप जागृत होने से वह बोला- हे नाथ! इस महापाप का क्या प्रायश्चित्त होगा? जगद् गुरु ने कहा- हे भद्र! साधु के प्रति बहुमान आदि करने के बिना अन्य किसी तरह से शुद्धि नहीं है। इस भयंकर संसार से भयभीत बने हुए उसने पांच सौ साधुओं को वंदन आदि विनय कर्म करने का अभिग्रह लिया और 40 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला यथोक्त विधि से उसका पालन करने लगा, और जिस दिन पूरे पांच सौ साधु का संयोग नहीं मिलता तो उस दिन वह भोजन का त्याग करता था। इस तरह वह ६ महीने तक अभिग्रह का पालनकर अंत में संलेखनापूर्वक मरकर पाँचवें ब्रह्मदेव लोक में उत्पन्न हुआ।।७८७।। वहाँ भी अवधिज्ञान के बल से भूतकाल का वृत्तान्त जानकर तीर्थंकर और साधुओं को वंदन आदि प्रवृत्ति करते हुए आयुष्य पूर्णकर चम्पापुरी में राजा चन्द्रराजा के पुत्र रूप में जन्मा, वह बुद्धिमान वहाँ भी पूर्वभव में साधुओं के प्रतिदृढ़ पक्षपाती होने से पूज्य भाव से मुनियों को देखकर जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त हुआ और सन्तोष का अनुभव करने लगा। इससे ही माता पिता ने उसका नाम प्रियसाधु रखा, फिर युवावस्था में उसने संयम स्वीकार किया, वहाँ भी समस्त तपस्वी साधु की सेवा आदि करने में तत्पर बना, विविध अभिग्रह स्वीकार करने में एक लक्ष्यवाला और अप्रमादी बनकर वह जीवन के अंत में संलेखना करके शुक्र (सहस्रार) देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से मानव और देवलोक में दैवी सुखों का अनुभव करते हुए यावत् सर्वार्थ सिद्ध में सर्वोत्कृष्ट सुख भोगकर, वहाँ से मनुष्य जन्म को प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की, और निरवद्य आराधना की विधि यथार्थ रूप से पालन करने लगा, और मोहरूपी योद्धाओं का पराभव कर संसार के निमित्त भूत कर्मों के समूह को खत्म कर दिया, तत्पश्चात् सुर-असुरों से महिमा गाने वाले हिम समान उज्ज्वल शिवपुर को प्राप्त किया। इस तरह क्षल्लक मनि के समान दीक्षा लेने वाले और ज्ञान से दक्ष बने हए भी प्रमादी साध आराधना विधि का पालन नहीं कर सकते हैं। और इस क्षुल्लक के जीव ने जैसे साधु पना पालन किया वैसे जो प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ साधु जीवन पालन करता है वह लीला मात्र से आराधना द्वारा विजयलक्ष्मी को प्राप्त करता है। इस प्रकार मरुदेवी आदि दृष्टान्त से प्रमाद नहीं करना चाहिए, परन्तु निष्कलंक दीक्षा का पालन यह मृत्यु समय की आराधना का कारण होने से उसका पालन नित्यमेव करना चाहिए। __ यह सुनकर महासेन मुनि ने कहा कि-'पूर्व में साधु जीवन की साधना नहीं करने पर भी निश्चय से मरुदेवी माता सिद्ध हुए हैं' ऐसा कहा है। उसमें क्या परमार्थ है? गुरु गणधर ने कहा-पूर्व में उसका चित्त धर्म वासित न हो, ऐसा कोई जीव यद्यपि मरणांत आराधना करे, तो भी क्षात्र विधि के दृष्टान्त से वह सर्व के लिए प्रमाणभूत नहीं है ।।८०० ।। वह दृष्टान्त इस प्रकार :- जैसे किसी पुरुष ने कील गाड़ने के लिए जमीन में खड्डा खोदा। किसी प्रकार दैव योग से रत्न का खजाना मिल गया, तो क्या अन्य किसी भी कारण से किसी स्थान पर जमीन पर खड्डा खोदने से खजाना मिल जायगा? अर्थात् नहीं मिल सकता है। अतः सर्व विषय में एकान्त नहीं है। यद्यपि वह मरुदेवी पूर्व जन्म में कुशल धर्म के अभ्यासी नहीं थी फिर भी कथंचित सि तो क्या इसी तरह सर्वजन सिद्ध हो जायेंगे? ऐसा नहीं होगा। इसलिए मरुदेवी आदि के दृष्टान्त से प्रमाद नहीं करना। जो मल प्रतिज्ञा-नियमों का पालन करता है और क्रमशः बढते शभ भावना वाला हो वह अन्तिम आराधना कर सकता है। ऐसा समझना चाहिए। विधिपूर्वक परिपूर्ण आराधना करने की इच्छा वाले मुनि अथवा श्रावक को रोगी के समान सर्वप्रथम आत्मा को परिकर्मित अर्थात् दृढ़ अभ्यासी बनाना चाहिए, इस कारण से विशेष क्रियार्थियों के लिए पहले कहा हुआ परिकर्म विधान नाम का मुख्य द्वार बतलाया है। उसमें, उस द्वार के साथ में सम्बन्ध रखने वाले, उसके समान गुण वाले जो पन्द्रह अन्तर्गत द्वार हैं, उसे क्रमशः कहता हूँ (१) अर्ह द्वार, (२) लिंग द्वार, (३) शिक्षा द्वार, (४) विनय द्वार, (५) समाधि द्वार, (६) मनोनुशास्ति द्वार, (७) अनियत विहार द्वार, (८) राज द्वार, (९) परिणाम द्वार, (११) मरणविभक्ति द्वार, (१२) अधिगत __ 41 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- अर्ह नामक अंतर द्वार (पंडित) मरण द्वार, (१३) श्रेणि द्वार, (१४) भावना द्वार और (१५) संलेखना द्वार। उनका वर्णन क्रमशः कहते हैं (१) अर्ह द्वार : - अर्ह अर्थात् योग्य । यहाँ आराधना करने में योग्य समझना । इसमें सामंत, मन्त्री, सार्थवाह, श्रेष्ठी या कौटुम्बिक आदि अथवा राजा, स्वामी, सेनापति, कुमार आदि कोई भी अथवा उस राजादि का अन्यतर कोई भी अविरुद्धकारी कार्य तथा उनके विरोधियों के संसर्ग का वह त्यागी होता है और जो आराधक साधुओं को चिन्तामणि तुल्य समझकर उनका सन्मान करता है, ऐसे दृढ़ अनुरागी उन साधुओं की सेवा करने के लिए अत्यर्थ प्रार्थना करता है और आराधना के योग्य अन्य आत्माओं के प्रति भी वह हमेशा वात्सल्य करता है और प्रमादी जीवों को धर्म आराधना की दुर्लभता है ऐसा मानता है और मृत्यु इष्ट भाव में विघ्नरूप है ऐसा नित्य विचार करे और उसे रोकने का साधन आराधना ही है ऐसा चिन्तन करे। हमेशा उद्यमशील उत्साहपूर्वक श्री अरिहंत भगवान की पूजा सत्कार करे और गुणरूपी मणि के टोकरी स्वरूप उनके गुणों से गुरुत्व का विचार करे। प्रवचन की प्रशंसा में रक्त रहे, धर्म निन्दा से रुक जाय, और गुण से महान् गुरु की भक्ति में हमेशा शक्ति अनुसार तैयार रहे। सुन्दर मन वाले मुनियों को अच्छी तरह से वंदन करे, अपने दुश्चरित्र की अच्छी तरह निन्दा करे, गुण से सुस्थिर आत्माओं में राग करे, सदा शील और सत्य के पालन करने में तैयार रहे। कुसंग का त्याग करे, सदाचारियों का संसर्ग करे, फिर भी उनके दोषों को नहीं देखे। हमेशा परगुणों को ग्रहण करे, प्रमादरूपी दुष्ट पिशाच का नाश करे, इन्द्रियों रूपी सिंहों को वश में करे, और अत्यन्त दुष्ट प्रवृत्ति वाला, दुराचारी मनरूपी बंदर का ताड़न करे, ज्ञान को सुने, ज्ञान को स्वीकार करे, ज्ञानपूर्वक कार्य करे, अधिकज्ञानी के प्रति राग करे, ज्ञानदान में बार-बार तैयार रहे। अकुशल नियम के क्षयोपशम वाला और कुशल के अनुबन्ध वाला, गुणों की सत्तावाला गुणी आत्मा ही आराधना के योग्य है। कुगति पन्थ में सहायक अपने कषायों को किसी भी तरह से जीतकर प्रशान्त मन वाला, जो दूसरों के कषायों को भी प्रशान्त करता है, वह आराधना के योग्य जानना। क्योंकि उपशम भाव को प्राप्त नहीं करने वाला, ऐसा कषाय वाला भी अन्य के कषायों के उपशान्त करने के शुभभाव से स्वयं सम्यग् उपाय कर आराधना की योग्यता को प्राप्त कर सकता है। अतः आराधना करने वाले को कषाय रूपी शल्य का उद्धार करना चाहिए । आराधना करने के पूर्व प्रथम से ही स्वयं को शल्य रहित करें तो वह भी आराधना के योग्य जानना । ऋण देने के कारण जो अन्य लेनदार को मान्य न हो वह और लेनदार मान्य हो वह भी, यदि किसी भी रूप में व्यापारि - गण की अनुमति हो तो वह आराधना के लिए योग्य है। अन्यथा आराधना में रहे हुए और संघ उसे अमान्य करता हो उसके प्रति लेनदार को प्रद्वेष होने से प्रवचन की मलिनता होती है। और जिसने सन्मान और उपदेश देकर अपने-अपने परिवार को आजीविकादि में स्थिर किया हो, ऐसे परिवार को छोड़ने वाला निश्चय ही आराधना करने योग्य है। अन्यथा लोक में निन्दा होती है। और आजीविका के प्रबन्ध में सर्वथा सामर्थ्य के अभाव में भी विशिष्ट धार्मिक लोगों की यदि अनुमति हो अर्थात् उसके परिवार वाले यह कहे हम अपना किसी तरह गुजर-बसर करेंगे आप चारित्र ग्रहण करें इस प्रकार छोड़ने वाला आराधक समझना, अतः इस कारण जैसे-तैसे परिवार को छोड़ने वाला भी आराधना के योग्य जानना । तथा प्रकृति से जो विनीत हो, प्रकृति से ही साहसिक हो, प्रकृति से अत्यन्त कृतज्ञ और संसारवास निर्गुण है, उस कारण से संसारवास से वैरागी बना हो, स्वभाव से ही अल्प हास्य वाला हो, स्वभाव से ही अदीन और प्रकृति से ही स्वीकार किये हुए कार्य को पूर्ण करने में शूरवीर हो, तथा जिसने 42 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्न द्वार-अर्ह नामक अंतर दार-वंकचूल की कथा श्री संवेगरंगशाला पाप का त्याग किया हो, आराधना में रहने वाला, अन्य की आराधना को सुनकर या देखकर जो उनकी भक्ति में प्रेमी मन वाला होता हो। मैं भी श्रीसर्वज्ञ कथित विधिपूर्वक क्रमशः आचरण करते पूर्ण साधुता को प्राप्तकर पुण्य से ऐसा सुसाधु कब, किस तरह होऊँगा? इस तरह अपने आत्मा में चिन्तन करने वाला, भावना से श्रेष्ठ बुद्धिमान, स्थिर, शान्त प्रकृति वाला और जो शिष्टजन के सन्मान पात्र हो, उसे आराधना के योग्य जानना चाहिए। अथवा पूर्व में अत्यन्त उग्र मन, वचन, काया की प्रवृत्ति वाला, क्रूरकर्मी, हमेशा मदिरा पान करने वाला, गन्ने के रस आदि मादक वस्तु का आसेवन करने वाला, मदिरा, पान और मांस का भोजन करने में लालची मन वाला, स्त्री, बाल, वृद्ध की हत्या करने वाला, चोरी और परस्त्री सेवन में तत्पर, असत्य बोलने में प्रेम रखने वाला, तथा धर्म की हँसी करने वाला भी पीछे से कोई भी वैराग्य का निमित्त प्राप्तकर पश्चाताप करने वाला, परम उपशम भाव को प्राप्त करने वाला, ऐसा शुभाशय वाला, धीर पुरुष भी राजपुत्र वंकचूल तथा चिलातिपुत्र आदि के समान निश्चय ही आराधना के योग्य हैं ।।८३७।। वह इस प्रकार है वंकचूल की कथा यथास्थान पर रचना किये हुए तीन रास्ते, चार मार्ग, बाजार, मंदिर और भवनों से रमणीय श्रीपुर नाम का नगर था। उसमें विमलयश नाम का राजा राज्य करता था। युद्ध में शत्रुओं के हाथियों के कुंभस्थल भेदन करने से लगे हुए रुधिर के बिन्दुओं से उद्भट कान्ति वाली उसकी तलवार मानों अत्यन्त कुपित हुई यम की कटार हो ऐसी दिखती थी। जबकि दूसरी ओर मणिमय मुकुट की किरणों से अलंकृत उसका मस्तक भक्तिवश जिन मुनियों के चरण कमलों में भ्रमर जैसा बन जाता था। उस राजा के निरुपम रूप आदि गुणों से देवियों को भी लज्जित करने वाली सकल अन्तःपुर में श्रेष्ठ सुमंगला नाम की रानी थी। साथ में जन्म लेने से परस्पर अति स्नेह वाले उसके पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री दो सन्तानें थीं। परन्तु नगर में लोग सर्वत्र अनर्थों को उत्पन्न करने से पुष्पचूल को निश्चय रूप में वंकचूल ही कहते थे। इस तरह नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त करते वंकचूल के कारण प्रजा के द्वारा राजा को एक दिन उलाहना सुननी पड़ी, इससे रोषित होकर राजा ने उसे देश निकाला दे दिया। तब अपने परिवार से युक्त उस बहन को साथ लेकर नगर से चल दिया। क्रमशः आगे बढ़ते वह अपने देश का उल्लंघन कर एक अटवी (जंगल) में पहुँचा। बहुत पर्वतों से युक्त, वह वन सिंह के नखों से भेदन किये हुए, हाथियों की चीख से भयंकर था। जहाँ घटादार महावृक्षों ने सूर्य की किरणों को रोक दिया था। घूमते हुए अष्टापद प्राणियों के हेषारव आवाज सुनकर सिंह वहाँ से दौड़-भाग रहे थे। सिंहों को देखने से व्याकुल बने मृग का झुंड वहाँ गुफाओं में प्रवेश कर रहा था। कामी पुरुषों से वेश्या जैसी घिरी हुई होती है वैसे सौ से सारा वन व्याप्त था। वहाँ पर कोई भी मार्ग नहीं दिखता था, ऐसी भयानक अटवी में वे लोग आ पहुँचे। वहाँ भूख-प्यास से पीडित वह वंकचल बोला-हे परुषों! ऊँचे वक्ष के ऊपर चढकर चारों तरफ देखो! कि यहाँ कहीं पर जलाशय अथवा गाँव आदि बस्ती है? ।।८५० ।। उसके कहने पर वे पुरुष ऊँचे श्रेष्ठ वृक्ष पर चढ़कर चारों दिशा में अवलोकन करने लगे तब उन्होंने थोड़ी दूर काले श्याम और जंगली भैंसे के समान काले शरीर वाले, अग्नि को जलाते हुए, भिल्लों को देखा और उन्होंने राजपुत्र से कहा। उसने भी कहा कि हे भद्रों! उनके पास जाओ और गाँव का रास्ता पूछो। यह सुनकर पुरुष उन भिल्लों के पास गये, और मार्ग का रास्ता पूछने लगे, तब भिल्लों ने कहा कि-तुम यहाँ कहाँ से आये हो? तुम कौन हो? किस देश में जाने की इच्छा रखते हो? वह सारा वत्तान्त कहो! पुरुषों ने कहा कि-श्रीपुर नगर से विमलयश राजा का पुत्र वंकचूल नाम का है, वह पिता के अपमान से निकलकर परदेश जाने के लिए यहाँ आया है और हम उसके सेवक तुम्हारे पास मार्ग पूछने आये हैं। भिल्लों ने 43 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-अर्ह नामक अंतर द्वार-वंकचूल की कथा कहा कि-अरे! हमारे राजा के पुत्र को हमें दिखाओ, पुरुषों ने स्वीकार किया, और वापिस आकर राजकुमार को दिखाया। फिर दूर से ही धनुष-बाण आदि शस्त्रों को छोड़कर भिल्लों ने कुमार को नमस्कार कर विचार करने लगे कि-इस प्रकार के सुन्दर राजा के लक्षणों से अलंकृत यदि यह किसी तरह से अपना स्वामी हो जाये, तो सर्व सम्पत्ति हो जाय। ऐसा विचारकर उन्होंने दोनों हाथ से भालतल पर अंजली कर विनय और स्नेहपूर्वक कहाहे कुमार! आप हमारी विनती को सुनो! चिरकाल के संचित पुण्योदय से निश्चय आप जैसे प्रवर पुरुषों के दर्शन हुए हैं, इससे कृपा करके हमारी पल्ली में पधारों। पल्ली को निज चरण कमल से पवित्र करों और का राज्य करो। हम इतने दिन स्वामी बिना के थे, हमारे आज से आप ही स्वामी हैं। देश निकाला होने से अपने कुटुम्ब की व्यवस्था को चाहने वाला तथा प्रार्थना होने से कमार ने उनकी बात स्वीकार की विषय का रागी क्या नहीं करता? उसके बाद प्रसन्न-चित्त वाले उन भिल्लों ने मार्ग दिखलाया और परिवार के साथ वह पल्ली की ओर चला और अति गाढ़ वृक्षों से विषम मार्ग से धीरे-धीरे चलते वह सिंह गुफा नामक पल्ली के पास आया, देखने मात्र से अति भयंकर विषम पर्वतों रूपी किल्लों के बीच में रहती यम की माता के सदृश भयंकर उस पल्ली को देखी, वह पल्ली एक ओर मरे हुए हाथियों के बड़े दाँत द्वारा की हुई वाडवाली और अन्यत्र से मांस बेचने आये हुए मनुष्यों के कोलाहल वाली थी। एक ओर कैदी रूप में पकड़े हुए मुसाफिर के करुण रुदन के शब्दों वाली थी और अन्यत्र मरे हुए प्राणियों के खून से भरी हुई भूमि वाली पृथ्वी थी, एक ओर भयानक स्वर से धुत्कार करते सुअर या कुत्तों के समूह से दुःप्रेक्ष्य थी और दूसरी ओर लटकते मांस के भक्षण के लिए आये हुए पक्षियों वाली थी, एक तरफ परस्पर वैरभाव से लड़ते भयंकर लड़ने वाले भिल्लों वाली थी और दूसरी ओर लक्ष्य को बींधने के लिए एकाग्र बनें धनुर्धारियों से युक्त थीं और, जहाँ निर्दय मूढ़ पुरुष दुःख से पीड़ित होते मनुष्यों को मारने में धर्म कहते थे, और परस्त्री सेवन को अकृत्रिम परम शोभा कहते थें। वहाँ विश्वासु विशिष्ट मनुष्यों को ठगने वाले की बुद्धि वैभव की प्रशंसा होती थीं और हित वचन कहने वाले के सामने दृढ़ वैर तथा इससे विपरीत अहित कहने वाले के साथ मैत्री भाव रखा जाता था। जैसे तैसे बोलने वाले को भी वचन कौशल्य रूप में प्रशंसनीय गिना जाता था, और न्याय के अनुसार चलने वाले को वहाँ सत्त्व हीन कहा जाता था। जैसे अत्यन्त पापवश हुआ व्यक्ति नरक कूटि में जाता है, वैसे ऐसे पापी लोगों से युक्त पल्ली में उस कुमार ने प्रवेश किया। और भिल्लों ने उसे वहाँ अति सत्कारपूर्वक पुराने पल्लिपति के स्थान पर स्थापन किया, फिर अपने पराक्रम के बल से वह थोड़े काल में पल्लिपति बना। कुलाचार का अपमान कर, पिता के धर्म व्यवहार का विचार किये बिना, लज्जा के भार को एक तरफ फेंक कर, साधुओं की धर्मवाणी को भूलकर, वनवासी हाथी के समान रोक टोक बिना वह सदा भिल्ल लोगों से घिरा हुआ हिंसा आदि करता, नजदीक के गाँव, पुर, नगर, आकर आदि का नाश करने में उद्यमी, स्त्री, बाल, वृद्ध, विश्वासु का घात करने में एक ध्यान वाला, हमेशा जुआ खेलने वाला, और नित्यमेव मांस, मदिरा से जीने वाला, उस पल्ली में ही अथवा उन पापों में ही आनन्द मानने वाला वंकचूल लीलापूर्वक काल व्यतीत करने लगा ।।८८०।। ___ अन्य किसी दिन विहार करते हुए किसी कारण से मार्ग भूलकर साथियों से अलग होकर कुछ शिष्यों के साथ एक आचार्य महाराज वहाँ पधारें। उसी समय ही मूसलाधार वर्षा होने लगी, जो रुकने का नाम नहीं ले रही थी और मोर के समूह को नचाती हुई प्राथमिक वर्षा ऋतु का आरम्भ हुआ। उस वर्षा ऋतु में पत्तों से अलंकृत वृक्ष शोभते थे, हरी वनस्पति के स्तर से ढका हुआ पृथ्वी मण्डल शोभ रहा था, जब कि महान् चपल 44 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-अर्ह नानक अंतर दार-वंकचूल की कथा 'श्री संवेगरंगशाला तरंगों की आवाज के बहाने से मानो ग्रीष्म ऋतु को हाँककर निकाल रहे हों इस तरह महान् नदियाँ पर्वतों के शिखर पर से गिर रही थीं। उस वर्षा में बहुत जल गिरने से पृथ्वी मण्डल में सर्वत्र मार्ग विषम हो गये थे, अतः हताश हुए मुसाफिर मानो अपनी पत्नी का स्मरण हो जाने से वापिस लौटते हों, इस तरह दूर या बीच से वापिस आ रहे थे। इससे ऐसा स्वरूप वाला वर्षाकाल देखकर आचार्य श्री ने सद्गुणिओं में श्रेष्ठ साधुओं से कहा किभो महानुभावों! यह पृथ्वी उगे हुए तृण के अंकुर वाली तथा कंथुवा, चींटी आदि बहुत से जीवों वाली हो गयी है। इसलिए यहाँ से आगे जाना योग्य नहीं है, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि-इस दीक्षा में जीवदया धर्म का सार है उसके अभाव में दष्ट राजा की सेवा के समान दीक्षा निरर्थक बनती है। इस कारण से ही वर्षा ऋतु में महामुनि कछुए के समान अंगोपांग के व्यापार को अत्यन्त संकोचकर एक स्थान पर रहते हैं। अतः इस पल्ली में जायें, क्योंकि निश्चय ही यहाँ पर वंकचूल नामक विमलयश राजा का पुत्र भिल्लों का अधिपति बना है, ऐसा सुना है। उसके पास में वसति की याचना कर यहाँ वर्षा काल व्यीतत करें और इस तरह चारित्र का निष्कलंक पालन करें। साधुओं ने वह मान्य किया फिर वे वंकचूल के घर गये और गर्व से ऊँची गर्दन वाले उसने कुछ अल्पमात्र नमस्कार किया। उसके बाद धर्मलाभ रूपी आशिष देकर आचार्यश्रीजी ने कहा-अहो भाग्यशाली! साथियों से अलग पड़े और वर्षा काल में आगे बढ़ने में असमर्थ होने से हम 'श्री जिन शासन रूपी सरोवर में राजहंस समान विमलयश राजा के पुत्र तुम यहाँ हो' यह सुनकर यहाँ आये हैं। इसलिए हे महाभाग! कोई वसति रहने के लिए दो, जिससे चातुर्मास यहाँ रहे, क्योंकि अब साधुओं को एक कदम भी चलना योग्य नहीं है। पाप से घिरा हुआ अति पापी वंकचूल बोला-हे भगवंत! अनार्यों की संगति से दोष प्रकट होता है इसलिए आपको यहां रहना योग्य नहीं है, क्योंकि यहाँ मांसाहारी, हिंसा करने में तल्लीन मनवाले, क्रूर अनार्य, क्षुद्र लोग रहते हैं, साधु को उसका परिचय करना भी योग्य नहीं है। तब सूरिजी ने कहा-अहो महाभाग! इस विषय में लोग कैसे भी हों वह नहीं देखना है हमें तो सर्व प्रयत्नों से जीवों का रक्षण करना ही चाहिए। केंचुएँ, चींटी के समूह से व्याप्त और नयी वनस्पति तथा जल से भरी हुई भूमि पर चलने से साधु धर्म से भ्रष्ट होते हैं। इसलिए निवास स्थान दो और हमारे धर्म में सहायक बनों! उत्तमकुलप्पसूयाण दूसणं पत्थणाभंगो ।।९००।। उत्तम कुल में जन्मे हुए को प्रार्थना भंग करना वह दूषण यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर राजपुत्र ने कहा कि-हे भगवंत! वसति दूंगा, परंतु निश्चय रूप से यहाँ रहकर आप मेरे आदमियों को अल्प भी धर्म सम्बन्धी बात नहीं कह सकते, केवल अपने ही कार्य में प्रयत्न करना। क्योंकि तुम्हारे धर्म में सर्व जीवों की सर्व प्रकार से रक्षा करनी, असत्य वचन का त्याग, पर-धन और परस्त्री का त्याग है, मद्य, सुरा और मांस भक्षण का त्याग है तथा आप हमेशा इन्द्रियों का दमन करने को कहते हैं। इस प्रकार कहने से तो निश्चय ही हमारा परिवार भूखों मर जायगा। उसे सुनकर आह हा! आश्चर्यपूर्वक सोचा कि-यह वंकचल दुःसंगति में फंसा हआ होने पर भी अपने कल क्रम के सम्बन्धी जिन धर्म रूपी सर्वस्व को किसी तरह भूला नहीं है। ऐसा चिन्तन करते आचार्यश्री ने उसकी बात स्वीकार की, क्योंकि मनुष्य धर्म से जब अति विमुख हो तब उसकी उपेक्षा करनी ही योग्य है। उसके बाद वंकचूल ने उनको नमस्कार करके रहने के लिए स्थान दिया और स्वाध्याय, ध्यान में अतिरक्त वे साधु भगवंत वहीं रहें। सद्गुरु के पास रहकर वे महानुभाव मुनिवर विविध दुष्कर श्रेष्ठ तपस्या करते थे। नय-सप्तभंगी से गहन आगम का अभ्यास करते थे। उसके अर्थ का परावर्तन करते थे, बारह भावनाओं का चिंतन करते और व्रतों का निरतिचार पालन करते थे। - 45 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-अर्ह नामक अंतर द्वार-वंकचूल की कथा परिचय होने के कारण वंकचूल को कुछ भक्ति जागृत हुई उसने अपने मुख्य मनुष्यों को बुलाकर सम्यग् रूप में कहा कि-हे देवानुप्रियों! मुझे क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए समझकर ब्राह्मण, वणिक् आदि अच्छे लोग भी यहाँ पर आयेंगे, इसलिए अब से जीव हिंसा, मांसाहार और सुरापान की क्रीड़ा घर में नहीं करना, परंतु पल्ली के बाहर करना। ऐसा करने से ये साधु भी सर्वथा दुगच्छा को छोड़कर तुम्हारे घरों में यथा समय आहार पानी लेंगे। 'जैसी स्वामी की आज्ञा है वैसा ही करेंगे।' ऐसा कहकर उन्होंने स्वीकार किया और अपनी आराधना में उद्यमशील मुनि भी दिन व्यतीत करने लगें। उसके पश्चात् ममत्व रहित सूरिजी महाराज ने विहार का समय जानकर वंकचूल शय्यातर होने से विधिपूर्वक उसे इस तरह कहा-हे राजपुत्र! तुम्हारे वसति दान की एक सहायता से हम इतने दिन यहाँ समाधिपूर्वक रहें, और अब चौमासे की अवधि पूर्ण हो गयी है और यह प्रत्यक्ष चिह्नों से विहार का समय सम्यग् रूप से दिखता है। देखो! बाड़ें ऊँची हो गयी हैं, जाते-आते गन्ने की गाड़ियों से जंगल के सभी मार्ग भी चालू हैं। पर्वत की नदियों में पानी कम हो गया है, बैल भी दृढ़ बल वाले हो गये हैं, मार्गों में पानी सूख गया है और गाँव में कीचड़ भी सूख गया है। इसलिए हे महायश! तूं परम उपकारी होने से मैं ऐसा कहता हूँ कि अब हमें दूसरे गाँव में जाने की अनुमति दो, गोकुल, शरदऋतु के बादल, भ्रमर का समूह, पक्षी और उत्तम मुनि आदि का निवास स्थान स्वाभाविक ही अनियत होता है। ऐसा कहकर आचार्यश्रीजी मुनियों के साथ चलने लगे तब पल्लीपति उनको विदा करने के लिए साथ चला। आचार्य श्री के साथ वह वहाँ तक गया जहाँ तक अपनी पल्ली की हद थी, फिर आचार्यजी को नमस्कार करके कहने लगा कि-हे भगवंत! यहाँ से आगे यह सीमा परदेश की है. इसलिए मैं आगे नहीं आता हैं आप निर्भय होकर पधारें. मैं भी अपने घर जाता हूँ। आचार्यश्री ने कहा-हे राजपुत्र! धर्म कथा नहीं करने का तेरे साथ हमने जो स्वीकार किया था वह अब पूर्ण हुआ है, इसलिए यदि तेरी अनुमति हो तो कुछ अल्प धर्मोपदेश देने की इच्छा है, तो हे वत्स! हम धर्म कहेंगे अथवा पूर्व के समान यहाँ भी तेरा निषेध है। 'चलते हुए आचार्य कितना कहने वाले हैं? भले दो शब्द कहते हैं तो कहने दो' ऐसा विचार कर उसने कहा कि 'जो कष्ट बिना हो वैसा कहो।' इस समय आचार्यश्री जिस नियमों से बुद्धि धर्माभिमुख हो, जिस नियमों से प्रत्यक्षमेव आपत्तियों का नाश हो और निश्चय से यह जाने कि 'नियमों का यह फल है' ऐसा नियमों का श्रुतज्ञान के उपयोग से सविशेषपूर्वक जानकर बोले कि-हे भद्रक! (१) किसी पर आक्रमण करने से पहले सात-आठ कदम पीछे हटना, (२) तुम भूख से यदि अत्यन्त पीड़ित हो फिर भी जिसका नाम नहीं जानते हो ऐसे अनजाने फल नहीं खाना, (३) बड़े राजा की पट्टरानी के साथ सम्भोग नहीं करना, और (४) कौए का मांस नहीं खाना। ये चारों नियम तूं जीवन तक सर्व प्रयत्न से पालन करना। क्योंकि पुरुषों का यही पुरुषव्रत रूप पुरुषार्थ है। किंच, माणेककणमुत्ताहलाई महिलाण मंडणं एयं। पडिवन्नपालणं पुण सप्पुरिसाणं अलंकारो ।।९३४।। माणिक्य, सोना, मोती, आदि स्त्रियों के आभूषण हैं और स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा का पालन यह सत्पुरुषों का अलंकार है ।।९३४।। क्योंकि सत्पुरुषों का प्रतिज्ञा पालन में 'भले मस्तक कट जाये, संपत्तियों और स्वजन बंधु भी अलग हो जाएँ परंतु प्रतिज्ञा का पालन करना, जो होने वाला हो वह हो' ऐसा निश्चय होता है। मनुष्यों को सज्जन दुर्जन इस विशेषता से कहा जाता है, अन्यथा पंचेन्द्रियत्व से सर्व समान है उसमें भेद किस तरह से होते? आचार्यश्री के कहने पर और चारों नियम सुगम होने से वंकचूल ने स्वीकार कर लिया, और महाराज श्री को नमस्कार कर वह भिल्लपति अपने घर वापिस आया। तथा शिष्यों से युक्त आचार्यश्रीजी इर्यासमिति का पालन करते यथेच्छ देश 46 - For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा श्री संवेगरंगशाला में जाने को धीरे-धीरे चले। फिर पाप कार्यों में हमेशा चपल इन्द्रियों वाला, विविध सैंकड़ों व्यसनों से युक्त वह भिल्लपति दिन पूर्ण करने लगा ।।९३९।। अन्य किसी दिन सभा मण्डप में बैठे वंकचूल ने भिल्लों को कहा कि बहुत समय से यहाँ व्यापार बिना के मेरे दिन जा रहे हैं तो हे पुरुषों! पुर, नगर या गाँव आदि जो लूटने योग्य हों उसे सर्वत्र खोजकर आओ! जिससे सर्व कार्य छोड़कर उसे लूटने के लिए जायेंगे, उद्यम के बिना का पति विष्णु हो फिर भी लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। यह सुनकर तहत्ति' कहकर आज्ञा को स्वीकारकर यथोक्त स्थानों की गुप्त रूप में खोजकर आये और उन पुरुषों ने निवेदन किया-हे नाथ! सुनो! बहुत श्रेष्ठ वस्तुओं से परिपूर्ण बड़ा सार्थवाह दो दिन के पश्चात् अमुक मार्ग पर पहुँचेगा, इसलिए उस मार्ग को रोककर उसके आने के पहले आप वहाँ रहें तो अल्पकाल में यथेच्छ लक्ष्मी का समूह प्राप्त हो सकेगा। ऐसा सुनकर कुछ दिन का खाना लेकर अपने साथी चोरों के साथ पल्लीपति उस स्थान पर गया। परन्तु इधर वह सार्थवाह अपशुकन के दोष से मूल मार्ग छोड़कर दूसरे मार्ग से चलकर इष्ट स्थान पर पहुँच गया। भिल्लपति वंकचूल अनिमेष नेत्रों से उस मार्ग को देखता रहा, ऐसा करते लाया हुआ भोजन (पाथेय) खत्म हो गया। तब निस्तेज मुख वाला, भूख से पीड़ित, वापिस घूमकर पल्ली की ओर चला। परन्तु वहाँ से आगे बढ़ने में असमर्थ हो गया और श्रम से पीड़ित वृक्ष की शीतल छाया में नये कोमल पत्तों की शय्या में विश्राम के लिए वह सो गया। और परिवार के पुरुष चारों तरफ कंदमूल-फल लेने के लिए गये, जंगल का अवलोकन करते उन्होंने एक प्रदेश में संदर फलों के भार से नमा हआ सैंकडों डालियों से युक्त. किंपाक फल नामक एक बड़ा वृक्ष देखकर अति प्रसन्न बनें। उसके ऊपर से पके हुए पीले फलों को इच्छानुसार ग्रहण किया, और विनयपूर्वक नमकर उन्होंने वे फल श्री वंकचूल को दिये, उसने कहा-हे भाइयों! पूर्व में कभी भी यह फल नहीं देखे हैं, देखने में फल सुन्दर है परंतु इसका नाम क्या है? उन्होंने कहा-स्वामिन्! इसका नाम हम नहीं जानते हैं, केवल पके हुए होने से श्रेष्ठ रस का अनुमान कर रहे हैं। पल्लीपति ने कहा-यदि अमृत समान हो तो भी उसका नाम जाने बिना (एवं गुण-दोष जाने बिना) इन फलों को मैं नहीं खाऊँगा। उस समय अनासक्त उस एक को छोड़कर भूख से पीड़ित शेष सभी पुरुष उस फल को खाने लगे। फिर विषयों के समान प्रारम्भ में मधुर और परिणाम में विरस उन फलों को खाकर सोये हुए उनकी चेतना जहर के कारण नष्ट हो गयी, फिर दोनों आँखें बन्द हो गयी और अन्दर दम घुटने लगा और वे जैसे सुख शय्या में सोये हों इस तरह सोने लगे। उसके बाद उनका जीवन लेकर जैसे चोर भागता है वैसे सूर्य अस्त हो गया, और पक्षियों ने भी व्याकुल शब्द उन जीवों के मरण का जाहिर किया। उस समय सर्वत्र पृथ्वी मण्डल को मानों कुंकुम के रस से रंग करते और चक्रवाकों को विरह से व्याकुल करते संध्या का रंग सर्वत्र फैल गया। कुलटा स्त्री के समान काली श्याम कान्तिवाले वस्त्र से शरीर ढका हो, वैसे तमाल वृक्ष के गुच्छे समान काली अंधकार की श्रेणी फैल गयी। नित्य राहु के निकलते चन्द्र में से मानो चन्द्र के टुकड़े का समूह अलग होता हैं वैसे ताराओं का समूह शीघ्र ही सर्वत्र फैल गया। उसके पश्चात् तीनों जगत को जीतने के लिए कामरूपी मुनि के शयन के लिए स्फटिक की (पटड़ा) चौकी समान निर्मल देवों के भवन प्रांगण के बीच स्थापन किये हुए सफेद सोने के पूर्ण कलश जैसा गोलाकार आकाश रूपी सरोवर में खिला हुआ सहस्र पत्र कमल जैसा लाल चंद्र मानो रात्री रूपी स्त्री का गोरोचन का बड़ा जत्था न हो ऐसे चन्द्र का भी उदय हुआ। तब जाने का समय अनुकूल जानकर पल्लीपति ने ये पुरुष सोये हुए हैं ऐसा मानकर बड़ी आवाज से बुलाया, बार-बार आवाज देने पर भी उन्होंने जब कुछ भी जवाब नहीं दिया, तब पास में आकर सबको अच्छी तरह 47 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्मद्वार - अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा देखा। सबको मरे हुए देखकर उसने विचार किया - अहो ! अनजान नाम वाले फलों को खाने का यह फल आया है। यदि निष्कारण वत्सल आचार्यश्रीजी ने मुझे नियम नहीं दिया होता तो मैं यह फल खाकर यह अवस्था प्राप्त करता, गुण निधि और अज्ञान रूपी वृक्ष को जलाने में अग्नि तुल्य ऐसे श्री गुरुदेव यावज्जीव विजयी रहें ! कि जिन्होंने नियम देने के बहाने से मुझे जीवन दान दिया है। इस तरह लम्बे समय तक गुरु की प्रशंसा करके शोक से अति व्याकुल शरीर वाला वह उनके शस्त्र आदि उपकरणों को एक स्थान पर रखकर, पूर्व में सुभटों के समूह के साथ पल्ली में घूमता फिरता था और आज तो एकाकी उसमें भी मरे हुए सर्व परिवार वाला मैं प्रकट रूप प्रवेश करते लोगों को मुख किस तरह बताऊँगा? ऐसा विचारकर मध्य रात्री होने पर चला । केवल एक तलवार की सहायता वाला शीघ्रमेव अपने घर पहुँचा और कोई नहीं देखे इस तरह शयन घर में प्रवेश किया, वहाँ उसने जलते दीपक की फैलती प्रभा समूह में अपनी पत्नी को एक पुरुष के साथ सुखपूर्वक शय्या में सोयी हुई देखी।। ९७५ ।। उस समय ललाट में उछलती और इधर-उधर नाचती फिरती त्रिवली से विकराल, दाँत के अग्र भाग से निष्ठुरता से होंठ को कुचलते वह अत्यन्त क्रोध से फटे अति लाल आँखों के प्रचंड तेज समूह से लाख के रंग से रंगी लाल तलवार को खींचकर विचार करने लगा कि - यम के मुख में प्रवेश करने की इच्छा वाला यह बेचारा कौन है? कि मेरे जीते हुए भी यह पापी मेरी पत्नी का सेवन करता है। अथवा लज्जा मर्यादा से रहित यह पापिनी मेरी पत्नी भी क्यों किसी अधम पुरुष के साथ ऐसे सो रही है। यहाँ पर ही इन दोनों का तलवार से टुकड़े करूँ! अथवा इस तलवार ने जो कि पराक्रमी उग्र शत्रु सेना को और हाथियों के समूह को नाश करने में प्रचण्ड और अनेक युद्धों में यश प्राप्त किया है, उसे लोक विरुद्ध स्त्रीवध में क्यों उपयोग करूँ ? इसलिए इसमें एक को ही मार दूं । प्रहार करते समय गुरुदेव के द्वारा पूर्व में ली हुई प्रतिज्ञा का अचानक स्मरण हुआ इससे सात-आठ कदम पीछे हटकर जैसे ही प्रहार करता है, इतने में तो ऊपर की छत के साथ तलवार टकराने से आवाज हुई और भाभी के शरीर के भार से और आवाज सुनकर सहसा भययुक्त बहन बोली कि वह मेरा भाई वंकचूल चिरंजीवो! वंकचूल ने यह सुनकर विचार किया - अरे रे ! अत्यन्त गाढ स्नेह वश मेरा अनुकरण करने वाली, जिसने पूर्व में मेरे स्नेह से सहेलियों को, स्वजन, माता-पिता का भी त्याग किया है वह यह मेरी बहन पुष्पचूला यहाँ कैसे? अभी मेरे प्राण से भी अत्यधिक प्रिय ऐसी मेरी बहन को मारकर अति महान पाप को करने वाला, स्वयं निर्लज्ज मैं किस तरह जी सकता था? अथवा बहन को खत्म करने के पाप की शुद्धि कौन-से प्रशस्त तीर्थ अथवा विशिष्ट तप से हो सकती? ऐसा चिंतन करते शोक के भार से व्याकुल हुए, अपने पाप कर्म से संतप्त वह बहन के गले लगकर रोने लगा। आश्चर्य से व्याप्त चित्त विचार वेग वाली पुष्पचूला ने कल को मुश्किल से शय्या में बैठाकर इस प्रकार कहा - हे भाई! तूं मेरुपर्वत के समान दृढ़ सत्त्व वाला, उदार प्रकृति वाला है फिर भी अचानक ही मेरे गले लगकर क्यों रोता है? और तेरे आगमन के समय तो इस पल्ली में प्रत्येक घर के दरवाजे उज्ज्वल ध्वजाओं से सजाये जाते थें, मनुष्यों के हर्ष आवेश में मार्ग भी छोटा पड़ता था, और अत्यन्त अनिष्ट उत्पन्न होते अथवा गाढ़ आपत्ति आने पर भी रोने की बात तो दूर रही तेरा मुख कमल भी नहीं बदलता था, उसके बदले तूं निस्तेज, दीन मुख वाला, उसमें भी परिवार बिना एकाकी, वह भी गुप्त, इस तरह घर में प्रवेश क्यों किया? तब उसने परिवार के विनाश की सारी घटना कही और परपुरुष समझकर उठाई हुई तलवार को टकराने की बात भी बहन को कही, और कहा कि - हे बहन ! मैं परिवार के विनाश का शोक नहीं करता, परन्तु शोक यह करता हूँ कि अभी सहसा तुझे मैंने इस तरह मार दिया होता, इससे में जाकर, 48 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्मद्वार - अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा श्री संवेगरंगशाला ही अभी भी इस प्रसंग का स्मरण करते मेरे नेत्रों में आँसू के एकमात्र प्रवाह को भी मैं रोक नहीं सकता हूँ। हे बहन! तूं किस कारण से इस तरह पुरुष का वेश धारण करके भाभी के साथ सोई थी ? वह मुझे कह। उसने कहा- भाई! आप विजय यात्रा के लिए गये थे उस समय यहाँ नट आये, उन्होंने मुझसे पूछा ।। १०००।। यहाँ पल्लीपति है या नहीं? तब मैंने सोचा कि यदि ना कह दूंगी तो वह सुनकर किसी शत्रु का आदमी आपके साथ गाढ़ वैर रखने वाले सीमा के राजाओं को कह दे तो और वे अवसर पाकर पल्ली में उपद्रव करें, ऐसा नहीं बनें इस कारण से मैंने कहा, पल्ली के मुकुट की मणि वह स्वयं वंकचूल यहाँ है, केवल वे अन्य कार्य में रुके हुए हैं। फिर उन्होंने मुझसे पूछा नाटक कब दिखायें? मैंने कहा - रात्रि को, कि जिससे वे शान्तिपूर्वक देख सकें। उन्होंने उसी तरह ही रात्रि को नाटक प्रारम्भ किया, इससे मैं पुरुष का सुन्दर वेश धारण करके तुम्हारे समान बनकर भाभी के साथ वहाँ बैठी। फिर मध्य रात्री के समय नटों को देने योग्य दान देकर निद्रा से घिरी हुई आँखों वाली मैं भाभी के साथ सो गयी, इससे अधिक में कुछ भी नहीं जानती, केवल आवाज सुनकर 'भाई चिरकाल जीओ' ऐसा बोलती मैं जागृत हुई। ऐसा सुनकर कुछ प्रशान्त शोक वाला बार-बार 'इन नियमों का यह फल है' ऐसा चिन्तन करते गुरुदेव का उपकार मानते हुए । समय व्यतीत करने लगा। परिवार बिना का वह गांव, नगर आदि लूटने में असमर्थ हो जाने से, तथा धन बिना परिजन को भूख से पीड़ित देखकर संताप वाला बना अब 'सेंध खोदे बिना मुझे दूसरा जीने का कोई उपाय नहीं है' ऐसा निश्चय करके वह अकेला ही उज्जैन नगर में गया, वहाँ धनिक लोगों के मकान में आने-जाने की खिड़की के दरवाजे को देखकर उसने चोरी करने के लिए एक बड़े घर में प्रवेश किया, वह मकान केवल बाहर की आकृति से सुन्दर दिखता था परन्तु उस घर में केवल स्त्रियों को परस्पर झगड़ते देखा। इससे उसने विचार किया कि ये झगड़ रही हैं, अतः निश्चय ही इस घर में बहुत धन नहीं है क्योंकि लोक में भी यह प्रसिद्ध है कि 'अधजल गगरी छलकत जाये'। धन अल्प होने पर चोरी करने से मुझे क्या सम्पत्ति मिलेगी ? बहुत बड़े बिन्दु से कोई समुद्र भर जाता है ? ऐसा विचारकर उसी समय उस घर को छोड़कर, महान आशय वाला वह सारे नगर में प्रसिद्ध देवदत्ता वेश्या के घर पहुँचा और सेंध गिराने में श्रेष्ठ अभ्यासी वह सेंध खोदकर वहाँ रत्नों से रमणीय दिवारवाला और हमेशा जगमगाहट दीपक वाले वासगृह में प्रवेश किया, वहाँ उसने उस गणिका को अत्यंत कोढ़ रोग से निर्बल और भयंकर शरीर वाले एक पुरुष के साथ में शय्या के अन्दर सुखपूर्वक सोई हुई देखा । अरे रे ! देखो ऐसी महान धन वाली भी यह अनार्य वेश्या धन के लिए इस तरह कोढ़ी का भी आदर कर रही है। अथवा तो मैं अनार्य हूँ जो कि इसके पास से भी धन लेने की इच्छा रखता हूँ । अतः यह धन योग्य नहीं है, बड़े धनाढ्य के घर जाऊँ! ऐसा विचार कर समग्र व्यापारियों में मुख्य सेठ के घर सेंध खोदकर धीरे से मकान में गया, वहाँ दो हाथ से कलम और बही पकड़ कर पुत्र के साथ क्षण-क्षण का भी हिसाब को पूछते सेठ को देखा। और वहाँ हिसाब में एक पैसा कम था वह किसी तरह नहीं मिलने से रोष से भरे हुए सेठ ने पुत्र से कहा- अरे कुल का क्षय करने वाले काल! मेरी दृष्टि से दूर हट जा, एक क्षण भी घर में नहीं रहना । इतना बड़ा धन का नाश मैं अपने बाप का भी सहन नहीं करूँगा । ऐसा बोलते और प्रचण्ड क्रोध से लाल आँखों के क्षोभवाले उसे देखकर आश्चर्यपूर्वक पल्लीपति ने विचार किया कि - यदि एक पैसे का नाश देखकर पुत्र को भी निकाल देना चाहता है अब यदि घर में चोरी हुई जानेगा तो निश्चय धन का नाश होने से हृदय आघात द्वारा मर जायगा, इसलिए इस तरह कृपण के बाप को मारना योग्य नहीं है। अतः राजमहल में जाकर वहाँ से इच्छानुसार ग्रहण करूँ, हाथी की प्यास अति अल्प झरने के पानी से शान्त नहीं होती है। उसे ऐसा सोचते हुए रात्री पूर्ण हो गयी और पूर्व दिशा For Personal & Private Use Only 49 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा सन्मुख केसर के तिलक समान अरुणोदय हुआ। उसके बाद धीरे-धीरे वहाँ से निकलकर वापिस वह अरण्य में गया और पुष्ट शरीर वाली गोह को लेकर पुनः दूसरे दिन रात को वह नगर में आया, राजभवन में चढ़ने के लिए गोह के पूछड़े को रस्सी से मजबूत बाँधकर और साथ में अपने को बाँधकर उसने गोह को जोर से ऊँचे फेंका और मजबूत पैर टेककर महल की दिवाल को लांघकर महल पर चढ़ा, फिर प्रसन्न मन वाला वह पल्लीपति गोह को छोड़कर धीरे से महल में जाने लगा, वहाँ उसी समय राजा के प्रति क्रोधित हुई, अपने मणिमय अलंकारों की कान्ति के समूह से अन्धकार को दूर करती शय्या में सोई हुई राजा की पट्टरानी वंकचूल को देखकर इस प्रकार से बोलने लगी-हे भद्र! तूं कौन है? उसने कहा-जगत में प्रसिद्ध मैं वंकचूल नामक चोर हूँ और मणि-सुवर्ण आदि चोरी करने के लिए मैं आया हूँ। ऐसा कहने से रानी बोली-तूं सुवर्ण आदि का चोर नहीं है, क्योंकि-हे निर्दय! तूं वर्तमान में मेरे हृदय की चोरी करना चाहता है ।।१०३५।। उसने कहा-हे सुतनु! आप ऐसा नहीं बोलो, क्योंकि चिरजीवन की इच्छा वाले कौन शेषनाग की मणि को लेने की अभिलाषा करें? उसके बाद उसकी कामदेव समान शरीर की सुन्दरता से मोहित चित्त वाली स्त्री स्वभाव में ही अत्यन्त तुच्छ बुद्धि वाली कुल के कलंक को देखने में परांगमुख और काम से पीड़ित रानी ने कहा-हे भद्रक! 'यह राजमहल है' ऐसे स्थान के भय को दूर फेंककर अभी ही मेरा स्वीकार कर। ऐसा करने से ही शेष सभी तुम्हें इच्छित धन की प्राप्ति जल्दी हो जायगी। अत्यन्त निर्मल उछलती रत्न की कान्तिवाले अलंकारों की श्रेणी को तं क्या नहीं देखता है? हे सभग! इसका तं स्वामी होगा। ऐसा उसका वचन सुनकर वंकचूल ने पूछा-हे सुतनु! तूं कौन है? क्यों यहाँ रहती है? अथवा तेरा प्राणनाथ कौन है? उसने कहा-हे भद्रक! महाराजा की में पट्टरानी हूँ, राजा के प्रति क्रोध करके यहाँ पर इस तरह रहती हूँ। पूर्व के अभिग्रह को स्मरण करके उसने कहा-यदि आप राजा की रानी हो, तो मेरी माता के तुल्य हो, इसलिए हे महानुभाव! पुनः ऐसा नहीं बोलना, 'जिससे कुल मलिन हो, ऐसा कार्य ऊँच कुल वाले को नहीं करना चाहिए।' क्रोध वाली उसने तिरस्कारपूर्वक वंकचल से कहा-अरे! महामढ! कायर के समान तं ऐसा अनुचित क्यों बोल रहा है? जिसको तूंने स्वप्न में भी नहीं देखी वह अभी राजपत्नी मिली है। हे मूढ़! उसका भोग तूं क्यों नहीं करता? उसने उत्तर दिया-हे माता! अब आग्रह को छोड दो. मन से यह चिन्तन करना भी योग्य नहीं है. उग्र जहर खाना अच्छा है परन्तु ऐसा अकार्य करना अच्छा नहीं है। प्रतिकूल जवाब के कारण रानी का क्रोध विशेष बढ़ गया, उसने प्रकट रूप में उससे कह दिया कि-हे हताश! मेरे वश में हो जा, तो स्वर्ग के सुख भोगेगा नहीं तो नग्न साधु के समान (इज्जत रुपी वस्त्र से रहित) बेआबरु होकर समग्र नगर में विडम्बना प्राप्तकर मरण-शरण होगा। तब उसने रानी से कहा-पूर्व में 'मातामाता' कहकर अब तुझे ही पत्नी कहकर किस तरह सेवन करूँ? ।।१०५०।। उस समय चिर समय से रानी को समझाने को आया हुआ राजा दिवार के पीछे रहकर उन दोनों के सारे शब्द सुनकर विचार करने लगा कि-अहो! आश्चर्य की बात है कि सन्मान और दान देकर प्रसन्न करने पर भी स्त्री एक पुरुष में स्थिरता नहीं रखती है कि जिससे अच्छे कुल में जन्म होने पर अनुरागी मन वाले मुझे छोड़कर इस तरह इस अनजान मनुष्य को भोगने की इच्छा करती है। सुख का नाश करने वाली ऐसी स्त्रियों पर राग करना ही सर्वथा धिक्कार रूप है। अरे रे! ऐसी स्त्रियाँ अच्छे कुलीन पुरुषों को भी किस तरह संकट में डालती हैं? यद्यपि पाप करने पर भी यह चोर कोई सत्पुरुष है, कि जो सामभेद आदि युक्तियों द्वारा यह स्त्री प्रार्थना करती है, तो भी इस चोर ने मर्यादा नहीं छोड़ी। पृथ्वी आज भी रत्नों का आधार है, अभी भी कलिकाल नहीं आया, जिससे ऐसे श्रेष्ठ पुरुष रत्न दिखते हैं। जो 50 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा श्री संवेगरंगशाला निश्चय ही एक प्रहार से हाथी के कुंभस्थल के टुकड़े करते, वे भी स्त्री के नेत्र रूपी बाल के प्रहार से (कटाक्ष से) घायल होकर दुःखी होते है ।।१०५७।। परन्तु यह सत्त्ववान् पुरुष है, इस रानी के प्रार्थना करने पर भी अपनी मर्यादा को लेशमात्र भी नहीं छोड़ता है, इस कारण से यह पुरुष दर्शन करने योग्य है। इस प्रकार राजा जब विचार करता है तब अन्तिम निर्णय के लिए रानी पुनः बोली-अरे तूंने क्या निश्चय किया? क्या तूं मेरा वचन नहीं मानेगा? उसने भी हर्षपूर्वक कहा-मैं आपकी बात स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। फिर अत्यन्त क्रोधित बनी रानी जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि-अरे पुरुषों! राजा का सारा धन लूटा जा रहा है, आप उसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो? दौड़ो! दौड़ो! चोर यहीं पर है। शोर सुनकर चारों तरफ से रक्षक पुरुष आ गये, हाथ में तलवार, चक्र और बाण वाले सैनिक जितने में जैसे उसके ऊपर प्रहार करते हैं इतने में राजा ने कहा-अरे! इस चोर का मेरे समान रक्षण करना। उन सैनिकों से घिरा हुआ भी महान गजेन्द्र के समान अक्षुभित चित्तवाले और हाथ में शोभित तलवार वाले उस वंकचूल ने रात्री पूर्ण की। इधर रानी के प्रति क्रोधित वह राजा शयन घर में गया और सोये हुए भी वह पिछली रात में मुसीबत से उठा, उसके बाद प्रभात हुआ, प्राभातिक बाजे बजे, तब काल निवेदक चारणपुत्र ने इस प्रकार कहा-हे देव! अखण्ड प्रताप वाले, सभी तेजस्वियों के तेज को नाश करने वाले, अखण्ड पृथ्वी मण्डल को धारण करने वाले, दुष्टों के प्रयास का प्रतिघात करने वाले, विकसित लक्ष्मी के खान समान, स्थिर पुण्योदय वाले, और सन्मार्ग को प्रकाश करने में तत्पर, सूर्य समान विजयी बनों। राजा ने सुनकर प्रभात के समग्र कार्य करके रात्री के वृत्तान्त को स्मरण करते हुए राज्यसभा में बैठा। उस समय प्रणाम करते पहरेदार पुरुषों ने कहा-हे देव! 'यह वह चोर है' ऐसा बोलकर वंकचूल को वहाँ उपस्थित किया, और उसका रूप देखकर मन में आश्चर्यपूर्वक राजा ने विचार किया-ऐसी आकृति वाला यह चोर कैसे हो सकता है? यह वास्तविक में चोर ही होता तो रानी के वचन स्वीकार क्यों नहीं करता? क्योंकि भिन्न चित्तवाला वह सावध होने से प्रायःकर कहीं पर स्खलना प्राप्त नहीं करता है? अथवा यह विकल्प करने से क्या लाभ? इसी को ही पूछ लूँ, ऐसा सोचकर स्नेहयुक्त नेत्रों से राजा ने उसको देखा, और उसने राजा को नमस्कार किया, फिर उसे उचित आसन दिया। उसके ऊपर वंकचूल बैठा तब राजा ने स्वयं पूछा-अरे देवानुप्रिय! तुम कौन हो? और अत्यन्त निन्दनीय कुलीन के अयोग्य नीच चोरी का कार्य तुमने क्यों किया है? वंकचूल ने कहा-केवल कायरता से यह कार्य नहीं किया, परन्तु जैसे भूखे परिवार द्वारा प्रार्थना करने से और क्षीण वैभव वाले महापुरुषों की भी बुद्धि वैभव चलित हो जाता है वैसे दरिद्रता के कारण मेरी बुद्धि मलिन हो गयी है, और जो आप पूछते हैं कि-तूं कौन है? वह भी मेरी ऐसी प्रवृत्ति से मेरा स्वरूप प्रकट होता है। इससे कुछ भी कहने योग्य नहीं है। राजा ने कहा-ऐसा मत बोल, तूं सामान्य नहीं है, अब यह बात रहने दे, रात्री का वृत्तान्त कहो। इससे 'रानी की सर्व बातें राजा ने जानी हैं', ऐसा निश्चय करके उसने कहा-हे देव! सुनिए, आपके घर की चोरी की इच्छा वाला मैं यहाँ आया था और रानी ने भी किसी तरह मुझे आते देख लिया, हे राजन्! इसके बिना अन्य वृत्तान्त नहीं है। बार-बार पूछने पर भी महात्मा के समान रानी की बात न कहकर केवल अपनी ही भूल कही, तब उसकी सज्जनता से प्रसन्न हुए राजा ने कहा-हे भद्र! वरदान माँगो! मैं तेरी शुद्ध प्रवृत्ति से प्रसन्न हुआ हूँ। इससे दो हाथ जोड़कर वंकचूल ने विनती की कि-हे देव! मुझे यही वरदान दो कि 'देवी के प्रति कुछ भी क्रोध नहीं करना' क्योंकि मैंने उसे माता कहा है। राजा ने उसे स्वीकार किया और अति गाढ़ स्नेह से उसके प्रति पुत्र समान अत्यन्त पक्षपाती बनकर राजा ने उस वंकचूल को महान सामन्त पद पर स्थापन 1. अन्य कथाओं में यह मेरे पर बलात्कार कर रहा है ऐसा रानी द्वारा कहा गया ऐसा वर्णन आता है। - 51 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकमद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा किया तथा हाथी, घोड़े, रत्न आदि वैभव और सेवक वर्ग उसे सौंप दिया। वैभवशाली वंकचूल विचार करने लगा कि-समग्र गुणों के भण्डार वे आचार्यश्रीजी कैसे कल्याणकारी बने हैं अन्यथा मैं इस तरह कैसे जीता रहता? अथवा मेरी बहन कैसे जीती रहती? अथवा अभी ऐसी लक्ष्मी का भोक्ता मैं कैसे बनता? हा! मंद बुद्धि वाले और परांगमुख मुझ पर उपकार करने में एक रक्त वे महानुभाव गुरुदेव ने कैसा उपकार किया है? वे ही निश्चय से चिन्तामणि हैं, कल्पवृक्ष और कामधेनु भी वही हैं, मात्र निष्पुण्यक मैं लेशमात्र भी उन्हें नहीं जान सका। इस तरह उन आचार्यजी को कृतज्ञता से मित्र के समान, स्वजन के समान, माता-पिता के समान और देव के समान हमेशा स्मरण करते वह दिन पूर्ण करने लगा। किसी दिन उसने दमघोष नामक आचार्य को देखा, और अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भक्तिपूर्वक हृदय से उनको वंदन किया। आचार्यश्री ने उसे योग्य जानकर श्री अरिहंत धर्म के परमार्थ को समझाया और अनुभव सिद्ध होने से अति हर्ष से उसने उस धर्म को स्वीकार किया। और समीप के गाँव में रहने वाला धर्म में परम कुशल जिनदास श्रावक के साथ उसकी मित्रता हो गयी, इससे उसके साथ हमेशा विविध नयों से और अनेक विभागों से गम्भीर आगम को सुनता था, स्वजन के सदृश धर्मियों का वात्सल्य करता था, श्री जिन मंदिर में सर्व क्रिया, पूजा, प्रक्षाल, अंग रचना आदि आदरपूर्वक करता था। पूर्व में ग्रहण किये अभिग्रह रूपी वैभव को सदैव चिंतन करते और प्रमाद रहित आगमानुसार जैन धर्म का परिपालन करते वह सज्जनों के प्रशंसा पात्र बना हुआ नीति से सामन्तपने की लक्ष्मी को भोगने वाला बना। किसी दिन राजा की आज्ञा से वह बहुत सेना के साथ 'कामरूप' राजा की सेना के साथ युद्ध करने चला। काल क्रम से शत्रु के देश की सीमा में पहुँचा, उसी समय शत्रु भी वहाँ आ पहुँचा ।।१०९७ ।। वहाँ सुंदर चामर ढुल रहे थे। छत्रों का आडम्बर चमक रहा था। रथों का समूह चलने से उसकी आवाज गूंज रही थीं। योद्धाएँ उल्लासपूर्वक उछल रहे थे। मदोन्मत्त हाथी परस्पर सामने नजदीक में आ रहे थे। जो युद्ध प्रेमी सुभटों की प्रसन्नता का कारण था। घोड़ों का समूह हर्षारव कर रहा था। कई भाट बिरूदावली बोल रहे थे। युद्ध के सुन्दर बाजे बज रहे थे। शूरवीरों की प्रेरणा से युद्ध में उत्तेजन किया जाता था, युद्ध की नोबत बज रही थी। परस्पर जोर से चिल्ला रहे थे ।।११०० ।। विचित्र ध्वजा आदि में चिह्नों की मोहर लग रही थी। परस्पर प्रहार करने की शर्ते लग रही थीं। सुभट बख्तर से बगल बाँध रहे थे। जोर-जोर से बड़े शंख बज रहे थे। तीक्ष्ण तलवार का प्रकाश उछल रहा था जो प्रचंड कोप का कारण था। इस तरह परस्पर दोनों सेना का वह महायुद्ध प्रारम्भ हुआ। इसमें कायर आदमी भागने लगे। घोड़े, हाथी, योद्धा आदि मारे गये, और प्रहार के समूह से जर्जरित बने देह रूप पिंजर धरती ऊपर गिरने लगे, इस प्रकार निश्चय जो महायुद्ध हुआ उसमें शत्रु की जो सेना यद्ध में आयी थी वह सारी एक क्षण में ही भाग गयी। यद्ध करने में प्रबल महाभट जो कामरूप नामक राजा था उसे भी क्षण भर में जीतकर तुरन्त प्राणमुक्त कर दिया। शत्रुओं के कठोर प्रहार से घायल हुए शरीर वाला वंकचूल भी शत्रु को जीतकर युद्ध भूमि में से जल्दी निकला और प्रहारों से पीड़ित उज्जैन नगर में पहुँचा। उसके आगमन से राजा भी बहुत प्रसन्न हुआ। वैद्य का समूह एकत्रित होकर उसके प्रहारों का उपचार किया परन्तु लेशमात्र भी आरोग्यता प्राप्त न हुई, जख्म पुनः खुले होने लगे, उस कारण से वंकचूल ने अपने जीने की आशा छोड़ दी, इससे पुनः शोक से गद्-गद् स्वर से राजा ने वैद्यों से कहा-अहो! मेरा सेनापति यदि किसी भी दिव्य औषध से जल्दी निरोगी हो उस औषध को तुम बार-बार दो, उसके बाद वैद्यों में निपुण बुद्धि से शास्त्रों का विचार कर परस्पर निर्णय करके कौए के मांस की औषधी उसके घाव के लिए लाभदायक बतलायी, फिर भी जिन धर्म के प्रति निरूपम अनुराग से 'भले प्राण जाये परन्तु नियम नहीं जाये' इस निश्चय को याद करते उसने कौए के मांस का 52 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला निषेध किया। 'उसका अत्यन्त स्नेही जिनदास के कहने से इस औषध को करेगा' ऐसा मानकर राजा ने अपने पुरुष को भेजकर अन्य गाँव से जिनदास को बुलाने भेजा। जिनदास ने आते हुए रास्ते में दो देवियों को रोते हुए देखकर पूछा-तुम क्यों रो रही हो? उन्होंने कहा कि-मांस नहीं खाने से मरकर वंकचूल हमारे सौधर्मकल्प की देवियों का नाथ होगा, परन्तु यदि तुम्हारे वचन से किसी तरह भी मांस को खायेगा तो निश्चय नियम भंग से वह अन्यत्र दुर्गति में पड़ेगा। इस कारण से हम रो रही हैं, अतः हे महाभाग! यह सुनकर अब आपको जैसा योग्य लगे वैसा करना। यह सुनकर विस्मित मन वाला वह जिनदास उज्जैनी में गया, और वंकचूल को देखा, राजा के अति आग्रह से कहा-हे सुभग! तूं कौए के मांस का भक्षण क्यों नहीं करता? निरोगी शरीर होने के बाद तूं प्रायश्चित्त कर लेना। वंकचूल ने कहा-हे धर्ममित्र! तूं भी ऐसा उपदेश क्यों दे रहा है? जानबूझकर नियम का खण्डन कर फिर क्या प्रायश्चित्त हितकर है? यदि नियम का भंगकर फिर उसका प्रायश्चित्त करना तो उससे प्रथम ही नियम भंग नहीं करना वही योग्य है। इससे जिनदास ने राजा से कहा-हे देव! यह प्राण का त्याग करेगा परन्तु चिरकाल से ग्रहण किये नियम को नहीं छोड़ेगा। इसलिए हे देव! अब वंकचूल का परलोक हित करो। निश्चित मृत्यु होने वाली है तो यह अकार्य करने से क्या लाभ? ऐसा कहने से राजा ने श्रुतनिधि गीतार्थ साधुओं को बुलाकर अन्तिम काल की विधि सहित धर्म का तत्त्व समझाया। उसके बाद वंकचूल ने साधु के पास में पूर्व के सारे दुराचारों की आलोचना कर समग्र जीवों से क्षमा याचना कर, पुनः अनेक व्रतों को सविशेषतया स्वीकारकर, आहार का त्यागकर, पंच परमेष्ठी मंत्र का जाप करते आयुष्य पूर्णकर बारहवें अच्युत देवलोक में महर्द्धिक देव हुआ। जिनदास भी अपने गाँव की ओर पुनः वापिस चला, रास्ते में उन दो देवियों को उसी तरह रोते देखकर बोला-वंकचूल ने मांस नहीं खाया है फिर तुम क्यों रो रही हो? तब देवियों ने कहा-विशेष धर्म की आराधना करने से वह हमारा पति नहीं बना, परन्तु वह बारहवें कल्प में उत्पन्न हुआ है। इस कारण से पुण्य रहित हम तो आज भी पति बिना इसी प्रकार रहीं, इसलिए शोक कर रही हैं। उसके बाद जिनदास 'वंकचूल ने जिन धर्म के प्रभाव से सुंदर देव ऋद्धि प्राप्त की' ऐसा जानकर इस तरह चिंतन करने लगा-परम प्रीति से व्याकुल, नमे हुए इन्द्रों के समूह के सोने के मुकुट से घिसते चरण कमल वाले सब श्रीजिनेश्वर भगवंत विजयी हैं कि जिन्होंने मोक्ष अथवा देवलोक की लक्ष्मी का कर मिलाप करवाने में एक दक्ष रूप धर्म का उपदेश दिया है. उस धर्म के प्रभाव से अन्तिम समय में एक क्षण (अन्तर्मुहूर्त) भी अतिशुद्धता पूर्वक धर्म का पालनकर सभी गहरे पाप मैल को धोकर वंकचूल के समान जीव श्रेष्ठगति को प्राप्त करते हैं। उस श्री वीतराग परमात्मा का जगत्पूज्य धर्म विजयी रहे। इस तरह वंकचूल का चरित्र कहा। अब पूर्व के कथनानुसार चिलाती पुत्र का वृत्तान्त कहते हैं ।।११३१।। चिलाती पूत्र की कथा पृथ्वी प्रतिष्ठित नगर में श्री जिन शासन की निन्दा करने में आसक्त, अभिमानी पण्डित यज्ञदेव नाम का ब्राह्मण रहता था। वाद में जो जिससे हारे वह उसका शिष्य हो जाय ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक वह वाद करता था। एक दिन प्रवर बुद्धिमान साधु ने उसे वाद में जीत लिया और उसे दीक्षा दी। परन्तु बाद में उसने दीक्षा छोड़ने की इच्छा की तो देवी ने निषेध किया, इससे वह साधु धर्म मे निश्चल बना। तो भी जाति मद के कारण शरीर, वस्त्र पर मैल जम जाने से मन में उस पर घृणा करता था। उसके बाद अपने समग्र स्वजन वर्ग को प्रतिबोध दिया मगर जिसके साथ उसका विवाह हुआ था। उसका उस पर गाढ़ प्रेम होने से वह दीक्षा त्याग करवाना चाहती थी, फिर भी देवी के कहने से निश्चल चित्तवाला सद्धर्म में तत्पर वह दिन व्यतीत करता था। अतः किसी दिन उसकी स्त्री ने - 53 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा अपने वश करने के विचार से उस साधु के आहार में वशीकरण चूर्ण डालकर वहोराया, उसके दोष से वह मुनि आयुष्यपूर्णकर देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ, और पति की मृत्यु से विरक्त होकर उसने भी दीक्षा ली, वह भी आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण कर देवलोक में उत्पन्न हुई। इधर यज्ञदेव का जीव देवलोक से आयुष्य पूर्ण कर राजगृह नगर में धन सार्थवाह के घर में साधुत्व पर घृणा करने के दोष से चिलाती नाम की दासी के पुत्र रूप में जन्मा। चिलाती दासी का पुत्र होने से लोगों में वह चिलातीपुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यज्ञदेव की स्त्री स्वर्ग से च्यवकर उसी धन सार्थवाह की पत्नी भद्रा की कुक्षि से पाँच पुत्रों के बाद सुषमा नाम की पुत्री रूप में पैदा हुई। उसी पुत्री की देखभाल रखने के लिए सेठ ने चिलाती पुत्र को नियुक्त कर दिया वह सयाना होते ही अत्यंत कलह करने वाला और उदण्ड हो जाने से सार्थवाह ने उसे घर से निकाल दिया। वह घूमता फिरता एक पल्ली में गया वहाँ उसने गाढ़ विनय से पल्लीपति को अति प्रसन्न किया, फिर पल्लीपति मर गया तब चोर समूह इकट्ठा होकर 'यह योग्य है' ऐसा समझकर उसे पल्लीपति पद पर स्थापन किया और महा बल वाला अत्यन्त क्रूर वह गाँव, पुर, नगर आदि को मारने लूटने लगा। एक समय उसने चोरों को कहा कि-राजगृह नगर में धन नामक सार्थवाह रहता है, उसकी सुषमा नाम की पुत्री है, वह मेरी और धन लूटो वह सब तुम्हारा। अतः चलो वहाँ जाकर उसे लूटकर आयें। चोर सहमत हुए, फिर रात को वे राजगृह में गये और अवस्वापिनी निद्रा देकर उस समय धन सार्थपति के घर में प्रवेश किया, चोरों ने घर लूटा और चिलाती पुत्र ने भी उस सुषमा को ग्रहण की, पुत्रों सहित सार्थवाह भय से जल्दी अन्य स्थान पर चला गया। और इच्छित वस्तु लेकर पल्लीपति अपने स्थान की ओर चला। उसके बाद सूर्य उदय होते ही राजा के अनेक सुभटों से घिरे हुए पाँच पुत्रों सहित सार्थवाह शरीर पर मजबूत बख्तर धारणकर पुत्री के स्नेह से जल्दी उसके पीछे-पीछे चले। धन सार्थपति ने सुभटों को कहा-मेरी पुत्री वापिस लाओ तो धन तुमको दे दूंगा, ऐसा कहने से सुभट उसके पीछे दौड़े, उनको आते देखकर चोर धन छोड़कर भागे और उस धन को लेकर सुभट जैसे आये थे वैसे वापस चले गये। पुत्र सहित सार्थवाह अकेले भी चोरों के पीछे पड़े और शीघ्रमेव चिलाती पुत्र के पास पहुँच गये। इससे चिलाती ने 'यह सुषमा किसी की भी न हो' ऐसा सोचकर उसका सिर काट डाला और उसके मस्तक को लेकर जल्दी भाग गया. तथा निराश होकर सार्थपति वहाँ से वापिस आया। चिलातीपुत्र ने जंगल में घूमते हुए काउस्सग्ग ध्यान में स्थित एक महासत्त्व वाले मुनि को देखकर कहा-'अहो! महामुनि! मुझे संक्षेप से धर्म समझाओ, अन्यथा तेरे मस्तक को तलवार से फल समान काट दूंगा।' निर्भय मुनि ने इस तरह भी उपकार होने वाला है ऐसा जानकर कहा उवसमविवेयसंवरपयतियं धम्मसव्वस्सं ।।११५८।। उपशम, विवेक और संवर इन तीन पदों में धर्म का सर्वस्व तत्त्व है। इन पदों को धारण करके वह एकान्त में सम्यग रूप में चिन्तन करने लगा, उपशम शब्द का अर्थ यह होता है कि क्रोधादिकषायों का उपशम (सर्व का त्याग) करना है, वह क्रोधादि मेरे में से कम किस प्रकार हो सकते हैं? वह क्रोधादि क्षमा नम्रता आदि गणों का सेवन करने से शान्त हो सकते हैं। विवेक भी निश्चय से धन. स्वजन आदि त्याग करने से होता है तो अब मुझे तलवार से क्या प्रयोजन है अथवा इस मस्तक से क्या लाभ? और मैं इन्द्रियों और मन के विषयों से निवृत्ति रूपी त्याग-संवर अंगीकार करता हूँ। इस प्रकार चिंतन मनन करते तलवार और मस्तक त्यागकर नासिका के अग्रभाग में दृष्टि स्थापन कर मन, वचन, काया के व्यापार को त्यागकर बार-बार उन तीन पदों के चिंतन की गहराई में डूब गया और मेरु पर्वत के समान अति निश्चल वह काउस्सग्ग 54 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला ध्यान में खड़ा रहा, इधर चिलाती पुत्र के शरीर पर लिपटे हुए खून की गंध से वहाँ आकर्षित होकर वज्र समान तीक्ष्ण चोंच युक्त मजबूत मुख वाली हजारों चींटियाँ आ गयीं और शरीर का चारों ओर से भक्षण करने लगीं, चींटियों ने पैर से मस्तक तक भक्षण करके चिलाती पुत्र के सारे शरीर को छलनी समान बना दिया फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। उस मुनि के शरीर को प्रचण्ड मुख वाली चींटियों ने भक्षण करने से शरीर में पड़े हुए छिद्र समस्त पाप को निकालने के लिए बड़े द्वार जैसे दिखने लगे। इस तरह उस बुद्धिमान ने ढ़ाई दिन तक घोर कष्ट को समभावपूर्वक सहनकर, उत्तम चारित्र धन वाले महात्मा के समान सहस्रार नामक आठवें देवलोक का सुख प्राप्त किया ।।११६७।। इस तरह अत्यन्त उग्र मन, वचन, काया द्वारा पाप करने वाला नरक अधिकारी भी स्वर्ग सुख का अधिकारी बना है। वह सर्व साधारण कहा है, अब यहाँ से प्रकृत-आराधना की योग्यता के विषय में कहते हैं वह सुनो : सम्यग् रूप से निश्चयपूर्वक परमार्थ का ज्ञाता, अनार्य लोग के कार्य को छोड़ने में उद्यमशील, और जो गुण कहेंगे ऐसे गुण वाला गृहस्थ आराधना के योग्य बनता है। सम्यग् दर्शन जिसका मूल है वे पाँच अणुव्रत से संयोग, तीन गुणव्रतों से युक्त और चार शिक्षाव्रतों से सनाथ, जो श्रमणोपासक का धर्म उसे निरतिचार पालन कर और दर्शन आदि ग्यारह पडिमाओं को पालकर अपने बल-वीर्य की हानि जानकर शुद्ध परिणाम वाला श्रावक जिनाज्ञा के अनुसार अन्तिम काल की आराधना करें। गुरुदेवों का योग प्राप्त कर संवेगी गीतार्थ साधु के समान पांच समिति से समित, तीन गुप्ति से गुप्त, सत्त्व, बल, वीर्य को नहीं रोकते। प्रतिदिन उत्तरोत्तर बढ़ते अत्यन्त श्रेष्ठ संवेग वाला, सूत्र अर्थ से मनोहर श्री जिन प्रवचन को सम्यग् रूप में जानकर उसकी आज्ञा में रहकर प्रयत्नपूर्वक अनुकूलता छोड़कर प्रतिकूलता को सहन करते, दृढ़ लक्ष्य वाला और प्रमाद के त्याग में लगा हुआ आत्मा, चरण करण के पालन में समर्थ निष्पाप, बल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम होने पर दीर्घकाल तक चारित्र पालन करता है और जब बल. वीर्य आदि कम होने लगता है तब आखिरी उम्र में शीघ्रमेव आराधना करें। अन्यथा बल. वीर्य आदि होने पर भी जो मूढ़ अन्तिम आराधना की इच्छा करे उसे मैं साधुता से हारा हुआ मानता हूँ, परन्तु जो धर्म स्वीकार करने के बाद शीघ्र ही विघ्न करने वाली व्याधि हो, अथवा मनुष्य, तिर्यंच अथवा देव के अनुकूल उपसर्ग हो, या शत्रु चारित्र धन का अपहरण-चारित्र भ्रष्ट करें, दुष्काल अथवा अटवी में अत्यन्त गलत मार्ग में चला जाये, जंघा बल खत्म हो जाये या इन्द्रियों में मन्दता आ जाय, नये-नये विशेष धर्म गुणों के प्राप्ति की शक्ति कम हो जाये, अथवा अन्य कोई ऐसा भयानक कारण बन जाय तो शीघ्रमेव अन्तिम आराधना करनी चाहिए, तो वह दोष रूप नहीं है। परन्तु जो स्वयं कुशील है, कुशील की संगति में ही प्रसन्न है, हमेशा पापी मन, वचन, काया रूप प्रचण्ड दण्ड वाला है वह आराधना के योग्य ही नहीं है। तथा प्रकृति से क्रूर चित्तवाला कषाय से कलुषित, महान भयंकर द्वेषी, अशान्त चित्तवाला, मोह से मूढ़, निदान करने वाला और जो जिन-सिद्ध, आचार्य आदि की आशातना में अति आसक्त, पर के संकट को देखकर मन में प्रसन्न होनेवाला, शब्दादि इन्द्रियों के विषयों में महान गद्धि वाला, सद्धर्म से पराङ्मुख, प्रमाद में तत्पर और सर्वत्र पश्चात्ताप बिना का हो वह भी आराधक नहीं होता है। तथा जो केवल स्वयं ही अधर्म वाला है इतना ही नहीं, परन्तु स्वभाव से दूसरें भी धर्मीजनों को विघ्न करने वाला, चैत्य द्रव्य, साधारण द्रव्य के द्रोह से दुष्ट, ऋषि हत्या करने वाले में आदर वाला और जो श्री जिनेश्वर के आगम की उत्सूत्र (विरोध में) उपदेश करने में तत्पर, और श्री जिन शासन के शरदचन्द्र की कीर्ति समान निर्मल यश का विनाश करने वाला और जो साध्वीजी के व्रत का भंग करने वाला महापापी, परलोक की इच्छा _ 55 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार बिना का, इस लोक के सुख में ही अति रागी, हमेशा अठारह पाप स्थानक में आसक्त मन वाला, और शिष्ट पुरुषों से एवं धर्म-शास्त्रों से जो विरुद्ध कार्य हो उस में भी गाढ़ राग वाला हो, उनकी आराधना योग्य नहीं है। यहाँ शिष्य (महासेन मुनि) प्रश्न करता है कि-जिसे शस्त्र, अग्नि, विष, विशूचिका रोग, शिकारी पशु या पानी आदि का संकट प्राप्त हुआ हो, वह शीघ्र मरने वाला कैसे आराधक हो सकता है? क्योंकि ये प्रत्येक संकट शीघ्र प्राण लेने वाले हैं। गुरु महाराज ने उत्तर दिया-वह भी निश्चय ही मधुराजा अथवा सुकोशल महाराजर्षि ने जिस तरह आराधना की थी उसी तरह संक्षेप से आराधना कर सकता है। क्योंकि निश्चय बुद्धिबल से युक्त, शीघ्र उपसर्ग उपस्थित होने पर अथवा आ जाने पर भी उपसर्ग जन्य भय को वह नहीं गिनता वह निर्भय होता है यद्यपि जब तक बल वाला है, तब तक भी आत्महित में सम्यग् मन को लगाने वाला, अमूढ़ लक्ष्य वाला, जीवन मृत्यु में राग-द्वेष से रहित, मृत्यु नजदीक आने पर भी संग्राम में सुभट के समान उसके मुख की प्रसन्नता कम नहीं होती, वैसे ही महासत्त्व वाला होता है वह संक्षेप से भी आराधना कर सकता है। इस तरह शास्त्रों में कही हुई युक्तियों से युक्त और परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली यह संवेगरंगशाला में आराधना का प्रथम परिकर्म द्वार के पन्द्रह अन्तर द्वार में प्रथम यह अर्ह अर्थात् योग्यता सम्बन्धी द्वार विस्तार से कहा है ।।११९८।। दूसरा लिंग द्वार : आराधना में योग्य कौन है, वह कहा। अब उस योग्य को जिन चिह्नों से जान सकते हैं उस लिंगों को या चिह्नों को कहते हैं। परलोक को साधने वाला नित्य कर्त्तव्य रूप जिन कथित जो योग पूर्व में कहा था।।१२०० ।। उसमें ही अब संवेग रस की वृद्धि से विशेषतापूर्वक सम्यग् दृढ़ उद्यम करना, उस आराधना के योग्य जीव का आराधना रूपी लिंग है। आराधक गृहस्थ का लिंग : उत्सर्ग से उस श्रावक को शस्त्र, मूसल आदि अधिकरणों का त्याग, पुष्पादि माला, वर्णक तथा चन्दनादिक विलेपन और उद्वर्तनादि का त्याग, शरीर का परिकर्म, औषध आदि करने का त्याग, एकान्त प्रदेश में रहना, केवल लज्जा को ढांकने के लिए ही वस्त्र धारण करना, समभाव से वासित रहना, जब-जब समय मिले तब-तब प्रतिक्षण सामायिक पौषध आदि में रक्त रहना, राग का त्याग करना, तथा संसार की निर्गुणता के लिए चिंतन करना, सद्धर्म कर्म में उद्यत मनुष्यों से रहित गाँव या स्थान का त्याग करना, काम-विकार के उत्पादक द्रव्यों की अभिलाषा का त्याग करना, हमेशा गुरुजनों के वचनों को अनुराग से सात धातुओं में व्याप्त करना, प्रतिदिन परिमित प्रासुक अन्न, जल का सेवन करना, इत्यादि गुणों का अभ्यास करना, वह निश्चय से आराधक गृहस्थ के लिंग हैं। साधु के भी सर्व साधारण लिंग इसी प्रकार जानना। साधु के लिंग : (१) मुहपत्ति, (२) रजोहरण (ओघा), (३) शरीर की देखभाल न करना, (४) वस्त्र रहितत्व (जीर्णवस्त्र के कारण) और (५) केश का लोच। ये पाँच उत्सर्ग से साधुता के चिह्न हैं, इन चिह्नों से (१) संयम यात्रा की साधना होती है, (२) चारित्र की निशानी होती है, (३) ये वस्तुएँ पास होने से मनुष्यों को साधुत्व रूप विश्वासपूज्य भाव होता है, (४) इससे संयम में स्थिरता का कारण होता है, और (५) साधु वेश धारण करने से गृहस्थ का कार्य नहीं कर सकता है। इससे गृहस्थ भाव का त्याग आदि गुणों की प्राप्ति होती है। उस वेश को साधु किसी 56 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार श्री संवेगरंगशाला प्रकार विशेष संस्कार किये बिना ही जैसे मिला हो वैसा ही संयम को बाधा रूप न हो इस तरह शरीर के साथ धारण कर रखे और सूत्र में स्थविर कल्पिओं की उपधि के चौदह प्रकार कहे हैं उस अनुसार उपकरण रखें हैं। मुहपत्ति आदि लिंगों का प्रयोजन और उसका लाभ : मुनि को मुखवस्त्रिका मस्तक और नाभि के ऊपर शरीर के प्रमार्जन करने के लिए हैं और मुख श्वासोच्छ्वास वायु की रक्षा के लिए और धूल से रक्षा के लिए रखने को कहा है। यह मुहपत्ति द्वार कहा । जो रज और पसीने के मैल से रहित हो, मृदुता, कोमलता और हलका हो ऐसे पाँच गुणों से युक्त रजोहरण की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। जाने आने में, खड़े होने में, कोई वस्तु रखने में, अलग करने में, तथा बैठने में, सोने में, करवट बदलने में इत्यादि कार्य में प्रमार्जन के लिए रजोहरण है। यह रजोहरण द्वार कहा । शरीर मसलना, स्नान, उद्वर्तन तथा बाल, दाढ़ी मूँछ को स्वस्थ सुशोभित रखना, दाँत, मुख, नासिका तथा नेत्र भृकुटी को स्वच्छ रखना आदि शुश्रूषा को नहीं करनेवाला तथा रुक्ष और पसीने के मैल से युक्त शरीर वाला, लोच करने से शोभा रहित मस्तक वाला, बड़े नख-रोम वाला जो साधु हो', वह ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाला है। यह शरीर शुश्रूषा त्याग द्वार कहा । पुराने (जीर्ण), मलिन, प्रमाणोपेत - प्रमाणानुसार, अल्प मूल्य वाले वस्त्र जीव रक्षा के लिए रखने से भी वस्त्र रहितत्व जानना इससे परिग्रह का त्याग होता है, अल्प उपधि होती है, अल्प पडिलेहण होती है निर्भयता, विश्वासपात्रता, शरीर सुखों का अनादर, जिनकी सादृश्यता, वीर्याचार का पालन, रागादि दोषों का त्याग, अनेक गुण अचेलक्य से होते हैं। यह अचेलक्य द्वार कहा है ।।१२१८।। इत्यादि लोच से लाभ : (१) महासात्त्विकता का प्रकट होना, (२) श्री जिनाज्ञा पालन रूप जिनेश्वर भगवान का बहुमान, (३) दुःख सहनता, (४) नरकादि की विचारणा से निर्वेद, (५) अपनी परीक्षा और ( ६ ) अपनी धर्म श्रद्धा, (७) सुखशीलता का त्याग और (८) क्षुर कर्म से होने वाला पूर्व-पश्चात् कर्म के दोषों का त्याग, (९) शरीर में भी निर्ममत्व, (१०) शोभा का त्याग, (११) निर्विकारिता और ( १२ ) आत्मा का दमन होता है। इस प्रकार लोच से विविध गुणों की प्राप्ति होती है, और दूसरे लोच न करने से जूँ आदि होने से पीड़ा होती है, मन में संक्लेश होता है, और हर समय खुजाने से परिताप आदि दोष होते हैं। यह लोच द्वार कहा । इस तरह साधु सम्बन्धी पाँच प्रकार का सामान्य लिंग कहा है। अब गृहस्थ और साधु दोनों के उन लिंगों को कुछ विशेष रूप से कहूँगा । गृहस्थ साधु के सामान्य लिंग : ज्ञानादिगुण, गुणों की खान श्री गुरुदेव के चरण कमल की सेवा करने में तत्परता, थोड़े भी अपराध होने पर बार-बार अपनी निन्दा, सविशेष आराधना करने में रक्त मुनियों की श्रेष्ठ कथाएँ सुनने की इच्छा, अतिचार रूपी कीचड़ से मुक्त, निरतिचार जीवन व्यतीत करने वाला, मूल गुणों की आराधना में प्रीति, पिंड विशुद्धि आदि मुख्य क्रियाओं में बद्ध लक्ष्य, पूर्व में स्वीकार किये संयम में निरवद्यता पूर्वक स्थिरता, इत्यादि गुणों का समूह यह साधुओं का विशेष लिंग जानना, हित की अभिकांक्षा वाले गृहस्थों को भी यह लिंग यथायोग्य जानना। केवल ऐसे गुण वाले भी जो किसी कारण से क्रोध में फंसकर संयम में प्रेरणा करने के द्वारा सद्गति के 1. बडे नख वाला विशेषण जिनकल्पियों के लिए हैं। . For Personal & Private Use Only 57 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा प्रस्थान में सार्थपति समान सद्गुरु प्रति प्रद्वेष करता है, वह कुलवालक मुनि के समान शीघ्र आराधना रूपी धर्म के महान् निधान की प्राप्ति से भ्रष्ट होता है ।। १२२९ ।। उसकी कथा इस प्रकार है :― कुलवालक मुनि की कथा चरण करण आदि गुणमणि के प्रादुर्भाव के लिए रोहणाचल समान, उत्तम संघयण वाले, मोहमल्ल को जीतने वाले, महान् महिमा से किसी के द्वारा पराभव नहीं होने वाले और अनेक शिष्य परिवार युक्त संगमसिंह नामक आचार्य थे। उनका प्रकृति से उद्धत स्वभाव वाला एक शिष्य था। वह अपनी बुद्धि अनुसार दुष्कर तप आदि करता था, परन्तु कदाग्रह के कारण आज्ञानुसार चारित्र का पालन नहीं करता था। उसे आचार्यजी प्रेरणा करते थे कि - कठिनाई से समझ सके ऐसे हे दुष्ट ! इस तरह शास्त्र विरुद्ध कष्ट सहन करने से आत्मा को निष्फल सन्ताप क्यों कर रहा है? आणाएच्चिय चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गंति । आणं वइक्कमंतो कस्साएसा कुणसि सेसं ।। १२३४।। आज्ञा पालन में ही चारित्र है। उस आज्ञा का खंडन होने बाद समझ कि क्या शेष रहता है? अर्थात् आज्ञा बिना की प्रत्येक प्रवृत्ति विराधना रूप और आज्ञा का उल्लंघनकर तूं शेष अनुष्ठान करता है वह किस की आज्ञा से करता है? ।।१२३४ ।। ऐसा उपदेश देने से गुरु के प्रति वह उग्र वैरभाव रखने लगा। किसी दिन उसे अकेले को साथ लेकर गुरु महाराज सिद्ध शिला (सिद्धाचल तीर्थ) पर वंदन करने पर्वत पर चढ़े, और वहाँ चिरकाल नमस्कार कर धीरे-धीरे उतरने लगे। तब उस दुर्विनीत ने विचार किया कि वास्तविक यह अच्छा मौका मिला है, कि जिससे दुर्वचनों का भण्डार रूप इन आचार्य को मैं यही मार दूँ । यदि इस समय यह असहायक होने पर भी इसकी मैं उपेक्षा करूँगा तो जिन्दगी तक दुष्ट वचनों द्वारा मेरा तिरस्कार होगा। ऐसा सोचकर आचार्यश्रीजी को मारने के लिए पीछे चलते उसने बड़ी पत्थर की शिला को धक्का देकर गिरायी, और किसी तरह से गुरुजी ने उसे देख लिया और उससे शीघ्र हटकर आचार्यश्री ने कहा- हे महादुराचारी ! गुरु का शत्रु ! यह अत्यन्त महापाप में तूं क्यों उद्यम करता है? लोक व्यवहार को भी क्या तूं नहीं जानता कि जिनके उपकारों के बदले में समग्र तीन लोक का दान भी अल्प है, ऐसे उपकार को तूं मारने की बुद्धि करता है? कई शिष्य इस पृथ्वी पर गुरु का केवल उपकार ही मानते हैं और दूसरा तेरे समान दीर्घ समय से अच्छी तरह से पालन करने पर भी मारने की तैयारी करता है । अथवा कुपात्र का संग्रह करने से निश्चय ऐसा ही परिणाम आता है, न कयाइ महाविसविसहरेणसह निव्वहइ मेत्ती ।। १२४३ || महाजहरी सर्प के साथ मित्रता कभी नहीं हो सकती। पापी ! इस प्रकार के महान् पापकर्मों से सुकृत पुण्य को मूल में से खत्म कर देता है और इससे सर्वज्ञ धर्म पालन करने में तूं अत्यन्त अयोग्य है तेरे इस पाप से निश्चय ही स्त्री के सम्बन्ध से तेरे चारित्र का नाश होगा, ऐसा श्राप देकर आचार्यश्री जिस तरह यात्रा करने गये उसी तरह वे वापिस आये । अब ऐसा करूँ कि जिससे आचार्यश्री के वचन को असत्य बना दूँ। ऐसा सोचकर वह कुशिष्य अरण्य भूमि में गया। वहाँ मनुष्य के संचार बिना एक तापस के आश्रम में रहा और नदी के किनारे पर उग्र तप करने लगा। उसके बाद वर्षाकाल आया, तब उसके तप के प्रभाव से प्रसन्न होकर देवी ने 'इस साधु को पानी द्वारा नदी खींचकर न ले जाये' ऐसा विचारकर नदी का प्रवाह सामने किनारे पर घुमा दिया। इस तरह नदी का प्रवाह दूसरे किनारे पर बहते हुए देखकर उस प्रदेश के निवासी लोगों ने उसके गुण अनुसार उसका नाम कूलवालक रखा। उस मार्ग से प्रस्थान करते सार्थवाहों के पास से भिक्षा लेकर जीवन व्यतीत करता था। इसके बाद जो हुआ व 58 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम द्वार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला कहते हैं ।।१२५०।। इधर चम्पानगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र पराक्रम से शत्रु समूह को हराने वाला अशोकचन्द्र (कोणिक) नामक राजा था। उसके हल्ल और विहल्ल नाम से छोटे भाई थे। उनको श्रेणिक ने श्रेष्ठ हाथी और हार भेंट रूप में दिया था। इसके अतिरिक्त दीक्षा लेते समय अभयकुमार ने भी अपनी माता के रेशमी वस्त्र और दो कुण्डल उन दोनों को भेंट दिये थे। उन वस्त्र, हार और कुण्डलों से शोभित हाथी ऊपर बैठे हुए उनको चम्पानगरी में त्रिमार्ग, चार मार्ग आदि में घूमते दोगुंदक देव के समान क्रीड़ा करते देखकर ईर्ष्या से रानी ने अशोकचन्द्र को कहा कि-हे देव! वस्तुतः राजलक्ष्मी तो तुम्हारे भाइयों को मिली है कि जिससे इस तरह अलंकृत होकर हाथी के कन्धे पर बैठकर वे आनन्द का अनुभव करते हैं, और तुम्हें तो केवल एक कष्ट के बिना राज्य का दूसरा कोई फल नहीं है। इसलिए आप यह हाथी आदि रत्न उनके पास माँगो। राजा ने कहा-हे मृगाक्षी! पिताजी ने स्वयं छोटे भाइयों को यह रत्न दिये हैं उनसे माँगने में मुझे लज्जा नहीं आयेगी? उसने कहा-हे नाथ! दूसरा अच्छा राज्य उनको देकर हाथी आदि रत्नों को लेने में आपको लज्जा कैसे आयेगी? इस तरह बार-बार उससे तिरस्कारपूर्वक कहने से राजा ने एक समय हल्ल, विहल्ल को प्रेमपूर्वक बुलाकर इस प्रकार कहा-हे भाइयों! मैं तुम्हें अन्य बहुत हाथी, घोड़े, रत्न, देश आदि देता हूँ और तुम मुझे बदले में यह श्रेष्ठ हस्तिरत्न दे दो। 'इस पर विचार करेंगे।' ऐसा कहकर वे अपने स्थान पर गये और बलजबरी से कहीं ग्रहण कर ले इस भय से रात्री के समय में हाथी पर बैठकर कोई मनुष्य नहीं जाने इस तरह निकलकर उन्होंने वैशाली नगर में चेटक राजा का आश्रय लिया. उनके जाने के बाद अशोकचन्द्र को जानकारी मिली तब विनय से हल्ल. विहल्ल को शीघ्र भेजने के लिए दूत द्वारा चेटक राजा को निवेदन किया। चेटक ने कहा कि मैं उन्हें बलात्कार से किस तरह निकाल दूँ? स्वयंमेव तुझे समझाकर ले जाना उचित है। क्योंकि ये दो और तीसरा तूं मेरे भानजे हैं, मुझे किसी के प्रति भेदभाव नहीं है केवल मेरे घर आये हैं उनको जबरदस्ती में नहीं भेज सकता हूँ। यह उत्तर सुनकर रोष वाले उसने फिर चेटक को कहलवाया कि कुमारों को भेजों अथवा जल्दी युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। चेटक राजा ने युद्ध स्वीकार किया, इससे समग्र सामग्री लेकर अशोकचन्द्र शीघ्र वैशाली नगर पहुँचा और युद्ध करने लगा। केवल चेटक महाराजा ने उस अशोक चन्द्र के काल आदि दस सौतेले भाइयों को सफल अमोघ एक-एक बाण मारकर दस दिन में दस को मार दिया। क्योंकि निश्चय से उसने एक दिन में एक ही बाण मारने का नियम लिया हुआ था। अतः ग्यारहवें दिन भयभीत बनें अशोक चन्द्र ने विचार किया-आज युद्ध करूँगा तो अब मैं खत्म हो जाऊँगा, इसलिए लड़ना योग्य नहीं है। इस तरह युद्ध भूमि में से जल्दी खिसककर देव सहायता की इच्छा से उसने अट्ठम तप किया, उस अट्ठम तप के प्रभाव से सौधर्मेन्द्र और चमरेन्द्र भी पूर्व संगति को याद करके उसके पास आये और कहने लगे कि-भो देवानुप्रिय! कहो, तुम्हें क्या इष्ट दें? राजा ने कहा-मेरे वैरी चेटक को मार दो। शक्रेन्द्र ने कहा-परम समकित दृष्टि श्रावक है इसे हम नहीं मार सकते हैं, यदि तुम कहो तो उसकी और तुम्हारी भी सहायता करूँगा। अच्छा ऐसा भी करना। ऐसा कहकर अशोक चन्द्र ने चेटक राजा के साथ युद्ध आरम्भ किया, इन्द्र की अबाधित सहायता के प्रभाव से दुदर्शनीय तेजस्वी बनकर वह शत्रु के पक्ष मारता हुआ जब चेटक के पास पहुँचा, तब यम के दूत समान चेटक राजा ने कान तक खींचकर अमोघ बाण उसके ऊपर फेंका, और वह बाण चमरेन्द्र ने बनाई हुई स्फटिक की शिला के साथ टकराया, उसे देखकर चेटक राजा सहसा आश्चर्यचकित हुआ, फिर अमोघ शस्त्र स्खलित हुआ इससे अब मुझे युद्ध करना योग्य नहीं है। ऐसा विचारकर वह शीघ्र नगर में गया। लेकिन चमरेन्द्र और शक्रेन्द्र ने निर्माण किया रथयुद्ध, 59 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम दार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा मुशलयुद्ध, शिलायुद्ध और कंटकयुद्ध करने से उसकी चतुरंग सेना बहुत खत्म हुई। फिर नगर का घेराव डालकर अशोकचन्द्र बहुत समय पड़ा रहा, परन्तु ऊँचे किले से शोभता वह नगर किसी तरह से खण्डित नहीं हुआ। जब नगरी तोड़ने में असमर्थ बना राजा शोकातुर हुआ तब देवी की आराधना की देवी ने कहा कि जब कुल वालक साधु मागधिका वेश्या का सेवन करेगा तब राजा अशोकचन्द्र वैशाली नगरी को काबू करेगा।।१२८३।। कामरूपी संपुट से अमृत के समान उन शब्दों का पान करके हर्ष से प्रसन्न मुख हुए राजा ने लोगों को उस साधु के विषय में पूछा, तब किसी तरह लोगों द्वारा उसे नदी किनारे रहा हुआ जानकर वेश्याओं में अग्रसर मागधिका वेश्या को बुलाकर कहा कि-हे भद्रे! तूं कूलवालक साधु को यहाँ ले आ। विनय से विनम्र बनकर 'ऐसा करूँगी' ऐसा उसने स्वीकार किया। मागधिका वेश्या कपटी श्राविका बनकर कई व्यक्तियों को साथ लेकर उस स्थान पर गयी, वहाँ उसने साधु को वंदनकर विनयपूर्वक इस प्रकार कहा-घर का नाथ पतिदेव स्वर्गवास होने से जिनमंदिरों में वंदन करती यात्रार्थ घूमती फिरती में आपका नाम सुनकर यहाँ वंदन के लिए आयी हूँ। इससे हे मुनिवर! भिक्षा लेकर मुझे प्रसन्न करो क्योंकि तुम्हारे जैसे सुपात्र में अल्पदान भी शीघ्र स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का कारण रूप होता है। इस तरह बहुत कहने से वह कुलवालक भिक्षार्थ आया, और उसने दुष्ट द्रव्य से संयुक्त लड्डु दिये, वह खाते ही उस समय उसे बदहजमी होने से बहुत अतिसार रोग हो गया, इससे अति निर्बल होने से करवट बदलने आदि में भी अशक्त हआ। वेश्या ने उससे कहा-भगवंत! उत्सर्ग अपवाद मार्ग जानती हैं. गुरु-स्वामी और बन्ध तुल्य मानकर आपके रोगों को प्रासुक द्रव्यों से कुछ प्रतिकार करूँगी, इसमें भी यदि कुछ असंयम हो जाये तो शरीर स्वस्थ होने के बाद इस विषय में प्रायश्चित्त कर देना। अतः हे भगवंत! आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे आपश्री की वैयावच्य (सेवा) करूँ। प्रयत्नपूर्वक आत्मा-जीवन की रक्षा करनी चाहिए, कारण शास्त्र में इस प्रकार कहा है (ओघ नियुक्ति गाथा ४४) कि 'सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए और किसी विशेष कारण से संयम को गौण करके भी जीवन की रक्षा करते साधु अतिक्रम आदि दोष सेवन करे उसकी विशुद्धि हो जाती है, उससे अविरति नहीं हो जाती।' इस प्रकार सिद्धान्त के अभिप्राय के साररूप उसके वचन सुनकर उसने मागधिका को आज्ञा दी, इससे प्रसन्न होकर उसके पास रहकर सेवा करती, हमेशा शरीर को मसलना, धोना, बैठाना आदि सब क्रियाएँ करने लगी। कई दिन इस तरह पालन करके उसने औषध के प्रयोग से उस तपस्वी का शरीर लीला मात्र से स्वस्थ कर दिया। उसके बाद अति उद्भट श्रृंगार वाले उत्तम वेश धारणकर सुंदर अंगवाली उसने एक दिन विकारपूर्वक मुनि से कहा ।।१३०० ।। हे प्राणनाथ! मेरी बात सुनों! गाढ़ राग वाली होने से प्रिय और सुख समूह की निधिरूप मेरा आप सेवन करें, अब यह दुष्कर तपस्या को छोड़ दें, प्रतिदिन शरीर का शोषण करने वाला वैरी रूप यह तप करने से भी क्या लाभ है? मोगरे की कली समान दाँत वाली मुझे प्राप्त की है वह! हे पतिदेव! आपने तप का ही फल प्राप्त किया है। अथवा दुष्ट श्वापद आदि समूह में दुःखपूर्वक रहने योग्य इस अरण्य का तुमने क्यों आश्रय लिया है? चलो रति के समान स्त्रियों से भरे हुए सुंदर मनोहर नगर में चलें। अरे भोले! तूं धोखेबाजी से ठगा गया है कि जिससे मस्तक मूंडाकर यहाँ रहता है। तूं हमेशा मेरे भवन में मेरे साथ क्यों विलास नहीं करता? हे नाथ! तेरे थोड़े विरह में भी निश्चित ही मेरे प्राण निकल जाते हैं। अतः चलो साथ ही चलें और दूर-दूर देश में रहे तीर्थों को वंदन नमस्कार करेंगे। इससे तेरे भी और मेरे भी समस्त पाप क्षय हो जायेंगे। इसलिए हे नाथ! जब तक इस 1. दूसरे स्थान पर कथाओं में दो प्रकार के युद्ध का वर्णन आता है। 60 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार और उसके भेद श्री संवेगरंगशाला जन्म में थोड़ा कुछ भी जिएँ तब तक पाँच प्रकार के विषयों का सेवन करें। इस प्रकार उसने विचारपूर्वक कोमल वाणी द्वारा कहने से संक्षोभ हुए उसने धैर्य छोड़कर दीक्षा का त्याग किया। ___ इससे अत्यन्त प्रसन्न मन वाली वह उसे साथ ले अशोकचन्द्र राजा के पास पहुँची और चरणों में गिरकर उसने विनती की कि-हे देव! वह यही कुलवालक मुनि मेरा प्राणनाथ है, इसलिए अब इसके द्वारा जो करवाना हो उसकी आज्ञा दीजिए। राजा ने कहा-हे भद्र! तूं ऐसा कार्य कर कि जिससे यह नगर नष्ट हो जाये, तब उसने आज्ञा को स्वीकारकर त्रिदण्डी का रूप धारणकर वह नगर में गया, वहाँ फिरते उसने श्रीमुनि सुव्रत स्वामी का स्तूप देखकर विचार किया कि-निश्चय ही इस स्तूप के प्रभाव से ही नगरी नष्ट नहीं होती है। इसलिए में ऐसा से नगरवासी मनष्य स्वयं ही इस स्तप का नाश करें. ऐसा सोचकर उसने कहा-अरे लोगों! यदि इस स्तूप को दूर करो तो शीघ्र ही शत्रु सैन्य स्वदेश में चला जायगा, नहीं तो जिन्दगी तक नगरी का घेराव नहीं उठेगा। इस तरफ राजा को भी संकेत किया जब लोग स्तूप को तोड़ें तब तुम्हें भी समग्र अपनी सेना को लेकर दूर चले जाना। फिर लोगों ने पूछा-हे भगवन्! इस विषय पर विश्वास कैसे होगा? उसने कहा-स्तूप को थोड़ा तोड़कर देखो, शत्रु सैना दूर जाती है या नहीं जाती, इस बात का विश्वास हो जायगा। ऐसा कहने से लोग ने स्तूप के शिखर के अग्रभाग को तोड़ने लगे इससे शत्रु सैन्य को जाते हुए देखकर विश्वास हो जाने से सम्पूर्ण स्तूप को भी उन्होंने तोड़ दिया और सैन्य वापिस घुमाकर राजा ने नगर पर हमलाकर नगर को काबू कर लिया, लोगों को विडम्बना की, और चेटक राजा जिन प्रतिमा को लेकर कुएं में गिर गया। इस प्रकार सद्गुरु के प्रत्यनिकपने के दोष से कुलवालक मुनि ऐसे पर्वत के समान महापाप राशी का पात्र बना। इस तरह अति दुष्कर तपस्या में रक्त और अरण्यवासी भी वह प्रतिज्ञा भंजक बना, वह सब गुरु के प्रति द्वेष करने का फल जानना। इस कारण से आराधना के योग्य जीवों को गुरुदेव को प्रसन्न करना चाहिए। उसी को आराधना का विशिष्ट लिंग कहा है। अधिक इस विषय पर क्या कहें? इस प्रकार मोक्ष मार्ग के रथ समान परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला में पन्द्रह प्रति द्वार वाला आराधना के प्रथम परिकर्म द्वार का यह दूसरा लिंग अन्तर द्वार कहा है। पूर्व कहे लिंगों वाला भी शिक्षा बिना सम्यग् आराधना को प्राप्त नहीं करता है, इस कारण से अब शिक्षा द्वार कहते हैं :- ।।१३२४।। तीसरा शिक्षा द्वार और उसके भेद : वह शिक्षा (१) ग्रहण, (२) आसेवन और (३) तदुभय। इस तरह तीन प्रकार की है, उसमें ज्ञानाभ्यास रूप शिक्षा ग्रहण शिक्षा कहलाती है, और वह साधु तथा श्रावक को भी जघन्य से सूत्रार्थ के आश्रित अल्प बुद्धि वाले को भी आठ प्रवचन माता तक तो ज्ञान होता ही है। उत्कृष्ट से तो साधु को सूत्र से और अर्थ से ग्रहण शिक्षा अष्ट प्रवचन माता आदि से लेकर बिन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व तक ज्ञान होता है। गृहस्थ को भी सूत्र से उत्कृष्ट दशवैकालिक सूत्र के छज्जीवनिकाय चौथे अध्ययन तक और अर्थ से पाँचवां पिंडेषणा अध्ययन तक जानना, क्योंकि प्रवचन माता के ज्ञान बिना निश्चय वह सामायिक भी किस तरह कर सकता है? और छज्जीवनिकाय के ज्ञान बिना जीवों की रक्षा भी किस तरह से कर सकता है? अथवा पिंडेषणा के अर्थ जाने बिना साधु महाराज को प्रासुक और एषणीय आहार, पानी, वस्त्र, पात्र किस तरह दे सकता है? अतः घोर संसार समुद्र को तैरने में नाव तुल्य प्रशस्त गुण के प्रकट प्रभाव वाला, पुण्यानुबन्धी पुण्य का कारण, परम कल्याण आदि स्वरूप वाला और अन्त में भी मधुर हितकर प्रमादरूपी दृढ़ पर्वत को तोड़ने में वज्र समान पापरहित और जन्म-मरण रूपी रोगों को नाश करने के लिए मनोहर रसायण की क्रिया सदृश श्री जैन प्रवचन के प्रथम सूत्र से स्व-स्व - 61 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला शाला परिकम द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-शिक्षा नामक तृतीय द्वार मर्यादानुसार शुद्ध और अखण्ड अध्ययन करना चाहिए। फिर सुसाधु के पास उसको अर्थ से सम्यग् सुनना चाहिए। आत्मा में अनुबन्ध और स्थिरीकरण करने के लिए एक बार पढ़ा हुआ सूत्र का और सुने हुए अर्थ का भी जिन्दगी तक प्रयत्नपूर्वक बार-बार चिंतन-अनुप्रेक्षण करना चाहिए। श्रुत ज्ञान का लाभ : ___ मैंने अति पुण्य से यह कोई परम तत्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे निरवद्य भाव से उस सूत्र का बहुत मान करे, सर्व प्रकार से कल्याण करने वाला, सद्गति के मार्ग का प्रकाशक और भगवंत के उस श्री जैन प्रवचन का कल्याण हो कि जिससे ये गुण प्रकट हो गये हैं। ज्ञान से आत्महित का होश, भाव संवर, नया-नया संवेग दृढ़ता तप, भावना, परोपदेशत्व, और जीव, अजीव-आश्रव आदि तात्त्विक सर्व भाव का तथा इस जन्म, परभव सम्बन्धी आत्मा का हित-अहित आदि सम्यक् समझ में आता है। आयहियमयाणंतो मुज्झइ मूढो सामाइवइ पावं। पावनिमित्तं जीवो भमइ भवसायरमणंतं ।।१३३९।। आत्महित से अज्ञ मूढ़ जीव उलझन में पड़ता है, पापों को करता है और पापों के कारण अनन्त संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है ।।१३३९।। क्योंकि आत्महित को जानने से ही अहित से निवृत्ति और हित में प्रवृत्ति होती है, इसलिए हमेशा आत्महित को जानना चाहिए। और स्वाध्याय को करने वाला पांचों इन्द्रियों के विकारों को संवर करने वाला, तीन गुप्ति से गुप्त बनकर राग द्वेषादि घोर अशुभ भावों को रोकता है। जह जह सुयमवगाहइ अतिसयरसपसरनिब्भरमउ व्वं। तह तह पल्हाइ मुणी नवनवसंवेगसद्धाए।।१३४२।। जैसे-जैसे इसके अतिशय विस्तारपूर्वक तात्त्विक नये-नये श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नयीनयी संवेग की श्रद्धा होने से मुनि को महानन्द प्राप्त होता है ।।१३४२।। और लाभ, हानि की विधि को जानने वाला, विशुद्ध लेश्या वाला और स्थिर मन वाला वह ज्ञानी जिन्दगी तक ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप में मनोरंजन आनंदानुभव करता है। कहा है कि-श्री अरिहंत देव के द्वारा कहा हुआ बाह्य, अभ्यन्तर बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय समान तप धर्म न है और नहीं होने वाला है। स्वाध्याय का चिंतन करने से जीव की सर्व गुप्तियाँ भाव वाली बनती है। और भाव वाली गुप्तियों से जीव अंतिम समय में आराधक बनता है। परोपदेश देने से स्व पर का उद्धार होता है, जिनाज्ञा प्रति वात्सल्य जागृत होता है, शासन की प्रभावना, श्रुत भक्ति और तीर्थ का अविच्छेद होता है। और अनादि के अभ्यास से उपदेश बिना भी लोग काम और अर्थ में तो कुशल है, परन्तु धर्म तो ग्रहण शिक्षा रूपी ज्ञान बिना नहीं होता है, इसलिए इसमें प्रयत्न करना चाहिए। यदि अन्य मनुष्यों को धन आदि में अविधि करने से उसका धन आदि का अभाव ही होता है तो रोग, चिकित्सा के दृष्टान्त से धर्म में भी अविधि अनर्थ के लिए होती है। इसलिए धर्मार्थी ग्रहण शिक्षा में हमेशा प्रयत्न वाला होना चाहिए। क्योंकि मोहान्ध मनुष्यों को उस ज्ञान का प्रकाश धर्म प्रवृत्ति में प्रेरक बनता है। जगत में ज्ञान चिन्तामणि है, ज्ञान श्रेष्ठ कल्पवृक्ष है, ज्ञानविश्वव्यापी चक्षु है, और ज्ञान धर्म का साधन है। जिसको इसमें बहुमान नहीं है उसकी धर्म क्रिया लोक में जाति अंध (जन्म से अंध) को नाटक देखने की क्रिया के समान निष्फल है। और ज्ञान बिना जो स्वेच्छाचार से कार्य में प्रवृत्ति करता है वह कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता है, सुखी नहीं होता अर्थात् उसकी श्रेष्ठ गति नहीं है। अतः कार्य सिद्धि की इच्छावाले को प्रमाद छोड़कर प्रथम से ही सदा ज्ञान को ग्रहण करने में सम्यक् प्रयत्न करना चाहिए और प्रस्तुत विषय में शास्त्रोक्त सर्व नयों का विविध मतों का संग्रह रूप ज्ञाननय और क्रियानय नाम के दो ही नय हैं। 1. नऽवि अत्थि नऽवि य होही, सज्झायसमं तवोकम्मं ।।१३४४ उत्तरार्ध।। 62 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्न द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला इसमें ज्ञाननय का मत यह है कि निश्चय कार्य का अर्थी सर्व प्रकार से हमेशा ग्रहण शिक्षा में जो सम्यग् यत्न करें, वह इस तरह-ग्रहण शिक्षा से हेय, उपादेय अर्थ को सम्यग् से रूप से जाने उसके बाद में ही बुद्धिमान को कार्य में प्रयत्न करना चाहिए, अन्यथा फल में विपरीतता होती है। मिथ्या ज्ञान से प्रवृत्ति करने वाले को फल की प्राप्ति विपरीत होने से, मनुष्यों को फल सिद्धि का एक ही हेतु सम्यग् ज्ञान ही है, क्रिया नहीं है। इस प्रकार इस लोक के फल के लिए जैसे कहा, वैसे जन्मान्तर के फल की भी यही विधि है, क्योंकि श्री जिनेश्वरों ने कहा कि 'प्रथम ज्ञान फिर दया-क्रिया'। इस तरह सर्व विषय में प्रवृत्ति करते साधु संयम का पालन करे। अज्ञानी क्या करेगा?2 और पुण्य तथा पाप को क्या जानेगा? यहाँ पर जैसे क्षायोपशमिक ज्ञान विशिष्ट फल साधक है वैसे क्षायिक ज्ञान भी सम्यग् विशिष्ट फल साधक है। ऐसा जानना चाहिए। क्योंकि संसार समुद्र को पार उतरने वाले दीक्षित और प्रकृष्ट तप, चारित्र वाले श्री अरिहंत देव को भी वहाँ तक मोक्ष नहीं हुआ जब तक जीव अजीवादि समस्त पदार्थों के समूह को बताने में समर्थ केवलज्ञान प्रकट नहीं हुआ। इसलिए इस लोक परलोक की फल प्राप्ति में अवन्ध्य कारण ज्ञान ही है, इसलिए उसमें प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए, ज्ञान बिना इन्द्रदत्त के पुत्र समान मनुष्य गौरव को प्राप्त नहीं करता और ज्ञान से उसका ही पुत्र सुरेन्द्रदत्त के समान गौरवता प्राप्त करता है।।१३६४ ।। वह इस प्रकार है : इन्द्रदत्त के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा इन्द्रपुरी सदृश मनोहर इन्द्रपुर नाम का श्रेष्ठ नगर था। उसमें देवों से पूज्य इन्द्र समान पंडितों के पूज्य इन्द्रदत्त नाम का राजा था। उसकी बाईस रानियों से जन्मे हुए कामदेव सदृश मनोहर रूप वाले श्रीमाली आदि बाईस पुत्र थे। एक समय उस राजा ने अपने घर में विविध क्रीड़ाएँ करती प्रत्यक्ष रति के समान मंत्रीश्वर की पुत्री को देखा, इससे राजा ने अनुचर से पूछा-यह किसकी पुत्री है? उसने कहा-हे देव! यह मंत्रीश्वर की पुत्री है फिर उसके प्रति रागी हुए राजा ने स्वयं विविध रूप में मंत्री से याचना की, उससे विवाह किया और उसी समय ही उसे अंतःपुर में दाखिल कर दिया। अन्यान्य श्रेष्ठ स्त्रियों को सेवने में आसक्ति से राजा उसे भूल गया, फिर बहुत समय के बाद उसे आले-गवाक्ष में बैठी देखकर राजा ने पूछा, चन्द्र समान प्रसरती कान्ति के समूह वाली, कमल समान आँख वाली और लक्ष्मी समान सुंदर यह युवती स्त्री कौन है? कंचुकी ने कहा-हे देव! यह तो मंत्री की पुत्री है कि जिसको आपने पूर्व में विवाह कर छोड दिया है. ऐसा कहने से राजा उस रात्री को उसके साथ रहा और ऋतु स्नान वाली होने से उस दिन ही उसे गर्भ रहा। फिर पूर्व में मन्त्री ने उससे कहा था कि- 'हे पुत्री! तुझे गर्भ प्रकट हो वह और तुझे राजा जब जो कुछ कहे वह तूं तब-तब मुझे कहना' इससे उसने सारा वृत्तान्त पिता से कहा, उसने भी राजा के विश्वास के लिए भोज पत्र में वह वृत्तान्त लिखकर रख दिया, फिर प्रतिदिन प्रमाद रहित पुत्री की सार संभाल करने लगा। पूर्ण समय पर उसने पुत्र को जन्म दिया और उसका सुरेन्द्रदत्त नाम रखा। उसी दिन वहाँ अग्नियक, पर्वतक, बहली और सागरक नाम से चार अन्य भी बालक जन्मे थें। मन्त्री ने कलाचार्य के पास सुरेन्द्रदत्त को पढ़ने भेजा। वह उन बालकों के साथ विविध कलाएँ पढ़ रहा था। इस ओर श्रीमाली आदि उस राजा के पुत्र अल्प भी नहीं पढ़े, उल्टे कलाचार्य अल्प भी मारते तो वे रोते और अपनी माता को कहते कि-'इस तरह हमें उसने मारा' फिर क्रोधित हुई रानियों ने उपाध्याय से कहा कि-अरे मारनेवाले पंडित! हमारे पुत्रों को पढ़ने के लिए क्यों मारता है? पुत्र रत्न जैसे-वैसे नहीं मिलते हैं, इतना भी क्या तूं नहीं 1. "पढमं नाणं तओ दया" 2. "अन्नाणी किं काही" - श्री दशवैकालिक सूत्र - 63 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-इन्द्रदन के अज्ञपुत्र और सुरेन्द्रदत्त की कथा जानता है? हे अत्यन्त मूढ़! तेरे पढ़ाने की निष्फल क्रिया से क्या प्रयोजन? क्योंकि तूं पुत्रों को मारने में थोड़ी भी दया नहीं करता है? इस प्रकार उनके कठोर वचनों से तिरस्कृत हुए गुरु ने पुत्रों की उपेक्षा की। इससे राजपुत्र अत्यन्त महामूर्ख रहें। परन्तु इस व्यतिकर को नहीं जानते हुए राजा मन में मानता था कि-इस नगर में मेरे श्रेष्ठ पुत्र ही अत्यन्त कुशल हैं। इधर वह समान उम्र वाले बच्चों के पराभव को सहन करते सुरेन्द्रदत्त ने सकल कलाओं का अध्ययन किया। एक समय मथुरा नगरी में पर्वतराज ने अपनी पुत्री से पूछा-पुत्री! तुझे जो वर पसंद हो उसे कह, जिससे उसके साथ तेरा विवाह करें, उसने कहा-हे तात! इन्द्रदत्त के पुत्र कला कुशल, शूरवीर, धीर और अच्छे रूप वाले सुने जाते हैं। यदि आप कहें तो स्वयंमेव वहाँ जाकर राधावेध द्वारा मैं उसमें से एक की अच्छी तरह परीक्षा कर उसको स्वीकार करूँ। राजा ने वह स्वीकार किया, तब उसने बहुत राजऋद्धि के साथ इन्द्रपुर नगर में जाने के लिए प्रस्थान किया। उसे आते सुनकर प्रसन्न हुए इन्द्रदत्त राजा ने अपनी नगरी को विचित्र ध्वजाओं को बंधवाकर सुशोभित करवाया। उस कन्या को आने के बाद सुन्दर ठहरने का स्थान दिया, और भोजन आदि की उचित व्यवस्था की, उसने राजा को निवेदन किया कि तुम्हारे जो पुत्र राधा को बींधेगा, वही मेरे साथ शादी करेगा, इसी कारण से मैं यहाँ आयी हूँ। राजा ने कहा-हे सुतनु! एक ही गुण से तूं परीक्षा में प्रसन्न नहीं होना क्योंकि मेरे सारे पुत्र प्रत्येक श्रेष्ठ गुण वाले हैं। उसके बाद शीघ्र उचित प्रदेश में बायें दाहिने घूमते चक्र की पंक्ति वाला मस्तक पर राधा को धारण करता बड़ा स्तंभ खड़ा किया और वहाँ अखाड़ा बनाया, मंच तैयार कियें, चन्द्रवें बाँधे गयें, और हर्ष पूर्वक उछलते गात्र वाला राजा आकर वहाँ बैठा। नगर निवासी आयें, राजा ने अपने पुत्रों को बुलाया, और वह राजपुत्री भी वरमाला को लेकर आयी। उसके बाद सर्व में बड़े श्रीमाल से राजा ने कहा-हे वत्स! यह कार्य करके मेरे मनोवांछित को सफल करों, निज कुल को उज्ज्वल करों, पवित्र राज्य की परम उन्नति दिखाओं, जय पताका को ग्रहण करों और शत्रुओं की आशाओं को खत्म कर दों, इस तरह कुशलता से शीघ्र राधावेध कर तूं प्रत्यक्ष राजलक्ष्मी सदृश यह निवृत्ति नाम की राजपुत्री को प्राप्त कर। ऐसा कहने से वह राजपुत्र क्षोभित होते नष्ट शोभा वाले पसीने से भीगे हुए, चित्त से शून्य बनें, दीन मुख और दीन चक्षु वाले, घबराहट के साथ ।।१४०० ।। निस्तेज शरीर वाला, सत्त्व या मर्दानगी से मुक्त, लज्जा युक्त, अभिमान गौरव रहित, नीचे देखता, पुरुषार्थ को छोड़ते दृढ़ बाँधा हो इस तरह स्तम्भ के समान स्थिर खड़ा रहा, पुनः भी राजा ने कहा-हे पुत्र! संक्षोभ को छोड़कर इच्छित कार्य को सिद्ध कर, तूझे इस कार्य में उलझन क्यों है? हे पुत्र! जो संक्षोभ करता है वह कलाओं में अति निपुण नहीं होता है, निष्कलंक कलाओं के भण्डार रूप तेरे जैसे को संक्षोभ किस लिए? राजा के ऐसा कहने से धिट्ठाई (कठोरता) पूर्वक अल्प भी चतुराई बिना श्रीमाली ने काँपते हाथों द्वारा मुश्किल से धनुष्य को उठाया और शरीर का सर्व बल एकत्रित कर मुसीबत से उसके ऊपर बाण चढ़ाकर 'जहाँ जाय वहाँ भले जाय' ऐसा विचारकर लक्ष्य बिना बाण को छोड़ा। वह बाण स्तम्भ से टकराकर शीघ्र टूट गया, इससे अति कोलाहल करते लोग गुप्त रूप में हँसने लगे। इस तरह कला रहित शेष इक्कीस राजपुत्रों ने भी जैसेतैसे बाण फेंका, एक से भी कार्य सिद्ध नहीं हुआ। इस कारण से लज्जा द्वारा आँखें बन्द हो गयी है जिसकी, वज्रमय इन्द्र धनुष्य से ताड़न किया गया हो इस तरह निस्तेज मुख वाला, निराश बना राजा शोक करने लगा। तब मन्त्री ने कहा-हे देव! शोक को छोड़ दो, आपका ही दूसरा पुत्र है, इससे अब उसकी भी परीक्षा करो। राजा ने कहा-दूसरा पुत्र कौन है? तब मन्त्री ने भोजपत्र दिया, उसे पढ़कर राजा बोला-इससे भी क्या प्रयोजन? बहुत पढ़े हुए भी ये पापियों के समान कार्य को 64 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-शिक्षा नामक तीसरा द्वार-आसेवन शिक्ष का वर्णन श्री संवेगरंगशाला सिद्ध नहीं कर सके, उसी तरह वह भी वैसे ही करेगा, ऐसे पुत्रों द्वारा मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो! ऐसा होते हुए भी यदि तेरा आग्रह हो तो उस पुत्र की योग्यता को भी जान लो। इससे मन्त्री ने उपाध्याय सहित सुरेन्द्रदत्त को बुलाया, उसके बाद शस्त्र विद्या के परिश्रम से शरीर में चिह्न वाले उसे गोद में बैठाकर प्रसन्न हुए राजा ने कहाहे पत्र! राधावेध करके मेरी इच्छा को तं पूर्ण कर और निवत्ति नाम की राजकन्या से विवाह कर, राज्य को प्राप्त कर। तब राजा और अपने गुरु को नमन कर धीर सुरेन्द्रदत्त युद्ध के योग्य मुद्रा बनाकर धनुष्यदण्ड ग्रहण कर निर्मल तेल से भरे कुण्ड में प्रतिबिम्बित हुए चक्रों के छिद्रों को देखते, दूसरे राजकुमारों द्वारा तिरस्कृत होते, गुरु के द्वारा प्रेरणा कराते अग्नियक आदि सहपाठी बच्चों से भी उपद्रव होते और 'यदि निशाना चूक जायगा तो मार दूंगा' ऐसा बोलते खुली तलवार वाले पास दो पुरुषों से बार-बार तिरस्कृत होते, फिर भी सर्व की उपेक्षाकर लक्ष्य सन्मुख स्थिर दृष्टि वाला और महा मुनीन्द्र के समान स्थिर मनवाले उसने चक्रों की चाल को निश्चित करके बाण से राधा का शीघ्र वेधन कर दिया, और राधा के वेधन से प्रसन्न बनी उस राजपुत्री ने उसके गले में वरमाला पहनाई, राजा को आनन्द हुआ, और सर्वत्र जय-जय शब्द उछलने लगे। राजा ने विवाह महोत्सव किया, और राज्य भी उसे दिया। इस तरह सुरेन्द्रदत्त ने ज्ञान से गौरवता को प्राप्त किया ।।१४२१।। इस प्रकार ज्ञाननय के मत में इस जन्म और दूसरे जन्म के सुख देने में सफल कारण है। इसलिए ग्रहण शिक्षा में ही, ज्ञान अभ्यास में ही, सदा उद्यम करना चाहिए। क्योंकि ग्रहण शिक्षा बिना का अनपढ़ मनुष्य क्रिया करने पर भी कला में अत्यंत मूढ़ रहता है। श्रीमाल आदि राजपत्रों के समान जनसमूह में आदर पात्र नहीं बनता है। इस प्रकार ग्रहण शिक्षा जानना। अब पूर्व में प्रस्तावित क्रिया कला रूप आसेवन शिक्षा कहते हैं ।।१४२४।। आसेवन शिक्षा का वर्णन : इस आसेवन शिक्षा के बिना जंगल में उत्पन्न हुए मालती के पुष्पों के समान और विधवा के रूप आदि गुण समूह के समान ग्रहण शिक्षा निष्फल होती है। और मन, वचन, काया के तीन योग से आसेवन शिक्षाक्रिया को सम्यग् रूप से आचरण करने वाले को ही ग्रहण शिक्षा रूपी ज्ञान प्रकट होता है अन्यथा प्रकट नहीं होता है। उसे प्रकट होने के कारण ये हैं-गुरु चरणों की सेवाकर गुरु को प्रसन्न करने से, सभी व्याक्षेप त्याग करने के प्रयत्न से, और शुश्रूषा, प्रतिपृच्छा आदि बुद्धि के आठ 'गुणों के प्रयोग करने से बहु, बहुतर और बहुतम बोध होने द्वारा ग्रहण शिक्षा परम उत्कृष्टता प्राप्त करती है। अन्यथा श्रीमाली आदि के समान निश्चय ही उत्कृष्टता को प्राप्त नहीं करती। अर्थात् ज्ञान पढ़ने के लिए भी विनय आदि क्रियारूप आसेवन शिक्षा पहले ही करनी होती है, और ग्रहण शिक्षा पढ़ने के बाद भी क्षण-क्षण मन, वचन, काया की क्रिया से उसका आसेवन किया जाता है तभी वह ज्ञान बढ़ता है और स्थिर होता है। इसलिए यदि आसेवन शिक्षा हो तभी उसके प्रभाव से भव्य जीवों को ग्रहण शिक्षा न होने पर भी ग्रहण शिक्षा प्राप्त होती है और आसेवन शिक्षा न हो तो विद्यावान की ग्रहण शिक्षा नाश होती है। इस प्रकार सर्व सुख की सिद्धि में बुनियादी रूप से और संसार वृक्ष का नाश करने के लिए अग्नि समान उसी एक आसेवन शिक्षा को नमस्कार हो! __ इस विषय में क्रियानय का मत इस प्रकार है कि जो कार्य का अर्थी हो उसे सर्व प्रकार से नित्यमेव क्रिया में ही सम्यग् उद्यम करना चाहिए। वह इस प्रकार से हेय-उपादेय अर्थों को जानकर उभय लोक के फल की सिद्धि को चाहने वाले बुद्धिमान को यत्नपूर्वक क्रिया करने में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि-प्रवृत्ति रूप 1. १. शुश्रुषा २. प्रतिपृच्छा, ३.सुनना, ४. ग्रहणकरना, ५. इहा (चिंतन करना), ६. अपोह (निश्चय करना), ७. धारण करना, ८. सम्यग आचरण करना। 65 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- शिक्षा नामक तीसरा द्वार-ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता प्रयत्न बिना ज्ञानी को भी इस संसार में अभिलषित वस्तु की सिद्धि होती नहीं दिखती है, इसीलिए अन्य मतवाले भी कहते हैं कि 'क्रिया ही फलदायी है, ज्ञान नहीं है।' संयम, अर्थ और विषयों का अति निपुण विज्ञाता ज्ञानी भी उस उस क्रिया के ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता है। प्यासा भी पानी आदि को देखकर भी जब तक उसे पीने आदि की क्रिया में प्रवृत्ति नहीं करता तब तक उसे तृप्ति रूप फल नहीं मिलता है। सन्मुख इष्ट रस का भोजन पड़ा है। स्वयं पास बैठा हो परन्तु हाथ को नहीं चलाए तो ज्ञानी भी भूख से मर जाता है। अति पंडित भी वादी प्रतिवादी को तुच्छ मानकर वाद के लिए राजसभा में गया हो, यदि वहाँ कुछ नहीं बोले तो धन और प्रशंसा को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस प्रकार इस लोक के हित के लिए जो विधि कही है वही विधि जन्मान्तर के फलों के लिए जानना, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि - तप संयम में जो क्रिया वाला (उद्यमी है ) है उसने चैत्य, कुल, गुण, संघ और आचार्यों में तथा प्रवचन श्रुत इन सब में भी जो करने योग्य है वह सब किया अर्थात् उसने सबकी सेवा की । जिस तरह क्षायोपशमिक चारित्र का फल है उसी तरह ही क्षायिक चारित्र का भी सुंदर फल साधकत्व जानना। क्योंकि केवलज्ञान को प्राप्त करने पर भी श्री अरिहंत देव को भी केवलज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है जब तक समस्त कर्मरूपी ईंधन को अग्नि समान अन्तिम विशुद्ध को करने वाली पाँच ह्रस्वाक्षर के उच्चार मात्र काल जितनी स्थिति वाले सर्व आश्रवों का संवर रूप और इस संसार में कभी पूर्व में प्राप्त नहीं किया हुआ अन्तिम क्रिया जिसमें मुख्य है वह चारित्र शैलेशीकरण - क्रिया प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् भगवान को केवलज्ञान के बाद भी मुक्ति पुरी में जाने के लिए शैलेशीकरण की क्रिया करनी पड़ती है। वह क्रिया भी उन्हें आवश्यक है। इस विषय में भी उदाहरण उस सुरेन्द्रदत्त का ही जानना । यदि वह जानकार होने पर भी राधावेध रूप क्रिया नहीं करता तो दूसरों के समान तिरस्कार पात्र बनता। इसलिए इस लोक-परलोक के फल की प्राप्ति में अवन्द्यकारण आसेवन शिक्षा ही है, अतः उसमें प्रयत्न नहीं छोड़ना चाहिए । ज्ञान-क्रिया उभय की परस्पर सापेक्ष उपादेयता : इस तरह ज्ञान, क्रिया इन दोनों नयों द्वारा उभय पक्ष में भी कही हुई शास्त्रोक्त विविध युक्तियों का समूह सुनकर जैसे एक ओर पुष्ट गन्ध से मनोहर खिले हुए केतकी का फूल और दूसरी ओर अर्ध विकसित मालती की कली को देखकर उसके गन्ध से आसक्त भौंरा आकुल बनता है वैसे उस उस स्व-स्व स्थान में युक्ति के महत्त्व को जानकर मन में बढ़ते संशय की भ्रांति में पड़ा हुआ शिष्य पूछता है कि-ज्ञान या क्रिया के विषय में तत्त्व क्या है ? गुरु महाराज ने कहा अन्योन्य सापेक्ष होने से ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा दोनों तत्त्व रूप हैं, क्योंकि यहाँ ग्रहण शिक्षा अर्थात् ज्ञान बिना आसेवन शिक्षा अर्थात् क्रिया सम्यग् नहीं होती और आसेवन शिक्षा बिना ग्रहण शिक्षा भी सफल नहीं होती। क्योंकि यहाँ श्रुतानुसार जो प्रवृत्ति वही सम्यक् प्रवृत्ति है, इसलिए यहाँ सूत्र, अर्थ के ग्रहण - ज्ञानपूर्वक जो क्रिया उसे मोक्ष की जनेता कहा है। और जो तप संयममय जो योग क्रिया को वहन नहीं कर सकता वह श्रुत ज्ञान में प्रवृत्ति करने वाला भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। कहा है कि "जैसे दावानल देखता हुआ भी पंगु होने से जलता है और दौड़ता हुआ भी अंध होने से जलता है वैसे क्रिया रहित ज्ञान और ज्ञान बिना की क्रिया भी निष्फल जानना' (यह विशेष आवश्यक का ११५९वाँ श्लोक है।) 'ज्ञान और उद्यम दोनों का संयोग सिद्ध होने से फल की प्राप्ति होती है' लोक में भी कहा जाता है कि 'एक चक्र से रथ नहीं चलता, अंधा और पंगु होने पर भी वन में दोनों परस्पर सहायक होने नगर में पहुँचते हैं।' 2' ज्ञान नेत्र समान 1. हयं नाणं किरिया हीणं हया अन्नाणओ किरिया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ।। १४५४ ।। 2. संजोग सिद्धीए फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । [ अंधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्टा || १४५५ || 66 For Personal & Private Use Only . Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - शिक्षा द्वार-मथुरा के मंगु आचार्य की कथा श्री संवेगरंगशाला है और चारित्र चलने की प्रवृत्ति समान है, दोनों का सम्यग् योग होने पर श्री जिनेश्वर देवों ने शिवपुर की प्राप्ति कही है।' इस तरह मुनियों के लिए भी दोनों शिक्षाओं के उपदेश का वर्णन किया है। श्रमणोपासक श्रावक को तो उसमें सविशेष प्रयत्न करना ही चाहिए। इसीलिए ही प्रशंसा की जाती है कि- वही पुरुष जगत धन्य है कि जो नित्य अप्रमादी ज्ञानी और चारित्र वाला है। क्योंकि परमार्थ के तत्त्व को अच्छी तरह जानने से और तप-संयम गुणों को अखण्ड पालने से कर्म समूह का नाश होते विशिष्ट गति - मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए चतुर पुरुष ज्ञान से प्रथम लक्ष्य पदार्थ का लक्ष्य जानकर फिर लक्ष्य के अनुरूप क्रिया का आचरण करें। यदि इसमें क्रिया रहित ग्रहण शिक्षा एक ही सफल होती हो तो श्रुतनिधि मथुरा के मंगु आचार्य भी ऐसी दशा को प्राप्त नहीं करते।।१४६१।। वह इस प्रकार है मथुरा के मंगु आचार्य की कथा मथुरा नगरी में युगप्रधान और श्रुतनिधान, हमेशा शिष्यों को सूत्र अर्थ पढ़ाने में नियत प्रवृत्ति वाले और भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने में परिश्रम की भी परवाह नहीं करने वाले, लोक प्रसिद्ध आर्यमंगु नामक आचार्य थें । परन्तु यथोक्त क्रियाएँ नहीं करने से, सुखशील बनें वे श्रावकों के रागी होकर तीन गारव के वश हो गयें, भक्तों द्वारा हमेशा उत्तम आहार, पानी, वस्त्र आदि मिलने से वे अप्रतिबद्ध विहार छोड़कर चिरकाल तक वहीं रहने लगें। उसके बाद साधुता में शिथिल आचार्य वह बहुत प्रमाद का सेवन कर और अपने दोषों की प्रायश्चित्त रूप शुद्धि नहीं करने से आयुष्य पूर्ण होने से मरकर अत्यन्त चंडाल तुल्य किल्विष यक्ष होकर उसी नगर के नाले के पास यक्ष के भवन में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए । विभंग ज्ञान से पूर्व जन्म को जानकर वह यक्ष चिंतन करने लगा कि अहो! पापी बनें मैंने प्रमाद से मदोन्मत्त होकर विचित्र अतिशयों रूपी रत्नों से भरे जिन शासन रूपी निधान को प्राप्तकर उसमें कही हुई क्रिया से परांगमुख बनकर उसे निष्फल गँवा दिया। मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल आदि सुधर्म के हेतुभूत सामग्री एवं प्रमाद से गँवायें हुए चारित्र को अब कहाँ प्राप्त करूँगा? हे पापी जीव ! उस समय शास्त्रार्थ के जानकार होते हुए भी तूंने ऋद्धि-रस और शाता गारव का विरसत्व क्या नहीं जाना था? अब चंडाल समान यह किल्विष देव भव को प्राप्तकर मैं दीर्घकाल तक विरति प्रधान धर्म के लिए अयोग्य बना। मेरे शास्त्रार्थ के परिश्रम को धिक्कार हो ! बुद्धि की सूक्ष्मता को धिक्कार हो ! और अत्यन्त परोपदेश पांडित्य को धिक्कार हो ! वेश्या के श्रृंगार के समान केवल दूसरे के चित्त को प्रसन्न करने के लिए हमेशा भावरहित क्रिया को भी धिक्कार हो । इस तरह वैरागी बनकर वह प्रतिक्षण अपने दुश्चारित्र की निन्दा करते कैदखाने में बन्द के समान दिन व्यतीत करने लगा। फिर उस मार्ग से हमेशा स्थंडिल जाते अपने शिष्यों को देखकर उनको प्रतिबोध करने के लिए वह यक्ष की प्रतिमा के मुख में से लम्बी जीभ बाहर निकालकर रहने लगा। प्रतिदिन उसे इस तरह करते देखकर मुनियों ने कहा कि - यहाँ पर कोई भी देव, यक्ष, राक्षस अथवा किन्नर हो जो हमें कहना हो वह प्रकट रूप से कहो, इस तरह तो हम कुछ भी नहीं समझ सकते। इससे खेदपूर्वक यक्ष ने कहा- हे तपस्वियों ! वह मैं क्रिया का चोर तुम्हारा गुरु आर्य मंगु हूँ। यह सुनकर उन्होंने खेदपूर्वक कहा - हा ! श्रुतनिधि! दोनों शिक्षा में अति दक्ष आपने नीच यक्ष की योनि को कैसे प्राप्त किया? यह महान आश्चर्य है। उसने कहा- हे महाभाग साधुओं! इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। सद्धर्म की क्रिया के कार्यों में शिथिल, श्रावकों में राग करने वाला, ऋद्धि, रस और शाता गारव से भारी बना, शीतल विहारी, मेरे जैसे रसनेन्द्रिय से हारे हुए की यही गति होती है। इस तरह 67 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- शिक्षा द्वार- अंगारमर्दक आचार्य की कथा-ग्रहण- आसेवन शिक्षा के भेद मेरी कुत्सित देवयोनि को जानकर हे महासात्त्विक साधुओं! यदि सद्गति का प्रयोजन हो तो दुर्लभ संयम को प्राप्तकर तुम प्रमाद के त्यागी बनों, काम रूपी यौद्धा को जीतने वाले, चरण-करण गुण में रक्त, ज्ञानियों की विनय भक्ति करने वाले, ममत्व के त्यागी और मोक्ष मार्ग में आसक्त होकर उपधि, आहार आदि अल्प लेकर प्राणियों की रक्षा करते विचरण करों । शिष्यों ने कहा- भो देवानुप्रिय ! आपने हमें अच्छे जागृत किये, ऐसा कहकर मुनि संयम में उद्यमशील बनें। इस तरह आसेवन शिक्षा के बिना पूर्ण ग्रहण शिक्षा भी किसी रूप में सद्गति वांछित फल साधक नहीं बनती है, और सम्यग् ज्ञान बिना की आसेवन शिक्षा भी सम्यग् ज्ञान बिना के अंगार मर्दक के समान हितकर नहीं । । १४८७ ।। उसकी कथा इस प्रकार है : अंगारमर्दक- आचार्य की कथा गर्जनक नाम का नगर था, वहाँ उत्तम साधुओं के समुदाय से युक्त सद्धर्म में परायण श्रीविजयसेनसूरिजी मासकल्प से स्थिर रहे थें । रात्री के अंतिम समय में उनके शिष्यों ने स्वप्न देखा कि 'निश्चय से पाँच सौ हाथीओं बच्चों से शोभित सूअर ने मकान में प्रवेश किया ।' उसके बाद विस्मित मन वाले उन्होंने स्वप्न का भावार्थ सूरिजी से पूछा। उन्होंने कहा- हाथी समान उत्तम साधुओं के साथ में सूअर के समान अधम गुरु आयेगा । फिर सूर्य उदय हुआ तब सौम्य ग्रहों के साथ शनि के समान और कल्पवृक्षों के खण्ड समूह में एरण्डवृक्ष समान पाँच सौ मुनियों के साथ रुद्रदेव नाम के आचार्य आयें। साधुओं ने उनकी सर्व उचित सेवा भक्ति की, फिर सूअर की परीक्षा के लिए स्थानिक मुनियों ने गुरु के कहने से रात में मात्रा परठने की भूमि पर कोयले डलवाकर, गुप्त प्रदेश में खड़े होकर देखते रहें, साधक साधु जब मात्रा की भूमि चले तब कोयले पर पैर का आक्रमण होने से किसकिस इस तरह शब्द उत्पन्न हुआ। उसे सुनकर ही खेद करने लगे। बार-बार मिच्छा मि दुक्कडं देकर हा ! ऐसा यहाँ क्या हुआ? ऐसा बोलते कोयले के उस किस-किस आवाज के स्थान पर 'यहाँ क्या है? वह सुबह सूर्य उदय के पश्चात् देखेंगे' ऐसी बुद्धि से निशानी लगाकर जल्दी ही वापिस लौट आयें, उसके बाद उनके गुरु वह किस-किस शब्द होने से प्रसन्न हुए 'अहो ! श्री जिनेश्वरों ने इसमें भी जीव कहा है।' ऐसा बोलते जिन की हंसी करते कोयले को पैर से जोर से दबाते हुए मात्रा की भूमि में गये, और यह बात उन शिष्यों ने अपने आचार्य को कही, उन्होंने भी कहा - हे तपस्वियों ! वह यह गुरु सूअर समान और उसके शिष्य महामुनि हाथी के बच्चों के समान हैं। उसके बाद प्रसंग पर श्री विजयसेन सूरिजी ने श्रेष्ठ साधुओं को जैसा देखा था वैसा हेतु और युक्तियों से समझाकर कहा कि । । १५०० । । - भो महानुभावों! यह तुम्हारा गुरु निश्चित ही अभव्य है, अतः यदि मोक्ष की अभिलाषा वाले हो तो शीघ्रमेव इसका त्याग करो। क्योंकि उल्टे पंथ पर चढ़े हुए मन्द बुद्धि वाले गुरु का भी त्याग नहीं करने से, उन्हें दोष का प्रसंग आता है। इसलिए विधिपूर्वक उसका त्याग करना योग्य है। ऐसा सुनकर उन्होंने उपायपूर्वक शीघ्र उसे छोड़ दिया और उग्रतप विशेष करते उन्होंने देव लक्ष्मी स्वर्ग को प्राप्त की। वह अंगारमर्दक पुनः कष्टकारी क्रियाओं में तत्पर होने पर भी सद्ज्ञान रहित होने से चिरकाल संसार में दुःखी हुआ । इसलिए हे देवानुप्रिय ! आराधना की इच्छा करने वाले तुम ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा रूप दोनों शिक्षाओं में भी सम्यक् प्रयत्न करो। ग्रहण - आसेवन शिक्षा के भेद : इस तरह उस उभय शिक्षा के पुनः दो-दो भेद होते हैं, एक सामान्य आचरण स्वरूप और दूसरा 1. जम्हा गुरुणो वि हु उप्पहम्मि लग्गस्स मुढबुद्धिस्स । चागो विहिणा जुत्तो, इहरा दोसप्पसंगाओ || १५०२ ।। 68 For Personal & Private Use Only . Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-शिक्षा द्वार-साधु अ गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म 'श्री संवेगरंगशाला सविशेष आचरण स्वरूप है, उस प्रत्येक के भी (१) साधु सम्बन्धी और (२) गृहस्थ सम्बन्धी दो प्रकार का जानना। इसमें प्रथम गृहस्थ की सामान्य आचार रूप आसेवन शिक्षा को कहता हूँ। साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म : लोक निन्दा करे ऐसे व्यापार का त्याग, मन कलुषित-रहित, सद्धर्म क्रिया के परिपालन रूपी धर्म रक्षण में तल्लीन, शंख की कान्ति समान निष्कलंक, महासमुद्र सदृश गम्भीर अर्थात् हर्ष, शोक से रहित, चन्द्र की शीतल चाँदनी समान, कषाय रहित जीवन, हिरनी के नेत्र समान निर्विकारमय निर्मल आँखों वाला और ईख की मधुरता सदृश जगत में प्रियता, व्यवहार शुद्धि इत्यादि जिनोक्त मार्गानुसारी जो कि उत्तम श्रावक कुल में जन्म के प्रभाव से श्रावक को सहज सिद्ध होती है, फिर भी इस तरह इन गुणों में विशेषता जानना। ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध की सेवा, शास्त्र का अभ्यास, परोपकारी उत्तम चारित्र वाले मनुष्यों की प्रशंसा, दाक्षिण्य परायणता, उत्तम गुणों का अनुरागी, उत्सुकता का त्याग, अक्षुद्रत्व, परलोक भीरुता, सर्वत्र क्रोध का त्याग, गुरु, देव और अतिथि की सत्कार पूजादि, पक्षपात बिना न्याय का पालन, झूठे आग्रह का त्याग, अन्य के साथ स्नेहपूर्वक वार्तालाप, संकट में सुंदर धैर्यता, सम्पत्ति में नम्रता, अपने गुणों की प्रशंसा सुनकर लज्जा, आत्म-प्रशंसा का त्याग, न्याय और पराक्रम से सुशोभित लज्जालुता, सुंदर दीर्घदर्शिता, उत्तम पुरुषों के मार्ग का आचरण करने वाला, स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा परिपूर्ण पालन करने में समर्थ, प्राणान्त में भी उचित मर्यादा का पालन करने वाला, आसानी से प्रसन्न कर सके ऐसी सरलता, जन-प्रियत्व, परपीड़ा का त्याग, स्थिरता, सन्तोष ही धन वाला, गुणों का लगातार अभ्यास, परहित में एकाग्रता, विनीत स्वभाव, हितोपदेश का आश्रय स्वीकार करने वाला, माता-पिता आदि गुरु वर्ग का और राजा आदि के अवर्णवाद वगैरह नहीं बोलने वाला इस लोक-परलोक के अपाय आदि का सम्यग् रूप से चिंतन करने वाला इत्यादि इस लोक-परलोक में हितकारी गुण समूह को श्रावकों को हमेशा प्रयत्नपूर्वक आत्मा में स्थिर करना चाहिए। इस तरह यह सामान्य आचारों की आराधना गृहस्थ के लिए है, यह सामान्य गुण विशेष आचार में मुख्य हेतु होने से निश्चय ही उन गुणों की सिद्धि में प्रयत्न करते विशेष आचारों की भी सिद्धि हो सकती है। यहाँ प्रश्न होता है कि सामान्य गुणों में आसक्त मनुष्य विशेष गुणों में कैसे समर्थ हो सकते हैं? सरसों को भी उठाने में असमर्थ हो वह मेरुपर्वत को नहीं उठा सकता है। इसका उत्तर देते हैं कि-लोक स्थिति में प्रधान उत्तम साधु भी इसी तरह अपनी भूमिका (शक्ति अनुसार) के योग्य सर्वप्रथम सामान्य आचरण रूप आराधना करे फिर सविशेष आचरण स्वरूप-आसेवन शिक्षा का आचरण करे। (अतः उपरोक्त सामान्य आचरण साधु के लिए भी अपनी साधु चर्या के अनुरूप आचरणा करे।) पूर्व में सूचित उत्तम श्रावक और साधु को दो प्रकार की भी विशेष आसेवन शिक्षा को सम्यग् विभाग संक्षेप में कहा जाता है ।।१५२३।। उसमें भी सामान्य आसेवन शिक्षा के पालन करने से सविशेष योग्यता को प्राप्त करता है। श्री जिनेश्वर भगवान के मत का सम्यग् जानकार गृहस्थ की विशेष आसेवन शिक्षा प्रथम कही जाती है। वह इस प्रकार है :गृहस्थ का विशिष्ट आचार धर्म : प्रतिदिन बढ़ते शुभ परिणाम, (गृहस्थ) घर वालों पर की आसक्ति के परिणाम को अहितकर जानकर, आयुष्य, यौवन और धन को महावायु से डगमगाता केले के पत्ते पर लगे जल बिन्दु के समान क्षण विनश्वर मानकर, स्वभाव से ही विनीत, स्वभाव से ही भद्रिक, स्वभाव से ही परम संवेगी, प्रकृति से ही उदार चित्त वाला, और प्रकृति से ही यथाशक्ति उठाये हुए भार (कार्य) वहन करने में धोरी वृषभ समान, बुद्धिमान सुश्रावक 69 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-शिक्षा द्वार-साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म सदा साधर्मिक वात्सल्य में, जीर्ण मंदिरों के उद्धार कराने में, और परनिन्दा के त्याग में प्रयत्न करें। तथा निद्रा पूरी होते ही पंचपरमेष्ठी महामंगल का स्मरण करके अपनी स्थिति अनुसार धर्म जागरण पूर्वक उठकर लघुशंकादि समयोचित करे फिर गृह मंदिर में संक्षेप से श्री जिन प्रतिमाओं को वंदन करके साधु की वसतिउपाश्रय में जाये और वहाँ आवश्यक प्रतिक्रमण आदि करें। इस प्रकार करने से - (१) श्री जिनेश्वर की आज्ञा का सम्यग् पालन, (२) गुरु परतन्त्रता (विनय), (३) सूत्र - अर्थ का विशेष ज्ञान, (४) यथास्थित सामाचारी (आचार) में कुशलता, (५) अशुद्ध मिथ्यात्व बुद्धि का नाश और गुरु साक्षी में धर्म क्रिया करने से सम्पूर्ण विधि का पालन होता है। अथवा साधुओं का योग न हो या वसति उपाश्रय में जगह का अभाव आदि कारण से गुरु आज्ञा से पौषधशालादि में भी करें, फिर समय अनुसार स्वाध्याय करके नये सूत्र का भी अभ्यास करें, फिर वहाँ से निकलकर द्रव्य भाव से निर्मल बनकर प्रथम अपने घर में ही नित्य सूत्र विधिपूर्वक चैत्यवंदन और वैभव के अनुसार पूजा करें। उसके बाद वैरागी उत्तम श्रावक यदि उसे ऐसा कोई घर कार्य न हो तो उसी समय ही शरीर शुद्धि स्नान करके उत्तम श्रृंगार सजकर, पुष्पों आदि से विविध पूजा की सामग्री के समूह को हाथ में उठाकर परिवार को साथ लेकर श्री जिनमंदिर में जाये और पाँच प्रकार के अभिगम का पालन करते हुए विनय पूर्वक वहाँ प्रवेश कर विधिपूर्वक सम्यक् श्रेष्ठ पूजा करें। फिर जय वीयराय तक सम्पूर्ण देववंदन करें। फिर किसी कारण से प्रातः सामायिक आदि साधु के पास नहीं करने से, जैन भवन के मण्डप में, अपने घर में, अथवा पौषधशाला में सामायिक प्रतिक्रमण आदि की क्रिया की हो तो साधुओं के पास जाकर वंदनपूर्वक सम्यक् पच्चक्खाण करें और समय अनुसार श्री जिनवाणी का श्रवण करें। बाल मुनि, ग्लान साधु आदि साधुओं के विषय में सुखशाता आदि पूछे और उनके करने योग्य औषधादि समग्र कार्य यथायोग्य भक्तिपूर्वक पूर्ण करें। उसके बाद आजीविका के लिए कुल क्रम के अनुसार जिससे लोग में निन्दा न हो और धर्म की निन्दा न हो इस प्रकार व्यापार करें। भोजन के समय घर आकर स्नानादि करके श्री संघ के मंदिर में पुष्पादि से अंगपूजा, नैवद्यादि से अग्रपूजा, वस्त्रादि से सत्कार पूजा और उत्तम भाववाही स्तोत्रों से भावपूजा इस तरह चार प्रकार की पूजा द्वारा विधिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा की सम्यग् रूप में पूजा करें फिर साधु के पास जाकर ऐसी विनती करें कि - 'हे भगवंत ! आप मुझ ऊपर अनुग्रह करें।' जगजीव वत्सल आप अशनादि वस्तुओं को ग्रहण कर, संसार रूपी कुएं में गिरते हुए मुझे हाथ का सहारा दें। फिर साधुओं को साथ ले चलें, चलते समय साधु के पीछे-पीछे चलें। इस तरह घर के द्वार तक जाये इस समय दूसरे स्वजन भी दरवाजे से बाहर सामने आये वे सभी उनको वंदन करें, फिर दानरूचि की श्रद्धावाला श्रावक भी गुरु के पैरों की प्रमार्जना करें, और प्रमार्जन की हुई भूमि पर आसन पर बैठने की विनती करके विधिपूर्वक संविभाग करे (दान दें) फिर वंदनपूर्वक विदा कर वापिस घर आकर पितादि को भोजन करवाकर पशु, नौकर आदि की भी चिन्ता - सम्भाल लेकर उनके योग्य खाने की व्यवस्था कर, अन्य गाँव से आये हुए श्रावकों की भी चिन्ता कर (व्यवस्था) और बीमार व्यक्तियों की सार संभालकर फिर उचित स्थान पर उचित आसन पर बैठकर, अपने पच्चक्खाण को यादकर पच्चक्खाण को पारें (पूर्ण करें) श्री नवकार मंत्र को गिनकर भोजन करें। भोजन करने के बाद विधिपूर्वक घर मंदिर की प्रतिमाजी के आगे बैठकर चैत्यवंदन करके तिविहार आदि पच्चक्खान करें। फिर समय अनुसार स्वाध्याय और कुछ नया अभ्यासकर, पुनः आजीविका के लिए अनिंदनीय व्यापार करें, शाम के समय में पुनः अपने घर मंदिर में श्री जिनेश्वर की पूजा करके उत्तम स्तुति, स्तोत्रपूर्वक वंदन भी करे, फिर संघ के श्री जिनमंदिर में जाकर जिनबिम्बों की पूजाकर चैत्यवंदन करे और प्रातःकाल में कहा था उस प्रकार शाम को भी सामायिक प्रतिक्रमणादि करें। वह प्रतिक्रमणादि यदि साधु नहीं करे तो फिर साधु के उपाश्रय में जाये वहाँ वंदना आलोचना और क्षमापना करके पच्चक्खाण स्वीकार करें के पास 70 For Personal & Private Use Only . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - शिक्षा द्वार-साधु का विशिष्ट आचार धर्म श्री संवेगरंगशाला और समय अनुसार धर्मशास्त्र का श्रवण करे, साधुओं की शरीर सेवा आदि भक्तिपूर्वक विधि से करें । संदिग्ध शब्दों का अर्थ पूछकर और श्रावक वर्ग का भी औचित्यकर घर जायें विधिपूर्वक शयन करें, और देव गुरु का स्मरण करें। उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करें अथवा मैथुन का अमुक समय आदि नियम पूर्वक प्रमाण करें, फिर कंदर्प आदि का त्यागकर के एकान्त स्थान में शयन करें ।। १५५८।। ऐसा होने पर भी गाढ़ मोहोदय के वश यदि किसी तरह अधम योग कार्य में प्रवृत्ति करें तो भी मोह का विकार वेग शान्त होने के बाद भावपूर्वक इस प्रकार चिन्तन-मनन करें - मोह दुःख और सर्व अनर्थों का मूल है इसके वश में पड़ा हुआ प्राणी हित को अहित मानता है। और जिसके वश पड़ा हुआ मनुष्य स्त्रियों के असार भी मुख आदि को चन्द्र आदि की उपमा देता है। उस मोह को धिक्कार हो । स्त्री शरीर का वास्तविक स्वरूप का इस प्रकार चिंतन करे कि जिससे मोह शत्रु को जीतने से संवेग का आनन्द उछले साथ रहना, वह इस प्रकार "स्त्रियों का जो मुख चन्द्र की कान्ति समान मनोहर कहलाता है, परन्तु वह गन्दा मैल का झरना ( दो चक्षु, दो कान, दो नाक और एक मुख रूप ) सात स्रोत से युक्त हैं बड़े और गोल स्तन मांस से भरा हुआ पिंड है, पेट अशुचि की पेटी है और शेष शरीर भी मांस हड्डी और नसों की रचना मात्र है। तथा शरीर स्वभाव से ही दुर्गंधमय मैल से भरा हुआ, मलिन और नाश होने वाला है। प्रकृति से ही अधोगति का द्वार, घृणाजनक और तिरस्कार करने योग्य है। और जो गुह्य विभाग है वह भी अति लज्जा उत्पन्न कराने वाला, अनिष्ट रूप होने से उसे ढांकने की जरूरत पड़ती है, फिर भी उसमें जो मोह करता है तो खेद की बात है कि वह मनुष्य अन्य कौन से निमित्त द्वारा वैराग्य प्राप्त करेगा? ऐसे दोष वाली स्त्रियों के भोग में जो वैरागी है वे ही निश्चय से जन्म, जरा और मरण को तिलाञ्जली देते हैं। इस तरह जिस निमित्त से जीवन में गुणघात होता हो उसके प्रतिपक्ष को, प्रथम और अंतिम रात्री के समय में सम्यग् रूप से चिंतन-मनन करें, विशेष क्या कहें? श्री तीर्थंकर की सेवा, पंचविध आचार रूपी धन वाले गुरु की भक्ति, सुविहित साधुजन की सेवा, समान या अधिक गुणीजनों के नये नये गुणों को प्राप्त करना, श्रेष्ठ और अति श्रेष्ठ नये-नये श्रुत का अभ्यास करना, अपूर्व अर्थ का ज्ञान और नयी-नयी हित शिक्षा प्राप्त करनी, सम्यक्त्व गुण की विशुद्धि करनी, यथाग्रहित व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, स्वीकार किये धर्म रूपी गुणों का विरोध न हो इस तरह घर कार्य करना । धर्म में ही धन की बुद्धि करना, साधर्मिकों में ही गाढ़ राग रखना, और शास्त्रकथित विधि का पालन करते हुए अतिथि को दान देने के बाद शेष रहा भोजन करना। इस लोक के लौकिक कार्यों में शिथिलता - अनादर, परलोक की आराधना में एकरसता आदर, चारित्र गुण में लोलुपता, लोकापवाद हो ऐसे कार्यों में भीरुता, और संसार - मोक्ष के वास्तविक गुण दोष की भावना के अनुसार प्रत्येक प्रसंग पर सम्यक्तया परम संवेग रस का अनुभव करना । सर्व कार्य विधिपूर्वक करना। श्री जैनशासन द्वारा परम शमरस की प्राप्ति और संवेग का सारभूत सामायिक, स्वाध्याय तथा ध्यान एकाग्रता लाना, इत्यादि उत्तर गुण समूह की सम्यग् आराधना करने में अतृप्त रहते हुए बुद्धिमान कुलिन गृहस्थ समय को व्यतीत करें, इससे जैसे कोई धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाते महान पर्वत पर चढ़ जाता है वैसे धीर पुरुष आराधना रूपी पर्वत पर सम्यक् समारूढ़ हो जाता है। इस प्रकार धर्म के अर्थी गृहस्थ का विशेष आचार यहाँ तक कहा हैं।" अब साधु सम्बन्धी विशेष आसेवन शिक्षा संक्षेप में कहते हैं ।। १५७८।। :साधु का विशिष्ट आचार धर्म : सिद्धान्त के ज्ञाताओं ने कही हुई केवल साधु की जो प्रतिदिन की क्रिया है उसे ही विशेष आसेवन क्रिया For Personal & Private Use Only 71 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-विनय नामक चौथा द्वार भी कहते हैं वह इस प्रकार जानना :- प्रतिलेखना, प्रमार्जना, भिक्षाचर्या, आलोचना, भोजन, पात्र धोना, विचार (मात्रा), स्थंडिल (ठल्ले) शुद्धि और प्रतिक्रमण करना इत्यादि। और 'इच्छाकार-मिथ्याकार' आदि उपसंपदा तक की सुविहित जन के योग्य दस प्रकार की सामाचारी का पालन करें, स्वयं अध्ययन करें, दूसरे को अध्ययन करावें, और तत्त्व का भी प्रयत्न से चिन्तन करें, यदि इस विशेष आचारों में आदर न हो तो वह मनि व्यसनी है--अर्थात् मिथ्यात्वी है। इस तरह गुण दोष की परीक्षा कर तथा ग्रहण शिक्षा रूप ज्ञान को प्राप्तकर प्रतिक्षण आसेवन शिक्षा के अनुसार सेवन करना। इस प्रकार सामान्यतया धर्म के सर्व अर्थों का पालन करना। इन अवान्तर भेदों सहित यदि दोनों प्रकार की शिक्षा कही है उससे युक्त हो तो आराधना में एक चित्तवाले का तो क्या पूछना? धर्मार्थी को भी पूर्व के आचारों के दृढ़ अभ्यास बिना इस तरह विशेष आराधना नहीं हो सकती। इस कारण से उस विशेष आराधना के अर्थों को सर्व प्रकार से जानकर, इन शिक्षाओं में प्रयत्नपूर्वक यत्न करना चाहिए। अब इस विषय में अधिक क्या लिखें? इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वारों वाली आराधना रूपी संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार का यह तीसरा शिक्षा द्वार भेद प्रभेदपूर्वक सम्पूर्ण हुआ। पूर्वोक्त दोनों शिक्षाओं में चतुर हो परन्तु विनय बिना आराधना कृतार्थ नहीं होती है। अतः अब विनय द्वार कहते हैं ।।१५८९।। विनय नामक चौथा द्वार : विनय पाँच प्रकार का होता है प्रथम ज्ञान विनय, दूसरा दर्शन विनय, तीसरा चारित्र विनय, चौथा तप विनय और अंतिम पाँचवां उपचार विनय है। उसमें ज्ञान का विनय (१) काल, (२) विनय, (३) बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिन्हवण तथा (६) व्यंजन, (७) अर्थ और (८) तदुभय इस तरह आठ प्रकार का है। दर्शन विनय भी (१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्वितिगिच्छा, (४) अमूढ़ दृष्टि, (५) उपबृंहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। ये आठ प्रकार से जानना। प्रणिधानपूर्वक जो तीन गुप्ति और पाँच समितियों के आश्रित उद्यम करना वह आठ प्रकार का चारित्र विनय है। तप में तथा तप के रागी तपस्वियों में भक्तिभाव, दूसरे उन तपस्वियों की हीलना करने का त्याग और शक्ति अनुसार तप का उद्यम करना। यह तप विनय जानना। औपचारिक विनय :- कायिक, वाचिक और मानसिक यह तीन प्रकार का है। वह प्रत्येक भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इस तरह दो भेद हैं। इसमें गुण वाले के दर्शनमात्र से भी खड़ा होना, सात-आठ कदम आने वाले के सामने जाना, विनयपूर्वक दो हाथ जोड़कर अंजलि करना, उनके पैरों का प्रमार्जन करना, आसन देना और उनके बैठने के बाद उचित स्थान पर स्वयं बैठना इत्यादि कायिक विनय जानना। अधिक ज्ञानी का गौरव बढ़े ऐसे वचन कहकर उनके गुणों का कीर्तन करना वह वाचिक विनय होता है और उनके विषय अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा करनी वह मानसिक विनय जानना ।।१६०० ।। उसमें आसन देना इत्यादि प्रत्यक्ष किया जाता है इसलिए यह प्रत्यक्ष विनय और गुरु के विरह-अभाव में भी उन्होंने कही हुई विधि में प्रवृत्ति करना वह परोक्ष विनय कहलाता है ।।१६००।। इस प्रकार अनेक भेद वाले विनय को अच्छी तरह जानकर आराधना के अभिलाषी धीर पुरुष उस विनय का सम्यग् आचरण करें-क्योंकि जिसके पास से विद्या पढ़नी हो या जिनके पास अध्ययन किया हो उन 1. १. इच्छाकार, २. मिथ्याकार, ३. तथाकार, ४. आवश्यकी, ५. नैषेधिकी, ६. आपृच्छना, ७. प्रतिपृच्छना, ८. छंदणा, ६. निमंत्रणा, १०. उपसंपदा। क्रम में फेर भी है। 72 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - विनय द्वार - विनय पर श्रेणिक राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला धर्म गुरु का अविनय से यदि पराभव करता है तो उसे वह अच्छी तरह ग्रहण की हुई भी विद्या लाभदायक नहीं होती है । परन्तु दुःखरूप फल देने वाली होती है, और यदि गुरु ने उपदेश दिये हुए विनय को, हितशिक्षा को, भावपूर्वक स्वीकार करता है, उस पर आचरण करता है, तो वह मनुष्य सर्वत्र विश्वासपात्र, तत्त्वातत्त्व का निर्णय करने वाला और विशिष्ट बुद्धि को प्राप्त करता है। कुशल पुरुष साधु अथवा गृहस्थ के विनय की प्रशंसा करते हैं। क्योंकि सर्व गुणों का मूल विनय है अविनीत मनुष्य लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता है। कई विनय को जानते हुए भी कर्म विपाक के दोष से राग द्वेष के आधीन पड़े हुए लोग विनय करना नहीं चाहते हैं। विनय लक्ष्मी का मूल है, विनय समस्त सुखों का मूल है, विनय निश्चय धर्म का मूल है और विनय कल्याणमोक्ष का भी मूल है । । १६०६ ।। विनय रहित का सारा अनुष्ठान निरर्थक है, विनय वाले का वह सारा अनुष्ठान सफलता को प्राप्त करता है। तथा विनय रहित को दी हुई सारी विद्या- शिक्षा भी निरर्थक जाती है। शिक्षा का फल विनय और विनय का फल सर्व में मुख्यता है । विनय से दोष भी गुणस्वरूप बनते हैं। अविनीत के गुण भी दोष रूप होते हैं। सज्जनों के मन को रंजन करने वाली मैत्री भी विनय से होती है। माता-पिता भी विनीत को सम्यग् गुरुत्व रूप देखते हैं और खेदजनक है कि अविनीत को माता-पिता भी शत्रुरूप देखते हैं। विनयोपचार करने से अदृश्य रूप देवादि भी दर्शन देते हैं, अविनय से नाराज हुए पास में रहे भी वे शीघ्र दूर जाते हैं । प्रसूत गाय अपने बछड़े को देखकर जैसे अति प्रसन्न होती है, वैसे पत्थर के समान कठोर हृदय वाला और तेजोद्वेषी - असहिष्णु मनुष्य भी विनय से शीघ्र प्रसन्न होता है । विनय से विश्वास, विनय से सफल प्रयोजन की सिद्धियाँ और विनय से ही सर्व विद्याएँ भी सफल बन जाती हैं। गुरु का पराभव करने वाली बुद्धि रूपी दोष से ग्रसित सुशिक्षित होने पर भी अविनीत व्यक्ति की विद्या नाश होती है। कदाच वह विद्या नाश न हो तो भी गुणकारक नहीं होती है। अविनीत को विद्या दान देने से गुरु भी उपालम्भ प्राप्त करता है, अपने कार्य को नष्ट करता है और अविनीतपने से स्वयं विनाश को भी प्राप्त होता है। तथा अच्छे कुल में जन्मी हुई कुल बालिका श्रेष्ठ पति को स्वीकारकर समान पति के बल को प्राप्त करती है, वैसे विनयवान पुरुष को ग्रहण की हुई विद्या भी बलवान बनती है। गुरु का पराभव करने वाले दुर्विनीत में विद्या प्रवेश नहीं करती है श्रेणिक राजा के समान । जब वही श्रेणिक राजा विनीत बनता है तब उसमें विद्या प्रवेश करती है ।। १६१७ ।। उसका दृष्टान्त इस प्रकार है : विनय पर श्रेणिक राजा की कथा राजगृह नगर में इन्द्र के समान प्रशंसा फैलाने वाला सम्यक्त्व की स्थिरता में दृढ़ अभ्यासी और वैसी ही बुद्धि वाला श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी सब रानियों में मुख्य चेलणा नामक रानी और चार प्रकार की बुद्धि से समृद्धशाली अभयकुमार नाम का उनका ही पुत्र मन्त्री था । एक समय रानी ने राजा से कहा- मेरे लिए एक स्तम्भ वाला महल बनाओ, रानी के अति आग्रह से संतप्त हुए राजा ने उसकी बात स्वीकार की और अभय कुमार को वह कार्य करने का आदेश दिया। उसके बाद मन्त्री अभय कुमार स्तम्भ के लिए सुथार को साथ लेकर अटवी में गया और वहाँ हरा, अति बड़ी शाखाओं वाला एक वृक्ष देखा। अभयकुमार यह देव से अधिष्ठित वृक्ष होगा, ऐसा मानकर उपवास करके विविध पुष्पों और धूपों से उस वृक्ष को अधिवासित किया। फिर उसकी बुद्धि से प्रसन्न हुए उस वृक्ष में रहनेवाले यक्ष देव ने रात्री के अन्दर सोये हुए अभय को कहा है महानुभाव! इसका तूं छेदन मत करना, तूं अपने घर जा, मैं सर्व ऋतु के वृक्ष, फल और पुष्पों से मनोहर बाग से सुशोभित, एक स्तम्भवाला महल बना दूँगा । देव के मना करने पर अभय कुमार सुथार को लेकर अपने स्थान पर पहुँचा, और देव ने आरामदायक महल बनाया। उस महल में रानी के साथ विविध क्रीड़ा करते प्रीतिरूप 1. विणओ सिरीण मूलं विणओ मूलं समत्थ सोक्खाणं । विणओ हु धम्ममूलं विणओ कल्लाणमूलं ति ।।१६०६ ।। For Personal & Private Use Only 73 . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-विनय द्वार-विलय पर श्रेणिक राजा की कथा समुद्र में डूबे हुए राजा के दिन व्यतीत होने लगें। किसी दिन उस नगर में रहते एक चंडाल की पत्नी ने गर्भ धारण किया, गर्भ के प्रभाव से उसको एक दिन (बिना ऋतु) आम फल खाने का दोहद उत्पन्न हुआ, परन्तु वह दोहद पूर्ण नहीं होने से उसके सर्व अंग प्रतिदिन क्षीण होते देखकर चंडाल ने पूछा-हे प्रिया! तुम क्षीण क्यों हो रही हो? तब उसने परिपक्व आम फल का दोहद बतलाया। चंडाल ने कहा-आम फल का यद्यपि इस समय काल नहीं है फिर भी हे सुतनु! कहीं से भी वह मैं लाकर दूंगा, तूं धैर्य धारण कर। उसके बाद उस चंडाल ने राजा का एक बाग सर्व ऋतु के फलवाला है ऐसा सुना और बाहर खड़े होकर उस उद्यान को देखते उसमें एक पके हुए फल वाला आमवृक्ष देखा, फिर रात्री होने के बाद उसने अवनामिनी (नमानेवाली) विद्या द्वारा शाखा को नमाकर आम फल ले लिये और पुनः उत्तम प्रत्यवनामिनी विद्या से उस शाखा को अपने स्थान पर पहुँचाकर प्रसन्न होता हुआ घर जाकर उसने वे फल पत्नी को दिये और पूर्ण दोहद वाली वह गर्भ को धारण करने लगी। उसके बाद प्रातः अन्य वृक्षों का अवलोकन करते राजा ने आमवृक्ष को फल के बिना देखकर बागवान से पूछा-इस पेड़ से आम फल किसने लिये हैं? उसने कहा-हे देव! निश्चय यहाँ पर कोई मनुष्य नहीं आया, तथा जाते-आते किसी के पैर भी पृथ्वी तल में नहीं दिखते हैं इससे हे देव! यह आश्चर्य है? जिसको ऐसा अमानुषी सामर्थ है उसे कुछ भी अकरणीय नहीं है, वह सब कुछ कर सकता है। ऐसा विचारकर श्रेणिक ने अभय को कहा-हे पुत्र! इस प्रकार के कार्य करने में समर्थ चोर को जल्दी पकड़ो। क्योंकि आज जैसे फलों की चोरी की है वैसे किसी दिन मेरी रानी का भी हरण करेगा? मस्तक द्वारा भूमितल स्पर्श करते अभय कुमार 'महा प्रसाद' ऐसा कहकर आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाकर तीन रास्ते में, चार रास्ते में, चौक आदि स्थान पर सावधानी पूर्वक खोज करने लगा, इस तरह कई दिन बीत गये, परन्तु चोर का कोई पता नहीं लगा तब अभयकुमार अत्यन्त चिंतातुर हुआ इतने में किसी नट ने नगर के बाहर नाटक आरम्भ किया वहाँ बहुत मानव समूह एकत्रित हुआ, अभयकुमार ने भी वहाँ जाकर स्वभाव जानने के लिए कहा-हे मनुष्यों! जब तक नाट्यकार नहीं आता है तब तक एक बात सुनाता हूँ। उन्होंने भी कहा-हे नाथ! सुनाइए, तब अभयकुमार कहने लगा बसन्तपुर नगर में जीर्ण नाम का सेठ था। उसकी एक पुत्री थी। दरिद्रता के कारण पिता ने उसकी शादी नहीं की, इससे वह बड़ी उम्र में वर के प्रयोजन से कामदेव की पूजा करने लगी। एक दिन पूजा के लिए उद्यान में से चोरी से फूलों को चुनती उसे देखकर माली ने कुछ विकारपूर्वक उसे बुलाया, उसने उससे कहा-क्या तुझे मेरे समान बहन बेटी नहीं है कि जिससे कुमारी अवस्था में भी मुझे ऐसा कह रहा है? उसने कहा कि-यदि तूं विवाह बाद पति के सेवन से पहले मेरे पास आयगी तो तुझे छोडूंगा अन्यथा नहीं जाने दूंगा। 'हाँ मैं ऐसा करूँगी' ऐसा स्वीकार करके वह अपने घर गयी, फिर किसी दिन प्रसन्न होकर कामदेव ने उसे सुंदर वर रूप में मन्त्री पुत्र दिया, और अति श्रेष्ठ लग्न के समय हस्तग्रह योग में उसने उसके साथ विवाह किया। उस समय सूर्य का बिम्ब अस्ताचल पर पहुँच गया ।।१६५०।। फिर काजल और भ्रमर के समान कान्तिवाली अति अंधकार की श्रेणी सर्व दिशाओं में फैल गयी, उसके बाद रात्री विकासी कुमुद के खण्ड की जड़ता को दूर करने वाला चन्द्र मण्डल का उदय हुआ, विविध मणिमय भूषणों से शोभित मनोहर सर्व अंगोंवाली वह वास भवन में पहुँची और पतिदेव को निवेदन किया कि-'विवाह के बाद पहले मेरे पास आना' ऐसा माली का वचन उस समय मैंने स्वीकार किया था, इसलिए-हे प्रियतम! मैं वहाँ जाती हूँ, आप आज्ञा दीजिए। 'यह सत्य प्रतिज्ञा वाली है' ऐसा सोचकर पति ने आज्ञा दे दी, फिर श्रेष्ठ आभूषणों से युक्त उसे नगर के बाहर जाते देखकर एक चोर ने 'आज तो महानिधान 74 For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-विनय द्वार-विनय पर श्रेणिक राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला मिला है' ऐसा बोलकर उसे पकड़ा और उसने अपनी बात कही, चोर ने कहा-हे सुतनु! जाओ, परन्तु शीघ्र वापिस आना कि जिससे तेरी चोरी कर चला जाऊँ 'ऐसा ही करूँगी' ऐसा कहकर वह चली, फिर आधे मार्ग में चपल पुतली से आकुल उछलती आँखों की कटाक्ष वाला, रणकार करते महान दाँत वाला, अत्यन्त फाड़ा हुआ भयंकर मुखरूपी गुफा वाला 'आओ-आओ, बहुत समय से भूखा हूँ आज तूं मुझे मिली है' ऐसा बोलते अत्यन्त भयंकर शरीर वाला अति दुःप्रेक्ष्य एक राक्षस आया और उसने हाथ से उसे पकड़ा, उसने सत्य बात कही, उससे उसे छोड़ दिया। फिर बाग में जाकर सुखपूर्वक सोये माली को जगाया और कहा-हे सज्जन! वह मैं यहाँ आयी हूँ। माली ने कहा-ऐसी रात्री में आभूषण सहित तूं किस तरह आयी? उसने जैसा बना था वैसा सारा वृत्तांत कह दिया। इससे अहो! सत्य प्रतिज्ञा वाली यह महासती है ऐसा विचार करते माली ने उसके पैरों में नमस्कार किया और उसे वहाँ से विदा किया। वह फिर राक्षस के पास आयी, उसने माली का वृत्तान्त कहा, इससे 'अहो! यह महाप्रभावशाली है कि जिसको उस माली ने छोड़ दी है' ऐसा सोचकर राक्षस ने भी पैरों में नमन कर उसे छोड़ दिया। फिर चोर के पास गयी और पूर्व वृत्तान्त सुनाया महान महिमा देखकर सन्मान वाले बने चोर ने भी वंदनकर अलंकार के साथ ही उसे घर भेज दिया। फिर आभूषणों सहित अक्षत शरीर वाली और अखण्ड शील वाली वह अपने पति के पास गयी और जैसा बना था वैसा सारा वृत्तान्त कहा। फिर प्रसन्न चित्त वाले उसके साथ समस्त रात रही। प्रभात का समय हुआ, उस समय मंत्री पुत्र विचार करने लगा कि-इच्छानुसार चलनेवाली, अच्छी रूपवाली समान सुख दुःख वाली और गुप्त बात को बाहर नहीं कहने वाली, गंभीर मित्र या स्त्री के सोकर से जागते ही प्रातः दर्शन होते है उस पुरुष को धन्य है। इस प्रकार विचारकर उसने अपनी पत्नि को समग्र घर की स्वामिनी बना दिया, अथवा निष्कपट प्रेम से अर्पण हृदय वाले को कौन-सा सम्मान नहीं होता है? ।।१६६।। __इसके बाद अभयकुमार ने पूछा कि-भाइयों! मुझे कहो इस तरह स्त्री के त्याग करने में पति, चोर, राक्षस और माली इन चार में दुष्कर कौन है? इर्षालुओं ने कहा-स्वामिन्! पति ने अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने रात्री में अपनी प्रिया को पर पुरुष के पास भेजी। क्षुधा वाले पुरुषों ने कहा-राक्षस ने ही अति दुष्कर कार्य किया है कि जिसने बहुत काल से भूखे होते हुए भी भक्ष्य करने योग्य का भक्षण नहीं किया। फिर परदारिक बोले--हे देव! एक माली ने दुष्कर कार्य किया है रात्री में स्वयं आयी थी फिर भी छोड़ दिया। चंडाल ने कहाकोई कुछ भी कहे परन्तु चोर ने दुष्कर कार्य किया है, क्योंकि उसने उस समय एकान्त स्थान से भी सोने के आभूषणों से युक्त उसको छोड़ दिया। ऐसा कहने से अभय कुमार ने 'यह चोर है' ऐसा निर्णय करके चंडाल को पकड़वाकर पूछा-बाग में से आम की किस प्रकार से चोरी की है? उसने कहा-हे नाथ! मैंने श्रेष्ठ विद्या बल से चोरी की है, फिर यह सारा वृत्तान्त श्रेणिक राजा को कहा। राजा ने भी कहा–यदि किसी तरह वह चंडाल अपनी विद्या मुझे दे तो छोड़ दूंगा, अन्यथा इसको खत्म करना है। चंडाल ने विद्या देना स्वीकार किया। फिर सिंहासन पर बैठे राजा विद्या का अभ्यास करने लगा। बार-बार प्रयत्न से विद्या को रटने लगे फिर भी जब विद्या राजा को प्राप्त नहीं हुई तब क्रोधित बनें राजा ने चंडाल को उलाहना देते हुए कहा-अरे! तूं सम्यग् रूप से अभ्यास नहीं करवाता है। उस समय अभयकुमार ने कहा-हे देव! इसमें इसका कोई भी दोष नहीं है, विनय से प्राप्त की हुई विद्या स्थिर होती है और फलदायक होती है। अतः इस चंडाल को सिंहासन पर बैठाकर आप जमीन पर रहकर विनयपूर्वक अभ्यास करें कि जिससे अभी ही विद्या की प्राप्ति हो जाये! राजा ने उसी प्रकार किया और विद्या उसी समय प्राप्त हो गयी, फिर अत्यन्त स्नेही समान उस चंडाल का सत्कारकर छोड़ दिया ।।१६८२।। इस प्रकार यदि इस लोक के तुच्छ कार्यों की साधना करने वाली विद्या भी हलकी जाति के गुरु का भी ___75 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-समाधि नामक पाँचवा द्वार और उसकी महिमा भावपूर्वक विनय करने से मिलती है, तो समस्त मनोवांछित प्रयोजन के साधन में समर्थ श्री जिन कथित विद्य (ज्ञान) ग्रहण करने में उसके दातार प्रति विनय नहीं करने वाला किस तरह पंडित हो सकता है? अर्थात् कभी भी नहीं हो सकता। और जिस विनय से धीर - विनीत पुरुषों को पत्थर के गढ़े हुए रागी देव भी सहायता करने में तत्पर होते हैं, तो अन्य वस्तु की सिद्धि का कौन-सा उपाय है? धीर पुरुष विनय से सर्व सिद्धि कर सकते हैं। तथा श्रुतज्ञान में कुशल, हेतु, कारण और विधि का जानकार मनुष्य भी यदि अविनीत हो तो उसकी शास्त्रार्थ के जानकार ज्ञानियों ने प्रशंसा नहीं की, और सम्यक्त्व, ज्ञान तथा चारित्र आदि गुणों की प्राप्ति में हेतुभूत विनय करने में तत्पर पुरुष यदि बहुश्रुत न हो तो भी उसे बहुश्रुत के पद पर स्थापन करते हैं। जिसमें विनय है वह ज्ञानी है, जो ज्ञानी है उसकी क्रियायें सम्यग् हैं और जिसकी क्रियायें सम्यग् हैं वही आराधना के योग्य है। इसलिए कल्याण की परम्परा को प्राप्त करने में एक समर्थ विनय में बुद्धिमान को एक समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। इस तरह संसाररूपी महासमुद्र को तैरने में जहाज समान और परिकर्म विधि आदि चार प्रकार वाली संवेग रंगशाला में आराधना का परिकर्म विधि द्वार पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला है, उस प्रथम मुख्य द्वार का विनय नामक चौथा अन्तर द्वार संक्षेप से कहा । । १६९१ ।। अति विनय-विनम्र पुरुष को भी समाधि के अभाव में स्वर्ग-अपवर्ग को देने वाली आराधना सम्यग् नहीं होती, इसलिए इसके बाद सिद्धिपुरी का श्रेष्ठ द्वार और मनवांछित सर्व कार्य की सिद्धि का द्वार-समाधिद्वार कहते हैं : : समाधि नामक पाँचवां द्वार और उसकी महिमा : समाधि दो प्रकार की है, द्रव्य समाधि और भाव समाधि। उसमें जो द्रव्य स्वभाव से श्रेष्ठ हो, उसके उपयोग से द्रव्य समाधि होती है, अथवा तो अत्यन्त दुर्लभ स्वभाव से ही सुंदर और इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का यथाक्रम सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघकर और स्पर्श करके प्राणी जो प्रसन्नता को प्राप्त करता है वह द्रव्य समाधि है। यहाँ पर इस द्रव्य समाधि का अधिकार - प्रयोजन नहीं है अथवा तो कोई द्रव्य समाधि को भी कभी निश्चय से भाव समाधि में निमित्त रूप मानते हैं। वे कहते हैं- मन की इच्छानुसार भोजन करके मनोज्ञ आसन पर सोये, मनोज्ञ घर में रहकर मुनि मनोज्ञ ध्यान को करता है। भाव समाधि तो एकान्त से मनो विजय से होती है। मन का विजय राग द्वेष का सम्यग् त्याग करने से होता है। और उसका त्याग अर्थात् विविध शुभाशुभ शब्दादि विषय की प्राप्ति में राग द्वेष का संवर करना । । १७०० । । इसलिए चंचल घोड़े समान निरंकुश गति वाले और उन्मार्ग में लगे मन को विवेक रूपी लगाम से दृढ़ता पूर्वक वश में करना चाहिए। सुख के अर्थी सत्पुरुषों को समाधि प्राप्त करने में नित्यमेव सम्यक् प्रयत्न करना और धर्म के रागी को विशेष प्रयत्न करना चाहिए। उसमें भी अन्तिम आराधना के लिए उद्यमी मन वाले को तो सर्व प्रकार से विशेष प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि उसके बिना सुखपूर्वक धर्म आराधना नहीं होती है। असमाहीओ दुक्खं दुहिणो पुण अट्टमेव न उ धम्मो धम्मविहीणस्स पुणो दूरे आराहणामग्गो । । १७०४ ।। इस प्रकार हो तो असमाधि से दुःख होता है, दुःखी को पुनः आर्त्तध्यान होता है, धर्मध्यान नहीं होता और धर्मध्यान बिना आराधना का मार्ग दूर है ।। १७०४ ।। एक समाधि बिना पुरुष को सभी प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली सामग्री मिली हो तो वह भी दावानल 76 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-समाधि दार-वमि राजार्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला तुल्य दुःखदायी बनती है और समाधि वाले को स्वादिष्ट-निरस भोजन करने पर, अच्छे खराब वस्त्र धारण करने पर, महल या स्मशानादि में रहने पर, अच्छे-बुरे काल में और सम-विषय अवस्था की प्राप्ति में भी नियम से हमेशा परम सुख ही होता है। तथा समाधि-जन्य सुख, भोगने में भय बिना का, प्राप्त करने में क्लेश बिना का, लज्जा से रहित, परिणाम से भी सुंदर, स्वाधीन, अक्षय, सर्वश्रेष्ठ और पाप बिना का सुख है। उत्तम समाधि में स्थिर सत्पुरुष वे किसी के स्मरण की अपेक्षा न करें, अथवा दूसरे उनका स्मरण न करें (उपेक्षा करें) फिर भी केवल समाधिजन्य सुख की प्राप्ति से ही वे सम्पूर्ण सन्तुष्ट होते हैं। ममत्व बिना जो उत्तम संयम से श्रेष्ठ समाधि में लीन है, वे सर्व पाप स्थानों से मुक्त हैं। उनका मन, मित्र, स्वजन, धन आदि का विनाश होते देखता हैं फिर भी निश्चल पर्वत के समान थोड़ा भी चलायमान नहीं होता। इस विषय में सुसमाधि के निधान रूप भगवंत श्री नमि राजर्षि दृष्टान्तभूत है। वह इस प्रकार से : नमि राजर्षि की कथा पर्वत, नगर, खान, श्रेष्ठ शहर और धनधान्य से समृद्धशाली गाँवों से रमणीय विदेह नाम के देश में मिथिला नगरी थी। उस देश का पालन न्याय, विनय, सत्य, शौर्य, सत्त्व आदि विशिष्ट गुणों से शोभित और जगत में यश फैलाने वाला नमि नामक राजा राज्य करता था। उस राजा के राज्य में खण्डन और करपीड़ण था परन्तु वह तरुणी स्त्रियों के ओष्टपुट को तथा स्तनों का ही था, अन्य किसी स्थान पर नहीं था। और गुण को रोक करके वृद्धि करने का व्याकरण में ही सुना जाता था, परन्तु प्रजा में कोई अन्याय से धन या सुख को प्राप्त नहीं करता था, और विरोध तथा उपेक्षा भी उत्तम कवियों के काव्य में अलंकार रूप में ही थी, प्रजा में विरोध, उपेक्षा नहीं थी, ऐसे विविध गुणों वाले प्रजाजन का स्वामी और अति महिमा से शत्रु का नाश करने वाला वह राजा इन्द्र के समान विषयों को भोगते हुए काल व्यतीत करता था। किसी समय उस राजा को वेदनीय कर्म के वश प्रलयकाल की अग्नि के समान महा भयंकर दाह ज्वर हुआ और उस रोग से वह महात्मा वज्र की अग्नि की ज्वालाओं में पड़ा हो, इस तरह शरीर से पीड़ित उछलते, लेटते और लम्बे श्वास छोड़ने लगा। उत्तम वैद्यों को बुलाया, उन्होंने औषध का प्रयोग किया, परन्तु संताप लेशमात्र भी शान्त नहीं हुआ। लोक में प्रसिद्ध हुए अन्य मन्त्र, तंत्रादि के जानकारों को भी बुलाया, वे भी उस रोग को शान्त करने में निष्फल होने से वापिस चले गयें, जलन से अत्यन्त पीड़ित उसे प्रतिक्षण केवल चन्दन रस से और जल से भिगा हुआ ठंडे कमल के नाल से थोड़ा आधारभूत आराम मिलने से पति के दुःख से दुःखी हुई रानियाँ उसके निमित्त एक साथ सतत चन्दन घिसने लगीं। उनके हिलते कोमल भुजाओं में परस्पर टकराते सुवर्ण कंकणों से उत्पन्न हुई रण झंकार की आवाज अन्य आवाज को दबाकर सर्वत्र फैल गयी। उसे सनकर दुःख होने से राजा ने कहा-अहो! यह अत्यन्त अशान्तकारी आवाज कहाँ से प्रकट होकर फैल गयी है। सेवकों ने कहा-हे देव! यह आवाज चन्दन को घिसती रानियों के सुवर्ण कंकणों में से उत्पन्न हुई है। फिर राजा के शब्द सुनकर रानियों ने भूजा रूपी लता पर एक-एक कंकण रखकर शेष सभी निकाल दिये, एक क्षण के बाद पुनः राजा ने पूछा-अरे! उस सुवर्ण के कंकणों की आवाज अब क्यों नहीं सुनायी देती? मनुष्यों ने कहा-स्वामिन्! केवल एक-एक कंकण होने से परस्पर टकाराने के अभाव में इस समय आवाज किस तरह आ सकती है? राजा को आनन्द हुआ। इस अकेले कंकण में कोई आवाज नहीं है। शान्त वातावरण है। निश्चय से अकेले जीव को भी किसी प्रकार का अनर्थ नहीं होता। जितने प्रमाण में पर वस्तु का संग है। उतने प्रमाण में अनर्थ का फैलाव होता है। अतः मैं भी संग को छोड़कर निसंग बनें। इस तरह संवेग को प्राप्त करते राजा को तुरन्त पूर्व जन्म में आराधित चारित्र और श्रुत ज्ञान का 77 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-समाधि द्वार-नमि राजार्षि की कथा अनुस्मरण-स्मृति रूप जाति-स्मरण ज्ञान प्रकट हुआ, साथ ही वह दाह ज्वर भी कर्म की अनुकूलता के कारण दूर हो गया, उसके बाद महाभाग राजा अपने स्थान पर पुत्र को स्थापनकर प्रत्येक बुद्ध का वेश धारणकर सर्व संग का त्यागकर भगवंत समान वह अकेले नगर बाहर जाकर उद्यान में काउस्सग्ग ध्यान में खड़ा रहा। इस तरह नमि राजर्षि काउस्सग्ग ध्यान में स्थिर रहने से उसी समय सारी प्रजा सर्वस्व नाश हो जाने के समान, अत्यन्त स्नेह से बेचैन चित्त होने के समान, महारोग से दुःखी हुए के समान करुण विलाप करती व्यवहार : से सर्व दिशाओं को भर दे इस तरह कोलाहल करती आंसु जल से आँखें भीगी करती रो रही थी, फिर काउस्सग्ग से लम्बे भुजा रूप परिधि वाला मानो मेरु पर्वत हो, ऐसे निश्चल नमि राजर्षि को देखकर इन्द्र ने विचार किया कि - नमि मुनि ने साधुता स्वीकार की है उसकी समाधि वर्तमान में कैसी है? उसके पास जाकर प्रथम परीक्षा करूँ, ऐसा सोचकर ब्राह्मण का रूप धारण कर इन्द्र, लोगों का समूह अति विलाप करता है ऐसा भयंकर नगर आग से जलता हुआ बताकर नमि राजर्षि को कहा कि - हे मुनि पुंगव ! आज मिथिला में सर्वत्र लोग करुण विलाप कर रहे हैं उसके विविध शब्द क्यों सुनाई देते हैं? नमि राजर्षि ने कहा- जैसे महा छाया वाला और फल फूल से मनोहर वृक्ष वायु के वेग से टूट जाता है, शरणरहित दुःखी हुए पक्षी विलाप करते हैं वैसे ही नगरी का नाश होते अत्यन्त शोक से पीड़ित अति दुःख से लोग भी विलाप करते हैं। इन्द्र ने कहा- यह तेरी नगरी और क्रीड़ा के महल भी प्रबल अग्नि से कैसे जल रहे हैं? उसे देखो ! और भुजा रूपी नाल को ऊँची करके, अतीव प्रलाप करती 'हे नाथ! रक्षण करो।' ऐसी बोलती अति करुणामय अन्तःपुर की स्त्रियों को देखो। म मुनि ने कहा- पुत्र, मित्र, स्वजन, घर और स्त्रियों को छोड़ने वाला मैं मेरा जो कुछ भी हो और वह जले तो विचार करुं ! उसके अभाव में मिथिला जलती हो उसमें मेरा क्या जलता है ? इस तरह हे भद्र! नगरी को देखने से भी मेरा क्या प्रयोजन है? निश्चय मोक्ष की अभिलाषा वाले, सर्वसंग के त्यागी मुमुक्षु आत्माओं का यही निश्चय परम सुख है कि उनको कोई भी प्रिय और अप्रिय नहीं है । इस प्रकार नमि मुनि का प्रशममय कथन सुनकर इन्द्र ने नगर का जलना दिखाना बन्द कर फिर इस प्रकार कहने लगे- तूं नाथ है, रक्षणकारक है, और शरण देने वाला है, इसलिए शत्रु के भयवश पीड़ित ये लोग तेरे दृढ़ भुजदण्ड रूपी शरण में आये हैं इसलिए नगर के किले के दरवाजे को सांकल से बन्द करवाकर, शस्त्रों को तैयार करवाकर फिर तुझे दीक्षा लेना योग्य है। मुनि ने कहा- हाँ, श्रद्धा यही मेरी नगरी है, उस पर मैंने संवररूपी दुर्गम सांकल और धृतिरूपी ध्वजा से युक्त क्षमा रूपी ऊँचा किल्ला बनाया है और वहाँ कर्म शत्रु विनाशक तप रूपी बाणों से शोभित पराक्रम रूप धनुष्य भी तैयार किया है। इस तरह मैंने रक्षा की है, तो इस समय मेरी दीक्षा क्यों योग्य नहीं है? इन्द्र ने कहा - हे भगवंत ! विविध उत्तम महल बनाकर फिर तुम्हें दीक्षा अंगीकार करने योग्य है ।। १७५३ ।। नमि ने कहा- हे भद्र! मार्ग में घर कौन तैयार करे? पण्डितजन को तो जहाँ जीव की स्थिरता हो वहीं घर बनाना योग्य है। इन्द्र कहा- लोगों की कुशलता के लिए क्षुद्र चोर आदि शत्रुओं को मारकर तुम्हें दीक्षा लेना योग्य है। ऋषि ने कहा- ये बाह्य चोरादि का हनन करना वह मिथ्या है। मेरी आत्मा का अहित करने वाले उन कर्मों का निश्चय नाश करना योग्य है। 78 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-समाधि द्वार-बनि राजर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला इन्द्र ने कहा-हे भगवंत! जो राजा नमते नहीं हैं उन सबको शीघ्र जीतकर फिर तुम्हें दीक्षा लेना उचित मुनि ने कहा-जो इस संसार में अति दुर्जय आत्मा है उसको जीतने से ही एक हजार योद्धाओं का परम विजेता होता है। अतः मुझे आत्मा (कर्म) के साथ युद्ध करना उपयुक्त है, मोक्षार्थी को निष्फल बाह्य युद्ध करने से क्या लाभ? जिसने क्रोध, लोभ, मद, माया और पाँचों इन्द्रियों को जीत लिया उसने जीतने योग्य सर्व जीत लिया है। जिसने इन क्रोधादि को जीत लिया उसकी कीर्ति सिद्ध क्षेत्र के समान शाश्वत तीनों लोक में फैलकर स्थिर हो जाती है। यह सुनकर भक्ति भरे हृदय से इन्द्र ने पुनः महायश वाले नमि राजर्षि से कहा-बहुत यज्ञों को करवाकर, ब्राह्मण आदि को भोजन देकर, और दीन-दुःखी आदि को दान देकर तुम्हें साधु जीवन को स्वीकार करना अच्छा है, अथवा गृहस्थाश्रम को छोड़कर आप संयम की क्यों इच्छा करते हैं? हे राजन्! तुम पोसह के अनुरागी बनकर यहीं गृहस्थ वेश में पौषध-धर्म में रहो। नमि ने कहा-लाखों दक्षिणाओं से युक्त सुंदर यज्ञ कराने से भी संयम अत्यधिक गुणकारक है और घर में रहकर महिने-महिने के उपवास के पारणे में कुशाग्र जितना खाये ऐसा तपस्वी भी सर्वसंग के त्यागी श्रमण की तुलना में लेशमात्र भी नहीं है। इन्द्र ने कहा-हे राजन्! सुवर्ण-मणि का समूह और वस्त्रों की वृद्धि करके दीक्षा लेना योग्य है। मुनि ने कहा-हे भद्र! सुवर्ण-मणि आदि के कैलाश जितने ऊँचे ढेर हमने असंख्यात किये परन्तु लोभी एक जीव की भी तृप्ति नहीं हो सकी क्योंकि-इच्छा आकाश के समान विशाल है, किसी से भी पूरी नहीं हुई है। जैसे-जैसे लाभ बढ़ता है, वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता है। इस तरह तीन जगत की ऋद्धि सिद्धि प्राप्त होने पर भी किसी प्रकार की शान्ति नहीं होती है। इन्द्र ने कहा-राजन्! होते हुए भी मनोहर भोगों का त्याग करके, अभाव वस्तु की इच्छा करते तुम संकल्प से पीड़ित होते हो। मुनि ने कहा-हे मुग्ध! शल्य अच्छा है, जहर पीना अच्छा है, अति विषधर सर्प श्रेष्ठ है, क्रोध केसरी सिंह अच्छा है और अग्नि अच्छी है परन्तु भोग अच्छा नहीं है, क्योंकि इच्छा करने मात्र से वह भोग मनुष्य को नरक में ले जाता है, और दुस्तर भव समुद्र में परिभ्रमण करवाता है। शल्य आदि का भोग हो जाये तो भी उससे एक ही भव की मृत्यु होती है, भोग की तो इच्छा मात्र से भी जीव लाख-लाख बार मरता है, इसलिए भोगवांछा का त्यागी हूँ परम अधोगति कारक क्रोध को, अधम गति का मार्ग देने वाले मान को, सद्गति की घातक माया को, और इस भव-परभव उभय भव में भय कारक लोभ का भी नाश करके केवल साधुता की साधना में उद्यम करूँगा। इस प्रकार परम समाधि वाला, अत्यन्त उपशमभाव वाले उस नमि राजर्षि की विविध अनेक युक्तियों से परीक्षा कर और सुवर्ण के समान एक शुद्ध स्वरूप वाला जानकर अति हर्ष उत्पन्न हुआ और इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा कि-हे क्रोध को जीतने वाले! सर्व मान का नाश करने वाले! और विशाल फैलाव करने वाली प्रबन्ध माया के प्रपंच का नाश करने वाले हे मुनिवर्य! आप विजयी हैं, लोभरूपी योद्धा को हनन करने वाले, पुत्र परिवार आदि संग के त्यागी, इस जगत में आप ही एक परमपूज्य हैं। इस भव में तो आप एक उत्तम हैं ही, परभव में भी उत्तमोत्तम होंगे, अष्टकर्म की गाँठ को चिरने वाले आप निश्चय तीन जगत के तिलक समान उत्तम . 79 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार सिद्ध क्षेत्र को प्राप्त करेंगे। आपके संकीर्तन-भक्ति से शद्धि क्यों नहीं हो? आपके दर्शन से पाप उपशम क्यों नहीं होंगे? कि जिनमें प्रयास से साध्य और शिवसुख की प्राप्ति में सफल मन के निरोध रूप यह समाधि स्फूर्ति है। इस प्रकार मुनि की स्तुति कर और कमल, वज्र, चक्र आदि सुलक्षणों से अलंकृत मुनि के चरण कमल को भक्तिपूर्वक वंदन कर तुरन्त भैरे तथा जंगली भैंसे के समान काले आकाश को पारकर इन्द्र देव लोक में पहुँच गया ।।१७८१।। इस प्रकार इस लोक में पाप के संग से विरागी मन वाले धीर पुरुष श्रेष्ठ समाधि के लिए नमिराज के समान सर्वजन उद्यम करते हैं, क्योंकि-धर्म गुणरूपी पौरजनों के निवास का श्रेष्ठ समाधि नगर है, अर्थात् समाधि में धर्मगुरु रह सकते हैं और समाधि आराधना रूपी लता का विशाल कन्द है। सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, क्षमा आदि महान् गुण भी समाधि गर्भित हो तभी स्वसाध्य यथोक्त फल को सम्यग् रूप से देते हैं, एकान्त में बैठो, प्रयत्न से पद्मासन लगाओ, श्वास को रोको, तथा शरीर की बाह्य चेष्टा को भी रोको, दोनों होंठों को मिलाकर रखो, मन्द आँख की दृष्टि को नाक के अन्तिम स्थान पर लगाओ परन्तु यदि समाधि नहीं लगे तो योगी उस ध्यान कर सकता। अति उत्तम योग वाले योगी जो चराचर जगत को भी हाथ में रहे निर्मल स्फटिक के समान देखते हैं, वह भी निश्चय समाधि का फल है और जिनका चित्त समाधि वाला, स्ववश और दुर्ध्यान रहित होता हैं, वे साधु निरतिचार साधुता के भार को बिना श्रम से वहन कर रहे हैं। इस भवन तल में वे धन्य हैं जो कि समाधि के बल से रागद्वेष को चकनाचूर कर शरीर का परम आधारभूत आहार की भी इच्छा नहीं करते हैं। वस्तु स्वरूप के सम्यग् ज्ञाता हर्ष विषाद आदि से मुक्त समाधि वाले जीव अनेक जन्मों के बाँधे हुए कर्मों को भी शीघ्रमूल में से उखाड़कर फेंक देते हैं। इसलिए चित्त पर विजय करने रूप लक्षण वाली भाव समाधि के लिए प्रयत्न करना योग्य है। यह भाव समाधि ही यहाँ उपयोगी है, अब इस सम्बन्ध में अधिक क्या कहें? इस प्रकार शास्त्र में कही यक्तियों वाली और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली आराधना रूप संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला परिकर्म नामक प्रथम द्वार में यह पाँचवां समाधि नामक अन्तर द्वार कहा है। इस तरह चित्त के विषय से प्रकट हुआ यह समाधि गुण भी यदि आराधक बार-बार मन को नहीं समझायेगा तो मन स्थिर नहीं होगा, क्योंकि यदि वाहन-नाव के समान चिंतारूपी समुद्र में पड़ा हुआ मन परिभ्रमण करता है, अज्ञानरूपी वायु से प्रेरित हुआ दुर्ध्यान रूपी तरंगों से टकराता है और मोहरूपी आवर्त (भँवर) में पड़ता है, ऐसे मन को बार-बार अनुशासन रूपी कर्णधार नाविक सम्यक् काबू में नहीं रखेगा तो वह समाधि रूपी श्रेष्ठ मार्ग को कैसे प्राप्त कर सकेगा? अर्थात् मोक्ष मार्ग प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसलिए दोष का नाश करने वाला और गुणों को प्रकाशमय करनेवाले मन पर अनुशासन को यहाँ कहते हैं। सुसमाधि वाला अनुशासन इस प्रकार करें :मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार : हे चित्त! विचित्र चित्रों के समान तूं भी अनेक रंगों को (विविध विचारों को) धारण करता है, परन्तु यह परायी पंचायत द्वारा तूं अपने आपको ठगता है। रुदन, गति, नाच, हँसना, खेलना आदि विकारों से जीवों को मदोन्मत्त (घनचक्कर) के समान देखकर हे हृदय! तूं स्वयं ऐसा आचरण कर कि जिससे तूं दूसरों की हँसी का पात्र न बनें! क्या मोह सर्प से डसे हुए द्वारा अति व्याकुल प्रवृत्ति वाले, सामने रहें अशान्त अथवा असत् 80 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला मिथ्या जगत को तूं नहीं देखता है? कि जिससे विवेक रूपी मन का तूं स्मरण नहीं करता है?।।१८००।। हे चित्त! तूं चपलता से शीघ्रमेव रसातल में प्रवेश करता है, आकाश में पहुँच जाता है और सर्व दिशाओं में भी परिभ्रमण करता है। लेकिन उन प्रत्येक से संग रहित तूं किसी को स्पर्श नहीं करता है। हे हृदय! जन्म, जरा और मृत्यु रूपी अग्नि से संसार रूपी भवन चारों तरफ से जल रहा है इसलिए तूं ज्ञान समुद्र में स्नान कर स्वस्थता को प्राप्त कर! हे हृदय! शिकारी के समान संसार के रागरूपी जाल द्वारा तूंने स्वयं महाबंधन किया है, अतः प्रसन्न होकर इस समय ऐसा कर कि जिससे वह बन्धन शीघ्र नष्ट हो जाये। हे मन! अस्थिर वैभवों की चिन्ता करने से क्या लाभ? इससे तेरी तृष्णा रुकी नहीं, इसलिए अब संतोषरूपी रसायण का पान कर। हे हृदय! यदि तूं निर्विकार सुख चाहता है तो पुत्र, स्त्री आदि के गाढ़ सम्बन्ध से अथवा प्रसंगों से विचित्र इस भव स्वरूप को इन्द्रजाल समझ। यदि तुझे सुख का अभिमान है तो हे हृदय! संसाररूपी अटवी में रहे हुए धन और शरीर को लूटने में कुशल शब्दादि विषयरूपी पाश में मैं फँसा हुआ हूँ ऐसा तूं अपने आपको क्यों नहीं देखता? संसारजन्य दुःखों में यदि तुझे द्वेष है और सुख में तेरी इच्छा है तो ऐसा कर कि जिससे दुःख न हो और वह सुख अनन्त शाश्वत हो। जब तेरी चित्तवृत्ति मित्र-शत्रु में समान प्रवृत्ति वाली होगी तब निश्चय तूं सकल संताप बिना का सुख प्राप्त कर सकेगा। हे मन! नरक और स्वर्ग में, शत्रु और मित्र में, संसार और मोक्ष में, दुःख और सुख में, मिट्टी और सुवर्ण में यदि तूं समान समभाव वाला है तो तूं कृतार्थ है। __हे हृदय! प्रति समय नजदीक आते और उसको रोकने में असमर्थ एक मृत्यु का ही तूं विचार कर! शेष विकल्पों के जाल का विचार करने से क्या प्रयोजन है? हे हृदय! अनार्य सदृश जरा से जीर्ण होने वाली तेरी यह शरीर रूपी झोपड़ी का भी तूं विचार नहीं करता है? अरे! तेरे ऊपर यह महामोह का प्रभाव कैसा है? हे मूढ़ हृदय! यदि लोक में जरा मरण, दारिद्र रोग, शोक आदि दुःख का समूह प्रकट है। वहाँ भी तूं वैराग्य धारण क्यों नहीं करता है? हे मन! शरीर में श्वास के बहाने गमनागमन करते जीव को भी क्या तूं नहीं जानता है? क्या तूं अजरामर के समान रहता है? हे मन! मैं कहता हूँ कि-राग ने तुझे सुख की आशा से बहुत काल तक परिभ्रमण करवाया है, अब यदि तूं सुख के स्वरूप को समझता है तो आशा राक्षसी को छोड़ और राग के उपशमभाव का सेवन कर, वही तुझे इष्ट सुख प्राप्त करवायेगा। हे मन! बचपन में अविवेक द्वारा, बुढ़ापे में इन्द्रियादि की विकलता से, धर्म की बुद्धि के अभाव से, तेरा नरभव का बहुत समय निष्फल गया है। हे मन! नित्यमेव उन्माद में तत्पर काम का एक मित्र, दुर्गति के महा दुःखों की परम्परा का कारण, विषय में पक्षपात करनेवाली बुद्धि वाला, मोह की उत्पत्ति में एक हेतु, अविवेक रूपी वृक्ष का कन्द, गर्वरूपी सर्प को आश्रय देने वाला चंदन वृक्ष समान और सम्यग् ज्ञानरूपी चन्द्र बिंब को ढांकने में गहन बादलों के समूह सदृश यह तेरा यौवन भी प्रायः सर्व अनर्थों के लिए ही हुआ किन्तु धर्म गुण का साधक नहीं बन सका और हे हृदय! इस घर का यह कार्य किया, इसको करता हूँ और यह वह कार्य करूंगा-ऐसा हमेशा व्याकुल रहते तेरे दिन निरर्थक जा रहे हैं। पुत्री की शादी नहीं की, इस बालक को पढ़ाया नहीं, वे अमुक मेरे कार्य आज भी सिद्ध नहीं हुए हैं, इस कार्य को मैं आज करूँगा, इसको फिर कल करूँगा और अमुक कार्य को उस दिन, पाक्षिक या महीने के बाद अथवा वर्ष में करूँगा। इत्यादि हमेशा चिन्ता करने से सदा खेद करते हुए हे मन! तुझे अल्प भी शान्ति कहाँ से होगी? और हे मन! कौन मूढ़ात्मा स्वप्न तुल्य इस जीवन में, इसको अभी ही करूँ, इसको करने के बाद इसे करूँगा इत्यादि कौन चिंतन करे? हे मनात्मा! तूं कहाँ-कहाँ जायगा और वहाँ जाने के बाद तूं क्या-क्या करके कृतार्थ होगा? इसलिए स्थिरता को प्राप्त कर और स्थिरता से कार्य कर क्योंकि जाने का अन्त नहीं है और कार्यों की प्रवृत्ति का अन्त 81 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - मन का छड्डा अनुशास्ति द्वार नहीं है, अतः निवृत्ति का स्वीकार कर। हे चित्त! यदि तं नित्यमेव चिन्ता की परम्परा में तत्पर होगा तो खेदजनक बात है कि तूं अत्यन्त दुस्तर समुद्र में गिरेगा । हे हृदय! तूं क्यों विचार नहीं करता? कि जो यह ऋतुओं रूपी छह पैर वाला, विस्तार युक्त कृष्ण शुक्ल दो पक्ष वाला, तीन लोक रूपी कमल के पराग का प्रतिदिन आयुष्य का पान करते हुए भी अतृप्त, गूढ़ गति वाला, जगत के सर्व जीवों में तुल्य प्रवृत्ति वाला, कालरूपी भ्रमर यहाँ भ्रमण कर रहा है। हे मन ! निर्धन को धन की इच्छा होती है, धनी को राजा बनने की, राजा को चक्रवर्ती बनने या इन्द्र आदि पदवी प्राप्ति करने की इच्छा होती है और उसे वह सब मिल जाये तो भी उसे तृप्ति नहीं होती है। शल्य के समान प्रवेश करते और स्वभाव ही प्रतिदिन पीड़ा करने वाले काम, क्रोध आदि तेरे अन्तरंग शत्रु हैं। जो हमेशा देह में रहते ही हैं। उसका उच्छेदन करने की तो हे चेतन मन ! तेरी इच्छा भी नहीं होती और तूं बाह्य शत्रुओं के सामने दौड़ता है, उनसे लड़ता है, अहो! महामोह का यह कैसा प्रभाव ? जब तूं बाह्य शत्रुओं में मित्रता और अंतरंग शत्रुओं के प्रति शत्रुता करेगा तब हे हृदय ! तूं शीघ्र स्वकार्य को भी सिद्ध कर देगा । हे हृदय ! प्रारम्भ में मधुर और परिणाम में कटु विषयों में आसक्ति न कर। क्योंकि भाग्य के वश से नाश होने वाले वे भोग उस भोगी को अति तीक्ष्ण दुःखों को देते हैं। मुख मधुर और अन्त विरस विषयों में यदि तूं प्रथम से ही राग नहीं करेगा तो हे हृदय ! फिर तूं कभी भी संताप को प्राप्त नहीं करेगा । विषयों के सेवन बिना भौतिक सुख नहीं है और वे विषय भी बहुत कष्ट से मिलते हैं। तो हे हृदय! तूं उनसे विमुख होकर विषय बिना का अन्य कोई सुख है उसका चिन्तन कर । हे चित्त ! जैसे तूं विषयों को प्रारम्भ में मधुर देखता है वैसे यदि विपाक को भी देखें और विचार करे तो तूं इतनी विडम्बनाएँ कभी भी प्राप्त नहीं करता। हे हृदय ! जहर समान विषयों की इच्छा कर तूं संताप को क्यों धारण करता है? और उस विषयेच्छा में ऐसा कोई चिंतन है कि जिससे परम निवृत्ति हो सके ? अरे ! विषयों की आशा रूपी छिद्र द्वारा तो ज्ञान से प्राप्त किया गुण भी नाश होता है। इसलिए, हे मूढ़ हृदय ! उन गुणों की स्थिरता या रक्षा के लिए तूं उस आशा रूपी छिद्र का त्याग कर। और हे हृदय ! विषयों की आशा रूपी वायु से उड़ती हुई रज से मलिन हुआ और निरंकुश भ्रमण करता तूं अपने साथ पैदा हुई इन्द्रियों के समूह से भी क्यों लज्जा नहीं करता है? हे मन कुम्भ ! काम के बाण से जर्जरित होने के बाद तेरे में कर्म मल को नाश करने वाला और संसार के संताप को क्षय करने वाला सर्वज्ञ परमात्मा का वचन रूप जल कैसे टिकेगा? यदि वह जिन वचन रूपी जल किसी प्रकार भी तेरे में स्थिर हो तो कषायों का दाह कैसे खत्म नहीं होता? और तेरी अविवेक रूपी मलिन ग्रंथी कैसे नष्ट नहीं होती? हे हृदय सागर! बड़े दुःखों के समूह रूपी मेरु पर्वत रूप मथनी से तेरा मंथन करने पर भी तेरे में विवेक रूपी रत्न प्रकट नहीं हुआ। हे चित्त ! अविवेक रूपी कीचड़ से कलुषित तेरी मति तब तक निर्मल नहीं होगी कि जब तक सुविवेक रूपी जल से अभिषेक करने की क्रिया नहीं करेगा। हे हृदय! सुंदर भी शब्द, रूप, रस के प्रकार और श्रेष्ठ गन्ध तथा स्पर्श भी तब तक ही तुझे आकर्षित करेंगे जब तक तत्त्व बोध रूपी रत्नों वाले और सुख रूपी जल समूह से पूर्ण भरे हुए श्रुतज्ञान रूपी अगाध समुद्र में तूंने स्नान नहीं किया । शब्द नियमा कान को सुख देने वाले हैं, रूप चक्षुओं का हरण करनेवाला चोर है, रस जीभ को सुखदायक है, गन्ध नाक को आनन्द देनेवाली है और स्पर्श चमड़ी को सुखदायी है। उसका संग करने से क्षणिक सुख देकर फिर वियोग होते ही वे तुझे अति भयंकर अनंत गुणा दुःख देते हैं। इसलिए हे चित्त ! तुझे उन विषयों से क्या प्रयोजन है ? ।। १८४६ ।। अति मनोहर हवेली, शरद ऋतु का चन्द्र, प्रियजन का संग, पुष्प, 82 For Personal & Private Use Only . Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-मन का छट्ठा अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला चन्दन का रस, दक्षिण दिशा का पवन और मदिरा, ये प्रत्येक तथा सब मिलकर भी सरागी को ही क्षोभित करते हैं, परन्तु हे चित्त! विषय के राग से विमुख हो जा, फिर तुझे ये क्या कर सकते हैं? इस संसार में बहुत दान देने से क्या? अथवा बहुत तप करने से क्या? बहुत बाह्य कष्टकारी क्रिया करने से भी क्या? और अधिक पढ़ने से भी क्या? हे मन! यदि तूं अपना हित समझता हो तो राग आदि के कारणों से निवृत्ति कर और वैराग्य के कारणों में रमणता प्राप्त कर ।।१८५०।। हे हृदय! तूं वैराग्य को छोड़कर विषय के संग को चाहता है, वह काले नाग के बिल के पास चंदन के काष्ठों से अनेक द्वारों वाला सुंदर घर बनाकर वहाँ मालती पुष्पों की शय्या में 'यहाँ सुख है' ऐसा समझकर निद्रा लेने की इच्छा करने के समान है। हे हृदय! यदि तूं निष्पाप और परिणाम से भी सुंदर ऐश्वर्य को चाहता है तो आत्मा में रहे सम्यग् ज्ञान रूपी रत्न को धारण कर। जब तक तेरे अंदर घोर अज्ञान अंधकार है, तब तक वह तुझे अन्धकारमय बनायेगा, इसलिए हे हृदय! तूं यदि आज भी जिन मत रूपी सूर्य को अंदर से प्रकट करे तो प्रकाश वाला होगा। हे हृदय! मैं मानता हूँ कि-मोह रूपी महा अंधकार से व्याप्त यह संसार रूपी विषम गुफा में से तुझे निकलने का उपाय ज्ञान दीपक के बिना अन्य कोई नहीं है। हे चित्त! द्रव्यादि जड़ का संग छोड़कर संवेग का आश्रय स्वीकार कर कि जिससे यह तेरी संसार की गांठ मूल में से टूट जाये। हे मूढ़ हृदय! सुख के लिए इच्छा करते हुए भी दुःखमय वैभव से क्या प्रयोजन है? अतः आत्मा को सन्तोष में स्थिर कर तूं स् सखी बन। विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए प्रकृति से क्लेश पैदा करता है, मिलने पर पुनः मोह उत्पन्न होता है और उसका नाश होने से अति संताप उत्पन्न होता है। इसलिए हे चित्त! इस समय दुर्गति जाने के मार्ग समान राजा, अग्नि और चौरों का साध्य उस विभूतियों के राग को तत्त्व से समझपूर्वक त्याग कर। हड्डी रूपी स्तम्भ धारण की हुई, स्थानस्थान पर नसों की रस्सी रूपी बन्धन से बांधी हुई, मांस चर्बी आदि के ऊपर चमड़ी ढांकने वाली, इन्द्रिय रूपी रखवाले से रक्षित और स्वकर्म रूपी बेड़ियों से जकड़ी हुइ जीव की जेल समान, केवल दुःखों का अनुभव करने के स्थान रूपी काया में भी हे मन! तूं मोह मत कर! सचित्त, अचित्त, मिश्र द्रव्य आदि विषयों प्रति राग रूपी मजबूत तन्तुओं से नित्यमेव चारों ओर से स्वयं अपने आप को गाढ़ आवेष्टित करता हुआ हे चित्त! रेशम के कीड़े समान तेरा छुटकारा किस तरह होगा? हे मूढ़! यह भी विचार कर कि-इस संसार में किसी भी स्थान पर जो वस्तु इन्द्रिय ग्राह्य है, वह स्थिर नहीं है। फिर भी यदि तूं वहाँ राग करता है तो हे मन! तूं ही मूढ़ है। संसार में उत्पन्न हुई समस्त वस्तुओं का समूह नियम से, स्वभाव से ही हाथी के बच्चे के कान समान अति चंचल है। इस प्रकार एक तो अपने अनभव से और दूसरा श्री जिनेश्वर देव के वचनों से भी जानकर, हे मन! क्षण मात्र भी तूं उसमें राग का बन्धन न कर, और हे चित्त! 'इस असार संसार में स्त्री ही सार है' ऐसे गलत भ्रम रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बने तुझे शान्ति कैसे होगी? क्योंकि इस जन्म या दूसरे जन्म में जीवों को जो तीव्र दुःख आते हैं उन दुःखों का निमित्त स्त्रियों के बिना अन्य कोई नहीं होता है। मैं मानता हूँ कि-मुख में मधुरता और परिणाम में भयंकरता को देखकर विधाता स्त्रियों के मस्तक पर सफेद बाल के बहाने राख डालते हैं। तथा हे मनभ्रमर! काम क्रीड़ा से आलसी स्त्रियाँ भी मुख रूपी कमल से विकसित, विशाल नेत्र रूपी पत्तों से अति सुशोभित, लावण्य रूपी जल से भीगी हुई, मस्तक के बाल रूपी भ्रमरों से व्याप्त, चारों ओर से 1. मुहमवत्तं पज्जत-दारुणतं च पेच्छिऊण विही । पलियच्छलेण मन्ने, जुवईण सिरे खिवइ छारं ||१८६६।। 83 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिवर्म द्वार-मन का छटा अनुशास्ति द्वार सुगन्ध को फैलाते और विशिष्ट रूप शोभा से युक्त भी आरम्भ में अल्पमात्र सुखदायक बनकर अन्त में तुझे बन्धन रूप दुःखकर होगी, क्योंकि स्त्रियों का शरीर चर्बी, हाड, पिंजर, नसें तथा मल, मूत्रादि से द्रव्यों का समूह है, और हे चित्त! भौतिक पंडित भी स्त्रियों के चरण को लाल कमल के साथ, पैर को केले के स्तम्भ समान, स्तन का वर्णन कठिनता और आकार को श्रेष्ठ जाति का सुवर्ण, शीला और उत्तम कलश के साथ, हथेली को कंकेली वृक्ष के पत्तों के साथ, भुजाएँ अथवा शरीर गात्र को लता के साथ, मुख को चन्द्रमा के साथ, होंठ को परवाल के साथ, दाँत को मोगरे की कलियों के साथ, आँखों को कमल पत्तों के साथ, भाल को अष्टमी के चन्द्र के साथ, और मस्तक के बाल मयूर के पिच्छ समूह के साथ तुलना, उपमा देते हैं। वह तेरे अंतर में उछलती राग की महिमा है। इसलिए हे मन! देखने में सुंदर भी अति दुर्गन्धमय मांस, रूधिर, मल और हड्डी का पिंजर, इत्यादि से भरी हुई मल की भण्डार रूपी स्त्रियों में तूं राग न कर। शब्दादि विषयों के समुदाय रूपी सरोवर में विलास करती हुई हे मन रूपी मछली! तुझे पकड़ने के लिए कामरूपी मछुए ने स्त्रियों रूपी मांस वाली जाल डाली है, स्त्री के संग रूपी मांस में प्रेमी बने तुझे इस जाल से शीघ्र खींचकर हे मूढ़! काम के तीव्र अनुराग रूपी अग्नि में सर्व प्रकार से सेकेंगे। हे मन! यदि तुझमें अमृत तुल्य जैन वचन सम्यग् रूप से आचरण में आ जायें तो स्त्रियों का हास्य और ललित विलासी हावभाव भी लेशमात्र विकार नहीं करते। हे मन! जिसके वियोग रूपी अग्नि से जलते तूं मुहूर्त मात्र को भी सो वर्ष से अधिक मानता है, उन स्त्रियों के साथ तेरा कोई ऐसा वियोग होगा कि जिससे सैंकड़ों सागरोपम तक भी पुनः एक समय मात्र संयोग की आशा भी नहीं होगी। हे चित्त! अपने शरीर में भी अपना जीव नित्य निवास स्थान प्राप्त नहीं कर सकता तो अन्य स्थान पर कोई कैसे प्राप्त कर सकता है? हे मन! इस जगत में जन्म पानी के बुलबुले के समान उत्पन्न होता है और नाश होता है वैसे निश्चय ही संयोग और वियोग होता है और नाश होता है। हे मन! स्वभाव से ही नाशवंत फिर भी प्राण इस शरीर में क्षण वार स्थिर रहते हैं वह आश्चर्य है, क्योंकि बिजली का प्रकाश क्षण से अधिक नहीं रहता? हे हत हृदय! इष्ट के साथ संयोग क्षण मात्र और फिर उसका वियोग हजारों भव तक रहता है, तो भी तूं प्रिय का संगम चाहता है। हे हृदय! कुपथ्य के जैसा अल्पमात्र मनोहर सदृश प्रिय संयोग को भोगने का परिणाम भयंकर ही आता है। इसलिए संसार में संतोषी बन, तप में रागी और सर्वत्र निरभिलाषी, तुझे दुर्गति के मार्ग से बचाने वाले धर्म मार्ग में स्थिर हो। हे मानव! चक्री और इन्द्रपने में भी जो सुख नहीं है, वह इस धर्म की प्राप्ति से प्राप्त होता है तो अब तेरे में क्या अपूर्णता रही? कि जिससे तूं संतोष के लिए खेद करता है? अर्थात् धर्म की प्राप्ति से सर्व सुख की प्राप्ति होती है। तथा हे मन! संतोष करने से तूंने जिस धन को प्राप्त किया उसके रक्षण करने की और व्यय करने की वेदना से मुक्त हो जायेगा और इस जन्म में भी तुझे परम शान्ति की प्राप्ति होगी ।।१८८९।। . हे मन! संतोष रूपी अमृत रस से भिगे हुए तुझे हमेशा ही सुख होता है, वह सुख इधर-उधर की चिन्ता में, आसक्ति में, असंतोषीपन में तुझे कहाँ मिलता है? हे मन! तूं यदि संतोषी बनेगा तो वही तेरी उदारता है, वही तेरा बड़प्पन है, वही सौभाग्य है, वही कीर्ति और वही तेरा सुख है। हे चित्त! तूं संतोषी होते ही तेरे पास सर्व संपत्तियाँ हैं, अन्यथा चक्री जीवन में और देवत्व में सदा दरिद्रता ही है। हे मन! अर्थ की इच्छा वाला दीनता का ही अभिनय करता है। उसको प्राप्त करने पर अभिमान और असंतोष को प्राप्त करता है तथा मिलने के बाद धन नष्ट हो जाने से शोक करता है। इसलिए धन की आशा छोड़कर तूं संतोष रूपी धन से सुख से रह। निश्चय ही अर्थ की इच्छा प्रकट करने के साथ ही अन्दर से तत्त्व (स्वत्व) निकल जाता है, अन्यथा हे मन! अर्थीजन वैसी ही अवस्था वाला होने पर भी उसकी लघुता कैसे होती है? और मृतक में जो भारीपन बढ़ता 84 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - मन का छट्टा अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला है उसके कारण की भी स्पष्ट जानकारी मिली है कि - जीता था तब अर्थीजन होने के कारण हल्का - लघु था, वह अर्थीपन मर जाने के बाद नहीं होता इस कारण से वह भारी बन जाता है। हे मन ! नित्य मेव दुःखों से तूं उद्विग्न रहता है और सुखों को चाहता है, परन्तु तूं ऐसा क्यों नहीं करता कि जिसमें इच्छित सुख मिले। हे हृदय ! पूर्व में तूंने जैसा किया है, वर्तमान में तुझे वैसा ही मिला है इसलिए इसमें हर्ष - खेद मत कर ! सम्यक् परिणाम से समतापूर्वक सहन कर । 'संयोग वियोग वाला, विषय विष के समान परिणाम से दुःखदायी है, काया अनेक रोगों वाली है और रूप स्वरूप से क्षण भंगुर है ।" ऐसा दूसरे को उपदेश देते तेरा वचन जैसे महा स्फूर्तिवाला बनता है, वैसे हे चित्त! तेरे अपने लिए भी ऐसा बने तो क्या प्राप्त न हो अर्थात् सर्वस्व प्राप्त होता है । । १८९९ ।। हे हृदय ! तेरी पुण्य और पाप रूपी जो मजबूत दो बेड़ियाँ विद्यमान हैं उसे स्वाध्याय रूपी चाबी से खोलकर मुक्ति को प्राप्त कर । । १९०० ।। हे चित्त ! संसार में सुख का तूं जो अनुभव चाहता है वह तृष्णा की शान्ति के लिए तूं मृग जल को पीता है, सत्त्व की शोध के लिए केले की छाल को उखाड़ता है, मक्खन के लिए पानी को मथना, तेल के लिए रेती को पीलना अर्थात् ये क्रिया सब निष्फल हैं वैसे संसार में सुख प्राप्ति की इच्छा भी निष्फल है। जैसे इस संसार में कुछ बना हुआ और कुछ बनते पात्र को अधूरा छोड़कर दूसरे को करने से पूर्व के अधूरे का नाश होता है, वैसे अनेक प्राणि मनुष्य जन्म प्राप्तकर साधना नहीं करते, केवल विविध गर्भादि अवस्थाओं को प्राप्त कर संसार के जन्म मरणादि के दुःखों को ही सहन करते हैं। यह जानकर हे चित्त ! कुछ भी शुभ का चिन्तन कर । हे चित्त ! तूं एक होने पर अनेक वस्तु का चिंतन करने से बहुत्व को प्राप्त करता है - अनेक प्रकार का बनता है पुनः तूं ऐसा बनकर स्वयं दुःखी होता है, इसलिए हे चित्त ! अन्य सब वस्तु की चिन्ता को छोड़कर श्रेष्ठ एक भी किसी वस्तु का चिन्तन कर कि जिससे तूं परम शान्ति प्राप्त करें । हे मन ! मदोन्मत्त हाथी के समान तूं वैसा कर कि - स्वाध्याय के बल से जैसे मेरी संसार रूपी अटवी की मूलभूत कर्मरूपी अटवी टूट जाय और वह टूटते ही भव वन में ताजे पत्ते तुल्य मेरे रागादि सूख जाते ही पंखी तुल्य मेरे कर्म उड़कर कहीं जाते रहे और उसके पुष्पों समान मेरा जन्म जरा मरण सर्वथा नाश हो जाय तथा उसके फल तुल्य मेरे दुःख भी शीघ्र क्षीण हो । हे मन ! यदि तूं दुःखरूपी फलों को देने वाली कर्मरूपी जल के सिंचन से बढ़ती हुई संसार रूपी गहरी लता को ध्यान रूपी अग्नि से जला दे तो वह उत्पन्न नहीं होगी। 2 यदि तूं लक्ष्मी से अभिमान नहीं करता है, रागादि अंतरंग शत्रुओं को भी वशीभूत नहीं होता है, स्त्रियों से आकर्षित नहीं होता है, विषयों में लोलुपता नहीं रखता है, सन्तोष को नहीं छोड़ता है, इच्छाओं को आदर नहीं देता है, और पाप पक्ष का विचार नहीं करता है, तो हे चित्त! तुझे ही मेरा नमस्कार, तूं ही मेरे लिए वन्दनीय है। तथा हे मन! तूं आसक्ति के त्याग से राग को, अप्रीति के त्याग से द्वेष को सत् ज्ञान से मोह को, क्षमा से क्रोध को मृदुता प्रकट करके मान को, सरलता से माया को, और सन्तोष गुण से लोभ को जीते और तूं नित्य बलपूर्वक भी इन्द्रियों के समूह को सन्तोष से जीतता है, जीव के साथ प्रीति करने के लिए अप्रीति को खत्म करता है, असंयम में अरति और संयम में रति करता है, संसार से भय प्राप्त करता है, पाप की घृणा करता है, वस्तु स्वरूप का विचारकर हर्ष शोकादि नहीं करें, वचन का उच्चारण करने में नित्य सत्य का विचार करें, तथा धर्म गुणों की यथाशक्ति सम्यग् आसक्ति करें, काल के अनुरूप समय अनुसार सुंदर क्रिया में तत्पर उत्तम साधुओं का सत्कार करें, दीन-दुःखियों के प्रति करुणा करें, और यदि पापियों की उपेक्षा करें तो हे मन ! अन्य निष्फल क्रियाओं को करने का मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। तेरी कृपा से मुझे मुक्ति हथेली में ही है। हे मन ! जैसे निःश्वास 1. संजोगा सविओगा विसं व विसया वि परिणईविरसा । काओ य बहुअवाओ, रूवं खणभंगुरसरूवं ||१८६८ || For Personal & Private Use Only 85 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - मन का छट्टा अनुशास्ति द्वार से निर्मल भी दर्पण शीघ्र मलिन होता है, जैसे अति विशाल धुएँ से अग्नि की शिखा काली श्याम हो जाती है, जैसे उड़ती रेत के समूह से चन्द्र भी निस्तेज हो जाता है वैसे तूं उज्ज्वल है तो भी कुवासना से मलिन होता है। तूंने आज तक आत्मा को अपने नियम में लेकर राग-द्वेषादि का निग्रह नहीं किया, शुभ ध्यानरूपी अग्नि से कर्मरूप विशाल ईंधन को नहीं जलाया, विषयों में से खींचकर इन्द्रियों के समूह को धर्म मार्ग में नहीं जोड़ा, तो चित्त ! क्या तुझे मुक्ति के सुख की भी इच्छा नहीं है? हे मन! हाथियों को सजाना नहीं है, घोड़ों की कतारों को भगाना नहीं है, आत्मा को प्रयास नहीं करना, तलवार का भी उपयोग नहीं करना, परंतु शुभध्यान से ही राग आदि अन्तरंग शत्रुओं को खत्म करना है, फिर भी तूं उनका पराभव क्यों सहन करता है? गुरु महाराज के बताये उपाय से प्रथम आलम्बन के आधार पर मन, वचन और काया के योग सर्व विघ्नों से रहित हो, वैसा प्रयत्नपूर्वक अभ्यास कर, बाह्य विषयों की चिन्ता के व्यापार छोड़कर यदि तूं निरालम्बन होकर परम तत्त्व में लीन बनेगा तो हे चित्त! तूं संसार चक्र में परिभ्रमण नहीं करेगा । । १९२८ ।। न! यदि तूं प्रकृति से ही चल - स्वभाव वाले, विषयाभिलाषा में वेग वाले, दुर्दान्त ये इन्द्रिय रूपी घोड़ों के समूह को विवेकरूपी बागड़ोर से वश करके स्वाधीन करेगा तो रागादि शत्रु नहीं उछलेंगे। अन्यथा हमेशा फैलते निरंकुश उनसे तेरा पराभव होगा। जैसे वर्षा करते मेघ द्वारा और हजारों नदियों के प्रवेश द्वारा भी समुद्र में उछाल या जोश नहीं आता, और उस मेघ और नदियों के अभाव में निराश भी नहीं होता है। तो तुझे भोगोपभोग की सामग्री मिलने पर न हर्ष होना चाहिए, न मिलने पर अपकर्ष भी नहीं होना चाहिए ऐसा हर्ष शोक न तब तूं कृतार्थ हुआ ऐसा समझ । क्योंकि दुष्कर तप आदि करने वाले मुनि भी भोगादि की इच्छा रखते हैं उनका कल्याण नहीं है। और 'योग की साधना का रागी घर को छोड़कर वन में मोक्ष की साधना करता है' ऐसा जो कहते हैं वह भी उन मनुष्यों का मोह है। क्योंकि - मोक्ष केवल घर त्याग से नहीं होता परन्तु सम्यग् ज्ञान से होता है। और वह ज्ञान तो पुनः घर में अथवा वन भी साथ रहता है और शेष विकल्पों को छोड़कर वह ज्ञान स्वसाध्य कार्य का साधक भी है, इसलिए हे चित्त ! ज्ञान की महिमा का चिंतन मनन कर । हे मन ! यदि तूं सम्यग् ज्ञानरूपी किल्ले से सुरक्षित रहता है तो संसार में उत्पन्न हुए, और कर्मवश आ मिलते अति रम्य पदार्थ भी तुझे लालची नहीं बना सकते। हे हृदय ! यदि तूं सम्यग् ज्ञान रूपी अखण्ड नाव को कभी भी नहीं छोड़ता है तो अविवेक रूपी नदी के प्रवाह मे तूं नहीं बहेगा। घर में दीपक के समान उत्तम पात्र रूपी जीव में रही हुई मोह की तन्तु रूप बात ( दीवट) का और स्नेह राग रूपी तेल का नाश कर मिथ्यात्व रूपी अंधकार को दूर करते तथा संक्लेश रूपी काजल का वमन करते सम्यग् ज्ञान रूपी दीपक यदि तेरे में प्रकट हो तो हे चित्त ! क्या नहीं मिला ? अर्थात् सर्वस्व मिल गया। गुरु रूपी पर्वत के आधीन रहना अर्थात् गुर्वाधीन रहना । विषयों के वैराग्य रूपी सार तत्त्व वाला ऊँचे स्कंध वाला और धर्म के अर्थी जीव रूपी पक्षियों ने आश्रय बनाया है, ऐसे जो परम तत्त्वोपदेश रूपी वृक्ष, उसके ऊपर शीघ्रता रहित धीरे-धीरे क्रमशः चढ़कर जो सम्यग् ज्ञान रूपी फल को ग्रहण करता है तो तूं मुक्ति का रस आस्वादन कर सकता है। क्योंकि जैसे विद्या सिद्ध वैद्य रोगों की शान्ति का परम उपदेश (उपाय) देते हैं वैसे सद्गुरु ने बाह्य उपचार बिना कर्म रूपी रोग को उपशम करने का परम उपदेशअभ्यंतर उपाय दिया है। हे चित्त! गुरु के उपदेश रूपी इस औषध से केवल अधिगत कर्मों का क्षय होता है ऐसा विचार नहीं करना, परन्तु सकल दुःखों से रहित अजरामरत्व भी प्राप्त होता है । 1. मोहो एस नराणंजं गिहचागा वणम्मि जोगरओ । साहइ मोक्खं ति भणति जेण सन्नाणओ मोक्खो || १६३४ || 86 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - मन का छट्टा अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला हे चित्त! तूं प्रयत्नपूर्वक कोई उस परमतत्त्व का चिंतन मनन कर कि जिसका केवल विचार करते ही दीर्घकाल की परम निवृत्ति (शान्ति प्राप्त) हो । हे मन ! 'मैं ही बुद्धिमान हूँ, मैं ही विद्वान हूँ, मैं ही स्वरूपवान हूँ, मैं ही त्यागी हूँ, मैं ही शूरवीर हूँ' इत्यादि अहंकार रूपी तेरी गर्मी तब तक ही है, कि जब तक तूं परम तत्त्व में मग्न नहीं हुआ। हे चित्त ! हाथी के समान तूं अविवेक रूपी महावत को फेंक करके गर्व रूपी मजबूत स्तम्भ को भी तोड़कर पुत्र, स्त्री आदि की स्नेहरूपी मजबूत बेड़ियों को तोड़कर बन्धन रूपी रागादि वृक्षों को भी मूल में से उखाड़ कर, धर्म रूपी वन में विहार करे तो परम शान्ति को प्राप्त करे । । १९४७ ।। हे चित्त ! दिव्य भोजन के विविध रसों को स्पर्श करता हुआ चम्मच जैसे स्वयं उस रसों का स्वाद नहीं करता, केवल गर्म होता है, वैसे उस आगम के अनुभव बिना का तूं भी दूसरों को श्रद्धा प्रकट कराने के लिए यह प्रवचन साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है, यह अमुक गणधरो ने कहा है, यह अमुक उनके शिष्यों ने कहा है, यह अमुक चौदह पूर्वी ने कहा है, अमुक प्रत्येक बुद्ध ने कहा है और यह अमुक पूर्व श्रीजिनेश्वरों ने कहा है इत्यादि चिंतन से केवल स्वयं खेद या श्रम को ही प्राप्त करता है। अथवा कड़छी तो उन रसों से वासित भी होती है और भेदन भी होती है। हे मूढ़ हृदय ! तूं तो श्री जिन वचन को आचरण करते भी वासित नहीं होता और भेदित भी नहीं होता, तूं महान् ऋषियों के सुभाषितों को नित्य अनेक बार बोलता है, सुनता है, अच्छी तरह विचार करता है, और उसके परमार्थ को भी जानता है, समझता है फिर भी तूं प्रशम रस का अनुभव नहीं करता, वैसे संवेग और निर्वेद का भी अनुभव नहीं करता तथा एक मुहूर्त्तमात्र भी उसके भावार्थ के परिणाम वाला नहीं बनता। इसलिए प्रमाद रूपी मदिरा की मस्ती वाले हे मन! तूं श्री जिन वचन द्वारा शान्त रस की प्राप्ति किये बिना, शक्ति अनुसार साधु की सुविशुद्ध क्रिया करने रूप बाह्य व्यवहार चारित्र में भी तूं लेशमात्र उत्साह को प्राप्त नहीं करेगा तो इस तरह नाव मिलने पर भी हे मूढात्मा ! तूं संसार समुद्र में डूबेगा । अथवा इस तरह तूं केवल श्री जिन वचन के अर्थों को स्वीकार नहीं करेगा, इतना ही नहीं किन्तु तेरे अपने अभिप्राय से तूं उससे विपरीत व्यवसाय, उल्टा उपदेश भी देगा तो हे मूढ़ हृदय ! निज आत्मा का आधारभूत श्री जिन मत द्वारा भी तूं किसी भी विषय में सर्वथा एकान्त कदाग्रही बनता है, किसी समय एकान्त उत्सर्ग मार्ग में चंचल बनकर तूं आकाश के अन्तिम भाग में पहुँचता है और किसी समय अपवाद में ही डूबता तूं रसातल में डूबता है। उत्सर्ग दृष्टिवाला बनता है तब तुझे अपवाद का आचरण करने वाले जीव अच्छे नहीं लगतें, फिर अपवाद दृष्टि वाला बनता है तब तुझे उत्सर्ग में प्रवृत्ति करने वाले जीव अच्छे नहीं लगतें । तथा द्रव्य क्षेत्र कालादि के अनुसार उस विषय में उत्सर्ग-अपवाद उभय मार्ग में जो चलते हैं वे भी तुझे श्रेष्ठ नहीं लगतें । इस तरह हे मन! निश्चयनय में रहे तुझे व्यवहार नय में प्रवृत्ति करते और व्यवहार नय में रहे तुझे निश्चयनय में प्रवृत्ति करते अन्य जीव अच्छे नहीं लगते हैं। तथा द्रव्य, क्षेत्र कालादि भावों के अनुसार उस विषय में जो दोनों नय में प्रवृत्ति करते हैं वे भी तुझे अच्छे नहीं लगते हैं। हे मन! उत्सर्ग अपवाद आदि में समस्त नयों से युक्त यह श्री जिनमत प्रति अरुचि वाले तुझे विशुद्ध जिन मत का शुद्ध रहस्य किस तरह प्राप्त हो सकता है? और उपशम भाव रहित तूं किसी अंश को पकड़कर 'मैंने निश्चित तत्त्व को जान लिया' ऐसा स्वयं मानकर उस विषय में श्रुत निधान रूप ज्ञानी को भी तूं कुछ नहीं पूछता, इसी तरह तुझे मलिन (अनाचरण) कार्यों की चिन्ता नहीं होती और काल के अनुसार गुण धारण करने वाले भी गुणी के सम्बन्ध में तुझे प्रसन्नता नहीं होती, तथा यदि तूं वात्सल्य, स्थिरीकरण, उपबृंहण - प्रशंसा करता है तो भी सर्वत्र समान - पक्षपात बिना नहीं करता, यदि करता है तो अपनी मान्यतानुसार करता है। इसलिए तूं इस प्रकार के मिथ्या आग्रह रूपी चक्र को विवेक रूपी चक्र से छेदन करके सद्धर्म में सर्व प्रकार की इच्छा से रहित विशुद्ध For Personal & Private Use Only 87 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा राग को स्वीकार कर । हे चित्त ! यदि तुझे इस सद्धर्म में थोड़ा भी राग होता तो इतने दीर्घकाल तक महादुःखों की यह जाल तुझे नहीं होती, क्या तूंने नहीं सुना । एग दिवसं पि जीवो, पव्वज्जमुवागओ अन्नन्नमणो । जइ वि न पावइ मोक्खं, अवस्स वेमाणिओ होइ । । १९६९ ।। अनन्य मन वाला (एकाग्र चित्त वाला) जीव यदि एक दिन भी दीक्षा स्वीकार करे तो वह मोक्ष को प्राप्त न करे तो भी वैमानिक देव तो अवश्य बन जाता ही है ।।१९६९ ।। ज्ञान का सम्यग् परिणाम अथवा एक दिन आदि भी बहुत समय कह दिया, क्योंकि एक मुहूर्त्त मात्र होने से इष्ट फल की प्राप्ति होती है, यहाँ शास्त्र में कहा है कि जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाई वासकोडीहिं । तं नाणी तिर्हि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेण ।। १९७१ ।। अज्ञानी जितने कर्मों को अनेक करोड़ों वर्षों में खत्म करते हैं उतने कर्मों को तीन गुप्ति वाले ज्ञानी पुरुष एक उच्छ्वास (श्वास) मात्र काल में खत्म करते हैं ।। १९७१ । ।" यदि ऐसा नहीं होता तो हे मन ! सम्यग् ज्ञान के परिणाम रूप गुणरहित पूर्व में किसी गुणी की साधना बिना ही श्री मरुदेवा उसी क्षण में सिद्ध हुए हैं, वह कैसे होते? हे मन ! तूं तो किसी समय राग में रंगा हुआ तो किसी समय द्वेष से कलुषित हुआ, किसी समय मोह में मूढ़ बना तो किसी वक्त क्रोधाग्नि से जला, किसी समय मान से अक्कड़बना, तो किसी समय माया से अति व्याप्त हुआ, किसी दिन बड़े लोभ समुद्र में सर्वांग डूबा हुआ, तो किसी समय वैर मत्सर उद्वेग-पीड़ा, भय और आर्त्त - रौद्र ध्यान के आधीन होता है। किसी समय द्रव्य, क्षेत्र आदि की चिन्ता के भार से युक्त, इस तरह नित्यमेव तीव्र वायु से उड़ते ध्वजापट के समान तूं व्याकुल बना कदापि परमार्थ में थोड़ी भी स्थिरता को प्राप्त नहीं करता । इत्यादि हे चित्त ! तुझे कितनी शिक्षा दी है ? तूं स्वयंमेव हिताहित के विभाग का विचार कर और उसका निश्चय कर, उसके बाद नित्य कुशलता - (शुभ) में प्रवृत्ति और कुशल मार्ग में रहनेवालों का सत्कार, सन्मान कर । अकुशल प्रवृत्ति और अकुशल वस्तु का त्याग कर ! शुभाशुभ में राग-द्वेष त्याग कर, माध्यस्थ भाव का सेवन कर। इस प्रकार अकुशल का त्याग और कुशल मार्ग में प्रवृत्ति रूप मुख्य कारण द्वारा ( उस पर अमल करने से ) हे मन ! तूं समाधि रूप परम कार्य को सिद्ध करेगा । इस प्रकार यदि भावपूर्वक नित्य प्रति समय मन को समझाया जाय तो एक साथ तूं माया, क्रोध और लोभ को जीत लेगा इसमें क्या आश्चर्य है? अन्यथा अनन्य विविध कवि कल्परूप कल्पनाओं में आसक्त चित्त से पीड़ित, हित को भी अहित, स्वजन को भी पराया, मित्र को भी शत्रु और सत्य भी गलत मानकर निरंकुश हाथी जिसे रोकना दुःशक्य है ऐसा मनुष्य वसुदत्त के समान, कौन-कौन से पाप स्थान को नहीं करता है? ।।१९८२ ।। वह इस प्रकार है : मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा उज्जैन नगर में सूरतेज नाम का राजा था। उसने सोमप्रभ नाम का ब्राह्मण पुरोहित रखा था। वह सभी शास्त्रों के रहस्यों का जानकार, सर्व प्रकार के दर्शनों का जानकार, सद्गुणी होने से गुण वालों को और राजा को अत्यन्त प्रिय था। उसके मर जाने के बाद उसके स्थान पर स्थापन करने के लिए स्वजनों ने उसके पुत्र वसुदेव राजा को दिखाया, परन्तु वह छोटा और पढ़ा हुआ नहीं होने से राजा ने उसका निषेध किया और उसके स्थान पर अन्य ब्राह्मण को स्थापन किया। फिर अपना पराभव होता जानकर अत्यन्त खेद से संताप करते वह वसुदत्त 88 For Personal & Private Use Only . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला पढ़ने के लिए घर से निकल गया। 'पाटलीपुत्र नगर विविध विद्या के विद्वानों का श्रेष्ठ विद्या क्षेत्र है।' ऐसा लोगों के मुख से सुनकर वह वहाँ गया और कालक्रम से सर्व विद्याओं को पढ़कर फिर इच्छित कार्य की सिद्धि वाला वह अपने नगर में वापिस आया, उसकी विद्या से राजा प्रसन्न हुआ और पिता की आजीविका उसे दी, वह अपने विद्या के बल से राजा और नगर के सर्व लोगों का माननीय बना। राजा के सन्मान से, ऐश्वर्य से और श्रुतमद से जगत को भी तृणवत् मानता वह वहाँ काल व्यतीत करने लगा। इस ऐश्वर्य आदि एक के बल से भी अधीर पुरुषों का मन चंचल बनता है तो कुल, बल, विद्या आदि सर्व का समूह एकत्रित हो जाये तो उससे क्या नहीं होता है? प्रलयकाल के समुद्र के तरंगों के समूह को रोकने में पाल आदि बांधकर सफलता प्राप्त कर सकते हैं परन्तु ऐश्वर्य आदि के महामद के आधीन बनें मन को थोड़ा भी रोकना अशक्य है। इस तरह उन्मत्त मन वाले उसको उसके मित्रों ने कतहल से एक रात्री में नट का नाटक देखने को कहा-हे मित्र! चलो, हम जाकर क्षण भर नट नाटक देखें, क्योंकि देखने योग्य देखने से आँखों का होना सफल होता है, उनकी इच्छानुसार वह वहाँ गया और एक क्षण बैठा। उस समय वहाँ (स्टेज पर) एक कोई युवती.किसी भाट के साथ इस तरह बोलती हुई सुनायी दी-हे सुभग! तेरे दर्शनरूपी अमृत मिलने से आज कपट पण्डित और घर में बन्द कर रखने वाले मेरे पति से मुझे मुक्ति मिली है। हे नाटक के प्रथम पात्र। तेरा जीवन दीर्घ अखण्ड बनें क्योंकि, तूने क्रोध के समुद्र समान मेरे पति को यहाँ व्यग्र किया है, इसलिए हे सुभग! आओ, जब तक यह कूट पण्डित यहाँ समय व्यतीत करता है तब तक क्षणभर क्रीड़ा करके अपने-अपने घर जायें। इस तरह उनकी स्नेहयुक्त वाणी सुनकर गलत विकल्प करने रूप कथन से प्रेरित उस वसुदत्त ने विचार किया कि ।।२००० ।। -मैं मानता हूँ कि निश्चय ही यह मेरी पत्नी है, यह पापिनी परपुरुष के संग क्रीड़ा करती है और मुझे उद्देश्य से कुट पण्डित कहती है, पहले भी मैंने उसके लक्षणों से दुराचारिणी मानी थी और अब प्रत्यक्ष ही देखा, इससे इसको शिक्षा देनी चाहिए। ऐसा विचारकर वह वसुदत्त उसको मारने के लिए चला। इतने में तो स्वच्छन्द आचरण करने वाली वह युवती कहीं जाती रही। फिर 'मैं मानता हूँ कि-मुझे आते देखकर वह पापिनी शीघ्र घर गयी होगी' ऐसा अपनी तुच्छ बुद्धि से विचारकर वहाँ से वह शीघ्र घर की ओर चला। फिर प्रबल क्रोध के वश बना जब वह अपने घर के दरवाजे पर पहुँचा, तब अपनी बहन को शरीर चिन्ता से निवृत होकर घर में प्रवेश करते देखा, इससे 'यह मेरी पत्नी है' ऐसा मानकर उसने कहा-अरे पापिनी! दुराचारिणी होकर भी मेरे घर में क्यों प्रवेश करती है? उस भाट के सामने मुझे 'कपट पण्डित' ऐसा मुलजिम बनाकर और उसके साथ सहर्ष क्रीड़ा करके तूं आयी है। ऐसा बोलते उसने 'हा! हा! ऐसा क्यों बोलते हो, यह कौन है? मैंने क्या अकार्य किया?' इस प्रकार बड़ी आवाज से बोलती बहन को भी अत्यन्त क्रोध के आवेश में उसको नहीं जानने से लकड़ी और मुट्ठी से निष्ठुरतापूर्वक उसके मर्मस्थानों पर इस तरह प्रहार किया कि जिससे वह मर गयी। उसके बाद ही मित्र वर्ग ने आकर उसे रोका, इससे अधिक क्रोधायमान होकर उसने कहा कि-हे पापियों! तुम्हारे ही प्रपंच से निश्चय रूप से मेरी स्त्री ऐसा अकार्य करती है और इसी कारण से ही तुम मुझे रोकते हो, निश्चय इस कारण से ही इसके पाप कार्य में विघ्न दूर करना तुम नहीं चाहते परन्तु मुझे नाटक दिखाने के लिए भी ले गये; अथवा कृत्रिम मैत्री से युक्त कपटियों को कोई भी कार्य अकरणीय नहीं है इसलिए हे दुराचारियों! मेरी दृष्टि के सामने से दूर हट जाओ। इस तरह गलत कुविकल्प से पीड़ित मन वाले वसुदत्त ने निश्चय ही निर्दोष होते हुए भी इस तरह उनका तिरस्कार किया, इससे वे अपने घर चले गये। यह कोलाहल सुनकर उसकी स्त्री घर में से बाहर आकर और स्थिति देखकर बोलने लगी कि-'हा! हा! निर्दय! निर्लज्ज! अनार्य! अपनी बहन को क्यों मारता है? जो ऐसा पाप तो चण्डाल भी नहीं करता 89 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-मन की कुविकल्पता पर वसुदत्त की कथा है। इस तरह उसने और नगर लोगों ने भी उसकी निन्दा की, इससे अति कुविकल्पों से घबड़ाये हुए मन वाले उस वसुदत्त ने पुनः विचार किया कि यह मेरी पत्नी केवल असती ही नहीं, परन्तु शाकिनी भी है कि जिससे मुझे भी इस तरह व्यामोहित करके स्वयं हट गयी है और बहन को मरवा दिया। फिर मेरा क्रोध शान्त हुआ है और साधु के समान मुख का रंग बदले बिना गंभीर मुख बनाकर मुझे रोकने लगी है, यदि इसने मेरी दृष्टि वंचना नहीं की होती तो क्या अत्यन्त अन्धकार में मेरी बहन को भी मैं नहीं जान सकता? ऐसी कल्पना कर कमल के पत्र समान काली तलवार को खींचकर हे पापिनी! डाकण! हे मेरी बहन का नाश करने वाली! अब तूं कहाँ जायगी? कि जिसे बृहस्पति के समान विद्वान होते हुए भी मुझे तूंने विभ्रमित किया। ऐसा बोलते उसने पत्नी के दोनों होठों सहित नाक को काट दिया। उसके बाद सूर्योदय हुआ, तब रात्री का सारा वृत्तान्त सुनने से क्रोधित हुए लोगों ने तथा राजा ने उसे नगर में से बाहर निकाल दिया, फिर अकेला घूमता हुआ विदिशा नामक नगर में पहुँचा, वहाँ उसने तारापीढ़ नामक राजा को प्रसन्न किया, प्रसन्न हुए राजा ने उसे नौकरी दी, और प्रसन्न मन वाला वह वहाँ रहने लगा, एक दिन सूर्यग्रहण हुआ तब विचार करने लगा कि-आज मैं ब्राह्मणों को निमंत्रण देकर बहुत साग से युक्त, अनेक जात के पेय पदार्थ सहित विविध मसालों से युक्त अनेक स्वादिष्ट वाले विविध भोजन को तैयार करवाऊँगा और राजा के गडरियों के पास से दूध मंगवाऊँगा। यदि बार-बार विनयपूर्वक मांगने पर भी वे किसी प्रकार से दूध नहीं देंगे तो मैं आपघात करके भी उसे ब्रह्म हत्या दूँगा। ऐसा मिथ्या विकल्पों से भ्रमित हुआ, कल्पना को भी सत्य के समान मानता हुआ, वह 'भोजन का समय हुआ है' ऐसा मानकर अपने मन कल्पना द्वारा निश्चय ही 'बारबार बहुत समय तक मांगने पर भी गडरियों ने दूध नहीं दिया' ऐसा मानकर तीव्र क्रोधवश होकर शस्त्र से अपनी हत्या करने लगा और ऊँचे हाथ करके बोला-अहो लोगों! यह ब्रह्महत्या राजा के गडरियों के निमित्त से है, क्योंकि इन्होंने मुझे दूध नहीं दिया, इस तरह एक क्षण बोलकर जोर से शस्त्र मारकर अपनी हत्या की और रौद्रध्यान को प्राप्तकर वह मरकर नरक में गया। क्योंकि ऐसी स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला चित्त रूपी हाथी से मारा गया जीव एक क्षण भी सुख से नहीं रह सकता है। इसलिए मन को प्रतिक्षण शिक्षा देनी चाहिए, अन्यथा ऊपर कही हुई परिस्थिति अनुसार क्षणभर भी कुशलता नहीं होती है ।।२०३४।। और स्वच्छंद दास को वश करने के समान, स्वच्छंद मन को ही अपने वश करना चाहिए। जिसने मन पर विजय प्राप्त की है। उसने ही युद्ध मैदान में विजय ध्वजा प्राप्त की है। वही शूरवीर और वही पराक्रमी है। सम्भव है कि कोई पुरुष किसी तरह सम्पूर्ण समुद्र को भी पी जाये, जाज्वल्यमान अग्नि की ज्वालाओं के समूह बीच शयन भी करें शरवीरता से तीक्ष्णधार वाली तलवार की धार ऊपर भी चलें. और तीव्र अग्नि जैसे जलते भाले की नोंक ऊपर पद्मासन पर बैठने वाला भी जगत में प्रकृति से ही चंचल, उन्मार्ग से मस्त रहने वाला और शस्त्र रहित भी मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जो मदोन्मत्त हाथी का भी दमन करते हैं, सिंह को भी अपने वशीभूत बनाते हैं उछलते समुद्र के पानी के विस्तार को भी शीघ्र रोक सकते हैं। परन्तु वे कष्ट बिना ही मन को जीतने में समर्थ नहीं होते, तो भी किसी प्रकार यदि उसने मन को जीत लिया तो निश्चय ही उसने जीतने योग्य सब कुछ जीत लिया। इस विषय में अधिक क्या कहें? मन को जीतने से दुर्जय बहिर आत्मा भी पराजित होता है और उसे पराजित करने से अंतरात्मा परम पद का स्वामी परमात्मा बनता है। इस तरह मन रूपी मधुकर को वश करने के लिए मालती के पुष्पों की माला समान परिकर्म विधि आदि चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला रूपी आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार में चित्त की शिक्षा नाम का यह छट्ठा अन्तर द्वार कहा ।।२०४३।। 90 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार--अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार : इस तरह शिक्षा देने पर भी चित्त प्रायः नित्य स्थिर वास से राग के लेप से लिप्त होता है, परन्तु निःस्पृह नहीं बन सकता है। इसलिए अब समस्त दोषों का नाश करने वाला अनियत विहार को कहते हैं, उसे सुनकर आलस का त्यागकर उद्यमशील बनों। अवश्य वसति में, उपधि में, गाँव में, नगर में, साधु समुदाय में तथा भक्तजनों में इस तरह सर्वत्र राग बंधन का त्यागकर विशुद्ध सद्धर्म को करने में प्रीति रखने वाले साधु को सविशेष गुणों की इच्छा से सदा अनियत विहार में रहना चाहिए, अप्रतिबद्ध विचरण करे और श्रावक को भी सदा तीर्थ यात्रादि करने में प्रयत्न करना चाहिए। जो कि गृहस्थ को निश्चय स्पष्ट रूप में अनियत विहार नहीं है तो भी गृहस्थ 'मैं अभी तीर्थंकर भगवंतों के जन्म दीक्षादि कल्याणक जहाँ हुए हों उन तीर्थों में श्रीअरिहंत भगवंतों को द्रव्य स्तव का सारभूत वंदन नमस्कार करूँगा, फिर सर्व संग का त्यागकर दीक्षा स्वीकार करूँगा अथवा आराधना अनशन को स्वीकार करूँगा।' ऐसी बुद्धि से प्रशस्त तीर्थों में यात्रार्थ घूमते अथवा श्रेष्ठ आचार वाले गुरु भगवंतों की खोज करते गृहस्थ भी अनियत विहार कर सकता है। उसमें जो दीक्षा लेकर आराधना करने की इच्छा वाला है उसके लिए अच्छे आचार वाले गुरु वर्ग की प्राप्ति का स्वरूप आगे गण संक्रमण नामक दूसरे द्वार में कहेंगे। परंतु जो घर में रहकर ही एकमात्र आराधना करने का ही मन वाला है, उसके लिए श्रेष्ठ आचार वाले गच्छ की गवेषणा कीधि इस द्वार में आगे कहेंगे। अब श्री जिन मत की आज्ञानुसार चलने वाले सर्व साधु तथा श्रावकों को भी एक क्षेत्र में से अन्य क्षेत्र में गमन रूप विहार की यह विधि है कि-प्रथम निश्चय जिसने जिसके साथ में मन से, वचन से या काया से जो कोई भी पाप किया हो, करवाया हो, अथवा अनुमोदन किया हो, वह थोड़ा हो अथवा अधिक उस समस्त पाप का भी समाधि की इच्छा करने वाला सम्यग् भावपूर्वक उससे क्षमा याचना करे और इसमें ऐसा समझे कि मेरा किसी तरह मृत्यु के बाद भी वैर का अनुबन्ध न हो। इसमें यदि विहार करने वाला सामान्य मुनि हो तो आचार्य, उपाध्याय को और स्वयं पर्याय में छोटा हो तो शेष साधुओं को भी अभिवंदन करके कहे कि-मैं जिस-जिस नगरादि में जाऊँगा वहाँ-वहाँ चैत्य, साधुओं और संघ को तुम्हारी ओर से भी वंदन करूँगा। अथवा जो जाने वाला स्वयं बड़ा हो तो वहाँ रहने वाले साधु विहार करते मुनि को वंदन करके कहे कि-हमारी ओर से चैत्य, साधु और संघ को वंदन करना। उसके बाद उस क्षेत्र में चैत्य भवन (मंदिर) में जाकर भक्तिपूर्वक चैत्यालय के आगे उनका वंदना के लिए सम्यग् उपयोग करें। इसी तरह श्रावक भी निश्चय रहने वाला सर्व परिवार, स्वजन, संघ से सम्यग् रूप से क्षमा याचना कर, प्रतिमा, आचार्य और साधु आदि को वंदन की सम्यग् विधि करके, उन्होंने दिया हुआ निष्पाप संदेश को स्वीकार करके उपयोगपूर्वक उस गाँव, नगर आदि में आकर जहाँ जाये वहाँ बड़े यान वाहन आदि वैभव से और न्यायोपार्जित धन से जिस क्षेत्र में आवश्यक हो उसमें धन देकर, अनेक धर्म स्थानकों में नित्यमेव श्रीजिनशासन की परम उन्नति को करते और दीन अनाथों को अनुकंपादान से परम आनन्द देते हुए बुद्धिमान श्रावक समस्त तीर्थों में परिभ्रमण करें, उसके बाद गृहस्थ और साधु भी उन चैत्यों में जाकर 'निश्चय संघ यह वंदन करता है' इस प्रकार प्रथम उपयोगपूर्वक संघ सम्बन्धी सम्यग् वंदन करके, फिर उसी अवस्था में भावपूर्वक अपना भी सम्यग् वंदन करें, इस तरह किसी कारण से यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि का अभाव हो तो संक्षेप से भी प्रणिधान आदि तो अवश्य ही करें। उसके बाद ज्ञानादि गुणों की खान समान साधुओं को और श्रावकजनों को देखकर कहे कि-हमको आप अमुक स्थान पर श्री जिनेश्वरों के दर्शन वंदन करवाओ। फिर आदर के अतिशय से प्रकट हुए 91 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-दुर्गता नारी की कथा रोमांच द्वारा कंचुक समान बनी काया वाले, भक्ति से भरे हुए उत्तम मनवाले, स्थानिक श्रावक आदि भी उनके साथ में पृथ्वीतल ऊपर मस्तक जमाकर-हे त्रिलोक के महाप्रभु! हे प्रभृत-अनन्त गुण रत्नों के समुद्र! हे जिनेन्द्र परमात्मा! आप विजयी बनों इत्यादि श्री अरिहंत प्रभु के गुणों द्वारा अथवा 'नमोऽत्थुणं' इत्यादि शक्रस्तव के सूत्र से स्तुति करें, और आगन्तुक पधारें हुए यात्री उनके साथ आचार्य आदि का भेजा हुआ धर्मलाभ आदि को कहें, उसके बाद स्थानीय श्रावक अभिवंदन, वंदन, अनुवंदन रूप उचित मर्यादा का पालन करें। उसके बाद परस्पर कुशलता आदि विशेष पूछने में विकल्प जानना। अर्थात् प्रथम नमस्कार कौन करें और फिर कौन करें इस सम्बन्धी अनियम जानना। इस तरह परस्पर नमस्कार करने योग्य प्रेरणा रूप शुभयोग से उभय पक्ष को इष्ट की सिद्धि कराने वाला शुभपुण्य का अनुबन्ध होता है, ऐसा श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है। इस समाचारी को जानकर जो विधिपूर्वक अमल करते हैं, उन्हीं को ही इस विषय में कुशल जानना और अन्य सर्व को अकुशल जानना। इस तरह जो कहा है उस विधि अनुसार उस देश में विचरते गृहस्थ अपने और पर के जीवन में धर्म गुणों की सविशेष वृद्धि करता है। वह इस प्रकार से द्रव्यस्तव और भावस्तव आराधना में सविशेष रक्त श्रावक वर्ग को देखकर स्वयं भी उसे सविशेष करने में तत्पर होता है ।।२०७५ ।। और उस आने वाले को स्थान-स्थान पर ऐसी क्रिया करने में रक्त प्रवृत्ति करते देखकर धर्म परायण बनें अन्य जीवों में भी वह शुभ गुण विकासमय बनता है। और उसको देखकर अश्रद्धालु को भी प्रायः धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है और स्वयं श्रद्धालु हो वह जीव पुनः वैसी प्रवृत्ति करने में उद्यमशील होता है। अस्थिर हो वह स्थिर होता है। तथा स्थिर हो वह अधिक गुणों को ग्रहण करता है। अगुणी भी गुणवान बनता है और गुणी गुणों में अधिक दृढ़ बनता है। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान का जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान, निर्वाण जहाँ-जहाँ हुआ हो उन-उन अति प्रशस्त तीर्थों में श्री सर्वज्ञ भगवंतों को वंदन करें और सुस्थिर गुरु की खोज करें, वहाँ तक तीर्थयात्रा-परिभ्रमण करे कि जहाँ तक परम श्रेष्ठ आचार वाले गुरु की प्राप्ति हो, फिर ऐसे गुरुदेव की प्राप्ति होते हर्ष से उछलते रोमांचित रूप कंचुक वाला वह स्वयं को मिलना था वह मिल गया और समस्त तीर्थ समूह से पाप धुल गये, ऐसा मानते विधि-पूर्वक उस गुरु भगवंत को अपने दोषों को सुनाये। उसके बाद गुरु देव के कहे हुए प्रायश्चित्त को सम्यग् भाव से स्वीकारकर ऐसा चिन्तन करें कि अहो! पाप से मलिन मुझे भी निष्कारण करुणा समुद्र इन आचार्य भगवंत ने प्रायश्चित्त रूप जल से शुद्धि करके परम विशुद्ध किया है। निश्चय ही इस गुरुदेव का वात्सल्य इतना अधिक है कि इनके सामने माता, पिता, बन्धु, स्वजन आदि किसी का भी नहीं है। इस प्रकार वात्सल्य भाव से जगत में विचरते हैं, अन्यथा कभी भी नहीं देखे, नहीं सुने, परदेश से आये हुए, ये महाभाग गुरुदेव इस तरह प्रिय पुत्र के समान मेरा सन्मान कैसे करते? उसके बाद परमानंद से विकसित आँखों वाला वह चिरकाल सेवा करके, उनके उपदेश को स्वीकार करें, गुरु महाराज को अपने क्षेत्र की ओर विहार करने का निमन्त्रण करें। ऐसा करने से पुण्य के समूह से पूर्ण इच्छावाला किसी उत्तम श्रावक को निश्चय ही निर्विघ्न से इच्छित सिद्धि होती है। और इस तरह यात्रार्थ प्रस्थान करने वाले किसी को संभव है क्योंकि सोपक्रम आयुष्य से 'भाग्य योग' से बीच में मृत्यु हो जाये तो तीर्थादि पूजा बिना भी शुभ ध्यान रूपी गुण से दुर्गता नारी के समान तीर्थयात्रा के साध्य रूप फल की सिद्धि होती है। वह इस प्रकार : दुर्गता नारी की कथा सिद्धार्थ नामक राजा के पुत्र देवों के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त चरणों वाले, लोगों को चारित्र मार्ग में जोड़ने वाले, लोकालोक के प्रकाशक, करुणा रूपी अमृत के समुद्र, तुच्छ और उत्तम जीवों के प्रति 92 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-दुर्गता नारी की कथा श्री संवेगरंगशाला समदृष्टि वाले एक समय श्री महावीर प्रभु काकंदीपुरी में पधारें, वहाँ देवों ने श्रेष्ठ, मनोहर, सुशोभित, विविध प्रकार से उज्ज्वल लहराती ध्वजाओं वाले और सिंहासन से युक्त मनोहर समवसरण की रचना की, फिर सुर असुर सहित तीन जगत के पूजनीय चरण कमल वाले, भव्य जीवों को प्रतिबोध करने वाले, जगत के नाथ श्री वीर प्रभु उसमें पूर्वाभिमुख बिराजमान हुए फिर हर्षित रोमांचित वाले असुर, देव, विद्याधर, किन्नर, मनुष्य और राजा उसी समय श्री जिन वंदन के लिए समवसरण में आयें, तब उत्तम श्रृंगार को सजाकर हाथी, घोड़े, वाहन, विमान आदि में बैठकर देव समूह के समान शोभते नगर निवासी भी धूप पात्र और श्रेष्ठ सुगंधमय पुष्प समूह आदि से हाथ भरे हुए अपने नौकर समूह को साथ लेकर शीघ्र श्री जिनवंदन के लिए चलें। तब उसी नगर में रहने वाली लकड़ियों को लेकर आती, अत्यन्त आश्चर्य प्राप्त करती एक दरिद्र वृद्धा ने एक मनुष्य से पूछा-अरे भद्र! ये सब लोग एक ही दिशा में कहाँ जाते हैं? उसने कहा-ये लोग, तीन जगत के बन्धु, दुःखदायी पापमैल को धोने वाले, जन्म जरा मरणरूपी लता विस्तार को विच्छेदन करने में कुल्हाड़े के समान श्री वीर परमात्मा के चरण कमल की पूजा करने के लिए और शिवसुख का कारणभूत धर्म को सुनने के लिए जा रहे हैं ।।२१००।। यह सुनकर शुभ पुण्य कर्म के योग से अतिशय भक्ति जागृत हुई और वह वृद्धा विचार करने लगी किमैं पुण्य बिना की दरिद्र अवस्था में क्या कर सकती हूँ? क्योंकि मेरे पास जिनवर के चरण कमल की पूजा कर सकूँ ऐसी अतिश्रेष्ठ निरवद्य पूजा के अंग समूह रूप सामग्री नहीं है अथवा नहीं है तो इससे क्या? पूर्व में जंगल के अंदर देखे हुए सिंदुवार-निगुंडी के मुफ्त मिलते फूलों को भी शीघ्र लाकर श्री जिनपूजा करूँ। उसके बाद पुष्पों को लेकर भावों में वृद्धि करती श्री जिनपूजा के लिए शीघ्र ही वह वृद्धा समवसरण के प्रति चली, परन्तु वृद्धावस्था से अत्यंत थक जाने से बढ़ती विशुद्ध भावना वाली वह अर्धमार्ग में ही मर गयी, और उसने श्रीजिनपूजा की एकाग्रता मात्र से भी कुशल पुण्य कर्म उपार्जन करके सौधर्म देवलोक में महर्द्धिक देव की संपत्ति प्राप्त की। 'वृद्धावस्था के कारण मूर्छा प्राप्त की है अथवा थक गयी होगी' ऐसा समझकर लोगों ने अनुकम्पा से उसके शरीर पर पानी का सिंचन किया। तो भी उसे शरीर की चेष्टा से रहित देखकर लोगों ने श्री जिनेश्वर भगवंत से पूछा-हे भगवंत! क्या वह जीती है या मर गयी है? प्रभु ने कहा-वह मर गयी है और उस वृद्धा का जीव देव रूप बनकर शीघ्र ही अवधिज्ञान से अपना पर्वभव जानकर परम भक्ति से आकर जगदगरु के चरण कमलों को अभिवंदन करके पास बैठा था। उस देव को भगवंत ने लोगों को बतलाया और जिस तरह उस वृद्धा का जीव यह देव हुआ वह बतलाया। इससे आश्चर्य चकित हुए लोगों ने कहा-हे नाथ! सुकृत बिना भी ऐसी देव ऋद्धि उसने किस तरह प्राप्त की? उसने सद्गति के कारणभूत ज्ञान, दान, तप, शील अथवा सर्वज्ञ पूजन कितना किया? हमेशा दारिद्र का बड़े कंद रूप, जन्म से दुखियारी और दूसरों की नौकरी से सदा संताप करती, उसने देव लोक किस तरह प्राप्त किया? इससे श्री तीन जगत के गुरु ने उसके पूजा की एकाग्रता का सारा वृत्तांत कहा। लोगों ने प्रभु को पुनः पूछा-हे भगवंत! श्री जिनेश्वर के गुणों से अज्ञात यह वृद्धा केवल पूजा के ध्यान से ही किस तरह देवलोक में उत्पन्न हुई? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा : जिसके गुण नहीं जानते ऐसे मणि आदि जैसे ज्वर रोगादि के समूह का नाश करता है वैसे जगद् गुरु श्री जिनेश्वर की भी आराधना करने वाला आराधक आत्मा उनको भले सामान्य रूप में जाने फिर भी स्वयं जिनेश्वर अनंत गुणों के कारण श्रेष्ठ होने से सत्कार करने वाले अन्य के अशुभ कर्मों का नाश करते हैं। इसी कारण ही इस शासन में गृहस्थों को द्रव्यस्तव की अनुज्ञा दी है, क्योंकि इसके अभाव में दर्शन शुद्धि भी नहीं होती है। इस तरह श्री जिनपूजा का ध्यान मुक्ति सुख का मूल है, पूर्वोपार्जित पाप रूपी पर्वत को तोड़ने में वज्रसमान है और 93 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-अनियत विहार से गृहस्थ-साधु के साधारण गुण मनोवांछित अर्थों का निधान है। तो भी मूढ़ जीवों को जैसे अत्यन्त मनोहर भी चिन्तामणि प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती है वैसे शुभ पुण्य कर्म के अभाव में श्री जिनपूजा का परिणाम भी नहीं होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय आश्चर्य मानो कि इतने भावमात्र से भी अद्यपि यह महात्मा शिवपद को भी प्राप्त कर सकता है, क्योंकि यहाँ से च्यवनकर श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर सुसाधु की सेवा से श्रेष्ठ दीक्षा को स्वीकार करेगा। वहाँ से देव होगा, पुनः वह पुण्यानुबंधी पुण्य से मनुष्य होगा इस तरह आठवें भव में कनकपुर नगर में जग प्रसिद्ध कनकध्वज नाम का राजा होगा और वह धन्यात्मा एक दिन शरत् काल होने पर महावैभव के साथ इन्द्र महोत्सव देखने जायगा, वहाँ मेंढक को निगलते एक बड़े सर्प को देखकर, उस सर्प को भी तीक्ष्ण चोंच से निगलते मत्स्यभक्षी 'कुर कुर' शब्द बोलने वाला कुरर नामक पक्षी को देखकर, और करुण स्वर से रोते उस कुरर पक्षी को भी निगलते यम समान अजगर को देखकर, वह महात्मा विचार करेगा कि जैसे मेंढक को सर्प निगलता है वैसे इस पापी जीव को भयंकर राज्य के अधिकारी निगलते (दंड देते) हैं, अधिकारी को भी कुरर पक्षी समान राजा दण्डित करता है और उस राजा को भी अजगर समान यमराज एक कौर बनाकर निगल जाता है। इस तरह हमेशा आयी हुई आपत्तियाँ रूपी दुःख से भरे हुए इस लोक में मनुष्य को मात्र भोग भोगने की इच्छा करना वह खेदजनक महामोह की मूढ़ता है। इस तरह तीन लोक में जन्म मरण से मुक्त कोई नहीं है, फिर भी वैराग्य उत्पन्न नहीं होता। उन मनुष्यों की मूढ़ता भी खेदजनक है। ऐसा चिंतन मननकर राज्य का, देश का, अंतःपुर का और नगर का त्यागकर श्रमणसाधु होगा तथा शेष सर्व कर्म को खत्म करके सिद्धि को प्राप्त करेगा। इस प्रकार निश्चय ही श्री अरिहंत भगवंत की पूजा का ध्यान भी मोक्षदायी बनता है। इसलिए यहाँ कहा कि-श्रावक की अर्धमार्ग में किसी तीव्र आपत्ति के वश मृत्यु हो जाये फिर भी पूजा के ध्यान मात्र से भी तीर्थों की पूजा का फल प्राप्त करता है ।।२१३३ ।। इस तरह सम्यग् आलोचना के परिणाम वाले गुरु के पास जाने के लिए निकला हुआ भी यदि बीच में ही बीमारी आदि कोई असुख का कारण हो जाये, तो भी वह आराधक होता है। तथा आलोचना के सम्यक् परिणाम वाला गुरुदेव के पास जाते यदि वह बीच मार्ग में ही मर जाय तो भी आराधक होता है। इसी तरह गुरु के पास जाते हुए आलोचना के परिणाम वाले की यदि बीच में ही असुख-बिमारी आदि हो जाये अथवा मृत्यु हो जाये तो भी वह आराधक होता है। क्योंकि पाप शल्य का उद्धार करने की इच्छा वाला वह संवेग-निर्वेद तथा तीव्र श्रद्धा से पाप की शुद्धि के लिए गुरु के पास जाने से वह भाव से आराधक होता है। इस तरह आलोचना के परिणाम वाले गुरु महाराज के पास आते तपस्वी का भी वहाँ पहुँचने के पहले अपना अथवा गुरु का अमंगल हो जाय तो भी सम्यक् शुद्धि होती है। अथवा अनियत विहार से होने वाले गुण हैं, जैनागम में कहे हुए प्रायः साधु और गृहस्थ के यह साधारण गुण सुनो! ।।२१३९ ।। अनियत विहार से गृहस्थ-साधु के साधारण गुण : अनियत विहार करने से (१) दर्शन शुद्धि (२) संवेग निर्वेद द्वारा धर्म में स्थिरीकरण, (३) चारित्र के अभ्यास रूपी भावना, (४) सूत्रों के विशेष अर्थ की प्राप्ति, (५) कुशलता और (६) विविध देशों का परिचय परीक्षा, ये छह गुणों की प्राप्त होती है। वह इस प्रकार : श्री जिनेश्वर भगवंतों की दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण की पवित्र भूमियाँ, जहाँ चैत्य, चिह्न, प्राचीन अवशेष स्थान तथा जन्म भूमियों को देखने से आत्मा प्रथम, सम्यग्दर्शन को अति विशुद्ध करता है। यात्रा करते हुए स्वयं संवेगी को सविशेष संवेग प्राप्त होता है, सद्विधि के द्वारा सुविहितों को संवेग की विशेष प्राप्ति होती है और अनियत विहार से अस्थिर बुद्धि वाले को स्थिरता प्रकट करवाता है, अन्य संवेगियों को, धर्म प्रीति वालों 94 For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-सेलक सूरि की कथा 'श्री संवेगरंगशाला को तथा पाप भीरु आदि को देखकर स्वयं भी धर्म में प्रीतिवाला और स्थिर होता है, प्रायः प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी बनता है। इस तरह विहार से परस्पर धर्म में दूसरा स्थिरीकरण गुण प्राप्त करता है। अनियत विहार से चलने का, भूख-प्यास का, ठंडी और गरमी का इत्यादि परीषहों को सहन करने का अनुभव, वसति रहने का स्थान, कैसा मिलता है उसको सम्यक् सहन करने का, चारित्र अभ्यास रूप तीसरी भावना होती है। विहार करने वाले को अतिशय श्रुत ज्ञानियों के दर्शनों का लाभ होता है, उससे सूत्र-अर्थ का स्थिरीकरण तथा अतिशय गूढ अर्थों का तथा उसका रहस्य जानने का चौथा सूत्र विशेष अर्थ की प्राप्ति होती है। विहार करते नये-नये समुदाय में रहने से अनेक प्रकार के आचार्यों के गण में सम्यक् प्रवेश करते निष्क्रमण आदि देखने से उस विधि में और अन्य सामाचारी में भी पाँचवां कुशलता गुण उत्पन्न होता है। और विहार करने से साधु को जहाँ निर्दोष आहारादि आजीविका सुलभ हो ऐसे संयम के योग्य क्षेत्र का परिचय छट्ठा परीक्षा गुण प्रकट होता है। इसलिए छह गुण प्राप्ति की इच्छा वाले मुनि को जब तक पैरों में शक्ति हो तब तक अनियत विहार की विधि का पालन करना चाहिए अर्थात् अप्रतिबद्ध विहार करना चाहिए। यदि बलवान होने पर भी रस आदि की आसक्ति से विहार में प्रमाद करता है तो उसे केवल साधु ही छोड़ देते हैं ऐसा नहीं, परन्तु गुण भी उसे छोड़ देते हैं। और वही शुभभाव फिर से उत्पन्न होने पर विहार में उद्यमशील होता है, तो उसी समय साधु के गुणों से युक्त बन जाता है। प्रमाद रूप स्थिरवास और अप्रमाद रूप नियत विहार इन दोनों विषय में सेलक सूरि का वृत्तान्त दृष्टान्त रूप में है ।।२१५०।। वह इस प्रकार : सेलक सूरि की कथा सेलकपुर नगर में पहले सेलक नामक राजा था। उसकी पद्मावती रानी और उनका मंडुक नाम से पुत्र था। थावच्चापुत्र सूरीश्वर की चरण सेवा करते राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया था और वह न्यायपूर्वक निरवद्य राज्य का सुख भोगता था। एक समय थावच्चापुत्र सूरि के शिष्य पट्टधर शुक सूरिजी विहार करते उस नगर में पधारें, और मुनियों के उचित मृगवन नामक उद्यान में स्थिरता की, उनका आगमन जानकर राजा वंदनार्थे वहाँ आया। तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में नमस्कार कर हर्षपूर्वक अंगवाला राजा धर्म सुनने बैठा। मुनिपति आचार्यश्री ने भी उसे संसार प्रति परम निर्वेद कारक, विषयों के प्रति वैराग्य प्रकट करने में परायण, संमोह को नाश करने वाली, संसार में प्राप्त हुई सभी वस्तुओं के दोषों को बतलाने में समर्थ, मधुर वचन से कान को सुख देने वाली विस्तारपूर्वक धर्मकथा लम्बे समय तक कही। इससे राजा को प्रतिबोध हुआ और अत्यन्त हर्ष से उछलते रोमांचित वाले उसने गुरु चरणों में नमस्कार कर इस प्रकार कहा-हे भगवंत! मेरे पुत्र को राज्य ऊपर बैठाकर, राज्य को छोड़कर शीघ्र आपके पास में दीक्षा स्वीकार करूँगा। गुरुदेव ने कहा-हे राजन्! संसार स्वरूप को जानकर तुम्हारे जैसे को यह करना योग्य है, इसलिए अब इस संसार के विषय में थोड़ा भी राग मत करना। इस तरह गरु महाराज से प्रतिबोधित हआ वह राजा अपने घर गया और मंडक नामक श्रेष्ठ कंवर को अपने राज्य पर स्थापन किया। उसके बाद पंथक आदि पांच सौ मंत्रियों के साथ राजा सुंदर श्रृंगार कर एक हजार पुरुषों से उठाई हुई पालकी में बैठा, और गुरु महाराज के पास आकर सर्व संग के राग को छोड़कर राजा ने दीक्षा स्वीकार की तथा प्रतिदिन संवेगपूर्वक उस धर्म क्रिया में उद्यम करने लगा। फिर उस मुनि ने अनुक्रम से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, और दुष्कर तप करने में परायण बनकर वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार से पृथ्वी ऊपर विचरने लगा। फिर शुक सूरिजी ने पंथक आदि पांच सौ मुनियों के गुरु सेलक मुनि को सूरिपद पर स्थापन कर स्वयं बहुत काल तक विहार कर सुरासुरों से पूजित वे एक हजार साधुओं सहित पुंडरिक नामक महा पर्वत . 95 For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार (पुंडरिकगिरि) पर अनशन कर मोक्ष गयें। फिर उस सेलक सूरि का शरीर विविध तप से और विरस आहार पानी से केवल हाडपिंजर जैसा अतिदुर्बल बन गया, और रोग भी हो गये थे फिर भी सत्त्व वाले होने के कारण विहार करते वे सेलकपुर पधारें और मृगवन उद्यान में स्थिरता की। वहाँ प्रीति के बंधन से मंडुक राजा वंदनार्थ आया और धर्मकथा सुनकर प्रतिबोध प्राप्तकर वह श्रावक बना। उसके बाद सूरिजी को रोगी और अत्यन्त दुर्बल शरीर वाले देखकर उसने कहा-हे भगवंत! मैं निमित्त बिना तैयार हुआ निर्दोष आहार, पानी, औषधादि से आपकी चिकित्सा करवाऊँगा, उसे सुनकर आचार्यश्री ने स्वीकार किया, और फिर राजा ने उनकी औषधादि क्रिया की। इससे सूरिजी स्वस्थ शरीर वाले हो गयें, परन्तु प्रबल मादक रस की गृद्धि आदि में रागी हो गयें और इससे साधु के गुणों से विमुख बनकर वे वहीं स्थिर रहने लगे। इससे पंथक सिवाय शेष साधु उनको छोड़कर चले गयें। फिर चौमासी की रात्री में गाढ़ सुख की नींद में सोये हुए उनको पंथक ने चौमासी अतिचार को खमाने के लिए मस्तक से पाद स्पर्श किया, इससे वे जाग गये और क्रोधयुक्त होकर कहा-कौन दुराचारी मस्तक से मेरे पैरों में घर्षण करता है? उसने कहा-हे भगवंत! मैं पंथक नामका साधु चौमासिक क्षमायाचना करता हूँ, एक बार मुझे क्षमा करो, फिर ऐसा नहीं करूँगा, इससे संवेग को प्राप्त होकर सूरिजी ने इस प्रकार से कहा-हे पंथक! रसगारव आदि के जहर से उपयोग भूले हुए मुझे तूंने श्रेष्ठ जागृत किया है, मुझे अब से यहाँ पर स्थिर वास रहने के सुख से क्या प्रयोजन है? मैं तो विहार करूँगा उसके बाद वे सूरिजी अनियत विहार से विचरने लगे और विहार करते उनके पूर्व के शिष्य भी पुनः आकर मिल गये। फिर कालान्तर में कर्म रूपी रज का नाशकर प्रबल सुभट रूप मोह को चकनाचूरकर शत्रुजयगिरि पर उन्होंने अनुत्तर मोक्ष सुख प्राप्त किया ।।२१७९।। इस प्रकार स्थिरवास के दोषों को और उद्यमशील विहार के गुणों को जानकर कौन कल्याण कुशल अविहार का पक्ष करके स्थिरवास रहे? और स्थिरवास का पक्ष करने से गहस्थ प्रति राग और अपने संयम में लघुता आती है, लोगों के उपकार में अभाव आ जाता है, अलग-अलग देशों का आचारादि विज्ञान के जानने का अभाव होता है और जिनाज्ञा की विराधना इत्यादि दोष होते हैं। कालादि दोष से यह नियत विहार से विचरण रूप न हो तो भी भाव से नियम से संथारा अन्य स्थान बदलना इत्यादि भी विधि करनी चाहिए। इस तरह पापमैल को धोने में जल समान और परिक्रम विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली संवेगरंगशाला रूपी आराधना के पन्द्रह अन्तर द्वार वाला प्रथम द्वार में यह अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार पूर्ण हुआ।।२१८४।। राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार : ऊपर गृहस्थ और साधु सम्बन्धी अनियत विहार की चर्चा की है, अब केवल राजा सम्बन्धी कहता हूँ। क्योंकि-चिरकाल के अत्यन्त पुण्य के भंडार और भावि कल्याण वाला कोई जीव राजा होकर भी अत्यन्त प्रशम रस वाला, परलोक से डरे चित्तवाला विषय सुखों को सम्यक्तया विष समान माननेवाला, मोक्ष सुख प्राप्ति में एक लक्ष्य वाला, जब आराधना करने की इच्छा करता है तब परदेश में जाते शत्रु राजा की ओर से विघ्नों व होने से अपने ही देश में जिन प्रतिमा को वंदन करे उतने ही देश में उनका अनियत विहार होता है। वह हाथियों के समूह, उदार श्रेष्ठ सुभटों के समूह और घोड़े और रथ के समूह से घिरा हुआ भी उस परदेश में तीर्थों को वंदनार्थ प्रस्थान करें तो शत्रु राजा अपने राज्य के हरण करने की शंका से क्रोधित हो अथवा उसका देश स्वामी रहित है ऐसा मानकर शत्रुराजा द्वारा उसके राज्य के हरण करने में वह निमित्त कारण हो जाता है। इस कारण से स्वामिभक्त, गुणवान, शास्त्रार्थ के ज्ञान में कुशल, अपने समान राज्य का वफादार मन्त्री को राज्य भार सौंपकर. जीतने योग्य वर्ग को जीतकर. देश को स्वस्थ बनाकर महाभंडार को साथ लेकर, अपने-अपने कार्यों 96 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-राजा के अनियत विहार की विधि आठवाँ द्वार 'श्री संवेगरंगशाला में भक्ति वाले प्रधान उत्तम पुरुषों को उनके योग्य कार्य में संस्थापित कर, लोगों को पीड़ा भय आदि न हो इस प्रकार राजा अपने देश में ही जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की अति श्रेष्ठ पूजा, वंदन, नमस्कार करता हुआ यात्रा करें। और भद्रिक परिणामी हाथियों के समूह से विशाल राजमार्ग को भर देते. हर्ष से हिनहिनाहट करते घोडों की कठोर खूर की आवाज से आकाश को भी गूंजाते परस्पर जोर से चीख हाँक करने से आवाज द्वारा घोर भयजनक पैदल सेना के समह को चारों तरफ फैलाते. अति उज्ज्वल छत्रों से सर्य की किरणों के प्रकाश के विस्तार को ढांकते हुए अपने देश में रहे जिनमंदिरों के आदरपूर्वक दर्शन करने वाले राजा को देखकर कौन मनुष्य धर्म प्रशंसा न करें? अथवा ऐसे उत्तम मनुष्यों से पूजित और सौम्य आनन्द दायक जिन धर्म को मोक्ष का एक हेतुभूत मानकर कौन एक चित्त से स्वीकार न करें? इस तरह धर्म के श्रेष्ठ कर्त्तव्यों का पालन करने वाला वह राजा किसी समय जिन कथित नयो द्वारा विषय वासना की निंदा करें, कई बार महामुनियों के चारित्र को एकाग्र मन से सुनें, तो किसी समय मन्त्री सामंतों के साथ प्रजा की चिंता भी करें। किसी समय धर्म के विरोध को देखकर उसे सर्वथा रोक दे, किसी समय अपने परिवार को उपयोग पूर्वक समझाये कि-अरे! सम्यग् रूप से देखो! विचार करो! संसार में कुछ भी सार नहीं है, क्योंकि जीवन बिजली समान चंचल है, सारी ऋद्धियाँ जल तरंग सदृश चपल हैं ।।२२०१।। परस्पर के राग भी बन्धनों के समान शान्ति देने वाला नहीं है। मृत्यु तो हमेशा तैयार खड़ी है, और वस्तु के भोगादि सामग्री के फल असार है। सुख का संभव अल्प है और उसके परिणाम भोगने का कर्म विपाक अत्यन्त दारुण है और प्रमाद का सेवन असंख्य दुःख का कर्ता है। समग्र दोषों का मुख्य कारण जो मिथ्यात्व है उसके त्यागपूर्वक का मनुष्य जन्म दुर्लभ है, और धर्म करने की उत्तम सामग्री तो इससे भी अति दुर्लभ है। तीनों लोक रूप चक्र का अवमथन करने वाले, तीनों लोक पर विजय प्राप्त करने वाले और काम रूपी मल्ल को चकनाचूर करने में समर्थ, भवसमुद्र से तारनेवाले श्री वीतरागदेव मिलने भी दुर्लभ हैं। रागरहित गुरुदेव भी दुर्लभ हैं, सर्वज्ञ का शासन भी दुर्लभ है और ऐसे सभी दुर्लभ पदार्थ मिलने पर भी उसमें जो धर्म का उद्यम नहीं करता वह तो महा आश्चर्य है। इस तरह समीप रहने वाले वर्ग को समझाये, किसी समय वह गीतार्थ संविज्ञ आचार्यादि की सेवा भी करें। और वे आचार्य भी उसे युक्ति संगत गंभीर वाणी से बुलाये जैसे कि-हे राजन्! प्रकृति से ही बुद्धिमान तुम्हारे समान पुरुष जिनवचन द्वारा अशुभ कर्म बंधन के कारणों को जानकर अन्य अपराधी के प्रति भी लेशमात्र प्रद्वेष न करें, और मोक्ष की ही एक अभिलाषा वाला वह नमते हुए राजा और देवों के मुकुट में लगे हुए रत्नों की कान्ति से प्रकाशमान चक्रवर्तित्व अथवा देवों का प्रभुत्व इन्द्रपद की इच्छा न करें। लेकिन जेल में रहे कैदी के समान शारीरिक-मानसिक अनेक तीव्र दुःख समूह की अतीव व्याकुलता वाला और प्रकृति से ही भयंकर संसार से शीघ्र छुटकारा प्राप्त करने की इच्छा करें। दुःख से पीड़ित को देखकर उनका दुःख अपने समग्र अंग में व्याप्त हो जाये ऐसे करुणा प्रधान चित्तवाला बनकर दीन-अनाथों की अनुकम्पा करें, और सम्यक्त्व की शुद्धि को चाहने वाला उन जीव अजीवादि समस्त पदार्थों के विस्तार से सर्वभावों को जिनाज्ञानुसार सम्यक् सत्य मानें। काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, मान और मद ये छह अहंकारी अंतरंग शत्रु हृदय में स्थान बनाकर न रह जाय ऐसी सदा सावधानी रखें। संक्लिष्ट चित्तवाले की सर्व क्रियाएँ निष्फल जाती हैं, ऐसा जानकर संक्लेश को निष्फल करें अथवा क्रियाओं को सफल करने के लिए सदा मन की शुद्धि को धारण करें। जहर से युक्त धार वाली भयंकर तलवार से अंग छेदन करने के समान जिस वाणी से श्रोता दुःखी हो ऐसी वाणी का किसी प्रकार भी उपयोग न करें। उत्तम कुल में जन्मे हुए और महासत्त्वशाली अल्पमात्र सुख में मूढ़ बनकर क्षणभंगुर शरीर से क्लेशकारक प्रवृत्ति का आचरण न करें। तथा - 97 For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिवर्म द्वार-साधु को वसति दान देने से लाभ इच्छामात्र से सर्व कार्य जिसमें सिद्ध हुए हैं ऐसे राज्य का भोग करते हुए भी वीर संवेग से युक्त बुद्धिवाले संसार स्वरूप का विचार करने वाले और धर्म का पक्ष रखने वाले राजा को ऐसी धर्म की चिंता होती है कि : सदा संपूर्ण सावद्य-पापकारी जीवन वाले संसार की आवारागर्दी में हेतुभूत वृत्तियों में तत्पर मन वाले मुझे धिक्कार हो। निश्चय मेरा वह कोई भी भविष्य का वर्ष अथवा कोई ऋतु या महीना या पक्ष रात्री या दिन अथवा दिन में भी मुहूर्त, मुहूर्त में भी क्षण अथवा कोई वार, वार में भी वह नक्षत्र कब आयगा? कि जब परमार्थ को जानकर मैं पुत्र पर राज्य का भार सौंपकर धीर पुरुषों के द्वारा कही हुई सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञा की जो पराधीनता है उसे धारण कर. आज्ञाधीन बनकर संवेगी महान गीतार्थ और उत्तम क्रिया वाले गरु के चरण कमल में दीक्षित होकर, सर्व संबंध से निरपेक्ष बनकर, छट्ठ अष्टम, दशम दुवालस अथवा दो, तीन, चार, पाँच उपवास आदि तप के विविध प्रकार से द्रव्य भाव संलेखना करते हुए दुर्बल-कृश शरीर वाला बनकर, शरीर की सार संभाल करने का त्यागकर और उस शरीर से परिषह-उपसर्ग सहन करने के द्वारा उस शरीर पर की ममता का त्यागकर पर्वत की शिला पर पद्मासन लगाकर बैठकर उस समय, मुझे वृक्ष-ठूठ समझकर चारों तरफ आते हुए हिरण अपनी काया को मेरी काया से घिसे. ऐसा मैं निश्चल कब बनंगा? और सर्वथा आहार का त्यागी यथास्थित आराधना करते हुए पंच नमस्कार मंत्र में एकाग्र बनकर मैं प्राण का त्याग कब करूँगा? अभी तो केवल जब तक अकृत पुण्य में दीक्षा स्वीकार न करूँ तब तक मेरे ही घर में मुनियों को वसति देकर सेवा करूँ। इत्यादि इस प्रकार की धर्म चिंता करना योग्य है, उसमें भी वसतिदान की भावना करनी विशेषतया योग्य है। क्योंकि सभी दानों की अपेक्षा वसति दान श्रेष्ठ है ।।२२२९।। साधु को वसति दान देने से लाभ : वसति के अभाव में अनवस्थित मुनियों को गृहस्थ आत्म अनुग्रह के लिए भक्ति वाले होते हुए भी भोजन आदि नहीं दे सकते हैं, तथा अचित्त, अकृत (नहीं किया हुआ) अकारित (नही कराया हुआ) और अननुमत (आज्ञा बिना तैयार किया हुआ) न तो औषध, न तो आहार या न कंबल, और नहीं वस्त्र पात्र, न ही पादप्रोच्छन (पैर साफ करने का वस्त्र), या न दंडा और न बुद्धिमान पुत्र आदि को देकर शिष्य बनवा सकता है, शास्त्र पुस्तक को अथवा साधुओं के योग्य कोई उपकरण को भी नहीं दे सकता। संसारवास से विरागी चित्तवाले भी कोई गृहस्थ को वसति दान दिये बिना सद्गुरु की सेवा अथवा उनके उपदेश रूपी वचन श्रवण का लाभ भी नहीं मिल सकता। और अनियत विहार के आचार को पालते साधुओं को उस क्षेत्र में आने के बाद वसति की प्राप्ति न हो तो वहाँ वे साधु कैसे रह सकते हैं? और साधु रहे नहीं तो उभय लोक में होने वाला हितकारी वह क्षेत्र गुणवान् साधु और गृहस्थों के लिए हितकारी किस तरह हो सकता है? इसमें साधुओं को इस लोक के गुण रूप अशन पानादि की प्राप्ति आदि और परलोक में हितकर संयम का परिपालन आदि जानना। गृहस्थ को भी मुनि के संग से कसंग का त्याग आदि इस लोक में लाभदायी होता है और सद्धर्म का श्रवण आदि से पर भव सम्बधी अनेक गुण प्राप्त होते हैं। और साधु स्वयं घर को मन, वचन, काया से तैयार नहीं करते हैं। दूसरों के द्वारा नहीं करवाते हैं और दूसरों के किये हुए की अनुमोदना भी नहीं करते हैं। क्योंकि-सामान्य झोपड़ी जैसा भी घर सूक्ष्म-बादर छह जीवनिकाय की हिंसा बिना नहीं बनता है। इसलिए ही कहा है कि-जीवों की हिंसा किये बिना घर तैयार नहीं होता, उसकी रक्षा के लिए बाड़ का संस्थापन आदि किये बिना उसकी रक्षा कैसे हो सकती है? और जीवों की हिंसा करके भी ऐसा कार्य जो करता है तो वह संयम से भ्रष्ट होकर असंयमी गृहस्थ के मार्ग में जाता है ।।२२३९-४०।। जिसने बाजों के नादपूर्वक महोत्सव से अनेक मनुष्य, सद्गुरु और संघ के समक्ष घर को ___98 - For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - साधु को वसति दान देने से लाभ श्री संवेगरंगशाला छोड़रक - हे भगवंत ! अब मैं सामायिक लेता हूँ सभी पाप व्यापारों को जब तक जीवित रहूँ तब तक त्रिविधत्रिविध से त्याग करता हूँ- इस तरह जो महा प्रतिज्ञा की है और सर्व प्रकार से छह जीवनिकाय रक्षण में तत्पर है वह मुनि अपनी की हुई ऐसी प्रतिज्ञा को छोड़कर स्वयं घर आदि की किस तरह बात कर सकता है? इस कारण से अन्य के लिए प्रारम्भ ( तैयार किया) और अन्य के लिए ही पूर्ण किया हुआ, मन, वचन, काया से स्वयं करना नहीं, दूसरों के द्वारा करवाना नहीं और इसीसे अनुमोदन नहीं करना, इस तरह मूल-उत्तर गुण से युक्त प्रमाण युक्त स्त्री, पशु, नपुंसक और दुराचारियों से रहित, ऐसे पड़ोसियों से भी रहित, स्वाध्याय, कालग्रहण, स्थंडिल और प्रश्रवण के लिए (निरवद्य) भूमि से संयुक्त सुरक्षित, साधुओं के रहने योग्य पापरहित स्थान गृहस्थ साधुओं को दे। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण ऐसे प्रकार की वसति न मिले तो भी सार असार ( लाभ हानि ) का विवेक विचारकर अल्प दोष वाली परन्तु अति महान् गुणकारी वसति सदा मुनियों को देनी चाहिए, क्योंकि उसके बिना वे संयम पालन करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। इस कारण से वसति देने से देनेवाले गृहस्थ दुस्तर संसार समुद्र को भी तर जाते हैं, इसलिए ही शास्त्रकारों ने उसे 'शय्यातर' अर्थात् शय्या से पार उतारने वाला कहा है, और उसने दी हुई वसति में रहे हुए साधु अन्य के पास से भी वस्त्र पात्रादि जो प्राप्त करते हैं वह भी परमार्थ से उसने दिया है ऐसा गिना जाता है। यद्यपि पूर्व में कहे अनुसार भोजनादि उनको स्वयं वहाँ कुछ न मिले, तो भी वसति का दाता तो उस दान में दान का मूल कारण बनता है, क्योंकि वसति मिलने के बाद अशनादि अन्य वस्तु के दान का मूल दाता तो शय्यातर है फिर देने वाले दूसरे तो उत्तर कारण है। प्रायः मूल अंग शरीर हो तभी उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले हाथ, पैर आदि उत्तर अंगों का वह अधिकारी बनता है । जैसे जड़ का योग बलवान हो तो वृक्ष बड़ा विस्तार वाला होता है, वैसे वसति की प्राप्तिरूपी मूल बलवान हो तो साधु वर्ग संयम की विशेष वृद्धि को प्राप्त करते हैं। अपने घर में वसति (स्थान) देने वाला गृहस्थ मुनि पुंगवों को वायु, धूल, बरसात, ठंडी, ताप आदि के उपसर्गों से, चोरों से दुष्ट श्वापदों के समूह से तथा मच्छरों से रक्षण करते सदाकाल उन मुनियों के मन, वचन, काया को प्रसन्न करते हैं। और इन योगों की प्रसन्नता से ही मुनियों में श्रुति, मति और संज्ञा तथा शान्ति का बल प्रकट होता है तथा शरीर, बल, उनका शुभध्यान की वृद्धि के लिए होता है। कहा है कि प्रायः सुमनोज्ञ, आश्रय, शयन, आसन और भोजन से महान् लाभ मिलता है, सुमनोज्ञ, ध्यान का ध्याता साधु संसार का विरागी बनता है। जिसके आश्रय में मुहूर्त्त मात्र भी मुनि विश्राम करते हैं इतने ही वह निश्चय कृतकृत्य बनता है, उसे अन्य पुण्य से क्या प्रयोजन है? उनका जन्म धन्य है, कुल धन्य है, और वह स्वयं भी धन्य है कि जिसके घर में पाप मैल को धोने वाले सुसाधु रहते हैं। और यहाँ प्रश्न उठता है किइस भव में उसका जन्म यदि खराब कुल में हुआ हो तो जगत में एक श्रेष्ठ पूजनीय मुनिराज उसके घर में कैसे रहते हैं? इसका उत्तर देते हैं कि - जिसका मद, मोह नाश हुआ हो ऐसे मुनि पुण्यवंत के घर में ही रहते हैं क्योंकि–'पापियों के घर में कभी रत्न वृष्टि नहीं होती है।" जीवों को कलियुग के क्लेश से रहित ऐसा अवसर किसी समय ही मिलता है कि जिस काल में गुणरत्नों के महानिधि श्रेष्ठ मुनि उसके घर में रहें। जैसे पुण्य बिना कल्प वृक्ष की छाया नहीं मिलती है वैसे पाप को चकनाचूर करने वाली महानुभावों की सेवा भी दुर्लभ है। संयम के भार को अखंड धारण करने वाले धीर मुनि वृषभ को धर्मबुद्धि से वसति देने वाले ने पहले कहा है वह सर्व अर्पण किया है ऐसा समझना । उसने चारित्र का पक्षपात, गुणों का राग, उत्तम धर्म की साधना, निर्दोष के पक्षपात पने और कीर्ति की सम्यग् वृद्धि की है। तथा सन्मार्ग की वृद्धि, कुसंग का त्याग, सुसंग में प्रेम, अपने घर के 1. न कयाइ रयण वुट्टी निवडइ पावाण गेहेसु || २२६१ || उत्तरार्ध | For Personal & Private Use Only 99 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- साधु को वसति दान देने से लाभ प्रांगण में कल्पद्रुम बोने की विधि की है, इच्छित वस्तु को देने वाली दिव्य कामधेनु गाय का ग्रहण करना, हाथ में चिंतामणी को धारण करना, और श्रेष्ठ रत्नाकर को अपने भवन के आंगन में ही लाने की विधि की है। धर्म की प्याऊ का दान, अमृत का पान, श्रेष्ठ विधि का स्वीकार करना, सब सुखों को आमंत्रण करना और विजय ध्वजा को ग्रहण करना, तथा सर्व कामना को पूर्ण करने वाली कामित विद्या, मंत्रों की परम साधना का और विवेक सहित गुणज्ञता का स्पष्टीकरण किया ऐसा समझना चाहिए। तथा उसके उपाश्रय ( वसति) में रहे हुए गुण समृद्ध साधुओं के चरणों के पास आकर लोग धर्म श्रवण करते हैं, और श्रवण करने से चेतना प्रकट होती है, इससे भव्य जीव हमेशा उस विविध धर्म क्रिया में रक्त बनते हैं, तथा विरोधी हो तो भी वह भद्रिक भाव वाला बनता है, भद्रिक हो तो वह दयावान बनता है, और यथाशक्ति मांस, मदिरा आदि के नियमों को धारण करता है, तथा कोई सम्यक्त्व प्राप्त करता है। जो सम्यक्त्व वाला हो वह परम भक्ति वाला बनकर मनोहर श्री जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा में, पूजा में, जिनमंदिर की तीर्थयात्रा में तथा महोत्सव में सदा प्रवृत्ति करता है और अन्य भी जीव श्री जिनशासन की प्रभावना के कार्यों में उद्यम करता है, कई ग्लान साधु, साधर्मिक आदि के कार्यों में उद्यम करते हैं, और कोई जिनागम की पुस्तक लिखवाने में, कोई देश विरति को, कोई सर्व विरति को स्वीकार करता है, कोई विविध तपस्या कर्म करने में उद्यम करता है, इस तरह उनके द्वारा जो-जो धर्म कार्य होता है उन सब पुण्य का हेतुभूत का मूल कारण साधु को उपाश्रय देने वाला है। ऐसा कहा है ।। २२७७।। वही सचमुच राजा है, वही राजाओं के मस्तक की मणि है, और वही स्थिर राज्य वाला है कि जिसके राज्य में साधु पुरुष अप्रतिहत विहार करते निर्विघ्नता पूर्वक विचरते हैं, और सर्व देशों के मुकुट तुल्य वही देश आर्यता को धारण करता है, और वही आर्य देश है कि जहाँ उत्तम साधु विचरते हैं। और देश में भी वह नगर ही अन्य सब नगरों के मुकुट समान और पवित्र है कि जहाँ गुण के भंडार महामुनि नित्य विचरण करते हैं, नगर में भी वह गली, मौहल्ला पाप का नाश करने वाला है कि जहाँ साधु पुरुष रहते हैं, वही स्थान धन्य है, पवित्र है, और बाकी सब स्थान शून्य हैं। ऐसा में मानता हूँ। उस मौहल्ले में भी जहाँ गीतार्थ सुविहित साधुओं का निवास होता है, वही एक घर को मैं निश्चय पूर्ण लक्षण वाला मानता हूँ। उसी घर में लक्ष्मी का वास है, वह घर श्रेष्ठ रत्नों की वृष्टि के लिए योग्य है, पृथ्वी में वास्तविक पुरुष वही दाता है और उसका ही परमार्थ से उदय है अन्यथा संयम रूपी लक्ष्मी को क्रीड़ा करने की भूमि समान जिनवचन के रागी महामुनियों का वहाँ निवास भी कैसे हो? और उस घर में सिद्धान्त का स्वाध्याय करने से उसकी ध्वनि के प्रभाव से क्षुद्र उपद्रव आदि दोष नहीं रहते हैं, और अभ्युदय आदि गुण होते हैं। रोग, अग्नि, पिशाच तथा ग्रह आदि क्षुद्र देवों का दोष तथा क्रूर मनुष्य-तिर्यंचों के पाप भी पाप प्रबल योग से प्रकट होते हैं, उस पाप का प्रतिपक्षी श्री जिनेश्वर का दक्ष धर्म जानना, और जहाँ उस धर्म की प्रवृत्ति हो, वहाँ पाप का विकार भी कहाँ से हो सकता है? सूर्य बिम्ब के प्रभाव से अंधकार के समूह के समान स्वपक्ष बलवान हो तो प्रायः प्रतिपक्ष की संभावना नहीं होती है, वैसे मोक्ष की साधना में सफल कारणभूत ज्ञान, दर्शन सहित जो विविध तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि सद्धर्म चारित्र का गुण भी, अपनी वसति में रहने वाले साधुओं के परम उपकार को सम्यग् मानने वाले गुणों के सेवक, राजा अथवा मन्त्री, सेठ, सार्थवाह धनपति की अथवा अन्य भी किसी वसती में रहते साधुओं को बाधारहित आराधना होती हैं, और उनके रहने से उस वस्ती में होते धर्म की महिमा से ही वसति दाता को पापोदय से होने वाले दोष नहीं होते हैं और सद्धर्म से होने वाले विविध प्रकार के महान् उपकार होते हैं, जैसे कि अत्यन्त अनुराग वाली पत्नी, पुत्र सपूत, परिवार अच्छा विनीत आदि बनता है तथा चतुरंग सेना आदि, उस 100 For Personal & Private Use Only . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा श्री संवेगरंगशाला वसति के दाता की भूमिका के अनुरूप उसे लाभ होता है। संसार सुखों की आकांक्षा से मुक्त केवल एक मोक्ष सुख के लक्ष्य वाला महानुभाव सुविहित साधुओं को जो इस भव में घास की बनी जीर्ण झोंपड़ी के भी एक कोने में स्थान देता है, वह मैल से भरा हुआ शरीर रूपी पिंजरे को छोड़कर दूसरे जन्म में मणिमय देदीप्यमान बड़ी दिवाल की कान्ति के विस्तार से चित्त में रति जगानेवाला अति विशाल सैंकड़ों पुतली और झरोखे और किल्ले से शोभित, विचित्र मणि से जड़ित हजारों बड़े स्तंभों से ऊँचा, रत्नों से जड़ित फर्शवाला, रत्न और मणि के सुंदर किरणों के समूह से हमेशा पूर्ण प्रकाश वाला, आकाश मंडल तक पहुँचा हुआ अति ऊँचा, तोरण से मन को आनंद देनेवाला, उड़ते हुए उज्ज्वल ध्वज पर की श्रेणी से शोभता अति रम्य, आज्ञा के साथ ही उसका अमल करने के लिए अनुरागी सेवक देवों से भरा हुआ। नेत्रों को उत्सव रूप क्रीड़ा करती अप्सराओं से भरा हुआ। श्रेष्ठरत्न, सुवर्ण और मणिमय, आसन, शयन, छत्र, चामर और कलश वाला तथा पंच वर्ण के मणि, रत्न, पुष्प और दिव्य वस्त्रों से समृद्धशाली, इच्छा के साथ ही उसी समय सभी अनुकूल पदार्थ मिल जाय ऐसे सर्वोत्तम विमान में महर्द्धिक देव होता है ।।२३०१।। पुनः वहाँ से च्यवकर श्रेष्ठ सौभाग्य और रूप वाला, मनुष्यों के मन और नेत्रों को आनन्द देने वाला, निरुपक्रमी, लम्बी निरोगी आयुष्य वाला, लावण्य से पवित्र शरीर वाला, बंदीजन के द्वारा गुण समूह के गीत गान करवाने वाला, मणि, सुवर्ण, रत्न के शयन, आसन से युक्त प्रासाद के प्रागंण में क्रीड़ा करते मनोवांच्छित भावों की प्राप्ति वाला, महा वैभवशाली, सर्व अतिशयों का भंडार, सर्व दिशा में विस्तृत यशवाला, पुण्यानुबंधी पुण्यवाला और सम्पूर्ण छह खंड पृथ्वी का भोगी इस मनुष्य लोक में चक्रवर्ती होता है, अथवा अखंड भूमंडल का राजा होता है, अथवा उसका मन्त्री या नगरसेठ या सार्थवाह अथवा महान् धनवान का पुत्र होता है। धन्यात्मा वह वहाँ श्रेष्ठ चारित्र गुण प्राप्तकर उसी जन्म में अथवा तीन या सात भव में नियम से कर्म क्षयकर शीघ्र मोक्ष प्राप्त करत साधुओं को भावपूर्वक वसति देने से निष्कलंक और वांछित पूर्ण करने में तत्पर राजा बनने का पुण्य बंध हो उसमें क्या आश्चर्य है? आश्चर्य तो पुनः वह है कि अधम गति प्राप्त करने वाला, प्रमाद रूप मदिरा से मूढ़ और मुग्ध कुरुचन्द्र इच्छा बिना भी साधुओं को वसति देने से नित्य साधुओं के दर्शन होते-होते उनके प्रति आंशिक राग होने से जाति स्मरण ज्ञान को प्राप्तकर स्वयंमेव प्रतिबोध प्राप्त किया था ।।२३१०।। उसकी कथा इस प्रकारः वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा लक्ष्मी के कुल भवन समान, आश्चर्यों की जन्म भूमि सदृश और विद्याओं की निधान स्वरूप, श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहाँ नमते हुए राजाओं के मस्तक मुकुटों के रत्नों की कान्ति से प्रकाशमान पादयुगल वाला, जगत प्रसिद्ध आदिवराह नामक राजा था। उसे अप्रतिम गुण वाला, रूप से प्रत्यक्ष कामदेव समान और युद्ध की कुशलता से वासुदेव के सदृश युद्ध भूमि में सर्व को जीतने की इच्छा वाला, राजा के लक्षणों से युक्त ताराचन्द्र का पत्र था। उस ताराचन्द्र को अपने प्राण समान करुचन्द्र नामक मित्र था। यवराज पद देने की इच्छा वाले राजा ने उस ताराचन्द्र को अन्य कुमारों से सर्वश्रेष्ठ जाना। उसके पश्चात् राजा के पास बैठी हुई सौतेली माता ने राजा के स्नेहपात्र ताराचन्द्र के सामने देखते हुए विषादयुक्त दृष्टि से देखा, 'अपने पुत्र को राज्य प्राप्ति में ताराचन्द्र विघ्न रूप होगा।' ऐसा मानकर उसने उसको मारने के लिए एकान्त में गुप्त रूप से भोजन में कार्मण मिलाकर वह भोजन उसे दिया। ताराचन्द्र ने किसी प्रकार के विकल्प बिना वह भोजन खा लीया। फिर उस भोजन में से विकार उत्पन्न हुआ इससे ताराचन्द्र का रूप, बल और शरीर को नाश करने वाली महाव्याधि उत्पन्न हुई। उससे पीड़ित, निर्बल और दुर्गंधनीय बने शरीर को देखकर अत्यन्त शोकाग्रस्त बना ताराचन्द्र विचार करने लगा कि-निर्धन, - 101 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुलचन्द्र की कथा बड़े रोग से पीड़ित और अपने स्वजनों के पराभव से अपमानित सत्पुरुषों को या तो मर जाना चाहिए अथवा अन्य देश में जाना योग्य है। इससे विनष्ट शरीर वाला और नित्यखल मनुष्यों की विलासी कटाक्ष वाली अपूर्ण नजर से मुझे देखते अब मुझे एक क्षण भी यहाँ रहना योग्य नहीं है। इससे अपने परिवार को कहे बिना ही वह अकेला पूर्व दिशा की ओर वेग से चल दिया। अत्यन्त दीन मन वाला वह धीरे-धीरे चलते क्रमशः अन्यान्य पर्वत, खीण, नगर और गाँव के समूह को देखता हुआ सम्मेत नामक महापर्वत के नजदीक एक शहर में पहुँचा और वहाँ लोगों से पूछा कि-इस पर्वत का क्या नाम है? लोगों ने कहा-हे भोले! दूर देश से आया है अनजान तूं जो सूर्य के समान अति प्रसिद्ध भी इस पर्वत का नाम पूछ रहा है तो वर्णन सुन : यह सम्मेत नाम का महा गिरिराज है. जहाँ भक्ति के समूह से पूर्ण सुर असुरों के द्वारा स्तुत्य वीश जिनेश्वर भगवान ने शरीर का त्यागकर निर्वाण पद प्राप्त किया है। उस पर्वत मार्ग में आते भव्यों को पवन से उछलते वृक्षों के पत्र रूप हाथ द्वारा और पक्षियों के शब्द रूप वचन से सब आदरपूर्वक आराधना के लिए निमंत्रण करते हैं। जहाँ नासिकाग्र भाग में आँखों का लक्ष्य स्थापनकर, अल्प भी शरीर सुख की अपेक्षा बिना के एकाग्र चित्तवाले योगियों का समूह विघ्न बिना परम अक्षर (ब्रह्म) का ध्यान करते हैं। जहाँ भूमि के गुण प्रभाव से अनेक दुष्ट प्राणी भी वैर छोड़कर परस्पर क्रीड़ा करते हैं, और मुग्ध भी वहाँ विवाद बिना प्रसन्नता से प्राण त्याग रूप अनशन कर देव रूप बनते हैं। तथा इस गिरि के अति रमणीय रूप गुण से प्रसन्न होकर किन्नर किन्नरियाँ शत्रु का भय छोड़कर यहाँ विलास करती हैं, और सर्व ऋतुओं के पुष्पों से शोभित एवं फलों के समूह से मनोहर बना वन जहाँ चारों दिशा में शोभायमान है। ऐसा सुनकर चित्त में अत्यन्त आनंदित हुआ, 'यह तीर्थ है' ऐसा मानकर शरीर को छोड़ने की भावना वाला वह ताराचन्द्र आगे बढ़ा और पर्वत की अन्तिम ऊँचाई पर पहुंचा। विशाल शिखरों से सभी दिशाएँ विस्तारपूर्वक चारों ओर से ढकी हुई हो ऐसे पर्वत पर धीरे-धीरे सम्यग् उपयोगपूर्वक चढ़ा, फिर हाथ पैर की शुद्धि एवं शुद्ध वस्त्र पहनकर सरोवर में से कमलों को लेकर, वस्त्र से मुख बाँधकर, उसने मणि रत्नों से देदीप्यमान श्री अजितनाथ आदि जिनेश्वरों की प्रतिमा की तथा कान्तिरूपी पानी से धाई हो ऐसी उज्ज्वल स्फटिकमय सिद्धशिलाओं की श्रेष्ठ पूजा की, फिर श्री जिन भगवान के चरणों की पूजा से और उस सिद्ध क्षेत्र के शुभ गुणों से बढ़ते शुभ भावना वाला, आनन्द से झरते नेत्रों वाला वह इस प्रकार स्तुति करने लगा : इस संसार में अनंतकाल से रूढ़ हुआ मोह का नाश कर, प्रबल जन्म-मरण की लता का उन्मूलन कर मोक्ष मार्ग के उपदेशक जिस जिनेश्वर भगवान ने उपद्रव रहित, अचल और अनंत सिद्धि गति में वास किया है, वे विजयी हों। जिनके चरणों में केवल नमस्कार करने के प्रभाव से भी भव्य जीव लीलामात्र में सम्पूर्ण श्रेष्ठ सुख से सनाथ युक्त होते हैं और जो अपनी हथेली के समान लोकालोक को देखते हैं, जानते हैं, ऐसे तीन भुवन में पूज्य श्री जिनेश्वर की जय हो। इस तरह भगवान की स्तुति कर प्रसन्न बना, रोग रूपी क्रीड़ाओं से जर्जरित बने हुए शरीर का त्यागकर ऊँचे पर्वत के दूसरे शिखर पर जब चढ़ता है, इतने में शरद के चन्द्र समान उज्ज्वल, फैली हुई विशाल कान्ति के समूहवाले, अठारह हजार शील रूपी रथ के भार से दबे हुए हो, इस तरह अति नम्र कायारूपी लता वाले, नीचे मुँह वाले, लम्बी की हुई लम्बी भुजा वाले, हाथ के नखों की किरण रूपी रस्सी से नरक रूपी कुएँ में गिरे हुए जीव लोक को ऊपर खींचते हो, ऐसे मेरुपर्वत के समान निश्चल, पैर की अंगुलियाँ की निर्मल कान्ति वाले, दस नख के बहाने से मानो क्षमा आदि दस प्रकार के मुनि धर्म को प्रकाशित करते हो, स्फटिक रत्न की देदीप्यमान कान्ति वाली पर्वत की गुफा में रहे अति सुशोभित शरीर वाले, मानो सुख के समूह 102 For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा श्री संवेगरंगशाला को प्रकट करने की भूमि हो ऐसे काउस्सग्ग में रहे एक साधु भगवंत को देखा। फिर मृत्यु तो मेरे स्वाधीन है ही! पहले इन मुनि को नमस्कार करूँ ऐसा चिंतनकर, सत्कार से भरी हुई आँखों वाले उस ताराचन्द्र ने साधु को नमस्कार किया। भक्ति पूर्वक नमस्कार कर जब आश्चर्य भरे, चित्तवाला वह उनके रूप को देखने लगा, उसी समय आकाश तल से विद्याधर का जोड़ा नीचे आया, और हर्षपूर्वक विकसित नेत्रोंवाले उस दम्पती ने मुनि के ने चरणकमल में नमस्कार कर, गुण की स्तुति कर निर्मल पृथ्वी पीठ पर बैठे, तब ताराचन्द्र पूछा- आप यहाँ किस कारण से पधारें हैं ? विद्याधर ने कहा- विद्याधरों की श्रेणी वैताढ्य पर्वत से इन प्रभु को वंदन करने के लिए आये हैं। ताराचन्द्र ने कहा- हे भद्र! यह मुनि सिंह कौन हैं? जो कि आभूषण के त्यागी होते हुए भी दिव्य अलंकारों से भूषित हों और मनुष्य होते हुए भी अमानुषी दैव महिमा से शोभित हों ऐसे दिखते हैं ।। २३४८ । । अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक पूछने से प्रसन्न बनें उस विद्याधर ने कहा - सुनो ! - अनेक गुणों से युक्त ये महात्मा विद्याधरों की श्रेणी के नाथ हैं। जन्म-जरा-मरण के रणकार से भयंकर इस संसार के असीम दुःखों को जानकर, राज्य पर अपने पुत्र को स्थापनकर स्वयंमेव समत्व प्राप्त किया है, शत्रुमित्र समान माननेवाले उत्तम साधु बनें हैं। उत्तम राज्य लक्ष्मी को और अत्यन्त भोगों को खल स्त्री के समान इन्होंने लीलामात्र में छोड़ दिया है, आज भी इनकी विरहाग्नि से जलती अंतःपुर की स्त्रियाँ रोती रुकी नहीं हैं। प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याएँ इनके कार्यों में दासी के समान सदा तैयार रहती थीं, और चिरकाल से वृद्धि होती अति देदीप्यमान उनकी कीर्ति तीन लोकरूपी रंग मण्डप में नटनी के समान नाचती है। तप शक्ति से उनको अनेक लब्धियाँ प्रकट हुई हैं, अनुपम सुख समृद्धि से जो शोभते हैं और ये अखण्ड मासखमण करते हैं। इनके समान इस धरती में कौन है? इस प्रकार गुणों से युक्त, भव से विरक्त, चारित्ररूपी उत्तम रत्नों निधान रूप, निरुपम करुणारूपी अमृत रस के समुद्र और राजाओं से वंदनीय यह मुनीश्वर हैं ऐसा जान। ऐसा कहकर विद्याधर जब रुके, तब रोमांचित काया वाला ताराचन्द्र ने फिर भक्तिपूर्वक मुनि को वंदन किया। फिर उसके शरीर को महान् रोगों से जर्जरित देखकर विद्याधर ने कहा- अरे महायश! तूं अत्यन्त महिमा वाला और गुणों का निधान रूप इस उत्तम मुनि के कल्पतरु की कुंपल समान चरण युगल को स्पर्श करके इस रोग को दूर क्यों नहीं करता है? ऐसा सुनकर परमहर्ष रूप धन को धारण करते ताराचन्द्र ने मस्तक से महामुनि के चरण कमल को स्पर्श किया। मुनि की महिमा से उसी क्षण में उसका दीर्घकाल का रोग नाश होते ही ताराचन्द्र सविशेष सुंदर और सशक्त शरीर वाला हुआ। उस दिन से ही अपना जीवन नया मिला हो ऐसा मानता हुआ परम प्रसन्नतापूर्वक वह स्तुति करने लगा कि :- ।। २३६० ।। हे कामदेव के विजेता ! सावद्यकार्यों के राग बंधन को छोड़ने वाले ! संयम के भार को उठाने वाले ! और समाधिपूर्वक मोहरूपी महाग्रह को वश करने वाले, हे मुनीश्वर ! आप विजयी रहो! देव और विद्याधरों से वंदनीय ! रागरूपी महान् हाथी का नाश करने में सिंह समान और स्त्रियों के तीक्ष्ण कटाक्ष रूपी लाखों बाणों से भी क्षोभित नहीं होने वाले हे महामुनीश्वर ! आपकी जय हो ! तीव्र दुःखरूपी अग्नि से जलते प्राणियों के अमृत की वर्षा समान ! काश नामक वनस्पति के उज्ज्वल पुष्पों के प्रकाश सदृश, उछलते उज्ज्वल यश से दिशाओं को भी प्रकाशमय बनाने वाले हे मुनीश्वर ! आपश्री की जय हो ! कलिकाल के फैले हुए प्रचण्ड अंधकार से नाश होते मोक्ष मार्ग के प्रकाशक प्रदीप रूप ! महान् गुणों रूपी असामान्य श्रेष्ठ रत्नसमूह के निधान हे मुनीश्वर ! आप विजयी बनों! हे नाथ! रोग से पीड़ित देह के त्याग के लिए भी मेरा आगमन आपके चरण कमल के प्रभाव से आज निश्चय सफल हुआ है। इसलिए हे जगत् बन्धु! आज से आप ही एक मेरे माता, पिता, भाई और स्वजन For Personal & Private Use Only 103 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समह से श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा हो, हे मुनीश्वर! यहाँ अब मुझे जो करणीय हो वह करने की आज्ञा दो! उसके बाद मुनिपति ने 'यह योग्य है' ऐसा जानकर कायोत्सर्ग ध्यान पूर्ण किया और सम्यक्त्व रूप उत्तम मूल वाला, पाँच अणुव्रत रूपी महा स्कन्ध वाला, तीन गुणव्रत रूपी मुख्य शाखा वाला, चार शिक्षा व्रत रूपी बड़ी प्रतिशाखा वाला, विविध नियम रूपी पुष्पों से व्याप्त, सर्व दिशाओं को यशरूपी सुगन्ध से भर देने वाला, देव और मनुष्य की ऋद्धि रूपी फलों के समूह से मनोहर, पापरूपी ताप के विस्तार को नाश करने वाला श्रीजिनेश्वरों के द्वारा कहा हुआ सद्धर्म रूपी कल्पवक्ष का परिचय करवाया और अत्यन्त शद्ध श्रद्धा तथा वैराग्य से बढते तीव्र भावना वाले उसने श्रद्धा और समझपूर्वक अपने उचित धर्म को स्वीकार किया। इस तरह ताराचन्द्र को प्रतिबोध देकर पुनः मोक्ष में एक स्थिर लक्ष्यवाले वह श्रेष्ठ मुनि काउस्सग्ग ध्यान में दृढ़ स्थिर रहे। उसके बाद 'हम ध्यान में विघ्नभूत हैं' ऐसा समझकर वह विद्याधर युगल और ताराचन्द्र तीनों विनयपूर्वक साधु को वंदनकर बाहर निकल गये। फिर 'यह साधर्मिक बन्धु है' इस तरह स्नेहभाव प्रकट होने से उस विद्याधर ने ताराचन्द्र को जहर आदि दोषों को नाश करने वाली गुटिका देकर कहा-अहो महाभाग! तूं इस गुटिका को निगल जा और विषकार्मण आदि का तूं भोग बना है इसके प्रभाव से तूं निर्भय और निःशंकता से पृथ्वी पर भ्रमण कर। ताराचन्द्र ने उसे आदरपूर्वक स्वीकार किया, और विद्याधर युगल आकाश मार्ग में उड़ गया तथा प्रसन्न बनें ताराचन्द्र ने उस गुटिका को खा लिया, फिर पर्वत से वह नीचे उतरा और स्वस्थ शरीर वाला चलते क्रमशः पूर्व समुद्र के किनारे रत्नपुर नगर में पहुँचा ।।२३७८।। वहाँ उसके रूप से आकर्षित हृदयवाली मदनमंजूषा नामक वश् मक वेश्या ने अति श्याम-संदर शोभते मस्तक वाले और कामदेव को भी जीतनेवाले अति देदीप्यमान रूप वाले उसे देखकर उसकी माता को कहा-'अम्मा! (अका!) यदि इस पुरुष को तं नहीं लायगी तो निश्चय ही मैं प्राण का त्याग करूँगी. इसमें विकल्प भी नहीं करूंगी।' यह सुनकर अम्मा राजपुत्र ताराचन्द्र को अपने घर ले आयी, उसके बाद सत्कारपूर्वक स्नान, विलेपन, भोजन आदि कर अपने घर में रहे, वैसे वह वहाँ चिरकाल तक उसके साथ रहने लगा। तब माता ने कहा-हे पापिनी! भोली मदनमंजूषा! साधु के समान इस निर्धन मुसाफिर का संग्रह तूं क्यों करती है? हे पुत्री! वेश्याओं का यह कुलाचार है कि-शक्ति से इन्द्र और रूप से स्वयं यदि कामदेव हो तो भी निर्धन की इच्छा नहीं करें। पुत्री ने कहा-अम्मा! तेरे चरणों के प्रभाव से सात पीढ़ी पहुँचे इतना धन है, और अन्य धन से क्या करूँगी? फिर अम्मा ने निष्ठर शब्दों से उसका बहत बार तिरस्कार किया, लेकिन उसने जब ताराचन्द्र को नहीं छोड़ा, तब अम्मा ने विचार किया कि-यह जब तक जीता है, तब तक यह पुत्री मेरी बात को स्वीकार नहीं करेगी, इससे गुप्त रूप में मैं इसे उग्र जहर देकर मार दूंगी। फिर किसी सुंदर अवसर पर उसने उग्र जहर से मिश्रित चूर्ण वाला पान खाने के लिए स्नेहपूर्वक उसे दिया। ताराचन्द्र ने उसे स्वीकार किया और विकल्प बिना उसका भक्षण भी किया, फिर भी पूर्व में खाई हुई गुटिका के प्रभाव से विष विकार नहीं हुआ। इससे खेदपूर्वक हा! विष प्रयोग करने पर भी यह पापी यद्यपि क्यों नहीं मरा? ऐसा विचारकर अम्मा ने पुनः उसे अधिक प्राणघातक कार्मण किया। परन्तु गुटिका के प्रभाव से उस कार्मण से भी वह नहीं मरा, परंतु आरोग्य, रूप और शोभा अधिकतर बढ़ने लगी। इससे वह वज्रघात हुआ हो इस तरह, या लूटी गयी हो इस तरह स्वजनों से दूर फेंक दी हो, इस तरह हथेली में मुँह ढाँककर शोक करने लगी। तब ताराचन्द्र ने उससे कहा-हे माता! आपको कभी ऐसा उदास नहीं देखा, पहली बार ही वर्षा ऋतु के काले बादल के समान आपका आज श्याम मुख क्यों है? उसने कहापुत्र! निश्चय जो शक्य न हो वह हितकर और युक्ति वाला भी कहने से क्या लाभ है? ताराचन्द्र ने कहा-माता! आप कहो, मैं आपका कहना स्वीकार करूँगा। उसने कहा-पुत्र! यदि ऐसा ही है तो सुन-हे पुत्र! तूं सुंदर विशेष 104 For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार - वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा श्री संवेगरंगशाला लक्षण वाला, रूप वाला, सद्गुणी और मनोहर शरीर वाला है, परंतु विषयों की गृद्धि से नजदीक भविष्य में मृत्यु होगी, क्योंकि - तूं व्यायाम नहीं करता है, शिष्ट पुरुषों की सभा में तूं बैठता नहीं हैं, और कभी देव मंदिर या धर्मस्थान से तूं परिचय नहीं करता है । हे पुत्र ! हमेशा विषय इच्छा से वासुदेव भी मृत्यु के सन्मुख जाता है, तो कमल फूल के पत्तों समान कोमल शरीरवाला तूं कौन-सी गिनती में है? मैं इसी कारण से यह कह रही हूँ, दुर्लभ प्राप्त भी अन्य वस्तु इस संसार में भाग्ययोग से मिल जाती है, परंतु तेरे समान पुरुष रत्न पुनः कहाँ से मिलेगा ? इसलिए हे पुत्र ! तुझे प्रतिदिन दुर्बल होते देखकर ही इस चिन्ता से ही मैं शोक संतप्त रहती हूँ। स्वच्छ स्वभाव होने से ताराचन्द्र ने उसका कहना स्वीकार किया। केवल एकान्त में पुत्री से उसने कहा, तब पुत्री ने कहा 'यह सारा कपट है' तब उसने ऐसा जानकर प्रतिदिन पूर्व के समान ही रहने लगा। इससे अम्मा ने विचार किया कि—यह पापिष्ठ जहर आदि से भी मरे ऐसा नहीं है ।। २४०० || और यदि इसे शस्त्र से मार दूँ तो निश्चय पुत्री भी मर जायगी। अरे रे ! यह कैसा महासंकट आ गया है? इसको रोकना भी मुश्किल है। इस तरह शोक से व्याकुल चित्तवाली वह घर में नहीं रह सकने से दासियों को साथ लेकर एक दिन नगर उद्यान को देखने लगी, और इच्छानुसार इधर-उधर घूमती समुद्र किनारे पहुँची, वहाँ उसने परदेश से आया हुआ एक जहाज देखा। उसमें आये हुए मनुष्यों को पूछा- आप यहाँ कहाँ से आये हैं और कहाँ जाना है? उन्होंने कहाहम बहुत दूर से आये हैं और आज रात को जायेंगे। यह सुनकर उसने विचार किया कि - अरे अन्य योजना से क्या लाभ है, अतिगाढ़ निद्रा में सोये हुए ताराचन्द्र को रात्री में इस जहाज में चढ़ा दूँ, कि जिससे वह दूर अन्य देश में पहुँच जाय जिससे फिर वापिस नहीं आये, ऐसा करने से मेरी पुत्री प्राणों का भी त्याग नहीं करेगी। फिर जहाज के मालिक को उसने एकान्त में कहा - पुत्र सहित मैं आपके साथ आऊँगी। उसने भी कहा - हे माता ! यदि तुम्हें आने की इच्छा हो तो मध्य रात्री में आज जहाज प्रस्थान करेगा। उसने स्वीकार किया और घर गयी, फिर जब मध्य रात्री हुई और पुत्री सो रही थी, तब अपने पलंग पर गाढ़ निद्रा में सोये हुए ताराचंद्र को धीरे से दासियों द्वारा पलंग सहित उठवाकर पलंग के साथ उसे जहाज के एक विभाग में रखा, और उसने जहाज के नायक को कहा - यह मेरा पुत्र है और यह मैं भी आयी हूँ, अब तूं ही एक हमारा सार्थवाह रक्षक है। जहाज के मालिक ने 'हाँ' कहा। फिर अनेक जात के कपटों से भरी हुई, वह वहाँ के मनुष्यों की नजर बचाकर जैसे आयी थी वैसे शीघ्र वापिस चली गयी। फिर बाजे बजते महान मंगल शब्दों युक्त जहाज को चलाया, और बाजों की आवाज से घबराकर चारों दिशा में भ्रान्तियुक्त, आँखोंवाला ताराचन्द्र जागा - यह क्या है? कौन-सा देश है? मैं कहाँ पर हूँ? अथवा यहाँ मेरा सहायक कौन है? ऐसा विचार करते जब देखता है तब उसने महासमुद्र को देखा, और धनुष्य से छूटा हुआ अत्यन्त वेग वाले बाण के समान अतीव वेग से जाते और चढ़े हुए उज्ज्वल पाल वाले जहाज को भी देखा, इससे विस्मित मनवाला वह विचार करने लगा कि - परछाई की क्रीड़ा समान अथवा इन्द्र जाल के समान नहीं समझ में आये ऐसा यह कौन-सा संकट आया है? अथवा तो सोच समझ भी नहीं सकता हूँ, कहा भी नहीं जा सकता और पुरुष प्रयत्न जहाँ निष्फल होता है वहाँ ऐसे अघटित को भी घटित करने की रुचिवाले मेरे दुर्भाग्य का यह भी कोई दुष्फल है। तो अब जो कुछ होता है वह होने दो। इस विषय में निष्फल चिंतन करने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर फिर उस पलंग पर निश्चित रूप से सो गया। फिर जब सूर्य उदय हुआ तब उठा, 'यह अम्मा का प्रपंच है' ऐसा जानकर अति प्रसन्न मुख कमल वाला वह जब शय्या से उठा, तब बहुत काल गाढ स्नेह वाले जहाज के मालिक अपने बालमित्र कुरुचन्द्र को देखकर तुरंत पहचान लिया । कुरुचंद्र ने उसे देखकर संभ्रमपूर्वक 105 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिवर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा गाढ़ आलिंगन कर आदरपूर्वक उसने ताराचन्द्र से पूछा-हे मित्र! तेरा यहाँ यह आश्चर्यभूत आगमन कहाँ से हुआ है? अथवा श्रावस्ति से निकलकर इतना समय तूंने कहाँ व्यतीत किया? और वर्तमान में तूं पुनः निरोगी अंग वाला किस तरह हुआ? उसके पश्चात् ताराचन्द्र ने नगर में से निकलकर प्रातःकाल में जागा वहाँ तक का अपना सारा वृत्तान्त उसे कहा। कुरुचन्द्र ने भी वेश्या की माता का सारा व्यतिकर ताराचन्द्र से कहा। इससे उसका प्रपंच जानकर ताराचन्द्र ने मन में विचार किया कि ।।२४२४।।-बोलती है अन्य और करती है अन्य, स्नेहरहित फिर भी कपट स्नेह से अन्य को देखती है और राग दूसरे के प्रति करती है। ऐसी स्त्रियों के चरित्र को धिक्कार हो। भौरा जैसे मद के लोभ से हाथी के गंड स्थल को चूसता है, वैसे धन के लोभ से जो चण्डाल को भी चुंबन करती है, उन युवतियों का इस संसार में कौन सा निन्दनीय कार्य नहीं है? अथवा पर्वत के शिखर से गिरती नदी के तरंग समान चंचल चित्तवाली कपट का घर स्त्रियों का स्वभाव निश्चय ऐसा ही होता है। ऐसा विचारकर उसने कहा-हे कुरुचन्द्र! अपना वृत्तान्त कह, तूं यहाँ क्यों आया? और इसके बाद कहाँ जायगा? एवम् पिताजी की स्थिति क्या है? सारे राज्य कर्मचारियों की भी कुशलता कैसी है? और गाँव, नगर, देश सहित श्रावस्ती भी अच्छी तरह स्वस्थ है? कुरुचन्द्र ने कहा-राजा की आज्ञा से यहाँ रत्नपुर में आया हूँ और अब श्रावस्ती में जाऊँगा। एक तेरे विरह से गाढ़ दुःखी राजा के बिना समग्र राजचक्र तथा देश सहित नगर की भी कुशलता है। जिस दिन तूं निकला था उसी दिन से तुझे खोजने के लिए राजा ने सर्व दिशाओं में पुरुषों को भेजा था, परन्तु तूं नहीं मिला। इससे हे महाभाग! मेरा रत्नपुर में आगमन बहुत फलदायक बना कि जिससे तूं मुझे पुण्य से आज अचानक यहाँ मिला। इधर मदनमंजूषा जागृत होकर शयन कक्ष में ताराचन्द्र को नहीं देखने से तुरन्त-हे प्रियतम! आप कहाँ हो? ऐसा बोलते जब रोने लगी तब उसकी माता ने रत्न के अलंकारों की स्वयं चोरी करके कहा-हे पुत्री! इस तरह लगातार क्यों रो रही है? उसने कहा-माता! मेरा हृदय वल्लभ को मैं यहाँ कहीं नहीं देखती हूँ। उसे सुनकर कपट से बाहर अंदर घर में देखकर व्याकुल जैसी कपट से बनकर माता ने कहा-वे रत्न के अलंकार भी नहीं दिखते हैं, मुझे लगता है कि उसे लेकर वह आज भाग गया है। अरे पापिष्ठ! उससे तूं आज अच्छी तरह ठगी गई है, तूं इसके योग्य ही है, क्योंकि तुझे बार-बार रोकने पर भी निर्धन परदेशी मुसाफिर में तूंने राग किया। इत्यादि कपट युक्त वचनों के प्रवाह से उस पुत्री का इस तरह तिरस्कार किया कि जिससे भयभीत बनी उसने सहसा मौन सेवन किया। इस ओर जहाज जब समुद्र किनारे पहुँचा और वह जहाज को छोड़कर कुरुचन्द्र के साथ ताराचन्द्र रथ में बैठा। फिर आगे चलते वे जब श्रावस्ती नगरी के बाहर पहुँचे तब उसका आगमन जानकर राजा ने घर में प्रवेश करवाया। राजा के पूछने पर कुमार ने भी अपना सारा वृत्तान्त सुनाया, फिर प्रसन्न हुए राजा ने कुरुचन्द्र को मन्त्री बनाया और अति प्रशस्त दिन में ताराचन्द्र को राज्य सिंहासन पर बैठाया और स्वयं ने दीक्षा लेकर श्रेष्ठ साधना कर मरकर देवलोक में पहुँचे। अनेक रथ, योद्धा, हाथी, घोड़े और वृद्धि होते निधान वाला राजा ताराचन्द्र भी राज्य को निष्पाप रूप से भोगने लगा। चारण मुनीश्वर के कथनानुसार धर्म की अत्यन्त भावपूर्वक एकाग्र चित्त से आराधना करने लगा, और जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा की पूजा करने लगा। एक समय अनियत विहार की विधि का पालन करते हुए बहुश्रुत श्री विजयसेन सूरिजी वहाँ पधारे। बड़े वैभव के साथ ताराचन्द्र ने उनके पास जाकर वंदना की और सविशेष धर्म सनने के लिए वसती (स्थान) देकर अपने घर में रखा। फिर वह हमेशा नय विभाग से युक्त विविध अर्थों के समूह से शोभते युक्ति से संगत सिद्धान्त नित्य सुनने लगा। इस तरह हमेशा 106 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा श्री संवेगरंगशाला लगातार शास्त्र को सुनते-सुनते राजा ने अंतिम संलेखना तक का गृहस्थ धर्म का सर्व परमार्थ जाना। एक सत्य धर्म से विमुख चित्तवाला कुरुचन्द्र बिना, अन्य उस नगर के निवासी अनेक लोगों को प्रतिबोध हुआ। परंतु कुरुचन्द्र को प्रतिबोध नहीं होने से राजा ने चिंतन किया कि मेरे साथ धर्म सुनने से भी इसे उपकार नहीं हुआ। परंतु अब यदि आचार्य श्री उसके घर के नजदीक रहें तो प्रतिक्षण साधु क्रिया को देखने से इसे धर्म बुद्धि जागृत होगी। ऐसा सोचकर राजा ने उसी समय कुरुचन्द्र को बुलाकर कहा-भो! देवानुप्रिय! ये गुरु जंगम तीर्थ हैं, इसलिए स्त्री, पशु, नपुंसक रहित तेरे अपने घर में इनको रहने के लिए स्थान दे और फिर श्री अरिहंत परमात्मा का कथित धर्म को सुन ।।२४५४।। क्योंकि धम्मो च्चिय दोग्गइमज्ज-माणमाणवसमुद्धरणधीरो । सग्गाडपवग्गसुहफलसंपाडणकप्पविडवी य ।।२४५५।। एक धर्म ही दुर्गति में डूबते मनुष्य का उद्धार करने में समर्थ है और स्वर्ग तथा मोक्ष सुखरूपी फल देनेवाला कल्पवृक्ष है। और प्रिया, पुत्र, मित्र, धन, शरीर आदि सब एकान्त क्षणभंगुर, असार और अत्यन्त मनोव्यथा पैदा करने वाले हैं ऐसा समझ ।।२४५५।। राजा के ऐसा कहने से धर्म क्रिया से विमुख भी कुरुचन्द्र ने राजा के आग्रह से आचार्यजी को अपने घर में रहने का स्थान दिया। फिर हमेशा गुरु के उपदेश को वह सुनने लगा और कुछ राग से बंधे हुए हृदयवाला, सामान्य सद्भावना वाला उसने तपस्वी साधु पुरुषों को विविध तप में रंगे हुए देखा, तो भी श्री वीतराग के सद्धर्म को भावपूर्वक स्वीकार नहीं किया, अथवा 'कम्मगरुयाण किं वा करेज्ज सुगुरुण संजोगो।।२४५९।।" भारे कर्मी को सद्गुरु का संयोग भी क्या कर सकता है? उसके बाद कल्प पूर्ण होते आचार्य अन्य स्थान पर गये, तब श्री जिनेश्वर के आगम के रहस्यों का जानकार राजा ताराचन्द्र श्री जिनमंदिर को तैयार करवाकर उसका अष्टाह्निका आदि महोत्सव, यात्रा और विविध प्रकार की पूजा करने में रक्त चित्तवाला बना, शास्त्र विधि अनुसार अनुकम्पादान आदि धर्म कार्य में प्रवृत्ति करने लगा। महल के नजदीक पौषधशाला बनाकर उसमें अष्टमीचतुर्दशी आदि धर्म के अन्य पर्व के दिनों में पौषध करने में उद्यमशील रहता था। घर में निवास बंधन रूप मानता था। पापी लोगों की संगत का त्यागी, और श्रेष्ठ विशेष गुणों में चित्तवृत्ति को स्थिर करते, विशेष गुण प्राप्ति की भावना वाला, राज्य और राष्ट्र के कार्यों को बाह्य वृत्ति से उदासीनता से ही पूर्ण करता और सच्चारित्र में प्रवृत्ति करता, धार्मिक लोगों का अनुमोदन करता, विशेष आराधना का अभिलाषी और उससे निर्मल परिणाम वाला वह राजा मरकर गृहस्थ धर्म की अंतिम सर्वश्रेष्ठ गति बारहवें देवलोक में दिव्य ऋद्धिवाला देव बना। कुरुचन्द्र भी ऐसी उत्तम धर्म की करणी से रहित अज्ञानादि प्रमाद वाला आर्त्तध्यान में प्रवृत्ति करके मरकर अनेक बार तिर्यंच के भवों में जन्म लिया। वहाँ से निकलकर महाजंगल में भील हुआ, वहाँ समूह के साथ विहार करते साधुओं को देखा। 'कहीं पर ऐसे साधुओं को मैंने पूर्व में देखा है।' ऐसा एकान्त में चिंतन करते उस विचार में लीन बनने से जातिस्मरण ज्ञान हुआ और अपना पूर्व जन्म देखा, तब महान् गुणरूपी रत्नों के भण्डार को अपने घर में रखा था उन मुनियों की स्मृति याद आयी, और उन्होंने बार-बार धर्म-उपदेश भी सुनाया था। इससे वह चिंतन करने लगा कि-उन महामहिमा वाले उपकारी गुरुदेवों ने उस समय मुझे उपदेश दिया था, फिर भी मैंने धर्म में उद्यम नहीं किया। जो कि महानुभाव राजा ने भी उपकार के लिए अपने घर में गुरु महाराज को रख्वाया था, तो भी मुझे उपकार नहीं हुआ। ऐसे भारे कर्मी मुझे अब वैसी सद्धर्म की सामग्री किस तरह मिलेगी? अथवा ऐसा अधिक चिंतन करने से क्या लाभ? ऐसी स्थिति में रहकर भी मैं शीघ्र अनशनकर और मन में जगद् गुरु श्री 107 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-नौवाँ परिणाम द्वार-इस भव और परभव का हित चिंतन श्रावक की भावना अरिहंत परमात्मा के शासन को धारणकर उसी आचार्यश्री का ध्यान करते मैं कार्य सिद्ध करूँ। इस तरह निष्कलंक सम्यक्त्व को प्राप्तकर कुरुचन्द्र भिल्ल चारों आहार का त्यागकर मरकर सौधर्मकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ।। २४७४ । । इस तरह कुरुचन्द्र के चारित्र से दूसरे के दबाव से भी साधुओं को दिया हुआ वसती दान प्रायः कर परभव में भी कल्याण को करता है। इसलिए पंडित पुरुष सर्व संग - परिग्रह से मुक्त, देवों से भी पूजित और जगत् के जीवों का हित करने वाले साधुओं को वसति देने में विरोध कैसे करें? साधुओं को वसति देने से उनका सन्मान होता है, इससे आत्मा की ( बुद्धि की) विशुद्धि होती है, इससे निष्कलंक चारित्र की आराधना होती है, इससे कर्मों का विनाश होता है और अन्त में निर्वाण पद प्राप्त करता है। तथा कई जीव सौम्य प्रकृतिवाले मुनियों के दर्शन से, अन्य कोई उनके धर्म उपदेश से और कोई उनकी दुष्कर क्रिया को देखकर भी प्रतिबोध प्राप्त करते हैं, और जिसने बोध प्राप्त किया वे दूसरे को प्रतिबोध करते हैं। जिनमंदिर बनायें, साधर्मिक वात्सल्य करें, और साधुओं को विधिपूर्वक शुद्ध दान दें, इसी तरह तीर्थ (शासन) की वृद्धि - उन्नति हो, नये साधुओं की धर्म में स्थिरता हो, शासन का यश बढ़े और जीवों को अभयदान मिले, इसलिए वसति दान में उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार राजा भी वसति का दान देकर गुरु महाराज के पास से धर्म सुनकर हमेशा विशेष धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करें। अब इस सम्बन्ध में अधिक वर्णन करने से क्या ? इस तरह इन्द्रियरूपी पक्षी को वश करने के लिए पिंजरे के समान परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली संवेगरंगशाला रूप आराधना के पन्द्रह अन्तरद्वार वाला प्रथम परिकर्म विधिद्वार में आठवाँ राजद्वार ( राजा का विहार) नामक अन्तर द्वार कहा ।। २४८३ ।। नौवाँ परिणाम द्वार : पूर्व में कहे अनुसार उन सब गुणों के समूह से अलंकृत जीव भी विशिष्ट परिणाम बिना प्रस्तुत आराधना की साधना करने में शक्तिमान नहीं होता है, इसलिए अब परिणाम द्वार कह रहे हैं, इसके दो भेद हैं साधु के परिणाम और गृहस्थ के परिणाम । उसमें गृहस्थ वर्ग के परिणाम द्वार के ये आठ अन्तर द्वार हैं - ( १ ) इस भव और परभव के हित की चिन्ता, (२) घर-व्यवहार सम्बन्धी पुत्र को उपदेश, (३) काल निर्गमन, (४) दीक्षा में अनुमति की प्राप्ति के लिए पुत्र को समझाना, (५) अच्छे सुविहित गुरु के योग की साधना, (६) आलोचना (प्रायश्चित्त) लेना, (७) आयुष्य ज्ञान प्राप्त करना, और (८) अनशनपूर्वक अंतिम संथारा रूपी दीक्षा को स्वीकार करना । । २४८७ ।। इस भव और परभव का हित चिंतन : इसमें इस जन्म और परजन्म के गुणों की चिन्ता नामक द्वार इस प्रकार से जानना, पूर्व में कहे अनुसार गुण वाला राजा या सामान्य गृहस्थ जिसने श्री जिनमंदिर एक या अनेक करवाये हों, अनेक धर्म स्थानों की स्थापना की हो या करवायी हो, इसलोक-परलोक के कार्य प्रशस्त रूप से किये हो, विषयों में रति मन्द हो गयी हो, धर्म में ही नित्य अखण्ड रागी हो, और धर्म प्राप्ति आदि घर के विविध कार्यों की आसक्ति से मन को वैरागी बनाया हो, ऐसा वह राजा हो अथवा गृहस्थ किसी दिन मध्य रात्री समय अति प्रसन्न-निर्मल चित्तवाला बनकर सम्यग् धर्म चिंतन करते दृढ़ संवेग को प्राप्त कर, संसारवास से अति उद्विग्न मन वाला और नजदीक काल में भावी कल्याण वाला, अल्प संसारी निर्मल बुद्धि से इस प्रकार चिंतन करे : श्रावक की भावना : किसी अनुकूल कर्म परिणाम के वश से अति दुर्लभ भी अति उज्ज्वल उच्च कुल में जन्म मिला है। और 108 For Personal & Private Use Only . Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-श्रावक की भावना 'श्री संवेगरंगशाला अन्यान्य गुणों की वृद्धि करने में एक रसिक अन्तःकरण वाले दुर्लभ माता-पिता भी मिले हैं। उनके प्रभाव से दृष्टि से देखा हुआ और शास्त्र में सुने हुए पदार्थों के रहस्यों को स्वीकार करने में निपुण बुद्धि और विद्या तथा विज्ञान प्रकर्ष रूप में मुझे प्राप्त हुआ है और मेरी भुजा बल से निष्पाप धन प्राप्त कर पाप रहित विधि से इच्छानुसार उचित स्थान पर दान दिया है। मनुष्य योग्य पाँच इन्द्रियों के विषय भोगों को भी अखण्ड भोगा है, पुत्रों को उत्पन्न किया है, और उनके योग्य उचित अपना कर्त्तव्य भी मैंने किया है। इस तरह इस जन्म के करने योग्य सभी कार्यों को सम्मान पूर्वक पूर्ण करने वाले और घरवास में रहने के कारणों को पूर्ण करने वाले। इस दुष्ट इच्छा वाले, मेरे जीव को अभी भी क्या इस भव के विविध शब्दादि विषयों का सन्मान करने के बिना अन्य कोई आलम्बन स्थान कौन सा शेष रहा है? कि जिससे विषयासक्ति को छोड़कर, एकान्त चिन्तामणि और कल्पवृक्ष से भी अत्यधिक एक धर्म में में स्थिर नहीं होता हूँ?।।२५०० ।। अरे रे! आश्चर्य की बात है कि कुछ विवेकरूपी तत्त्व को प्राप्त किया हुआ, भव्य प्रकृति से ही महान् और संसार वास से अति उद्विग्न चित्तवाला और भोग की समग्र सामग्री का समूह, स्वाधीन फिर भी निश्चय से उसे मिथ्या माननेवाला और उसमें अप्रवृत्ति के लक्ष्य वाला चतुर पुरुष वही होता है जो वह जन्म से लेकर नित्य धर्म में ही अत्यन्त कर्त्तव्य बुद्धि वाला होने से परलोक सम्बन्धी धर्म कार्यों में ही सतत् प्रवृत्ति करता है। और मेरे जैसा आशारूपी पिशाचिनी से पराधीन बने हुए विविध आशा रखने वाले, चतुर पुरुषों से विपरीत बुद्धि वाले और भवाभिनंदी तुच्छ मनुष्य की ऐसी कुबुद्धि भी होती है कि जिससे इस आराधना स्वरूप को कहीं पर, कभी भी, स्वप्न में भी नहीं सुना, देखा और अनुभव भी नहीं किया। अरे! उसका जन्म निष्फल गया है। इसलिए अब मैं यहाँ अथवा वहाँ पर-अमुक स्थान पर, अमुक उस आराधना का आचरण करूँ कि जिससे आज तक उसका अनादर करने से भविष्य में होनेवाला, दुःख मुझे दुःखदायी न बनें, अथवा यह और वह भी कार्य अनुभव किया, परन्तु अमुक परिमित काल तक ही किया, सम्पूर्ण नहीं किया, इससे इच्छा अधूरी रह गयी। अतः अब उस कार्य की इच्छा करता हूँ, उतने काल तक करूँगा कि जिससे वह काल पूर्ण होते ही इच्छाओं की परम्परा का नाश हो और इस तरह इच्छा रहित उपशमभाव को प्राप्त करने के पश्चात् मैं जो कार्य करूँ वह शुभ-सुख रूप बनें। निश्चय ही प्रकृति से ही हाथी के बच्चे के कान समान जीवन चंचल है। वहाँ ऐसा कौन बुद्धिशाली इस संसारवास की अयोग्य कल्पना की इच्छा करें? तथा स्वप्न समान अनित्य इस संसार में यह मैं अभी करता हूँ, और इसे करके यह अमुक समय पर करूँगा, ऐसा भी कौन विचार करें? इसलिए यदि मैं तत्त्वगवेषी बनूँ तो सेवन किये बिना भी मुझे सर्व विषय में अनुभव ज्ञान की तृप्ति हो और यदि तत्त्वगवेषी नहीं बनूँ तो सर्व कुछ भोगने पर भी अनुभव (आत्मतृप्ति) नहीं होती है। क्योंकिइस संसार में जैसे-जैसे जीवों को किसी तरह भी मन-इच्छित कार्य पूर्ण होता है वैसे-वैसे विशेष तृषातुर बना हुआ बिचारा चित्त से दुःखी ही होता है और उपभोग रूप उपायों में तत्पर जो मनुष्य विषय तृष्णा को तृप्त करना चाहता है, वह मध्याह्न बाद अपनी छाया को पार करने के लिए आगे दौड़ता है अर्थात् मध्याह्न के बाद सन्मुख छाया की ओर जैसे-जैसे आगे दौड़ेगा वैसे-वैसे छाया बढ़ती ही जायगी। वैसे ही विषय भोग से जो इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती ही जाती है। तथा जो अच्छी तरह भोगों को भोगकर, प्रिय स्त्रियों के साथ की हुई क्रीड़ा को और अत्यन्त प्रिय शरीर को भी हे जीव! कभी भी छोडना ही है. चिरकाल स्वजनकुटुम्ब के साथ रहकर भी, दुष्ट मित्रों के साथ क्रीड़ा करके भी, और चिरकाल शरीर का लालन-पालन करके भी, इन सबको छोड़कर ही जाना है। इष्ट मनुष्य धन-धान्य, मकान-दुकान, हवेली और मन को हरण करने में चोर समान, अति मनोहर ठगने वाले विषयों को एक साथ एक समय में छोड़ना है, तो भी मुझे देखा अनदेखा 109 For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-पुत्र को अनुशास्ति करना क्या योग्य है? मन्द पुण्य वालों को सैंकड़ों भवों में दुर्लभ श्री अरिहंत देव, सुसाधु, गुरुदेव, जैन धर्म में विश्वास, धर्मीजन का परिचय, निर्मल ज्ञान और संसार के प्रति वैराग्य इत्यादि परलोक साधक करनी को भी मैंने सम्यग् रूप से नहीं की। अब महान् पुण्य से मुझे यह समय मिला है, वर्तमान में आत्म कल्याण के लिए धर्म की सविशेष आराधना करना योग्य है। इस प्रकार करने की इच्छा वाला हूँ तो भी घर के विविध कार्यों में नित्य बंधन में पड़ा हुआ और पुत्र, स्त्री में आसक्त मैं वैसी आराधना को निर्विघ्नता से नहीं कर सकता हूँ । अतः जब तक अद्यपि वृद्धावस्था नहीं आती, व्याधियाँ पीड़ित नहीं करतीं, शक्ति भी प्रबल है, समग्र इन्द्रियों का समूह भी अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ है, लोग अनुरागी हैं, लक्ष्मी भी जहाँ तक स्थिर है, इष्ट का वियोग नहीं हुआ और यमराजा जागृत नहीं हुआ, और परिवार की दरिद्रता के कारण भविष्य में सम्भवित धर्म की निन्दा न हो उसके लिए तथा निर्विघ्न से निरवद्य धर्म के कार्यों की साधना कर सकूँ। उसके लिए मेरे ऊपर के कुटुम्ब के भार को स्वजन आदि की सम्मति पूर्वक पुत्र को सौंपकर उन पर के मोह को मन्द करके, उस पुत्र की परिणति अथवा भावी परिणाम को देखने के लिए अमुक काल पौषधशाला में रहूँ और अपनी भक्ति तथा शक्ति के अनुसार श्रीजिनेश्वर देवों की अवसरोचित उत्कृष्ट पूजा करने रूप द्रव्यस्तव सिवाय के अन्य आरम्भ के कार्यों को मन, वचन, काया से अल्प मात्र भी करना, करवाने का त्यागकर, निश्चय आगम विधि अनुसार शुद्ध धर्म कार्यों को करके चित्त को सम्यग् वासित करता हूँ, इस तरह कुछ समय निर्गमन करूँगा, इसके बाद सर्व प्रयत्न पूर्वक पुत्र की अनुमति प्राप्त कर योग्य समय में निष्पाप संलेखनापूर्वक आराधना का कार्य करूँगा । इस तरह इसभव और परभव हित चिन्ता का प्रथम द्वार कहा। अब पुत्र शिक्षा नामक दूसरा द्वार अल्पमात्र कहते हैं । । २५२९ ।। पुत्र को अनुशास्ति द्वार : पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा हुआ उभय लोक का हित करने वाला, धर्म करने के मुख्य परिणाम वाला, और इससे घरवास को छोड़ने की इच्छावाला, सामान्य गृहस्थ या राजा जब प्रभात में जागृत हो, पुत्र आदि सर्व आदर से चरण में नमस्कार करें, तब उसे अपना अभिप्राय बतलाने के लिए इस प्रकार कहे हे पुत्र! यद्यपि स्वभाव से ही तूं विनीत है, गुणों का रागी और विशिष्ट प्रवृत्ति वाला है, इसलिए तुझे कुछ उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी माता-पिता ने पुत्रादि को हितोपदेश देना, वह उनका कर्त्तव्य होने से आज अवश्य तुझे कुछ कहना है । हे पुत्र ! सद्गुणी भी, बुद्धिशाली भी, अच्छे कुल में जन्म हुए भी और मनुष्यों में वृषभतुल्य श्रेष्ठ मनुष्य भी, भयंकर यौवनरूपी ग्रह से जो बुद्धिभ्रष्ट बनें उनका शीघ्र नाश होता हैं । क्योंकि5- इस यौवन का अंधकार चन्द्र, सूर्य, रत्न और अग्नि के प्रकाश से लगातार रोकने पर किंचित् नहीं रुकता है, परंतु अतिरिक्त वह अंधकार फैलती रात में जैसे तारे खिलते हैं, वैसे जीवन में कुतर्क रूपी तारे प्रकट होते हैं। विषय की विचित्र अभिलाषाएँ रूपी व्यंतरियों के समूह का विस्तार होने से दौड़ा-दौड़ी करते हैं। अवसर मिलते ही उन्माद रूपी उल्लू का समूह उछलता है, कलुषित बुद्धिरूपी चमगादड़ का समूह सर्वत्र जाग उठता है, और अनुकूलता होने से प्रमादरूपी खद्योत (जुगनूँ) उसी समय विलास करने लगते हैं और कुवासनाएँ रूपी व्यभिचारिणीओं का समूह निर्लज्ज होकर दौड़ भाग करता हैं। तथा हे पुत्र ! शीतल उपचार से भी उपशम न हो ऐसा दर्प रूपी दाह ज्वर, जल स्नान से भी शान्त नहीं होने वाला तीव्र रागरूपी मैल का विलेपन, मन्त्र-तन्त्र या यन्त्र से भी नहीं रुकने वाला विषयरूपी विषविकार और अंजन आदि के प्रयोग से भी नहीं रुकने वाला लक्ष्मी का अभिमान, भयंकर अंधकारमय जीवन बना देता है और हे पुत्र ! मनुष्यों की रात्री पूर्ण होने पर नहीं रुकने 110 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-पुत्र को अनुशास्ति श्री संवेगरंगशाला वाली विषय सुख रूप सन्निपात से उत्पन्न हुई गाढ़ निद्रा में बेसुध भी बन जाता है। हे पुत्र! तूं भी तरुण, उत्कृष्ट सौभाग्य से युक्त शरीर वाला और बचपन से भी प्रवर ऐश्वर्य वाला, अप्रतिम रूप और भुजा-बल से शोभित तथा विज्ञान और ज्ञान को प्राप्त करने वाला है। ऐसे गुण वालों से तूं इस गुणों से ही लूटा न जाएँ ऐसी प्रवृत्ति करना, क्योंकि ये एक-एक गुण भी दुर्विनय करने वाले हैं तो सभी एकत्रित होकर क्या न कर बैठे? इसलिए हे पुत्र! परस्त्री सामने देखने में जन्मांध, दूसरों की गुप्त बात बोलने में सदा गूंगा, असत्य वचन सुनने में बहरा, कुमार्ग पर चलने में पंगु और सर्व अशिस्त-गलत प्रवृत्ति करने में प्रमादी बनना। और हे पुत्र! तुझे प्रथम कोई बुलाये तब बोलने वाला, सर्व अन्य जीवों को पीड़ा करने का हमेशा त्यागी, मिथ्या आग्रह से विमुख, गम्भीरता वाला, उदारता को औचित्य पूर्वक धारणा करने वाला, परिवार को प्रिय, शिष्ट लोगों के अनुसार चलने वाला, धर्म में उद्यमी, पूर्व के श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्रों को नित्य स्मरण करने वाला और सदा उनके अनुसार आचरण करने वाला, और कुल की कीर्ति को बढ़ाने वाला, गुणिजनों के गुणों की स्तुति करनेवाला, धर्मीजन के प्रति-प्रतिसमय प्रसन्नता को धारण करने वाला, अनर्थकारी पापों को छोड़नेवाला, कल्याणमित्र का संसर्ग करने वाला, सारी श्रेष्ठ पुण्य प्रवृत्ति वाला और सदा सर्व विषयों में शुद्ध लब्ध लक्ष्य वाला बनना चाहिए। हे पुत्र! इस तरह प्रवृत्ति द्वारा तूं दादा, परदादा आदि पूर्वजों के क्रम से प्राप्त हुए इस वैभव को पूर्वभव के तेरे पुण्य अनुसार भोग कर। सारे कुटुम्ब के भार को स्वीकार कर और उसकी (परिवार) चिन्ता कर, स्वजनों का उद्धार कर और स्नेही अथवा याचक या नौकर वर्ग को प्रसन्न कर। इस तरह अब समग्र कार्यों का भार स्वयं उठाकर तूं मुझे स्वतन्त्र कर दे! हे पुत्र! अब तुझे ऐसा करना योग्य है। इस तरह व्यवहार का भार उठानेवाले तेरे पास रहकर मैं अब कल्याणरूपी पुण्यलता को सिंचन करने में जल की नीक समान सद्धर्म रूपी गुण में लीन बनकर तेरे उत्तम आचरणों को देखने के लिए कुछ समय घरवास में रहूँगा, उसके बाद तेरी अनुमति से संलेखना पर भार नहीं स्वीकार करते भी पत्र को दृढ प्रतिरूप बंधन के बल से इस प्रकार कान्त और मनोज्ञ भाषा द्वारा सम्यग् रूप से स्वीकार करवाकर भूमिगत गुप्त गाड़े हुए धन समूह को भी दिखा दे, बही-खाते में लेना देना भी बतला कर, अपने योग्य देनदार को देकर और लेने वाले से वसूली कर, स्वजन आदि के समक्ष उसे धन के व्यवहार में अधिकारी पद में स्थापन करें। कुछ धन जिन भवन में महोत्सवादि के लिए, कोई साधारण कार्य आ जाने से उसके लिए, कुछ स्वजनों के लिए, कुछ सविशेष कमजोर संत या साधर्मिकों की सहायता के लिए, कुछ नये धर्म को प्राप्त किये आत्माओं के सन्मान के लिए, कुछ बहन-पुत्रियों के लिए, कुछ दीन-दुःखी आदि की अनुकम्पा के लिए और कुछ उपकारी मित्र और बन्धुओं के उद्धार के लिए, उत्तम श्रावक को पीछे से दुःख न हो इसके लिए अमुक धन अपने हाथ में रखें, नहीं तो उस समय पर जिनमंदिर आदि में खर्च नहीं कर सकता है। यह सामान्य गृहस्थों की विधि कही है। राजा तो अच्छे महल में राज्याभिषेकपूर्वक पुत्र को अपनी गद्दी पर स्थापन कर स्वामित्व, मन्त्री, राष्ट्र इत्यादि सर्व पूर्व कहे अनुसार विधिपूर्वक सौंप दे। न्यायमार्ग का सुंदर उपदेश करें और सामन्त, मन्त्री, सेनापति, प्रजा और सेवकों को तथा नये राजा को भी सर्व साधारण हित शिक्षा दे। इस प्रकार अपना कर्त्तव्य पूर्ण करके, पुत्र के ऊपर समस्त कार्यों का भार रखकर, उत्तरोत्तर अपने इष्ट श्रेष्ठ गुणों की आराधना करें। धर्म में प्रवृत्ति वाला भी और निर्मल आराधना का अभिलाषी भी यदि पूर्व में कहे अनुसार विधि से पुत्र को हित शिक्षा नहीं दे और मूर्छादि के कारण अपना धन समूह नहीं बतलाये तो केसरी का जैसे वज्र नाम का पुत्र कर्म बंधक हुआ वैसे वह कर्म बंधन में कारण रूप होगा ।।२५६९।। उसका प्रबंध इस प्रकार है : - 111 For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा कुसुमस्थल नगर में अपनी अति महान् ऋद्धि से कुबेर की भी सतत् हँसी करने वाला धनसार नामक उत्तम सेठ था। उसे सैंकड़ों मानता से प्रसन्नकर देवी ने दिया हुआ निरोगी शरीर वाला वज्र नामक एक पुत्र था। सर्व कला को पढ़ा हुआ और यौवन वय प्राप्त करने पर उसे पिता ने महेश्वर सेठ की पुत्री विनयवती कन्या के साथ विवाह करवाया था। फिर सर्व पदार्थ बिजली के प्रकाश समान, शरद ऋतु के बादल सदृश चंचल होने से और वासुदेव, चक्रवर्ती या इन्द्र आदि के बल को भी अगोचर बल को धारण करने वाले मृत्यु को नहीं रोक सकने से और आयुष्य कर्म का स्वभाव प्रतिक्षण अत्यन्त विनाशी होने से पुत्र को अपने स्थान पर स्थापनकर घर व्यवहार में जोड़कर धनसार आयुष्य पूर्ण किया। इससे पुत्र विलाप करने लगा कि - हे तात! हे परमवत्सल ! हे गुण समूह के घर! हे सेवकादि आश्रित वर्ग को संतोष देनेवाले! नगर निवासी लोगों के नेत्रों के समान हे पिताजी! आप कहाँ गये ? उत्तर तो दीजिए! हे तात! आपके वियोग रूपी वज्राग्नि से पीड़ित मेरी रक्षा करो! हे हृदय को सुख देने वाले ! हे हितेस्वी! आप अपने इस पुत्र की उपेक्षा क्यों करते हैं? हे तात! आप स्वर्ग गये, उसके साथ निश्चय ही गम्भीरता, क्षमा, सत्य, विनय और न्याय ये पाँच गुण भी स्वर्ग में गये हैं । हे तात! आपके वियोग से मैं एक ही दुःख को प्राप्त नहीं करता, परन्तु प्रतिदिन असिद्ध मनोरथ वाले याचक वर्ग भी निश्चय ही दुःख को प्राप्त करते हैं। ऐसा बोलते, शोक से पीड़ित और बड़ी चीख मारते वज्र ने उसका सारा पारलौकिक कार्य किया। फिर प्रीति से लक्ष्यबद्ध बुद्धिवाले स्वजनादि की प्रतिदिन सार सम्भाल आदि करने से कालक्रम से वह शोक के भार से मुक्त हुआ । पूर्व परम्परानुसार कुटुम्ब की चिंता में, लोक व्यवहार में और दानादि धर्मकार्यों में भी वह प्रवृत्ति करते हुए उसने पूर्वजों के मार्ग को अखण्ड रखा। केवल धीरे-धीरे लक्ष्मी कम हुई, व्यापार के लिए दीर्घकाल से परदेश में घूमते हुए वाहन वापिस नहीं आए, भण्डार खाली हुए, व्याज में रखा हुआ धन खत्म हो गया और अनाज आदि संग्रह किया था वह तीव्र अग्नि के कारण जल गया। इस तरह पुण्य के विपरीतता के वशपापोदय से उसका जो जहाँ था वहीं विनाश हो गया और इससे स्वजन भी सारे पराये हो इस तरह विपरीत बन गये। इस तरह परछाई की क्रीड़ा समान अथवा स्वप्न में प्राप्त हुआ धन आदि के समान अनित्य स्वरूप देखकर अति शोकातुर बना वह विचार करने लगा कि मैं कुसंग से रहित हूँ, परस्त्री तथा जुए का त्यागी हूँ और न्याय मार्ग में चलने वाला हूँ, फिर भी मुझे खेद है कि मेरा धन आदि सारा क्यों चला गया ? अथवा बिजली के प्रकाश समान चपल प्रकृत्ति वाला होने से धन चला जाय, परन्तु बिना निमित्त से स्वजन क्यों विमुख हुए ? हा! हा ! जान लिया, निश्चय धन जाने से अपनी कार्य सिद्धि नहीं होती, इसलिए अब भिखारी जैसे मुझे देखकर धन रहित ऐसे मेरे प्रति स्वजन भी स्नेह किस तरह रखें? मनुष्य के स्वजन, बन्धु और मित्र तब तक सम्बन्ध रखते हैं, कि जहाँ तक कमलपत्र तुल्य लम्बी आँखों वाली लक्ष्मी उसे नहीं छोड़ती है। अब धन रहित मुझे यहाँ रहना योग्य नहीं है क्योंकि - पूर्वजों की परम्परा का व्यवहार तोड़ना वह सज्जनों के लिए अति विडम्बना रूप है। ऐसा विचारकर उसने अन्यत्र जाने की इच्छा रूप अपना अभिप्राय क्षोमिल नामक मित्र से कहा । मित्र ने कहा- तुझे दूसरे देश में जाना योग्य ही है, और मैं भी तेरे साथ ही आऊँगा । फिर वे दोनों अपने नगर से निकलकर शीघ्र गति से सुवर्ण भूमि में पहुँचे, और वहाँ प्राप्ति के लिए अनेकशः उपाय प्रारम्भ किये, इससे भाग्यवश और क्षेत्र की महिमा से किसी तरह बहुत धन प्राप्त किया। उस धन से श्रेष्ठ मूल्य वाले आठ रत्न खरीद लिये और घर को याद करके घर जाने के लिए वहाँ से अपने नगर की ओर चले। फिर आधे मार्ग में क्षोमिल को अति लोभ की प्रबलता से वे सारे रत्न लेने की इच्छा हुई । 112 For Personal & Private Use Only . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवन द्वार-योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा श्री संवेगरंगशाला इससे इसको किस प्रकार ठगना? अथवा सर्व रत्नों को किस तरह ग्रहण करना? इस प्रकार एक ही विचार वाला वह उपायों को सोचने लगा। फिर एक दिन वज्र किसी गाँव गया, तब अंदर पत्थर के टुकड़े बाँधकर आठ रत्नों की गठरी समान दूसरी कृत्रिम गठरी बनाकर वज्र को देकर मैं रात्री में चला जाऊँगा, ऐसा विचारकर वह पापिष्ठ भय से जब दो गठरियों को शीघ्र बाँधने लगा, उसी समय वज्र वहाँ आ पहुँचा और उसने पूछा-हे मित्र! तूं यह क्या करता है? यह सुनकर क्या इसने मुझे देखा? ऐसे शंकाशील बना, फिर भी कपट करने में चतुर उसने कहाहे मित्र! कर्म की गति कुटिल के समान विचित्र है। विधाता के स्वच्छंदी विलास चित्त में भी नहीं आता है, इससे स्वप्न में भी नहीं दिखता, ऐसा कार्य भी अचानक दैव योग से हो जाता है। ऐसा सोच-विचारकर मैंने यह दो रत्न गठरी तैयार की है क्योंकि एक स्थान पर रखी हई किसी कारण से अपने हाथ से नष्ट हो जाती है और अलग-अलग हार्थों में हो तो विनाश नहीं होती? इसलिए अपनी चार रत्नों की गठरी तूं अपने हाथ में रख और दूसरी मैं रखू। ऐसा करने से अच्छी रक्षा होगी। ऐसा कहकर मोहमूढ़ हृदय वाले उसने भ्रम से सच्चे रत्नों की गठरी वज्र के हाथ में और दूसरी कृत्रिम अपने हाथ में रखी। उसके बाद दोनों वहीं सो गये, फिर जब राह देखते मुसीबत से मध्य रात्री हुई तब वह पत्थर की गठरी लेकर क्षोमिल जल्दी वहाँ से चल दिया ।।२६०६।। सात योजन चलने के बाद जब रत्न की गठरी उसने खोली तब उसके अन्दर पूर्व में अपने हाथ से बाँधे हुए पत्थर के टुकड़े देखे। इससे वह बोला कि-दो धार वाली तलवार समान स्वच्छंदी, उच्छृखल और विलासी स्वभाव वाला हे पापी दैव! तूंने मेरे चिंतन से ऐसा विपरीत क्यों किया? निश्चय ही पूर्व जन्म में अनेक पाप करने से यह दुःखदायी बना है, यह कार्य मैंने अपने मित्र के लिए किया था परंतु सफल नहीं हुआ, वह तो मेरे लिए ही हुआ है। मैं मानता हूँ कि-शुद्ध स्वभाव वाले उस मित्र की ठगाई करने से वह पाप इस जन्म में ही निश्चय रूप में उदय आया है। ऐसा बोलते शोक के भयंकर भार से सर्वथा खिन्न और थके हुए शरीर वाला, क्षणभर तो किसी बंधन से बाँधा हो, या वज्रघात हुआ हो, ऐसा हो गया। फिर भूख से अत्यन्त पराभव प्राप्त करते, मार्ग में चलने से अत्यन्त थका हआ और भिक्षा के लिए घमने में अशक्त बना उसने एक घर में प्रवेश किया। उस घर की स्त्री को उसने कहा-हे माता! आशा रूपी सांकल से टिका हुआ मेरा प्राण जब तक है तब तक कुछ भी भोजन दो। अर्थात् यदि भोजन नहीं मिलेगा तो अब मैं जीता नहीं रहूँगा। उसके दीन वचनों को सुनने से दयालु बनी वह स्त्री उसे आदरपूर्वक भोजन देने लगी, लेकिन उसी समय उसका मालिक वहाँ आया और उसे भोजन करते देखकर क्रोध से लाल अति क्षुब्ध बनें नेत्रवाले उसने कहा-'अरे पापिनी! मैं घर से जाता हूँ, तब तूं ऐसे भाटों का पोषण करती है।' ऐसा पत्नी का तिरस्कारकर क्षोमिल को 'यह अनार्य कार्य करनेवाला व्यभिचारी है' ऐसा राजपुरुषों को बतलाकर उनको सौंप दिया। उसके बाद उन्होंने राजा को निवेदन किया कि 'यह जार है' इससे राजा ने भय से काँपते शरीर वाले और उदास मख वाले उसे वध करने का आदेश दिया। फिर अति जोर-जोर से रोते उसे राजपुरुष वध स्थान पर ले गये और कहा कि-अब तूं अपने इष्ट देव का स्मरण कर। ऐसा कहकर भय के वश टूटे-फूटे शब्दों से कुछ बोलते उसे एक वृक्ष के साथ लम्बी रस्सी से लटका दिया। फिर जीव जाने के पहले ही किसी भाग्य योग से वह बँधी हुई रस्सी टूट गयी और वह उसी समय नीचे गिर पड़ा। फिर कुछ क्षण में ही वन की ठण्डी हवा से आश्वासन प्राप्त करते मृत्यु के भयंकर भय से व्याकुल बना वह वहाँ से जल्दी भागा। जब वह शीघ्रमेव भागते कुछ दूर निकल गया तब वहाँ महान् ताल वृक्ष के नीचे श्रेष्ठ वीणा और बांसुरी को भी जीतने वाली मधुर वाणी से स्वाध्याय करते और उनके श्रवण से आकर्षित हुए, हिरण के समूह से सेवित 113 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा चरण कमल वाले एक मुनि को देखा ।। २६२२ ।। इससे अद्भुत आश्चर्यजनक उस मुनि को वंदन करके उनके सामने भूमि पर बैठा और मुनि ने भी 'यह योग्य है' ऐसा मानकर कहा कि - हे देवानुप्रिय ! अनादि संसार में परिभ्रमण करते जीवों को कोई भी इच्छित अर्थ सिद्ध नहीं होता है, परंतु यदि किसी भी रूप में वह श्री जिनेश्वर भगवान प्रति भक्ति, जीवों के प्रति मैत्री, गुरु के उपदेश में तृप्ति या तत्परता, सदाचार गुण से युक्त महात्माओं के प्रति प्रीति; धर्म श्रवण में बुद्धि, परोपकार में धन और परलोक के कार्यों की चिन्ता में मन को जोड़ दे तो निरुपम के पुण्य वाला उनका जन्म धर्म प्रधान बनता है। दुर्लभ मनुष्य जीवन मिलने पर भी धर्मरूपी गुण रहित मनुष्य जो दिन जाते हैं वे दिन निष्फल जाते हैं ऐसा समझ । जिन्होंने जन्म से ही इस तरह जन्म को धर्म गुण रहित निष्फल गँवाया है, उनको तो जन्म नहीं लेना वही श्रेष्ठ है अथवा जन्म लेने पर भी जंगल में पशु रूप में जीवन व्यतीत करें वही श्रेष्ठ है। जिन महानुभाव का भावी कल्याण नजदीक में ही होने वाला है उन्हींके ही दिन धर्म प्रवृत्ति से प्रधान होते हैं। वही धन्य है, वही पुण्य का भागीदार है और उसी का जीवन सफल है कि धर्म में उद्यमशील वाले हैं, जिनकी बुद्धि पापों में क्रीड़ा नहीं करती है। इस तरह मुनि की बात सुनकर अपने खराब चरित्र से वैरागी बनकर क्षोमिल ने शुद्ध भाव से दीक्षा स्वीकार कर ली ।। २६३२ ।। इधर वह महात्मा वज्र मित्र की खोज करके उसके विरहाग्नि से पीड़ित शरीरवाला, दीन मन वाला, महामुसीबत से कुसुमस्थल नगर पहुँचा। वहाँ क्षोमिल के परलोक की विधि की और रत्नों को बेचकर प्रचुर समृद्धिशाली बना। फिर संसार सेवन करते उसे कालक्रम से अत्यन्त प्रशस्त दिन में पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम 'केसरी' रखा। कर्मोदय की अनुकूलता से अल्प प्रयत्न से भी बहुत धन सम्पत्ति एकत्रित हुई और स्वजन भी अनुकूल हुए। उसके बाद उसने चिंतन किया कि इस संसार में निश्चय लक्ष्मी बिना का मनुष्य अल्पमात्र वजन वाला अति हल्का काश वनस्पति के पुष्प के समान सर्व प्रकार से नीचता को प्राप्त करता है। इसलिए इसके बाद मुझे धन का रक्षण अपने जीव के समान करना चाहिए। क्योंकि इसके बिना निश्चय पुत्र भी पराभव करता है। ऐसा चिंतन करके पुत्र को भी दूर रखकर सारा धन का संग्रह आदरपूर्वक अपने हाथ से जमीन में गाढ़ा । फिर अन्य किसी दिन सूत्र अर्थ में पारंगत विचित्र तप से सूखे शरीर वाला वह क्षोमिल नामक मुनिवर अनियत विहार चर्या करते हुए वहाँ आया । वज्र ने उनको वंदन किया और महा मुश्किल से पहिचाना। अचानक उनके आगमन से आनंद के आँसू बहाते उसने सत्कारपूर्वक पूछा - हे भगवंत ! यह आपका वृत्तान्त क्या है ? पापी मैंने तो कई स्थानों पर आपकी खोज करने पर भी नहीं मिलने से आपकी मृत्यु हो गयी है ऐसी कल्पना की थी । तब स्वच्छ हृदय वाले मुनि ने अपनी बात को निष्कपट भाव से जैसे बनी थी वैसे विस्तारपूर्वक कही । उसे सुनकर वज्र परम विस्मय को प्राप्तकर और मुनि ने विविध युक्त वाले वचनों से उसे प्रतिबोध किया। इससे संसार प्रति उद्वेग होने से उसने सर्वज्ञ कथित स्वर्ग मोक्ष के हेतुभूत गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। उसे प्रयत्नपूर्वक निरतिचार पालन करने लगा और अत्यन्त भक्तिवाला वह उत्तम साधु वर्ग की प्रतिदिन सेवा करने लगा । वृद्धावस्था होने पर उसने अपने स्थान पर केसरी पुत्र को स्थापन किया और स्वयं श्रेष्ठ सविशेष धर्म कार्यों को करने लगा। परंतु लम्बे प्रयास से प्राप्त किया जमीन में गाढ़ा हुआ गुप्त निधान को पूछने पर भी मूर्च्छावश पुत्र को नहीं कहता है। अपने आयुष्य को अति अल्प जानता हुआ भी हमेशा 'आज कहूँगा, कल कहूँगा' ऐसा कहता है और प्राणियों के उपद्रव बिना निर्जीव घर के एक विभाग में आराधना की अभिलाषा से वह पौषध करने के द्वारा विविध परिकर्मणा अर्थात् चारित्र के अभ्यास को करता है। पुत्र भी पिता को अति वृद्ध समझकर बार-बार धन के विषय में पूछता है और पिता भी सामायिक में स्थिर रहता है। 114 For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार- कालक्षेप-पौषधशाला कैसी और कहाँ करानी ? श्री संवेगरंगशाला परंतु उस उसके दुःख से भी नहीं बतलाया । ऐसा करते वह एक दिन मर गया और उसका पुत्र कुछ दुःखी और विमूढ़ मन वाला बन गया । तथा पिता को उद्देश से कहने लगा- हा! हा! धरती में गुप्त रखकर तूंने निधान का कोई उपयोग किये बिना निष्फल क्यों नाश किया? हा ! पापी पिता! तूं पुत्र का परम वैरी हुआ । हे मूढ़ ! तेरे धर्म को भी धिक्कार हो और तेरे विवेक धन को भी धिक्कार होवे ! ऐसा विलाप करता हुआ मरकर वह भी तिर्यंच गति में उत्पन्न हुआ । इस तरह धर्म की आराधना करने वाला भी वह निश्चय पुत्र के कर्म बंध का हेतुभूत बना। धर्मीजन को किसी के भी कर्म बंधन में निमित्त रूप बनना योग्य नहीं है। इसलिए ही त्रिभुवन गुरु श्री वीर परमात्मा ने इसी तरह तापसों को अप्रीति रूप जानकर वर्षाकाल में भी अन्यत्र विहार किया था । वेही सत्पुरुष धन्य हैं और वे ही सत्यधर्म क्रिया को प्राप्त करते हैं कि जो जीवों के कर्म बंध के निमित्तरूप नहीं बनते हैं। इससे अनेक भव की वैर परम्परा नहीं होती हैं। इस कारण से प्रयत्नपूर्वक अपने पुत्र को अपने अधिकार पद पर स्थापन कर गृहस्थ को समाधिपूर्वक धर्म में प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह पुत्र शिक्षा नामक यह दूसरा अन्तर द्वार पूर्ण हुआ। अब कालक्षेप नामक तीसरा अन्तर द्वार कहते हैं ।। २६६०।। कालक्षेप द्वार : - पुत्र को अपने स्थान पर स्थापन करके पूर्व कहे अनुसार श्रावक अथवा राजा उस पुत्र की भी भावना जानने की इच्छा से यदि अमुक समय तक घर में रहने की इच्छा हो तो उसे पौषधशाला करवानी चाहिए। पौषधशाला कैसी और कहाँ करानी ? : सर्व प्राणियों के उपद्रव से रहित प्रदेश में, अच्छे चारित्र पात्र मनुष्यों के रहने के पास में और स्वभाव से ही सौम्य, प्रशस्त एकान्त प्रदेश में, भाँड़ या स्त्रियों आदि के संपर्क से रहित हो, वह भी परिवार की अनुमति से प्रसन्न चित्तवाले होकर, वह भी विशुद्ध ईंट, पत्थर, काष्ठ आदि से करवानी चाहिए, अच्छी तरह से रगड़कर मुलायम स्थिर बड़े स्तम्भ वाली, अति मजबूत दो किवाड़ वाली, चिकनी दिवार वाली, अच्छी तरह घिसकर नरम मणियों से जुड़े हुए भूमितल वाली, पडिलेहण - प्रमार्जना सरलता हो सके, अन्य मनुष्यों का प्रवेश होते ही आश्चर्य करने वाली, अनेक श्रावक रहे, बैठ सके, तीनों काल में एक समान स्वरूप वाली, स्थंडिल भूमि से युक्त, पापरूपी महारोग से रोगी जीवों के पाप रोग का नाश करने वाली और सद्धर्म रूपी औषध की दानशाला हो ऐसी पौषधशाला तैयार करवानी चाहिए। अथवा स्वीकार किये धर्मकार्य निर्विघ्न से पूर्ण हो सकें ऐसा योग्य किसी का घर जो पूर्व में तैयार हुआ मिल जाये तो उसे ही विशेष सुधारकर पौषधशाला बना दे । और वहीं प्रशस्त धर्म के अर्थ चिंतन में मन को स्थिरकर, पाप कार्यों का त्याग करने में उद्यमी बने, योग्य पात्र गुरु आदि को प्राप्त करके किसी समय पढ़ने में, किसी समय प्रश्न पूछने में तो किसी समय परावर्तन में, किसी समय शास्त्रों के परमगूढ़ अर्थ के चिंतन में (अनुप्रेक्षा में) किसी समय ध्यान में, तो किसी समय वीरासन आदि अनुकूल आसन से आसन बंध द्वारा गात्र को संकोच करते मौन में, किसी समय भावनाओं के चिंतन में, तो किसी समय सद्धर्म के श्रवण द्वारा समाधि में, इस तरह काल को व्यतीत करें और सिद्धान्त के महारहस्य रूपी मणियों के भंडार स्वरूप मुनि के प्रति सत्कार भक्ति वाला स्वयं उचित समय में उनके पास जाकर उनकी सेवा करें। तथा 'हे तात! कृपा करो, अनुग्रह करो और अब भोजन लेने मेरे घर पधारों।' इस तरह भोजन के समय पुत्र विनयपूर्वक निवेदन करे तब स्थिर मनवाला विधि से धीरे-धीरे चलते घर जाकर मूर्छा रहित भोजन करें तथा यदि सामर्थ्य हो तो आत्महित को चाहने वाला बुद्धिमान श्रेष्ठ वीर्य के वश सविशेष उद्यम वाला बनकर श्रावक 115 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ की प्रतिमाओं को स्वीकार करें। मोह का नाश करने वाली श्री जिनेश्वरों ने 'दर्शन प्रतिमा' आदि श्रावक की संख्या से ग्यारह प्रतिमा कही हैं ।। २६७६ । । वह इस प्रकार हैं : श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ : (१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा, (३) सामायिक प्रतिमा, (४) पौषध प्रतिमा, (५) प्रतिमा प्रतिमा, (६) अब्रह्म वर्जन प्रतिमा, (७) सचित्त वर्जन प्रतिमा, (८) स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा, (९) प्रेष्य- नौकर वर्जन प्रतिमा, (१०) उद्दिष्ट वर्जन प्रतिमा और (११) श्रमण भूत प्रतिमा। ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं। १. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप : पूर्व कहे अनुसार गुणरूपी रत्नों से अलंकृत वह महात्मा श्रावक प्रथम दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करें और उस प्रतिमा में मिथ्यात्व रूपी मैल नहीं होने से दुराग्रहवश होकर उस सम्यक्त्व को कलंक लगे ऐसा अल्प भी आचरण न करें, क्योंकि दुराग्रह की साधना में मिथ्यात्व ही समर्थ है और वह प्रतिमाधारी धर्म में उपयोग शून्य न हो तथा विपरीत आचरण न करे तथा वह आस्तिक्य आदि गुण वाला, शुभ अनुबंध वाला एवं अतिचार रहित होता है। यहाँ प्रश्न करते हैं कि-पूर्व में जिस गुण समूह का प्ररूपण किया, ऐसे श्रावक को सम्यक्त्व होने पर भी पुनः यह दर्शन प्रतिमा क्यों कहीं ? इसका उत्तर देते हैं कि - इस दर्शन प्रतिमा में राजाभियोग आदि छह आगारों का सर्वथा त्याग और आठ प्रकार के दर्शनाचार का सम्यक्रूप से संपूर्ण पालन करना है। इस तरह यहाँ पर सम्यग्दर्शन की सविशेष प्राप्ति में मुख्य होने से श्रावक को प्रथम दर्शन प्रतिमा बतलायी है। फिर प्रश्न करते हैं कि - निसर्ग से या अधिगम से भी प्रकट हुआ शुभ बोध वाला जो आत्मा 'मिथ्यात्व को यह देव, गुरु और तत्त्व के विषय में महान भ्रम को उत्पन्न करने वाला है।' ऐसा समझकर उसका त्याग करें और सम्यक्त्व को स्वीकार करें। उसे उसके स्वीकार करने की विधि का क्रम क्या है? इसका उत्तर - वह महात्मा दर्शन, ज्ञान आदि गुण रत्नों के रोहणाचल तुल्य सद्गुरु को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर कहे कि - हे भगवंत ! मैं आप श्री के पास जावज्जीव तक मिथ्यात्व का मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदन का पच्चक्खान (त्याग) कर जावज्जीव तक संसार से सम्पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने में एक कल्पवृक्ष तुल्य सम्यक्त्व को सम्यग्रूप से स्वीकार करता हूँ। आज से जब तक जीता रहूँगा तब तक सम्यक्त्व में रहते मुझे परम भक्तिपूर्वक ऐसे भाव प्राप्त हो। आज से अन्तर के कर्मरूप (शत्रुओं) को जीतने से जो अरिहंत बने हैं वे ही देव बुद्धि से मेरे देव हैं, मोक्ष साधक गुणों की साधना से जो साधु हैं वे ही मेरे गुरु हैं और निवृत्ति नगरी के प्रस्थान में निर्दोष पगदंडी जो श्री जिनेश्वर प्रभु कथित जीव- अजीवादि तत्त्वमय आगम ग्रन्थ हैं। उसी में ही मुझे उपादेयरूप श्रद्धा हो! और उत्तम समाधि वाला, मन, वचन, काया की वृत्ति वाला मेरा प्रतिदिन तीनों संध्या के उचित पूजापूर्वक श्री जिनेश्वर भगवान को वंदन हो और धर्म बुद्धि से मुझे लौकिक तीर्थों में स्नानदान या पिंडदान आदि कुछ भी करना नहीं कल्पता, तथा अग्नि हवन, यज्ञ क्रिया, रहट आदि सहित हल का दान, संक्रान्ति दान, ग्रहण दान और कन्या फल सम्बन्धी कन्यादान, छोटे बछड़े का विवाह करना तथा तिल, गुड़ या सुवर्ण की गाय बनाकर दान देना अथवा रुई का दान, प्याऊ का दान, पृथ्वी दान, किसी भी धातु का दान इत्यादि दान तथा धर्मबुद्धि से अन्य भी दान में नहीं दूँगा। क्योंकि अधर्म में भी धर्मबुद्धि को करने से सम्यक्त्व प्राप्त किये 116 For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्ल द्वार-मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा श्री संवेगरंगशाला हुए का भी नाश होता है। सूत्र में जो बुद्धि के अविप्रयास-शुद्धि को समकित कहा है। वह भी पूर्व में कहे उन कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मैं कैसे होगा? आज से मुझे मिथ्यादर्शनों में रागी देवों के देव और साधुओं को गुरु मानकर धर्मबुद्धि से उनका सत्कार, विनय, सेवा, भक्ति आदि करना योग्य नहीं है। उनके प्रति मुझे अल्प भी द्वेष नहीं है, और अल्प भक्ति भी नहीं है, परन्तु उनमें देव और गुरु के गुणों का अभाव होने से उदासीनता ही है। दमान होगा कि जो सवर्ण का गाढ अर्थी होने पर भी सवर्ण के गण बिना की भी वस्त को 'यह सुवर्ण हैं' ऐसा मानेगा? ।।२७०० ।। असुवर्ण होने पर भी सुवर्ण मानकर स्वीकार करने पर सुवर्ण का प्रयोजन साधने में वह कैसे समर्थ हो सकता है? देव का देवत्व राग, द्वेष और मोह के अभाव के कारण होता है और वह रागादि अभाव उनका चरित्र, आगम और प्रतिमा को देखकर जान सकते हैं। विश्व में गुरु का गुरुत्व भी मुक्ति साधक गुण समूह से है, उससे गौरवता प्राप्त करते हैं और शास्त्रार्थ का सम्यग् उपदेश देते हैं वही यथार्थ और प्रशंसनीय बनते हैं। इस तरह अपने-अपने लक्षण से देव गुरु का स्वरूप जिसमें स्पष्ट रूप में दिखता है वे मेरे हैं, उनके कहे हुए तत्त्वों को स्वीकार करना वह दर्शन प्रतिमा है। गुणों से श्रेष्ठ दुर्लभ द्रव्यों द्वारा सात क्षेत्र और चतुर्विध श्री संघ आदि दर्शन के अंगों का शक्ति अनुसार प्रकृष्ट गौरव बढ़ाने से प्रतिमा द्रव्य से शुद्ध होती है! और सर्व क्षेत्रों में रहे हुए कमजोर और श्रेष्ठ के विभागपूर्वक सर्व देव और गुरुओं की विनयादि सेवा मुझे भाव से ही करनी है। उसके द्वारा यह दर्शन प्रतिमा क्षेत्र से मेरी विशुद्ध हो! इस सम्यक्त्व का जावज्जीव तक निरतिचार पालन करना वह कालसे विशुद्ध है, और जब तक मैं दृढ़ शरीर से सशक्त और प्रसन्न हूँ तब तक भाव विशुद्धि हो! अथवा शाकिनी, ग्रह आदि के दोष से मैं चेतन रहित अथवा उन्माद से व्याप्त चित्त वाला न बनूँ तब तक यह प्रतिमा भाव विशुद्ध हो! अधिक क्या ? जब तक मेरा दर्शन प्रतिमा का परिणाम भाव किसी भी उपघातवश नाश न हो वहाँ तक मेरी यह दर्शन प्रतिमा भाव विशुद्ध रहे। आज से मैं शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, अन्य दर्शन का तथा उसके शास्त्रों का परिचय तथा प्रशंसा ये पाँचों दोषों का जावज्जीव तक त्याग करता हूँ। राजा, लोग समूह और किसी देव का बलजबरी (बलात्कार) हो, चोरादि बलवान का आक्रमण हो, आजीविका की मुश्किल हो और माता-पिता आदि पूज्यों का आग्रह हो, ये ६ अभियोग मेरे इस प्रतिमा में आगार हैं। इस तरह प्रतिमा का अभिग्रह स्वीकार करने से सुंदर श्रावक, गुरु को भी उत्साहित करता है कि तूं पुण्यकारक है, तूं धन्य है, क्योंकि विश्व में जो धन्य हैं उन्हीं को नमस्कार हो! वही चिरंजीव है और वही पण्डित है कि जो इस श्रेष्ठ सम्यक्त्व रत्न का निरतिचार पालन करता है। यह सम्यक्त्व ही निश्चय सर्व कल्याण का तथा गुण समूह का श्रेष्ठ मूल है, इस समकित बिना की क्रिया ईख के पुष्प के समान निष्फल है। और क्रिया को भी करने वाला स्वजन धन भोग को छोड़ने वाला, आगे बढ़कर दुःखों को भोगने वाला, सत्त्वशाली भी अन्ध जैसे शत्रु को नहीं जीत सकता, वैसे पाप कार्यों से निवृत्त होने वाला भी स्वजन, धन भोगों को छोड़ने वाला भी और परिषह-उपसर्गों को सहन करने वाला भी मिथ्यादृष्टि मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है ।।२७१६।। इस विषय पर अन्ध की कथा इस प्रकार है : मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा वसन्तपुर नगर में रिपुमर्दन नामक राजा राज्य करता था। उसका प्रथम पुत्र अन्ध और दूसरा दिव्य चक्षु वाला था। राजा ने उन दोनों को अध्ययन के लिए अध्यापक को सौंपा। बड़ा पुत्र अन्ध होने से अध्यापक ने उसे संगीत वाजिंत्र, नृत्य आदि और दूसरे को धनुर्वेद आदि सारी कलाएँ सिखायीं, फिर 'अपना अपमान हुआ' ऐसा मानकर अन्ध ने उपाध्याय से कहा-मुझे तुम शस्त्रकला क्यों नहीं सिखाते? उपाध्याय ने कहा-अहो महाभाग! तूं उद्यमी है, परन्तु चक्षुरहित तुझे मैं उस कला को किस तरह समझाऊँ? अन्ध ने पुनः कहा-यदि अन्ध हूँ तो - 117 For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा भी आप मुझे धनुर्वेद पढ़ाओ। फिर उसके अति आग्रह से गुरु ने उसे धनुर्वेद का अध्ययन करवाया। उसने भी अति बुद्धिरूपी वैभव से वह धनुर्वेद ज्ञान प्राप्त किया और शब्दवेधी हुआ। किसी प्रकार से भी लक्ष्य को वह नहीं चूकता था। इस तरह वे दोनों पुत्र कलाओं में अति कुशल हुए। एक समय वहाँ शत्रु की सेना आयी, तब श्रेष्ठ सेना से शोभायमान, युद्ध करने का कुशल अभ्यासी छोटा पुत्र पिता की आज्ञा से शत्रु की सेना को जीतने चला, तब बड़े भाई विद्यमान होने पर भी छोटे भाई को ऐसा करना कैसे योग्य है? ऐसा कहकर अति क्रोध को धारण करते मत्सरपूर्वक शत्रु सेना को जीतने जाते अन्ध को पिता ने समझाया कि - हे पुत्र ! तेरी ऐसी अवस्था में जाना योग्य नहीं है। कला में अति कुशलता है, बल वाली भुजा अति बलवान हैं तो भी नेत्र बिना का होने से तूं युद्ध करने के लिए योग्य नहीं है । इत्यादि अनेक वचनों द्वारा कई बार अनेक प्रकार से रोका, फिर भी वह अन्धा उनकी अवहेलना कर मजबूत बख्तर से शरीर को सजाकर गंड स्थल से मदोन्मत्त और मजबूत पलाण का आडम्बर करने से भयंकर और श्रेष्ठ हाथी के ऊपर चढ़कर शीघ्र नगर से निकला और शब्द के अनुसार बाणों के समूह को फेंकते सर्व दिशाओं को भर दिया। इस प्रकार वह शत्रु सेना के साथ युद्ध करने लगा। फिर चारों ओर से शब्द के अनुसार आये हुए समूह प्रहार को देखकर, उसके कारण को जानकर शत्रुओं ने मौन धारण किया। इससे शत्रु के शब्द को नहीं सुनने से और उससे प्रहार को नहीं करते अन्धे पर शत्रु मौनपूर्वक सर्व दिशाओं से प्रहार करने लगे। तब चक्षुवाला छोटा भाई शीघ्र वहाँ आया और उसे महामुसीबत से बचाया। इस दृष्टान्त का उपनय तो यहाँ पूर्व में ही कह दिया है। अब प्रस्तुत को कहते हैं कि - इस कारण से गृहस्थ सर्वप्रथम जावज्जीव तक का सम्यग्दर्शन उच्चारण कर फिर निरतिचार दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करें और उसका सम्यग् परिपालन कर उन गुणों से युक्त वह पुनः दूसरी व्रत प्रतिमा को स्वीकार करें। २. व्रत प्रतिमा का स्वरूप : इस प्रतिमा में प्राणिवध, असत्य भाषण, अदत्त ग्रहण, अब्रह्म सेवन और परिग्रह, इसकी निवृत्ति रूप व्रतों को ग्रहण करें और उसके वध आदि अतिचार को छोड़कर तथा प्रयत्नपूर्वक इस धर्म श्रवण आदि कार्यों में सम्यक् सविशेष प्रवृत्ति करें एवं हमेशा अनुकम्पा भाव से वासित बनकर अन्तःकरण के परिणाम वाला बनें। उसके पश्चात् पूर्व कहे अनुसार सम्यक्त्वादि गुणों से शोभित और श्रेष्ठ उदासीनता से युक्त वह महान् आत्मा तीसरी सामायिक प्रतिमा स्वीकार करें। ३. सामायिक प्रतिमा : इस प्रतिमा में (१) उदासीनता, (२) माध्यस्थ्य, (३) संक्लेश की विशुद्धि, (४) अनाकुलता और (५) असंगता, ये पाँच गुण कहे हैं। इसमें - जो कोई और जैसा तैसा भी भोजन, शयन आदि से चित्त में जो सन्तोष हो उसे उदासीनता कहते हैं। यह उदासीनता संक्लेश की विशुद्धि का कारण होने से श्री जिनेश्वर भगवान ने उसे सामायिक का प्रथम मुख्य अंग कहा है। अब माध्यस्थ्य को कहते हैं - यह मेरा स्वजन है अथवा यह पराया है। ऐसी बुद्धि तुच्छ प्रकृति वालों को स्वभाव से ही होती है। स्वभाव से उदार मन वाले को तो "वसुधैवकुटुम्बकम्" यह समग्र विश्व भी मेरा कुटुम्ब है, क्योंकि अनादि अनंत इस संसाररूप महासरोवर में परिभ्रमण करते और कई सैंकड़ों भवों को उपार्जन करने के द्वारा कर्म समूह के आधीन हुए जीवों ने इस संसार में परस्पर किसके साथ अथवा कौन-कौन से अनेक प्रकार के सम्बन्ध नहीं किये? ऐसा जो चिंतन या भावना हो वह माध्यस्थ्य है। जिसके साथ रहे, उसके और अन्य के भी दोषों को देखने पर भी क्रोध नहीं करना, वह संक्लेश विशुद्धि जानना । 118 For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ 'श्री संवेगरंगशाला तथा खड़े रहने में, या चलने में, सोने में, जागने में, लाभ में या हानि आदि में हर्ष-विषाद का अभाव हो वह अनाकुलता जानना। सोने या मिट्टी में, मित्र या शत्रु में, सुख और दुःख में, बीभत्स और दर्शनीय वस्तु में, प्रशंसा या निन्दा में और भी अन्य विविध मनोविकार (राग-द्वेष) के कारण आयें तो भी सदा जो सम चित्तता रखता है, उसे जगद्गुरु ने असंगता कही है। ये पाँच गुणों का समुदाय वह उत्कृष्ट सामायिक है, अथवा उन सर्व का कारणभूत एक उदासीनता गुण प्राप्त करना वही परम सामायिक है। अधिक क्या कहें? सावद्ययोगों का त्यागरूप और निरवद्य योगों के आसेवन रूप इत्वरिक अर्थात् परिमित काल तक की सामायिक वह गृहस्थ का उत्कृष्ट गुण स्थान है। इस तरह तीसरी प्रतिमा में गृहस्थ सम्यक् सामायिक का पालन करे तथा उसमें मनो दुष्प्रणिधान आदि अतिचारों का त्याग करें। ४. पौषध प्रतिमा : चौथी प्रतिमा में पूर्व की प्रतिमाओं का पालन करते हुए गृहस्थ श्रावक अष्टमी, चतुदर्शी आदि पर्व दिनों में चार प्रकार के पौषध को स्वीकार करें। इस प्रतिमा में 'अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित, शय्या-संस्तारक' आदि अतिचारों का त्याग करें और आहार आदि का सम्यग् अनुपालन अर्थात्-राग, स्वाद आदि अनुकूलता का त्यागकर पौषध करें। ५. प्रतिमा प्रतिमा : फिर पूर्व की प्रतिमाओं के अनुसार सर्व गुण वाला वह पाँचवीं प्रतिमा में, चौथी प्रतिमा में कहे अनुसार दिन में पौषध करें और संपूर्ण रात्री तक काउस्सग्ग ध्यान करें और प्रतिमा पौषध बिना दिनों में स्नान नहीं करें, दिन में ही भोजन करें, कच्छा नहीं लगाये, दिन में सम्पूर्ण ब्रह्मचारी और रात्री में भी प्रमाण करे, इस तरह प्रतिमा में स्थिर रहा गृहस्थ पाँच महिने तक तीन लोक में पूजनीय, कषायों को जीतनेवाले श्री जिनेश्वर देव का ध्यान करें अथवा अपने दोषों को रोकने के उपाय का ध्यान अथवा अन्य ध्यान (जिनेश्वर का नाम स्मरण आदि) करना। ६. अब्रह्मवर्जन प्रतिमा : छट्ठी प्रतिमा में रात्री के अंदर भी ब्रह्मचारी रहें, इसके अतिरिक्त विशेष रूप में मोह को जीतने वाला, शरीर शोभा रहित वह स्त्रियों के साथ एकान्त में न रहें, और पूर्व में कही हुई प्रतिमाओं में लक्ष्यबद्ध मन वाला, अप्रमादी वह छह महीने तक प्रकट रूप से स्त्रियों का अति परिचय और श्रृंगार की बातें आदि का भी त्याग करें।।२७६१।। ७. सचित्त त्याग प्रतिमा : पूर्व की प्रतिमा में कहे अनुसार गुण वाला अप्रमादी गृहस्थ सातवी प्रतिमा में सात महीने तक सचित्त आहार का त्याग करें और अचित्त का ही उपयोग करें। ८. आरम्भवर्जन प्रतिमा : पूर्व आराधना के साथ आठ महीने तक आजीविका के लिए पूर्व में आरम्भ किये हुए का भी सावध आरम्भ को स्वयं नहीं करे, नौकर द्वारा करवाये। ९. प्रेष्यवर्जन प्रतिमा : नौ महीने तक पुत्र या नौकर के ऊपर घर का भार छोड़कर लोक व्यवहार से भी मुक्त श्रावक परम संवेगी पूर्व की प्रतिमाओं में कहे हुए गुण वाला और प्राप्त हुए धन में संतोषी, नौकर आदि द्वारा भी पाप आरम्भ कराने का त्याग करें। 119 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला १०. उद्दिष्टवर्जन प्रतिमा : दसवीं प्रतिमा के अंदर कोई क्षौर से मुण्डन करावे अथवा कोई चोटी रखे। ऐसा गृहस्थ दस महीने तक पूर्व की सर्व प्रतिमा का पालन करते जो उसके उद्देश - निमित्त से आहार, पानी आदि भोजन तैयार किया हो, उसका भी उपयोग न करे अर्थात् खाये नहीं। और स्वजन आदि निधान लेन-देन आदि के विषय में पूछे तो स्वयं जानता हो तो कहे, अन्यथा मौन रहे । ११. श्रमणभूत प्रतिमा : परिकर्म द्वार - साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान ग्यारहवीं प्रतिमा में यह प्रतिमाधारी क्षौरकर्म अथवा लोच से भी मुण्डन मस्तक वाला रजोहरणादि उपकरणों—वेश को धारणकर और साधु समान होकर दृढ़तापूर्वक विचरण करें। केवल स्वजनों का ऐसा स्नेह किसी तरह खत्म नहीं होने से किसी परिचित गाँव आदि में अपने स्वजनों को देखने मिलने वह जा सकता है। वहाँ भी साधु के समान ऐषणा समिति में उपयोग वाला वह किया, करवाया और अनुमोदन बिना का निर्दोष आहार को ही ग्रहण करें, उसमें भी गृहस्थ के वहाँ जाने के पहले तैयार किया हुआ भोजन, सूप आदि लेना उसे कल्पता है। परंतु बाद में तैयार किया हुआ हो तो वह आहार उसे नहीं कल्पता है। भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करते- 'अरे! प्रतिमाधारी श्रमणोपासक गृहस्थ को भिक्षा दो ।' ऐसा बोलना चाहिए। ऐसा विचरते तुझे अन्य कोई पूछे कि—'तूं कौन है?' तब 'मैं श्रावक की प्रतिमा को स्वीकार करनेवाला श्रावक हूँ।' ऐसा उत्तर देना चाहिए। इस तरह ग्यारहवीं प्रतिमा में उत्कृष्ट से ग्यारह महीने तक विचरण करें। जघन्य से तो शेष प्रतिमाओं का एक दो दिन आदि भी पालन कर सकता है। ये प्रतिमा पूर्ण हों तब धीरे से कोई आत्मा दीक्षा को भी स्वीकार करें, अथवा दूसरे पुत्र आदि के राग से गृहस्थ जीवन स्वीकार करें, और घर रहते हुए भी वह प्रायः पाप व्यापार से मुक्त रहें। अपने पास धन का सामर्थ्य हो तो जीर्ण जिनमंदिरों आदि की सार-संभाल लेनी चाहिए और अपना ऐसा सामर्थ्य न हो तो साधारण खर्च करके भी उसकी चिंता सार संभाल करें। केवल साधारण द्रव्य के खर्च ने के दस स्थान बतलाये हैं ।। २७७५ ।। वह इस प्रकार हैं :साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान : (१) जिनमंदिर, (२) जिनबिम्ब, (३) जिनबिम्बों की पूजा, (४) जिन वचनयुक्त जिनागम रूप प्रशस्त पुस्तकें, (५) मोक्षसाधक गुणों के साधने वाले साधु, (६) इसी प्रकार की साध्वी, (७) उत्तम धर्मरूपी गुणों को प्राप्त करने वाले सुश्रावक, (८) इसी प्रकार की सुश्राविकाएँ, (९) पौषधशाला उपाश्रय और (१०) इस प्रकार का सम्यग्दर्शन का शासन संघ आदि किसी प्रकार का धर्म कार्य हो तो उसमें। इन दस स्थानकों में साधारण द्रव्य को खर्च करना योग्य है। उसमें जिनमंदिर में साधारण द्रव्य को खर्च करने की विधि इस प्रकार है :१. जिनमंदिर : सूत्रानुसार अनियत विहार के क्रम से नगर, गाँव आदि में अनुक्रम से मास कल्प, चौमासी कल्प से या नवकल्पी विहार से विचरते, द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव आदि में राग रहित, साधु तथा व्यापार अथवा तीर्थयात्रा के लिए गाँव, आकार, नगर आदि में प्रयत्नपूर्वक परिभ्रमण करते आगम रहस्यों का जानकार तथा श्री जिनशासन के प्रति परम भक्ति वाला श्रावक भी जाते हुए रास्ते में गाँव आदि आये तो जिनमंदिर आदि धर्म स्थानक जानने के लिए गाँव के दरवाजे पर किसी को पूछ ले। और उसके कहने से वहाँ 'जिनमंदिर आदि हैं' ऐसा सम्यग् रूप से जानकारी हो तब हर्ष के समूह से रोमांचित शरीर वाला वह विधिपूर्वक उस गाँव आदि में जाये। यदि स्थिरता हो तो प्रथम ही वहाँ चैत्यवंदन आदि यथोक्त विधि करके जिनमंदिर में टूट-फूट आदि देखे, और उत्सुकता हो 120 For Personal & Private Use Only . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख से परिवर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के इस स्थान श्री संवेगरंगशाला तो संक्षेप से भी वंदन करके उसके टूटे हुए भाग को देखे और विशेष टूटा-फूटा हो तो उसकी चिंता करें। अपना सामर्थ्य हो तो श्रावक ही करे। मुनि भी निश्चय ही उस संबंधी उपदेश देकर यथायोग्य चिंता करें। अथवा स्वदेश में अथवा परदेश में अच्छे चरित्र-पात्र अन्य लोगों से भरा हुआ भी श्रावक के निवास बिना का गांव, नगर हो, अथवा वहाँ के श्रावक धन आदि से अति दुर्बल हों, परंतु रहने वाले अन्य मनुष्य पुण्योदय से चढ़ती कला वाले हों, ऐसे गाँव, नगर आदि स्थानों में जो जिनमंदिर जीर्ण-शीर्ण हों अथवा दीवार आदि का सन्धि स्थान टूट गया हो, या दरवाजे, देहली आदि अति क्षीण हो गये हों, उसके उपदेशक मुनियों के अथवा अन्य लोग सुनकर अथवा ऐसा किसी भी कहीं पर भी देखकर श्री जिनशासन के भक्ति राग से (अद्विमिंज) अस्थि मज्जा समान सातों धातुओं से अनुरागी श्रावक स्वयं विचार करता है कि-अहो! मैं मानता हूँ कि-किसी पुण्य के भण्डार रूप गृहस्थ ने ऐसा सुंदर जिनमंदिर बनाकर अपना यश विस्तार को एकत्रित करके यह मंदिर रूप में स्थापन किया है। किन्तु इस तरह मजबूत बनाने पर भी खेदजनक बात है कि कालक्रम से जीर्ण-शीर्ण हो गया है, अथवा तो संसार में उत्पन्न होते सर्व पदार्थ नाशवान हैं ही, इसलिए अब मैं इसे तोड़-फोड़ करवाकर श्रेष्ठ बनवाऊँ। ऐसा करने से यह मंदिर संसाररूपी खाई में गिरते हुए मनुष्य के उद्धार के लिए हस्तावलम्बन बनेगा। ऐसा विचारकर यदि वह स्वयमेव तैयार कराने में शक्तिशाली हो तो स्वयं ही उद्धार करें और स्वयं में शक्ति यदि न हो तो उपदेश देने में कुशल वह अन्य भी श्रावकों को वह हकीकत समझाकर उसे सुधारने का स्वीकार करवायें। इस प्रकार जैसे स्वयं वैसे वह भी उद्धार कराने में यदि असमर्थ हो और यदि दूसरा भी कोई प्रस्तुत वह कार्य करने में समर्थ न हो तो ऐसे समय पर उस मंदिर का साधारण द्रव्य से खर्चकर उद्धार करवाये। क्योंकि बुद्धिमान श्रावक निश्चय से साधारण द्रव्य को इधर-उधर से खर्च न करें। और जीर्ण मंदिर आदि नहीं रहता है, इसलिए अन्य के पास से भी द्रव्य प्राप्ति करने का यदि सम्भव न हो तो विवेक से साधारण द्रव्य भी खर्च करें।।२७९८।। वह इस प्रकार से ___ जीर्णमंदिर को नया तैयार करें, चलित को पुनः स्थिर करें, खिसक गये को पुनः वहाँ स्थापना करना, और सड़े हुए को भी पुनः नया जोड़ देना, गिरे हुए को पुनः खड़ा करना, लेप आदि न हो तो उसका लेप करवाना, चूना उतर गया हो तो उसे फिर से सफेदी करवाना, और ढक्कन आदि न हो तो उसे ढकवाये।।२८००।। इसके अतिरिक्त कलश, आमलसार, पात स्तम्भ आदि उसके सड़े गिरे जो जो अंग हो तथा पड़े, टूटे या छिद्र गिरे किल्ले को अथवा उसका अंगभूत अन्य कोई भी जो कोई अति अव्यवस्थित देखे वह सर्व श्रेष्ठ प्रयत्न से अच्छी तरह तैयार करवाये। क्योंकि साधारण द्रव्य से भी उद्धार करने से जिनमंदिर दर्शन करने वाले गुण रागी आत्माओं के लिए निश्चय बोधि लाभ के लिए होता है। यद्यपि जिनमंदिर करने में निश्चय ही पृथ्वीकाय आदि जीवों का विनाश होता है, तो भी समकित दृष्टि को नियम से उस विषय में हिंसा का परिणाम नहीं होता, परंतु अनुकम्पा का (भक्ति का) परिणाम होता है। जैसे कि-जिनमंदिर को करवाने से अथवा जीर्णोद्धार करवाने से उसके दर्शन करने वाले भव्यात्माएँ बोध प्राप्त कर सर्व विरति चारित्र को प्राप्त कर पृथ्वीकायादि जीवों की रक्षा करता है। और इससे वह निर्वाण पद मोक्ष प्राप्त करता है, वह सादि अनंतकाल तक संसारी जीवों को दुःख बाधाएँ नहीं करता है। इस तरह जिनमंदिर बनाने में अहिंसा की सिद्धि होती है। जैसे रोगी को अच्छी तरह प्रयोग से नस छेदन आदि वैद्य क्रिया में पीड़ा होती है, परंतु परिणाम से सुंदर लाभदायक होता है, वैसे ही छह काय की विराधना होते हुए भी परिणाम से इसका फल अति सुंदर मिलता है। इस तरह प्रथम जिनमंदिर द्वार कहा। अब जिनबिम्ब द्वार कहते हैं : 1. नहु साहारणदव्वं वएज्ज धीमं जह कहंपि ।।२७६७|| - 121 For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला २. जिन बिम्ब द्वार : इसमें किसी गाँव, नगर आदि में सर्व अंगों से अखण्ड जिनमंदिर है, किन्तु उसमें जिनबिम्ब नहीं हो, क्योंकि - पूर्व में किसी ने उसका हरण किया हो अथवा तोड़ दिया हो अथवा प्रतिमा अंगों से खण्डित हुई हो तो पूर्व में विधि अनुसार स्वयं अथवा दूसरे भी सामर्थ्य के अभाव में साधारण द्रव्य भी लेकर सुंदर जिनबिम्ब को तैयार करा सकता है। चन्द्र समान सौम्य, शान्त आकृतिवाला और निरुपम रूपवाला जिनबिम्ब (प्रतिमा) तैयार करवाकर ऊपर कहे जिनमंदिर में उसके उचित विधि से प्रतिष्ठित करें। उसे देखकर हर्ष से विकसित रोमांचित वाले कई गुणानुरागी को बोधिलाभ की प्राप्ति होती है और कई अन्य जीव तो उसी भव में ही जिन दीक्षा को भी स्वीकार करते हैं। परंतु यदि वह गाँव, नगर आदि अनार्य पापी लोगों से युक्त हों, वहाँ के रहनेवाले पुरुषों की दशा पड़ती हो अथवा वह गाँव आदि देश की अंतिम सीमा में हो, श्रावक वर्ग से रहित हो, वहाँ जिनमंदिर जर्जरित हो गया हो, फिर भी उसमें जिनबिम्ब सर्वांग सुंदर अखण्ड और दर्शनीय हो तो वहाँ अनार्य, मिथ्यात्वी, पापी लोगों द्वारा आशातना आदि दोष लगने के भय से उस जीर्ण जिनमंदिर में से जिनबिम्ब को उत्थापन करके अन्य उचित गाँव, नगर आदि में ले जाकर प्रतिष्ठित करें और इस तरह परिवर्तन की सामग्री का यदि स्वयं के पास अन्य के पास से भी मिलने का अभाव हो तो साधारण द्रव्य यथायोग्य उस सामग्री के उपयोग में लगाये।' ऐसा करने से बोधिबीज आदि क्या-क्या लाभ नहीं होता? अर्थात् इससे अनेक लाभ होते हैं। इस तरह जिनबिम्ब द्वार कहा। अब जिनपूजा द्वार कहते हैं : परिकर्म द्वार- साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान ३. जिनपूजा द्वार : इसमें सदाचारी मनुष्यों से युक्त इत्यादि गुणों वाले क्षेत्रों में जिनमंदिर दोष रहित सुंदर हो और जिनबिम्ब भी निष्कलंक श्रेष्ठ हो । किन्तु वहाँ रकाबी, कटोरी आदि पूजा की कोई सामग्री नहीं मिलती हो तो स्वयं देखकर अथवा पूर्व कहे अनुसार सुनकर, उस नगर, गाँव आदि के सर्व मुख्य व्यक्तियों को एकत्रित करके साधु अथवा श्रावक भी अति चतुरता के साथ- - युक्ति संगत मधुर वचनों से उनको समझाए कि - यहाँ अन्य कोई नहीं, तुम ही एक परम धन्य हो कि जिसके गाँव या नगर में ऐसा सुंदर भव्य रचनावाला प्रशंसनीय, मनोहर, मंदिर और जिनबिम्बों के दर्शन होते हैं और तुम्हारे सर्व देव सम्यक् पूजनीय हैं, सर्व श्री सम्यग् वंदनीय हैं और सर्व भी पूजा करने योग्य हैं, तो यहाँ पर अब पूजा क्यों नहीं होती? तुम्हें देवों की पूजा करने में अन्तराय करना योग्य नहीं है, इत्यादि वचनों से उन्हें अच्छी तरह समझाये, आग्रह करें। फिर भी वे यदि नहीं मानें और दूसरे से भी पूजा का सम्भव न हो तो साधारण द्रव्य को भी देकर वहाँ रहने वाले माली आदि अन्य लोगों हाथ से भी पूजा, धूप, दीप और शंख बजाने की व्यवस्था करें। 2 ऐसा करने से अपने स्थान का अनुरागी बनता है। वहाँ रहने वाले भव्य प्राणियों को निश्चय घर के प्रागंण में ही कल्पवृक्ष बोने जैसी प्रसन्नता होती है और परम गुरु श्री जिनेश्वरों की प्रतिमाओं में पूजा का अतिशय देखकर सत्कार आदि प्रकट होता है, इससे जीवों को बोधिबीज की प्राप्ति होती है। इस तरह पूजाद्वार को संक्षेप से सम्यग् रूप से कहा, अब गुरु के उपदेश से पुस्तक द्वार को भी कहते हैं ।। २८२८ ।। : ४. आगम पुस्तक द्वार : इसमें अंग उपांग सम्बन्धी अथवा चार अनुयोग के उपयोगी, योनि प्राभृत, ज्योतिष, निमित्त शास्त्र आदि 1. श्लोक २८१३-१४-१५ ।। जिणबिंबं अन्नंमि वि संचारेज्जा पुराइए उचिए || २८१५ || पूर्व श्लोको 2. दाउं तत्थारासिय - मालागाराइलोयहत्थेण । पूयं धूवं दीवं च संखसद्दं च कारेज्जा || २८२७|| 122 . For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार- साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान श्री संवेगरंगशाला के रहस्यार्थवाला, अथवा अन्य भी जो शास्त्र श्री जिनशासन की महा उन्नति करनेवाला और महागूढ़ अर्थवाला हो, उसे नाश होते स्वयं देखें अथवा दूसरे के मुख से सुनें । परन्तु उसे लिखने में स्वयं असमर्थ हो, दूसरा भी उसे लिखाने में कोई नहीं हो तो ज्ञान की वृद्धि के लिए उसे साधारण द्रव्य से भी लिखाना चाहिए। तीन या चार लाइन से ताडपत्र के ऊपर अथवा बहुत लाइन से कागज के ऊपर विधिपूर्वक लिखवाकर उन पुस्तकों को, जहाँ अच्छा बुद्धिमान संघ हो, ऐसे स्थान पर रखना चाहिए। तथा जो पढ़ने में एवं याद रखने में समर्थ प्रभावशाली, भाषा में कुशल प्रतिभा आदि गुणों वाले मुनिराज हों, उन्हें विधिपूर्वक अर्पण करें और आहार, वसती, वस्त्र आदि का दान देकर शासन प्रभावना के लिए उसकी वाचना विधि करें, अर्थात् श्रेष्ठ मुनियों से पढ़ाए और स्वयं सुनें । इस तरह आगम का उद्धार करने वाले तत्त्व से, मिथ्या दर्शन वालों से, शासन को पराभव होते रोक सकते हैं। नया धर्म प्राप्त करने वाले को धर्म में स्थिरता प्राप्त करवाकर, चारित्र गुण की विशुद्धि का लाभ मिलता है। इस तरह श्री जिनशासन की रक्षा की, भव्य प्राणियों की अनुकम्पा भक्ति की, और जीवों को अभयदान दिया। अर्थात् जो-जो उपकार होता है वह सर्व शास्त्रों से ही होता है, ऐसा मानना चाहिए। अतः इस कार्य में शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस तरह पुस्तक द्वार पूर्ण हुआ। अब साधु-साध्वी द्वार को कहते हैं ५. साधु द्वार : इसमें मुनि पुंगव को संयम के लिए वस्त्र, आसन, पात्र, औषध, भेषज आदि भी उत्सर्ग मार्ग में सचित्त का अचित्त करना, खरीद करना या पकवाना। ये तीनों क्रिया साधु के लिए करना, करवाना या अनुमोदन नहीं किया हो, ऐसा नौ कोटि विशुद्ध देना चाहिए। क्योंकि - जो संयम की पुष्टि के लिए ही साधु को दान देता है तो इस तरह उनके लिए पृथ्वीकायादि की हिंसा करना वह कैसे योग्य गिना जाय ? यति दिनचर्या में कहा है किसंयम निर्वाह में रुकावट न आती हो, ऐसे समय में अशुद्ध दोषित वस्तु का दान रोगी और वैद्य के समान लेने वाला और देने वाला दोनों के लिए अहितकर है। और संयम निर्वाह नहीं होता हो तब वही वस्तु लेने वाला, देने वाला दोनों को हितकर है। परंतु जब उपधि वस्त्रादि को चोर चोरी कर गया हो, अति गाढ़ बिमारी या दुष्काल हो इत्यादि अन्य भी अपवाद समय पर सर्व प्रयत्न करने पर भी यदि निर्दोष वस्त्र, आसन आदि की और औषध, भेषज आदि की प्राप्ति नहीं होती हो तो अपने या दूसरे के धन की शक्ति से साधु के लिए खरीद करना अथवा तैयार किया आदि दोषित भी दे और दूसरा भी वैसी शक्ति सम्पन्न न हो तो ऐसे समय पर वह साधारण द्रव्य से भी सम्यग् रूप से लाकर दे और दोषित छोड़ने वाले साधु भी उसे अनादर से स्वीकार करें। क्योंकि -मुनियों को संयम निर्वाह शक्य हो तब उत्सर्ग से जो द्रव्य लेने का निषेध है, वह सर्व द्रव्य भी किसी अपवाद के कारण लेना कल्पता है। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि - 'जिसको पूर्व में निषेध किया, उसी को ही पुनः वही कल्पता है?' ऐसा कहने से तो अनवस्था दोष लगता है और इससे नहीं तीर्थ रहेगा, या न तो सत्य रहेगा। यह दर्शन शास्त्र तो निश्चय उन्मत्त वचन समान माना जायगा । अकल्पनीय हो वह कल्पनीय नहीं हो सकता है, फिर भी यदि इस तरह से तुम्हारी सिद्धि होती हो तो ऐसी सिद्धि किसको नहीं हो? अर्थात् सर्व को सिद्धि हो जाये । इसके उत्तर में आचार्यश्री कहते हैं कि - श्री जिनेश्वर भगवान ने अब्रह्म बिना एकान्त से कोई आज्ञा नहीं दी है और एकान्त से कोई निषेध नहीं किया है। उनकी आज्ञा यह है कि- प्रत्येक कार्य में सत्यता का पालन करना, माया नहीं करनी । और रोगी को औषध के समान जिससे दोषों को रोग को रोक सकता है। और जिससे पूर्व कर्मों का क्षय होता है वह उस मोक्ष ( आरोग्यता) का उपाय जानना ! उत्सर्ग सरल राजमार्ग है और अपवाद उसका ही प्रतिपक्षी है। उत्सर्ग से जो सिद्ध नहीं हो उसे अपवाद मार्ग सहायता देकर स्थिर करता है। अर्थात् जो For Personal & Private Use Only 123 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान उत्सर्ग का विषय नहीं हो उसे अपवाद सहायता से सिद्ध करता है। मार्ग को जानने वाला भी कारणवश उजड़ मार्ग में दौड़ने वाला क्या पैर से नहीं चलता है? अथवा तीक्ष्ण कठोर क्रिया को सहन नहीं करने वाला, सामान्य क्रिया करने वाला, वह क्या क्रिया नहीं करता है? जैसे ऊँचे की अपेक्षा से नीचा और नीचे की अपेक्षा ऊँचे की प्रसिद्धि है, वैसे एक-दूसरे की प्रसिद्धि प्राप्त करते उत्सर्ग और अपवाद मार्ग दोनों भी बराबर हैं। कहा है कि 'जितने उत्सर्ग हैं उतने ही अपवाद हैं और जितने अपवाद हैं उतने ही उत्सर्ग मार्ग हैं।'1 ये उत्सर्ग और अपवाद मार्ग दोनों अपने-अपने स्थान पर बलवान हैं, और हितकर बनते हैं, और स्वस्थान परस्थान का वे विभाग करते हैं। वह उस वस्तु से अर्थात् वह उस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुषादि की अपेक्षा निर्णीत होता है। उत्सर्ग से निर्वाह कर सके, उसके लिए उत्सर्ग रूप विधान किया है, वह उसके लिए स्वस्थान और निर्बल को वह उत्सर्ग विधान परस्थान कहलाता है। इस तरह अपने अपने स्वस्थान अथवा परस्थान कोई भी द्रव्यादि वस्तु कारण बिना निरपेक्ष नहीं होती है। अपवाद भी ऐसा वैसा नहीं है। परंतु जो स्थिर वास रहता है और उसे भी निश्चय गीतार्थ ने पुष्ट गाढ़ कारण बतलाया है। इस विषय पर अधिक कहने से क्या? अब प्रस्तुत विषय को कहते हैं। शुद्ध वस्त्र आदि की प्राप्ति होती हो तब पूर्व में गाढ़ कारण से अशुद्ध लिये हो उसका विधिपूर्वक त्याग करें (परठ दे), निरोगी होने के पश्चात् बिमारी आदि के कारण भी जो-जो अन्न, औषध आदि अशुद्ध का उपयोग किया हो, उसका प्रायश्चित्त स्वीकार करें। ६. साध्वी द्वार : इस तरह साधु द्वार कहा है, उसी तरह साध्वी द्वार भी जान लेना। केवल स्त्रीत्व होने से उनको अपाय बहुत होते हैं। आर्याएँ परिपक्व स्वादिष्ट फलों से भरे हुई बेर वृक्ष समान हैं, इसलिए वह गुप्ति रूपी वाड़ द्वारा रक्षित घिरी हुई भी स्वभाव से ही सर्वभोग होती है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक हमेशा सर्व प्रकार से रक्षण करने योग्य है, यदि उनका किसी शत्रु द्वारा अथवा दुराचारी व्यक्तियों से अनर्थ होता हो तब अपना सामर्थ्य न हो तो साधारण द्रव्य का खर्च करके भी संयम में विघ्न करनेवाले निमित्त का सम्यग् नाश करना चाहिए और उनकी रक्षा करनी चाहिए ।।२८६१।। इस तरह साध्वी द्वार कहा। अब श्रावक द्वार कहते हैं :७. श्रावक द्वार : इसमें श्रावक यदि धर्म में अनुरागी चित्तवाला हो, धर्म अनुष्ठानों में तल्लीन रहता हो और श्रेष्ठ गुणवाला होते हुए भी यदि किसी तरह आजीविका में मुश्किल होती हो, तो उसमें व्यापार कला हो तथा यदि वह धन का गलत कार्यों में नाश करने वाला न हो, तो कोई भी व्यवस्था करके साधारण द्रव्य से भी व्यापार के लिए उसे मूल राशि दे, और वह व्यापार की कला से रहित हो, तो भी उसे आवश्यकता से आधा या चौथा भाग आदि आजीविका के लिए दे, अथवा यदि वह व्यसनी, झगड़े करने वाला अथवा चुगलखोर न हो, चोर या लंपट आदि अवगुण न हो, शुद्ध, स्वीकार की हुई बात को पालन करने वाला, दाक्षिण्य गुण वाला और विनयरूपी धनवाला विनीत हो तो उसे ही नौकर के कार्य में अथवा अन्य किसी स्थान पर रखवाना चाहिए। समान धर्मी अर्थात् साधर्मिक भी निश्चय ही उन गणों से रहित हो अथवा विपरीत अवगुणी हो तो, उसे रखने से अवश्य ही लोग में अपनी और शासन की भी निन्दा होने का संभव है। ८. श्राविका द्वार : श्रावक द्वार के समान श्राविका द्वार भी इसी तरह जानना। केवल आर्याओं के समान उनकी भी चिंता 1. जावइया उस्सग्गा तावइया चेव होंति अववाया। जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ।।२८५३।। 124 For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमें परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान 'श्री संवेगरंगशाला विशेषतया करनी चाहिए। इस तरह करने से धीर उस श्रावक ने श्री जिनशासन का अविच्छेदन रूप रक्षण के लिए परम प्रयत्न किया है, ऐसा मानना चाहिए। अथवा ऐसा करने से उसको सम्यक्त्वादि गुणों का पक्षपाती माना जाता है और उसके द्वारा ही सर्वज्ञ शासन भी प्रभावित हुआ गिना जायगा। इस द्वार में प्रसंग अनुसार साधर्मिक के प्रति कैसा व्यवहार करना उसे कहते हैं। साधर्मिक के प्रति व्यवहार :- स्वजन परजन के विचार बिना समान जातिवाला या उपकारी आदि की अपेक्षा बिना ही 'साथ में धर्म करनेवाला होने से यह मेरा धर्म बन्धु है।' इस तरह नित्य विचार करते श्रावक धर्म, आराधना की समाप्ति, पुत्र जन्म, विवाह आदि के समय पर साधर्मिक बंधुओं का संस्मरण करें, आमंत्रण देकर स्वामि-वात्सल्य करें, उनको देखते ही सकुशल वार्तादि सम्भाषण करें और सुपारी आदि फलों से सत्कार सन्मान करें। रोगादि में औषधादि से प्रतिकार कर सेवा करें, मार्ग में चलने से थक जाने से अंग मर्दन आदि करें, विश्रान्ति दे, उनके सुख में अपने को सुखी मानें, उनके गुणों की प्रशंसा करें, उनके अपराध-दोष को छिपावे, व्यापार में कमजोर हो, उसे अधिक लाभ हो, ऐसे व्यापार में जोड़ दे, धर्म कार्यों का स्मरण करवाये, दोषों का सेवन करते रोके, अति मधुर वचनों द्वारा सत्कार्यों की प्रेरणा दे और यदि नहीं माने तो कठोर वचनों से बार-बार निश्चयपूर्वक प्रेरणा करें। अपने में सामर्थ्य हो तो आजीविका की मश्किल वाले को सहायता दे. अत्यन्त संक गिरे हुए का उद्धार करें, सारे धर्म कार्यों में उद्यम करने वाले को हमेशा सहायता करें तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र में रहनेवाले को सम्यक् स्थिर करें। इस तरह अनेक प्रकार से साधर्मिक वात्सल्य करते श्रावक अवश्यमेव इस जगत में शासन की सम्यग् वृद्धि-प्रभावना को करनेवाला होता है। इस तरह श्रावक द्वार के साथ प्रसंगोपात श्राविका द्वार को अर्थ युक्त कहकर अब पौषधशाला द्वार को कहते हैं :९. पौषधशाला द्वार : राजा आदि उत्तम मालिक के अधिकार में रही हुई तथा उत्तम सदाचारी मनुष्यों से समृद्धशाली गाँव, नगर आदि में पौषधशाला यदि जर्जरित हो गयी हो और वहाँ भवभीरु महासत्त्व वाले हमेशा षड्विध आवश्यकादि सद्धर्म क्रिया के रागी श्रावक रहते हों, फिर भी तथाविध लाभांतराय कर्मोदय के दोष से उद्यमी होने पर भी जीवन निर्वाह कष्ट रूप महा मुश्किल से चलता हो, जैसे दीपक में गिरी हुई जली हुई पंख वाली तितलियाँ अपना उद्धार करने में शक्तिमान नहीं होती हैं, वैसे पौषधशाला के उद्धार की इच्छा वाले भी उसका उद्धार करने में शक्तिमान नहीं हों तो, स्वयं समर्थ हो, तो स्वयं अन्यथा उपदेश देकर अन्य द्वारा उद्धार करवा दे और इन दोनों में असमर्थ हो तो साधारण द्रव्य से भी उस पौषधशाला का उद्धार करा सकता है। इस विधि से पौषधशाला का उद्धार कराने वाला वह धन्य पुरुष अवश्य ही दूसरों की सत्प्रवृत्ति का कारणभूत बनता है।।२८८५ ।। उसमें डांस, मच्छर आदि को भी कुछ नहीं गिनते, उसका रक्षण करते हैं। पौषध-सामायिक में रहे संवेग से वासित, बुद्धिमान संवेगी आत्मा को ध्यान अध्ययन करते देखकर कई जीवों को बोधिबीज की प्राप्ति होती है और अन्य लघुकर्मी इससे ही सम्यग् बोध को प्राप्त करते हैं। पौषधशाला का उद्धार कराने से उसने तीर्थ प्रभावना की, गुणरागी को गुण प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करवायी, धर्म आराधना की, रक्षा और लोक में अभयदान की घोषणा करवायी। क्योंकि इससे जो प्रतिबोध प्राप्त करेंगे. वे अवश्य मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। इससे उनके द्वारा होने वाली हिंसा से अन्य जीव का रक्षण होता है। यद्यपि उपासक दशांग आदि शास्त्रों में पुरुषसिंह आनन्द, श्रावक आदि प्रत्येक को अपने-अपने घर में पौषधशालाएँ थीं ऐसा कहा हैं, तो भी अनेकों की साधारण एक पौषधशाला कहने में दोष नहीं है। क्योंकि बहुत जन मिलने से परस्पर विनयादि आचरण करने से सद्गुण - 125 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान सविशेष भावना वाला होता है, वह अनुभव सिद्ध है। जैसे कि-परस्पर विनय करना, परस्पर सारणा-वारणादि करना, धर्म-कथा, वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय करना, स्वाध्याय से थके हुए को विश्रांति देना, और धर्म बन्धु एक दूसरे का परस्पर सुख-दुःख आदि पूछना, भूले हुए सूत्र, अर्थ और तदुभय का परस्पर पूछना, बताना, स्वयं देखी या सुनी हुई सामाचारी को समझाना। परस्पर सुने हुए अर्थ को विभागपूर्वक उस विषय में सम्यक् स्थापन करना, उसका निर्णय करना, और शास्त्रोक्त योग विधि का परस्पर निरूपण करना, एक पौषधशाला में मिलने से कोई हमेशा कर सकता हो, कोई नहीं कर सकता हो। ऐसी धर्म की बातों को परस्पर पूछने का होता है, जो कर सकते हो, उनकी प्रशंसा कर सकते हैं और जिनको करना दुष्कर हो, उनको उस विषय में शास्त्रविधि अनुसार उत्साह बढा सके। इस तरह परस्पर प्रेर्यप्रेरक भाव से गणों का श्रेष्ठ विकास होता है। इसलिए ही व्यवहार सूत्र में राजपुत्रादि को भी एक पौषधशाला में धर्म का प्रसंग करने को बतलाया है। इस तरह अनेक उत्तम श्रावकों को सद्धर्म करने के लिए निश्चय ही सर्व साधारण एक पौषधशाला बनाना योग्य है। अब अधिक कहने से क्या लाभ? ।।२९०० ।। गुरु के उपदेश से यह पौषधशाला द्वार कहा। अब दर्शन कार्य द्वार को कुछ अल्पमात्र कहता १०. दर्शन कार्य द्वार : यहाँ पर चैत्य संघ आदि का अचानक ऐसा कोई विशिष्ट कार्य किसी समय आ जाये तो वह दर्शन कार्य जानना। वह यहाँ अप्रशस्त और प्रशस्त भेद से दो प्रकार का जानना, उसमें जो धर्म विरोधी आदि द्वारा जैन भवन या प्रतिमा का तोड़-फोड़ करना इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना अथवा धर्मद्वेषी ने संघ को उपद्रव करना या क्षोभरूप कार्य करना, वह अप्रशस्त जानना। और देव द्रव्य सम्बन्धी श्रावक आदि से करवाना, इत्यादि उस सम्बन्धी कार्य करना, वह प्रशस्त जानना। इन दोनों प्रकार में भी प्रायः राजा आदि के दर्शन-मिलने से हो सकता है। उस राजादि को मिलने का कार्य भेंट आदि दिये बिना नहीं होता है, इसलिए जब दूसरी ओर ऐसा धन नहीं मिले तो उचित कार्य के जानकार श्रावक साधारण द्रव्य से भी उसे देने का विचार करें। ऐसा करने से इस लोक में कीर्ति और परलोक में सद्गति की प्राप्ति इत्यादि लाभ होता है। तो उभयलोक में कौन-कौन से गुण लाभ नहीं होते? इस कार्य में यथायोग्य प्रयत्न करना चाहिए। उसे- (१) चैत्य, (२) कुल, (३) गण, (४) साधु, (५) साध्वी, (६) श्रावक, (७) श्राविका, (८) आचार्य, (९) प्रवचन, और (१०) श्रुत, इन सबका भी कार्य करणीय है। क्योंकि साधारण द्रव्य का खर्च जिनमंदिर आदि इन दस में ही करने को कहा है। इसलिए, धन्यात्माओं को ही निश्चय इस विषय में बुद्धि प्रकट होती है। यहाँ पर किसी को ऐसी कल्पना हो कि-यह दस स्थान जिन कथित सत्र में किस स्थान पर कहे है? और जिन के बिना अन्य का कहा हुआ प्रमाणभूत नहीं है। तो उसे इस तरह समझो कि-निश्चय रूप से इन दस को समुदित–एकत्रित कहीं पर नहीं कहा है, परंतु भिन्न-भिन्न रूप में सूत्र के अंदर कई स्थान पर कहा ही है और सूत्र में चैत्यद्रव्य, साधारणद्रव्य इत्यादि वचनों से साधारण द्रव्य को स्पष्ट अलग बतलाया ही है, तो अर्थापत्ति से उसको खर्च करने का स्थान भी निश्चय ही कहा है। इस तरह कुशल अनुबंध का एक कारण होने से भव्य जीवों के हित के लिए आगम के विरोध बिना-आगम के अनुसार हम ने यहाँ उस स्थान को ही जिनमंदिरादि रूप दस प्रकार के विषय को विभाग द्वारा स्पष्ट बतलाया है। इन जिनमंदिरादि स्थानों में एक-एक स्थान की भी सेवा पुण्य का निमित्त बनती है, तो वह समग्र की सेवा का तो कहना ही क्या? अर्थात् अपूर्व लाभ है। यह साधारण द्रव्य प्राप्ति के लिए प्रारम्भ करते समय से ही आत्मा को उसी दिन से जिनमंदिर आदि सर्व की 126 For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला सेवा चालु होती है। क्योंकि उसका अनुबंधपूर्वक चित्त का राग प्रारंभ से ही एक साथ में उनके विषय भूत सर्व द्रव्य, क्षेत्र आदि में पहुँच जाते हैं। इसलिए सर्व प्रकार से विचारकर, अपने वैभव के अनुसार कुछ भी अपने धन से वे साधारण द्रव्य को एकत्रित करना प्रारंभ करते हैं। जो अन्याय आदि किये बिना विधिपूर्वक प्रतिदिन उसकी वृद्धि करते हैं, अचलित चित्तवाला जो महासत्त्वशाली उसमें मोह रखें बिना उसका रक्षण करता है। और जो पूर्व कहे अनुसार क्रम से निश्चय उसे उस-उस स्थान पर आवश्यकतानुसार खर्च करता है, वह धीर पुरुष तीर्थंकर गोत्र कर्म का पुण्य उपार्जन करता है। और प्रतिदिन उस विषय में बढ़ते अध्यवसाय से अधिकाधिक प्रसन्नता वाला वह पुरुष निश्चय ही नरक और तिर्यंच इन दो गति को रोक देता है। उसका वहाँ जन्म कभी नहीं होता है। और उसको कभी भी अपयश नाम कर्म और नीच गोत्र का बंध नहीं होता है, परन्तु वह सविशेष निर्मल सम्यक्त्व रत्न का धारक बनता है। स्त्री अथवा पुरुष जो पूर्व में साधारण में खर्च न किया हो तो भी बाद में भी अपने धन को साधारण में देता है वह अवश्यमेव उत्तरोत्तर परम कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है। इस जन्म में भी अपने यश समूह से तीनों भवन को भर देता है। पुण्यानुबंधी संपत्ति का स्वामी, पवित्र भोग सामग्री वाला और उत्तम परिवार वाला बनता है। और परभव में उत्तम देव, फिर मनुष्य भव में उत्तम कुलिन पुत्र रूप में होकर चारित्र रूपी संपत्ति का अधिकारी बनकर वह अंत में सिद्ध-पद प्राप्त करता है। अब अधिक कहने से क्या ? यदि उस भव में उसका मोक्ष न हो तो तीसरे भव से सातवें भव तक में अवश्य होता है, परंतु आठवें भव से अधिक नहीं होता है। और जो किसी से मोहित हुआ साधारण द्रव्य में मूढ़ मनवाला व्यामोह से अपने पक्षपात के आधीन बना केवल जिनमंदिर अथवा जिनबिम्ब, मुनि या श्रावक आदि किसी एक ही विषय में साधारण द्रव्य का व्यय करता है, परंतु पूर्वानुसार जहाँ आवश्यकता हो वहाँ विधिपूर्वक जिनमंदिरादि सर्व क्षेत्रों में सम्यग् व्यय नहीं करता है। वह प्रवचन (आगम) का वंचक या द्रोही कुमति को प्राप्त करता है। क्योंकि ऐसी प्रवृत्ति से वह शासन का विच्छेदन करना चाहता है अथवा करता । इस तरह परिणाम द्वार में काल विगमन नामक तीसरा प्रतिद्वार भी प्रासंगिक अन्य विषयों सहित कहा। अब प्रथम परिकर्म द्वार के नौवाँ परिणाम द्वार का पुत्र प्रतिबोध द्वार कहते हैं ।। २९३० ।। पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा द्वार : पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा है। उन नित्य कृत्यों में निश्चय अपने एकाग्र चित्तवाला गृहस्थ कुछ काल व्याधिरहित जीवन व्यतीत होने के बाद अधिकार में पुत्र की सफलता को देखकर सविशेष उत्साहवाला, आराधना का अभिलाषी, प्रकट हुआ वैराग्यवाला सुश्रावक अपने अतिगाढ़ रागवाले विनीत पुत्र को बुलाकर संसार प्रति वैराग्य उत्पन्न हो, ऐसी भाषा में इस तरह समझाये - हे पुत्र ! इस संसार की स्वाभाविक भयंकरता का जो कारण है कि - इस संसार में जीवों को सर्वप्रथम मनुष्य जीवन प्राप्त करना दुर्लभ है, उसका जन्म यह मृत्यु का दूत है तो संपत्ति अत्यन्त कष्ट से रक्षण हो सके, ऐसी प्रकृति से ही संध्या के बादलों के रंग समान चंचल है। रोग रूपी भयंकर सर्प क्षण भर भी निर्बल बना देता है और सुख का अनुभव भी वट वृक्ष के बीज समान अल्प होते हुए भी महान् दुःखों वाला है। स्थान-स्थान पर पीछे लगी हुई आपदा भी मेरु पर्वत सदृश महान् अति दारुण दुःख देती है। श्रेष्ठ और इष्ट सर्व संयोग भी निश्चित भविष्य में नाश होने वाले हैं और उत्पन्न हुए मनोरथ का शत्रु मरण भी आ रहा है। यह भी समझ में नहीं आता कि - यहाँ से मरकर परलोक में कहाँ जाना है ? और ऐसी सद्धर्म की सामग्री भी पुनः प्राप्त करनी अति दुर्लभ है। इसलिए हे पुत्र ! जब तक भी मेरे इस शरीर रूपी पिंजरे को जरा रूपी पिशाचनी ने ग्रसित नहीं किया, For Personal & Private Use Only 127 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-पुत्र प्रतिबोध इन्द्रियाँ भी निर्बल नहीं हुई, जब तक उठने बैठने आदि का बल पराक्रम में भी कमी नहीं आती, तब तक मैं तेरी अनुमतिपूर्वक परलोक का हितमार्ग स्वीकार करूँ। कान को सुनने में कड़वा और वियोग सूचक वाणी को सुनकर पर्वत समान महान् मुद्गर से नाश होता हो, इस तरह पत्थर गिरता हो वैसी मूर्छा से आँखें बंदवाला, तमाल वृक्ष समान श्याम मुख कांतिवाला, शोक से बहते आँसू वाला पुत्र शोक से प्रकट हुए टूटे-फूटे अक्षरवाली भाषा से अपने पिता को कहता है कि-हे तात! अकाल में उल्कापात समान ऐसे वचन क्यों बोल रहे हो? इस जीवन में अभी प्रस्तुत संयम का कोई भी समय प्राप्त नहीं हुआ है, इसलिए हे तात! इस विचार से अभी रुक जायें। तब पिता उसे कहता है कि-हे पुत्र! अत्यन्त विनयवाला बनकर तूं सफेद बालवाले मेरे मस्तक को क्यों नहीं देखता? खड़खड़ाती हड्डी के समूह वाली मेरी यह कायारूपी लकड़ी को और अल्पमात्र प्रयास में ही चलायमान होती मेरी दाँत की पंक्ति को भी क्यों नहीं देखता? हे पुत्र! क्या देखने में निर्बल तेजहीन बनी दोनों आँखों को और लावण्य शून्य झुरझुरी वाले शरीर की चमड़ी को भी तूं क्यों नहीं देखता है? और हे पुत्र! पश्चिम दिशा के आश्रित सूर्य के बिम्ब के समान तेज रहित परम पराक्रम से साध्य कार्यों के लिए प्रकट रूप से अशक्त भ्रष्ट हुए श्रेष्ठ शोभा वाले मेरे इस शरीर को भी क्या तूं नहीं देखता? कि जिससे प्रस्तुत प्रयोजन के लिए अयोग्य कहता है। जैन धर्म युक्त मनुष्य जीवन प्राप्त कर गृहस्थ को निश्चय रूप से यही उचित है कि जो अप्रमत्त जीवन जीना और अंत में अभ्युद्यत (अप्रमत्त पने) मृत्यु से मरना है। अरे! मन को वश करके जिसने इन्द्रियों का दमन नहीं किया, उसका प्राप्त हुआ मनुष्य जीवन भी निष्फल गया है। इसलिए हे पुत्र! प्रसन्न होकर अनुमति दे कि जिससे मैं अब सत्पुरुषों के आचार अनुरूप मार्ग का आचरण करूँ। यह सुनकर पुत्र ने कहा कि-हे तात! तुम्हारा तीन लोक को आश्चर्य उपजाने वाला शरीर का कैसा सुंदर रूप है? और उसका नाश करने में कारणभूत यह आपकी भावना कहाँ? यह आपकी अति कोमल काया चारित्र की कष्टकारी क्रिया को कैसे सहन करेगी? तीव्र धूप को तो वृक्ष सहन करते हैं, कमल की माला सहन नहीं करती है, वही पण्डित पुरुष है जो निश्चय वस्तु जहाँ योग्य हो उसे वहाँ करते हैं, क्या कोई बालक भी लकड़ी के कचरे में आग नहीं लगाता है? इस प्रकार निश्चय आपका यह आचरण मनोहर लावण्य और कांति से शोभित आपके शरीर का नाश करने वाला होगा। इसलिए हे तात! अपने बल-वीर्य-पुरुषार्थ और पराक्रम के क्रम से उस (संसारी) कार्य को आचरणपूर्वक सफल करके कष्टकारी प्रवृत्ति को स्वीकार करना। तब धीरे से हँसने पूर्वक सुंदर दो होंठ कुछ खुले हों और दांत की श्रेणी दिखती हो, वैसे पुनः पिता पुत्र से कहे कि-हे पुत्र! मेरे ऊपर अति स्नेह से तूं उलझन में पड़ा है, इसलिए ऐसा बोलता है, नहीं तो विवेक होने पर ऐसा वचन कैसे निकले? हे पुत्र उत्तम लोगों के हृदय को संतोषकारी ऐसे मनुष्य जन्म में जो उचित कार्य है वह मैंने आज तक क्या नहीं किया? वह तूं सुन। योग्य स्थान पर व्यय करने से लक्ष्मी को प्रशंसा पात्र की, अर्थात् धन को प्रशस्त कार्य में उपयोग किया। सौंपे हुए भार को उठाने में समर्थ स्कंध वाला तेरे जैसे पुत्र को पैदा किया, और अपने वंश में उत्पन्न हुए पूर्वजों के मार्ग का शक्ति अनुसार पालन किया। ऐसा करने योग्य करके अब परलोक हित करना चाहता हूँ। और तूंने जो पूर्व में मुझे बल-वीर्य पराक्रम की सफलता करने को बतलाया, वह भी योग्य नहीं है। क्योंकि-हे वत्स! पुरुषों को धर्म करने का भी काल वही है कि जब समस्त कार्य करने का सामर्थ्य विद्यमान हो! क्योंकि इन्द्रियों का पराक्रम हो तब निष्पाप सामर्थ्य के योग से पुरुष सभी कर्तव्य करने में समर्थ हो सकता है। जब उन सब इन्द्रियों की कमजोरी के कारण निर्बल शरीर वाला, यहाँ खड़ा भी नहीं हो सकता, तब वह करने योग्य क्या कर सकता है? ।।२९६७।। 128 For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-सुस्थि घटना द्वार श्री संवेगरंगशाला निश्चय से जो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को युवा अवस्था में कर सकता है, वही पुरुषार्थ बड़ी उम्र वाले को पर्वत के समान कठोर बन जाता है। इसलिए जिनवचन द्वारा तत्त्व के जानकार पुरुष को सर्व क्रियाओं में अपने पास बल बल का समह हो तब ही धर्म का उद्यम कर लेना चाहिए। वीर्य से साध्य तप भी केवल शरीर द्वारा सिद्ध नहीं होता, उसमें बल, वीर्य, पराक्रम होना चाहिए। पर्वत को वज्र ही तोड़ सकता है, मिट्टी का टुकड़ा कभी भी नहीं तोड़ सकता है। वैसे सामर्थ्य रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। अतः बल-वीर्य वाला हूँ, तब तक बुद्धि को धर्म में लगाना चाहता हूँ। तथा वही विद्वान है, वही बुद्धि का उत्कृष्ट है और बल सामर्थ्य भी वही है कि जो एकान्त से आत्महित में ही उपयोगी बना है। इसलिए हे पुत्र! मेरे मनोवांछित कार्य में अनुमति देकर, तूं भी स्वयं धर्म महोत्सव को करते, इस लोक के कार्यों को कर। क्योंकि-धीर पुरुष सद्धर्म क्रिया से रहित एक क्षण भी जाये तब प्रमादरूपी मजबूत दण्ड वाले लुटेरों से अपने को लटा हुआ मानता है। जब तक अभी भी जीवन दीर्घ है, समर्थ है, तब तक बुद्धि को सद्धर्म में लगा देना चाहिए, यह जीवन अल्प होने के बाद क्या कर सकता है? अतः धर्म कार्य में उद्यम ही करना चाहिए, उसमें प्रमाद न करें, क्योंकि मनुष्य यदि सद्धर्म में रक्त हो तो उसका जीवन सफल होता है। जो नित्य धर्म में रक्त है वह मनुष्य मरा हुआ भी जगत में जीता ही है, परंतु जो पाप के पक्षवाला है, वह जीता हुआ भी मरे हुए के समान मानना। अतः हे पुत्र! जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करने वाला धर्मरूपी रसायण सदा पीना चाहिए, कि जिसको पीने से मन को परम शांति मिलती है। इसलिए हे पुत्र! प्रयत्नपूर्वक धर्म ध्यान से मन को, उसके आचरण से मनुष्य जन्म को और प्रशम प्राप्त कर श्रुत ज्ञान को प्रशंसनीय बना! इत्यादि वचनों से प्रतिबोध देकर पुत्र पिता को परलोक के हित की प्रवृत्ति के लिए आज्ञा दे। इस तरह पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा अंतर द्वार कहा। अब सुस्थित घटना अर्थात् सदाचारी मुनियों की प्राप्ति नामक पाँचवां अंतर द्वार कहते हैं ।।२९८३।। सुस्थित घटना इसके पश्चात् महा मुश्किल से अनिच्छा से पुत्र ने आज्ञा दी। फिर प्रति समय उत्तरोत्तर बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाला और 'अब हमारा नाश करेगा' ऐसी अपनी विनाश की शंका से राग द्वेष शत्रुओं ने छोड़ दिया, तथा योग्य समझकर शीघ्र प्रशम से स्मरण करते, पूर्व में बंध किये हुए कर्मरूपी कुल पर्वतों को चकनाचूर करने में वज्र समान सर्व विरति रूपी महा चारित्र की आराधना के लिए उद्यमशील, चित्त से प्रार्थना करते अर्थात् चारित्र के लिए उत्साही चित्तवाला, संसार में उत्पन्न होती समस्त वस्तुओं की विगुणता का विचार करते तथा कर्म की लघुता होने से शुभ स्वप्नों को देखता है। जैसे कि 'निश्चय आज मैंने पवित्र फल, फूल और शीतल छाया वाला श्रेष्ठ वृक्ष को प्राप्त किया, और उसकी छाया आदि से मैंने अति आश्वासन प्राप्त किया तथा किसी महापुरुष ने मुझे स्वभाव से ही भयंकर अपार समुद्र में से हाथ का सहारा देकर पार उतारा, इत्यादि स्वप्न देखने से हर्षित रोमांचित वाला वह अधिगत पुरुष आश्चर्यपूर्वक जागकर इस प्रकार चिंतन करें कि-ऐसा स्वप्न मैंने कभी देखा नहीं, सुना नहीं और अनुभव भी नहीं किया है, इससे मैं मानता हूँ कि अब मेरा कुछ कल्याण होगा, उसके बाद कालक्रम से विचरते हुए किसी भी भव के उसके पुण्य प्रकर्ष से आकर्षित होकर आये हो वैसे, पूर्व में जिनकी खोज करता था वैसे सुस्थित-सुविहित आचार्य महाराज आये हुए हैं, ऐसा सुनकर वह विचार करता है किउनके आने से निश्चय अब मेरा क्या-क्या कल्याण नहीं होगा? अथवा सिद्धांत के कौन से रहस्यों को मैं नहीं सुनूँगा? और पूर्व में सुने हुए तत्त्वों को भी अब में स्थिर परिचित करूँगा। ऐसा चिंतन करते हर्ष के भार से परिपूर्ण अंगवाला गुरु महाराज के पास जाये और आनंद के आँसू से भरे नेत्रों की दृष्टिवाला, ऐसी दृष्टि से दर्शन - 129 For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-सुस्थि घटना द्वार करते तीन प्रदक्षिणा देकर, फिर मस्तक से पृथ्वी तल का स्पर्श करता गुरुदेव के चरणों में गिरकर नमस्कार करें। उसके बाद उनके शरीर की सेवाकर उनके पास से सिद्धान्त के रहस्यों को सुनें और यही गुरु भगवंत हैं, इन्हीं को ही मैंने स्वप्न में देखा था, ये तो उत्तम फल वाले महान् वृक्ष स्वरूप हैं, स्वप्न में देखा था वे मुझे समुद्र में हाथ का सहारा देने वाले यही गुरुदेव हैं। ऐसा चिंतन मनन करते समय देखकर गुरु महाराज को निवेदन करे कि हे भगवंत! अति विशाल फैले हुए मिथ्यात्व रूपी जल प्रवाह से परिपूर्ण, प्रत्यक्ष दिखता महाभयंकर मोह के सैंकड़ों चक्करों (आवर्त) से युक्त, सतत् मृत्यु जन्म रूपी बड़ी तरंगों से क्षुब्ध किनारा वाला, प्रति समय घूमते हुए अनेक रोग, शोकादि मगर, सों से युक्त स्वभाव से ही गंभीर गहरा, स्वभाव से ही अपार किनारे बिना का, स्वभाव से ही भयंकर और किनारा रहित इस संसार समुद्र को पार उतरने के लिए आपके द्वारा प्रव्रज्या रूपी नाव में बैठकर हे मुनिनाथ! मैं पार उतरने के लिए आपश्री के हाथ का सहारा चाहता हूँ ।।२९९९।। फिर खिली हुई अति करुणा से भरी हुई पपड़ी वाली और अंतर में उछलते अनुग्रह से विकास वाली दृष्टि से अनुग्रह करते हो। इस तरह समस्त तीर्थों के जल स्नान के समान उसके पाप मैल को धोते धर्म गुरु मधुरवाणी से उसे इस प्रकार उत्तर दे-अरे, भो! देवानुप्रिय! समस्त संसार स्वरूप के जानकार, शत्रु के पक्षपाती, सर्व विषयों की अभिलाषा के त्यागी, आशारूपी कीचड़ से रहित, निर्मल चित्तवृत्ति वाले, प्रमाद को जीतने वाले, प्रतिक्षण बढ़ते प्रशम रस को पीने की तष्णा वाले. और शास्त्र विधि ज्ञान क्रिया से उत्तम मरणकाल का परम उत्सव का स्थान रूप मानने वाले तुझे इस समय पर अब दीक्षा लेना वह अत्यन्त योग्य है। हे महायश! उत्साही तूं अब पूर्व में स्वीकृत व्रत गुणादि के अतिचार की आलोचना कर फिर मन से इच्छनीय, निर्दोष प्रव्रज्या को स्वीकार कर। चिरकाल सेवन किया हुआ उत्तम गृहस्थ धर्म का फल गृहस्थ इस तरह दीक्षा स्वीकारकर अथवा मरण समय संथारा रूपी दीक्षा को स्वीकारकर प्राप्त करता है। और उस दीक्षा की अथवा संथारा की प्राप्ति न हो तो भी उत्तम मुनि के समान सर्व संग-सम्बन्धों को छोड़कर सामायिक-समभाव में युक्त बना वह भक्त परिज्ञा अनशन को स्वीकार करता है। यह सुनकर 'आपकी हित शिक्षा को मैं चाहता हूँ।' ऐसा कहने के द्वारा गुरु की हित शिक्षा को अति मानपूर्वक सुने फिर चिरकाल की इच्छा पूर्ण होने से वह कुछ खेदपूर्वक कहे कि : हे भगवंत! महा खेदजनक बात है कि आपके दर्शन की बात तो दूर रही, परंतु इतना सारा काल निष्पुण्यक मैंने कुछ भी आपको जाना ही नहीं, अथवा कल्पवृक्ष के दर्शन, छाया सेवा आदि का संभव तो दूर रहा, उसका परिचय भी निष्पुण्यक को कैसे हो सकता है? पृथ्वी की सारी प्रजा को प्रकट रूप में प्रकाशित सूर्य करता है, परंतु स्वभाव से तामसी पक्षियों के समूह (उल्लू) को हमेशा अविज्ञात-अदृष्ट ही होता है, वैसे मोह से एकान्त महा तामसी प्रकृतिवाले और अत्यन्त निर्गुणी मुझे भी हे स्वामिन्! आप भी किस तरह दिखने में आते? हे प्रभु! मोह से मलिन यह मेरा ही दोष है, आपका नहीं है। उल्लू नहीं देखता, फिर भी सूर्य तो प्रकट है ही, हे भगवंत! स्थान-स्थान पर अस्खलित, विस्तार से फैलती अति मनोहर कीर्ति के भण्डार आपको इस विश्व में कहाँ-कहाँ कौन-कौन नहीं जानता? जो कि वर्षा ऋतु बिना शेषकाल में विचरते मुनि अपने गुणों को नहीं कहते, बोलते भी नहीं हैं, फिर भी पहचाने जाते हैं क्योंकि गुण समूह की वह प्रकृति ही है, वह गुप्त नहीं रहती है। वर्षाकाल के कदंब पुष्प के विशिष्ट गन्ध से जैसे भ्रमर और भ्रमरियाँ सेवा करते हैं वैसे आप भी हे नाथ! आपके गुण से लोगों द्वारा आपकी सेवाएँ होती हैं। अथवा अग्नि कहाँ प्रकट नहीं होती? अथवा चन्द्र कहाँ प्रकट नहीं होता? वैसे आप जैसे सद्गुणी पुरुष कहाँ प्रकट नहीं होते हैं? अर्थात् आप सर्वत्र ही प्रकट होते हैं। 130 For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-आलोचना द्वार श्री संवेगरंगशाला अग्नि तो पानी होने पर प्रकट नहीं होती और चन्द्र भी बादल से ढक जाने से नहीं दिखता है। परंतु हे प्रभु! आप तो सदा सर्वत्र प्रकाश को करते हैं, और अत्यन्त मनोहर भी पूनम का चन्द्र सूर्य विकासी कमल के वनों को आनंद नहीं देता है, किन्तु आप तो हे भगवंत! महाप्रशम आदि श्रेष्ठ गुणों के योग से सर्व जीवराशि को भी परम सन्तोषकारी होते हैं। अधिक क्या कहूँ? आज मैंने स्वामी का-गुरु का सच्चा सन्मान किया है, आज ही मेरी भवितव्यता अनुकूल हुई, आज मेरी वृद्धि हुई और आज सारे उत्सवों का मिलन हुआ, आज का दिन भी मेरा कृतार्थ हुआ और आज ही प्रभात मंगलमय बना, आज ही चित्त में आनंद हुआ, आज ही परम बंधु श्री अरिहंत देव का संबंध हुआ, आज ही मेरा जन्म कृतार्थ हुआ, आज ही मेरे नेत्र सफल हुए, आज ही मेरे इच्छित कार्यों की सम्यक् प्राप्ति हुई, आज ही मेरी पुण्य राशि सफल हुई, और आज ही लक्ष्मी ने वांछारहित सद्भावनापूर्वक मेरे सामने देखा, क्योंकि-हे पापरज को नाश करने वाले मुनीन्द्र! मैं ने आज अत्यन्त पुण्योदय से प्राप्त होनेवाले निष्पापमय आप श्री के चरणकमल को प्राप्त किये हैं। इस तरह सुस्थित घटना नामक यह पाँचवां अंतर द्वार कहा। अब छट्ठा आलोचना द्वार कहते हैं ।।३०२७।। आलोचना द्वार : सद्गुरु के कहे अनुसार आराधना करने में उद्यमशील बना महा सात्त्विक वह उत्तम श्रावक दुर्ध्यान के आधीन बनकर ऐसा चिंतन नहीं करे कि-मैंने बार-बार, अनेकशः अनेक सद्गुरुओं के पास आलोचना भी ले ली और प्रायश्चित्त भी पूरे किये, सारी क्रियाओं में जयणापूर्वक आचरण किया, अब मुझे कुछ अल्प भी आलोचना योग्य नहीं है, ऐसा चिन्तन न करें। परंतु महा मुश्किल से समझ में आये ऐसी सूक्ष्म अतिचार की भी संशुद्धि के लिए उस समय पर एक चारित्र के अतिचारों के उद्देश्य से आलोचना दी जाती है। ज्ञान, दर्शन, तप और वीर्य। इन चार आचारों की आलोचना तो साधु के समान पूर्व में कहे अनुसार विधि से दी जाती है। इसलिए देश चारित्री श्रावक प्रथम व्रत में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के प्रत्येक और अनंतकाय रूप दो प्रकार की वनस्पति के, तथा दो, तीन चार पांच इन्द्रिय वाले जीवों की विराधना के अतिचार को कहकर सनाने चाहिए। उसमें पृथ्वी आदि पाँच को प्रमाद दोष से किसी तरह उसकी सम्यग् जयणा नहीं की, उसे शास्त्र विधि से आलोचना करें। और दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रिय वाले जीवों को परिताप-दुःख आदि देने से जो अतिचार या व्रत का भंग हुआ हो, उसे भी हित का अर्थी प्रकट रूप में निवेदन करें। मृषावाद विरमण में अभ्याख्यान आदि के, अदत्तादान (चोरी) विरमण दृष्टि वंचन आदि का, चौथे व्रत में (स्त्रियों को पुरुष के समान) स्वप्न में भी विजाति के साथ क्रीड़ा या अंग स्पर्श आदि तथा स्वपत्नी के सिवाय अन्य स्त्री के साथ हँसी अथवा गुप्त अंग का स्पर्श आदि, एवं विवाह, प्रेम करना, इत्यादि जो कुछ हुआ हो उन सब अतिचार की आलोचना लेनी चाहिए, तथा धन धान्यादि नौ प्रकार के परिग्रह प्रमाण में लगे हुए अतिचार को, और दिशि परिमाण में, प्रमाण से अधिक भूमि में स्वयं जाने से अथवा दूसरे को भेजने से जिस क्षेत्रादि का उल्लंघन किया हो उसकी सम्यग् रूप से आलोचना करनी। उपभोग परिभोग में, अनंतकाय, बहुबीज आदि के भोजन से लगे हुए अतिचारों को तथा कर्मादानों में अंगार कर्म आदि पन्द्रह कर्मदानों की आलोचना करनी। अनर्थ दण्ड में तेल आदि की रक्षा में किया हुआ प्रमाद अथवा पाँच प्रकार का, और पापोपदेश, हिंसक शस्त्रादि प्रदान, तथा जो दुर्ध्यान किया हो, उसकी सम्यक् प्रकार से आलोचना करनी। सामायिक व्रत में सचित्तादि स्पर्श आदि हुआ हो, मन, वचन, काया से हुए प्रणिधान आदि हुआ हो, किसी जीव का छेदन, भेदन इत्यादि हुआ हो। चरवले की दण्डी से कुतूहल वृत्ति करना, अथवा अनुकूलता होते हुए भी सामायिक नहीं किया हो इत्यादि की सम्यग् आलोचना करनी। देशावगासिक में भी पृथ्वीकायादि के भोग उपभोग - 131 For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-काल परिज्ञान द्वार का संवर-नियम नहीं किया हो, जयणा से रहित वस्त्रादि का प्रक्षालन किया हों इत्यादि सर्व की सम्यक् पूर्वक आलोचना ले। पौषध व्रत में संथारा, स्थंडिल आदि पडिलेहन आदि जो नहीं किया हो या अविधि से किया इत्यादि तथा पौषध का सम्यक् पूर्वक पालन नहीं किया हो उसकी भी प्रकट रूप से आलोचना ले। अतिथि संविभाग व्रत में साधु, साध्वी को अशुद्ध आहार पानी दिया और शुद्ध कल्प्य आदि उत्तम आहार पानी आदि होते हुए भी नहीं दिया उसकी भी आलोचना स्वीकार करें। धार्मिक मनुष्यों को जो बन सके वैसे अमुक अभिग्रह को अवश्य ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अभिग्रह के बिना रहना उसे योग्य नहीं है। फिर भी शक्य अभिग्रह स्वीकार नहीं किया, अथवा स्वीकार किये अभिग्रह का प्रमाद से खण्डन हुआ हो तो उसकी भी आलोचना ले। यह आलोचना करने रूप अतिचार कहा है। इस तरह देश विरति के अतिचारों की आलोचना करने के बाद तप-वीर्य दर्शन संबंधी लगे हुए अतिचारों की भी निश्चित रूप से साधु के समान आलोचना स्वीकार करें तथा साधु, साध्वी वर्ग में ग्लान के लिए औषध की गवेषणा नहीं की या श्री जिनमंदिर में यदि प्रमार्जन-देखभाल आदि नहीं किया हो, श्री जिनमंदिर में यदि शयन किया, तथा खान-पान किया अथवा हाथ पैर आदि धोये हों, उन सबकी आलोचना लेनी चाहिए। तथा जिनमंदिर में पान भक्षण, थूक, कफ, श्लेष्म और शरीर का मैल डालना इत्यादि कार्य किया हो तथा वहाँ देनदार आदि किसी को पकड़ा हो अथवा बाल देखना, जूं निकालना, कंघी करना, और श्री जिनमंदिर में अनुचित आसन लगाना, असभ्यता से बैठना, स्त्री कथा, भक्त कथा आदि विकथा की हो, उस सबकी श्रीजिनभक्ति में तत्पर गृहस्थ को प्रकट रूप से आलोचना लेनी चाहिए ।।३०५०।। तथा राग आदि के कारण किसी प्रकार से भी देव द्रव्य से ही आजीविका चलाई हो, या नाश होते देव द्रव्य की उपेक्षा की हो, श्री अरिहंत परमात्मा आदि की जो कोई भी अवज्ञा आशातना की हो, उस सब की भी आत्म शुद्धि करने के लिए सम्यग् रूप से निवेदन कर आलोचना ले। तथा धर्मी आत्माओं की हमेशा प्रशंसा आदि करणीय नहीं किया और ईर्षा-मत्सर रखा, दोष जाहिर करना इत्यादि अकरणीय किया हो, उसकी भी सम्यग् आलोचना लेनी चाहिए। अधिक क्या कहें? जो कुछ भी, कभी भी जिनागम से विरुद्ध कार्य किया हो, करने योग्य को नहीं किया हो अथवा वह करते हुए भी सम्यग् रूप से नहीं किया हो। श्री जिनेश्वर के वचन में श्रद्धा नहीं की और जो विपरीत प्ररूपणा (कथन) किया हो। उन सबकी भव्य आत्मा को सम्यग् रूप से आलोचना लेनी चाहिए। इस तरह छट्ठा गृहस्थ संबंधी आलोचना दान नाम का द्वार जानना। अब आयुष्य परिज्ञान द्वार को अल्पमात्र कहते हैं ।।३०५४।। काल परिज्ञान द्वार : इस तरह कथनानुसार विधि से आलोचना देने के बाद उसमें कोई गृहस्थ समग्र आराधना करने में सशक्त हो अथवा कोई अशक्त भी हो, उसमें सशक्त भी कोई निरोगी शरीर वाला अथवा कोई रोगी भी हो, इस तरह अशक्त भी दो प्रकार का होता है। उसमें अशक्त या सशक्त यदि मृत्युकाल के नजदीक पहुँचा हो, वह तो पूर्व कथनानुसार विधि से शीघ्र भक्त परीक्षा-अनशन को स्वीकार करें, और अन्य को मृत्यु के नजदीक या दूर जानकर उस काल के उचित हो, वह भक्त परीक्षा आदि करना योग्य गिना जाता है। इसमें मृत्यु नजदीक है अथवा लम्बे काल में मृत्यु होगी, यह तो यद्यपि श्री सर्वज्ञ परमात्मा के बिना सम्यग् रूप से नहीं जान सकते हैं। इस दुषमकाल में तो विशेषतया कोई भी नहीं जान सकता है। फिर भी उसको जानने के लिए उस विषय के शास्त्रों 132 For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्न द्वार-मृत्युकाल जानने के ग्यारह उपाय श्री संवेगरंगशाला के सामर्थ्य योग द्वार से कुछ स्थूल-मुख्य उपायों को मैं बतलाता हूँ। जैसे बादल से वृष्टि, दीपक से अंधकार में रही हुई वस्तुएँ, धुएँ से अग्नि, पुष्प से फल की उत्पत्ति, और बीज से अंकुर को जान सकते हैं, वैसे ही इन ग्यारह उपाय के समूह से प्रायः बुद्धिमान को मृत्युकाल की भी जानकारी हो सकती है। वह उपाय इस प्रकार से मृत्युकाल जानने के ग्यारह उपाय : (१) देवता के प्रभाव से, (२) शकुनशास्त्र से, (३) उपश्रुति अर्थात् शब्द श्रवण द्वारा, (४) छाया द्वारा, (५) नाड़ी ज्ञान द्वारा, (६) निमित्त से, (७) ज्योतिष द्वारा, (८) स्वप्न से, (९) अमंगल या मंगल से, (१०) यन्त्र प्रयोग से, और (११) विद्या द्वारा मृत्युकाल का ज्ञान हो सकता है। जैसे कि१. देवता द्वार :- इसमें प्रवर विद्या के बल द्वारा विधिपूर्वक अंगूठे के नख में, तलवार, दर्पण में, कुण्ड में आदि में उतारकर तथा विधि-उस प्रकार देवी को पूछने पर वह अर्थ को कहती है, परंतु आह्वान करनेवाला पुरुष अत्यंत पवित्र बना हुआ और निश्चल मनवाला, विधिपूर्वक उस देवता के आह्वान की विद्या का स्मरण करे। वह विद्या 'ॐ नरवीरे ठ ठ' इस तरह कही है, उसका सूर्य या चंद्र का ग्रहण हो तब दस हजार और आठ बार जाप करके विद्या को सिद्ध करनी चाहिए। फिर कार्यकाल प्राप्त होने पर एक हजार आठ बार जाप करने से उस विद्या की अधिष्ठायिका अंगूठे आदि में उतरती दिखती है। उसके पश्चात् कुमारिका द्वारा वांछित अर्थ (हकीकत) को निःसंशय जान सकते हैं। केवल यह विद्या निश्चल सम्यक्त्व वाले के वांछित को पूर्ण करती है अथवा किसी तपस्वी चारित्र शील गुणों से आकर्षित चित्तवाली यह देवी जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि उसे साक्षात् नहीं कहें! तो मरणकाल कहने में उसे कितना समय लगता है? २. शकुन द्वार :- निरोगी या बिमार मनुष्य के मृत्यु के ज्ञान के लिए स्वयं अथवा दूसरे द्वारा शकुन को देखें। इसमें प्रथम निरोगी के लिए कहते हैं-वह देव, गुरु को नमस्कार कर परम पवित्र बनकर प्रशस्त दिन में घर अथवा बाहर शकुन के भावफल का सम्यग् विचार करे। उसमें सर्प, चूहा, कृमिया, चीटी, कीड़े, गिलहरी, बिच्छू आदि की वृद्धि हो और घर में, बिल में, दीमक भूमि में छोटे फोड़े समान चीराड़, दरार आदि व्रण विशेष और खटमल, जूं आदि का बहुत ज्यादा उपद्रव हो, मकड़ी अथवा जाल बनाने वाले जीव, मकड़ी का जाल, भौरे, घर में अनाज के कीड़े, दीमक आदि बिना कारण बढ़ते जाये तथा लिपन किया हुआ आदि फट जाय अथवा रंग बदल जाये तो उद्वेग, कलह, युद्ध, धन का नाश, व्याधि, मृत्यु संकट आता है और स्थान भ्रष्टता या विदेश गमन होता है अथवा अल्पकाल में घर मनुष्य रहित शून्य बन जायगा। तथा किसी तरह कभी किसी स्थान पर सुख से सोये हए निद्रा अवस्था में कौएँ चोंच से मस्तक के बाल समह को खींचे तो मरण नजदीक जानना। अथवा उसके वाहन, शस्त्र, जूतें और छत्र को और ढके हुए शरीर को निःशंक रूप में कौआ मारे या काटे तो वह भी शीघ्र यम के मुख में जानेवाला समझना। यदि आँसू से पूर्ण नेत्रवाले सामान्य पशु अथवा गाय, बैल, पैर से पृथ्वी को बहुत खोदे तो उसके मालिक को केवल रोग ही नहीं आता. परंतु मृत्यु का कारण होता है। यह निरोगी अवस्थावाले के संबंध में कुछ अल्प शकुन स्वरूप कहा है। अब रोगी संबंधी कुछ कहते हैं, वह सुनो-यदि कुत्ता अपने दाहिने भाग की ओर मुख को मोड़कर अपनी पीठ के अंतिम विभाग को चाटे तो रोगी एक दिन में मर जायगा। यदि छाती को चाटे तो दो दिन और पूँछ को चाटे तो तीन दिन तक जीता रहता है, ऐसा श्वान शकुन के ज्ञाता ने कहा है। यदि कुत्ता निमित्त काल के समय में सर्व अंगों को सिकोड़कर सो रहा हो तो मानो कि बिमार उसी समय मर जाने वाला है। और कुत्ता दो कान - 133 For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-मृत्युकाल जानने के ग्यारह उपाय हिलाकर और फिर शरीर को मरोड़कर कंपकंपी करे तो रोगी अवश्य मरता है और इन्द्र भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता है। खुले मुख वाला लार गिराता कुत्ता यदि दो आँखों को बंदकर और सिकोड़कर सो जाता है तो रोगी को यमपुरी में ले जाता है। बिमार के घर ऊपर यदि कौओं का समूह तीनों संध्या में मिलते देखे तो जानना कि अब जीव का विनाश होने वाला है। जिसके शयन घर में अथवा रसोईघर में कौआ चमड़ा, रस्सी, बाल या हड्डी डाले वह भी शीघ्र मरने वाला है ।।३०८७।। ३. उपश्रुति (शब्द श्रवण) द्वार :- अब यहाँ से दोष रहित उपश्रुति द्वार को कहते हैं। इसमें प्रशस्त दिन मनुष्यों का सोने का समय हो तब गुरु परंपरा के आये हुए और आचार्य सहित गच्छ के मन को आनंद उत्पन्न कराने वाले सूरि मन्त्र द्वारा आचार्य उपयोगपूर्वक दो कान को मंत्रित कर अथवा पंच नमस्कार द्वारा भी देव, गुरु को नमस्कार कर, सुगंधी अक्षत हाथ में लेकर, श्वेत वस्त्र का उत्तरासंग धारणकर आयुष्य के प्रमाण को जानने का निश्चयकर, एकाग्र चित्तवाले वे अपने दोनों कान के छिद्र बंदकर अपने स्थान से निकलकर, प्रशस्त उत्तर-ईशान दिशा सन्मुख क्रम से अथवा पैरों का चलना देखकर चण्डाल, वेश्या अथवा वेश्य या शिल्पकार आदि के मौहल्ले में, चौक या बाजार आदि प्रदेशों में सुगंध से मनोहर अक्षतों को फेंककर उसके बाद उपश्रुति, अर्थात् जो सुनने में आये उस शब्द को सम्यग् रूप से धारण करें। वे शब्द दो प्रकार के होते हैं। प्रथम अन्य पदार्थ का व्यपदेश वाला और दूसरा उसीका ही स्वरूप वाला होता है। उसमें प्रथम चिंतन द्वारा समझा जाय और दूसरा स्पष्ट अर्थ को बताने वाला होता है। जैसे कि-इस घर का स्तंभ इतने दिनों में या अमुक पखवाड़ों के बाद, अमुक महीने के बाद या अमुक वर्ष में निश्चय ही टूट जायगा अथवा नहीं टूटेगा, अथवा असुंदर होगा, या टकराने से यह शीघ्र टूट जायगा इत्यादि। अथवा तो यह दीपक दीर्घकाल रहेगा या टकराने से शीघ्र नाश होगा। इस तरह पदार्थ के विषय में शब्द सुनकर उस पुरुष को अपनी आयुष्य का अनुमान लगा लेना चाहिए। तथा पीठिका, दीपक की शिखा, लकड़ी का पात्री आदि स्त्रीलिंग पदार्थों के विषय में शब्द, स्त्री के आयुष्य का लाभ, हानि का अनुमान लगाना इत्यादि अन्य पदार्थ का व्यपदेश वाला उपश्रुति शब्द समझना। तथा यह पुरुष अथवा स्त्री इस स्थान से नहीं जायगी अथवा हम उसे जाने नहीं देंगे, यह व्यक्ति भी, जाना नहीं चाहता, अथवा तो दो, तीन, चार दिन में या उसके बाद इतने दिन, पखवाड़े, महीने या वर्ष के बाद अथवा उसके पहले जायगा या नहीं जायगा इत्यादि।।३१०० ।। अथवा तो यह पुरुष आज ही गमन करेगा, या इसे महाआदरपूर्वक बार-बार रोकने पर भी जल्दी जायगा, नहीं रुकेगा। आज ही रात्री अथवा कल या परसों दिन निश्चय यह जाने को उत्सुक है। हम भी जल्दी भेजने की इच्छा करते हैं, इससे शीघ्र जायगा इत्यादि। इस स्वरूप वाली उपश्रुति को दूसरे प्रकार का शब्द जानना। इसका अभिप्रायः यह है कि यदि जाने की बात सुनाई दे तो आयु का अंत निकट है, और रहने की बात सुने तो मृत्यु अभी नजदीक नहीं है। इस तरह दोनों प्रकार के शब्द को सुनकर उसके अनुरूप निर्यानक मुनिवर अथवा जिसने भेजा हो. उस रोगी के उद्देश के उचित कार्य करे अथवा बंद कान को खोलकर जो स्वयं सनी हई उपश्रुति के अनुसार चतुर पुरुष अपनी मृत्यु निकट या दूर है, उसे जान लेते हैं। यह उपश्रुति द्वार कहा ।।३१०६ ।। . अब छाया द्वार में छाया के अनेक भेद हैं, फिर भी यहाँ सामान्य से ही कहते हैं। ४. छाया द्वार :- आयुष्य के ज्ञान के लिए स्थिर मन, वचन, काया वाला पुरुष निश्चय हमेशा ही अपनी छाया को अच्छी तरह देखे, और अपनी परछाई के स्वरूप को अच्छी तरह जानकर शास्त्र कथित विधि द्वारा शुभअशुभ को जानें। इसमें सूर्य के प्रकाश के अंदर, शीशे में अथवा पानी आदि में शरीर की आकृति, प्रमाण, वर्ण आदि से जो परछाई पड़ती है उसे निश्चय ही प्रतिछाया जानना। वह प्रतिछाया जिसकी सहसा छेदन-भेदन हुई तथा 134 For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्न द्वार-मृत्युकाल जानने के ग्यारह उपाय श्री संवेगरंगशाला सहसा यदि आकुल अथवा आकार, माप, वर्ण आदि से कम या अधिक दिखे, रस्सी समान आकार वाली या कण्ठ प्रतिष्ठित (गले तक) दिखे तो कह सकते हैं कि यह पुरुष शीघ्र मरण को चाहता है। और पानी किनारे खड़े होकर सूर्य को पीछे रखकर पानी में अपनी छाया को देखते यदि अलग मस्तक वाली दिखे, वह शीघ्र यममंदिर में जायगा। इसमें अधिक क्या कहें? यदि मस्तक बिना की अथवा बहुत मस्तकवाली या प्रकृति से असमान विलक्षण स्वरूप वाली अपनी छाया को देखे, वह शीघ्र यममंदिर में पहुँचेगा। जिसको छाया नहीं दिखे उसका जीवन दस दिन का, और दो छायाएँ दिखाई दें तो दो ही दिन का जीवन है। अथवा दूसरी तरह से निमित्त शास्त्र द्वारा कहते हैं कि-सूर्योदय से अन्तर्मुहूर्त तक दिन हो जाने के बाद, अत्यन्त पवित्र होकर सम्यग् उपयोग वाला सूर्य को पीछे रखकर अपने शरीर को निश्चल रखकर शुभाशुभ जानने के लिए स्थिर चित्त से छाया पुरुष को अर्थात् अपनी परछाई देखे। उसमें यदि अपनी उस छाया को सर्व अंगों से अक्षत संपूर्ण देखे तो अपना कुशल जानना। यदि पैर नहीं दिखे तो विदेश गमन होगा। दो जंघा न दिखे तो रोग। गुप्त भाग न दिखे तो निश्चय पत्नी का नाश। पेट न दिखे तो धन का नाश। और हृदय नहीं दिखे तो मरण होता है। यदि बाँयी, दाहिनी भुजा नहीं दिखे तो भाई और पुत्र का नाश होना जानना। मस्तक नहीं दिखे तो छह महीने में मृत्यु होगी। सर्व अंग नहीं दिखे तो शीध्र मृत्यु होगी, ऐसा जानना। इस तरह छाया पुरुष परछाई से आयुष्य काल को जानना चाहिए। यदि जल, दर्पण आदि में अपनी परछाई को नहीं देखे अथवा विकृत देखे तो निश्चय ही यमराज उसके नजदीक में घूम रहा है, ऐसा जानना। इस तरह छाया से भी सम्यग् उपयोगपूर्वक प्रयत्न करने वाला कला कुशल प्रायः मृत्यु काल को जान सकता है ।।३१२२।। .. नाड़ी द्वार :- अब यहाँ से नाड़ी द्वार कहते हैं। नाड़ी के ज्ञाताओं ने तीन प्रकार की नाड़ी कही है, प्रथम ईडा, दूसरी पिंगला और तीसरी सुषुमणा है। प्रथम बाँयी नासिका से बहती है, दूसरी दाहिनी नासिका से चलती है और तीसरी दोनों भाग से चलती है। इन तीनों नाड़ी के निश्चित्त ज्ञानयुक्त श्रेष्ठ योगी मुख को बन्द करके, आँखें स्थिर करके तथा सब अन्य प्रवृत्तियाँ छोड़कर केवल इसी अवस्था में स्थिर लक्ष्य वाले को स्पष्ट जानकारी हो सकती हैं। ईडा और पिंगला क्रमशः ढाई घड़ी तक चलती है और सुषुमणा एक क्षण मात्र चलती है। इस विषय में अन्य आचार्यों ने कहा है कि-छह दीर्घ स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतना स्वस्थ शरीर वाले मनुष्य का एक उच्छ्वास अथवा एक निश्वास जानना, उतने काल को प्राण कहते हैं, ऐसे तीन सौ साठ प्राणों की एक बाह्य घड़ी होती है। उस प्रमाण से ईडा नाड़ी सतत् पाँच घड़ी चलती है और पिंगला उससे छह प्राण कम चलती है, यह छह प्राण तक सुषुमणा चलती है। इस तरह तीनों नाड़ी की दस घड़ी होती है, नाड़ियों का यह प्रवाह प्रसिद्ध है। इसमें बाँयी को चन्द्रनाड़ी और दाहिनी को सूर्यनाड़ी भी कहते हैं। अब इसके अनुसार काल ज्ञान के उपाय कहते हैं। परमर्षि गुरु ने कहा है कि-यदि आयुष्य का विचार करते समय वायु का प्रवेश हो तो जीता रहेगा और वायु निकले तो मृत्यु होगी। जिसको चन्द्रनाड़ी के समय सूर्यनाड़ी अथवा सूर्यनाड़ी के समय चन्द्रनाड़ी अथवा दोनों भी अनियमित चलें, वह छह महीने तक जीता रहेगा। यदि उत्तरायण के दिन से पाँच दिन तक अखण्ड सूर्यनाड़ी चले तो जीवन तीन वर्ष का जानना। दस दिन तक चले तो दो वर्ष जीयेगा और पन्द्रह दिन तक अखण्ड चले तो एक वर्ष का आयुष्य है। और उत्तरायण के दिन से ही जिसकी बीस दिन तक लगातार सूर्यनाड़ी चले वह छह महीने ही जीता रहता है। यदि पच्चीस दिन सूर्यनाड़ी चले तो तीन महीने, छब्बीस दिन चले तो दो महीने, और सत्ताईस दिन चले तो निश्चय ही एक महीने जीता है, और उत्तरायण से अट्ठाईस दिन सूर्यनाड़ी अखण्ड चले तो पन्द्रह दिन जीता है। उन्तीस दिन सूर्यनाड़ी चले तो निश्चय दस दिन जानना, तीस दिन 135 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-काल परिज्ञान द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय चले तो पाँच दिन और इकत्तीस दिन चले तो तीन दिन जीता है, यदि बत्तीस दिन चले तो दो दिन और तैंतीस दिन चले तो एक ही दिन जीता रहेगा। अब अन्य भी प्रसंगानुसार कुछ और भी संक्षेप में कहता हूँ । समग्र एक दिन लगातार सूर्यनाड़ी चलती हो तो मनुष्य को कुछ उत्पात का सूचक है, और दो दिन चलती रहे तो घर गोत्र के भय को अवगत कराता है। यदि सूर्यनाड़ी तीन दिन लगातार चले तो उस गाँव में और गोत्र में भय बतलाने वाला है, और चार दिन सूर्यनाड़ी बहे तो निश्चय स्वस्थ अवस्था वाला भी योगी के प्राण संदेह को कहता है। और यदि पाँच दिन सूर्यनाड़ी सतत् चले तो निश्चय योगी की मृत्यु होती है, और छह दिन तक सदा सूर्यनाड़ी चले तो राजा को कष्टकारी व्याधि होगी, सात अहोरात्री सूर्यनाड़ी चलती है तो निश्चित राजा या घोड़ों का क्षय होगा, और आठ दिन हमेशा चले तो अन्तःपुर में भयजनक कहा है। और नौ दिन नित्य सूर्यनाड़ी चलती हो तो राजा को महाक्लेश होगा । इस तरह दस दिन तक चलती रहे तो राजा के मरण का सूचन है, और ग्यारह दिन बहती रहे तो देश, राष्ट्र के भय को बतलाता है। बारह और तेरह दिन सतत् चलती रहे तो क्रमशः अमात्य और मंत्री के भय को कहता है। चौदह दिन तक सूर्यनाड़ी चले तो सामान्य राजा का नाश करता है, और पन्द्रह दिन तक सूर्यनाड़ी बहती रहे तो सूर्यलोक में महाभय उत्पन्न होगा, ऐसा सूचक है। यह सारा सूर्यनाड़ी के विषय में कहा है। चंद्रनाड़ी यदि इसी तरह चले, तो भी वैसे ही जानना । और जिसको सूर्यनाड़ी चलने के कारण बिना भी निश्चय बाह्य अभ्यंतर पदार्थों में प्रकृति की ऐसी विपरीतता होती है जैसे कि समुद्र में अत्यन्त तूफान आते उससे दिव्य दैवी शब्द सुनाई दे, किसी के आक्रोश के शब्द सुनकर प्रसन्न हो, और मित्र के सुखकर शब्द सुनकर भी हर्ष न हो । नासिका चतुर होने पर भी बुझे हुए दीपक की गंध नहीं जान सके, उष्णता शीतलता की बुद्धि और शीतल में उष्णता का प्रतीत होना । नील कांतिवाली मक्खियों की श्रेणियों से यदि सारा शरीर ढ़क जाए और जिसका मन अकस्मात् डरावना-बेकाबू बन जाए, इत्यादि । सूर्यनाड़ी चलती हो उस समय उसे अन्य भी कोई प्रकृति की विपरीतता हो जाए उसकी अवश्य ही शीघ्र मृत्यु होती है। इसी तरह चंद्रनाड़ी चलते भी यदि प्रकृति की विपरीतता का अनुभव हो तो निश्चित उद्वेग, रोग, शोक, मुख्य मनुष्य अथवा स्वयं को भय होता है और मानहानि आदि भी होती है ।। ३१५२ ।। इस तरह नाड़ीद्वार कहा । ६. निमित्त द्वार : - पृथ्वी विकार आदि आठ प्रकार के श्रेष्ठ निमित्त द्वार को भी सामान्य रूप से कहता हूँ। जिसको चलते, खड़े रहते, बैठते अथवा सोते निमित्त बिना भी उस भूमि में दुर्गंधमय या ज्वालाएँ दिखें अथवा भूमि फटे, चकनाचूर हो अथवा करुण आक्रंद का, रुदन का शब्द सुनाई दे इत्यादि सहसा अन्य भी कोई भूमि विकार दिखे तो छह महीने में मृत्यु होती है। अपनी दृष्टि भ्रम से जो अन्य के केश में धुआँ या अग्नि का तिनका यदि प्रकट हुआ देखे तो देखने वाला शीघ्र मर जाता है। और कुत्ते की हड्डी या मृतक के अवयव को घर में रखे तो भी मरण होता है। और इस ग्रंथ में पूर्व में उद्यत विहार में राजा को भी आराधक रूप बतलाया है, इससे उसके निमित्त को भी कई उत्पातों से कहा है। यदि बाजे बजाये बिना भी शब्द हो, अथवा बजाने पर भी शब्द न हो, पानी में और हरे फलों के गर्भ में अग्नि प्रकट हो अथवा बिना बादल वृष्टि हो तो राजा का मरण होगा, ऐसा जानना । इन्द्र ध्वज, राज्य ध्वज, तोरण द्वार, महल का दरवाजा, स्तंभ या दरवाजे का अवयव आदि यदि सहसा टूटे-गिरे तो वह भी राजा की मृत्यु बतलाता है। यदि सुंदर वृक्षों में अकाल में फल-फूल प्रकट हुए दिखें अथवा वह वृक्ष ज्वाला और धुआँ छोड़े, ऐसा दिखे तो शीघ्र राजा का वध होने वाला है। यदि बादल रहित निर्मल आकाश में रात्री या दिन में इन्द्र धनुष्य को देखे तो लम्बा आयुष्य नहीं है, आकाश में गीत का शब्द सुना जाये तो रोग 136 For Personal & Private Use Only . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय श्री संवेगरंगशाला आयेगा, और बाजे की आवाज सुनाई दे तो निश्चित मृत्यु होगी। यदि पवन की गति और स्पर्श को नहीं जान सकता अथवा विपरीत जाने अथवा दो चन्द्र को देखे तो उसे मृत्यु की तैयारी वाला जानना । गुदा, तालू, जीभ आदि में निमित्त बिना अचानक दुष्ट प्रकट रूप में फुंसी आदि बहुत अधिक दिखाई दें तो शीघ्र मृत्यु आई है, ऐसा जानना। जिसने निमित्त बिना ही जीभ के अंतिम भाग में पहले कभी नहीं देखा ऐसा काला बिन्दु देखे तो वह भी एक महीने के अतिरिक्त नहीं जीयेगा । अथवा कर्मवश के कारण जिसका बड़ा अथवा सुंदर भी, स्वर बिना कारण अचानक बिगडा हुआ हो, किसी तरह निश्चय मूल स्वभाव से अति नीचा, मन्द पड़ गया हो अथवा महाउग्र बन गया हो अथवा जिसका स्वर अति करुणा वाला दीनता या कठोरतायुक्त दीखे, अथवा आवाज पकड़ी जाये, तो वह मनुष्य भी निःसंदेह अन्य शरीर को प्राप्त करता है अर्थात् वह मर जाता है। जो उत्तम पुरुष को कपाल विभाग में अति लम्बी और स्थूल एक, दो, तीन, चार या पाँच रेखाएँ होती हैं वह अनुक्रम से तीस, चालीस, साठ, अस्सी और सौ वर्ष तक सुंदर जीवन जीता है। जिस पुरुष का समग्र शरीर निमित्त बिना सहसा सर्वथा मूल प्रकृति को छोड़कर विकारमय दिखता है, कम्पन होता हो, पसीना आता हो, और थकावट लगे, उपचार करने से भी यदि गुणकारी नहीं हो तो वह भी अकाल में मृत्यु प्राप्त करता है ऐसा जानना । इस तरह मैंने यह निमित्त द्वार को अल्प मात्रा में कहा है। अब सातवाँ ज्योतिष द्वार को कुछ अल्प में कहना चाहता हूँ ।। ३१७१ ।। ७. ज्योतिप द्वार : - इसमें शनैश्वर पुरुष के समान आकृति बनाकर, फिर निमित्त देखते समय जिस नक्षत्र में शनि हो, उसके मुख में वह नक्षत्र स्थापित करना ( लिखना) चाहिए। उसके बाद क्रमशः आनेवाले चार नक्षत्र दाहिने हाथ में स्थापन करना, तीन-तीन दोनों पैरों में, चार बाएँ हाथ में, पाँच हृदय स्थान पर, तीन मस्तक में, दोदो नेत्रों में, और एक गुह्य स्थान में स्थापित करना चाहिए। इस तरह नक्षत्रों की स्थापना द्वारा अति सुंदर शनि पुरुष चक्र को स्थापित करके, उसमें अपना जन्म नक्षत्र अथवा नाम नक्षत्र देखें। यदि निमित्त देखने के समय शनि पुरुष गुह्य स्थान में आया हो और उस पर दुष्ट ग्रह की दृष्टि पड़ती हो अथवा उसके साथ मिलाप हो तथा सौम्य ग्रह की दृष्टि या मिलाप न होता हो तो निरोगी होने पर भी वह मनुष्य मर जाता है। रोगी पुरुष की तो बात ही क्या करनी ? ( यही बात योगशास्त्र प्रकाश पाँच, श्लोक १९७ से २०० में आया है) अथवा प्रश्न लग्न अनुसार बुद्धिमान ज्योतिषी के कहने से स्पष्ट मरणकाल जानना चाहिए। जैसे कि प्रश्न करने के समय जो लग्न चल रहा हो, वहाँ उसी समय यदि क्रूर ग्रह चौथे, सातवें या दसवें में रहे और चन्द्रमा छवें या आठवें राशि में हो तो, रोगी निश्चय मरता है। अथवा लग्न का स्वामी ग्रह अस्त हुआ हो तो भी रोगी अथवा निरोगी हो, तो मर जाता यही बात योगशास्त्र प्रकाश, पाँच श्लोक २०१ में आई है। यदि प्रश्न करते समय लग्नाधिपति मेषादि राशि में गुरु, मंगल और शुक्रादि हो अथवा चालू लग्न का अधिपति अस्त हो गया हो तो निरोगी मनुष्य की भी मृत्यु होती है। तथा प्रश्न करते समय लग्न में चंद्रमा स्थिर हो, बारहवें में शनि हो, नौवें में मंगल हो, आठवें में सूर्य हो और यदि बृहस्पति बलवान न हो तो उसकी मृत्यु होती है। प्रश्न करते समय पर चंद्रमा दसवें में हो और सूर्य तीसरे या छों में हो तो उसी तरह समझना चाहिए, उसकी तीसरे दिन दुःखपूर्वक निःसंदेह मृत्यु होगी। और यदि पापग्रह लग्न के उदय स्थान से चौथे या बारहवें में हो तो उस मनुष्य की तीसरे दिन मृत्यु हो जायगी। प्रश्न करते समय चालू लग्न में अथवा पापग्रह पाँचवे स्थान में हो तो निःसंदेह निरोगी भी पाँच दिन में और योगशास्त्र अनुसार आठ या दस दिन में मृत्यु होती है। तथा अशुभग्रह यदि धनु राशि और मिथुन राशि में तथा सातवें स्थान में रहा हो तो व्याधि अथवा मृत्यु होती है, ऐसा सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा है । ये सारा वर्णन योगशास्त्र प्रकाश पाँच श्लोक For Personal & Private Use Only 137 . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय २०२ से २०७ तक आया है। इस तरह कुछ अल्प ही ज्योतिष द्वार का वर्णन किया है। अब स्वप्न द्वार को भी अल्पमात्र कहते हैं ।।३१८५।।। ८. स्वप्न द्वार :- विकराल नेत्रों वाली बन्दरी यदि स्वप्न में किसी तरह आलिंगन करे तथा दाढ़ी, मूंछ या बाल नख को काटे, ऐसा स्वप्न में देखे तो जल्दी मृत्यु होगी ऐसा जानना। स्वप्न में अपने को यदि तेल, काजल से विलेपन अंग वाला, बिखरे हुए बाल वाला, वस्त्र रहित और गधे या ऊँट पर बैठकर दक्षिण दिशा में जाता देखे तो भी शीघ्र मृत्यु जानना। स्वप्न में रक्त पट वाले तपस्वियों का दर्शन अवश्य मृत्यु के लिए होता है, और लाल वस्त्र युक्त स्वप्न में स्वयं गतिमान करते देखे तो भी निश्चय मृत्यु है। यदि स्वप्न में ऊँट या गधे से युक्त वाहन में स्वयं अकेला चढ़े और उस अवस्था में ही जागे तो मृत्यु नजदीक जानना। यदि स्वप्न में काले वस्त्रवाली और काला विलेपन युक्त अंग वाली नारी आलिंगन करे तो शीघ्र मृत्यु होती है। जो पुरुष जागृत होते हुए भी नित्य दुष्ट स्वप्नों को देखता है वह एक वर्ष में मर जाता है, यह सत्य केवली कथन है। स्वप्न में भूत अथवा मृतक के साथ मदिरा को पीते जिसको सियार के बच्चे खींचें, वह प्रायःकर बुखार से मृत्यु प्राप्त करेगा। स्वप्न में जिसको सूअर, गधा, कुत्ता, ऊँट, भेड़िया, भैंसा आदि दक्षिण दिशा में खींचकर ले जाएँ उसकी शोष के रोग से मृत्यु होगी। स्वप्न में जिसके हृदय में ताल वृक्ष, बांस या काँटेवाली लता उत्पन्न हो, तो वह गुल्म के दोष से नाश प्राप्त करता है। स्वप्न में ज्वाला रहित अग्नि को तर्पण करते. नग्न और सर्व शरीर पर घी की मालिश यक्त जिस पुरुष के हृदय रूपी सरोवर में कमल उत्पन्न हो, उसका कोढ़ रोग से शरीर नष्ट होगा और शीघ्र यम मंदिर में पहुँचेगा। और स्वप्न में लाल वस्त्रों को और लाल पुष्पों को धारण करते, हँसते हुए यदि पुरुष को स्त्रियाँ खींचें, उसकी रक्तपित्त के दोष से मृत्यु होगी। स्वप्न में यदि चण्डालों के साथ तेल, घी आदि स्निग्ध वस्तु का पान करता है, वह प्रमेह दोष से मर जाता है। स्वप्न में चण्डालों के साथ जल में डब जाता है. वह राक्षस दोष से मर जाता है। और स्वप्न में उन्मादी बनकर नाचते जिसे प्रेत ले जाता है, वह अन्तकाल में उन्माद के दोष से प्राणों का त्याग करेगा। स्वप्न में चन्द्र-सूर्य का ग्रहण देखे तो मूत्र कृच्छ रोग से मृत्यु होगी ।।३२०० ।। और स्वप्न में जो सुपारी अथवा तिलपापड़ी का भक्षण करे, वह उसी प्रकार वर्तन करते मरता है और जल, तेल, चरबी, मज्जा आदि का स्वप्न में पान करने से अतिसार के रोग से मरता है। जिसके स्वप्न में बन्दर, गधा, ऊँट, बिलाव, बाघ, भेड़िया, सूअर के साथ तथा प्रेतों या सियारों के साथ गमन होता हो, वह भी जाने कि-मरने की इच्छा वाला जानना। तथा लाल पुष्प वाले, मूंडा हुआ, नग्न यदि पुरुष को स्वप्न में चण्डाल दक्षिण दिशा में ले जाए और स्वप्न में जिसके मस्तक पर बांस की लता आदि उत्पन्न होने का सम्भव हो, पक्षी घोंसला डाले, कौआ, गिद्ध आदि सिर पर चढे. बैठे तथा स्वयं मंडन किया हुआ देखे. जिसको स्वप्न में ही प्रेत. अपने किसी सम्बन्धी को मरा हुआ, पिशाच, स्त्री या चण्डाल का संगम हो तथा बेत की लता, घास के या बांस के जंगल में या पत्थर वाली अटवी में अथवा कांटे वाले जंगल में, खाई में या श्मशान में यदि शयन करे अथवा राख में या धूल में गिरे, पानी या कीचड़ में फँस जाए और शीघ्र वेग वाले जल प्रवाह द्वारा बह जाता है तो मृत्यु अथवा भयंकर बीमारी आती है ।।३२०६।। तथा स्वप्न में लाल पुष्प की माला को धारण करता, विलेपन करता है, वस्त्रभूषा पहनता तथा गीत गाता है, बाजे बजाता है या नृत्य क्रिया करे, स्वप्न में जिसके अंग का नाश अथवा वृद्धि होती है, गात्र का अभ्यंगन हो, तथा मंगल विवाह, हास्यादि क्रिया होती हो, यदि स्वप्न में मिठाई आदि भोजन को खाए, जिससे उल्टी या विरेचन हो, धन आदि या लोहा आदि कोई भी धातु की प्राप्ति हो, स्वप्न में शरीर के सर्व अंगों को लता 138 For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार - मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय श्री संवेगरंगशाला के विस्तार से या वृक्ष की छाल से लपेटे, तथा जो स्वप्न में ही झगड़ा करे तथा जिसका बंधन अथवा पराजय हो, देवमंदिर, नक्षत्र, चक्षु, प्रदीप, दांत आदि गिरे अथवा नाश आदि हो, जूते का नाश हो और हाथ पैर की चमड़ी का पतन हो, स्वप्न में अति क्रोधित हुआ चचेरे लोगों से जिसका तिरस्कार हो अथवा सहसा अति हर्ष होता हो अथवा जिसका विश्वास भंग हो, तथा स्वप्न में ही रसोई घर में, माता के पास, चिता में, लाल पुष्पों के वन में, अति तंग अंधकार में जिसका प्रवेश होता है, स्वप्न में भगवा रंग वाला वस्त्र पहनकर लाल आँख वाला त्रिदण्डधारी या नग्न, काले मनुष्य के मुख का, क्षुद्र मनुष्य का दर्शन हो तथा जो स्वप्न में ही रात्री भोजन करता है तथा मंदिर या पर्वत से गिरता हो, जिस पुरुष को मगरमच्छ निगल जाए, अति काली छाया और वस्त्रों वाली, अति पीली आँखों वाली, वस्त्ररहित, विकृत आकार वाली, क्षीण उदर वाली, अति बड़े नख और रोमांचित वाली तथा हँसती स्त्री को यदि स्वप्न में आलिंगन करते देखे, और अतीव नीच लोग बुलाए और उनके पास जाए अथवा जो हाथी से जुड़ा वाहन द्वारा प्रेत- मृतक भी अथवा मुंडित किसी साधु के साथ खेजड़ा वृक्ष या नीम के वृक्षों से विषम मार्ग वाले जंगल में प्रवेश करें तो वह स्वस्थ भी निश्चय मृत्यु प्राप्त करता है और रोगी तो अवश्य मर जाता है। वह इस प्रकार से ऊपर कहे अनुसार अति भयंकर स्वप्नों को देखकर रोगी अवश्य मरता है और स्वस्थ मृत्यु संदेह को प्राप्त कर जीता रहता है। स्वप्न सात प्रकार का होता है - (१) देखा हुआ, (२) सुना हुआ, (३) अनुभव किया हुआ, (४) वात पित्त आदि दोष के कारण से, (५) कल्पित भाव का, (६) इच्छित भावों, और (७) कर्म उदय के कारण से आता है। इसमें प्रथम पाँच प्रकार के स्वप्न निष्फल कहे हैं और अंतिम दो प्रकार के जो स्वप्न शुभाशुभ का फल सूचक जानना । उसमें जो स्वप्न अति लम्बा अथवा अति छोटा हो यदि देखते ही नाश हो जाए और जो कभी अति प्रथम रात्री देखा हो वह स्वप्न लम्बे समय में अथवा तुच्छ फल को देनेवाला होता है और जो अति प्रभात में देखा हो वह उसी दिन अथवा महान् फल को देने वाला होता है। और अन्य ऐसा कहते हैं कि रात्री के प्रथम प्रहर में देखा हुआ स्वप्न एक वर्ष में, दूसरे प्रहर में देखा हुआ तीन महीने में, तीसरे प्रहर में देखा हुआ दो महीने में, चौथे प्रहर में देखा हुआ एक महीने में, और प्रभात काल में देखा हुआ स्वप्न दस अथवा सात दिन में फल देता है। यदि प्रथम अनिष्ट स्वप्न को देखकर बाद में इष्ट को देखे तो उसका शुभ फल ही होता है और इसी तरह शुभ स्वप्न देखकर फिर अशुभ स्वप्न देखे तो अनिष्ट फल होता है। तथा श्री जिनप्रतिमा के पूजन से श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार महामंत्र का स्मरण करने से तथा तप, संयम, दान, नियम आदि धर्म अनुष्ठान करने से पाप स्वप्न भी मंद फलवाला हो जाता है। इस तरह से स्वप्न द्वार को कहा है ।। ३२२८ ।। ९. रिप्ट द्वार : अब रिष्ट अर्थात् अमंगल द्वार को कहते हैं, क्योंकि अमंगल के बिना मृत्यु नहीं होती है और अमंगल देखने के पश्चात् जीवन टिकता नहीं है। इसलिए आराधक वर्ग को सद्गुरु के उपदेशानुसार सर्व प्रयत्न से अमंगल को हमेशा अच्छी तरह देखना चाहिए । निमित्त बिना भी तर्क रहित भी पुरुष को जो प्रकृति के विकार का सहसा अनुभव होता है उसे यहाँ पर रिष्ट कहा है। अचानक जिसका पैर कीचड़ या रेती आदि में अथवा आगे-पीछे अपूर्ण दिखाई दे, वह आठ महीने भी जीता नहीं रह सकता है। घी के पात्र में प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य बिम्ब देखते बीमार को यदि वह पूर्व दिशा खण्डित देखे तो छह महीने, दक्षिण दिशा खण्डित दिखे तो तीन महीने, पश्चिम दिशा खण्डित दिखे तो दो महीने और उत्तर दिशा खण्डित दिखे तो एक महीने जीवित रहता है। इससे अधिक जीता नहीं रहेगा। और वह सूर्यबिम्ब रेखावाला देखे, पन्द्रह दिन, छिद्रवाला देखे तो दस दिन और धूम्र सहित देखे तो पाँच दिन तक जीता रहेगा, इससे अधिक नहीं जीयेगा । वायु रहित भी जिसके घर में दीपक For Personal & Private Use Only 139 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय के समग्र अंग तेल, बत्ती आदि श्रेष्ठ हो और बार-बार दीपक को प्रकट करने पर भी यदि सहसा बुझ जाए तथा जिस बीमार के घर में निमित्त बिना ही बरतन अति प्रमाण में बार-बार नीचे गिरे और टूट-फूट जाये तो वह भी शीघ्र मर जाता है। जिसको अपने कान आदि पाँच इन्द्रियों द्वारा भी शब्द, रस, रूप, गंध और स्पर्श का ज्ञान न हो अथवा विपरीत ज्ञान हो तथा वह बीमार आए हुए श्रेष्ठ वैद्य का और उसके दिये हुए औषध का अभिनंदन नहीं करें तो वह भी निश्चय अन्य शरीर में जाने में तत्पर बना है ऐसा जानना। जो चन्द्र और सूर्य के बिम्ब को काजल के समूह रूप काला श्याम देखे तो बारह दिन में यम के मुख में जाता है। आहार पानी परिमित मात्रा में लेने पर भी जिसको अति अधिक मल-मूत्र हो अथवा इससे विपरीत-अधिक आहार पानी लेने पर भी मलमूत्र अल्प हो तो उसकी मृत्यु नजदीक में जानना। जो पुरुष सद्गुणी भी परिजन, स्वजनादि परिवार में पूर्व में अच्छा विनीत था फिर भी सहसा विपरीत वर्तन करे, उसे भी अल्प आयु वाला जानना। और जिस दिन आकाश तल को नहीं देखे, परंतु दिन में तारें देखे, देवताओं के विमान देखें, उसे भी यम का घर नजदीक जानना। जो सूर्य चंद्र के बिम्ब में अथवा ताराओं में एक-दो या अनेक छिद्र देखे उसका आयुष्य एक वर्ष जानना। दोनों हाथ के अंगूठे से कान के छिद्रों को ढकने के बाद भी यदि अपने कान के अंदर में आवाज को नहीं सुने तो वह सात दिन में मरता है। दाहिने हाथ से मजबूत दबाकर दबाकर बायें हाथ की उंगलियों के पर्व जिसे लाल नहीं दिखे उसकी भी मृत्यु शीघ्र जानना। मुख, शरीर या चोट स्थान आदि में जिसको बिना कारण अति इष्ट या अति अनिष्ट गंध उत्पन्न हो तो वह भी शीघ्र मरता है। जिसका गरमी वाला शरीर भी अचानक कमल के फूल समान शीतल हो, उसे भी यमराज की राजधानी के मार्ग का मुसाफिर जानना। जहाँ पसीना आता हो ऐसे ताप वाले घर में रहकर हमेशा अपने ललाट को देखे, उसमें यदि पसीना नहीं आता तो जानना कि मृत्यु नजदीक आ गयी है। जिसकी सूखी विष्टा तथा थूक शीघ्र पानी में डूब जाये तो वह पुरुष एक महीने में यम के पास पहुँच जाता है। हे कुशल! निरंतर जिसके शरीर में जूं दिखे या उत्पन्न हो अथवा मक्खी शरीर पर बैठे या पीछे घूमे उसे शीघ्रमेव काल भक्षण करने वाला है। जो मनुष्य सर्वथा बादल बिना भी आकाश में बिजली अथवा इन्द्र धनुष्य को देखता है या गर्जना के शब्द सुनता है वह शीघ्र यम के घर जाता है। कौआँ, उल्लू या कांक पक्षी (जिसके पंख की बाण की पुंख बनती हैं वह) इत्यादि माँसभक्षी पक्षी सहसा जिसके मस्तक के ऊपर आकर बैठे तो वह थोड़े दिनों में यम के घर जायगा। सूर्य, चंद्र और ताराओं के समूह को जो निस्तेज देखता है वह एक वर्ष तक जीता है और जो सर्वथा नहीं देखता, वह जीये तो भी छह महीने तक ही जीता है। तथा जो सूर्य या चंद्र के बिम्ब को अकस्मात् नीचे गिरते देखे तो उसका आयुष्य निःसंशय बारह दिन का जानना। और जो दो सूर्य को देखें तो वह तीन महीने में मर जायगा। और सूर्य बिम्ब को आकाश में चूमते हए देखे तो उसका शीघ्र विनाश होगा अथवा सर्य को और स्वयं को जो एक साथ देखे उसका आयष्य चार दिन. और जो चारों दिशा में सूर्य के बिम्बों को एक साथ देखे उसका आयुष्य चार घड़ी का जानना। अथवा अकस्मात् सूर्य के समग्र बिम्ब को जो छिद्रों वाला देखता है वह निश्चित दस दिन में स्वर्ग के मार्ग में चला जाता है। सर्व पदार्थों के समूह को जो पीला देखता है वह तीन दिन जीता है, और जिसकी विष्टा काली और खण्डित होती है वह शीघ्र मरता है। जिसने नेत्र का लक्ष्य ऊँचा रखा हो वह अपनी दो भृकुटियों को नहीं देखे तो वह नौ दिन में मरता है। ललाट पर हाथ स्थापित कर देखे तो यदि कलाई मूल स्वरूप में देखे, अति कृशतर-पतला नहीं देखे वह भी शीघ्र मरण-शरण स्वीकार करेगा। अंगुली के अंतिम विभाग से नेत्रों के अंतिम विभाग को दबाकर देखे यदि अपनी आँखों के अंदर ज्योति को नहीं देखे वह अवश्य तीन दिन में यम के मुख में जायगा। यदि अपने 140 For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय श्री संवेगरंगशाला हाथ की अंगुली से ढांकने पर बाँयी आँख के नीचे प्रकाश दिखाई न दे तो छह महीने में मृत्यु होती है, भृकुटि के विभाग में प्रकाश नहीं दिखे तो तीन महीने में, आँख और कान की ओर प्रकाश नहीं दिखाई दे तो दो महीने में और नाक की ओर प्रकाश दिखाई न दे तो एक महीने में मृत्यु होती है। और इसी क्रमानुसार ऊपर, नीचे, कान, नाक की ओर प्रकाश नहीं दिखे तो उसका आयुष्य क्रमशः दस, पाँच, तीन और दो दिन का जानना। (यह दोनों बातें योगशास्त्र प्रकाश ५ श्लोक १२२ और १२३ में आई हैं) और अन्य लक्ष्य को छोड़कर नेत्रों के ऊपर के पोपचे को नीचे डबड़बाकर अति मन्द, नीचे स्थिर पुतली वाले दोनों नेत्रों को नासिका के अंतिम स्थान पर जैसे स्थिर हो इस तरह निश्चल रखकर जो अपनी नासिका देखते हुए भी नहीं दिखे तो वह पाँच दिन में मर जायगा। इस तरह जो अपनी मुख में से निकली हुई जीभ के अंतिम भाग नहीं देख सकता वह भी एक अहोरात्री रहता है।।३२६६।। अब दस श्लोक से काल चक्र की विधि को कहते हैं। अपनी अवस्था के अनुसार द्रव्य और भाव से परम पवित्र बनकर भी अरिहंत परमात्मा की उत्कृष्ट विधि से श्रेष्ठ पूजा करके, दाहिने हाथ की शुक्ल पक्ष के रूप में कल्पना करके उसकी कनिष्ठा अंगुली के नीचे के पौर में प्रतिपदा, मध्यम पौर में षष्ठी तिथि और ऊपर के पौर में एकादशी तिथि की कल्पना करे, फिर प्रदक्षिणाक्रम से शेष अंगुलियों के पौर में शेष तिथियाँ कल्पना करें, अर्थात् अनामिका अंगुली के तीनों पौरों में दूज, तीज और चौथ की मध्यमा के तीनों पौरों में सप्तमी, अष्टमी और नवमी की तथा तर्जनी के तीनों पौरों में द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी की कल्पना करनी, और अंगूठे के तीनों पौरों में पंचमी, दशमी और पूर्णिमा की कल्पना करनी चाहिए। इसी तरह बाएँ हाथ में कृष्ण पक्ष की कल्पना कर दाहिने हाथ के समान अंगुलियों के पौरों में तिथियों की कल्पना करे, उसके बाद महासात्त्विक बुद्धिशाली आत्मा एकान्त प्रदेश में जाकर पद्मासन लगा करके दोनों हाथों को कमलकोश के आकार में जोड़ करके प्रसन्न और स्थिर मन, वचन, काया वाला उज्ज्वल वस्त्र से अपने अंग को ढांककर उसमें ही एक स्थिर लक्ष्य वाला उस हस्तकमल में काले वर्ण के एक बिन्दु का चिंतन करे, उसके बाद हस्तकमल खोलने पर जिस-जिस अंगुली के अंदर कल्पित सुदि, वदि तिथि में काला बिन्दु दिखाई दे उसी तिथि के दिन निःसंदेह मृत्यु होगी, ऐसा समझ लेना चाहिए। ऐसा ही वर्णन योगशास्त्र प्रकाश ५ श्लोक १२९ से १३४ तक में आया है।] श्री गुरु वचन बिना निश्चय सकल शास्त्र के जानकार होने पर भी, लाखों जन्म में भी किसी तरह अपनी मृत्यु को नहीं जान सकता है। अर्थात् इस विषय में गुरुगम से जानना आवश्यक है। इस तरह दस गाथा से यह काल ज्ञान को बतलाया है। इसका ध्यान प्रतिपदा के दिन करे कि जिससे मृत्यु ज्ञान हो सके। जिसके ललाट, हृदय में अथवा मस्तक में आकृति से दूज के चंद्र समान अपूर्व नसें का उभार हो अथवा रेखा हो, या जिसके मस्तक में उपला के चूर्ण समान दिखे, अथवा गाढ़ काला श्याम दिखे उसका जीवन एक महीने में विनाश हो जायगा। दाँत भी उसके सहसा अत्यन्त नये उत्पन्न हों या कडकडाहट वाले बनें. रुखे अथवा श्याम बन जायें तो उसे भी यम के पास जाने वाला समझना। दाँत के किसी रोग के बिना भी अचानक जिसके दाँत गिरें या टूटें वह शीघ्र अन्य जन्म लेने वाला है। जिसकी जीभ भी श्याम, सफेद, सूज गई हो, माप से अधिक अथवा कम हो जाए या स्थिर हो जाए वह निश्चित मरण का शरण स्वीकार करने वाला है। किसी कारण बिना भी जिसके आँखों में से हमेशा पानी बहे और जीभ में शोष (रोग) हो तो वह अवश्य क्रम से दस और सात दिन में मरता है। गला बंद हो जाये, तो एक प्रहर में और तालु का क्षोभ होते ही एक सौ श्वासों श्वास में वज्र के - 141 For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय अखण्ड पिंजरे में भी पुरुष को यम ले जाता है। आकर्षण या मरोड़े बिना ही जिसकी अंगुलियाँ सहसा फट जाएँ वह मनुष्य भी अवश्य शीघ्र शरीर को बदलेगा। यदि निमित्त बिना ही मुख अथवा वाचना थक जाये, बोलते बंद हो अथवा निमित्त बिना दृष्टि का नाश, अन्धा हो जाए वह यत्नपूर्वक जीये तो भी तीन दिन से अधिक नहीं जीयेगा। शरीर से स्वस्थ भी जो अपने बाएँ कन्धे का शिखर नहीं देखे, उसे भी अल्पकाल में काल का कोर बनने वाला जानना। जिसके हाथ, पैर को सख्त दबाने पर अथवा खींचने पर भी आवाज नहीं हो, जिसकी रात्री दिग्मोह हो और वीर्य-धातु अति प्रमाण में नष्ट हो और छींक, खाँसी और मूत्र की क्रिया के समय कारण बिना ही जिसे अपूर्व-कभी सुना भी नहीं हो, ऐसी आवाज हो, वह भी यम राजा की खुराक बनता है। स्नान करने पर भी कमलिनी के पत्तों के समान जिसके अंग को पानी स्पर्श न करे, शरीर गीला नहीं हो वह ६ महीने के अन्त में यम का संग करेगा। जिसके स्नान के बाद या विलेपन करते दूसरे अंग गीले होते हुए भी सीना पहले सूख जाये वह अर्धमास-पन्द्रह दिन नहीं जीयेगा। जिसके बाल सूखे फिर भी तेल बिना ही सहसा तेल से व्याप्त हो जाय जैसे अति स्निग्ध हो जाएँ और कंघी किये बिना भी अलग-अलग विभाग वाला बनना, दोनों भृकुटियों सिकुड़े बिना भी सिकौड़ी हुई दिखे अथवा कम्पायमान होती पांपण नेत्रों के अंदर प्रवेश करती हो अथवा बाहर निकलती दिखे अथवा उल्लू, कबूतर की आँखों के समान दोनों आँखें निमेष रहित स्थिर हों तथा जिसकी अभ्रान्त-निर्मल दृष्टि नष्ट हो वह भी शीघ्र मरता है। जिसकी नासिका सहसा टेढ़ी हो जाये, फुसी से युक्त या अत्यन्त फूटी हो या सिकुड़ गयी हो, छिद्र वाली हो गयी हो वह भी अन्य जन्म में जाने को चाहता है। छह महीने में मरने वाले की शक्ति. सदाचार, वायु की गति. स्मृति, बल, और बुद्धि, इन छह वस्तु निमित्त बिना ही परिवर्तन हो जाती है। जिसके शरीर की चोट में से दुर्गंध निकले, रुधिर अति काला निकले, जीभ के मूल में जिसको पीड़ा हो अथवा हथेली में असह्य वेदना हो, जिसकी चमड़ी, केश स्वयं टूटे, जिसके काटे हुए रोम पुनः बढ़े नहीं, जिसके हृदय में अतीव उष्णता रहे, और पेट में अति शीतलता रहे, बाल को खींचने पर भी जिसको वेदना न हो उस मनुष्य को छह दिन में यमपुरी जानेवाला समझना। इस तरह रिष्ट द्वार कहा। अब विशिष्ट धारणा-शक्ति वाला होता है, इस कारण से कुछ अल्पमात्र यन्त्र प्रयोग को कहता हूँ। १०. यन्त्र द्वार :- अन्य व्याक्षेपों से रहित यंत्र प्रयोग में एकाग्र चित्त वाला औपचारिक विधि करके प्रथम षट्कोण यंत्र के मध्य में 'ॐकार' सहित अधिगत मनुष्य को अपना नाम लिखना चाहिए ।।३३००।। फिर यंत्र के चारों कोणों में मानो अग्नि की सैंकड़ों ज्वालाओं से युक्त अग्नि मण्डल अर्थात् 'रकार' का स्थापन करना चाहिए, उसके बाद छहों कोणों के बाहरी भाग में छह स्वस्तिक लिखना चाहिए। फिर अनुस्वार सहित 'अकार' आदिअं, आं, इं, ई, उं, ऊँ, छह स्वरों से कोणों के बाह्य भागों को घेर लेना चाहिए। स्वस्तिक और स्वर के बीचबीच में छह 'स्वा' अक्षर लिखे फिर चारों और विसर्ग सहित 'यकार' की स्थापना करना और उस यकार के चारों तरफ 'पायु' के पूर से आवृत्त संलग्न चार रेखाएँ खींचना। इस तरह बुद्धि में कल्पना कर या यंत्र बनाकर पैर, हृदय, मस्तक और संधियों में स्थापन करना, फिर स्व, पर आयुष्य निर्णय करने के लिए, सूर्योदय के समय सूर्य की ओर पीठ करके और पश्चिम में मुख करके बैठना अपनी परछाई को अति निपुण रूप में अवलोकन करना चाहिए। यदि पूर्ण छाया दिखाई दे तो एक वर्ष तक मृत्यु का भय नहीं है, यदि कान दिखाई न दे तो बारह वर्ष तक जीता रहेगा, हाथ न दिखने से दस वर्ष में, यदि अंगुलियाँ न दिखे तो आठ वर्ष, कन्धा न दिखे तो सात वर्ष में, केश न दिखे तो पाँच वर्ष में, पार्श्व भाग न दिखे तो तीन वर्ष में, और नाक नहीं दिखे तो एक वर्ष में, मस्तक नहीं दिखें तो छह महीने में, यदि गर्दन नहीं दिखें तो एक महीने में, दाढ़ी नहीं दिखे तो छह महीने में, यदि आँखे 142 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार- अणसण प्रतिपति द्वार श्री संवेगरंगशाला न दिखे तो ग्यारह दिन और यदि हृदय में छिद्र दिखाई दे तो सात दिन में मृत्यु होगी और यदि दो छायाएँ दिखाई तो समझ लेना कि अब मृत्यु बहुत ही निकट है। (यही वर्णन योगशास्त्र प्रकाश. ५ श्लोक २०८ से २१५ तक आया है ।) स्नान करने के बाद यदि मनुष्य के कान आदि अंग शीघ्र सूख जाएँ तो पूर्व कहे यंत्र प्रयोग की विधि अनुसार उतने वर्ष, महीने और दिनों में अवश्य मरता है। इस प्रकार आयुष्य को जानने के लिए उपायभूत यंत्र प्रयोग द्वार कहा है अब ग्यारहवाँ अंतिम विद्या द्वार कहते हैं । । ३३११ ।। ११. विद्या द्वार :- अब विद्यामंत्र से भी काल ज्ञान हो सकता है, इससे कुतूहल वाले आराधक अथवा अन्य पुरुष इसी तरह स्व और पर के मृत्युकाल को सम्यग् जान सकता है। उस प्रकार से कहते हैं-अति पवित्र बना हुआ और एकाग्र चित्तवाला पुरुष चोटी में 'स्वा' मस्तक में 'ॐ' दोनों आँखों में 'क्षि' हृदय में 'प' और नाभि में 'हा' अक्षरों का स्थापन करके, फिर ॐ जुसः, ॐ मृत्युं जयाय, ॐ वज्रपाणिने, शूलपाणिने, हर हर, दह दह स्वरूपं दर्शय दर्शय हूँ फट् फट् ।। इस विद्या से १०८ बार अपने दोनों नेत्रों को मंत्रित कर फिर अरुणोदय के समय अपनी छाया को उसी तरह मंत्रित करके सूर्योदय के समय सूर्य को पीठ करके पश्चिम 'मुख रखकर निश्चल शरीरवाला अपने और दूसरे के लिए अपनी और दूसरे की छाया को सम्यग् रूप से मंत्रित कर परम उपयोगपूर्वक उस छाया को देखना चाहिए। यदि वह छाया संपूर्ण रूप में दिखाई दे तो एक वर्ष तक मृत्यु नहीं होगी । छाया में पैर, जंघा और घुटना दिखाई न देने पर क्रमशः तीन, दो और एक वर्ष में मृत्यु होगी । अरु (पिण्डली) न दिखाई दे तो दस महीने में, कम दिखाई न दे तो आठ-नौ महीने में, और पेट दिखाई न दे तो पाँच-छह महीने में मृत्यु होती है। यदि गर्दन दिखाई न दे तो चार, तीन, अथवा एक महीने में मृत्यु होती है। यदि बगल दिखाई न दे तो पन्द्रह दिन में और भुजा दिखाई न दे तो दस दिन में मृत्यु होती है। यदि कंधा दिखाई न दे तो आठ दिन में, हृदय में छिद्र दिखाई न दे तो चार मास में, योगशास्त्र में यदि हृदय दिखाई न दे तो चार प्रहर का काल बतलाया है और मस्तक दिखाई न दे तो दो प्रहर में ही मृत्यु होगी तथा किसी कारण से उस पुरुष को छाया यदि सर्वथा दिखाई न दे तत्काल ही मृत्यु होती है। (इसी प्रकार का वर्णन योगशास्त्र में प्रकाश ५ श्लोक २१७ से २२३ में आया है। यद्यपि आयुष्य को जानने के लिए इसके अतिरिक्त अनेक उपाय शास्त्रों में कहे हैं फिर भी यहाँ वह अल्पमात्र कहा है। योगशास्त्र पाँचवें प्रकाश में कई मतान्तर बतलाएँ हैं ।) इस तरह मूल परिकर्म द्वार का नौवाँ परिणाम अंतर द्वार में भी सातवाँ आयुष्य ज्ञान द्वार नाम का अंतर द्वार सुंदर रूप से कहा है। अब 'अनशन सहित संस्तारक दीक्षा का स्वीकार' इस नाम के आठवें द्वार को मैं कहता हूँ । । ३३२३ ।। ८. अणसण प्रतिपत्ति नामक आठवाँ द्वार : पूर्व में कहीं हुई विधि से मृत्युकाल नजदीक जानकर अंतिम आराधना की विधि को जानकर संपूर्ण आराधना की इच्छा वाला जन्म-मरण, जरा से भयंकर दीर्घ संसारवास से भयभीत बना, श्री जिनवचन के श्रवण करने से प्रकट हुआ तीव्र संवेग श्रद्धा वाला और अप्रमादादि गुणरूप समृद्धिवाले उत्तम श्रावक के चित्त में निश्चि स्वभाव से ही नित्य ऐसी भावना होती है। अरे रे ! मुझे परम अमृत सदृश जिनवचन की श्रद्धा होने पर भी अभी भी पापों का घररूप इस गृहवास में रहना किस तरह योग्य है? अर्थात् सर्वथा अयोग्य है। इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और परमार्थ से वैरी भी पत्नी आदि परिवार में गाढ़ रागवाला अनार्य ऐसे मुझे धिक्कार हो ! उन साधुओं को धन्य है कि जो मोहरूपी योद्धा को जीतनेवाले हैं। जितेन्द्रिय, सौम्य, राग-द्वेष से विमुक्त, संसाररूपी वृक्ष का 143 For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार - अणसण प्रतिपति द्वार नाश करने में तीक्ष्ण शस्त्र समान है। वे आश्रव को रोककर तपरूप धन बढ़ानेवाले हैं। क्रिया में अत्यंत आदर वाले शाश्वत सुखरूप मोक्ष के लिए सतत् सम्यग् उद्यम को करते हैं, इसलिए मेरा वह दिन कब आयेगा? कि जब मैं गीतार्थ गुरु के पास चारित्र को स्वीकार कर मोक्षार्थ उद्यम करूँगा । मोक्षार्थ को साधन करने हेतु अन्य सर्व सामग्री प्राप्त होने पर भी सर्व विरति बिना शाश्वत सुख वाला मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? इसलिए अब जब तक मेरे आयुष्य मास वर्ष आदि विद्यमान हैं, तब तक सर्व राग का त्यागकर मोक्ष मार्ग का अनुसरण करूँ। अथवा लम्बा आयुष्य दूर रहे ! निश्चय समभाव में प्रवृत्ति करते मुझे एक मुहूर्त भी यदि प्रव्रज्या के परिणाम हो जाए अर्थात् सर्वविरित गुण स्पर्श हो जाए तो क्या प्राप्त न हो? ऐसे परिणाम से युक्त बना भावपूर्वक बढ़ते तीव्र संवेगवाला श्री गुरुदेव के पास जाकर शुद्ध भाव से कहता है कि - हे भगवंत ! करुणारूपी अमृत के झरने से श्रेष्ठ आपने मुझे जो कहा था कि- 'आलोचनादि पूर्वक दीक्षा आदि स्वीकार कर ।' और मैंने भी 'इच्छामि' ऐसा कहकर जो स्वीकार किया था। अतः अब मैं जितना आयुष्य शेष है, तब तक वैसा करना चाहता हूँ। हे पूज्यपुरुष! रूपी अति प्रशस्त नाव में बैठकर परम तारक आपश्री की सहायता से संसार समुद्र को तरना चाहता हूँ। प्रव्रज्या उसके बाद अत्यंत भक्ति भाव से नमे हुए मस्तक वाले उसे गुरु महाराज भी विधिपूर्वक निरवद्य प्रव्रज्या (दीक्षा) दे। और यदि वह देशविरति और सम्यक्त्व का रागी तथा जैन धर्म में रागी हो, तो उसे अति विशुद्ध अणुव्रतों को उच्चारणपूर्वक दे। फिर बाह्य इच्छा रहित उदार मनवाला और हर्ष से विकसित रोमांचित शरीर वाला, वह भक्तिपूर्वक गुरु महाराज का और साधर्मिकादि संघ की पूजा करें और अपने धन को नये श्री जिनमंदिर, श्री जिनबिंब, और उसकी उत्तम प्रतिष्ठा में, तथा प्रशस्त ज्ञान की पुस्तकों में, उत्तम तीर्थों में, तथा श्री तीर्थंकर देव की पूजा में खर्च करें । परंतु किसी तरह वह सर्वविरति में युक्त अनुराग वाला हो, विशुद्ध बुद्धि और काया वाला, स्वजनों के राग से मुक्त और विषय रूपी विष से यदि विरागी हो, तो सर्व पाप को त्याग करने में उत्साही संयमरूपी श्रेष्ठ राज्य के रसवाला वह महात्मा संस्तारक दीक्षा को भी स्वीकार करें। उसमें यदि अणुव्रतधारी और केवल संथारारूप श्रमण दीक्षा को प्राप्त करता हो, वह संलेखनापूर्वक अंतःकाल में अनशन अर्थात् चारों आहार का त्याग करें। इस तरह गृहस्थ का अनशनपूर्वक संस्तारक दीक्षा की प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार कहा है, ऐसा कहने से गृहस्थ के परिणाम को कहा ।। ३३४६।। अब समग्र गुणमणि के निधान स्वरूप श्री मुनियों के विषय में परिणाम कहते हैं, वह परिणाम इस तरह चिंतन द्वारा शुभ होते हैं। मध्यरात्री में धर्म जागरण करते हुए चढ़ते परिणाम वाला मुनि विचार करें कि - अहो ! यह संसार समुद्र रोग और जरा रूपी मगरों से भरा हुआ है। हमेशा होनेवाले जन्म मृत्यु रूपी पानी वाला, द्रव्य क्षेत्र आदि की चार प्रकार की आपत्तियों से भरा हुआ, अनादि सतत् उत्पन्न होते विकल्परूपी तरंगों द्वारा हमेशा जीवों का नाश करता रौद्र और तीक्ष्ण दुःखों का कारण है। उसमें अति दुर्लभ मनुष्य जन्म को महा मुश्किल से प्राप्त करके भी जीव अति दुर्लभ श्री जिन कथित धर्म सामग्री को प्राप्त कर सकता है। उसे प्राप्त करके भी अविरतिरूपी पिशाचनी के बंधन में पड़े हुए जीवों को असामान्य गुणों से श्रेष्ठ साधुत्व प्राप्त करना तो परम दुर्लभ ही है। कई दुर्लभ भी साधु जीवन को प्राप्त करके थके हुए और सुखशील कीचड़ में फँसने से बड़े हाथी के समान दुःखी होते हैं। जैसे कांकिणी (एक रुपये का अस्सीवाँ भाग) के लिए कोई महामूल्य करोड़ों रत्नों को गँवा देता है, वैसे संसार के सुख गाढ़ आसक्त जीव मुक्ति के सुख को हार जाता है। अरे! यह शरीर, जीवन, यौवन, लक्ष्मी, प्रिय संयोग, और उसका सुख भी अनित्य परिणाम वाला, असार और नाश वाला है, इसलिए अति दुर्लभ मनुष्य जीवन और श्री जिन 144 For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म द्वार-त्याग नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला वचन आदि सामग्री को प्राप्त कर पुरुष को शाश्वत सुख में एक रसवाला बनना चाहिए। भव्य जीवों को आज जो संसार का सुख है, वह कल स्वप्न समान केवल स्मरण करने योग्य बन जाता है। इस कारण से पंडितजन उपसर्ग बिना के मोक्ष के शाश्वत सुख की इच्छा करते हैं। चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख को भी ज्ञानियों ने तत्त्व से दुःख स्वरूप कहा है, क्योंकि-वह परिणाम से भयंकर और अशाश्वत है। अतः मुझे उस सुख से क्या प्रयोजन है? शाश्वत सुख की प्राप्ति यह अवश्य श्री जिन आज्ञा के आराधना का फल है। अतः श्री जिन वचन से विशुद्ध बुद्धिपूर्वक उस आज्ञा पालन में उद्यम करूँ। इतने समय में तो सामान्यता से श्रमण जीवन पालन किया, अब वर्तमान काल में कुछ विशिष्ट क्रिया की साधना करूँ! क्योंकि-पश्चात्ताप से पीड़ित, धर्म की प्राप्ति वाला, दोषों को दूर करने की इच्छा वाला पासत्था आदि दुःशील भी उस विशिष्ट आराधना के लिए योग्य है। मेरे लिए तो वह करणीय है ही। और शरीर बल हमेशा क्षीण हो रहा है, पुरुषार्थ और वाणी शक्ति भी नित्य विनाश हो रही है तथा वीर्य-सामर्थ्य भी हमेशा नाश हो रहा है, कान की शक्ति सदैव कम हो रही है, नेत्र का तेज सदा खत्म हो रहा है, बुद्धि नित्य घट रही है और आयुष्य भी हमेशा खत्म हो रहा है। अतः जब तक बल विद्यमान है, वीर्य विद्यमान है, पुरुषाकार विद्यमान है और पराक्रम विद्यमान है, जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती और जब तक द्रव्य, क्षेत्रादि सामग्री अनुकूल है, तब तक जिनकल्प आदि कुछ भी उग्र मुनिचर्या का आचरण करूँ, अथवा विशिष्ट संघयण के विषय वाली यह चर्या हमारे योग्य नहीं है, इसलिए वर्तमान काल के साधुओं के संघयण के अनुरूप विशिष्ट कर्तव्य का मैं विधिपूर्वक स्वीकार करूँ, क्योंकि-दुर्लभ मनुष्य जन्म का फल यही है। इस तरह केवल सामान्य मुनि के समान ही नहीं, परंतु मुनियों में वृषभ मुनि भी अपनी अवस्था के अनुरूप धर्म जागरण का मनोरथ पूर्ण करते हैं, जैसे कि-मैंने अति दीर्घ दीक्षा पर्याय पालन किया, वाचना भी दी, शिष्यों को तैयार किया, ज्ञान क्रियाशील बनायें और उनके उचित मेरा कर्तव्य का पालन भी किया। इस तरह मेरी भूमिका के उचित जो भी कार्य था, वह क्रमानुसार किया है अब मुझे कुछ भी उसे विशेषतया करना चाहिए। अत्यन्त दुष्ट पराक्रमवाला, प्रमादरूप शत्रु सैन्य की पराधीनता से पूज्यों के प्रति मेरे करने योग्य कार्य नहीं किया और नहीं करने योग्य कार्य को किया। इन सबको छोड़कर अब दीर्घकाल तक चरण-करण गुणों को पालने वाले और दीर्घकाल श्री जिनेन्द्र धर्म की प्ररूपणा करने वाले मुझे अब विशेषतया आत्महित को करना है, वही कल्याणकारी है। किन्तु श्रीजिन आगम के रहस्यों के जानकार और प्रशमादि गुण समूह से अलंकृत शिष्य को मेरे सूरिपद पर स्थापन कर और साधु-साध्वी समुदाय को सम्यग् उसकी निश्रा में स्थापितकर, सामर्थ्य और आयुष्य विद्यमान रहते हुए आत्मा के बल और वीर्य को छुपाये बिना मैं यथालन्द चारित्र को, परिहार विशुद्धि चारित्र को अथवा जिनकल्प को स्वीकार करूँगा, अथवा तो पादपोपगमन, इंगिनी या भक्त परिज्ञा आदि कोई अनशन करने का स्वीकार करूं। इस प्रकार चिंतन कर और प्रयत्नपूर्वक उसका प्राथमिक अभ्यास कर शेष महान आराधना की यदि अशक्ति हो, तो भक्त परिज्ञा का निर्णय करें। इस तरह सम्यक्त्व की प्राणदात्री तुल्य और मोक्ष नगर के मुसाफिरों के वाहन सदृश संवेगरंगशाला नाम की आराधना के प्रथम परिकर्म द्वार के दो प्रकार के परिणाम नामक नौवाँ प्रतिद्वार में साधु परिणाम नाम का यह दूसरा प्रकार भी कहा और उसे कहने से मूल परिकर्म विधिद्वार का दो भेद वाला यह नौवाँ परिणाम नाम का अंतर द्वार पूर्ण हुआ ।।३३७९।। त्याग नामक दसवाँ द्वार :इस तरह शुभ परिणाम से युक्त भी प्रस्तुत आराधक जीव विशिष्ट त्याग बिना आराधना की साधना में 145 For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-त्याग नामक दसवाँ प्रतिद्धार-सहसमल्ल की कथा समर्थ नहीं हो सकता, इसलिए अब त्याग द्वार कहते हैं। वह त्याग द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के कारण चार प्रकार का जानना। उसमें जो पूर्व में कहा था उसके अनुसार गृहस्थ के द्वारा आराधना को प्रारम्भ करते ही पुत्र को धन सौंपकर द्रव्य का त्याग किया जाता है। फिर भी विशिष्ट आराधना करते समय अब शरीर परिवार, उपधि आदि अन्य भी बहत द्रव्यों में राग नहीं करने रूप विशेषतया त्याग करना चाहिए। तथा क्षेत्र से भी यदि पहले नगर, गाँव, घर आदि का त्याग किया हो, फिर भी इस समय इष्ट स्थान पर की मूर्छा को छोड़नी चाहिए। काल से शरद ऋतु आदि में उस काल में भी बुद्धि को आसक्त नहीं करनी चाहिए और इस तरह ही भाव में भी 'अप्रशस्त भावों का राग न करना' इत्यादि जानना। इस तरह मुक्ति की गवेषणा करते और विशुद्ध लेश्या वाले मुनि भी केवल संयम की साधना के सिवाय अन्य सारी उपधि का त्याग करें। तथा उत्सर्ग मार्ग को चाहता मुनि अल्प परिकर्म और अति परिकर्म वाला—ये दोनों प्रकार की शय्या, संथारा आदि का त्याग करें। और जो साधु पाँच प्रकार की शुद्धि किये बिना और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त किये बिना मुक्ति की चाहना करता है, वह निश्चय समाधि को प्राप्त नहीं करता है। उसमें १. आलोचना की, २. शय्या की, ३. उपधि की, ४. आहार-पानी की और ५. वैयावच्य कारक की, इस तरह शुद्धि पाँच प्रकार से कही है। अथवा १. दर्शन, २. ज्ञान, ३. चारित्र की शुद्धि तथा ४. विनय और ५. आवश्यक की शुद्धि, ये भी पाँच प्रकार की शुद्धि होती है। और विवेक १. इन्द्रियों का, २. कषाय का, ३. उपधि का, ४. आहार पानी का, और ५. शरीर का, ये पाँच प्रकार के विवेक दो भेद से हैं-द्रव्य से और भाव से। अथवा (१) शरीर का, (२) शय्या का, (३) संथारा सहित उपधि का, (४) आहार पानी का, और (५) वैयावच्य कारक का। यह भी पाँच प्रकार का विवेक अर्थात् त्याग समझना। इस तरह से उन सर्व का त्याग करनेवाला उत्तम मुनि सहस्र मल्ल के समान मृत्युकाल में भी लीलामात्र से सहसा विजय पताका को प्राप्त करता है ।।३३९३ ।। वह इस प्रकार है : त्याग पर सहलमल्ल की कथा शंखपुर नगर में न्याय, सत्य, शौर्य आदि गुणरूपी रत्नों का रत्नाकर के समान कनककेतु नामक राजा राज्य करता था। उसकी सेवा करने में कुशल गुणानुरागी और परम भक्ति वाला वीरसेन नाम का एक सेवक था। उसके विनय, पराक्रम आदि गुणों से प्रसन्न हुए राजा ने एक सौ गाँव की आजीविका देने को कहा, परंतु वह नहीं चाहता था। उस समय में किल्ले के बल से अभिमानी चोरों का अधिपति अपने प्रदेश की सीमा में कालसेन नामक पल्लिपति रहता था। उसे अपने देश का हरण करते जानकर अत्यंत क्रोधायमान होकर और भृकुटी को ऊँची चढ़ाकर भयंकर मुखवाले राजा ने कहा कि-अरे! महान् सामंतों! हे मंत्रियों! सेनापतियों! और हे श्रेष्ठ सुभटों! क्या तुम्हारे में ऐसा कोई समर्थ है, जो कालसेन को जीत सके? ऐसा कहने पर भी जब सामंत आदि कोई भी नहीं बोले, तब वीरसेन ने कहा-'हे देव! मैं समर्थ हूँ!' ।।३४००।। तब राजा ने विला पांपणों वाली और विकसित कुमुद के समान शोभते प्रसन्न दृष्टि से सद्भावपूर्वक उसके सामने देखा। और राजा ने प्रसन्न नेत्रों से अपने सामने देखने से अति प्रमोद भाव प्रकट हुआ और उसने पुनः कहा कि-हे देव! 'आप मुझे अकेले ही भेजो' तब राजा ने अपने हस्तकमल से ताम्बूल देकर उसे भेजा और सामंत आदि लोग भी चुपचाप मौन रहे। फिर राजा को नमस्कार कर वह शीघ्र नगर में से निकलकर कालसेन पल्लिपति के पास पहुँचा। और उसने उससे कहा कि-तेरे प्रति राजा कनककेतु नाराज हुए हैं, इसलिए हे कालसेन! अभी ही समग्र सेना सहित तूं काल के मुख में प्रवेश करेगा। यह सुनकर भी दुर्धर गर्व से ऊँची गर्दन वाले कालसेन ने 'यह बिचारा अकेला क्या करेगा?' ऐसा मानकर उसकी अवगणना की। इससे कोपायमान हुआ यमराज के कटाक्ष 146 - For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-त्याग नामक दसवाँ प्रतिद्धार-सहसमल्ल की कथा श्री संवेगरंगशाला समान तीक्ष्ण धार वाली अपनी तलवार को घुमाता हुआ, अंग रक्षकों के समूह शस्त्र प्रहारों को कुछ भी नहीं गिनते और सभा सदस्यों का भेदन कर. युद्ध के सतत अभ्यास से लड़ने में शरवीर वह शीघ्र कालसेन के पास जाकर और केश से पकड़कर बोला-अरे रे! हताशपुरुषों! यदि अब इसके बाद मेरे ऊपर कोइ शस्त्र को चलायेगा तो तुम्हारा यह स्वामी निश्चित काल का कौर बनेगा। फिर 'जो इस वीरसेन को प्रहार करेगा वह मेरे जीव के ऊपर प्रहार करता है।' ऐसा कहते कालसेन ने वीरसेन पर प्रहार करते पुरुषों को रोका। इधर उस समय में ही उसके गुण से प्रसन्न हुआ कनककेतु के कहने से हाथी, घोड़े, रथ और योद्धाओं से संपूर्ण चतुरंग सेना उसके पीछे आ पहुँची, तब व्याकुलता रहित शरीर वाला और भक्ति के समूह से भरे मनवाले वीरसेन ने उस कालसेन को ठगकर कनककेतु को सौंप दिया। राजा ने प्रसन्न होकर उसे आदरपूर्वक हजार गाँव दिये और राजा ने स्वयं उसका नाम सहस्रमल्ल रखा। फिर संधि करके हर्षित मनवाले राजा ने सत्कार करके मंडपाधिपति कालसेन को भी उसके स्थान पर भेज दिया। एक समय कालक्रम से सहस्रमल्ल ने वहाँ उद्यान में सुदर्शन नाम के श्रेष्ठ आचार्य श्री को बैठे हुए देखा और भक्तिपूर्वक नमस्कार कर, मस्तक द्वारा उनके चरणों को वंदना कर जैनधर्म को सुनने की इच्छावाला वह भूमि के ऊपर बैठा। गुरुदेव ने भी संसार की असारता के उपदेश रूपी मुख्य गुणवाला और निर्वाण की प्राप्ति रूप फलवाला श्री जिन कथित धर्म कहा और उसको सुनने से अंतर में अति श्रेष्ठ वैराग्य उत्पन्न हुआ। राजा वीरसेन पुनः गुरु के चरणों को नमन करके बोलने लगा कि-हे भगवंत! तप-चारित्र से रहित और अत्यंत मोह मूढ़ संसार समुद्र में पड़े जीवों के परभव में सहायक एक निर्मल धर्म को छोड़कर कामभोग से अथवा धन स्वजनादि से थोड़ी भी सहायता नहीं मिलती है। इसलिए यदि आपको मेरी कोई भी योग्यता दिखती हो तो शीघ्र मुझे दीक्षा दो। परिणाम से भयंकर घरवास में रहने से क्या प्रयोजन है? उसके बाद गुरु महाराज ने ज्ञान के उपयोग से उसकी योग्यता जानकर असंख्य दुःखों के समूह को क्षय करने वाली श्री भागवती दीक्षा दी। उसके बाद थोड़े दिनों में अनेक सूत्रार्थ का अध्ययनकर वह साधुजन के योग्य श्रेष्ठ क्रिया कलाप के परमार्थ का जानकार बना। फिर कालक्रम से शरीरादि के राग का अत्यंत त्यागी, दृढ़ वैरागी और बाह्य सुख की इच्छा से रहित उसने जिनकल्प स्वीकार किया। फिर जहाँ सूर्यास्त हो, वहीं कायोत्सर्ग में रहता, श्मशान, शून्य घर या अरण्य में रहते वायु के समान अप्रतिबद्ध और अनियत विहार से विचरण करते वह महान-आत्मा जहाँ शनिग्रह के सदृश स्वभाव से ही क्रूर और चिर वैरी कालसेन रहता था उस मंडप में पहुँचा। वहाँ बाहर काउस्सग्ग में रहा। उसे पापी कालसेन ने वहाँ आकर देखा। इससे अपने पुरुषों से कहा किअरे! यह वह मेरा शत्रु है कि उस समय इसने अकेले ही लीलामात्र में मुझे बाँधा था, इसलिए अभी यह जहाँ तक शस्त्र रहित है, वहाँ तक सहसा उसके पुरुषार्थ के अभिमान को नाश करो।। यह सुनकर क्रोध के वश फड़फड़ाते होंठ वाले उन पुरुषों द्वारा विविध शस्त्रों से प्रहार सहन करते वे मुनि विचार करने लगे कि हे जीव! मारने के लिए उद्यत हुए इन अज्ञानी पुरुषों के प्रति किसी तरह अल्प भी द्वेष मत करना, क्योंकि 'सर्व-प्राणी वर्ग अपने पूर्वकृत कर्मों के विपाक रूप फल को प्राप्त करता है, अपकारों में या उपकारों में दूसरा तो केवल निमित्त मात्र होता है।' हे जीवात्मा! यदि फिर भी तुझे तीक्ष्ण दुःखों की परंपरा को सहन करनी है, तो सद्ज्ञान, रूप, मित्र आदि से युक्त तुझे अभी ही सहन करना श्रेष्ठ है। यदि! ब्रह्मदत्त नामक बलवान चक्रवर्ती को भी केवल एक पशुपालक गड़रिये ने नेत्र फोड़कर दुःख दिया था। यदि तीन लोकरूपी रंग मंडप में असाधारण मल्ल प्रभु श्री महावीर परमात्मा ने अरिहंत होते हुए भी अति घोर उपसर्गों की परंपरा प्राप्त की थी, अथवा यदि श्रीकृष्ण वासुदेव की स्वजनों का नाश और पैर बिंधना तक के अति दुःसह तीक्ष्ण दुःखों 147 For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-मरण विभक्ति नामक ग्यारवाँ द्वार को प्राप्त किया था। तो हे जीव! तूं अपकार करनेवालों के प्रति थोड़ा भी द्वेष मत करना, और जो तेरे आधीन प्रशम सुख है, उसमें क्यों नहीं रमण करता? यदि तूंने उपधि समुदाय और गुरुकुल वास के राग को सर्वथा त्याग किया है, तो स्वयं नाशवान, असार शरीर में मोह किसलिए करता है? इस तरह धर्म ध्यान में मग्न उस महात्मा को उन्होंने तलवार की तीक्ष्ण धार से प्रहार कर मार दिया। महामुनि मरकर सर्वार्थ सिद्धि में देव रूप में उत्पन्न हुए। इस तरह पूर्व में कहा है कि 'त्यागी और निर्मम साधु लीलामात्र से प्रस्तुत प्रयोजन मोक्षादि को प्राप्त करते हैं वह यहाँ बतलाया। इस तरह मन भ्रमर को वश करने के लिए मालती के माला समान और आराधना रूप संवेगरंगशाला के मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार में कहे हुए पन्द्रह अंतर द्वार वाला क्रमशः त्याग नाम का यह दसवाँ अन्तर द्वार कहा ।।३४४२।। ग्यारहवाँ मरण विभक्ति द्वार : पूर्व में जो सर्व त्याग वर्णन किया है, वह मृत्यु के समय में संभव हो सकता है, इसलिए अब मैं मरण विभक्ति द्वार को कहता हूँ। उसमें (१) आवीची मरण, (२) अवधि मरण, (३) आत्यंतिक (अन्तिय) मरण, (४) बलाय मरण, (५) वशात मरण, (६) अन्तःशल्य (सशल्य) मरण, (७) तद्भव मरण, (८) बाल मरण, (९) पंडित मरण, (१०) बाल पंडित मरण, (११) छद्मस्थ मरण, (१२) केवली मरण, (१३) वेहायस मरण, (१४) गृध्रपृष्ठ मरण, (१५) भक्त परीक्षा मरण, (१६) इंगिनी मरण और (१७) पादपोपगमन मरण। इस तरह गुण से महान गुरुदेवों ने मरण के सत्तरह विधि-भेद कहे हैं। अब उसका स्वरूप अनुक्रम से कहता हूँ। प्रति समय आयुष्य कर्म के समूह की जो निर्जरा हो उसे १-आवीची मरण कहते हैं। नरक आदि जन्मों का निमित्त भूत आयुष्य कर्म के जिन दलों को भोगकर वर्तमान में मरता है। और पुनः उसी कर्मदल को उसी तरह भोगकर मरता है उस मृत्यु को २-अवधि मरण कहते हैं। नरकादि भवों में निमित्त भूत आयुष्य के समूह को भोगकर मरेगा, अथवा मरे हुए पुनः कभी भी उस दल को उसी तरह अनुभव करके नहीं मरता उसे ३अन्तिय अथवा आत्यंतिक मरण जानना। संयम योग से थके हुए भी उसी स्थिति में ही जो मरता है वह ४-बलाय मरण है। इन्द्रियों के विषयों के वश पड़ा हुआ जो उस विषयों के कारण मरता है वह ५-वशात मरण जानना। लज्जा से, अभिमान से अथवा बहुत श्रुतज्ञान होने के मद से जो अपने दुश्चरित्र को गुरु समक्ष नहीं कहते वे निश्चित आराधक नहीं होते हैं, ऐसे गारवरूप कीचड़ में फंसे हुए जो अपने अतिचारों को दूसरों के समक्ष नहीं कहते वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में अंतर में शल्य वाले होने से उसका ६-अन्तःशल्य (सशल्य) मरण होता है। इस सशल्य के मरण से मरकर जीव महाभयंकर दुस्तर और दीर्घ संसार अटवी में दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है। मनुष्य अथवा तिर्यंच भव के प्रायोग्य आयुष्य को बाँधकर उसी के लिए मरते तिर्यंच या मनुष्य को मृत्यु अर्थात् अनन्तर जन्म में उसीही तरहजन्म पास करने के लिए मरन, जसे-श्व मरण कहते हैं। अकर्म भूमि के मनुष्य, तिथंच, देव और नारकियों के सिवाय शेष जीवों में तद्भव मरण कई बार होता है, इन सात में अवधि बिना के आवीचि, आयंतिय, बलाय, वशाल और अन्तःशल्य पाँच ही मरण हैं, क्योंकि शेष अवधि और कहें जाने वाले बाल मरण आदि तो तद्भव मरण के अन्तर्गत जानना। तप, नियम, संयम आदि बिना अविरति वाले की मृत्यु वह ८-बाल मरण है। यम, नियम आदि सर्व विरति युक्त विरति वाले की मृत्यु वह ९1. उत्तराध्यन सूत्र के पांचवें अध्ययन की टीका में इन १७ मरण के भेदों का सविस्तार वर्णन है। 1.48cation International For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार - जयसुंदर और सोमदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला पंडित मरण, और देश विरति धारण करने वाले की मृत्यु वह १० - बाल पंडित मरण जानना । मनःपर्यव, अवधि, श्रुत और मति ज्ञान वाला जो छद्मस्थ श्रमण मरता है वह ११ - छद्मस्थ मरण है और केवल ज्ञान प्राप्तकर मृत्यु होनी वह १२ - केवली मरण जानना । गृध्रादि के भक्षण द्वारा मरना वह १३ - गृध्रपृष्ठ मरण है, और फाँसी आदि से मरना वह १४ - वेहायस मरण है। इन दोनों मृत्यु की भी विशेष कारणों से अनुज्ञा दी है, क्योंकि आगाढ़ उपसर्ग में सर्व किसी तरह पार न उतरे, ऐसे दुष्काल में या किसी विशेष कार्य के समय में कृत योगी - ज्ञानी मुनि को अविधि से किया हुआ मरण भी शुद्ध माना गया है। इसलिए ही जयसुन्दर और सोमदत्त नामक दो श्रेष्ठ मुनियों ने वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार किया था । । ३४६१ । । वह इस प्रकार है :जयसुंदर और सोमदत्त की कथा नरविक्रम राजा से रक्षित वैदेशा नगरी में सुदर्शन नामक सेठ था। उसके दो पुत्र थे, प्रथम जयसुंदर और दूसरा सोमदत्त । दोनों कलाओं में कुशल और रूप आदि गुणयुक्त थे। परस्पर स्नेह से परिपूर्ण चित्तवाले और उत्कृष्ट सत्त्व वाले वे दोनों इस लोक और परलोक से अविरुद्ध-उत्तम कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले थें। एक समय में अधिक मूल्य का अनाज लेकर बहुत मनुष्य के परिवार सहित वे अहिछत्रा नगरी गये। वहाँ रहते परस्पर व्यापार करने से उनकी जयवर्धन सेठ के साथ सद्भावना युक्त मित्रता हो गयी। उस सेठ की सोमश्री और विजयश्री नामकी दो पुत्री थीं। उस सेठ ने उनको दीं, और विधिपूर्वक दोनों का विवाह किया। उसके बाद वे उन स्त्रियों के साथ सज्जनों के आनन्दनीय समयानुरूप पाँच प्रकार के विषय सुख भोगते वहाँ रहते थे। एक समय अपनी वैदेशा नगरी से आये हुए पुरुष ने उनको कहा कि 'अरे! आप शीघ्र घर चलो। इस तरह तुम्हारे पिता ने आज्ञा दी है। क्योंकि सतत् श्वास, खाँसी, आदि कई रोगों से पीड़ित वे शीघ्र तुम्हारे दर्शन करना चाहते हैं।' ऐसा सुनकर उन्होंने ससुर को वृत्तान्त कहकर, पत्नियों को वहीं रखकर, उसी समय पिता के पास पहुँचने के लिए शीघ्र चल दिये। अखण्ड प्रस्थान करते वे अपने घर पहुँचे, और वहाँ परिवार को शोक से निस्तेज मुख वाला शोकातुर देखा, घर भी शोभा रहित अति भयंकर श्मशान सदृश देखा और दीन अनाथों की दानशाला के लिए रोके हुए नौकरों से भी रहित देखा । हा! हा! इस दुःख का लम्बा श्वास लेते - हमारे पिता निश्चित मर गये 'हैं, इससे यह घर सूर्यास्त के बाद का कमल वन के समान आनन्द नहीं देता है। ऐसा विचार करते वे दासी के द्वारा दिये हुए आसन पर बैठे। इतने में अत्यंत शोक के वेग से अश्रुभीनी आँखोंवाले परिजनों ने पैर में नमनकर उनको पिता के मरण की अति शोकजनक बात संपूर्ण रूप से कही। इससे वे मुक्त कण्ठ से बड़ी आवाज से रोने लगे और परिवार ने मधुर वाणी द्वारा महा मुश्किल से रोते रोका। फिर उन्होंने कहा कि - बहुत प्रीति को धारण करने वाले पिता श्री निष्पुण्यक हमारे लिए क्या उपदेश देकर गये हैं? वह कहो। यह सुनकर शोक के भार से गद्गद वाणी वाले परिवार ने कहा कि - तुम्हारे दर्शन की अत्यंत अभिलाषा वाला 'वह मेरा पुत्र आयगा, तब उनके आगे मैं यह कहूँगा और वह कहूँगा' ऐसा बोलते पिताजी को हमने पूछा, फिर भी हमको कुछ भी नहीं कहा और अति प्रचण्ड रोग के वश तुम्हारे आने के पहले ही वे शीघ्र मर गये हैं। यह सुनकर कोई अकथनीय तीव्र संताप को वहन करते उन दोनों भाइयों जोर-शोर से रुदन किया - हा ! निष्ठुर यम ! तूंने पिता के साथ हमारा मिलाप क्यों नहीं करवाया ? और पापी हम भी वहाँ क्यों रुके रहे? इत्यादि विलाप करते और बार-बार सिर फोड़ते उन्होंने इस प्रकार रुदन किया कि जिससे मनुष्य और मुसाफिर भी रोने लगे। उसके बाद आहार पा को नहीं लेने से उनको परिजनों ने अनेक प्रकार से समझाया बुझाया तो वे चित्त बिना केवल परिजनों के आग्रह से सर्व कार्य करने लगे । For Personal & Private Use Only 149 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-जयसुंदर और सोमदत्त की कथा किसी समय उन्होंने श्री दमघोषसूरि के पास संसार का नाश करनेवाले श्री सर्वज्ञ कथित धर्म का श्रवण किया। इससे मरण, रोग, दुर्भाग्य, शोक, जरा आदि दुःखों से पूर्ण संसार को असार मानकर वैराग्य हुआ। उन दोनों भाइयों ने दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर लगाकर गुरु समक्ष निवेदन किया कि-हे भगवंत! आपके पास दीक्षा को ग्रहण करेंगे। फिर गुरु ने सूत्रज्ञान के उपयोग से उनको भावि में अल्प विघ्न होने वाले हैं, ऐसा जानकर कहा कि-हे महानुभावों! आपको दीक्षा लेना उचित है, केवल स्त्रियों का तुम्हें महान उपसर्ग होगा, यदि प्राण का भोग देकर भी निश्चल तुम सम्यक् सहन करोगे तो तुम शीघ्र दीक्षा को स्वीकार करो और मोक्ष के लिए उद्यम करो। अन्यथा चढ़कर गिर जाने वाली क्रिया हास्य का कारण होती है। उन्होंने कहा कि-हे भगवंत! यदि हमें अल्प भी जीवन के प्रति राग होता तो हम सर्व विरति को स्वीकार करने की भावना नहीं करतें। अतः संसारवास से उदासीन आपके चरण-कमल की शरण स्वीकार की है और विघ्न में भी हम निश्चल रहेंगे, अतः आप हमें दीक्षा दें। उसके बाद दीक्षा देकर गुरु महाराज ने सर्व क्रिया की विधि में कुशल बनाया, और सम्यक्तया सूत्र अर्थ के श्रेष्ठ सिद्धान्त पढाया। चिरकाल गुरुकुलवास में रहकर एक समय महासत्त्व वाले उन्होंने अपने गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर अकेले विहार किया। फिर अनियत विहार की विधिपूर्वक विचरते सम्यग् उपयोग वाले जयसुंदर मुनि किसी समय अहिछत्रा पुरी में पहुँचे। वहाँ उस सेठ की जिस पुत्री से विवाह हुआ था, वह पापिनी सोमश्री असती के आचरण से उस समय गर्भवती हुई थी उसने सोचा था कि-यदि जयसुंदर यहाँ आये तो उनको दीक्षा का त्याग करवाकर अपना दुश्चरित्र छिपाऊँ। इधर भिक्षार्थ के लिए उस साधु ने नगर में प्रवेश किया और किसी तरह उसके समान दुराचारिणी पड़ौसी के घर में उसको देखा, शीघ्र घर में ले गयी और विनयपूर्वक चरणों में नमस्कार कर उसने कहा कि-हे प्राणनाथ! इस दुष्कर तपस्या से रुक जाओ और अब चारित्र को छोड़ दो ।।३५०० ।। हे सुभग! मैंने जिस दिन आपकी दीक्षा की बात सुनी उसी दिन मुझे वज्र के प्रहार से भी अधिक दुःख हुआ, और आपके वियोग से 'जीवन को आज त्यागें, कल छोडूं ऐसा विचार करती केवल आपके दर्शन की आशा से इतने दिन जीती रही। अब तो जीवन अथवा मृत्यु निःसंदेह आपके साथ ही होगा, तो हे प्राणनाथ! जो आपको रुचिकर हो उसे करो! उसके ऐसा कहने से पूर्व में जो गुरुदेव ने वचन कहा था वह याद आया और ऐसा धर्म विघ्न आया कि वह किसी भी उपाय से शान्त नहीं होने वाला जानकर, मोक्ष के एक बद्ध लक्ष्य वाले, अपने जीवन के लिए अत्यंत निरपेक्ष उस साधु ने कहा कि-हे भद्रे! जब तक मैं अपना कुछ कार्य करूँ तब तक एक क्षण तूं घर बाहर खड़ी रह, फिर 'जो तुझे हितकर और भविष्य में सुखकर हो' उसे मैं करूँगा। ऐसा सुनकर प्रसन्न मुख वाली, अत्यंत कपट रूप, दुराचार वाली, उसने उसके आदेश को तहत्ति पूर्वक स्वीकार करके घर के दरवाजे बंद करके बाहर खड़ी रही। और श्रेष्ठ धर्म ध्यान में प्रवृत्ति करने वाले साधु भी अनशन स्वीकारकर वेहायस मरण-अर्थात् गले में फाँसी लगाकर, ऊँचे लटककर विधिपूर्वक मरकर अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। इसके बाद सारे नगर में बात फैल गयी कि 'इसने साधु को मार दिया है।' इससे पिता ने शीघ्र अपमानित करके अपने घर में से उसे निकाल दिया। अत्यंत स्नेह के कारण उसकी विजयश्री भी उसके साथ निकली, और प्रसूति दोष के कारण सोमश्री मार्ग में ही मर गयी। फिर विजयश्री ने तापसी दीक्षा स्वीकार की और निरंकुशता से कंदमूल, आदि का भोजन करती तापसों के एक आश्रम में रहती थी। एक समय पूर्व मुनिवर के छोटे भाई वे सोमदत्त नाम के साधु विहार करते, वहाँ आये और विहार में तीक्ष्ण काँटे उनके पैरों में लगे, इससे चलने में असमर्थ बनें वहाँ किसी एक प्रदेश में बैठे। 150 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-उदायी राजा को मारने वाले की कथा श्री संवेगरंगशाला उस समय विजयश्री ने उन्हें देख लिया और पहचान गयी। इससे कामाग्नि से जाज्वल्यमान हृदय वाली विविध प्रकार से उसे क्षोभित करने लगी। इस तरह प्रतिक्षण उस पापिनी से क्षोभित होते हुए उन्हें गुरुदेव के वचनों का स्मरण हो आया, परंतु वहाँ से आगे बढ़ने में वे मुनि असमर्थ थे। अतः 'किस तरह अपने प्राणों का त्याग करूँ?' ऐसा चिंतन कर रहे थे। तब उस प्रदेश में, उस समय पर परस्पर तीव्र विरोधि दो राजाओं ने एक दूसरे को देखा और देखने मात्र से भयंकर युद्ध हुआ। उसमें अनेक सुभट, हाथी और घोड़े मरे। रुधिर का प्रवाह बहने लगा। इससे स्वपक्ष और परपक्ष के क्षय को देखकर दोनों राजाओं ने लड़ना बंद कर दिया, उसके बाद गीदड़, सियार आदि उन मुर्दो को भक्षण करने लगे, तब साधु ने विचार किया कि-मरने का और कोई उपाय नहीं है, इसलिए रणभूमि में रहकर गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार करूँ। ऐसा निर्णय करके जब वह पापिनी कन्द-फल आदि लेने के लिए वहाँ से गयी, तब सब करने योग्य अनशन आदि करके वह महात्मा धीरे-धीरे जाकर उन मुर्दो के बीच में मुर्दे के समान गिरा और दुष्ट हिंसक प्राणियों ने उनका भक्षण किया। इस तरह अत्यन्त समाधि के कारण मरकर वह जयंत विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ, इस तरह उसने गृद्धपृष्ठ मरण की सम्यक् प्रकार से आराधना की। इस तरह तीन जगत में पूजनीय श्री जिनेश्वर भगवान ने निश्चय गाढ़ कारण से वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरणों की भी आज्ञा दी है। साधुवेष धारी घातक ने राजा को मारने से आचार्य ने शासन का कलंक रोकने के लिए शस्त्र ग्रहण किया था और अपने आप मरे थे ।।३५२४।। उसका भी दृष्टांत इस प्रकार है: उदायी राजा को मारने वाले की कथा पाटलीपुत्र नगर में अत्यंत प्रचंड आज्ञा वाले जिसको सामंत समूह नमस्कार करता था ऐसा जगत प्रसिद्ध उदायी नाम से राजा था। उसने केवल अल्प अपराध में भी एक राजा का समग्र राज्य ले लिया था। इससे वह राजा जल्दी वहाँ से भाग गया फिर उसका एक पुत्र घूमता हुआ उज्जैनी नगरी में गया और प्रयत्नपूर्वक उज्जैनी के राजा की सेवा करने लगा। उस उज्जैनी के राजा को अनेक बार उदायी राजा को शाप देता देखकर उस राजपुत्र ने नमस्कार कर एकान्त में उन्हें विनम्र निवेदन किया-हे देव! यदि आप मेरे सहायक बनें तो मैं आपके शत्रु को मार दूं। राजा ने वह बात स्वीकार की और उसे महान आजीविका की व्यवस्था कर दी। इससे कंकजाति के, लोह की कटार लेकर, उसे अच्छी तरह छुपाकर उस उदायी राजा को मारने गया। मारने का कोई मौका नहीं मिलने से, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन पौषध करते उदायी राजा को रात्री में धर्म सुनाने के लिए सूरिजी को राजमहल में जाते देखकर उसने विचार किया कि-मैं इन साधुओं का शिष्य होकर उनके साथ राजमहल में जाकर शीघ्र इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करूँ। फिर कंक की कटारी को छुपाकर उसने दीक्षा स्वीकार की, और अत्यंत विनयाचार से आचार्य श्री को अत्यंत प्रसन्न किया। एक समय रात्री में पौषध वाले राजा को धर्म कथा सुनाने के लिए आचार्यश्री को जाते देखकर अति विनय भाव से गुप्तरूप में कटारी लेकर आचार्यश्री का संथारा आदि उपधि को हाथ में उठाकर आचार्यश्री के साथ में शीघ्र राजमंदिर में जाने के लिए चला। और 'चिर दीक्षित है, संयम का अनुरागी है तथा अच्छी तरह परीक्षित हुआ है।' ऐसा मानकर आचार्यश्री ने उसे नहीं रोका। इस तरह वे दोनों राजमहल में गये, और उसके बाद राजा को पौषध उच्चारण करवाकर दीर्घकाल तक धर्मकथा कहकर रात्री में आचार्यश्री सो गये। उनके समीप में ही राजा भी शीघ्र सो गया। फिर उनको गाढ़ नींद में सोये हुए जानकर वह दुष्ट शिष्य राजा के गले में उस कटारी को मारकर वहाँ से चल दिया। पहरेदार ने 'यह साधु है' ऐसा मानकर उसे जाते नहीं रोका। फिर कंक छुरी से छेदित हुए राजा के गले में से निकलते रक्त के अति प्रवाह से भिगे शरीर वाले आचार्यश्री - 151 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-इंगिनी मरण जी शीघ्र जागृत हुए और राजा को मरा हुआ देखकर विचार किया कि-निश्चित ही उस कुशिष्य का यह कर्म है। इससे यदि मैं अब प्राणों का त्याग नहीं करूँगा तो सर्वत्र जैन शासन की निंदा होगी और धर्म का विनाश होगा। ऐसा चिंतन मननकर अनशन आदि सर्व अंतिम विधि करके उत्सर्ग-अपवाद विधि में कुशल उस आचार्यश्री ने उस कटारी को अपने गले में चुभाकर काल धर्म प्राप्त किया। इस तरह आगाढ़ कारणों के कारण शस्त्र, फाँसी आदि प्रयोगों से भी मरना, उसे निर्दोष कहा है। अब पन्द्रहवाँ भक्त परिज्ञा मरण कहते हैं। इस संसार में पूर्व के अंदर अनेक बार अनेक प्रकार का भोजन खाया, फिर भी उससे जीव को वास्तविक तृप्ति नहीं हुई, नहीं तो पुनः कदापि सुना न हो, कभी भी देखा न हो, कदापि खाया न हो, वैसे ही जैसे प्रथम ही बार अमृत मिला हो। इस प्रकार प्रतिदिन उसका अति सन्मान कैसे करता? अशुचित्व आदि अनेक प्रकार के विकार को प्राप्त करने के स्वभाव वाला यह आहार है। उसके चिंतन मात्र से भी पाप का कारण बनता है, ऐसा भोजन करने से अब मुझे क्या प्रयोजन है? ऐसे भगवंत के वचन के द्वारा ज्ञान होने से योग्य विषयों का हेय रूप ज्ञान और इससे उसी तरह पच्चक्खाण द्वारा चार प्रकार के सर्व आहार, पानी का, बाह्य वस्त्र, पात्रादि उपधि का तथा अभ्यंतर रागादि उपधि का, इन सबका जावज्जीव तक त्याग करना, इत्यादि जो इस भव में तीनों आहार अथवा चारों आहार का जावज्जीव सम्यक् परित्याग करने रूप प्रत्याख्यान-नियम वह भक्त परीक्षा है और उसको स्वीकार पूर्वक मरना वह पन्द्रहवाँ भक्त परीक्षा मरण कहलाता है। भक्त परीक्षा अवश्य सप्रतिकर्म है, अर्थात् इसमें शरीर की सेवा शुश्रूषादि कर सकते हैं। इस भक्त परिज्ञा मरण के सविचार और अविचार दो भेद हैं। उसमें पराक्रम वाले अर्थात् क्रिया के अभ्यास द्वारा जिस मुनि ने शरीर की संलेखना की हो उसे सविचार पर्वक होता है। और दसरा अविचार भक्त परीक्षा मरण, मत्यु नजदीक होने से संलेखना का समय पहुँचता न हो, ऐसे अपराक्रम वाले मुनि को होता है। वह अविचार भक्त परिज्ञा भी संक्षेप से तीन प्रकार की है-प्रथम निरुद्ध, दूसरी निरुद्धतर, और तीसरी परम निरुद्ध कहा है। उसका भी स्वरूप कहता हूँ। जो जंघा बल रहित और रोगों से दुर्बल शरीर वाला हो उसे प्रथम अविचार निरुद्ध भक्त परिज्ञा मरण कहा है। यह मरण में भी बाह्य, अभ्यंतर त्याग आदि विधि पूर्व में कही है, उसके अनुसार जानना और यह मरण भी प्रकाश-अप्रकाश दो प्रकार का है, जिससे लोग जानते हैं वह प्रकाश रूप अर्थात प्रकट रूप है, और लोग नहीं जानें वह अप्रकाश रूप समझना। और सर्प, अग्नि, सिंह आदि से अथवा शूल रोग, मूर्छा, विशूचिका आदि से आयुष्य को खत्म होता जानकर मुनि की वाणी जहाँ तक गँवाई नहीं (बंद नहीं हुई) और चित्त भी व्याक्षिप्त नहीं हुआ, वहाँ तक शीघ्र ही पास में रहे आचार्यादि के समक्ष अतिचारादि की आलोचना करना उसे दूसरा निरुद्धतर अविचार मरण कहा है। उससे भी पूर्व कहे अनुसार त्यागादि विधि यथायोग्य करने की होती है। और वात आदि रोग से जब साधु की वाणी रुक जाये, बोलने में असमर्थ हो, तब उसे तीसरा परम निरुद्ध अविचार नामक मरण जानना। आयुष्य को खत्म होता जानकर वह साधु उसी समय ही श्री अरिहंत, सिद्ध और साधुओं के समक्ष सर्व दोषों की आलोचना करें। इस तरह यह भक्त परिज्ञा श्रुतानुसार से कहा है ।।३५६२।। अब इंगिनीमरण को सम्यग् रूप से संक्षेप में कहता हूँ। इसमें प्रतिनियत (अमूक) भूमि भाग में ही अनशन क्रिया की इंगन अर्थात् चेष्टा या प्रवृत्ति करने की होने से वह चेष्टा इंगिनी कहलाती है, और उसके द्वारा जो मृत्यु होती हो, उसे इंगिनी मरण कहते हैं। वह चार प्रकार के आहार का त्याग करने वाले, शरीर की सेवा शुश्रूषा आदि प्रतिकर्म नहीं करने वाले, और इंगिनी अमुक देश में रहने वालो को ही होता है। भक्त परिक्षा में विस्तारपूर्वक जो उपक्रम ज्ञानपूर्वक प्रयत्न करने को कहा है, वही __152 For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्न विधि द्वार-पादपोपगमन मरण श्री संवेगरंगशाला उपक्रम इंगिनी मरण में भी यथायोग्य जानना। द्रव्य से शरीरादि की और भाव से रागादि की संलेखना करने वाला, इंगिनी मरण में ही एक बद्ध व्यापार वाला, प्रथम के तीन संघयण वाला, और बुद्धिमान ज्ञानी मुनि अपने गच्छ से क्षमा याचनाकर, अंदर और बाहर से भी सचित्त या जीवादि से संसक्त न हो शद्ध भूमि के ऊपर बैठकर. वहाँ तृण आदि को बिछाकर उत्तर अथवा पूर्व में मुख रखकर और मस्तक पर अंजलिकर, विशुद्ध चित्तवाला वह श्री अरिहंत आदि के समक्ष आलोचना लेकर चारों प्रकार के आहार का त्याग करें। अपने शरीर के अवयव को लम्बे-चौड़े किये बिना ही क्रियाओं को स्वयं करें, जब उपसर्ग रहित हो तब बड़ी नीति आदि को सम्यग् स्वयं परिष्ठापन (परठवे) करें और उसे जब देवता या मनुष्यों के उपसर्ग हों तब लेशमात्र भी कम्पायमान हुए बिना निर्भय उन उपसर्गों को सहन करें। इस तरह प्रतिकूल उपसर्ग सहन करने के बाद किन्नर, किंपुरुष आदि व्यंतरों की देव कन्याएँ भोगादि की अनुकूल प्रार्थना करें, तो भी वह क्षोभित न हो तथा वह मान सन्मानादि ऋद्धि से विस्मय को नहीं करें, और उसके शरीरादि के सर्व पुद्गल दुःखदायी बनें-पीड़ा दे तो भी उसे ध्यान में थोड़ी भी विश्रोतसिका (स्खलना) न हो, अथवा उसको सर्व पुद्गल सुखरूप में बनें तो भी उसे ध्यान में भंग न हो। उपसर्ग करने वाला कोई उसे यदि जबरदस्त सचित्त भूमि में डाले तो वहाँ भाव से शरीर मुक्त होकर, शरीर से आत्मा को भिन्न मानकर उसकी उपेक्षा करें, और जब उपसर्ग शान्त हो, तब यत्नपूर्वक शुद्ध निर्जीव-अचित्त भूमि में जाय। सूत्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना और धर्मकथा को छोड़कर सूत्र और अर्थ उभय पोरिसी में एकाग्र मन वाला सूत्र का स्मरण करें। इस तरह आठ प्रहर स्थिर एकाग्र, प्रसन्न चित्त वाला ध्यान को करें, और बलात्कार से निद्रा आये तो भी उसे थोड़ी भी स्मृति का नाश न हो। सज्झाय, कालग्रहण, पडिलेहण आदि क्रियाएँ उनको नहीं होती हैं, क्योंकि उसे श्मशान में भी ध्यान का निषेध नहीं है। वह उभयकाल आवश्यक को करें, जहाँ शक्य हो वहाँ उपधि की पडिलेहण करें और कोई स्खलना हो तो उसका मिच्छा मि दुक्कडं करें। वैक्रिय आहारक, चारण अथवा क्षीराश्रव आदि लब्धियों का यदि कोई कार्य आ जाए तो भी वैराग भाव से उसका उपयोग करें। मौन के अभिग्रह में रक्त होने पर भी आचार्यादि के प्रश्नों का उत्तर दे और यदि देव तथा मनुष्य पूछे तो धर्म कथा करें। इस तरह शास्त्रानुसार से इंगिनी मरण को सम्यग् रूप से कहा है। अब संक्षेप से ही सत्तरहवाँ पादपोपगमन मरण को कहता हूँ ।।३५८१।। मरण के प्रकार में निश्चय वृक्ष के समान जहाँ किसी स्थान में अथवा जिस किसी आकृति में रहने के अभिग्रह को पादपोपगमन मरण कहते हैं। जिस अंग को जहाँ जिस तरह रखें, उसे वहाँ उसी तरह धारण करना, हलन चलन नहीं करना, वह पादपोपगमन मरण, नीहार और अनीहार इस तरह दो प्रकार का होता है। उसमें उपसर्ग द्वारा भी अन्यत्र हरण किया हो, उस मूल स्थान से अन्य स्थान में कालधर्म प्राप्त करना उसे नीहारिक कहा जाता है और उपसर्ग रहित मूल स्थान में ही मरें उसे दूसरा अनीहारिक कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काउ, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय वाले स्थान में संहरण करने पर भी शरीर के ममत्व के त्याग द्वारा और सेवा-सार संभाल नहीं करने वाला, उसका त्यागी वह महात्मा जब तक जियेगा तब तक वह अनशन का पालन करेगा, जर चलन नहीं करें। शोभा अथवा गंधादि विलेपन से यदि कोई विभषित करे तो भी जीवन तक शुद्ध लेश्या वाला, पादपोपगमन वाला मुनि चेष्टा रहित रहता है। क्योंकि-खड़ा हुआ अथवा लम्बा पड़ा हो तो भी शरीर के अंग लम्बे चौड़े किये बिना उद्वर्तनादि से रहित और जड़ के समान हलन चलनादि चेष्टा से रहित हो। इससे वह वक्ष के समान दिखता है। इस तरह सत्तरहवें प्रकार के मरण के स्वरूप अल्पमात्र किया है, अब वह अंतिम तीन मरणों के विषय में कहने योग्य कुछ कहता हूँ। - 153 भी हलन च For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-अधिगत मरण नामक बारहवाँ ढार सर्व साध्वी. प्रथम संघयण बिना के पुरुष और सब देश विरति धारक श्रावक भक्त परीक्षा को स्वीकार कर सकते हैं, परंतु इंगिनी मरण को तो अति दृढ़ धैर्य वाला और बल वाला पुरुष ही आचरण कर सकता है। साध्वी आदि को उसका प्रतिषेध बतलाया है। और आत्म–शरीर संलेखना करने वाले या नहीं करने वाले तथा दृढ़तम बुद्धि बल वाले, प्रथम संघयण वाले, पादपोपगमन अनशन करते हैं। स्नेहवश देव ने तमस्काय-घोर अंधकार आदि करने में भी वह धीर आत्माएँ स्वीकार किया हुआ विशुद्ध ध्यान से अल्प भी चलित नहीं होते हैं। चौदह पूर्वी का विच्छेद हो तब पादपोपगमन करने वालों का भी विच्छेद होता है। क्योंकि उसके बाद पहला संघयण नहीं होता है। इस तरह इस द्वार में संक्षेप में मरण विधि कही है। इसका भी फल आराधना के फल को बतलाने वाले द्वार में आगे कहूँगा। इस तरह सिद्धांत रूपी समुद्र में अमृत तुल्य संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूलभूत प्रथम परिकर्म द्वार में पन्द्रह प्रतिद्वार हैं। उस क्रम के अनुसार यह मरण विभक्ति नामक ग्याहरवाँ द्वार कहा है। पूर्व में सामान्यतया अनेक प्रकार के मरणों को बतलाया है। अब प्रस्तुत पंडित मरण द्वार के स्वरूप को कहते हैं।।३५९७।। अधिगत मरण नामक बारहवाँ द्वार : प्रश्न-प्रस्तुत पंडित मरण किस प्रकार है? उत्तर-दुःख के समूह रूप लताओं का नाश करने के लिए एक तीक्ष्ण धार वाला महान कुल्हाड़ी के समान है। और इससे विपरीत मरण को मोह मैल रहित श्री वीतराग भगवंतों ने बाल मरण कहा है। इन दोनों का स्वरूप इस तरह पाँच प्रकार का बतलाया है। (१) पंडित-पंडित मरण, (२) पंडित मरण, (३) बाल पंडित मरण, (४) बाल मरण और (५) बाल-बाल मरण ।।३६०० ।। इसमें प्रथम जिनेश्वर भगवंत को होता है, दूसरा सर्व विरति साधुओं को, तीसरा देश विरति श्रावक को, चौथा सम्यग् दृष्टियों को, और पाँचवां मिथ्या दृष्टियों को होता है। अन्य आचार्यों ने जो यह पाँच मरण रूप ज्ञेय पदार्थ है, उसका विभाग इस प्रकार बतलाया है। जैसे किकेवली भगवंत को आयुष्य पूर्ण करते समय पंडित-पंडित मरण होता है। भक्त परिज्ञादि तीन पंडित मरण मुनिवर्य को होते हैं। देशविरति और अविरति समकित दृष्टियों को बाल पंडित मरण होता है। जो मंद मिथ्यात्वी मिथ्या दृष्टियों को बाल मरण होता है। और कषाय से कलुषित जो दृढ़ अभिग्रहिक मिथ्यात्व सहित मरते हैं, उनका सर्व जघन्य बाल मरण होता है। अथवा पाँच में प्रथम तीन पंडित मरण और अंतिम दो बाल मरण जानना। उसमें प्रथम तीन समकित दृष्टि और अंतिम दो को मिथ्यादृष्टि जानना। इसमें प्रथम तीन मृत्यु से मरने वाले मुनियों को अप्रमत्त, स्वाश्रयी, एकाकी विहार-अनशन की विधि क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य जानना। यद्यपि सम्यक्त्व में पक्षपाती मन वाले जीव मरते समय असंयमी होते हैं तो भी श्री जिनवचन के अनुसार आचरण करने से वे अल्पसंसारी हैं। जो श्री जिनाज्ञा में श्रद्धावाला, प्रतीतिवाला और रुचिवाला होता है वह सम्यक्त्व के अनुसार आचरण करने से निश्चित आराधक होता है। श्री जिनेश्वरों के कथित इस प्रवचन में श्रद्धा को नहीं करनेवाले अनेक जीवों ने भूतकाल में अनन्त बाल मरण किये हैं, फिर भी ज्ञानरहित-विवेक शून्य उन बिचारें जीवों ने उस अनन्त मरण से भी कुछ अल्पमात्र भी गुणों को प्राप्त नहीं किया। इसलिए बाल मरण के वर्णन के विस्तार को छोड़कर केवल उसके विपाक को संक्षेप से मैं कहता हूँ, उसे तुम कान लगाकर सुनो।।३६१२।। अनेक जात की विकार वाली अथवा विस्तार वाली संसार रूपी भयंकर दुर्गम अटवी में दुःख से पीड़ित 154 - For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा श्री संवेगरंगशाला जीवों ने बाल मरणों के द्वारा मरने से निश्चय ही दीर्घकाल तक परिभ्रमण किया है, करते हैं और करेंगे। जैसे किदुःख से मुक्त होने की इच्छा वाले जन्म, जरा और मरण रूपी चक्र में बार-बार परिभ्रमण करने से अत्यधिक थके हुए, परिभ्रमण करते हुए भी पार को प्राप्त नहीं करने वाले, इस संसार रूपी रहट में बँधे हुए जीवों रूपी बैल घूम रहे हैं। बैल अनेकों बार घूमने के बाद भी उसी चक्र में रहता है। यही दशा बाल मरण करनेवाले जीवों की हैं, उन जीवों को जो चार गतियों में और जो चौरासी लाख योनियों में अनिष्टप्रद है उसे ही दुःखपूर्वक अनुभव करना होता है, और जो इष्ट होने पर भी निरनुबन्धी-वियोग होता है और जो दुःख से पार हो सके, ऐसा अनिष्ट होने पर भी सानुबन्धी अर्थात् संयोग जीव को प्राप्त होता है। इस तरह बाल मरण का भयंकर स्वरूप जानकर धीर पुरुषों को पंडित मरण को स्वीकार करना चाहिए। पंडित शब्द का अर्थ इस प्रकार से है- ।।३६१७।। _ 'पण्डा' अर्थात् बुद्धि उससे युक्त हो, उसे पंडित कहते हैं, और उसकी जो मृत्यु उसे पंडित मरण कहते हैं। इसे शास्त्र द्वार में जो पंडित मरण कहा है वह भक्त परिज्ञा ही है कि जिसके मरने से मरने वाले को निश्चय इच्छित फल की सिद्धि होती है। वर्तमान में दुःषमकाल है, अनिष्ट अंतिम संघयण है, अतिशयी ज्ञानी पुरुषों का अभाव है, तथा दृढ़ धैर्य बल नहीं होने पर भी यह भक्त परिज्ञा मरण भी सुंदर है। काल के योग साध्य है, जो पादपोपगमन और इंगिनी मरण से मिलता हुआ और वैसा ही फल देने वाला है। यह भक्त परिज्ञा निश्चय मनोवांछित शुभ फल देने में कल्पवृक्षों का एक महा उपवन है। और अज्ञानरूपी अंधकार से गाढ़ दुःषम कालरूपी रात्री में शरद का चंद्र है और यह भयंकर संसाररूपी मरुस्थल में लहराते निर्मल जल का सरोवर है और अत्यंत दरिद्रता का नाश करने वाला श्रेष्ठ चिंतामणी है, और वह अति दुर्गम दुर्गति रूपी मार्ग में फंसे हुए को बचाने के लिए उत्तम मार्ग है, और मोक्ष महल में चढ़ने के लिए उत्तम सीढ़ी है। बुद्धिबल से व्याकुल, अकाल में मरने वाले, दृढ़ धर्म में अभ्यास रहित भी वर्तमान काल के मुनियों के योग्य यह मरण निष्पाप और उपसर्ग रहित है। इसलिए व्याधि ग्रस्त और मरेगा ही ऐसा निश्चय वाला भव्य आत्मा साध या गहस्थ को भक्त परिज्ञा रूपी पंडित मरण में यत्न करना चाहिए। पंडित मरण से मरे हुए अनंत जीव मुक्ति महल प्राप्त करते हैं और बाल मरण भयंकर अरण्य में अनंत बार परिभ्रमण करते हैं। एक बार का एक पंडित मरण भी जीवों के दुःखों को मूल से नाश करके स्वर्ग में अथवा मोक्ष में सुख देता है। यदि इस जीव लोक में जन्म लेकर सबको अवश्य मरना है तो ऐसे किसी श्रेष्ठ रूप में मरना चाहिए कि जिससे पुनः मरण न हो। सुंदरी नंद के समान तिर्यंच रूप बने हुए भी जीव यदि किसी तरह पंडित मरण को प्राप्त करें, तो इच्छित अर्थ की सिद्धि करता है ।।३६३०।। संदरी नंद की कथा इस जम्बू द्वीप में भरतक्षेत्र के अंदर इंद्रपुरी समान पंडितजनों के हृदय को हरण करनेवाली, हमेशा चलते श्रेष्ठ महोत्सव वाली, श्री वासुपूज्य भगवान के मुखरूपी चंद्र से विकसित हुई, भव्य जीव रूपी, कुमुद के वनों वाली, लक्ष्मी से शोभित, जगत प्रसिद्ध चम्पा नामक नगरी थी। वहाँ कुबेर के धन भंडार को पराभव करने वाला, महान् धनाढ्य, वहाँ का निवासी विशिष्ट गुण वाला धन नामक सेठ रहता था। उसकी तामलिप्ती नगरी का रहनेवाला वसु नामक व्यापारी के साथ निःस्वार्थ मित्रता हुई। जैनधर्म पालन करने में तत्पर और उत्तम साधुओं के चरण कमल की भक्ति करने वाले वे दोनों दिन व्यतीत करते थे। वे दोनों सेठ हमेशा अखण्ड प्रीति को चाहते थे। अतः धन सेठ ने अपनी पुत्री सुंदरी को वसु सेठ के पुत्र नंद को दी। और अच्छे मुहूर्त में बहुत लक्ष्मी समूह को खर्चकर जगत् के आश्चर्य को उत्पन्न करने वाला उन दोनों का विवाह किया। उसके बाद पूर्वोपार्जित पुण्य रूपी वृक्ष के उचित सुंदरी के साथ विषयसुख रूपी फल को भोगते नंद के दिन बीत रहे थे। ___155 से पनः For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा बुद्धि की अति निर्मलता के कारण जैन मत के विज्ञाता नंद को भी एक समय पर ऐसा विचार आया किव्यवसाय रूपी धन, उद्यम बिना का पुरुष, लोग में निंदा पात्र बनता है और कायर पुरुष मानकर उसे पूर्व की लक्ष्मी भी शीघ्र छोड़ देती है। अतः पूर्वजों की परंपरा के क्रम से आया हुआ समुद्र मार्ग का व्यापार करूँ। पूर्वजों के धन से आनंद करने में मेरी क्या महत्ता है? क्या वह भी जगत में जीता गिना जाये कि जो अपने दो भुजाओं से मिले हुए धन से प्रतिदिन याचकों को मनोवांछित नहीं देता? विद्या, पराक्रम आदि गुणों से प्रशंसनीय आजीविका से जो जीता है, उसका जीवन प्रशंसनीय है। इससे विपरीत जीने वाले, उस जीवन से क्या लाभ? पानी के बुलबुले के समान जगत में क्या पुरुष अनेक बार जन्म-मरण नहीं करता है? तात्त्विक शोभा बिना के उस जन्म और मरण से क्या प्रयोजन है? उसकी प्रशंसा किस तरह की जाये कि जब सत्पुरुषों की प्रशंसा होती है, उस समय अपने त्यागादि अनेक गुणों से उनका प्रथम नंबर नहीं आता? अर्थात् सत्पुरुषों में यदि प्रथम नंबर नहीं आता उसकी प्रशंसा कैसे हो? ऐसा विचारकर उसने शीघ्र अन्य बन्दरगाह में दुर्लभ अनाज समूह से भरकर जहाज समुद्र के किनारे तैयार किये। और जाने के लिए अति उत्सुक देखकर उसके विरह सहन करने में अति कायर बनने से अत्यंत शोकातुर सुंदरी ने उससे कहा कि-हे आर्य पुत्र! मैं भी निश्चय आपके साथ जाऊँगी, क्योंकि प्रेम से पराधीन तुम्हारे विरह में शांत रहने में मैं शक्तिमान नहीं हूँ। ऐसा उसके कहने से अति दृढ़ स्नेहवश से आकर्षित चित्त के वेग वाले नंद ने वह स्वीकार किया। फिर श्रेष्ठ प्रस्थान का समय आते ही उन दोनों ने श्रेष्ठ जहाज में बैठकर और प्रसन्न चित्तवाले कुशल रूप में अन्य बंदरगाह में पहुँचें। वहाँ अनाज बेचा और अनेक सोना-मुहरें प्राप्त की। उसके स्थान पर अन्य अनाज लेकर समुद्र मार्ग से वापिस जाते पूर्वकृत कर्मों के विपाक से अति प्रबल पवन से टकराते जहाज के शीघ्र ही सैंकड़ों टुकड़े हो गयें। फिर तथाभव्यत्व के कारण मुसीबत से शीघ्र ही लकड़ी का तख्ता हाथ में आया और वे दोनों एक ही बंदरगाह पर पहुँचें। तथा अघटित को घटित और घटित को अघटित करने में कुशल विधाता के योग में विरह से अति व्याकुल बनें उन दोनों का परस्पर दर्शन मिलन हुआ। उसके बाद हर्ष और खेदवश उछलते अति शोक से सूजन हुए गले वाली मानो समुद्र के संग से लगे हुए जल बिन्दुओं के समूह बिखरते हों, इस तरह अखण्ड गिरते आँसू की धारा वाली दीन सुंदरी सहसा नंद के गले से लिपट कर रोने लगी। तब महा मुसीबत से धीरज धारण करके नंद ने कहा कि-हे सुंदरी! अत्यंत श्याम मुखवाली, तूं इस तरह शोक क्यों करती है? हे मृगाक्षी! जगत में वह कौन जन्मा है कि जिसको संकट नहीं आया? और जन्म मरण नहीं हुआ हो? हे कमलमुखी! यदि आकाश तल के असाधारण चूड़ामणी तुल्य सूर्य का भी प्रतिदिन उदय, प्रताप और विनाश होता है। अथवा तूंने श्री जिनेश्वर भगवान की वाणी में नहीं सुना कि-पूर्व पुण्य का क्षय होते ही देवेन्द्र भी दुःखी अवस्था प्राप्त करते हैं? हे सुतनु! पेड़ छाया के समान दुःखों की परंपरा जिसके साथ ही परिभ्रमण करती है, वह कर्म के वश पड़े हुए जीवों को इतने बड़े दुःख से संताप क्यों होता है? इत्यादि वचनों से सुंदरी को समझाकर भूख-प्यास से पीड़ित नंद उसके साथ ही गाँव की ओर चले। फिर सुंदरी ने कहा कि-हे नाथ! परिश्रम से थकी हुई अत्यंत तृषातुर, मैं यहाँ से एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ हूँ। तब नंद ने कहा कि-हे सुतनु! तूं एक क्षण यहाँ पर विश्राम ले, कि जिससे मैं तेरे लिए कहीं से भी जल ले आऊँ। उसने स्वीकार किया, अतः नंद उसे छोड़कर शीघ्र नजदीक के वन प्रदेश में पानी खोजने गया। और दुर्भाग्यवश वहाँ यम समान भूख से अतीव पीड़ित फाड़े हुए महान मुख वाला और अति चपल लप-लप करते जीभ वाले सिंह को उसने देखा। उस सिंह के भय से संभ्रम युक्त बन गया। इससे अनशनादि अंतिम आराधना के कर्त्तव्य को भूल गया। आर्त्तध्यान को 156 For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवहन विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा श्री संवेगरंगशाला प्राप्तकर शरण रहित उस नंद को सिंह ने मार दिया, और सम्यक्त्वरूप शुभ गुणों का नाश होने से वह नंद बाल मरण के दोष से उसी वन प्रदेश में बंदर रूप में उत्पन्न हुआ ।।३६६८।। इधर राह देखती सुंदरी ने दिन पूरा किया, फिर भी जब नंद वापिस नहीं आया, तब ‘पति मर गया है' ऐसा निश्चय करके क्षोभ प्राप्त करती 'धस' शब्द करती जमीन पर गिर गयी, मूर्छा से आँखें बंद हो गयीं। एक क्षण मुर्दे के समान निचेष्ट पड़ी रही। तब वन के पुष्पों से सुगंधवाले वायु से अल्प चैतन्य को प्राप्त करके दीन मुख वाली वह गाढ़ दुःख के कारण जोर से रोने लगी। हे जिनेश्वर भगवान के चरण कमल की पूजा में प्रीतिवाले! हे सद्धर्म के महान भण्डार रूप! हे आर्य पुत्र! आप कहाँ गयें? मुझे जवाब दो! हे पापी देव! धन, स्वजन और घर का नाश होने पर भी तुझे संतोष नहीं हुआ! कि हे अनार्य! आज मेरे पति को भी तूंने मरण दे दिया है। पुत्री वत्सल पिताजी! और निष्कपट (निर्मल) निष्कर प्रीतिवाली हे माताजी! हा! हा! आप दुःख समुद्र में गिरी हुई अपनी पुत्री की उपेक्षा क्यों कर रहे हो? इस तरह चिरकाल विलाप करके परिश्रम से बहुत थके शरीर वाली, दो हाथ में रखे हुए मुख वाली अति कठोर दुःख को अनुभव करती वहां इधर-उधर घूमते एक जगह बैठी, अश्व खिलाते प्रियंकर नामक श्रीपुर नगर का राजा वहाँ आया। और उसे इस तरह देखकर विचार करने लगा-क्या श्राप से भ्रष्ट हई यह कोई देवी है अथवा कामदेव से विरहित रति है? कोई वन देवी है अथवा कोई विद्याधरी है? इस तरह विस्मित मन वाले उसने उससे पूछा कि-हे सुतनु! तूं कौन है? यहाँ क्यों बैठी है? कहाँ से आयी है? और इस प्रकार संताप को क्यों करती है? फिर लम्बा उष्ण निश्वास से स्खलित शब्द वाली और शोकवश आँखें बंद वाली सुंदरी ने कहा कि-हे महा सात्त्विक! संकटों की परंपरा को खड़े करने में समर्थ विधाता के प्रयोगवश यहाँ बैठी हूँ। मेरी दुःखसमूह के हेतुभूत यह बातें जानकर क्या लाभ है? यह सुनकर संकट में पड़ी हुई भी 'उत्तम कुल में जन्म लेने वाली कुलीन होने के कारण यह अपना वृत्तान्त नहीं कहेगी।' ऐसा सोचकर राजा उसे कोमल वाणी से समझाकर महा मुसीबत से अपने घर ले गया और अति आग्रह से भोजनादि करवाया। उसके बाद राजा का उसके प्रति अनुराग होने से, हमेशा उसका मन इच्छित पूर्ण करता है। फिर 'राजा का सन्मान प्राप्त कर प्रेमपर्वक बातें कर' वह प्रसन्न रहती थी। इससे राजा ने कुछ दिन बाद एकान्त में सुंदरी से कहा कि-हे चंद्रमुखी! शरीर और मन की शांति को नाश करने के लिए पूर्व के बनें वृत्तान्त को भूलकर, मेरे साथ इच्छानुसार विषयसुख का भोग करो। हे सुतनु! दीपक की ज्योति से मालती की माला जैसे सूख जाती है, वैसे शोक से तपी हुई तेरी कोमल कायारूपी लता हमेशा सूख रही है। हे सुतनु! राहु के उपद्रव से घिरा हुआ जन-मन को आनंद देनेवाले शरदपूर्णिमा के चंद्र बिम्ब समान, जन-मन को आनंद देने वाला भी शोकरूपी राहु के उपद्रव से पीड़ित तेरे यौवन सौभाग्य का आदर नहीं होता है। अति सुंदर भी, मन प्रसन्न भी और लोक में दुर्लभ भी खो गयी अथवा नाश हुई वस्तु का समझदार पुरुष शोक नहीं करते हैं। अतः तुझे इस विषय में अधिक क्या कहे? अब मेरी प्रार्थना को तूं सफल कर, पंडितजन प्रसंगोचित प्रवृत्ति में ही उद्यम करते हैं। कान को अति कटु लगने वाला और पूर्व में कभी नहीं सुना हुआ यह वचन सुनकर व्रत भंग के भय से उलझन में पड़ी गाढ़ दुःख से व्याकुल मन वाली उसने कहा कि-हे नर शिरोमणि! सुकुल में उत्पन्न हुआ, लोक में प्रसिद्ध और न्याय मार्ग में प्रेरक, आपके सदृश श्रेष्ठ पुरुष को परस्त्री का सेवन करना अत्यंत अनुचित है। इस लोक और परलोक के हित का नाश करने में समर्थ और तीनों लोक में अपयश की घोषणा रूप है। राजा ने कहा कि-हे कमलमुखी! चिर संचित पुण्य समूह के उदय से निधान रूप मिली हुई तुझे भोगने में मुझे क्या दोष है? उसके बाद राजा के अतीव आग्रह को जानकर उसने उत्तर में कहा कि-हे नरवर! यदि ऐसा ही है तो चिरकाल 157 For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-पंडित मरण की महिमा से अभिग्रह ग्रहण किया है जब तक वह पूर्ण नहीं होता है तब तक उस समय का रक्षण करो। फिर आप श्री की इच्छानुसार मैं आचरण करूँगी। यह सुनकर प्रसन्न हुआ राजा उसके चित्त विनोद के नाटक, खेल आदि को दिखाता समय पूर्ण करता था ।।३६९६।। इधर नंद का जीव जो बंदर बना था उसे योग्य जानकर बंदर को नचाने वाले ने पकड़ा, और उसको नाटक आदि अनेक कला का अभ्यास करवाकर प्रत्येक गाँव, नगर में उसकी कलाएँ दिखाते उन खिलाड़ियों ने किसी समय उसे लेकर श्रीपुर नगर में आया। वहाँ घर-घर में उसे नचाकर वे राजमहल में गये और वहाँ उन्होंने उस बंदर को सर्व प्रयत्नपूर्वक नचाने लगे, फिर नाचते उस बंदर ने किसी तरह राजा के पास बैठी हुई सुंदरी को पूर्व के स्नेहभाव से विकसित एक ही दृष्टि से देखने लगा ।।३६०० ।। और 'मैंने इसको किसी स्थान पर देखा है' ऐसा बार-बार चिंतन करते उसे पूर्व जन्म का स्मरण हो आया और सारा पूर्वजन्म का वृत्तान्त जाना। फिर परम निर्वेद को प्राप्त करते उसने विचार किया कि-हा! हा! अनर्थ के स्थान रूप इस संसारवास को धिक्कार हो, क्योंकि वैसा निर्मल विवेक वाला, धर्म रागी भी और प्रति समय शास्त्रोक्त विधि अनुसार अनुष्ठान को करने वाला भी मैंने उस बाल अर्थात् अज्ञान मरण से ऐसी विषम दशा को प्राप्त की है। अब तिर्यंच जीवन में हूँ, अब मैं क्या कर सकता हूँ? अथवा ऐसा विचार करने से क्या लाभ? इस अवस्था के उचित भी धर्म कार्य करूँ, ऐसे जीवन से क्या है? ऐसा विचार करते उसे थका हुआ मानकर खिलाड़ि, उसे अपने स्थान पर ले गये और उसने वहाँ अनशन स्वीकार किया। उसके बाद श्री पंच परमेष्ठि मंत्र का बार-बार स्मरण करते शुद्ध भाव से मरकर देवलोक में महर्द्धिक देव बना। वहाँ अवधिज्ञान से पूर्व का वृत्तान्त जानकर, यहाँ आकर राजा को प्रतिबोध दिया और सुंदरी को भी प्रतिबोध होने से प्रव्रज्या स्वीकार करने के लिए आचार्य महाराज को सौंपा। इस तरह तिर्यंचपने को प्राप्त जीव को भी पंडित मरण निष्पाप सद्गति रूप नगर के महान् राज्य को देता है। पंडित मरण की महिमा : आजम्मं पि करित्ता, कडमदं रइयपावपब्भारं । पच्छा पंडियमरणं, लहिऊण य सुज्झए जीवो ।।३७१०।। समग्र जीवन तक भी दुर्ध्यान आदि करके पाप समूह का भोग करने वाला जीव अंत में पंडित मरण को प्राप्तकर शुद्ध होता है ।।३७१०।। अनादि काल से संसार रूपी अटवी में फंसा हुआ जीव तब तक पार प्राप्त नहीं करता, जब तक पूर्व में ऐसा कभी भी नहीं मिला हुआ पंडित मरण प्राप्त नहीं होता। पंडित मरण से मरे हुए कई जीव तो उसी ही भव में, कई देवलोक में जाकर पुनः मनुष्य जन्म आकर, श्रावक कुल में जन्म लेकर, और दीर्घकाल साधु जीवन पालनकर. पंडित मरण से मरकर तीसरे जन्म में भी सिद्ध होते हैं। पंडित मरण से मरने वाला जीव नरक और तिर्यंच बिना उत्तम मनुष्य और देवलोक में विलास करके भी आखिर आठवें भव में सिद्ध हो जायगा। उसमें गृहस्थ अथवा साधु निर्जीव प्रदेश में रहे, विधिपूर्वक अतिचार रूपी सभी शल्यों का त्यागकर, सर्व आहार का त्यागकर, छह काय जीवों की रक्षा में तत्पर बनें। अन्य को क्षमा याचना करने में और स्वयं क्षमा देने में भी तत्पर, विराधना का त्यागी, चपलता रहित, जितेन्द्रिय, तीन दण्ड रूप शत्रुओं का विजेता, चार कषाय की सेना को जीतने वाला और शत्रु मित्र पर समभाव रखने वाला, इस तरह पंडित मरण से जो मरता है, वह निश्चय सम्यग् जानना। ___यह पंडित मरण लघुकर्मी समकित दृष्टि जीव को होता है, मिथ्यात्वी को नहीं होता। क्या इस संसार में 158 - For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-पंडित मरण की महिमा श्री संवेगरंगशाला अल्प पुण्यवाला चिंतामणि रत्न प्राप्त कर सकता है? इसलिए उसके बिना अज्ञ जीवों को तो बार-बार बाल मरण सुलभ है, यह बाल मरण अनर्थ को करने वाला और संसारवर्धक है। क्योंकि बाल-अर्थात् मूर्ख, वह पुनः निदानपूर्वक अनशन रूप विविध तपकर मरता है, वह अशुभव्यन्तर की जातियों में उत्पन्न होता है। और वहाँ उत्पन्न हुआ वह बालक के समान हँसी, मजाक, दिल्लगी, काम-क्रीड़ा आदि का व्यसनी वह वैसी क्रीड़ाओं को करता है कि जिससे पुनः अनादि अनंत संसार समुद्र में बार-बार परिभ्रमण करता है। इससे पूर्व कर्मों के क्षय के लिए उद्यमी और धीरपुरुष एक बार पंडित मरण को प्राप्त कर संसार का पार पाने वाला होता है। जो एक पंडित मरण से मरते परते हैं वे पनः अनेक मरण नहीं करते हैं. ऐसे पंडित मरण से आयष्य पूर्ण करने वालों ने अप्रमत्त भाव से चारित्र की आराधना की हैं। संयम गुणों में सम्यक् संवर को करने वाला और सर्व संग से मुक्त होकर जो शरीर का त्याग करता है वही पंडित मरण से मरा कहलाता है। क्योंकि असंवर वाला अनेक काल में भी जितनी कर्म की निर्जरा करता है, उतने कर्मों को संवर वाला और तीन गुप्ति से गुप्त जीव एक श्वास मात्र में खत्म करता है। निश्चय नय से तीन दण्ड का त्यागी, तीनों गुप्ति से गुप्त, तीन शल्यों से रहित त्रिविध-अर्थात् मन, वचन, काया से अप्रमत्त, जगत के सर्व जीवों पर दया में श्रेष्ठ मनवाला, पाँच महाव्रतों में रक्त और संपूर्ण चारित्र रूप अठारह हजार शील गुण से युक्त मुनि विधि पूर्वक मरता है, वह आराधक होता है ।।३७२७।। जीव जब शरीर से पूर्ण अर्थात् सशक्त अथवा व्याधि रहित हो श्रुत के सार रूप परमार्थ को प्राप्त किया हो और धैर्यकाल हो उसके बाद आचार्य भगवंत के द्वारा आदेश दिया हुआ पंडित मरण को स्वीकार करता है। यह रत्न के करंडक समान (रत्नों को रखने की पेटी के समान) पंडित मरण जिसे प्राप्त होता है वह निश्चय उत्तरोत्तर विशुद्धि को प्राप्त करने वाला है, और यह सविशेष पुण्यानुबंध वाले किसी जीव को ही प्राप्त होता है। और उंबर के पुष्प के समान लोक में दुर्लभ यह पंडित मरण पुण्य रहित जीवों को प्राप्त नहीं होता है। यह पंडित मरण निश्चय सर्व मरणों का मरण है। जराओं को नाश करने में प्रतिजरा है और पुनः जन्म का अजन्म है। पंडित मरण से मरने वाला शारीरिक और मानसिक उभय प्रकार से प्रकट होने वाले असंख्य आकृति वाले सर्व दुःखों को जलांजली देता है। और दूसरा-जीवों को जगत में जो इष्ट सुख सानुबन्ध अर्थात् परस्पर वृद्धि वाला होता है। वह सर्व पंडित मरण के प्रभाव से जानना अथवा-इस संसार में जो कुछ भी इष्ट सानुबंधी और अनिष्ट निरनुबंधी होता है, वह सारा पंडित मरण रूपी वृक्ष का फल जानना। एक ही पंडित मरण सर्व भवों के अनिष्टों को नाश करने में समर्थ है। अथवा एक अग्नि का कण क्या ईंधन के समूह को नहीं जलाता? यह पंडित मरण जीवों का हित करने में पिता, माता अथवा बंधु वर्ग समान है और रणभूमि में सुभट के समान समर्थ है। कुगति के द्वार को बंद करने वाला. सगति रूपी नगर के द्वार को खोलने वाला, और पाप रज का नाश करने वाला, पंडित मरण जगत में विजयी रहों। अधम पुरुषों को दुर्लभ और उत्तम पुरुषों के आराधना करने योग्य, उत्तम फल को देने वाला जो पंडित मरण है, वह जगत में विजयी रहें। जो इच्छने योग्य है और जो प्रशंसनीय भी अति दुर्लभ है, उसे भी प्राप्त करने में समर्थ पंडित मरण जगत में विजयी रहें। चिंतामणी, कामधेनु और कल्पवृक्ष को भी निश्चय से जो असाध्य है, उसे प्रास करने में समर्थ पंडित मरण जगत में विजयी रहें। एक ही पंडित मरण अनेक सैंकड़ों जन्मों का छेदन करता है, इसलिए उसी मरण से मरना चाहिए कि जिसके मरने से मरना अच्छा है, वह सदा के लिए अजर अमर हो जाता है। यदि मरने का भय है तो पंडित मरण से मरना चाहिए। क्योंकि एक पंडित मरण अन्य सभी मरणों का नाश करता है। जिसका आचरणकर उत्तम धैर्य वाला पुरुष सर्व कर्मों का क्षय करता है, उस पंडित मरण के गुण समूह के संपूर्ण वर्णन करने में कौन समर्थ है। - 159 For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-श्रेणी नामक तेरहवाँ प्रतिद्वार-स्वयंभूदत्त की कथा इस तरह पापरूपी अग्नि का नाश करने में जल के समूह रूप संवेगरंगशाला नाम की आराधना के मल परिकर्म विधि नामक द्वार में कहे हुए पन्द्रह अंतर द्वारों में क्रमशः यह अधिगत मरण नामक बारहवाँ प्रतिद्वार कहा। इस अधिगत मरण को स्वीकार करने पर भी श्रेणी बिना जीव आराधना में आरूढ़ होने अर्थात् ऊँचे गुणस्थान पर चढ़ने में समर्थ नहीं होता है। अतः अब श्रेणी द्वार कहते हैं ।।३७४६।। श्रेणी नामक तेरहवाँ द्वार : यह द्रव्य और भाव से दो प्रकार की श्रेणी है। इसमें ऊँचे स्थान पर चढ़ने के लिए सोपान आदि द्रव्य श्रेणी जानना। और संयम स्थानों की लेश्या और स्थिति की तारतम्यता वाला शुद्धतर केवलज्ञान की प्राप्ति तक प्राप्त करना या अनुभव करना उसे भाव श्रेणी जानना। वह इस तरह-जैसे महल पर चढ़नेवाले को द्रव्य श्रेणीरूपी सीढ़ी होती है, वैसे ही ऊपर से ऊपर के गुणस्थानक को प्राप्त करने वाले को भाव श्रेणी रूपी सीढ़ी होती है। इस भाव श्रेणी के ऊपर चढ़ा हुआ उद्गमादि दोषों से दूषित वसति का और उपधि का त्यागकर निश्चित संयम में सम्यग् विचरण करता है। वह आचार्य के साथ आलाप-संलाप करता है और कार्य पड़ने पर शेष साधुओं के साथ बोलता है, उसे मिथ्या दृष्टि लोगों के साथ मौन और समकित दृष्टि तथा स्वजनों से बोलें अथवा नहीं भी बोलें। अन्यथा यथातथा परस्पर बातों में आकर्षित चित्त प्रवाह वाला किसी आराधक को भी प्रमाद से प्रस्तुत अर्थ में अर्थात् आराधना में विघ्न भी हो, इससे आराधना करने की इच्छा वाले उसमें ही एकचित्त वाले श्रेणी का प्रयत्न करें, क्योंकि इस श्रेणी का नाश होने से स्वयंभूदत्त के समान आराधना नाश होती है ।। ३७५३।। वह इस प्रकार है : स्वयंभूदत्त की कथा कंचनपुर नगर में स्वयंभूदत्त और सुगुप्त नामक परस्पर दृढ़ प्रीतिवाले और लोगों में प्रसिद्ध दो भाई रहते थे। अपने कुलक्रम के अनुसार से, शुद्ध वृत्ति से आजीविका को प्राप्त कर वे समय सुखपूर्वक व्यतीत करते थे। एक समय क्रूर ग्रह के वश बरसात के अभाव से नगर में अति दुःखद भयंकर दुष्काल पड़ा। तब बहुत समय से संग्रह किया हुआ बहुत बड़ा जंगी घास का समूह, और बड़े-बड़े कोठार खत्म हो गयें। इससे कमजोर पशुओं को और मनुष्यों को देखकर उद्विग्न बनें राजा ने नीतिमार्ग को छोड़कर अपने आदमियों को आज्ञा दि कि-अरे! इस नगर में जिसका जितना अनाज संग्रह हो उससे आधा-आधा जबरदस्ती जल्दी ले आओ। इस तरह आज्ञा को प्राप्त कर और यम के समान भृकुटी रचना से भयंकर उन राजपुरुषों ने सर्वत्र उसी प्रकार ही किया। इससे अत्यंत क्षधा से धन-स्वजन के नाश से. और अत्यंत रोग के समह से व्याकल लोग सविशेष मरने लगे. और घर मनुष्यों से रहित बनने के कारण, गलियाँ (गलियों में इतने शब पड़े हुए थे।) धड़-मस्तक से दुर्गम बनने के कारण एवं लोगों को अन्य स्वस्थ देशों में जाने के कारण वह स्वयंभूदत्त भी अपने भाई सुगुप्त सहित नगर में से निकलकर परदेश जाने के लिए एक सार्थवाह के साथ हो गया। साथ ही लम्बा रास्ता पार करने के बाद जब एक अरण्य में पहुँचे, तब युद्ध में तत्पर शस्त्रबद्ध भिल्लों का धावा आ गया। जोर से चिल्लाते, भयंकर धनुष्य ऊपर चढ़ाये हुए बाण वाले, बाँधे हुए मस्तक के ऊँचे चोटी वाले, यम ने भेजे हों इस तरह, तमाल ताड़ के समान काले, शत्रुओं को नाश करने में समर्थ, चमकती तेजस्वी तलवार वाले, इससे मानो बिजली सहित काले बादलों की पंक्ति हो इस तरह भयंकर, जंगली हाथियों को नाश करने वाले, हिरणों के मांस से अपना पोषण करने वाले मांसाहारी, उत्तम लोगों को दुःखी करने वाले, और युद्ध करने में एक सदृश रस रखने वाले, उन्होंने एकदम धावा 160 For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-स्वयंभूदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला बोल दिया। फिर युद्ध में समर्थ सार्थपति के सुभट भी भाले, तलवार, बरछी आदि शस्त्र हाथ में लेकर उनके साथ युद्ध करने लगे। इसमें बलवान समर्थ सुभट मरने लगे। कायर पुरुष डर के कारण भाग गये और सार्थवाह बहुत दुःखी हुआ। कलिकाल जैसे धर्म का नाश करता है, वैसे अत्यंत निर्दय और प्रचंड बल वाले भिल्ल समूह ने सारे सार्थ को लूट लिया। उसके बाद सार-सार वस्तुओं को लूटकर और सुंदर स्त्रियों को तथा पुरुषों को कैद करके भिल्लों की सेना पल्ली में गयी। अपने छोटे भाई से अलग पड़े उस स्वयंभूदत्त को भी किसी तरह 'यह धनवान है' ऐसा मानकर भिल्लों की सेना ने पकड़ा और भिल्लों ने चिरकाल तक चाबुक के प्रहार और बंधन आदि से, निर्दयता से सख्त मारते हुए भी जब उसने अपने योग्य कुछ भी वस्तु होने का नहीं माना, तब भय से काँपते सर्व शरीर वाले उसको, वे भिल्ल प्रचण्ड रूप वाली चामुण्डा देवी को बलिदान देने के लिए ले गयें। मरे हुए पशु और भैंसे के खून की धाराओं से वह मंदिर अस्त-व्यस्त था। दरवाजे पर बाँधे हुए बड़े अनेक घंट विरस आवाज से बज रहे थे। पुण्य की मान्यता से हमेशा भिल्ल उसकी तर्पण क्रिया में जीवों का बलिदान करते थे। लाल कनेर के पुष्पों की माला से उसका पूजा उपचार किया जाता था, और वह हाथी के चमड़े की वस्त्रधारिणी तथा भयंकर रूप वाली थी। उस चामुण्डा के पास स्वयंभूदत्त को ले जाकर भिल्लों ने कहा कि-हे अधम वणिक्! यदि जीना चाहता है तो अब भी शीघ्र हमें धन देने की बात स्वीकार कर। अकाल में यम मंदिर में क्यों जाता है? ऐसा बोलते उस स्वयंभूदत्त के ऊपर तलवार से घात करता है। उसके पहले अचानक महान कोलाहल उत्पन्न हुआ-अरे! इन बिचारों को छोड़ो और स्त्रियों, बालक और वृद्धों का नाश करने वाले इन शत्रु वर्ग के पीछे लगों। विलम्ब न करों। इस पल्ली का नाश हो रहा है. और घर जल रहा है। यह शब्द सनकर स्वयंभदत्त को छोडकर. चिर वैरी सभटों का आगमन जानकर, पवन को भी जीते ऐसे वेग से वे भिल्ल चामुण्डा के मंदिर में से तुरंत निकले। और 'मैंने आज ही जन्म लिया अथवा आज ही सारी सम्पत्तियाँ प्राप्त की' ऐसा मानता स्वयंभूदत्त वहाँ से उसी समय भागा। फिर भयंकर भिल्लों के भय से घबराता पर्वत की खाई के मध्य में होकर बहुत वृक्ष और लताओं के समूह से युक्त उजड़ मार्ग में चलने लगा, परंतु मार्ग में ही उसे सर्प ने डंख लगाया, इससे महाभयंकर वेदना हुई। इस कारण से उसने मान लिया कि अब निश्चय ही मैं मर जाऊँगा। जो कि महा मुश्किल से भिल्लों से छुटकारा प्राप्त किया तो अब यम समान सर्प ने डंख लगाया। हा! हा! विधि का स्वरूप विचित्र है। अथवा जन्म मरण के साथ, यौवन जरा के साथ, संयोग वियोग के साथ ही जन्म होता है, तो इसमें शोक करने से क्या लाभ? ऐसा विचार करते जैसे ही ठण्डे वृक्ष की छाया की ओर जाता है, वहाँ वृक्ष के नीचे रहे महासात्विक, विचित्र-नय सप्तभंगी से युक्त, दुर्जय सूत्र शास्त्र का परावर्तन करते, पद्मासन में बैठे हुए धीर और शान्त मुद्रा वाले चारण मुनि को देखा। _ 'हे भगवंत! विषय विष वाले सर्प के जहर से व्याकुल मुझे इस समय आपका ही शरण हो।' ऐसा कहते हए वह बेहोश होकर वहीं पर ही नीचे गिर पड़ा। उसके बाद जहर से बेहोश बने उसे देखकर उस महामुनि ने करुणा से ऐसा विचार किया कि-'अब क्या करना योग्य है? सर्व जीवों को आत्म-तुल्य मानने वाला, साधुओं को पाप कार्यों में रक्त गहस्थों की उपचार सेवा में प्रवत्ति करना योग्य नहीं है। क्योंकि उसकी सेवा करने से निष्पाप जीवन वाले साधुओं को भी गृहस्थ जो-जो पाप स्थानक का सेवन करें उसमें उसके प्रति रागरूपी दोष से निमित्त कारण बनता है। परंतु यदि उपचार करने के बाद वह गृहस्थ तुरंत सर्व संग छोड़कर प्रव्रज्या स्वीकार करके सद्धर्म के कार्यों में उद्यम करें तो उनकी की हुई निर्जरा भी मुनि को होती है।' ऐसा विचार करते उस साधु की दाहिनी आँख सहसा निमित्त बिना ही फड़कने लगी। इससे उसने उपकार होने की सम्भावना करके उसके __161 For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-स्वयंभूदत्त की कथा पैर के अंदर ऊपर के भाग में सूक्ष्म और विकार रहित सर्प के डंख को देखकर उस महामुनि ने चिंतन किया किनिश्चय यह जियेगा। क्योंकि-सर्प दंश का स्थान विरुद्ध नहीं है, शास्त्र में मस्तक आदि को ही विरुद्ध कहा है। वह इस प्रकार से : मस्तक, लिंग, चिंबुक अर्थात् होंठ के नीचे भाग में, गले, शंख, नेत्र और कान के बीच-कनपटी में तथा अंगूठे, स्तन भाग में, होंठ, हृदय, भृकुटी, नाभि, नाक, हाथ, पैर के तलवे में. कंधा, नख, नेत्र, कपाल, केश और संधी स्थान पर यदि सर्प डंख लगा हो तो यम के घर जाता है। तथा पंचमी, अष्टमी, षष्ठी, नवमी और चतुर्दशी की तिथियों में यदि सर्प डंख लगा हो तो पखवारे में मरता है। परंतु आज तिथि भी विरुद्ध नहीं है।।३८०० ।। नक्षत्र भी मघा, विशाखा, मूल, आश्लेषा, रोहिणी, आर्द्रा और कृतिका दुष्ट है, वह भी इस समय नहीं है और पूर्व मुनियों ने सर्प डंख लगने से मनुष्य को इतने अमंगल कहे हैं। शरीर कंप, लाल पड़ना, उबासी, आँखों की लाली, मूर्छा, शरीर टूटना, गाल में कृशता, कांति कम हो, हिचकी और शरीर की शीतलता, यह तुरंत मृत्यु के लिए होती हैं। इसमें से एक भी अमंगल नहीं दिखता है। इसलिए इस भव्य आत्मा के विष का प्रतिकार करूँ। क्योंकि-जैन धर्म दया प्रधान धर्म है। ऐसा विचारकर ध्यान से नम्र बनाये स्थिर नेत्रों वाले वे महामुनि सम्यक् पूर्वक विशिष्ट सूत्र का स्मरण करने लगे। फिर जब उस महात्मा ने शरदचंद्र के सतत् फैलती प्रभा के समान शोभती उज्ज्वल एवं अमृत की नीक का अनुकरण करती शीतल अक्षरों की पंक्ति को उच्चारण की, तब सूर्य के तेज समूह से अंधकार जैसे नाश होता है वैसे उसका महासर्प का जहर नाश हुआ और वह सोया हुआ जागता है, वैसे स्वस्थ शरीर वाला उठा। उसके बाद 'जीवनदाता और उत्तम साधु है' ऐसा राग प्रकट हुआ और अति मानपर्वक वह चारण मनि को नमस्कार करके कहने लगा कि-हे भगवंत! मैं मानता हूँ कि भ्रमण करते भयंकर शिकारी प्राणियों से भरी हुई इस अटवी में आपका निवास मेरे पुण्य से हुआ है। अन्यथा हे नाथ! यदि आप यहाँ नहीं होते, तो महा विषधर सर्प के जहर से बेहोश हुआ मेरा जीवन किस तरह होता? कहाँ मरुदेश और कहाँ फलों से समृद्धशाली महान कल्पवृक्ष? अथवा कहाँ निर्धन का घर और कहाँ उसमें रत्नों की निधि? इसी तरह अति दुःख से पीड़ित मैं कहाँ? और अत्यंत प्रभावशाली आप कहाँ? अहो! विधि के विलासों के रहस्य को इस जगत में कौन जान सकता है? हे भगवंत! ऐसे उपकारी आपको क्या दे सकता हूँ अथवा क्या करने से निर्भागी मैं ऋण मुक्त हो सकता हूँ? मुनि ने कहा कि-हे भद्र! यदि ऋण मुक्त होने की इच्छा है तो तूं अब निष्पाप प्रव्रज्या (दीक्षा) को स्वीकार कर। मैंने तेरे ऊपर उपकार भी निश्चय इस प्रव्रज्या के लिए किया है। अन्यथा अविरति की चिन्ता करने का उत्तम मुनियों को अधिकार नहीं है। और हे भद्र! मनुष्यों का धर्म-रहित जीवन प्रशंसनीय नहीं है। इसलिए घर का राग छोड़कर, रागरहित उत्तम साधु बन। उसके बाद भाल प्रदेश पर हस्तकमल की अंजली जोड़कर उसने कहा कि-हे भगवंत! ऐसा ही करूँगा, केवल छोटे भाई का राग मेरे मन को पीड़ित करता है, यदि किसी तरह उसके दर्शन हों तो शल्य रहित और एकचित्त वाला मैं प्रव्रज्या स्वीकार करूँ। मुनि ने कहा कि-हे भद्र! यदि तूं जहर के कारण मर गया होता तो किस तरह छोटे भाई को देखने के योग्य होता? अतः यह निरर्थक राग को छोड़ दे और निष्पाप धर्म का आचरण कर, क्योंकि-जीवों को यह धर्म ही एक बन्धु भ्राता और पिता तुल्य है। मुनि के ऐसा कहने से स्वयंभूदत्त ने श्रेष्ठ विनयपूर्वक प्रव्रज्या को स्वीकार की, और विविध तपस्या करने लगा। दुःसह परीषह की सेना को सहन करते, महासात्त्विक उस गुरु के साथ में गाँव, नगर आदि से युक्त धरती ऊपर विचरने लगा। इस तरह ज्ञान, दर्शनादि गुणों से युक्त उसने दीर्घकाल गुरु के साथ में विहारकर, अंत में आयुष्य को अल्प 162 For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार श्री संवेगरंगशाला जानकर भक्त परीक्षा अनशन स्वीकार करते उसे गुरु ने समझाया कि-हे महाभाग! अंतकाल की यह सविशेष आराधना बहुत पुण्य से मिलती है। इसलिए स्वजन, उपधि, कुल, गच्छ में और अपने शरीर में भी राग मत करना, क्योंकि यह राग अनर्थों का मूल है। तब 'इच्छामो अणुसर्टि' अर्थात् आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ। ऐसा कहकर गुरु की वाणी में दृढ़ रति वाले स्वयंभूदत्त ने अनशन को स्वीकार किया। और उसके पुण्योदय से आकर्षित होकर नगर जन उसकी पूजा करने लगे। इधर पूर्व में अलग पड़ा हुआ वह सुगुप्त नाम का उसका छोटा भाई परिभ्रमण करता हुआ उस स्थान पर पहुँचा, और नगर के लोगों को मुनि के वंदन के लिए एक दिशा की ओर जाते देखकर उसने पूछा कि-ये सभी लोग वहाँ क्यों जा रहे हैं? एक मनुष्य ने उससे कहा कि-यहाँ प्रत्यक्ष सद्धर्म के भंडार रूप एक महामुनि अनशन कर रहे हैं, इसलिए तीर्थ के सदृश उनको वंदनार्थ ये लोग जा रहे हैं। ऐसा सुनकर कुतूहल से सुगुप्त भी लोगों के साथ में स्वयंभूदत्त साधु को देखने के लिए उस स्थान पर पहुँचा। फिर मुनि के रूप में भाई को देखकर वह बड़े जोर से रोता हुआ कहने लगा कि-हे भाई! हे स्वजन वत्सल! कपटी साधुओं से तूं किस तरह ठगा गया? कि अतिकृश शरीरवाला, तूंने ऐसी दशा प्राप्त की है। अब भी शीघ्र इस पाखण्ड को छोड़ और अब हम अपने देश जायेंगे। तेरे वियोग से निश्चय मेरा हृदय अभी भी फट जायगा। उसने ऐसा कहा। तब स्वयंभूदत्त ने भी कुछ राग से उसे पास बुलाकर पूर्व का सारा वृत्तान्त पूछा। और दुःख से पीड़ित उसने भी शोक से भाग्य फूटे शब्द वाली वाणी से 'भिल्लों का धावा से अलग हुआ' इत्यादि अपना वृत्तान्त कहा। फिर ऐसे करुण शब्दों के सुनने से स्नेह राग प्रकट होने से कलुषित ध्यान वाला स्वयंभूदत्त सर्वार्थ सिद्धि की प्राप्ति के योग अध्यवसाय होते हुए भी उसे छोड़कर भाई के प्रति स्नेहरूपी दोष से मरकर सौधर्म देवलोक में मध्यम आयुष्यवाला देव हुआ।।३८३८।। इस तरह भावश्रेणी में जो योग व्यापार बाधक हो उसे आराधना के अभिलाषी यत्नपूर्वक तजें। इससे ही प्रयत्नपूर्वक आराधना रूपी ऊँचे महल की भाव सीढ़ी पर चढ़नेवाला आचार्य के साथ ही आलाप संलाप करें, मिथ्या दृष्टि लोग से मौन रहे इत्यादि यथायोग्य करना चाहिए। इससे अनशन को करने वाला सर्व सखशीलत का त्यागकर, और भावश्रेणी में आरोहणकर राग मुक्त होकर रहें। इस तरह कामरूपी सर्प को नाश करने में गरुड़ की उपमा वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार के प्रस्तुत पन्द्रह प्रतिद्वारों के क्रमानुसार श्रेणी संबंधी यह तेरहवाँ अंतर द्वार कहा।।३८४५।। अब श्रेणी में चढ़ा हुआ भी भाव के बिना स्थिर नहीं हो सकता। इसलिए भाव द्वार को सविस्तार कहता भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्वार : इससे जीव भावना वाला बनता है, इस कारण से इसे भावना कहते हैं। यह भावना अप्रशस्त और प्रशस्त दो प्रकार की होती है। उसमें-(१) कन्दर्प, (२) देव किल्विष, (३) आभियोगिक, (४) आसुरी, और (५) संमोह। यह पाँच प्रकार की भावना निश्चय से अप्रशस्त है। उसमें अर्थात् अप्रशस्त भावनाओं में अपने आपको हास्यादि अनेक प्रकार से भावित करें, वह कन्दर्प भावना जानें। कन्दर्प द्वारा, कौत्कुच्य से, द्रुतशीलपने से, हास्य करने से और दूसरे को आश्चर्य उत्पन्न करवाने वाली बात करने से। इस तरह पाँच भेद होते हैं। १. कंदर्प : उसमें बड़ी आवाज से हँसना, दूसरों को हँसाना, गुप्त शब्द कहना, तथा काम वासना की बातें करनी, __163 For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार काम वासना का उपदेश, और उसकी प्रशंसा करनी। इस तरह प्रथम कन्दर्प भावना के अनेक भेद जानना। कौत्कुच्य भावना अर्थात् पुनः उसी तरह कि जिसमें स्वयं नहीं हँसता, परंतु विविध चेष्टाओं को करके अपनी आँखें, भृकुटी आदि अवयवों से दूसरे को हँसाना। द्रुतशीलत्व-अर्थात् निश्चित रूप से अहंकार से चलना, अहंकार से बोलना इत्यादि तथा सर्व कार्यों में अति ही शीघ्रता करना। हास्य क्रिया-अर्थात् विचित्र वेश धारण द्वारा, अथवा विकारी वचनों से या मुख द्वारा स्वपर को हँसाना। और विस्मयकरण-अर्थात् स्वयं लेशमात्र भी विस्मय प्राप्त किए बिना इन्द्रजाल चमत्कारी मंत्र तंत्रादि से अथवा वक्र वचन आदि द्वारा अन्य को आश्चर्य प्रकट करवाना। इस तरह कन्दर्प भावना कही है। अब दुष्ट हलके देवत्व को प्राप्त करने वाली पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कहते हैं। २. किल्विषिक भावना :- इसके भी पाँच भेद हैं-(१) श्रुतज्ञान की अवज्ञा, (२) केवलि भगवंत की अवज्ञा, (३) धर्माचार्य की अवज्ञा, (४) सर्व साधुओं का अवर्णवाद बोलना तथा (५) गाढ़ माया करना। इसमें जीव, व्रत, प्रमाद आदि के जो भाव एक ग्रंथ में कहे हैं वही भाव दसरे ग्रंथों में भी बार-बार कहा है इत्यादि से अपमान करना वह प्रथम श्रुतज्ञान की अवज्ञा है। यदि वे सच्चे वीतराग हैं तो पक्षपात युक्त केवल भव्य जीवों को ही क्यों धर्म का उपदेश देते हैं। इस तरह उनकी निन्दा करना यह दूसरी केवलि अवज्ञा है। धर्म, आचार्य की जाति, कुल, ज्ञान आदि की निंदा करना वह तीसरी धर्माचार्य की अवज्ञा है। साधु को एक क्षेत्र में प्रेम-प्रसन्नता नहीं रहती, इसलिए अनेक गाँव में घूमते रहते हैं इत्यादि नाना प्रकार के शब्द बोलना चौथी सर्व साधु की निंदा है और अपने हृदय के भाव को छुपाना इत्यादि कपट प्रवृत्ति करने से होती है वह पाँचवीं गाढ़ माया जानना। इस तरह पाँच प्रकार की दूसरी किल्विषिक भावना कही है। ३. आभियोगिक भावना :- गारव में आसक्ति वाला जो वशीकरण मंत्रादि से अपने को वासित करता है वह आभियोगिक भावना जानना। वह भावना-(१) कौतुक, (२) भूतिकर्म, (३) प्रश्न, (४) प्रश्नाप्रश्न और (५) निमित्त कहने से पाँच प्रकार की होती है। इसमें अग्नि के अंदर होम करना, औषध आदि द्वारा अन्य को वश करके जो भोजन आदि प्राप्त करना वह प्रथम कौतुक आजीविका है। और भूतिकर्म-रक्षा सूत्र अर्थात् रक्षा-बंधन, वासक्षेप आदि से दूसरों की रक्षा करके आहार आदि को प्राप्त करना वह दूसरा भूतिकर्म आजीविका कहलाता है। अंगूठे आदि में देव को उतारकर, उसे पूछकर दूसरे के प्रश्न का निर्णय देकर भोजनादि की प्राप्ति करना उसे ज्ञानियों ने तीसरी प्रश्न आजीविका कही है। स्वप्न विद्या, घण्टाकर्ण पिशाचि की विद्या अथवा ऐसी किसी विद्या द्वारा पर के अर्थ का निर्णय करके आजीविका चलानी, उसे महामुनियों ने चौथी प्रश्नाप्रश्न आजीविका कही है। निमित्त शास्त्र द्वारा दूसरों को लाभ-हानि आदि बताना, उसके द्वारा जो आहार आदि प्राप्त करना उसे गुरुदेवों ने निमित्त आजीविका कही है। इस तरह आभियोगिक भावना का वर्णन किया। अब असुर निकाय देव की संपत्ति देने वाली भावना का वर्णन करते हैं। ४. आसुरिक भावना :- यह पाँच प्रकार की है-(१) बार-बार कलहकरण, (२) संसक्त तप, (३) निमित्त कथन, (४) क्रूरता, और (५) निरनुकंपात्व। इसमें हमेशा लड़ाई-झगड़े करने में प्रीति रखना उसे प्रथम कलहकरण कहते हैं और आहारादि प्राप्त करने के लिए तप करना वह दूसरा संसक्त तप जानना। अभिमान से अथवा द्वेष से साधु द्वारा गृहस्थ को जो भूत-भावि आदि के भाव बतलाना-तेजी-मन्दी कहना वह तीसरा निमित्त कथन है। पुष्ट शरीरवाला समर्थ का पश्चात्ताप बिना-निध्वंस भाव से त्रसादि जीवों के ऊपर चलना, उस पर बैठना, खड़े रहना, सोना आदि करना वह चौथी निष्कृपा भावना (कठोरता) कहा है। और दुःख से पीड़ित तथा 164 For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-भावना नामक चौदहवाँ प्रतिद्धार श्री संवेगरंगशाला भय से अति कांपते हुए देखकर भी जो निष्ठुर हृदयवाला है उसे पाँचवा निरनुकम्पात्व कहते हैं। इस तरह आसुरी भावना के पाँच भेद कहे। ___ अब स्वयं को पर को भी मोह उत्पन्न करने वाली संमोह भावना कहते हैं। ५. संमोह भावना :- इसके भी पाँच भेद हैं-(१) उन्मार्ग देशना, (२) मार्ग दूषण, (३) उन्मार्ग का स्वीकार, (४) मोह मूढ़ता, और (५) दूसरे को महामूढ़ बनाना। उसमें (१) उन्मार्ग देशना-मोक्ष मार्ग रूप सम्यग्ज्ञान आदि में दोष बताकर, उससे विपरीत मिथ्या मोक्ष मार्ग के उपदेश देने वाले को जानना। मोक्ष के मार्गभूत, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के तथा उसमें स्थिर रहें श्रद्धावान् मनुष्यों के दोष कहना दोष की मूलभूत (२) मार्ग दूषण भावना होती है। अपने स्वच्छ वितर्कों द्वारा मोक्ष मार्ग को दोषित मानकर उन्मार्ग के अनुसार चलने वाले जीव को (३) मार्ग विप्रतिपत्ति भावना जानना। अन्य मिथ्या ज्ञान में, अन्य के मिथ्या चारित्र में तथा परतीर्थ वालों की संपत्ति को देखकर मुरझा जाना वह (४) मोह मुढ़ता भावना कहलाती है जैसे कि सरजस्क, गैरिक, रक्तपट आदि के धर्म को मैं सच्चा मानता हूँ कि जिससे लोक में ऐसा महान् पूजा सत्कार हुआ है। और सद्भावना से कपट से भी लोगों को किसी भी प्रयत्न द्वारा अन्य कुमत में जो आदर मोह प्राप्त करवाना वह (५) मोह जनन भावना कहलाती है। चारित्र की मलिनता में हेतुभूत और अत्यंत कठोर दुर्गति को देने वाली ये पाँच अप्रशस्त भावनाओं का अल्पमात्र वर्णन किया है। संयत चारित्रवान् यदि साधु किसी प्रकार इन अप्रशस्त भावनाओं में प्रवृत्ति करता है, वह (उस समय देवायुष्य का बंध कर रहा है तो) उसी प्रकार की देवयोनि में उत्पन्न होता है। चारित्र रहित को तो हल्की देव योनि मिलती है, ऐसा जानें। इन भावनाओं द्वारा अपने को उसमें वासित करता जीव दुष्ट देव गति में जाता है। और वहां से आयुष्य पुर्ण करके अनंत संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। इसलिए इन भावनाओं का दूर से त्यागकर सर्व संग में राग रहित महामुनिराज को सम्यक् सुप्रशस्त भावनाओं से वासित बनना चाहिए।।३८८४।। अब प्रशस्त भावनाओं का वर्णन करते हैं। प्रशस्त भावना :- इसके पाँच भेद हैं-(१) तप भावना, (२) श्रुत भावना, (३) सत्त्व भावना, (४) एकत्व भावना, और (५) धीरज बल भावना। उसमें (१) तप भावना-तप भावना से दमन की हुई पाँचों इन्द्रियाँ जिसकी वश हुई हों, उन इन्द्रियों को वश करने में अभ्यासी आचार्य उन इन्द्रियों को समाधि में साधन बनाता है। मुनिजन के निंदित, इन्द्रियों के सुख में आसक्त और परीषहों से पराभव प्राप्त करने वाला, जिसने वैसा अभ्यास नहीं किया, वह नपुंसक व्यक्ति आराधना काल में व्याकुल बनता है। जैसे चिरकाल तक सुख से लालन-पालन किया हो और योग अभ्यास को नहीं सिखाया हो वह घोड़ा युद्ध के मैदान में लगाने से कार्य सिद्ध नहीं कर सकता, वैसे पूर्व में अभ्यास किये बिना के मरण काल में समाधि को चाहता जीव भी परीषहों को सहन नहीं कर सकता और विषयों के सुख को छोड़ नहीं सकता। (२) श्रुत भावना-इसमें श्रुत के परिशीलन से ज्ञान, दर्शन, तप और संयम आत्मा में होता है, इससे वह व्यथा बिना सुखपूर्वक उसे उपयोगपूर्वक चिंतन में ला सकता है। जयणापूर्वक योग को परिवासित करने वाला, अभ्यासी आत्मा श्री जिनवचन का अनुकरण करने वाला, बुद्धिशाळी आत्मा घोर परीषह आ जाये तो भी परिणाम से भ्रष्ट नहीं होता है। 165 For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-एकत्व भावना वाले मुनि की कथा-आर्य महागिरि का प्रबन्ध (३) सत्त्व भावना-शारीरिक और मानसिक उभय दुःख एक साथ आ जायें तो भी सत्त्व भावना से जीव भूतकाल में भोगे हुए दुःखों का विचारकर व्याकुल नहीं होता। तथा सत्त्व भावना से धीर पुरुष अपने अनंत बाल मरणों का विचार करते यदि मरण आ जाए तो भी व्याकुल नहीं बनता। जैसे युद्धों से अपनी आत्मा को अनेक बार अभ्यासी बनाने वाला सुभट रण-संग्राम में आकुल-व्याकुल नहीं होता, वैसे सत्त्व का अभ्यासी मुनि उपसर्गों में व्याकुल नहीं होता। दिन अथवा रात्री में भयंकर रूपों द्वारा देवों के डराने पर भी सत्त्व भावना से पूर्ण आत्मा धर्म साधना में अखण्डता वहन करता है। (४) एकत्व भावना-एकत्व भावना से वैराग्य को प्राप्त करने वाला जीव कामभोगों में मन के अंदर अथवा शरीर में राग नहीं करता, परंतु श्रेष्ठ धर्म का पालन करता है। जैसे व्रत भंग होते अपनी बहन में जिन कल्पित मुनि एकत्व भावना से व्याकुल नहीं हुए, उसी तरह तपस्वी भी व्याकुल नहीं होता है। वह इस प्रकार है ।।३८९७।। एकत्व भावना वाले मुनि की कथा पुष्पपुर में पुष्पकेतु राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उससे पुत्र-पुत्री का जोड़ा उत्पन्न हुआ। उचित समय पर पुत्र का नाम पुष्पचूल और पुत्री का नाम पुष्पचूला रखा। क्रमशः उन दोनों ने यौवन वय को प्राप्त किया। परस्पर उनका अत्यंत दृढ़ स्नेह को देखकर, उनका परस्पर वियोग न हो, इसलिए राजा ने अनुरूप समय पर ।।३९००।। समान रूप वाले पुरुष के साथ विवाह करवाया और अब वह अपने घर ही रहकर पुष्पचूला पति के साथ समय व्यतीत करती थी। बहन के सतत् परम स्नेह में बँधा हुआ पुष्पचूल भी अखण्ड राज्य लक्ष्मी को इच्छानुसार भोगता था। एक समय परम संवेग को प्राप्त करने से वह महात्मा पुष्पचूल दीक्षित हुआ, और उसके स्नेह से पुष्पचूला ने भी दीक्षा ग्रहण की। फिर सूत्र अर्थ का अभ्यास कर उस धीरपुरुष पुष्पचूल मुनि जिनकल्प को स्वीकार करने के लिए आत्मा को एकत्व भावना के अत्यंत अभ्यासी होने लगे। तब एक देव ने उनकी परीक्षा के लिए पुष्पचूला का दूसरा रूप बतलाकर जार पुरुष पुष्पचूला का बलात्कार से व्रत भंग करने लगा। तब वह उस दुःख से पीड़ित हो बोली- 'हे बड़े भाई मेरी रक्षा करो।' उसे देखते हुए भी शुद्ध परिणाम वाले उस धीमान् पुष्पचूल मुनि ने उसकी अवगणना की-हे जीव! तूं अकेला ही है, ये बाह्य स्वजनों के योग से तुझे क्या है? इस तरह एकत्व भावना के वासित धर्म ध्यान से अल्पमात्र भी चलित नहीं हुए। ५. धैर्य बल भावना :- यदि अत्यंत दुःसह लगे और अल्प सत्त्व वालों को भयजनक समग्र परीषहों की सेना उपसर्ग सहित चढ़कर आये तो भी धीरता से अत्यंत दृढ़, शीघ्र एक साथ पीड़ा होते हुए भी मुनि को अपना इच्छित पूर्ण होता हो, इस तरह व्याकुलता रहित उसे सहन करता है। यह विशुद्ध भावना से चिरकाल आत्म शुद्धि करके मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र में उत्कृष्टता से विचरण करता है। जिनकल्प को स्वीकारकर महामुनि इन भावनाओं द्वारा जैसे आत्मा की समर्थता बतलाता है, वैसे ही यह उत्तमार्थ का साधक भी यथाशक्ति इन भावनाओं से अपने को वासित करता है, उसमें किसी का दोष नहीं है? इसलिए सत्त्व वाले भगवंत श्री आर्य महागिरि को ही धन्य है कि जिन्होंने जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी उसका परिकर्म-अर्थात् आचरण किया था ।।३९१२ ।। वह इस प्रकार है : आर्य महागिरि का प्रबन्ध कुसुमपुर नगर के नंद राजा को सम्यग् बुद्धि का समुद्र, जैनदर्शन के भेदों को जानने वाला, शकडाल 166 For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्म विधि द्वार-एकत्य भावना वाले मुनि की कथा-आर्य महागिरि का प्रबन्ध श्री संवेगरंगशाला नामक श्रावक मंत्री था। रूप से कुबेर के पुत्र समान, पवित्र गुणों से शोभित, अत्यंत विलासी और भोगी, स्थूल भद्र नामक उसका पुत्र था। जब वररुचि के प्रपंच से नंद राजा को रुष्ट हुआ देखकर शकडाल ने जहर खाकर मृत्यु की सिद्धि की, तब महासात्त्विक स्थूलभद्र को राजा ने कहा कि-हे धीर! तेरे पिता के मंत्री पद को स्वीकार कर और कुविकल्प छोड़कर, प्रचन्ड राज्य भार को पूर्व की नीति द्वारा धारण कर।' फिर घरवास को बाह्य से मधुर और परिणाम से अहितकर जानकर तथा विषय की आसक्ति को छोड़कर उस स्थूलभद्र ने संयम रूपी उत्तम योग को स्वीकार किया। तथा आचार्य श्री संभूतविजयजी के पास सूत्र अर्थ का अभ्यास करके उस समय में श्रेष्ठ चारों अनुयोग के धारण करने वाले अनुयोगाचार्य हुए। काम की शक्ति को चकनाचूर करने वाले उस महात्मा ने पूर्व परिचित उपकोशा वेश्या के घर में चातुर्मास किया। ऐसा अति आश्चर्यकारी उनका च कौन आनंद से विभोर रोमांचित से व्याप्त शरीरवाला नहीं होता है? उस उपकोशा के घर में रहकर उन्होंने ऐसा अपना परिचय दिया कि वही धीर है कि विकार का निमित्त होते हुए भी जिसका मन विकार वाला नहीं बना। सिंह गुफा के द्वार पर काउस्सग्ग करने वाले आदि उत्तम चार मुनियों में गुरु ने जिसकी 'अतिदुष्कर दुष्करकारी' ऐसा कहकर प्रशंसा की। उसके निर्मल शीलगुण से आनंदित मन वाली उपकोशा ने भी राजा ने सौंपे हुए रथकार के समक्ष अपनी भक्ति पूवर्क उसकी प्रशंसा की कि-आमों का गुच्छा तोड़ना कोई दुष्कर कार्य नहीं है, और न सरसों पर नाचना भी दुष्कर है। महादुष्कर तो यह है कि जिस महानुभाव स्थूलभद्र मुनि ने स्त्रियों की अटवी में भी अमूर्च्छित रहें। इस तरह शरदपूर्णिमा के चंद्र समान निर्मल यशरूपी लक्ष्मी से जगत की शोभा बढ़ाने वाले उस स्थूलभद्र महामुनि के श्री आर्य महागिरि तथा श्री आर्यसुहस्ति दो शिष्य थे। वे भी वैसे ही निर्मल गुणरूपी मणियों के निधान, काम के विजेता, भव्य जीवरूपी कुमुद विकसित करने में तेजस्वी चंद्र के बिम्ब समान, चरणकरण आदि सर्व अनुयोग के समर्थ अभ्यासी, बढ़ते हुए मिथ्यात्व रूपी गाढ़ फैले हुए अंधकार को नाश करने वाले, शुद्ध गुण रत्नों की खान रूपी सूरि पद की प्राप्ति से विस्तृत प्रकट प्रभाव वाले और तीन भवन के लोगों से वंदित चरण वाले दोनों आचार्य भगवंतों ने चिरकाल तक सकल सूत्र अर्थ का अध्ययनकर श्री आर्य महागिरिजी अपने गण-समुदाय को श्री सुहस्ति सूरि को सौंपकर 'जिनकल्प का विच्छेद हुआ है।' ऐसा जानते हुए भी उसके अनुरूप अभ्यास करते वे गच्छ की निश्रा में विचरते थे। __एक समय विहार करते वे महात्मा पाटलीपुत्र नाम के श्रेष्ठ नगर में पधारें, और योग्य समय में उपयोग पूर्वक भिक्षा लेने के लिए नगर में प्रवेश किया। इधर उसी नगर में रहने वाला वसुभूति सेठ स्वजनों को बोध कराने के लिए श्री आर्य सुहस्तिसूरीजी को अपने घर ले गया। आर्य सुहस्तिसूरि ने प्रतिबोध करने के लिए धर्म कथा का प्रारंभ किया, और उस प्रसंग पर श्री आर्य महागिरिजी भिक्षा के लिए वहाँ पधारें। उनको देखकर महात्मा श्री आर्यसुहस्तिसूरि भावपूर्वक खड़े हुए। इससे विस्मित मनवाले वसुभूति सेठ ने इस प्रकार कहा कि-हे भगवंत! क्या आप श्री से भी बड़े अन्य आचार्य हैं? कि जिससे इस तरह आप उनको देखकर खड़े हुए आदि विनय किया? तब आर्य सुहस्ति सूरि ने कहा कि-हे भद्र! इनका प्रारंभ अति दुष्कर है. जिनकल्प का विच्छेद होने पर भी ये भगवंत इस तरह उसका अभ्यास करते हैं। अनेकानेक उपसर्गों के समय भी निश्चल रहते हैं, फेंकने योग्य आहार पानी लेते हैं. हमेशा काउस्सग्ग ध्यान में रहते हैं. एक धर्म ध्यान में ही स्थिर. अपने शरीर में भी मूर्छा रहित, और अपने शिष्यादि समूदाय की भी ममता बिना के वे शून्य घर अथवा श्मशान आदि में विविध प्रकार के आसन्न-मुद्रा करते रहते हैं। इत्यादि जिनकल्प की तुलना करते हैं, उनकी इस तरह गुण प्रशंसा 1. अन्य ग्रन्थों में कोशा वेश्या के वहाँ चातुर्मास का वर्णन आता है। 167 For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-एलकाक्ष नगर का इतिहास करके और वसुभूति के स्वजनों को धर्म में स्थिर करके, श्री आर्य सुहस्तिसूरि उसके घर में से निकल गये। फिर सेठ ने अपने परिवार को कहा कि यदि किसी भी समय पर ऐसे साधु भिक्षा के लिए आयें तो उनको तुम आहार पानी आदि को निरुपयोगी कहकर आदरपूर्वक देना। इस प्रकार दान देने से बहुत फल मिलता है। इस तरह सेठ के कहने के बाद किसी दिन आर्य श्री महागिरिजी भिक्षा के लिए वहाँ पधारें। वसुभूति की दी हुई शिक्षा के अनुसार निरुपयोगी अन्न पानी के प्रयोग से दान देने में तत्पर बनें परिवार को देखकर, मेरुपर्वत के समान धीरता धारण करने वा ले, महासत्त्व वाले श्री आर्य महागिरि ने द्रव्य, क्षेत्र आदि का उपयोग देकर 'यह कपट रचना है' ऐसा जानकर और भिक्षा लिये बिना वापिस चले गये। फिर श्री आर्य सुहस्ति सूरि को कहा कि-आहार दोषित क्यों किया? उन्होंने कहा कि-किसने किया? तब श्री आर्य महागिरि ने कहा कि-सेठ के घर मुझे आते देखकर 'खड़े हुए' इत्यादि मेरा विनय करने से तुमने मेरा आहार दूषित किया। फिर उन दोनों ने साथ ही विहार करके अवंती नगरी में पधारें और वहाँ जीवित स्वामी जिन प्रतिमा को वंदनाकर आचार्य श्री महागिरिजी वहाँ से विहार करके गजाग्रपदगिरि की यात्रार्थ एलकाक्ष नगर की ओर गये। उस नगर का नाम एलकाक्ष जिस तरह पड़ा उसे कहते हैं। एलकाक्ष नगर का इतिहास : ___ पूर्व में इस नगर का नाम दशार्णपुर था। वहाँ एक उत्तम श्राविका मिथ्या दृष्टि की पत्नी थी। जैन धर्म में निश्चल मन वाली, संध्या समय में आहार त्याग के पच्चक्खाण को करती देखकर उसे उसके पति ने अपमानपूर्वक कहा कि-हे भोली! क्या कोई मनुष्य रात में आहार करता है कि जिससे तूं इस तरह नित्य रात्री के अंदर नियम करती है? यदि इस तरह नहीं खाने की वस्तु का भी पच्चक्खाण करने से कोई लाभ होता है तो कहो जिससे मैं भी पच्चक्खाण करूँ? उसने कहा कि पच्चक्खाण करने से विरति रूप गुण होता है, परंतु पच्चक्खाण लेकर खण्डन करने से महान दोष होता है। उसने कहा कि-हे भोली! क्या तूंने मुझे कभी भी रात्री में भोजन करते देखा है? अपमानपूर्वक ऐसा कहकर उसने पच्चक्खाण किया। फिर उस प्रदेश में रहनेवाली एक देवी ने विचार किया कि-अपमान करते इसके अविनय को दूर करूँ। फिर दिव्य लड्डु को भेंट रूप में लेकर वह देवी उसकी बहन के रूप से रात्री में वहाँ आयी और उसे खाने के लिए लड्डु दिया। उसे लेकर वह खाने लगा, तब श्राविका ने निषेध किया। इससे उसने कहा कि-हे भोली! तेरे कपट नियम से मुझे अब कोई प्रयोजन नहीं है। यह सुनकर हे पापी! हे शुभ सदाचार से भ्रष्ट! तूं जिन धर्म की भी हँसी करता है? ऐसा बोलती उत्पन्न हुए अतिक्रोध से लाल आँखों वाली, उस देवी ने रात्री भोजन में आसक्त उसके मुख पर ऐसे प्रहार किया कि जिससे उसकी आँखों की दोनों पुतली जमीन पर गिर पड़ी। तब 'अरे! यह महान् अपयश होगा।' ऐसी कल्पना से भयभीत बनी हुई उस श्राविका ने श्री जिनेश्वर देव के समक्ष काउस्सग्ग किया। इससे मध्य रात्री के समय देवी ने आकर कहा कि-मेरा स्मरण क्यों किया? उसने कहा कि-हे देवी! इस अपयश को दूर करो। इससे देवी ने उसी क्षण में ही मरे हुए बकरे की आँखों को लाकर उसकी दोनों आँखों में स्थापित की। फिर प्रभात होते स्वजन और नगर के लोगों ने आश्चर्य पूर्वक कहा कि-भो! यह क्या आश्चर्य है? कि तू एलकाक्ष अर्थात् बकरे की आँखवाला हुआ। इस तरह से वह सर्वत्र 'एलकाक्ष' नाम से प्रसिद्ध हुआ और फिर उसके कारण से नगर भी 'एलकाक्ष नगर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अब पूर्व में 'दर्शाणकूट' नाम से जगत में प्रसिद्ध था। वह पर्वत भी जिस तरह 'गजाग्रपद' नाम से प्रसिद्ध हुआ ।।३९६४।। उसे कहते हैं : 1. अन्य ग्रन्थों में संभोगिकता पृथक् की ऐसा उल्लेख भी आता है। 168 For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम विधि द्वार-गजाग्रपद पर्वत का इतिहास-संलेखना नामक प्रन्द्रहवाँ प्रतिद्धार श्री संवेगरंगशाला गजाग्रपद पर्वत का इतिहास : पूर्वकाल में उस दशार्णपुर नगर में दशार्णभद्र नामक महान् राजा राज्य करता था। उसे पाँच सौ श्रेष्ठ रूपवती स्त्रियों का अंतःपुर था। अपने यौवन से, रूप से, राजलक्ष्मी से और प्रवर सेना से युक्त वह अन्य राजाओं की अवज्ञा करता था। एक समय उस दशार्णकूट पर्वत के ऊपर जगत के नाथ श्री वर्धमान स्वामी पधारें और देव भी आये। उस समय 'सर्व सामग्री से विभूषित होकर मैं श्री भगवंत को इस तरह वंदन करने जाऊँ कि इस तरह पूर्व में कोई भी वंदन करने नहीं गया हो।' ऐसे अभिमान से दशार्णभद्र राजा ने सर्व प्रकार के आडम्बर से युक्त होकर, चतुरंगी सेना सहित, अंतःपुर को साथ लेकर, हाथी के ऊपर बैठकर वहाँ जाकर प्रभु को वंदन किया। फिर उसके मन के कुविकल्प अहंकार को जानकर, इन्द्र ने अपने ऐरावत हाथी के मुख में श्रेष्ठ आठ दाँत बनाकर, और एक-एक दाँत में आठ-आठ बावड़ियाँ बनायीं। उसके बाद एक-एक बावड़ी में आठ-आठ कमल और कमल में आठ-आठ पंखुड़ियों बनायीं। उस प्रत्येक पंखुड़ी में बत्तीस पात्रों से प्रतिबद्ध नाटक करके उस हाथी के ऊपर बैठा और करोड़ों देवों से घिरा हुआ उसने प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर आश्चर्यकारी ऋद्धिसिद्धि पूर्वक प्रभु को वंदन किया। ऐसी ऋद्धिवाले इन्द्र को देखकर ऋद्धिगारव से युक्त बनें राजा ने विचार किया कि पूर्व में इस इन्द्र ने धर्म किया है। और अधन्य ऐसे मैंने आराधना नहीं की। इससे अब भी धर्म की आराधना करूँ। ऐसा विचारकर उस महात्मा ने उसी समय ही राज्य का त्यागकर दीक्षा स्वीकार की। फिर देवों की महिमा से उस पर्वत में औजार से नक्काशी की हो इस तरह इन्द्र के हाथी का आगे पैर पड़ा। इससे वह दशार्णकूट पर्वत तब से ही समग्र लोगों में 'गजाग्रपद' इस नाम से अति प्रसिद्ध हुआ। इस तरह उस गजाग्रपद पर्वत के ऊपर असाधारण क्लिष्ट तप करके चारों आहार का त्यागी, साधुओं में सिंह के समान, दीर्घकाल तक निरतिचार चारित्र के आराधक, विधिपूर्वक विविध भावनाओं का चिंतन करने वाले सुरासुर और विद्याधरों से पूजित, भगवंत श्री आर्य महागिरिजी ने वहाँ काल करके देवलोक प्राप्त किया। इस तरह संसारवास के विनाश को चाहने वाले सर्व आत्माओं को निश्चय रूप से प्रमाद को छोड़कर प्रशस्त भावनाओं में प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह चार कषाय के भय को रोकने के लिए इस संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार प्रस्तुत पन्द्रह अंतर द्वार वाला है, उसमें अनुक्रम से यह चौदहवाँ भावना नामक अंतरप्रतिद्वार कहा है। अब अति प्रशस्त भावना का चिंतन करने वाला भी संलेखना बिना आराधना करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिए अब संलेखना द्वार कहते हैं। अथवा पूर्व में अर्द्ध-अर्थात् योग्यता आदि सर्व द्वार में परिकर्म (आराधना) करने का ही बतलाया है। वह परिकर्म भाव शुद्धि से होती है। भाव शुद्धि भी रागादि की तीव्र वासना के विनाश से होती है, और वह विनाश भी मोहोदय के विध्वंस के कारण होता है। वह विध्वंस प्रायः शरीर और धातुओं की क्षीणता से होता है, और वह क्षीणता भी विविध तप आदि करने से होती है। यह तपश्चर्या भी उस संलेखना का अनुकरण करने वाली हो तब ही उस प्रस्तुत कार्य को (अनशन को) सिद्ध कर सकती हैं। इसलिए अब विस्तारपूर्वक संलेखना द्वार को कहते हैं ।।३९८७।। संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार : यहाँ पर श्री जिनेश्वरों ने संलेखना को तपश्चर्या बतलाया है। क्योंकि उससे अवश्य शरीर, कषाय आदि पतले कर सकते हैं। यद्यपि सामान्यतः सर्व तपस्या संलेखनाकारक होती है। फिर भी यह अंतिम काल में ही 169 For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार स्वीकार की जाती है, यही इसकी विशिष्टता है। यह अंतिम तपस्या भी अति लम्बे काल के लिए दुःसाध्य है, इसलिए व्याधि उपसर्ग में चारित्र रूपी धन को विनाश करने वाले कोई अन्य कारण में, अथवा कान आदि किसी इन्द्रिय का विषय विनाश हआ हो. अथवा भयंकर दष्काल पडा हो, तब यह संलेखना धीर साध और श्रावक के करने योग्य है। क्योंकि इस संसार में आनंदादि महासत्त्व वाले श्रावकों ने अति लम्बे काल तक निर्मल श्रावक धर्म को पालकर अंत में आगम कथित विधिपर्वक सम्यक संलेखनाकर उग्र क्रिया की आराधना कर क्रमशः श्रेष्ठ और महान् कल्याण परंपरा को प्राप्त किया है। और पूर्व के महापुरुष ऋषियों ने भी दीक्षा से लेकर जीवन तक निश्चय दुश्चर चारित्र का भी चिरकाल पालन कर क्लिष्ट तपकर अंतकाल में पुनः विशेष तपस्या से दिव्य शरीर और भाव की अर्थात् कषाय आदि की संलेखनापूर्वक कालकर सिद्धि पद प्राप्त किया है, ऐसा सुना जाता है। और श्री ऋषभ स्वामी आदि तीर्थंकर थें। तीन जगत के तिलक समान थें। देवों से पूजनीय थे। अप्रतिहत केवल ज्ञान के किरणों द्वारा जगत का उद्योत करने वाले थे, और वे अवश्यमेव सिद्धि पद प्राप्त करने वाले थे। फिर भी काल में निश्चय सविशेष तप करने में परायण थें। श्री ऋषभ देव परमात्मा ने निर्वाण के समय अर्थात अंतिम क्रिया में चौदह भक्त अर्थात् छह उपवास, श्री वीर परमात्मा ने षष्ठ भक्त-दो उपवास और शेष बाईस भगवानों ने एक मासिक तप किया था। इसलिए तप का पक्षपात करने वाले, मोक्ष प्राप्त की इच्छा वाले एवं भवभीरु अन्य आत्माओं को भी उन पूर्व पुरुषों के क्रमानुसार संलेखना करना योग्य है। किन्तु तपस्या बिना प्रायः शरीर पुष्ट मांस रुधिर की पुष्टिता को नहीं छोड़ेगा, इसलिए प्रथम यह तप करना चाहिए ।।४००० ।। क्योंकि पुष्ट मांस रुधिर वाले को मोह अनुकूल होने के कारण किसी कारण से अशुभ प्रवृत्ति में प्रबल कारण रूप मोह का उदय होता है और उसके उदय होने से यदि विवेकी भी दीर्घ दृष्टि बिना का हो जाता है तो फिर, तप नहीं करने वाले के लिए तो पूछना ही क्या? इस कारण से जैसे शरीर को पीड़ा न हो, मांस-रुधिर की पुष्टि भी न हो और धर्म ध्यान की वृद्धि हो। इस तरह संलेखनाकर-शरीर को गलाना चाहिए। यह संलेखना उत्कृष्ट और जघन्य इस तरह दो प्रकार की है। इसमें उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य छह महीने की है। अथवा द्रव्य से और भाव से भी दो प्रकार की है। उसमें द्रव्य से शरीर की कृशता और भाव से इन्द्रियों की और कषायों की कृशता जानना अर्थात् हल्का करना। इसमें जो उत्कृष्ट संलेखना काल के बारह वर्ष कहे हैं. उसे द्रव्य से. सत्रानसार से यहाँ कछ कहता हूँ-विविध अभिग्रह सहित चौथ भक्त, छट्ठ, अट्ठम आदि विविध तप करके सर्व रस और कस वाली विगइयों से पारणा करते तपस्वी प्रथम चार वर्ष पूर्ण करें, पुनः चार वर्ष विचित्र-विविध तप से संपूर्ण करें, केवल उसमें विगई का उपयोग नहीं करें। उसके पश्चात् दो वर्ष पारणे में आयंबिल पूर्वक एकान्तर उपवास का तप करें, इस तरह दस वर्ष संपूर्ण हुए। ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अति विकृष्ट अर्थात् चार उपवासादि उग्र तप न करे और पारणे में परिमित आहार से आयंबिल करे। फिर अंतिम छह महीने में अट्ठम, चार उपवास आदि विक्लिष्ट तप कर देह को टिकाने के लिए पारणा आयंबिल से इच्छानुसार भोजन करें। इस तरह ग्यारह वर्ष पूर्ण करके, बारहवाँ वर्ष कोटि सहित-लगातार आयंबिल तप कर पूर्ण करें, केवल बारहवें वर्ष के अंतिम चार महीने में एकान्तर मुख में तेल का कुल्ला चिरकाल भरकर रखें, फिर उसके क्षार को प्याले में परठकर मुख साफ करें। ऐसा करने का क्या कारण है? उसका उत्तर देते हैं-ऐसा करने से उसका मुख वायु से बन्ध नहीं होता है, मृत्यु काल में भी वह महात्मा स्वयं श्री नवकार महामंत्र का स्मरण कष्ट बिना कर सकता है। यह मैंने द्रव्य से उत्कृष्ट संलेखना कही है, यही संलेखना यदि आयुष्य के अंतिम छह महीने तक अथवा चार महीने तक करें तो वह जघन्य कहलाती है। 170 For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार श्री संवेगरंगशाला अपने-अपने विषय में आसक्त, इन्द्रिय, कषाय तथा योग का निग्रह करना उस संलेखना को ज्ञानी पुरुषों ने भाव संलेखना कही हैं और उसमें साधुता के चिर उपासक ज्ञानी भगवंतों ने विशेष क्रिया के आश्रित अनशन आदि तप द्वारा संलेखना इस प्रकार कही है - ( १ ) अनशन, (२) ऊनोदरिका, (३) वृत्ति संक्षेप, (४) रस त्याग, (५) काय क्लेश और विविक्त शय्या, इन्द्रिय तथा मन का निग्रह आदि, (६) संलीनता, इसका वर्णन आगे करते हैं। अनशन :- यह दो प्रकार का है सर्व और देश। इसमें संलेखना करने वाला 'भवचरिम' अर्थात् जीवन पर्यंत का पच्चक्खाण करता है उसे सर्व अनशन कहते हैं। यथाशक्ति उपवास आदि तप करना वह देश अनशन कहलाता है। ऊनोदरिका :― इसके भी दो भेद हैं द्रव्य और भाव। उसमें द्रव्य ऊनोदरिका उपकरण और आहार पानी में होती है। वह जिन कल्पी आदि को अथवा जिन कल्प के अभ्यास करने वाले को होती है। संयम का अभाव हो, इसलिए उपकरण ऊणोदरिका दूसरे को नहीं अथवा अधिक उपकरणादि का त्याग करने रूप, वह स्थविर कल्पी आदि सर्व को भी होती है। क्योंकि कहा भी है कि - जो संयम में उपकार करता है वह निश्चय से उपकरण जानना । और जो अयतना वाला, अयतना से अधिक धारण करें वह अधिकरण जानना । पुरुष का निश्चय आहार बत्तीस कौर का माना जाता है और स्त्रियों को अट्ठाईस कौर माने गये हैं। इस कौर का प्रमाण मुर्गी के अण्डे समान, अथवा मुख विकृत किये बिना स्वस्थता से मुख में डाल सके उतना ही जानना। इस तरह कौर की मर्यादा बाँधकर श्री जिनेश्वर और श्री गणधरों ने आहार आदि का ऊणोदरिका - अर्थात् जिसमें उदर के लिए पर्याप्त आहार से कम लिया जाये, यानि उदर ऊन = कम रखा जाये । वह ऊणोदरिका कहलाती है। वह अल्पाहार आदि पाँच प्रकार के कहे हैं। आठ कौर का आहार करना वह प्रथम अल्पाहार ऊनोदरी है, बारह कौर लिये जायें वह दूसरा उपार्ध ऊणोदरी है, सौलह कौर लिये जायें तो वह तीसरा द्विभाग ऊणोदरी है, चौबीस कौर तक लेने से चौथा प्राप्ति (चतुर्थ भाग) ऊनोदरी है और इकत्तीस कौर तक ग्रहण करे वह पाँचवां किंचिदुण ऊनोदरी जानना । अथवा अपने प्रमाण अनुसार आहार में एक-एक कौर आदि कम करते हुए आखिर में एक कौर तक आना और उसमें आधा कौर, कम करते-करते आखिर में एक दाना ही लेना, यह सब द्रव्य ऊनोदरी है। श्री जिनवाणी के चिंतन द्वारा हमेशा क्रोधादि कषायों का त्याग करना उसे श्री वीतराग देवों ने भाव ऊनोदरी कहा अब वृत्ति संक्षेप कहते हैं। - वृत्ति संक्षेप :- जिससे जीवन टिक सके उसे वृत्ति कहते हैं । उस वृत्ति का संक्षेप करके गौचरी (आहार) लेने के समय दत्ति-परिमाण करना अथवा एक, दो, तीन आदि घर का अभिग्रह (नियम) करना, पिंडेसणा और पाषणा के प्रमाण का नियम करना, अथवा प्रतिदिन विविध अभिग्रह स्वीकार करना, उसे वृत्ति संक्षेप जानना । वह अभिग्रह पुनः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी होता है। उसमें आज मैं लेप वाली अथवा लेप बिना का अमुक द्रव्य ग्रहण करूँगा या अमुक द्रव्य द्वारा ही ग्रहण करूँगा । इस प्रकार मन में अभिग्रह करना वह द्रव्य अभिग्रह जानना । तथा शास्त्रोक्त गोचरी भूमि के आठ द्वार कहे हैं, उसमें से केवल देहली के बाहर या अंदर अथवा अपने गाँव या परगाँव से । उसमें इतने घर में अथवा अमुक घरों में ग्रहण करूँगा इत्यादि क्षेत्र के कारण नियम लेना वह क्षेत्र अभिग्रह जानना । गौचरी भूमि के शास्त्रों में आठ भेद कहे हैं - (१) ऋजुगति, (२) गत्वा प्रत्यागति, (३) गौमूत्रिका, (४) पतंग वीथि, (५) पेटा, (६) अर्द्ध पेटा, (७) अभ्यन्तर शंबूका और (८) बाह्य 1. जं वट्टइ उवयारे, उवगरणं तं खु होइ नायव्वं । अइरेगं अहिगरणं अजओ अजयं परिहरंतो ||४०२३ || For Personal & Private Use Only 171 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार शंबूका'। काल अभिग्रह में आदि, मध्य और अंतःकाल यह तीन प्रकार का होता है। उसमें भिक्षा काल होने के पूर्व में जाना वह प्रथम, भिक्षा काल के बीच जाना वह दूसरा, और भिक्षा काल पूर्ण हो जाने के बाद जाना वह तीसरा काल जानना। माँगे बिना दे उसे ही लेना, ऐसा अभिग्रह वाले को सूक्ष्म भी अप्रीति किसी को न हो, इस आशय से भिक्षा काल के पूर्व में या बाद में भिक्षा के लिए जाना, भिक्षा काल में नहीं जाना, वह काल अभिग्रह जानना। और अमुक अवस्था में रहा हुआ आदमी भिक्षा दे तभी लूंगा, अन्यथा नहीं। लेने वाला मुनि निश्चय भाव अभिग्रह वाला होता है, तथा गीत गाते, रोते, बैठे-बैठे, आहार देवे, अथवा वापिस जाते, सन्मुख आते, उल्टे मुख करके आहार दे, अथवा अहंकार धारण किया हो तो या नहीं धारण किया हो (अर्थात् सरल हो), इस तरह अमुक अवस्था में रहे हुए आहार देवे तो लेना अन्यथा नहीं लेना इत्यादि अभिग्रह को भाव अभिग्रह कहा है। इस तरह वृत्ति संक्षेप के लिए विविध अभिग्रह को धारण करता है। अब रस त्याग कहते हैं। रस त्याग :- दूध, दही, घी, तेल आदि रसों को विगई अर्थात् विकृति कहते हैं, उसके बिना यदि संयम निर्वाह हो सके तो उसका त्याग करना वह रस त्याग जानना। क्योंकि-उन विगइयों को दुर्गति का मूल कहा है, माखन, मांस, मदिरा और मध ये चार महा विगई हैं। यह आसक्ति, अब्रह्म, अहंकार और असंयम को करने वाली हैं। पूर्व में श्री जिनाज्ञा के अभिलाषी, पापभीरु, और तप समाधि की इच्छा वाले महान् ऋषियों ने उनका जावज्जीव तक त्याग किया है। दूध, दही, घी, तेल, गुड़, कड़ा विगई2 को तथा और भी स्वादिष्टविकारी नमक, लहसुन आदि त्याग करना चाहिए। क्योंकि उससे परिणाम में विकार करनेवाला मोह का उदय होता है। जब मोह का उदय होता है, तब उदय होता है, तब मनो विजय करने में अति तत्पर भी जीव नहीं करने योग्य कार्य भी कर बैठता है। मोह यह दावानल समान है, जब मोह दावानल में जलेगा, तब जलते रहते हुए भी कौन बुझाने में उपयोगी हो सकेगा? अर्थात् जब मोह का साम्राज्य होगा, तब तुझे कोई श्रेष्ठ व्यक्ति भी समझाने में असमर्थ बनेगा। इसलिए मोह का मूल जो रस है उसका त्याग करें। अब काय क्लेश को कहते हैं। __काय क्लेश :- आगम विधि से शरीर को कसना वह काय क्लेश है। सूर्य को पीछे रखकर, सन्मुख रखकर, ऊपर रखकर अथवा तिरछा रखकर, दोनों पैर समान रखकर या एक पैर ऊँचा रखकर या गिद्ध के समान नीचे दृष्टि से लीन बनकर खड़े रहना इत्यादि, तथा वीरासन, पर्यकासन, समपूतासन एक समान बैठना, गौदोहिकासन या उत्कटुकासन करना, दण्ड के समान लम्बा सोना, सीधा सोना, उल्टा सोना और टेढ़ा काष्ठ के समान सोना, मगर के मुख समान या हाथी की सैंड के समान ऊर्ध्वशयन करना, एक तरफ शयन करना, घास ऊपर, लकड़ी के पटरे पर, पत्थर शीला पर या भूमि पर सोना। रात्री को नहीं सोना, स्नान नहीं करना, उद्वर्तन नहीं करना, खुजली आने पर भी नहीं खुजलाना। लोच करना, ठण्ड में वस्त्र रहित रहना और गर्मी में आतापना लेना इत्यादि काय क्लेश तप विविध प्रकार का जानना। स्वयं दुःख सहन करना काया का निरोध है, इससे जीवों पर दयाभाव उत्पन्न होता है, और परलोक में हित की बुद्धि है, तथा अन्य को धर्म के प्रति अतिमान प्रकट होता है इत्यादि अनेक गुण होते हैं। इस वेदना से भी अनंतर अधिक कष्टकारी वेदनाएँ नरकों में परवशता के कारण सहन करनी पड़ती हैं, उसकी अपेक्षा इसमें क्या कष्ट है? ऐसी भावना के बल से संवेग प्रकट होता है, उसकी बुद्धि, रूप, गुण वाले को यह कायक्लेश तप संसारवास पर निर्वेद उत्पन्न कराने के लिए रसायण है। अब संलीनता तप कहते हैं। 1. श्री दशवैकालिक टीका के भाषांतर में इसका विस्तृत स्वरूप देखें। 2. कड़ा विगई-घी-तेल में तला हुआ पदार्थ सेव पूडी, मालपूआ, घेवर आदि। 172 For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकम विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार श्री संवेगरंगशाला संलीनता :- अर्थात् संवर करना अथवा अपने अंगोपांगों को सिकोड़ना, संकोच करना संलीनता है। उसमें प्रथम वसति संलीनता है, वह इस प्रकार-वृक्ष के नीचे, आराम गृह में, उद्यान में, पर्वत की गुफा में,. तापस आदि के आश्रम में, प्याऊ और श्मशान में, शून्य घर में, देव कुलिका में अथवा माँगने पर दूसरे को दिये हुए मकान में उद्गम, उत्पादन और ऐषणा दोष से रहित और इससे ही मूल से अंत तक में साधु के निमित्त अकृत, अकारित और अनुमति बिना की होती है। पुनः वह वसति भी स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित होती है, शीतल या उष्ण, ऊँची, नीची या सम, विषम भूमि वाली होती है, नगर, गाँव आदि के अंदर अथवा बाहर हो, जहाँ मंगल या पापकारी शब्दों के श्रवण से ध्यानादि में स्खलना या स्वाध्याय, ध्यान में विघ्न न होता हो, ऐसी वसति को विविक्त शय्या संलीनता तप कहते हैं। क्योंकि ऐसी वसति में प्रायः स्व-पर उभय से होने वाले रागद्वेषादि दोष उत्पन्न नहीं होते हैं। अब इन्द्रिय संलीनता कहते हैं कि-ऊपर के कथन अनुसार गुणकारी वसती में रहते हुए भी इन्द्रिय आदि को वश करके संलीनता से आत्मा का सम्यग चिंतन करें। इन्द्रिय को शब्दादि कोई ऐसा विषय नहीं है कि विविध विषय में प्रेमी और हमेशा अतृप्त रहने वाली इन्द्रिय जिसे भोगकर तृप्ति प्राप्त कर सके। इन विषयों में एक-एक विषय भी संयमरूपी आत्मा का घात करने में समर्थ है तो यदि पाँचों का एक ही साथ भोग करे तो उसकी कुशलता कैसे रह सकती है? जैसे निरंकुश घोड़ों से सारथी संग्राम भूमि में निश्चय ही विडम्बना प्राप्त करता है, वैसे ही निरंकुश इन्द्रियों से भी इस जन्म, परजन्म में आत्मा अनर्थ-अहित प्राप्त करती है। महापुरुषों से सेवित क्रिया मार्ग से भ्रष्ट हुआ, इन्द्रिय निग्रह नहीं करने वाले को इस संसार में दारुण दुःख को देने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं। इत्यादि अति दुःख के विपाक का अपनी बुद्धि से सम्यग् विचार करके धीर पुरुष को विषयों में रसिक इन्द्रियों की संलीनता करनी चाहिए। और उस संलीनता का इष्ट-अनिष्ट विषयों में सोम्य भाव-वैराग्य भाव से राग-द्वेष के समय को छोडने योग्य जानना। तथा उस-उस विषयों को सुनकर, देखकर, सेवनकर, सूंघकर और स्पर्श करके भी जिसको रति या अरति नहीं होती उसे इन्द्रिय संलीनता कहते हैं। इसलिए विषयों रूपी गाढ़ जंगल में निरंकुश जहाँ-तहाँ परिभ्रमण करती इन्द्रिय रूपी हाथी को ज्ञान रूपी अंकुश से वश करना चाहिए। अब मन संलीनता कहते हैं। ___ इसी तरह धीर पुरुष बुद्धि बल से मन रूपी हाथी को भी वैसे किसी उत्तम उपाय से वश करे कि जिससे शत्रु पक्ष-मोह को जीतकर आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करें। इसी प्रकार शत्रु वेग के समान कषायों को और योगों के विस्तार वेग को भी रोककर बुद्धिमान उसकी भी निष्पाप संलीनता करें। इस तरह सम्यग् व्यापार में प्रवृत्ति करने वाला, प्रशस्त योग से संलीनता को प्राप्त करने वाला, पाँच समिति से समित, और तीन गुप्ति से गुप्त बना मुनि आत्महित में तत्पर बनता है। असंयमी जीव अति लम्बे काल में जो कर्मों को खत्म करते हैं उसे संयत तपस्वी अन्तमुहूर्त में खत्म करते हैं। तवमवि तं कुज्जा सो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेइ। जेण य न जोगहाणी, मणनिव्वाणी य होइ जओ ।।४०७० ।। वह तप भी ऐसा करना कि जिससे मन अनिष्ट का चिंतन न करे, संयम योगों की हानि न हो और मन की शांति वाला हो। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को और धातुओं (प्रकृति) को जानकर उसके अनुसार तप करें, कि जिससे वात, पित्त, कफ क्षुब्ध न हो। अन्यथा ऐसे तप की शक्यता न हो, तो उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष से रहित, प्रमाण अनुसार, हल्का विरस और रुखा आदि आहार पानी आदि से अपना निर्वाह करें और अनुक्रम से आहार को कम करते शरीर की संलीनता करें, उसमें तो शास्त्राज्ञा से आयंबिल को भी उत्कृष्ट तप 173 For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार कहते हैं। अल्प आहार वालों की इन्द्रियाँ विषयों में आकर्षित नहीं होती है। अथवा तप द्वारा खिन्न न हो और रस वाले विषयों (पदार्थों) में आसक्ति न करें। अधिक क्या कहें? एक-एक तप भी बार-बार उस तरह सम्यग् वासित करें कि उससे कृश होते हुए भी तुझे किसी प्रकार की असमाधि न हो। इस प्रकार शरीर संलेखना की क्रिया को अनेक प्रकार से करने पर भी क्षपक अध्यवसाय शुद्धि को एक क्षण भी न छोड़े। क्योंकि -अध्यवसाय विशुद्धि बिना जो विकृष्ट तप भी करें, फिर भी उसकी कदापि शुद्धि नहीं होती है । 1 और सविशुद्ध शुक्ल लेश्यावाला जो सामान्य - अल्प तप को करता है, तो भी विशुद्ध अध्यवसाय वाले वे केवलज्ञान रूपी शुद्धि को प्राप्त करतें हैं। इस अध्यवसाय की शुद्धि कषाय से कलुषित चित्तवाले को नहीं होती है, इसलिए उसकी शुद्धि के लिए कषाय रूपी शत्रु को दृढ़तापूर्वक निर्बल कर । कषाय में हल्का बना हुआ तूं शीघ्र क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संतोष अल्प कर। वह आत्मा क्रोध, मान, माया और लोभ के वश नहीं हो कि जिससे उन कषायों की उत्पत्ति को मूल में से छोड़ दे अथवा होने ही न दे। इसलिए उस वस्तु को छोड़ देनी चाहिए कि जिसके कारण कषाय रूपी अग्नि प्रकट होती हो, और उस वस्तु को स्वीकार करना चाहिए कि जिससे कषाय प्रकट न हो। क्योंकि जं अज्जियं चरित्तं, देसूणा वि पुव्वकोडी | तं पि कसाइयमेत्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेण ।।४०८३ ।। कषाय करने मात्र से भी मनुष्य कुछ कम पूर्व क्रोड़ वर्ष तक भी जो चारित्र को प्राप्त किया हो उसे एक मुहूर्त में खत्म कर देता है। जली हुई कषाय रूपी अग्नि निश्चय समग्र चारित्र धन को जलाकर खत्म कर देती है और वह आत्मा सम्यक्त्व की भी विराधना कर अनंत संसारी बनता है । स्वस्थ बैठे पंगु के समान धन्य पुरुष के कषाय ऐसे निर्बल होते हैं कि निश्चय दूसरों द्वारा कषायों को जागृत करने पर भी उनको प्रकट नहीं होता है। कुशास्त्र रूपी पवन से प्रेरित कषाय अग्नि यदि सामान्य लोक में जलती है तो भले जले, परंतु वह आश्चर्य की बात है कि श्री जिनवचन रूपी जल से सिंचित भी प्रज्वलन करता है। इस संसार में वीतराग बनने से क्लेश का हिस्सेदार नहीं होता है, उसमें क्या आश्चर्य है? इसमें तो महाआश्चर्य है कि छद्मस्थ होने पर जो कषाय को जीतता है, इससे वह भी वीतराग समान है। क्रोधादि का निग्रह करने वाले को अनुक्रम से, क्रोध का त्याग करने से सुंदर रूप, अभिमान छोड़ने से ऊँच गोत्र, माया का त्याग करने से अविसंवादी, एकान्तिक सुख और लोभ का त्याग करने से विविध श्रेष्ठ लाभ होता है। इसलिए कषाय रूपी दावानल को उत्पन्न होते ही शीघ्र 'इच्छा, मिच्छा, दुक्कड़' रूपी पानी द्वारा बुझा देना चाहिए, और उसी तरह निश्चय ही हास्यादि नौ कषाय को, आहारादि चार संज्ञा को, रसगारव आदि तीन गारव और कृष्णादि छह लेश्या की परम उपशम द्वारा संलेखना करनी चाहिए। बारऔर कषाय बार तप करनेवाला और इससे प्रकट रूप में दिखती नसें, स्नायु तथा हाड़पिंजर जैसा शरीर वाला, संलेखना करने वाला, इस तरह द्रव्य भाव दो प्रकार की संलेखना को प्राप्त करता है। इस प्रकार सम्यग् रूप से द्रव्य-भाव उभयथा परिकर्मविधि के योग का साधन करने वाला, संलेखना कारक महात्मा आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करता है। और जो अपनी मति से इस विधि से विपरीत क्रिया में प्रवृत्ति करता है वह गंगदत्त के समान विराधक होता ।। ४०९३ ।। उसकी कथा इस तरह है : 1. अज्झवसाणविसुद्धीए, वज्जिओ जो तवं विगिट्टं पि । कुणइ न जायइ जम्हा, सुद्धि च्चिय तस्स कइया वि || ४०७७|| 174 For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार-गंगदत्त की कथा 'श्री संवेगरंगशाला गंगदत्त की कथा पुर, नगर और व्यापार की मण्डियों से युक्त और बड़े-बड़े पर्वत तथा बड़े देव मंदिर से शोभते वच्छ देश में जयवर्धन नामक प्रसिद्ध नगर था। वहाँ सिद्धांत प्रसिद्ध विशुद्ध धर्म क्रिया में दृढ राग वाला और न्याय नीति से विशिष्ट बन्धुप्रिय नाम का सेठ रहता था। उसे शिष्ट पुरुषों को मान्य और अति विनीत गंगदत्त नाम का पुत्र था। वह क्रमशः युवतियों के मन को हरण करने वाला युवा बना। उसकी सुंदर आकृति देखकर हर्षित बनें स्वयंभू नामक वणिक ने अपनी पुत्री के साथ उसका संबंध किया। फिर हर्षपूर्वक गंगदत्त पाणिग्रहण करने के योग्य उत्तम तिथि-मुहूर्त दिन आने पर उसके साथ विवाह किया। केवल जिस समय उसका हाथ उसने पकड़ा उसी समय उसको दुःसह दाह रोग उत्पन्न हुआ। इससे क्या मैंने अग्नि का स्पर्श किया या जहर के रस का सिंचन हुआ? इस तरह चिंतन करती दाहिने हाथ से अपना मुख छुपानेवाली ।।४१००।। दीन मनवाली, दोनों नेत्रों में से सतत् आँसू प्रवाह बहाती वक्र गरदन करके रोती हुई को देखकर उसके पिता स्वयंभू ने कहा कि-हे पुत्री! हर्ष के स्थान पर भी तूं इस तरह सन्ताप क्यों करती है कि जिससे तूं हँसते मुख स्नेहपूर्वक सखियों को भी नहीं बुलाती है? और हे पुत्री! तेरे विवाह महोत्सव को देखने से आनंद भरपूर मन वाले स्वजन लोगों के विलासपूर्वक गीत और नृत्यों को क्यों नहीं देखती? अतः अपनी गरदन सीधी कर सामने देख। आँखों की जल कर्णिका को दूर कर, तेज रूप मुख की शोभा को प्रकट कर, और इस शोक को छोड़ दे! फिर भी यदि अति गाढ़ शोक का कोई भी कारण हो तो उसे निःशंकता से स्पष्ट वचनों से कह, कि जिससे उसे शीघ्र दूर करूँ। उसने कहापिताजी! हो गई वस्तु को कहने से अब क्या लाभ है? मस्तक मुंडन के बाद नक्षत्र शोधन से क्या हित करेगा? स्वयंभू ने कहा-हे पुत्री! फिर भी तूं इस शोक का रहस्य कह। इससे उसने वर का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर उस पर वज्रघात हो गया हो अथवा घर का सर्व धन नष्ट हुआ हो या शरीर पर काजल लगाया हो इस तरह वह निस्तेज बन गया। विवाह का कार्य पूर्ण हुआ और स्वजन वर्ग भी अपने घर गये। फिर अन्य दिन ससुर के घर जाने का समय आया। पति के दुर्भाग्य रूपी तलवार से अत्यन्त टूटे हृदयवाली तथा पति से छूटने के लिए अन्य कोई भी उपाय नहीं मिलने से उसने मकान के शिखर पर चढ़कर मरने के लिए शीघ्र शरीर को गिरते छोड़ दिया और गिरकर वहीं मर गयी। माता-पिता दौड़कर आये, स्वजन लोग भी उसी समय आये और उसके शरीर सत्कार आदि समग्र क्रिया की। उस मृत्यु का निमित्त भी उस नगर में सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया, इससे गंगदत्त ने भी अपने दुर्भाग्य से अत्यंत लज्जा को प्राप्त किया। केवल पिता ने उससे कहा कि-पुत्र! इस विषय पर जरा भी खेद नहीं करना। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि जिससे तेरी दूसरी पत्नी होगी। उसके बाद उसका उसी प्रकार से बहुत धन खर्च कर अनेक प्रयत्नों द्वारा दूर नगर में रहने वाले वणिक पुत्री के साथ उसका विवाह किया। वह दूसरी पत्नी भी विवाह के बाद उसी तरह ही होने से अतिशय शोक प्राप्तकर और केवल पति के घर जाने के समय वह भी फाँसी लगाकर मर गयी। इससे समग्र देश में भी दुःसह दुर्भाग्य के कलंक को प्रासकर शोक के भार से व्याकुल शरीर वाले गंगदत्त ने विचार किया कि-पूर्व जन्म में पापी मैंने कौन-सा महान पाप किया है कि जिसके प्रभाव से इस तरह मैं स्त्रियों के द्वेष का कारण रूप बनता हूँ? उन महासत्त्वशाली सनत्कुमार आदि भगवंत को धन्य है, कि जो दृढ़ स्नेह से शोभते भी चौसठ हजार स्त्रियों से युक्त महान् विशाल अंतःपुर को छोड़कर संयम मार्ग में चले थे। मैं तो निर्भागी वर्ग में अग्रेसर और स्वप्न में स्त्रियों का अनिष्ट करने वाला निर्भागी होने पर अहो! महान् खेद है कि मृग का बच्चा जैसे मृगतृष्णा से दुःखी होता है, वैसे आशा बिना का निष्फल विषय तृष्णा से दुःखी हो रहा हूँ। अरे! इससे ज्यादा सुख कहाँ मिलेगा? इस तरह वह जब चिंतन करता था, तब उसका पिता आया और उसने - 175 For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-गंगदत्त की कथा कहा कि - पुत्र ! निरर्थक शोक करना छोड़ दो और करने योग्य कार्य को करो! अनेक जन्मों की परंपरा से बंधन किये पापों का यह फैलाव है, तत्त्व से इस विषय में कोई दोष नहीं है। इसलिए हे पुत्र ! चलो, सुना है कि यहाँ पर भगवान श्री गुणसागर सूरिजी पधारे हैं, वहाँ जाकर और ज्ञान के रत्नों के भंडार रूप उनको नमस्कार करें। उसने वह स्वीकार किया। दोनों जन आचार्य भगवंत के पास गये और विनयपूर्वक उनको नमस्कारकर नजदीक में जमीन पर बैठे। आचार्यश्री ने भी दिव्य ज्ञान के उपयोग से जानने योग्य सर्व जानकर आक्षेपणी - विक्षेपणी स्वरूप धर्म कथा कहने लगे। फिर समय देखकर गंगदत्त ने आचार्य श्री से पूछा कि - भगवंत मैंने पूर्व जन्म में दुर्भाग्यजनक कौन सा कर्म किया है कि जिससे इस भव में स्त्रियों का अतिद्वेषी बना हूँ? उसका ऐसा प्रश्न पूछने पर आचार्य देव ने कहा कि - तुम अपना पूर्व भव सुनों : मैं ।। ४१२८।। पूर्व में शतद्वार नगर में श्री शेखर राजा की तूं अति प्रिय काम में अति आसक्त रानी थी। उस राजा के अतिशय रूप लावण्य से मनोहर अंगवाली पूर्ण पाँच सौ रानियाँ थीं। राजा के साथ निर्विघ्न यथेच्छ भोग की इच्छा होने से उन रानियों पर द्वेष करती थी और अनेक कूट, मंत्र, तंत्रों से उन पाँच सौ को मार दिया। इससे वज्र समान अति दारुण अनेक पाप समूह को तथा उस निमित्त से अत्यंत कठिन दुर्भाग्य नाम कर्म को उपार्जन किया। फिर अंतकाल तक अति दुःसह श्वास आदि अनेक प्रबल रोगों से मरकर नरक तिर्यंच गतियों में अनेक बार दुःखों को भोगकर एवं फिर महामुसीबत से कर्म की लघुता होने से यहाँ मनुष्य भव प्राप्त किया है और पूर्व में किये हुए पापकर्म के दोष से वर्तमान में तूं दुर्भाग्य का अनुभव कर रहा है। यह सुनकर धर्म श्रद्धावान बना, संसार से उद्वेग प्राप्त किया और पिता को पूछकर दीक्षा स्वीकार की । गुरुकुल वास में रहकर सूत्र अर्थ के चिंतन में उद्यमशील बना और वायु के समान प्रतिबंध रहित वह गाँव, नगरादि में विचरने लगा। कुछ काल तक निरतिचार संयम की आराधनाकर, फिर भक्त - परिज्ञा रूप चार आहार के त्याग द्वारा वह अनशन करने में उद्यत ना | तब स्थविरों ने कहा कि अहो महाभाग ! पुष्ट रुधिर-मांस वाले तुझे इस समय यह अनशन करना अनुचित है । अतः चार वर्ष विचित्र तप, चार वर्ष विगईयों का त्याग इत्यादि क्रम से संलेखना करनी चाहिए। द्रव्य, भाव की संलेखना करके फिर इच्छित प्रयोजन आचरण करना, अन्यथा विस्त्रोतसिका दुर्ध्यानादि भी होता है क्योंकि ज्ञानियों ने इस अनशन को बहुत विघ्न वाला कहा है। इस तरह उसे बहुत समझाया, तो भी उनकी वाणी का अपमान करके और स्वच्छन्दी रूप में उसने अनशन स्वीकार किया और पर्वत की शिला पर बैठा । फिर उस ध्यान में रहे दुष्ट योगों का निरोध करते और अनशन में रहे भी उसे क्या हुआ वह अब सुनो : तमाल के गुच्छे के समान अति मनोहर केश कलाप से शोभित, शरद पूर्णिमा के चंद्र समान मुख की कांति से दिशाओं को भी उज्ज्वल करती, निर्मल किरणों वाली मोती के हार से शोभती, स्थूल स्तनों वाली, अति श्रेष्ठ लगे हुए सुंदर मणियों के कंदोरे से शोभित कमर वाली, केले के वृक्ष के समान, अनुक्रम से स्थूल गोलाकार और मनोहर देदीप्यमान दो जंघा वाली, पैर में पहनी हुई कोमल झनझनाहट करती घुंघरुओं से रमणीय, अत्यंत विचित्र, महामूल्य के श्रेष्ठ दुकूल वस्त्रों से सज्ज और कल्पवृक्ष के पुष्पों की सुगंध से आये हुए भौरों की श्रेणियों से श्याम दिखती ऐसी सुंदर मनोहर अनेक युवतियों से घिरा हुआ अनंगकेतु नामक अति प्रसिद्ध विद्याधर राजा का पुत्र शाश्वत चैत्यों की यात्रा करके अपने घर की ओर जाते मुनि को अनशन में स्थित जानकर वहाँ जमीन पर उतरा। फिर अति विशाल भक्ति के समूह से प्रकट हुआ रोमांचित वाले उसने गंगदत्त मुनि की दीर्घकाल तक स्तुति करके स्त्रियों के साथ अपने नगर में गया। साधु गंगदत्त का मन स्त्रियों के मन को हरण करने में समर्थ उस विद्याधर का श्रेष्ठ सौभाग्य देखकर चलायमान हो गया और इस प्रकार विचार करने लगा कि - यह महात्मा स्त्रियों के समूह से घिरा हुआ इस तरह लीला करता है, और पापकर्मी मैंने तो इस काल में स्त्रियों से इस तरह पराभव 176 For Personal & Private Use Only . Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिकर्म विधि द्वार - गंगदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला प्राप्त किया है। इसलिए मेरा जीवन निरर्थक है, और दुष्ट मनुष्य जन्म को धिक्कार है! यद्यपि मैं अखण्ड देहवाला हूँ, फिर भी इस तरह मैंने विडम्बना प्राप्त की। इस तरह कुविकल्पों के वश पड़ा हुआ वह बोला कि - 'यदि इस साधु जीवन का कुछ फल हो तो मैं आगामी जन्म में इसके जैसा ही सौभाग्यशाली बनूँ।' ऐसा निदान करके वहाँ से मरकर वह माहेन्द्र कल्प में श्रेष्ठ देव उत्पन्न हुआ और वहाँ विषयों को भोगकर तथा आयुष्य पूर्णकर पृथ्वी के तिलक समान उज्जैन नगर में श्रीसमरसिंह राजा की सोमा नामक रानी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, श्रेष्ठ स्वप्न के द्वारा गर्भ की उत्तमता को सूचन करने वाला और निरोगी उसका उचित समय पर जन्म हुआ । उसके जन्म की खुशी मनायी गयी। कई ओर से बधाइयाँ आयीं, समय पर उसका नाम रणशूर रखा और फिर क्रमशः श्रेष्ठ यौवनवय प्राप्त किया। उसके बाद पूर्व निदान के कारण अमर्यादित उग्र सौभाग्य को प्राप्त किया। वह जहाँ-जहाँ घूमने लगा, वहाँ-वहाँ उसके ऊपर कटाक्ष फेंकती, काम के परवश बनी बहुत हाव-भाव विभ्रम और विलासयुक्त चेष्टा करती तथा निर्लज्ज बनी हुई स्त्रियाँ विविध क्रीड़ा करती घर का कार्य भी भूल जाती थी। फिर 'हमारा पति यही होगा अथवा तो अग्नि की शरण होगी।' ऐसे बोलती अत्यंत दृढ़ स्नेहवाली, राजा, महाराजा, सेनापति, बड़े-बड़े धनाढ्य, सामंत और मंत्रियों की अनेक पुत्रियों ने उसके साथ विवाह किया और दीर्घकाल तक उनके साथ में उसने एक ही साथ में पाँच प्रकार के विषय सुख के भोग किए। फिर मरकर वह गंगदत्त अपने दुराचरण के कारण संसार के चक्र में गिरा और वहाँ अति तीक्ष्ण लाखों दुःखों का चिरकाल भाजन बना। इसलिए कहा है कि - पहले द्रव्य भाव इस तरह दोनों प्रकार की संलेखना कर बाद में भक्त परिज्ञा अनशन को करना चाहिए। इस तरह यह प्रथम द्वार में कहा है। परिकर्म करने वाले को प्रायः आराधना का भंग न हो ऐसी सम्यग् आराधना करनी चाहिए। श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा भी यही है। इस तरह श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी रचित परिकर्म विधि सहित चार बड़े मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के पंद्रह अंतर द्वार वाला, प्रथम परिक्रम विधि नामक द्वार का अंतिम संलेखना नामक प्रतिद्वार जानना। यह कहने से पंद्रह अंतर द्वार वाला परिक्रम विधि नाम का प्रथम महाद्वार भी सम्यग् रूप से संपूर्ण हुआ, ऐसा जानना । इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना के पंद्रह अंतर द्वार वाला परिकर्म विधि नामक प्रथम द्वार यहाँ ||४१६८ । । श्लोकों से समाप्त हुआ । ।। इति श्री संवेगरंगशाला प्रथम द्वार ।। संवेग की महा महिमा संवेगेणं भन्ते! जीवे किं जणयइ ? हे भगवन्त संवेग से जीव को क्या प्राप्त होता है? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणया । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अनंताणुबन्धि कोहमाणमायालो भे खवेइ । नवं च कम्मं न बन्धइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊणं दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेण सिज्झइ सोहीए णं विसुद्धाए तत्थं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ।। अर्थात् संवेग से जीव अनुत्तर- परम धर्म श्रद्धा को प्राप्त करता है। परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग प्राप्त करता है। उस समय अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है और नये कर्मों का बन्ध नहीं करता है। तीव्र कषाय के क्षीण होने से मिथ्यात्व विशुद्ध कर अर्थात् मिथ्यात्व का क्षय कर दर्शन आराधना करता है। फिर मिथ्यात्व बंध नहीं होता है। दर्शन विशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई जीवात्मा उसी जन्म में सिद्ध हो जाते हैं। एवं कई जीव दर्शन विशोधि से विशुद्ध होने पर तीसरे जन्म में मुक्त हो जाते हैं। इससे आगे जन्म-मरण नहीं करते हैं। (उत्तराध्ययन के उन्नीसवें अध्ययन में) For Personal & Private Use Only 177 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-दिशा द्वार-आचार्य की योग्यता द्वितीय परगण-संक्रमण-द्वार दूसरे द्वार का मंगलाचरण : अणहं अरयं अरुयं अजरं अमरं अरागमऽपओसं । अभयमकम्ममजम्मं सम्मं पणमह महावीरं ।।४१६९।। अर्थात् :- पाप से रहित, रज रहित, रूप रहित जरा-वृद्धावस्था से रहित, मृत्यु से रहित, राग से रहित, द्वेष से रहित, भय से रहित, कर्म से रहित एवं जन्म से रहित श्रवण भगवान श्री महावीर दे भव्यात्माओं! सम्यग् रूप से नमस्कार करो। प्रथम द्वार में परिकर्म विधि का जो वर्णन किया है उसका गण संक्रमण करते आराधकों के लिए शुद्ध विधि कहूँगा, इसमें प्रतिद्वार दस हैं। वे इस प्रकार हैं :- (१) दिशा द्वार, (२) क्षामणा द्वार, (३) अनुशास्ति द्वार, (४) परगण गवेषण द्वार, (५) सुस्थित (गुरु) गवेषण द्वार, (६) उप-सम्पदा द्वार, (७) परीक्षा द्वार, (८) प्रतिलेखना द्वार, (९) पृच्छा द्वार, और (१०) प्रतिपृच्छा द्वार हैं। इनका वर्णन क्रमशः कहते हैं। पहला दिशा द्वार : दिशा अर्थात् गच्छ, क्योंकि दिशा से यहाँ यति-समूह के कहने योग्य कहता हूँ। इसलिए अब वह दिशागच्छ की अनुज्ञा को यथार्थ रूप से कहता हूँ। इस ग्रन्थ के पूर्व द्वार में विस्तारपूर्वक कथनानुसार जिसने (संस्तारक) दीक्षा स्वीकार की है. वह श्रावक अथवा प्रव्रज्या को दीर्घकाल पालन करने वाला कोई साध अथवा निर्मल गुण-समूह से पूज्य सूरिपद को प्राप्त करने वाले साधु-सूरि (आचार्य) ही निरतिचार आराधना विधि कर सकते हैं। उसमें जो आगम विधिपूर्वक दीर्घकाल सूरिपद का अनुपालनकर, समस्त सूत्र अर्थ के अध्ययन द्वारा शिष्यों का पालन-पोषणकर, शास्त्र मर्यादानुसार ऋद्धि, रस और शाता इन तीनों गारव रहित विहार कर भव्य आत्माओं को प्रतिबोध कर, फिर आराधना करने के लिए यदि चाहे तो उत्तरोत्तर बढ़ते प्रशस्त परिणाम रूप, संवेग वाले वे आचार्य (सूरि) प्रथम बहुत साधुओं के रहने योग्य बड़े क्षेत्र में जाय। उसके बाद उस नगर, खेट, कर्बट आदि स्थानों में विचरते अपने साधु गण को बुलाकर उनके समक्ष इस प्रकार अपना अभिप्राय बतलावें। उसके पश्चात् पक्षपात बिना सम्यग् बुद्धि से प्रथम निश्चय अपने ही गच्छ में अथवा अन्य गच्छ में आचार्य पद के योग्य पुरुष रत्न की बुद्धि से खोज करें। वह इस प्रकार :आचार्य की योग्यता : आर्य देश में जन्म लेने वाला, उत्तम जाति, रूप, कुल आदि पुण्य संपत्ति से युक्त हो, सर्व कलाओं में कुशल, लोक व्यवहार में अच्छी तरह कुशल हो, स्वभाव से सुंदर आचरण वाला, स्वभाव से ही गुण के अभ्यास में सदा तल्लीन रहने वाला, प्रकृति से ही नम्र स्वभाव वाला, प्रकृति से ही लोगों के अनुराग का पात्र, प्रकृति से ही अति प्रसन्न चित्तवाला, प्रकृति से ही प्रिय भाषा बोलने में अग्रसर, प्रकृति से ही अति प्रशान्त आकृति वाला, और इससे ही प्रकृति गंभीर, प्रकृति से ही अति उदार आचार वाला, प्रकृति से ही महापुरुषों के आचार में चित्त की प्रीति वाला, और प्रकृति से ही निष्पाप विद्या प्राप्त करने में उद्यमी चित्त वाला, कल्याण-धर्म मित्रों की मित्रता करने में अग्रसर, निंदा नहीं करने वाला, माया रहित, मजबूत शरीर वाला, बुद्धि-बल वाला, धार्मिक लोगों में मान्य, अनेक देशों में विचरण किया हो, और सर्व देशों की भाषा का ज्ञाता, व्यवहार में बहुत अनुभवी, देश परदेश के विविध वृत्तान्तों को सुने हो, दीर्घदृष्टा, अक्षुद्र, दाक्षिण्य के महा समुद्र, अति लज्जालु, 178 For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-दिशा द्वार-आचार्य की योग्यता श्री संवेगरंगशाला वृद्धों का अनुकरण करने वाला, विनीत और सर्व विषय में अति स्थिर लक्षण वाला, सरलता से प्रसन्न कर सके ऐसे गुणों का पक्षपाती, देश-काल-भाव का ज्ञाता, परहित करने में प्रीति वाला, विशेषज्ञ और पाप से अति भीरु, सद्गुरु ने जिसे विधिपूर्वक दीक्षा दी हो, उसके बाद अनुक्रम से स्व-पर शास्त्रों के विधानों के अभ्यासी, चिर-परिचित सूत्र अर्थ वाला, उस-उस युग में आगम धरों में मुख्य शास्त्रानुसारी ज्ञान वाला, तत्त्वों को समझाने की विशिष्ट बुद्धि वाला, क्षमावान्, सत्क्रिया को करने में रक्त, संवेगी लब्धिमान्, संसार की असारता को अच्छी तरह समझने वाला, और उससे विरागी चित्तवाला, और सम्यग् ज्ञानादि गुणों का प्ररूपक और स्वयं पालक, शिष्यादि तथा गच्छ समुदाय के उपयोगी उपकरणादि का संग्रह करने वाला अप्रमादी, ज्ञानी तपस्वी गीतार्थ, कथा करने में कुशल तथा परलोक का हित करने वाला, गुणों के समूह को ग्रहण करने में कुशल, सतत गुरुकुल वास में रहने वाला, आदेय वाक्य बोलने वाला, अतिशय प्रशमरस-संयम गुण में एक रस वाला, प्रवचन, शासन और संघ प्रति वात्सल्य वाला, शुद्ध मन वाला, शुद्ध वचन वाला, शुद्ध काया वाला, विशुद्ध आचार वाला, द्रव्य, क्षेत्र आदि में आसक्ति बिना का और सर्व विषय में जयणायुक्त, इन्द्रियों का दमन करने वाला, तीन गुप्ति से गुप्त, गुप्त आचार वाला, मात्सर्य रहित, शिष्यादि को अनुवर्तन कराने में कुशल, तात्त्विक उपकार में उद्यत, दृढ़ प्रतिज्ञा वाला, उठाई हुई जिम्मेदारी के भार को वहन करने में श्रेष्ठ वृषभ समान, आशंसा रहित, तेजस्वी, ओजस्वी, पराक्रमी, अविषादी, गुप्त बात दूसरों को 'नहीं' कहने वाला, धीर, हितमित और स्पष्टभाषी, कान को सुखकारी, उदार आवाज वाला होता है। ___ मन, वचन, काया की चपलता रहित, साधु के सारे गुणों रूपी ऋद्धि वाला, बिना परिश्रम से आगम के सूत्र अर्थ को यथास्थित कहने वाला, उसमें भी दृढ़ युक्तियाँ, हेतु, उदाहरण आदि देकर जिस विषय को आरंभ किया हो उसकी सिद्धि करने में समर्थ। पूछे हुए प्रश्नों का तत्काल उत्तर देने में चतुर, उत्तम मध्यस्थ गुण वाला, पाँच प्रकार के आचार पालन करने वाला, भव्य जीवों को उपदेश देने में आदर वाला, पर्षदा को जीतने वाला, क्षोभ रहित, निद्रा को जीतने वाला-अल्प निद्रा वाला, विविध अभिग्रह स्वीकार करने में रक्त, काल को सहन करने में धीरता धारण करने वाला, जवाबदारी के भार को सहन करने वाला, उपसर्गों को सहन करने वाला, और परीषहों को सहन करने वाला, तथा थकावट को सहन करने वाला, दूसरे के दुर्वाक्यों को सहन करने वाला, कष्टों को सहन करने वाला, पृथ्वी के समान सब कुछ सहन करने वाला ।।४२००।। उत्सर्ग अपवाद के समय पर उत्सर्ग और अपवाद को सेवन करने में चतुर, फिर भी बाल-मुग्ध जीवों के समक्ष अपवाद का आचरण नहीं करने वाला, प्रारंभ में और परिचय के पश्चात् भी भद्रिक तथा समुद्र समान गंभीर बुद्धि वाला, राजा के खजाने के समान सर्व के लिए हितकर, मद्य के घड़े के समान, प्रकृति से ही मधुर और मद्य के ढक्कन के समान, बाह्य व्यवहार में भी मधुर और गर्जना रहित, निरभिमानी, उपदेशरूपी, अमृत जल की वृष्टि करने में तत्परता से युक्त, शिष्यादि प्राप्त करने से और शिष्यादि को ज्ञान क्रिया में कुशलता प्रकट करने से, सर्व काल में और सर्व क्षेत्रों में, देश से और सर्व से बुद्धि प्राप्त करते पुष्करावर्त मेघ के साथ बराबरी करने वाला अर्थात् पुष्करावर्त मेघ गर्जना रहित वर्षा करने में तत्पर और उस-उस काल में उस-उस क्षेत्र में देश से और सर्व से अनाज उत्पन्न करने वाला और वृद्धि करने वाला होता है, वैसे शिष्यादि को भी वे गर्जना रहित वात्सल्य भाव से ज्ञानामृत की वर्षा करने में तत्पर, यथायोग्य शिष्य को योग्य बनाने वाला होता है। अभ्यंतर और बाह्य सामर्थ्य वाला तथा स्व और पर की अनुकम्पा में तत्पर तथा सूत्र पढ़ने से क्रिया में सीता सरोवर (सीतोदा के द्रह) के समान नित्य बहते हुए श्रोत के समान, और अध्ययन की क्रिया में सर्व ओर से पानी (जल) को प्राप्त करते श्रोत के सदृश साधु की खोज करें। - 179 For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-शिवभद्राचार्य का प्रबंध फिर भी काल की परिहानि के दोष से ऐसा संपूर्ण गुण वाला नहीं मिले तो इससे एक, दो आदि कम गण वाला अथवा छोटे-बडे दोष वाला भी अन्य बहत बडे गुण वाले को उत्तम प्रकार के शिष्य की शोध करके यह योग्य है ऐसा मानकर ऋण मुक्ति की इच्छा वाले आचार्य अपने गण-समुदाय को पूछ करके उसे गणाधिपति रूप (आचार्य पद) में स्थापन करें, केवल इतना विशेष है कि-अपना और शिष्य का दोनों का भी जब लग्न श्रेष्ठ चंद्रबल युक्त हो, ऊँचे स्थान में रहे सर्व शुभ ग्रहों की दृष्टि लग्न के ऊपर पड़ती हो, ऐसे उत्तम लग्न के समय में गच्छ के हित में उपयुक्त वह आचार्य समग्र संघ साथ में शास्त्रोक्त विधि से उस शिष्य में अपना आचार्य पद का आरोपण (स्थापन) करें। फिर निःस्पृह उस आचार्य को सूत्रोक्त विधि से समग्र संघ समक्ष ही 'यह गण तुम्हारा है' ऐसा बोलकर गच्छ की अनुज्ञा करें अर्थात् नये आचार्य को गच्छ समर्पण करें। परंतु यदि आचार्य ऊपर कहे अनुसार सविशेष सभी गुण समूह से युक्त पुरुष के अभाव में अन्य साधुओं की अपेक्षा से कुछ विशेष सद्गुण वाले भी साधु को अपने पद पर स्थापन नहीं करें और उसे गच्छ-समुदाय भी नहीं सौंपे तो वह शिव भद्राचार्य के समान अपने हित को और गच्छ को भी गुमा देता है ।।४२१२।। उसकी कथा इस प्रकार है : शिवभद्राचार्य का प्रबंध कंचनपुर नगर में श्रुतरूपी रत्नों के महान् रत्नाकर, महान् भाग्य वाले और अनेक शिष्यों रूप गच्छ के नेत्र रूप शिवभद्र नाम से आचार्य थे। वे महात्मा एक समय, मध्यरात्री के समय में आयुष्य को जानने के लिए जब आकाश को देखने लगे, तब अकस्मात् उन्होंने उछलती कांति के प्रवाह से समग्र दिशा चक्र को उज्ज्वल करते दो चंद्र को समकाल में देखा। इससे क्या मति भ्रम से दो चंद्र देखा है अथवा क्या दृष्टि दोष है? या क्या कृत्रिम भय है? ऐसे विस्मित चित्त वाले उन्होंने दूसरे साधु को उठाया और कहा कि-हे भद्र! क्या आकाश में तुझे दो चंद्र मण्डल दिखते हैं। उसने कहा कि मैं एक ही चंद्र को देखता हूँ। तब सूरिजी ने जाना कि-निश्चय ही जीवन का अंत आ गया है। इससे मैंने पूर्व में नहीं देखा हुआ, यह उत्पात हुआ है। क्योंकि-चिरकाल जीने वाला मनुष्य ऐसा दूसरों का आश्चर्य कारण और अत्यंत अघटित उत्पात को कभी भी नहीं देखता है अथवा ऐसे विकल्प करने से क्या लाभ? उत्पात के अभाव में भी मनुष्य तृण के अंतिम भाग में लगा हुआ जल-बिंदु देखने पर अपने जीवन को चिरकाल रहने का नहीं मानता। इससे प्रति समय नाश होते जीवन वाले प्राणियों को इस विषय में आश्चर्य क्या है? अथवा व्याकुलता किसलिए? अथवा संमोह क्यों होवे? उल्टा चिरकाल निर्मल शील से शोभित उत्तम घोर तपस्या वाले तपस्वियों को तो परम अभ्युदय में निमित्त रूप मरण है। परंतु पाथेय बिना का लंबे पंथ के मुसाफिर के समान जो परभव जाने के समय सद्धर्म को उपार्जन करने वाला नहीं है, वह दुःखी होता है। इसलिए मैं उत्तम गुण वाले सभी साधुओं के नेत्र को आनंद देने वाले एक मेरे शिष्य के ऊपर गच्छ का भार रखकर मैं अत्यंत विकृष्ट उग्र विविध जात की तपस्या से काया को सूखाकर एकाग्र मनवाला दीर्घ साधुता का फल प्राप्त करूँ। परंतु मेरे इन शिष्यों में शास्त्र के परमार्थ को जानने में कोई भी कुशल नहीं है, कोई स्वभाव से ही क्रोधातुर है, कोई रूप विकल है, कोई शिष्यों का अनुवर्तन करवाने में अज्ञ है, कोई कलह प्रिय है, कोई लोभी, कोई मायावी है और कोई बहुत गुण वाला है, परंतु अभिमानी है। हा! क्या करूँ? ऐसा कोई सर्वगुण संपन्न नहीं है कि जिसके ऊपर यह गणधर पद का आरोपण करूँ। शास्त्र में कहा है कि-'जानते हुए भी स्नेह राग से जो यह गणधर पद कुपात्र में स्थापन करता है, वह शासन का प्रत्यनिक है।' इस तरह शिष्यों के प्रति अरुचित्व होने के कारण इस प्रकार के कई गुणों से युक्त होने पर भी शिष्य समुदाय की अवगणना कर और भावी अनर्थ का 180 For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवन विधि द्वार-क्षानणा नामक दूसरा अंतर द्वार श्री संवेगरंगशाला विचार किये बिना ही समय के अनुरूप कर्त्तव्य में मूढ़ बनें उन्होंने अल्पमात्र संलेखनाकर भक्त परिज्ञा अनशन को स्वीकार किया। फिर गुरु अनशन में रहने से जब सारणा-वारणादि का संभव नहीं रहा तब जंगल के हाथियों के समान निरंकुश बने तथा गुरु को शिष्यों के प्रति उपेक्षा वाले देखकर, गुरु से निरपेक्ष बने हुए शिष्य भी उनकी सेवा आदि कार्यों में मंद आदर वाले हए और आचार्य भी उनको इस तरह देखकर हृदय में संताप करते अनशन को पूर्ण किये बिना ही मरकर असुर देवों में उत्पन्न हुए। शिष्य समुदाय भी जैसे नायक बिना के नागरिक शत्रु के सुभट समूह से पराभव प्राप्त करते हैं वैसे अति क्रूर प्रमाद शत्रु के सुभटों के समूह से पराभूत हो गया और गुरु के अभाव में साधु के कर्त्तव्य में शिथिल बन गया तथा मंत्र-तंत्र कौतुक आदि में प्रवृत्ति करते अनेक अनर्थों का भागीदार बना ।।४२३६।। इस कारण से आचार्य को मध्यम गुण वाले को भी आचार्य पद पर स्थापनकर उसे गच्छ की अनुज्ञा देकर अनशन का प्रयत्न करना चाहिए। अन्यथा प्रवचन की निंदा, धर्म का नाश, मोक्ष मार्ग का उच्छेद, क्लेशकर्म बंध और धर्म से विपरीत परिणाम आदि दोष लगते हैं। इस तरह कुगति रूपी अंधकार का नाश करने में सूर्य के प्रकाश तुल्य और मरण के सामने विजय पताका की प्राप्ति कराने में सफल कारण रूप संवेगरंगशाला रूपी आराधना के दस अंतरद्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार का दिशा नामक प्रथम अंतर द्वार कहा है। अब इस तरह अपने पद पर शिष्य को स्थापनकर उसे गण-समुदाय की अनुज्ञा करने वाले, एकान्त निर्जरा की अपेक्षा वाले भी आचार्य को जिसके अभाव में अति महान कल्याण रूपी लता वृद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता. उस दुर्गति का नाश करने वाला क्षमापना द्वार कहते हैं ।।४२४२।। क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार : उसके बाद प्रशान्त चित्तवाले वे आचार्य भगवंत, बाल, वृद्ध सहित अपने सर्व समुदाय को तथा तत्काल स्थापन किये नये आचार्य को बुलाकर मधुर वाणी से इस प्रकार कहे कि-'भो महानुभावों! साथ में रहने वालों को निश्चय सूक्ष्म या बादर कुछ भी अप्रीति होती है।' इसलिए कदापि अशन, पान, वस्त्र, पात्र तथा पीठ या अन्य भी जो कोई धर्म का उपकार करने वाला धर्मोपकरण मुझे मिला हुआ हो, विद्यमान होने पर भी और कल्प्य होने पर भी मैंने नहीं दिया हो अथवा दूसरे देने वाले को किसी कारण से रोका हो। अथवा पूछने पर भी यदि अक्षर, पद, गाथा, अध्ययन आदि सूत्र का अध्ययन न करवाया हो, अथवा अच्छी तरह अर्थ या विस्तार से नहीं समझाया हो, अथवा ऋद्धि, रस और शाता गारव के वश होकर किसी कारण से, कुछ भी कठोर भाषा से, चिरकाल बार-बार प्रेरणा या तर्जना की हो। विनय से अति नम्र और गाढ़ राग के बंधन से दृढ़, बंधन से युक्त भी तुमको रागादि के वश होकर मैंने यदि किसी विषम दृष्टि से अविनीतादि रूप में देखा हो या मान्य किया हो, और सद्गुणों की प्राप्ति में भी उस समय यदि तुम्हारी उत्साह वृद्धि न की हो, उसे हे मुनि भगवंतों! शल्य और कषाय रहित होकर मैं तुम्हें खमाता हूँ। तथा हे देवानुप्रिय! प्रिय हितकर को भी अप्रिय मानकर यदि इतने समय तक अस्थान में कारण बिना भी तुमको दुःखी किया हो तो भी खमाता हूँ। क्या किसी के द्वारा रात-दिन-सतत् किसी का भी एकान्त प्रिय कोई कर सकता है? इसलिए मैंने भी कुछ भी तुम्हारा अप्रिय किया हो उसके लिए मुझे क्षमा करना। अधिक क्या कहूँ? यहाँ साधु जीवन में द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव से मैंने तुम्हारा जो कोई भी अनुचित किया हो, उन सबको भी निश्चय ही मैं खमाता हूँ। फिर तीव्र गुरु भक्ति वाले चित्त युक्त आत्म वृत्ति-वाले, उन सभी ने भी पूर्व जन्म में नहीं सुने हुए गुरु के वचन सुनकर भयभीत बने हुए के समान उत्पन्न हुए शोक से मंद बने गद्गद् स्वर वाले, अति विद्वान होते - 181 For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार-आचार्य नयशील सूरि की कथा हुए भी सतत् बड़े-बड़े आँसुओं से भी गीली आँखों वाले गुरु से कहे कि - हे स्वामिन्! सर्व प्रकार से स्वयं कष्ट सहनकर भी यदि आपने सदा हमको ही चारित्र द्वारा पालन पोषण किया उसका उपकार करते हुए भी आपको मैं खमाता हूँ। ऐसा यह वचन क्यों कहते हैं? उसके स्थान पर 'आपने सद्गुणों में स्थापन किये उसकी अनुमोदना करता हूँ।' ऐसा कहना चाहिए। आप अप्राप्त गुणों को प्राप्त कराने वाले, प्राप्त किये गुणों की वृद्धि कराने वाले, कल्याण रूपी लता को उत्पन्न कराने वाले, एकान्त हित करने वाले वत्सल, मुक्तिपुरी में ले जाने वाले एक श्रेष्ठ सार्थवाह, निष्कारण एक प्रिय बंधु, संयम में सहायक, सकल जगत के जीवों के रक्षक, संसार समुद्र से पार उतारने वाले कर्णधार और सर्व प्राणि - समूह के सच्चे माता-पिता होने से जो अति चतुर भव्य प्राणियों के मातापिता का त्यागकर, आश्रय करने योग्य महासत्त्व वाले महात्मा भय से पीड़ित को भय मुक्त करने वाले और हित में तत्पर, हे भगवंत! आप उपयोग के अभाव में, प्रमाद से भी लोक में किसी का भी किसी तरह अनुचित चिंतन क्या कर सकते हो ? द्रव्य, क्षेत्र और काल से नित्य सर्व प्राणियों का एकान्त प्रिय करने वाले आपको भी क्या खमाने योग्य हो सकता है? निश्चय 'इस तरह कहने से गुण होगा' ऐसा मानकर आपको जो कुछ कठोरतापूर्वक आदि भी कहा, वह भी उत्तम वैद्य के कड़वे औषध के समान परिणाम से हमारे लिये हितकर होता है। इसलिए हमने ही आपका जो कोई भी अनुचित किया हो, करवाया हो और अनुमोदन किया हो उसे आप के प्रति खमाने योग्य है। पुनः हे भगवंत ! वह भी हमने राग से, द्वेष से, मोह से या अनाभोग से, मन, वचन और कायाद्वारा जो अनुचित किया हो, उसमें राग से अपनी बड़ाई करने से, द्वेष से आपके प्रति द्वेष करने से, मोह से, अज्ञान द्वारा और अनाभोग से, उपयोग बिना जो अनुचित किया हो तो वह आपके प्रति खमाने योग्य है। और आपने सम्यग् अनुग्रह बुद्धि से हमारा हित करने पर भी हमने मन से कुछ भी विपरीत कल्पना की हो, वचन से बीच में बोला हो या अप्रिय वचन बोला हो, पीछे निंदा, चुगलखोरी तथा आपकी जाति, कुल, बल, ज्ञान आदि से जो नीचता बतलायी हो, काया से आपके हाथ, पैर, उपधि आदि का यदि कोई अनुचित स्पर्श आदि किया हो, उन सब की हम त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना करते हैं। तथा हे भगवंत! अशन, पान आदि तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय वस्त्र, पात्र दण्ड आदि के तथा सारणा, वारणा, चोदना और प्रति - चोदना आदि की रुचि वाले आपने प्रेमपूर्वक दिया है, फिर भी हमने किसी तरह अविनय से स्वीकार किया हो, उसकी भी क्षमा याचना करते हैं, और किसी द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में, या भाव में, कहीं पर भी किसी प्रकार की कभी भी जो आशातना की हो, उसकी भी निश्चय त्रिविध - त्रिविध क्षमा याचना करते हैं। अब इस विषय में अधिक क्या कहें? इस तरह से भक्ति समूह युक्त शरीर वाले, वे शिष्य दो हाथ सम्यग् भाल-तल पर जोड़कर, गुणों से महान्, धर्माचार्य, धर्मोपदेशक और धर्म के वृषभ समान अपने गुरु महाराज को बार-बार किये हुए अपने अपराध की क्षमा याचना करें, और भी कहें कि - संयम के भार को धारण करने वाले उज्ज्वल गुणों के एक आधार हे पूज्य गुरुदेव ! दीक्षा दिन से आज तक हितोपदेश देने वाले आप की आज्ञा की अज्ञान तथा प्रमाद दोष के आधीन पड़े हमने जो कोई विराधना की हो, उन सब को भी मन, वचन, काया से क्षमा याचना करते हैं। इस तरह गुरु से यथायोग्य खामणा करने वाले शिष्यादि आनंद के आँसू बरसाते पृथ्वी तक मस्तक नमाकर यथायोग्य क्षमा याचना करें। इस तरह क्षमापना करने से आत्मा की शुद्धि होती है और दूसरे जन्म में थोड़ा भी वैर का कारण नहीं रहता है। अन्यथा क्षमापना नहीं करने से नयशील सूरि के समान ज्ञान का अभ्यास और परोपदेशादि धर्म का व्यापार भी परभव में निष्फल होता है ।।४२८० ।। वह इस तरह है : आचार्य नयशील सूरि की कथा एक बड़े समुदाय में विशाल श्रुतज्ञान से जानने योग्य ज्ञेय के जानकार, दूर से अन्य गच्छ में से आकर 182 For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-क्षामणा नामक दूसरा अंतर द्वार-आचार्य नयशील सूरि की कथा श्री संवेगरंगशाला सुनने की इच्छा वाले, सैंकड़ों शिष्यों के संशयों को नाश करने वाले महाज्ञानी और महान् उपदेशक एवं बुद्धि से स्वयं बृहस्पति के समान नयशील नामक आचार्य थे। केवल सुखशीलता के कारण क्रिया में वे ऐसे उद्यमी नहीं थें। उनका एक शिष्य सम्यग् ज्ञानी और चारित्र से भी युक्त था। इससे शास्त्रार्थ में विचक्षण लोग उपयुक्त मन वाले होकर 'तहत्ति' बोलते थें, उसके पास श्री जिनागम को सुनते थें और यह मुनि पवित्र चारित्र वाला है' ऐसा अतिमान देते थें। इस तरह काल व्यतीत होते एक समय उस आचार्य ने विचार किया कि - ये भोले लोग मुझे छोड़कर इसकी सेवा क्यों करते हैं? अथवा स्वच्छन्दाचारी ये लोग चाहे कुछ भी करें, किन्तु मैंने इस तरह बहुत श्रुत बनाया है, इस तरह दीक्षित बनाया है, इस तरह पालन भी किया है तथा महान् गुणवान बनाया है, फिर भी यह तुच्छ शिष्य मेरी अवगणना करके इस तरह पर्षदा में भेद का वर्तन क्यों करता है? 'राजा जीवंत हो तो उसके छत्र का भंग नहीं किया जाता है।' इस लोग प्रवाह को भी मैं मानता हूँ कि इस अनार्य ने सुना नहीं है। फिर भी इसको मैं यदि अभी धर्मकथा करते रोकूँगा तो महामुग्ध लोग मुझे ईर्ष्या वाला समझेंगे। इसलिए चाहे वह कुछ भी करे, इस प्रकार के जीवों की उपेक्षा करनी चाहिए, वही योग्य है, अन्य कुछ भी करना वह निष्फल और उसके भक्त लोक में विरुद्ध हैं। इस तरह संक्लेश युक्त बनकर उसके प्रति प्रद्वेष करने लगें, और उस आचार्य ने अंतकाल में भी उसके साथ क्षमापना किये बिना ही आयुष्य पूर्ण किया। फिर संक्लेश दोष से उसी वन में वह क्रूर आत्मा, संज्ञी मन वाला, तमाल वृक्ष समान अति काला श्याम सर्प हुआ। फिर किसी तरह जहाँ हाँ घूमता हुआ जिस स्थान पर साधु स्वाध्याय - ध्यान करते थे उस भूमि में आकर रहा। उस समय स्वाध्याय करने की इच्छा से वह शिष्य चला, तब अपशकुन होने से स्थविरों ने उसे रोका। एक क्षण रुककर जब वह फिर चला, तब भी पुनः वैसा ही अपशकुन हुआ, उस समय स्थविरों ने विचार किया कि - इस विषय में कुछ भी कारण होना चाहिए, अतः साथ में हमें भी जाना चाहिए। ऐसा मानकर उसके साथ ही स्थविर मुनि भी स्वाध्याय भूमि पर गये । फिर स्थविर के मध्य में बैठे उस शिष्य को देखकर पूर्व जन्म की कठोर ईर्ष्या के कारण उस सर्प को भयंकर क्रोध चढ़ा। तब प्रचण्ड फणा चढ़ाकर लाल आँखों द्वारा आकाश को भी लाल करते और अति चौड़े मुख वाला वह सर्प उस शिष्य की ओर दौड़ा। अन्य मुनियों को छोड़कर उस शिष्य की ओर अति वेग से जाते हुए उस सर्प को स्थविरों ने महामुसीबत से उसी समय रोका और उन्होंने विचार किया कि - जो ऐसा वैर धारण करता है वह निश्चय ही पूर्व भव का किसी की साधुता का भंजक और साधु का प्रत्यनिक होगा ।। ४३००।। उसके पश्चात् किसी समय पर वहाँ केवली भगवंत पधारें और स्थविरों ने विनयपूर्वक उनसे यह वृत्तान्त पूछा। इससे केवली भगवान ने पूर्व जन्म की बात कही, उस नयशील सूरि का उसके प्रति प्रद्वेष वाला सारा वृत्तान्त मूल से ही उन्होंने कहा । इस तरह सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे बुद्धिमान मुनि बोले- अहो! प्रद्वेष का दुष्ट परिणाम भयंकर है, क्योंकि ऐसे श्रुतज्ञान रूपी गुण की खान, बुद्धिमान और कर्त्तव्य जानकार भी महानुभाव आचार्य श्री द्वेष के कारण भयंकर सर्प बनें हैं। फिर पूछा कि - हे भगवंत ! अब उसे वैर का उपशम किस तरह हो सकता है? केवली भगवंत ने कहा कि - उसके पास जाकर पूर्वभव के वैर का स्वरूप उसे कहो और बार-बार क्षमापना करो, ऐसा करने से जाति स्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उसे बोध होगा और इससे धर्म भावना प्रकट होगी, वह मत्सर का त्याग करके अनशन स्वीकार करेगा और फिर भी उस काल के उचित सद्धर्म की करणी की आराधना करेगा, इससे स्थविरों ने सर्प के पास जाकर उसी तरह क्षमापनादि सर्व किया और वह सर्प अनशन आदि क्रिया करके मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह वैर की परंपरा को उपशम करने के लिए अनशन के समय में For Personal & Private Use Only 183 . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार शिष्य समुदाय की सविशेष क्षमापना करने से शुभ फल वाली बनती है, और क्षमापना करने वाले को इस जन्म में निःशल्यता, विनय का प्रकटीकरण, सम्यग् दर्शनादि गुणों की प्राप्ति, कर्म की लघुता, एकत्व भावना और रागरूपी बंधन का त्याग, इन गुणों की प्राप्ति होती है। इस तरह गुणरूपी रत्नों के लिए रोहणाचल पर्वत की भूमि समान और मरण के सामने युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत श्री संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला पर गण संक्रमण नामक दूसरा द्वार का क्षमापना नामक दूसरा अंतर द्वार कहा ।।४३१२ ।। __ अब तीसरा अनुशास्ति द्वार कहते हैं। तीसरा अनुशास्ति द्वार : अब शास्त्र विधि अनुसार मुनियों को क्षमापना करने पर भी जिसके बिना सम्यक् समाधि को प्राप्त न कर सके उस अनुशासित को अल्पमात्र कुछ कहते हैं। क्षमापना करने के बाद एकाग्रता से यथाविधि सर्व धर्म व्यापारों में प्रतिदिन उद्यम वाले, बढ़ते विशुद्ध उत्साह वाले, शास्त्र रहस्यों के जानकार, साधु के योग्य समस्त आचारों को स्वयं अखण्ड आचरण करते और शेष मुनियों को भी उसी तरह बतलाने वाले, अपने पद पर स्थापित नूतन आचार्य को एवं समग्र गच्छ को विशुद्ध संयम में रक्त देखकर पूर्व में कहे अनुसार उनकी अनुमोदना करें और अनुपकारी भी दूसरों को अनुग्रह करने में लीन चित्त वाले, महासत्त्वशाली और संवेग से भरे हुए हृदय वाले अति प्रसन्न मन वाले वे सूरि उचित समय पर शिक्षा दे उस शिक्षा के विशेषण बताते हैं-बड़े गुण की समूह की वृद्धि और पुष्टि द्वारा उसमें से कुबुद्धि रूप मैल धो गया हो। पंडित के मन को संतोष देने वाले प्रशम रस से बहती, अति स्नेह से युक्त, संदेह बिना की, गंभीर अर्थ युक्त, संसार प्रति वैराग्य प्रकट करने वाली, पाप रहित, मोह, अज्ञान रहित, कथनीय विषय को ग्रहण करने वाली, दुराग्रह की नाशक, मनरूपी अश्व को धर्म की चाबुक समान, मधुरता से क्षीर, मध की महिमा को भी जीतने वाली, अति मधुर और सुननेवाले के अस्थि-मज्जा को भी रंग दे ऐसी हित शिक्षा नये आचार्य को और गच्छ को दे उस शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार है : हे देवानुप्रिय! तुम जगत में धन्य हो, कि जो इस जगत में अति दुर्लभ आर्य देश में मनुष्य जीवन प्राप्त किया है। और स्नेही जन, स्वजन, नौकर आदि मनुष्यों से भरे हुए, उत्तम कुल में जन्म, प्रशस्त जाति तथा सुंदर रूप, सुंदर बल, आरोग्यता, और लम्बा आयुष्य, विज्ञान, सद्धर्म में बुद्धि, सम्यक्त्व, और अखण्ड निरतिचार शील को तुमने प्राप्त किया है। ऐसा पुण्य समूह निष्पुण्यक को नहीं मिल सकता है। इस तरह सर्व की सामान्य रूप में प्रशंसा करके उसके बाद सर्व प्रथम आचार्य को शिक्षा दे, जैसे कि-हे सत्पुरुष! तूं संसार समुद्र में तारने वाली उत्तम धर्मरूपी नाव का कर्णधार है, मोक्ष मार्ग में सार्थवाह है एवं अज्ञान से अंधे जीवों के नेत्र समान है। अशरण भव्य जीवों का शरण है और अनाथों का नाथ है, इसलिए हे सत्पुरुष! तुझे गच्छ के महान् भार में जोड़ा है। हे धीर! सर्वोत्तम तीर्थंकर नाम कर्म फल का जनक यह सर्वोत्तम आचार्य (सूरि) पद को, अक्षय सुख रूप को प्राप्त करने के लिए छत्तीस गुणरूपी धर्म रथ की धुरा को धारण करने में धीर, वृषभ समान, और पुरुषों में सिंह सदृश अनेक गणधरादि ने वहन किया है, जिससे निर्मल बुद्धि तूं भी इसे दृढ़ रूप से धारण करना। क्योंकि धन्य पुरुषों को ही यह पद दिया जाता है। धन्य पुरुष इसका पार प्राप्त कर सकते हैं, और इसका पार पाकर वे दुःखों का पार-अन्त को प्राप्त करते हैं। इससे भी श्रेष्ठ अन्य पद समग्र जगत में भी नहीं है, क्योंकि काल दोष से श्री जिनेश्वरों का व्युच्छेद होने से वर्तमान काल में शासन का प्रकाश-प्रभावना करने वाला यह पद है। इससे किसी ऐहिक आशा बिना प्रतिदिन श्री जिनागम के अनुसार विविध प्रकार के शिष्य समूह को योग्यता अनुसार 184 For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार श्री संवेगरंगशाला विद्वता का व्याख्यान करना कि जिससे परलोक में उद्यत धीर पुरुषों ने तेरे ऊपर आरोपित किया हुआ इस गणधर (आचार्य) पद को तूं निस्तार प्राप्त कर सफल करना। क्योंकि जन्म, जरा, मरण से भरे हुए विशाल संसार रूपी अटवी में परिभ्रमण करने से थके हुए, परम पद रूप कल्पवृक्ष से शुभ फल की संपत्ति को चाहते इस भव्य प्राणियों को श्री जिन कथित धर्मशास्त्र के उपदेश तुल्य तीनों जगत् में भी दूसरा सुंदर उपकार नहीं है। और इस तरह श्री जिन कथित आगम का जो व्याख्यान करना वह परमार्थ मोक्ष के संशय रूप अंधकार को सूर्य रूप है। संवेग और प्रशम का जनक है, दुराग्रह रूपी ग्रह को निग्रह करने में मुख्य समर्थ है, स्वपर उपकार करने वाला होने से महान है, प्रशस्त श्रीतीर्थंकर नामकर्म का बंध करने वाला है, इस तरह महान् गुण का जनक है। इस कारण से हे सुंदर! परिश्रम को अवकाश दिये बिना पर के उपकार करने में एक समान भाव वाला तूं रमणीय जैन धर्म का सम्यग् उपदेश देना। और हे धीर पुरुष! तुझे प्रतिलेखनादि दस भेद वाली मुनि के दसधाचक्रवाल क्रिया में, सामाचारी में, क्षमा, मार्दव आदि दस प्रकार के यति धर्म में तथा सत्तरह विध संयम में और सकल शभ फलदायक अद्वारह हजार शीलांग रथ में, इससे अधिक क्या कहें? अन्य भी अपने पद के उचित कार्यों में नित्य सर्व प्रकार से अप्रमाद करना, क्योंकि गुरु यदि उद्यमी हो तो शिष्य भी सम्यग् उद्यमशील बनते हैं। तथा प्रशान्त चित्त द्वारा तुझे सदा सर्व प्राणियों के प्रति मैत्री करना, गुणीजनों को सम्मान देना, विनीत वचनों से प्रशंसा आदि से प्रीति करना, दीन, अनाथ, अंध, बहेरें आदि दुःखी जीवों के प्रति करुणा करना और निर्गुणी, गुण के निंदक, पापासक्त जीवों की उपेक्षा करना। तथा हे सुंदर! दर्शन, ज्ञान और चारित्र के गुण के प्रकर्ष के लिए विहार करना, मुनि के आचार की सर्व प्रकार से वद्धि करना। तथा जैसे मल में छोटी भी श्रेष्ठ नदी बहती हई समद्र के नजदीक चौडाई में बढ़ जाती है वैसे पर्याय के साथ तूं भी शील गुण में वृद्धि करना। हे सुंदर! तूं विहार आदि मुनिचर्या को बिलाव के रुदन समान प्रथम उग्र और फिर मंद मत करना, अन्यथा अपना और गच्छ का भी नाश करेगा। सुखशीलता में गृद्ध जो मूढ़ शीतल विहारी बनता है उसे सय में गद्ध जो मढ शीतल विहारी बनता है उसे संयम धन से रहित केवल वेशधारी जानना। राज्य. देश. नगर. गाँव. घर और कुल का त्यागकर प्रव्रज्या स्वीकारकर पुनः जो वैसी ही ममता करता है वह संयम धन से रहित केवल वेशधारी है। जो क्षेत्र राजा बिना का हो अथवा जहाँ राजा दुष्ट हो, जहाँ जीवों को प्रव्रज्या की प्राप्ति न हो अथवा संयम पालन न हो और संयम का घात होता हो तो वह क्षेत्र त्याग करने योग्य है। स्व-पर दोनों पक्ष में अवर्णवाद तथा विरोध को, असमाधिकारक वाणी को और अपने लिए विष तुल्य तथा पर के लिए अग्नि समान कषायों को छोड़ देना, यदि जलते हुए अपने घर को प्रयत्नपूर्वक ठण्डा करने की इच्छा न करें तो उससे दूसरे के घर की अग्नि को शांत करने की आशा कैसे कर सकते हैं? ।।४३५०।। सिद्धांत के सारभूत ज्ञान में, दर्शन में और चारित्र में, इन तीनों में जो अपने आपको तथा गच्छ को स्थिर करता है वह गणधर कहलाता है। हे वत्स! चारित्र की शद्धि के लिए उदगम. उत्पाद आदि दोषों से रहित अशन आदि पिंड उपधि को और वसती को ग्रहण करना/जो आचार में वर्तता है वही आगम में मर्यादावान आचार्य कहा है और ऊपर कहे आचार से जो रहित रहता है वह मर्यादा की अवश्य विराधना करता है। सर्व कार्यों में गुह्य तत्त्व को गुप्त और सम्यक् समदर्शी बनना, बाल और वृद्धों से युक्त समग्र गच्छ का नेत्र के समान सम्यग् रक्षण करना। जैसे ठीक मध्य में पकड़ा हुआ सोने का काँटा (तराजू) वजन को समभाव में धारण करता है अर्थात् एक पलड़े में सोना और दूसरे पलड़े में लोहा हो तो भी वह समभाव से धारण करता है अथवा जैसे समान गुण वाले दोनों पुत्र की माता समान रूप से सार संभाल 1. १. क्षमा, २. मार्दवता, ३. सरलता, ४. निर्लोभता, ५. तप, ६. संयम, ७. सत्य, ८. शौच, ६. आकिंचन, १०. ब्रह्मचर्य। - 185 For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार रखती है अथवा जैसे तूं अपने दोनों नेत्रों को किसी प्रकार के भेदभाव बिना एक समान सार संभाल रखता है, वैसे विचित्र चित्त प्रकृति वाले भी शिष्य समुदाय प्रति तूं समान दृष्टि वाला बनना। जैसे अति दृढ़ मूल रूप गुण वाले वृक्ष के विविध दिशा में उत्पन्न हुए भी उत्तम पत्ते चारों तरफ घिरे हुए होते हैं, वैसे दृढ़ मूल गुणों से युक्त तुझे भी भिन्न-भिन्न दिशा से आये हुए ये महामुनि भी सर्वथा घिरे हुये रहेंगे। (यहाँ दिशा अलग-अलग गच्छ समुदाय समझना) और जैसे पत्ते के समूह से छाया वाला बना हुआ वृक्ष पक्षियों का आधारभूत बनता है, वैसे मुनि रूपी पत्तों के योग से कीर्ति को प्राप्त करने वाला तूं मोक्ष रूपी फल की इच्छा वाले भव्य प्राणी रूपी पक्षियों के लिए सेवा पात्र बनेगा। ___ इसलिए तुझे इन उत्तम मुनियों को लेशमात्र भी अपमानित नहीं करना। क्योंकि तूंने उठाये हुए सूरिपद के भार को उठाने में तुझे वे परम सहायक हैं। जैसे विन्ध्याचल भद्र जाति के, मंद जाति के, मृग जाति आदि के विविध संकीर्ण जाति वाले हाथियों का सदाकाल भी आधारभूत है, वैसे तूं भी क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और क्षुद्र कुल में जन्मे हुए और संयम में रहे सर्व साधुओं का आधारभूत बनना। तथा उसी विन्ध्याचल जैसे नजदीक रहे और दूर वन में रहे हाथियों के यूथों का भेद बिना समान भाव से आधार रूप धारण करता हैं, आश्रय को देता हैं, वैसे हे सुंदर! तूं भी स्वजन-परजन आदि संकल्प बिना समान रूप में इन सर्व मुनियों का आधारभूत बनना। और स्वजन या परजन को भी बालक समान, सदन बिना के, रोगी, अज्ञान, बाल वृद्धादि सर्व मुनियों का परम सहायक तूं बनना। प्रेमयुक्त से पिता समान अथवा दादा समान निराधार का आधार, अनाथ का नाथ बनना। तथा इस दुषमकाल रूपी कठोर गरमी में धर्मबुद्धि रूप जल की तृष्णा वाले साधुओं का तथा संसर्ग से दूर रहने वाली भी 'यह तेरी अन्ते वासियाँ हैं' ऐसा समझकर साध्वियों को भी, मुक्तिपुरी के मार्ग में चलने वाले सुविहित साधुओं की आचार रूपी पानी परब (प्याऊ) में रहा हुआ तूं देशना रूपी नाल द्वारा कर्त्तव्य रूपी जल का पान करवाना, तथा इस लोक में सारणादि करें, वह इस लोक का आचार्य है और परलोक के लिए जिनागम का जो स्पष्ट उपदेश दे वह परलोक का आचार्य। इस तरह आचार्य दो प्रकार के होते हैं। इसमें यदि आचार्य सारणा न करे, वह जीभ से पैर को चाटता है अर्थात् लाड-प्यार करता है तो भी हितकर नहीं है, यदि दण्ड से मारें और सारणादि करें वह भी हितकर नहीं। जैसे कोई शरण में आये हुए का प्राण हरण करता है, उसे महापापी गिना जाता है। वैसे गच्छ में सारणादि करने योग्य को भी सारणादि नहीं करे तो वह आचार्य भी वैसा जानना। इसलिए हे देवानुप्रिय! तूं सम्यक् परलोक आचार्य बनना, केवल इस लोक का आचार्य बनकर स्व-पर का नाशक मत बनना। क्योंकि दुःखियों को तारने में समर्थ परम ज्ञानी आदि गुण को प्राप्त करके जो संसार के भय से डरते जीवों का दृढ़ अण करते हैं. वे धन्य हैं। तथा साध मन वचन या काया से तेरे सैंकड़ों अनिष्ट अपराध करें फिर भी तूं उनका हितकर ही बनना, अप्रीति अल्प भी मत करना। किसी एक का पक्षपात किये बिना रोषादि का जय करके सर्व साधर्मियों के प्रति समचित्त रूप से वर्तन करना। सर्व जीवों के प्रति बंधुभाव करना। परंतु जो अपनी आत्मा को एकाकी ही रागी करता है उसके समान दूसरा मूढ़ कौन हो सकता है? स्वयं क्लेश सहन करके भी तेरे साधर्मिक साधुओं के कार्यों में किसी तरह उत्तम प्रकार से वर्तन करना चाहिए कि जिससे तूं उनके लिए अमृत तुल्य बन जायें। ऐसा करने से तेरी कीर्ति तीनों जगत में शोभायमान होगी। इस कारण से ही किसी ने चंद्र के उद्देश्य से कहा है कि-हे चंद्र! गगन मण्डल में परिभ्रमण कर और दिन प्रतिदिन क्षीणता आदि दुःखों को सतत् सहन कर, क्योंकि सुख भोगने से आत्मा को जगत् प्रसिद्ध नहीं कर सकता है। तथा अज्ञानवश या विकारी प्रकृति के दोष __186 For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार- अनुशास्ति द्वार-साध्वी और स्त्री संग से दोष श्री संवेगरंगशाला से जो अपना मन, वचन, काया से पराभव ही करता है, उनको भी तुझे 'तूं स्वामी होने के कारण' बहुत सहन करके भी मधुर वचनों द्वारा उस क्षुद्र भूलों से प्रयत्नपूर्वक रोकना चाहिए । हे भद्र! अविनीत को शिक्षा देते तूं किसी समय कृत्रिम क्रोध करें तो भी अंतर परिणाम शुद्धि का - - अनुग्रह बुद्धि का त्याग मत करना, निश्चय से सर्व विषयों में यह परिणाम शुद्धि ही रहस्य- तात्त्विक धन है। क्योंकि श्री वीर परमात्मा के आश्रित ग्वाला, खरक वैद्य तथा सिद्धार्थ का गति में भेद रहा है, वैसे दूसरे को पीड़ा देने वाले को भी भिन्न परिणामवश से गति में भेद रहता है। श्री वीर प्रभु के कानों में कील डालकर पीड़ा करने वाले ग्वाले ने दुष्ट परिणाम से नरक गति को प्राप्त किया और उसको निकालने से महान् पीड़ा करते हुए भी खरक वैद्य और सिद्धार्थ दोनों परिणाम शुद्धि होने से देवलोक में गये। हे सुंदर ! यदि तूं अति कठोर बनेगा तो परिवार का खेदकारक बनेगा और अति कोमल बनेगा तो परिवार के पराभव का पात्र बनेगा, इसलिए मध्य परिणामी बनना । निरंकुश परिवार वाला स्वामी भी स्व- पर उभय को दुःख का निमित्त बनता है, इसलिए तूं आचार्य होने पर भी उनके अनुसार वर्तन करने का प्रयत्न करना । प्रायः अनुवर्तन करने से शिष्य परम योग्यता को प्राप्त करते हैं, रत्न भी परिकर्म करने से गुण के उत्कर्ष को प्राप्त करता है। परस्पर विरुद्ध होने से जल और अग्नि का, तथा जहर और अमृत का योग होने पर भी महासमुद्र प्रकृति से ही अविकारी होता है, वैसे ही बाह्य निमित्त के कारण से विविध अंतरंग भाव उत्पन्न होते हैं, परंतु हे सुंदर ! तूं नित्य अनिन्दित रूपवाला होकर भी गंभीर बनना, अर्थात् समुद्र के समान बाह्य विषमता के समय पर भी तूं गंभीर बनना । व्याख्या में कुशल भी यह अति अद्भुत प्रभाव वाले आचार्य पद के प्रत्येक विषय में सर्व प्रकार से उपदेश (शिक्षा) देने में कौन समर्थ हो सकता है? अतः इतना ही कहता हूँ कि जिस-जिस से शासन की उन्नि हो उसका स्वयंमेव विचारकर तुझे वर्तन करना चाहिए ।।४३९१ ।। इस तरह प्रथम गणधर के कर्त्तव्य द्वारा हित- शिक्षा देकर वे आचार्य सूत्रोक्त विधि से शेष साधुओं को हित-शिक्षा दे, जैसे कि - भो ! भो ! देवानुप्रियों! प्रिय या अप्रिय, सर्व विषयों में निश्चय ही आप कभी राग-द्वेष के वश मत होना। स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि योग में सदा अप्रमत्त और साधुजन के उचित अन्य कार्यों में भी नित्य रत बनना। यथावादी तथाकारी बोलना वैसा पालन करने वाले बनना । परंतु निग्रंथ प्रवचन में अल्प भी शिथिल मन वाले मत बनना । असार मनुष्य जीवन में बोध प्राप्त करना दुर्लभ है, ऐसा जानकर अवश्य करणीय संयमाचरण और तपश्चर्या करने में प्रमाद मत करना । श्री जिन वचनानुसारी बुद्धि वाले तुम सदा पाँच समितियों में युक्त, तीन गारव से रहित और तीन दण्ड का निरोध करने वाले बनना । आहारादि संज्ञा, कषाय और आर्त्त रौद्र ध्यान का भी नित्य त्याग करना और सर्व बल से दुष्ट इन्द्रियों पर सम्यग् विजय करना । कवच आदि से युक्त हो और हाथ में धनुष्य बाण धारण किये हो, फिर भी रण में से भागता हो तो वह सुभट जैसे निंदा का पात्र है, वैसे इन्द्रियों और कषायों के वश हुआ साधु भी निंदा का पात्र बनता है। उन साधुओं को धन्य है जो कि ज्ञान और चारित्र में निष्कलंक होकर विषयों को वशकर लोक में राग रहित अलिप्त रूप में विचरते हैं ।।४४०० ।। और जो विरोध से मुक्त, मूढ़ता बिना विषमता में अखण्ड मुख कांति वाले और अखण्ड गुण समूह वाले हैं। वे विस्तृत यश समूह वाले विजयी हैं। शिष्यों की हित- शिक्षा का प्रारंभ किया है। फिर भी वर्णन किये जाते इस विषय को प्रसन्न चित्तवाले हे सूरिजी ! तुम भी एक क्षण सुनों । साध्वी और स्त्री संग से दोष : अप्रमत्त मुनियों! तुम अग्नि और जहर के समान साध्वियों के परिचय को छोड़ो, क्योंकि - साध्वियों For Personal & Private Use Only 187 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार- अनुशास्ति द्वार-सुकुमारिका की कथा के परिचय वाला साधु शीघ्र लोकापवाद को प्राप्त करता है । वृद्ध, तपस्वी, अत्यन्त बहुश्रुत और प्रमाणिक साधु को भी साध्वी के संसर्ग से अपवाद - निंदा रूपी दृढ़ वज्र का प्रहार होता है, तो फिर युवावस्था, अबहुश्रुत, उग्रतप बिना का और शब्दादि विषयों में आसक्त साधु जगत में निंदा का पात्र कैसे नहीं बनेगा? जो साधु सर्व विषयों से भी विमुक्त और सर्व विषयों में आत्मवश - स्वाधीन हो वह भी साध्वियों का परिचय वाला अनात्मवश–चेतना शक्ति खो बैठता है। साधु के बंधन में, साध्वी के समान लोक में दूसरी उपमा नहीं है, अर्थात् साध्वी उत्कृष्ट बंधन रूप है, क्योंकि अवसर मिलते ही वे रत्न त्रयरूपी भाव मार्ग से गिराने वाली है, यद्यपि स्वयं दृढ़ चित्तवाला हो तो भी अग्नि के समीप में जैसे घी पिघल जाता है, वैसे सम्पर्क से परिचित बनी साध्वी में उसका मन रागी बनता है। इसी तरह इन्द्रिय दमन गुण रूप काष्ठ को जलाने में अग्नि समान शेष स्त्री वर्ग के साथ में भी संसर्ग को प्रयत्नपूर्वक दूर से ही त्याग करना । विषयांध स्त्री कुल को, अपने वंश को, पति को, पुत्र को, माता को और पिता को भी नहीं गिनकर उसे दुःख समुद्र में फेंकती हैं। स्त्री रूपी सीढ़ी द्वारा नीच पुरुष भी गुणों के समूह रूपी फलों से शोभित शाखा वाला मान से उन्नत पुरुष रूपी वृक्ष के मस्तक पर चढ़ता है, अर्थात् अभिमानी गुणवान् पुरुष को भी स्त्री संपर्क से नीच भी पराभव करता है। जैसे अंकुश से बलवान हाथियों को नीचे बैठा सकते हैं, वैसे दुष्ट स्त्रियों के संसर्ग द्वारा अभिमानी पुरुषों को भी अधोमुख-हल्के तुच्छ कर सकते हैं। जगत में पुरुषों ने स्त्रियों के कारण अनेक प्रकार के भयानक युद्ध किये हैं, ऐसा महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों से सुना जाता है। नीचे मार्ग में चलने वाली, बहुत जल वाली, कुपित और वक्र गति वाली नदी जैसे पर्वत का भी भेदन करती है, वैसे नीच आचार वाली, ऊँचे स्तनवाली, काम से व्याकुल और मंदगति वाली स्त्रियाँ महान् पुरुषों का भी भेदन करती हैं और नीचे गिरा देती हैं। अच्छी तरह वश की हुई, बहुत दूध पिलाकर पोषण की हुई और अति दृढ़ प्रेम वाली साँपनी के समान अतिवश की हुई और अति दृढ़ प्रेम वाली स्त्रियों में भी कौन विश्वास करें? क्योंकि पूर्ण विश्वासु, उपकार करने में तत्पर और दृढ़ स्नेह वाले पति को भी अल्प इच्छा विरुद्ध अप्रिय होते ही निर्भागी स्त्रियाँ तुरंत मरण का कारण बनाती हैं। पंडितजन भी स्त्रियों के दोषों के पार को नहीं प्राप्त करते हैं, क्योंकि - जगत में बड़े दोषों की अंतिम सीमा तक वे ही होती हैं। रमणीय रूप वाली सुकुमार पुष्पों के समान अंगवाली और गुण से वश हुई स्त्रियाँ पुरुषों के मन को हरण करती हैं। परंतु केवल दिखने की सुंदरता से मोह उत्पन्न कराने वाली उन स्त्रियों के आलिंगन से वज्र की माला के समान तुरंत विनाश होता है। निष्कपट प्रेम से वश मनवाले राजा को भी सुकुमारिका ने पंगु जाट पुरुष के कारण गंगा नामक नदी में धक्का दिया था ।।४४२० ।। उसकी कथा इस प्रकार से है :– सुकुमारिका की कथा बसंतपुर नगर में जगत् प्रसिद्ध जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था, उसकी अप्रतिम रूप वाली सुकुमारिका नाम की रानी थी । अत्यंत राग से तन्मय चित्त वाला वह राज्य कार्य को छोड़कर उसके साथ सतत् क्रिड़ा करते काल को व्यतीत करता था । उस समय राज्य का विनाश होते देखकर मंत्रियों ने सहसा रानी सहित उसे निकाल दिया और उसके पुत्र का राज्याभिषेक किया। फिर मार्ग में आते जितशत्रु जब एक अटवी में गया, तब तृष्णा से पीड़ित रानी ने पानी पीने की याचना की, तब रानी भयभीत न हो ऐसा विचारकर उसकी आँखें बंध करके और राजा ने औषध के प्रयोग से स्वयं मरे नहीं इस तरह अपनी भुजा का रुधिर उसे पिलाया। फिर भूख से पीड़ित रानी को राजा ने अपनी जंघा काटकर मांस खिलाया और सरोहिणी औषधी से उसी समय जंघा को पुनः स्वस्थ कर दिया। फिर वे दूर के किसी नगर में जब पहुँचे तब सर्व कलाओं में कुशल राजा उसके 188 For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-सुकुमारिका की कथा -सिंह गुफावासी मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला आभूषणों को बेचकर उस धन से व्यापार करने लगा। और पंगु आदमी को निर्विकारी जानकर, रक्षण के लिए रानी के पास रख दिया। उसने मधुर गीतों से और कथा कौशल आदि से रानी को वश में किया। इससे रानी उसके साथ एकचित्त वाली और पति के प्रति द्वेष वाली बनीं। अन्य अवसर पर वह पंगु के साथ क्रीड़ा करती थी और एक दिन उसने उद्यान में रहे अति विश्वासु जितशत्रु को अति मात्रा में मदिरा पान करवा कर गंगा नदी में फेंक दिया। इस तरह अपने मांस और रुधिर को देकर भी पोषण किये शरीर वाली निर्भागी स्त्रियाँ उपकार भूलकर पुरुष को मार देती हैं। जो स्त्रियाँ वर्षाकाल की नदी समान नित्यमेव कलुषित हृदय वाली, चोर समान धन लेने की एक बुद्धि वाली, अपने कार्य को गौरव मानने वाली, सिंहनी के समान भयंकर रूप वाली, संध्या के समान अस्थिर-चंचल रूप वाली और हाथियों के श्रेणियों के सदृश नित्य मद से या विकार से व्याकुल होती हैं। वे स्त्रियाँ कपट हास्य से और बातों से, कपटमय रुदन से और मिथ्या शपथ से अति विलक्षण पुरुष को भी विवश करती हैं। निर्दय स्त्री पुरुष को वचन से वश करती है और हृदय से नाश करती है। क्योंकि उसकी वाणी अमृतमय और हृदय विषमय समान होता है। 'स्त्री शोक की नदी, पाप की गुफा, कपट का घर, क्लेश करनेवाली, वैर रूपी अग्नि को प्रकट करने में अरणी काष्ठ समान दुःखों की खान और सुख की शत्रु होती है।' इस कारण ही महापुरुष 'एकान्त में मन विकारी बनता है।' इस भय से माता, बहन या पुत्री के साथ एकान्त में बात नहीं करते हैं। सम्यग् दृढ़ अभ्यास किये बिना म्लेच्छ- पापी कामदेव के बाण समूह समान स्त्रियों की दृष्टि के कटाक्षों को जीतने में कौन समर्थ है? पानी से भरे हुए बादलों की श्रेणी जैसे गोनस जाति के सर्प के जहर को बढ़ाता है वैसे ऊँचे स्तन वाली स्त्रियाँ पुरुष में मोह रूपी जहर को बढ़ाती हैं। तथा दृष्टि विष सर्प के समान स्त्रियों की दृष्टि का त्याग करो—उसके सामने देखो ही नहीं, क्योंकि - उसकी दृष्टि पड़ने से प्रायःकर चारित्र रूपी प्राण का नाश हो है। जैसे अग्नि से घी पिघल जाता है, वैसे स्त्री संसर्ग से अल्प सत्त्व वाले मुनि का भी मन मोम समान तुरंत ही विलय प्राप्त होता है। यद्यपि संसर्ग का त्यागी और तप से दुर्बल शरीर वाला हो, फिर भी उपकोशा वेश्या के घर में रहा हुआ सिंह गुफावासी मुनि के समान स्त्री संसर्ग से चारित्र से गिरता है ।। ४४४२ ।। उसका दृष्टांत इस प्रकार है : सिंह गुफावासी मुनि की कथा गुरु ने स्थूलभद्रजी की प्रशंसा करने से सिंह गुफावासी मुनि को तीव्र ईर्ष्या हुई। वह मन में सोचने लगा कि—कहाँ वर्षाकाल में उपकोशा के घर में रहने वाला स्थूलभद्र मुनि और कहाँ दुष्कर तप शक्ति द्वारा सिंह को भी शांत करने वाला मैं आचार्य श्री संभूति विजय का शिष्य ? अतः वह अपना प्रभाव दिखाने के लिए चौमासे में उपकोशा के घर गया । उपकोशा उत्तम वेश्या ने उसके शील के रक्षण के लिए विकारी हास्य, विकारी वचन, विकारी चाल और वक्र कटाक्ष आदि द्वारा लीला मात्र में उसे विकारी कर शीघ्रमेव उसे अपने वशीभूत कर दिया। फिर उसे 'नये साधु को लाख स्वर्ण मुद्रा की मूल्य वाली रत्न कम्बल का दान नेपाल देश का राजा देता है' उसके पास रत्न कम्बल लेने के लिए भेजा। इस तरह तत्त्व से विचार करते संयम रूपी प्राण का विनाश करने में एकबद्ध लक्ष्य वाली एवं दुःख को देने वाली स्त्री में तथा प्राण लेने के, लक्ष्य वाले, दुःख देने वाले शत्रु में कोई भी अंतर नहीं है । तथा मुनि श्रृंगार रूपी तरंग वाली, विलास रूपी ज्वर वाली, यौवन रूपी जल वाली और हास्य रूपी फणा वाली, स्त्री रूपी नदी में नहीं बहते हैं। परंतु धीर पुरुषों ने विषय रूपी जल वाले, मोह रूपी कीचड़ वाले स्त्रियों के नेत्र विकार तथा विकारी 189 For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-प्रवर्तिनी को अनुशास्ति अंग चेष्टा आदि जलचरों से व्याप्त काम के मद रूपी मगरमच्छ वाले, और यौवन रूपी महासमुद्र को पार किया हैं। जो स्त्रियाँ पुरुष को बंधन के लिए पाश समान अथवा ठगने के लिए पाश सदृश, छेदन करने के लिए तलवार समान, दुःखी करने के लिए शल्य तुल्य, मूढ़ता करने में इन्द्रजाल सदृश, हृदय को चीरने में कैंची के समान, भेदन करने में शूली समान, दिखने में कीचड़ समान और मरने के लिए मरण तुल्य है अथवा श्लेष्म में चिपटी हुई तुच्छ मक्खी को छुटना जैसे दुष्कर है वैसे तुच्छ मात्र नामधारी पुरुष को स्त्री के संसर्ग से आत्मा को छोड़ना निश्चय ही अति दुष्कर है। जो स्त्री वर्ग में सर्वत्र विश्वास नहीं करता है और सदा अप्रमत्त रहता है, वह ब्रह्मचर्य को पार कर सकता है। इससे विपरीत प्रकृतिवाला पार को प्राप्त नहीं कर सकता है। स्त्रियों में जो दोष होते हैं, वे नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा अधिक बल-शक्ति वाले पुरुषों में स्त्रियों से अधिकतर दोष होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाले पुरुषों को जैसे स्त्रियाँ निंदा का पात्र हैं, वैसे ब्रह्मचर्य का रक्षण करने वाली स्त्रियों को पुरुष भी निंदा का पात्र है। और इस पृथ्वी तल में गुण से शोभायमान अति विस्तृत यश वाली तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, गणधर आदि सत्पुरुषों को जन्म देने वाली, देवों की सहायता प्राप्त करनेवाली शीलवती, मनुष्य लोक की देवियाँ समान चरम शरीरी और पूजनीय स्त्रियाँ भी हुई हैं, ऐसा सुना जाता है कि जो पुण्यशाली स्त्री पानी के प्रवाह में नहीं बहतीं, भयंकर जलती हुई अग्नि से जो नहीं जलती हैं और सिंह तथा हिंसक प्राणी भी उनको उपद्रव नहीं कर सके हैं। इसलिए सर्वथा ऐसा कहना योग्य नहीं है कि-एकान्त से स्त्रियाँ ही शील रहित होती हैं, किंतु इस संसार में मोह के वश पड़े हुए सर्व जीव भी दुःशील हैं। इतना भेद है कि वह मोह प्रायः कर स्त्रियों को उत्कट होता है। इस कारण से उपदेश देने की अपेक्षा से इस तरह स्त्रियों से होने वाले दोषों का वर्णन किया जाता है और उसका चिंतन करते पुरुष विषयों में विरागी बनता है। वे पुण्यशाली हैं कि जो स्त्रियों के हृदय में बसते हैं और वे देवों को भी वंदनीय हैं कि जिनके हृदय में स्त्रियाँ नहीं बसती हैं। ऐसा चिंतनकर भाव से आत्मा के हित को चाहने वाले जीवों को इस विषय में अत्यंत अप्रमत्त रहना चाहिए। इत्यादि क्रम से शिष्यों को हित शिक्षा देकर, अब वह आचार्य शास्त्र नीति से प्रवर्तिनी को भी हित शिक्षा देते हैं ।।४४६४।। प्रवर्तिनी को अनुशास्ति : ___यद्यपि तुम सर्व विषय में भी कुशल हो फिर भी हमें हित-शिक्षा देने का अधिकार है, इसलिए हे महायश वाली! तुमको हितकर कुछ कहता हूँ। समस्त गुणों की सिद्धि करने में अति महान यह प्रवर्तिनी पदवी तुमने प्राप्त की है, इसलिए इसके द्वारा उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप ज्ञान में तथा शास्त्रोक्त कार्यों में शक्ति अतिरिक्त भी तुम्हें निश्चय उद्यम करना। पाप से भी किये हुए शभ कार्यों की प्रवृत्ति प्रायःकर संदर फल वाली होती है, फिर संवेगपर्वक की हई शभ प्रवत्ति के लाभ का कहना ही क्या? इसलिए संवेग में प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि दीर्घकाल तपस्या की हो, चारित्र पालन किया हो और श्रुतज्ञान का अध्ययन किया हो, परंतु संवेग के रंग बिना वह सब निष्फल है। इसलिए उसका ही उपदेश देता हूँ। तथा इन साध्वियों को सम्यग् ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति कराने से निश्चय जैसे तुम सच्ची प्रवर्तिनी बनों वैसे प्रयत्न करना। सौभाग्य, नाट्य, रूप आदि विविध विज्ञान के राग से तन्मय बनी लोक की दृष्टि जैसे रंग मण्डप में नाचती नटी के ऊपर स्थिर होती है वैसे हे भद्रे! सम्यग् ज्ञान आदि अनेक प्रकार के तुम्हारे सद्धर्म रूपी गुणों के अनुराग से रागी बनी हुई विविध देश में उत्पन्न हुई, विशुद्ध कुल में जन्मी हुई और पिता-माता को छोड़कर आयी हुई साध्वियाँ भी तुम्हें प्राप्त हुई, प्रवर्तिनी पद से रमणीय बनीं, तुम्हारा आश्रय करके रही हैं। वह नटी जैसे निश्चय विनय वाली-मधुर स्नेह वाली है, अपनी दृष्टि से प्रेक्षकों को देखती और कहे हुए सौभाग्यादि, विज्ञानादि 190 For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-साध्वियों को अनुशास्ति श्री संवेगरंगशाला गुणों को प्रकट करती प्रेक्षकों की दृष्टियों को प्रसन्न करती है, वैसे तुम भी स्नेह-मधुर दृष्टि की कृपा से ज्ञानादि धर्म गुणों के दान से नित्य इन आर्याओं को अच्छी तरह प्रसन्न करना। जैसे अपने गुणों से ही पूज्य, उज्ज्वल विकास वाली और शुक्ल पक्ष के दूज की चंद्रकला, प्रकृति से ही शीतल और मोति के हार समान उज्ज्वल अन्यान्य कलाओं का आश्रय करती है, वैसे उस प्रकार के अपने गुणों से दूज के चंद्र समान लोक में पूजा पात्र बनना और प्रकृति से ही अति निर्मल गुण वाली तुम्हारा आश्रय लेकर ये साध्वियाँ भी रही हैं. जैसे आगन्तुक कलाओं से दूज की कलाओं के समान वृद्धि होती है और जैसे वह प्राप्त हुई कलाओं का मूल आधार वह दूज की कला है, अथवा उस दूज की कला बिना शेष कलाओं की अल्प भी स्थिति नहीं घटती है, वैसे दूज की कला समान तुम्हारी वृद्धि इन साध्वियों से है। इन साध्वियों का भी मल आधार तम हो और सज्जनों के लिए श्लाघनीय उनकी भी स्थिति तुम्हारे बिना नहीं घटती है। तथा जैसे वह दूज की चंद्रकला शेष कलाओं से रहित नहीं शोभती वैसे तुम भी इन साध्वियों के बिना नहीं शोभती और वे भी तुम्हारे बिना नहीं शोभती हैं। इसलिए मोक्ष के साधक योगी (संयम व्यापार की) साधना करते इन साध्वियों को तुम बार-बार सम्यक् सहायक बनना। तथा प्रयत्नपूर्वक इन साध्वियों के स्वेच्छाचार को रोकने के लिए तुम वज्र की सांकल समान, उनके ब्रह्मचर्य आदि गुणों की रक्षा के लिए पेटी समान, उनके गुणरूपी पुष्पों के विकास के लिए अति गाढ़ उद्यान समान, और अन्य पुरुषादि का प्रवेश वसती में न हो उसके लिए किल्ले के समान बनना। और जैसे समुद्र का ज्वार केवल अति मनोहर प्रवाल की लता, मोती की सीप तथा रत्नों के समूहों को ही धारण नहीं करता, परंतु जल में उत्पन्न होने वाले असुंदर जल की काई, सिवाल, नाव और कोड़ियों को भी धारण करता है, वैसे तुम भी केवल राजा, मंत्री, सामंत, धनाढ्य आदि भाग्यशाली और नगर सेठ आदि की पुत्रियों को, बहुत स्वजनों वाली, अधिक पढ़ी-लिखी विदुषियों को अपने वर्ग-पक्ष का आश्रय करने वाली-संबंधी आदि का पालन नहीं करना, परंतु उसके बिना सामान्य साध्वियों का भी पालन करना, क्योंकि संयम भार को उठाने के लिए रूप गुण में सभी समान हैं। और समुद्र का ज्वार तो रत्न आदि धारण करके किसी समय फेंक भी देता है, परंतु तुम इन धन्यवतियों को सदा संभालकर रखना, किसी समय छोड़ना नहीं। और दीन दरिद्र बिना पढ़ी हुई, इन्द्रिय से विकल, कम हृदय या प्रीति वाली अथवा कम समझने वाली, बंधन रहित तथा पुण्यादि शक्ति रहित प्रकृति से ही अनादर वचन वाली, विज्ञान से रहित, बोलने में असमर्थ, अचतुर तथा मुख बिना की, सहायक बिना की, अथवा सहायता नहीं कर सके ऐसी वृद्धावस्था वाली, शिष्ट बुद्धि बिना की, खंडित या विकल अंग वाली, विषम अवस्थान को प्राप्त करने वाली और अभिमान से अपमान करने वाली, दोष को देने वाली फिर भी संयम गुण में एक समान राग वाली। उन सब साध्वियों का तुम विनयादि करने में गुरुणी के समान, बिमारी आदि के समय में उनके अंग परिचारिका-वैयावच्य सेवा करने के समान, शरीर रक्षा में धाय माता समय में प्रिय सखी के समान, बहन के समान या माता के समान अथवा माता, पिता और भाई के समान बनना। तुम्हें अधिक क्या कहें? जैसे अत्यंत फल वाले बड़े वृक्ष की शाखा सर्व पक्षियों के लिए साधारण होती है, वैसे गुरुणी के उचित गुणों रूपी फल वाली, तुम भी सर्व साध्वियों रूपी पक्षियों के लिए अत्यंत साधारण-निष्पक्ष बनना। इस तरह प्रवर्तिनी को हित-शिक्षा देकर फिर सर्व साध्वियों को हित-शिक्षा दें, जैसे किसाध्वियों को अनुशास्ति : __ ये नये आचार्य तुम्हारे गुरु, बंधु, पिता अथवा माता तुल्य हैं। हे महान् यश वालियों! यह महामुनिराज भी एक माता से जन्मे हुए बड़े भाई के समान तुम्हारे प्रति सदा अत्यंत वात्सल्य में तत्पर हैं। इसलिए इन गुरु 191 For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-पैयावच्य की महिमा और मुनियों को भी मन, वचन और काया से प्रतिकुल वर्तन मत करना, परंतु अति सन्मान करना। इस तरह प्रवर्तिनी को भी निश्चय उनकी आज्ञा को अखंड पालकर ही सम्यग् अनुकूल बनना, परंतु अल्प भी कोपायमान मत होना। किसी कारण से जब यह कोपायमान हो तब भी मृगावती जैसे अपनी गुरुणी को खमाया था वैसे तुम्हें अपने दोषों की कबूलात पूर्वक प्रत्येक समय पर उनको खमाना चाहिए। क्योंकि हे साध्वियों! मोक्ष नगर में जाने के लिए तुम्हारे वास्ते यह उत्तम सार्थवाहिणी है, और तुम्हारी प्रमाद रूपी शत्रु की सेना को पराभव करने में समर्थ प्रतिसेना के समान है। तथा हित-शिक्षा रूपी अखंड दूध की धारा देने वाली गाय के समान है। इसी प्रकार अज्ञान से अंध जीवों के लिए अंजन शलाका के समान है ।।४५००।। इससे भ्रमरियों को मालती के पुष्प की कली समान, राज हंसनियों के कमलिनी के समान और पक्षियों के वन राजा के समान तुम्हारी यह प्रवर्तिनी को गुण रूपी पराग के लिए, शोभा के लिए और आश्रय के लिए सेवा करने योग्य है। तथा क्रीड़ा, क्लेश, विकथा और प्रमाद रूपी शत्रु-मोह सेना का पराभवकर हमेशा परलोक के कार्य में उद्यमी बनना, जिससे तुम्हारा जन्म पूर्णकर जीवन को सफल करना, और छोटे-बड़े भाई-बहनों के समान संयम योग की साधना में परस्पर सम्यक् सहायक होना. तथा मंद गति से चलना. प्रकट रूप में हँसना नहीं और मंद स्वर से बोलना. अथवा तम सारी प्रवत्ति मंद रूप में करना। आश्रम के बाहर एकाकी पैर भी नहीं रखना और श्री जिनमंदिर अथवा साधु की वसति में भी वृद्ध साध्वियों के साथ जाना। इस तरह आचार्य श्री प्रत्येक वर्ग को अलग-अलग हित-शिक्षा देकर उनके ही समक्ष सर्व को साधारण हित-शिक्षा दें कि-आज्ञा पालन में सर्व रक्त होने से तुमको बाल, वृद्धों से युक्त गच्छ में भक्ति और शक्ति पूर्वक परस्पर वैयावच्य में सदा उद्यमशील रहना। क्योंकि-स्वाध्याय, तप आदि सर्व में उसे मुख्य कहा है, सर्व गुण प्रतिपाती हैं जबकि वैयावच्य अप्रतिपाती है। भरत, बाहुबली और दशार कुल की वृद्धि करने वाला वसुदेव ये वैयावच्य के उदाहरण हैं। इसलिए साधुओं को सर्व प्रकार की सेवा से संतुष्ट रहना चाहिए।।४५०९।। वे दृष्टांत इस प्रकार से हैं :वैयावच्य की महिमा : युद्ध करने में तत्पर, शत्रुओं का पराभव करने वाला, जो प्रचण्ड राजाओं के समूह का पराभव करके छह खण्ड पृथ्वी मण्डल को जीतने में समर्थ प्रताप वाला, अति रूपवती श्रेष्ठ चौसठ हजार रानियों से अत्यंत मनोहर, अनेक हाथी, घोड़े, पैदल तथा रथ युक्त, नौ निधान वाला, आँख ऊँची करने मात्र से सामंत राजा नमने वाले, अपने स्वार्थ की अपेक्षा बिना ही सहायता करते यक्षों वाला, जो चक्रवर्तीपना भारत में, पूर्व में भरत चक्री ने प्राप्त किया था। वह पूर्वजन्म के साधु महाराज की वैयावच्य करने का फल है। और प्रबल भुजा के बल से पृथ्वी के भार को वहन करने वाले, अनेक युद्धों में शरद के चंद्र समान निर्मल यश को प्राप्त करने वाले और शत्रुओं के मस्तक के छेदने में निर्दय पराक्रम वाले, चक्र को हाथ में धारण करने वाले, चक्री होने पर भी भरत को प्रचण्ड भुजा बल के निधान रूप बाहुबली का बल देखकर 'क्या यह बाहुबली चक्रवर्ती है? ऐसा संशय उत्पन्न हुआ था और जिसने दृष्टि युद्ध आदि युद्धों से देवों के समक्ष लीलामात्र में हराया था, वह भी उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल देने में कल्पवृक्ष समान उत्तम साधुओं के योग्य वैयावच्य करने की यह सब महिमा है। जो अपने रूप की सुंदरता से जग प्रसिद्ध कामदेव के अहंकार को जीतनेवाले, दशार कुल रूपी कुमुद को विकसित करने में कौमुदी के चंद्र समान और जहाँ तहाँ परिभ्रमण करते हुए भी वसुदेव को उस काल में ऊँचे स्तनवाले भाग से शोभती, नवयौवन से मनोहर, पूनम की रात्री के चंद्र समान मुखवाली, काम से पीड़ित अंगवाली, अत्यंत स्नेहवाली और मृग समान नेत्रवाली, विद्याधरों की पुत्रियाँ 'मैं प्रथम-मैं प्रथम' ऐसा बोलती विवाह किया, वह 192 For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार - वैयावच्य की महिमा श्री संवेगरंगशाला भी सारा फल चिंतामणी को जीतने वाला तपस्वी, नव दीक्षित, बाल, ग्लान आदि मुनियों की वैयावच्य करने का फल है। इसलिए हे महानुभाव ! जो समर्थ होने पर भी अचिन्त्य महिमा वाले वैयावच्य को नहीं करता है उसे शुभ - सुख का शत्रु समझना । उसने तीर्थंकर भगवान की आज्ञा के प्रति क्रोध किया है, श्रुतधर्म की विराधना तथा अनाचार किया और आत्मा को, परलोक के वचन को दूर फेंककर अहित किया है। और गुण नहीं होने पर गुणों को प्रकट करने के लिए तथा विद्यमान गुणों की वृद्धि करने के लिए हमेशा सज्जनों के ही साथ संग करना, विद्यमान गुणों का नाश होने के भय से, अप्राप्त गुण अति दूर होने के भय से और दोषों की प्राप्ति होने के भय दुर्जन की संगति का त्याग करना । यदि नया घड़ा सुगंधीमय अथवा दुर्गंधीमय पदार्थ से भरा हुआ हो तो वैसा ही गंध वाला बनता है, तो भावुक मनुष्य संगति से उसके गुण-दोष क्यों नहीं प्राप्त करता है? अर्थात् जैसी संगति होगी वैसा ही मनुष्य बनेगा। जैसे अग्नि के संग से पानी अपनी शीतलता को गँवा देता है, वैसे प्रायः दुर्जन के संग से सज्जन भी अपने गुणों को गँवा देता है । चण्डाल के घर दूध को पीते ब्राह्मण के समान, दुर्जन की सोबत करने से सज्जन लोगों में भी दोष की शंका का पात्र बनता । दुर्जन लोगों की संगति से वासित बना वैरागी भी प्रायः सज्जनों के सम्पर्क में प्रसन्न नहीं होता है, परंतु दुर्जन लोगों में रहने से प्रसन्न होता है, जैसे गंध रहित भी देव की शेष मानकर लोग मस्तक पर चढ़ाते हैं, वैसे सज्जन के साथ रहने वाला दुर्जन मनुष्य भी पूजनीय बनता है । इस तरह जो-जो चारित्र गुण का नाश करते हैं उन उन अन्य वस्तुओं का भी त्याग करो जिससे तुम दृढ़ संयमी बनों। पासत्थादि के साथ परिचय का भी हमेशा प्रयत्नपूर्वक त्याग करना क्योंकि संसर्गवश पुरुष तुरन्त उसके समान बनता है। जैसे कि संविग्न को भी पासत्थादि की संगति से उसके प्रति प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से विश्वास जागृत होता है, विश्वास होने से राग और राग से तन्मयता ( तुल्यता) होती है, उसके समान होने से लज्जा का नाश होता है और इससे निःशंकता से अशुभ विषय में प्रवृत्ति होती है, इस तरह धर्म में प्रेम रखने वाला भी कुसंसर्ग के दोष से शीघ्र संयम से परिभ्रष्ट होता है। और संविज्ञों के साथ रहने वाला धर्म में प्रीति बिना ASST भी तथा कार भी पुरुष भावना से, भय से, मान से अथवा लज्जा से भी चरण-कमल-मूल गुण और उत्तर गुणों में उद्यम करता है और जैसे अति सुगंधमय कर्पूर, कस्तूरी के साथ मिलने से विशेष सुगंधमय बनता है, वैसे संविज्ञ, संविज्ञ की संगति से अवश्यमेव सविशेष गुणवाला बनता है। कहा है कि पासत्थसयसहस्साओ, हदि एको वि वरमिह सुसीलो । जं संसियाण दंसण - नाण चरित्ताणि वड्ढति ।।४५३७ ।। 'लाख पासत्थाओं से भी एक सुशील व्यक्ति श्रेष्ठ माना जाता है।' क्योंकि उसका आश्रय करने वाले को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि होती है । । ४५३७।। यहाँ पर संयम में कुशील द्वारा पूजा से भी संयमी द्वारा किया हुआ अपमान श्रेष्ठ है, क्योंकि प्रथम कुशील द्वारा शील का नाश होता है और संयत द्वारा शील का नाश नहीं होता है। जैसे मेघ के बादल से व्यंतर (एक जाति के सर्प) का उपशम हुआ विष कुपित होता है, वैसे कुशील पुरुषों द्वारा उपशमित मुनियों का प्रमाद रूपी विष, कुशील संसर्ग रूपी मेघ बादल से पुनः कुपित होता है। इस कारण से धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाले पापभीरुओं के साथ संगति करनी चाहिए। क्योंकि उनके प्रभाव से धर्म में मंद आदर वाला भी उद्यमशील बनता है। कहा है कि नवधम्मस्स पाएणं, धम्मे न रमइ मई । वह सो वि संजुत्तो, गोरिवाऽविधुरं धुरं । ।४५४१ ।। For Personal & Private Use Only 193 . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-वैयावच्य की नहिमा नये धर्म प्राप्त करने वाले की बुद्धि प्रायःकर धर्म में आदर नहीं करती, परंतु जैसे वृद्ध बैल के साथ जोड़ा हुआ नया बैल अव्याकुलता पूर्वक जुआ (धुरी) को वहन करता है, वैसे ही नया धर्मी भी वृद्धों की संगति से धर्म में रागी-स्थिर हो जाता है। शील गुण से महान पुरुषों के साथ में जो संसर्ग करता है, चतुर पुरुषों के साथ बात करता है वह आत्मा अपना हित करता है। इस तरह संगति के कारण पुरुष दोष और गुण को प्राप्त करता है। इसलिए प्रशस्त गुण वाले का आश्रय लेना चाहिए। प्रशस्त भाव वाले तुम परस्पर कान को कड़वा परंतु हितकर बोलना, क्योंकि कटु औषध के समान निश्चय परिणाम से वह सुंदर-हितकर होगा। अपने गच्छ में अथवा परगच्छ में किसी की पर-निंदा मत करना, और सदा पूज्यों की आशातना से मुक्त और पापभीरु बनना। एवं आत्मा को सर्वथा प्रयत्नपूर्वक इस तरह संस्कारी करना कि जिस तरह गुण से उत्पन्न हुई तुम्हारी कीर्ति सर्वत्र फैल जाए। 'ये साधु निर्मल शील वाले हैं, ये बहुत ज्ञानवान् हैं, न्यायी हैं, किसी को संताप नहीं करते हैं, क्रिया गुण में सम्यक् स्थिर हैं।' ऐसी उद्घोषणा धन्य पुरुषों की फैलती है। 'मैंने मार्ग के अन्जान को मार्ग दिखाने में रक्त, चक्षु रहित को चक्षु देने के समान, कर्मरूपी व्याधि से अति पीड़ित को वैद्य के समान, असहाय को सहायक और संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए को बाहर निकालने के लिए हाथ का आलम्बन देने वाले गुणों से महान् गुरु तुमको दिया है और अब मैं गच्छ की देखभाल से सर्व प्रकार से मुक्त होता हूँ। इस आचार्य के श्रेष्ठ आश्रय को छोड़कर तुम्हें कदापि कहीं पर भी जाना योग्य नहीं है, फिर भी आज्ञा पालन में रक्त तुम्हें इनकी आज्ञा से यदि किसी समय पर कहीं गये हो तो भी पुण्य की खान इस गुरु को हृदय से मत छोड़ना। जैसे सुभट अपने स्वामी को, अंधा उसके साथ हाथ पकड़ने वाले को, और मुसाफिर सार्थपति को नहीं छोड़ता है, वैसे तुम्हें भी इस गुरु को नहीं छोड़ना। यह आचार्य यदि सारणा-वारणा आदि करे तो भी क्रोध मत करना। बुद्धिमान कौन हितस्वी मनुष्य के प्रति क्रोध करें? किसी समय पर उनका कड़वा भी कहा हुआ उसे अमृत समान मानते तुम कुलवधू के समान उनके प्रति विनय को मत छोड़ना।' इस कारण से शिष्य गुरु की इच्छा में आनंद मानने वाला और उनके प्रति रुचि रखने वाला, गुरु की दृष्टि पड़ते ही-इशारे मात्र से स्वेच्छाचार को मर्यादित करने वाला और गुरु की इच्छानुसार विनय वेष धारण करने वाला, कुलवधू के समान होता है। कार्य-कारण की विधि के जानकार यह गुरु किसी समय पर तुम्हारे भावि के लिए कृत्रिम अथवा सत्य भी क्रोध से चढ़ी हुई भयंकर भृकुटी वाले, अति भयजनक भाल तल वाले होकर भी तुमको उलाहना दे और निकाल दे तो भी 'यह गुरु ही हमारा शणगार है' ऐसा मानना और हृदय में ऐसा चिंतन करते तुम अतिशय दक्षतापूर्वक विनय करके उनको ही प्रसन्न करना। वह इस प्रकार चिंतन करेस्वामी को प्रसन्न करने में समर्थ उपाय अनेक प्रकार के हैं। उन सफल उपायों को सद्भावपूर्वक बार-बार अपने मन में चिंतन करना। उन भव्य जीवों अथवा सेवकों के जीवन को धिक्कार है कि-पास में रहे हुए मनुष्य प्रसन्न हों ऐसे स्वामी क्षणभर भी जिसके ऊपर क्रोध नहीं करते, अर्थात् गुरु जिसके प्रति हित करने के लिए क्रोध करते हैं, वे धन्य हैं। क्योंकि उसकी योग्यता हो तो ही गुरु महाराज उस पर क्रोधकर सुधारने की इच्छा करते हैं। जह सागरम्मि मीणा,संखोभं सागरस्स असहंता। निति तओ सुहकामी, निग्गयमेत्ता विणस्संति ।।४५६१।। तथा जैसे समुद्र में समुद्र के संक्षोभ (उपद्रवों) को नहीं सहन करने वाला-सुख की इच्छा वाला मगरमच्छ उसमें से निकल जाता है, तो वह निकलने मात्र से नाश होता है।।४५६१।। वैसे ही गच्छ रूपी समुद्र में गुरु की सारणा-वारणादि तरंगों से पराभव प्राप्त कर सुख की इच्छा वाले 194 For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-शिष्यों की गुरु प्रति कृतज्ञता श्री संवेगरंगशाला तुम गच्छ से निकलकर अलग मत होना, अन्यथा मगरमच्छ के समान संयम से नष्ट होंगे। महान् आत्मा यह तुम्हारा गुरु अनेक गुण रूपी रत्नों का सागर है, धीर है और इस संसार रूपी अटवी में फंसे हुए तुम्हारा रक्षण करने वाला नायक है। धीरता को धारण करने वाले इस गुरु को तुम 'दीक्षा पर्याय से छोटा, समान पर्याय वाला है, अथवा बहुत अल्प पढ़ा हुआ है' ऐसा समझकर अपमान मत करना। क्योंकि यह गच्छ का स्वामी होने से अति पूजनीय है। हे मुनिवरों! तुम ज्ञान के भण्डार इस गुरु के वचन का कदापि उल्लंघन मत करना, परंतु वचन द्वारा 'तहत्ति' बोलकर स्वीकार करना और उसका सम्यग् रूप से पालन करना। क्योंकि जगत में निष्कारण वत्सल, इस गुरु की भाई के साथ, पिता और माता के साथ की उपमा-या बराबरी नहीं हो सकती है अर्थात् माता, पिता, भाई आदि से भी अधिक उपकारी है। इसलिए धर्म में एक स्थिर बुद्धि वाले तुम इनको ही हमेशा यावज्जीव रक्षण करने वाले और शरण रूप स्वीकार करना। तुम मोक्षार्थी हो और उस मोक्ष का उपाय गुरु के बिना और कोई नहीं है। इसलिए गुणों के निधि-यह गुरु ही निश्चय तुमसे सेवा करने योग्य है। तथा तुम्हें वचन से, तुम्हें परस्पर सम्यग् उपकारी भाव से व्यवहार करना चाहिए। क्योंकि-विपरीत आचरण से गुण लाभदायक नहीं होता है। और जैसे धूरी के बिना चक्र विशेष घुमाने की शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है वैसे ही डण्ठल के बिना पुष्प शोभा नहीं देता है और पत्ते जैसे शरीर को बाँध नहीं सकते हैं, वैसे तुम भी निश्चय रूप से इस गुरु के बिना संगठन को प्राप्त नहीं कर सकते हो। और धूरी के बिना चक्र और पत्ते रहित डण्ठल भी शोभायमान नहीं होता, वैसे परिवार बिना का स्वामी भी कार्यकर नहीं हो सकता है। परंतु जो अवयव और अवयवी परस्पर अपेक्षा वाले बनते हैं तो इच्छित अर्थ की सिद्धि प्राप्त करते हैं और शोभा को भी प्राप्त करते हैं। जैसे नाक, मुख से और मुख भी नाक से शोभा प्राप्त करता है वैसे स्वामी उत्तम परिवार से शोभा प्राप्त करता है और परिवार भी उत्तम स्वामी से शोभा प्राप्त करता है। इसी तरह वन के पशु और सिंह का परस्पर रक्ष्य, रक्षण करने वाले का सम्यग् विचार करके तुम्हें गुरु शिष्यों को परस्पर वर्तन करना चाहिए। अधिक कहने से क्या लाभ? भ्रमण विहार आदि करने में, आहार करने में, पढ़ने में, बोलने में, इत्यादि सर्व प्रवृत्तियों में अति विनीत, गंभीर स्नेहयुक्त बनना, यह उपदेश का सार है। इस तरह हमने तुमको करुणा भाव से और प्रियता होने से यह उपदेश दिया है। अतः जिस प्रकार यह निष्फल न हो इस तरह तुमको करना चाहिए। शिष्यों की गुरु प्रति कृतज्ञता : उसके पश्चात् पृथ्वी के साथ में घिसते मस्तक के ऊपर गुरुदेव के चरण-कमल को धारण करते आनंद की अश्रुधारा को बरसाते, शोक से अथवा पश्चात्ताप से गला भर जाने से मंद-मंद प्रकट होते गद्गद् आवाज वाले, उष्ण-उष्ण लम्बे निःश्वास निकलते हुए को रोकते हुए वे शिष्य गुरुदेव के हितकर, मंगल स्वरूप, देवरूप और चैत्यरूप मानते हए गुरुदेव के सामने 'इच्छामो अणसद्धि अर्थात आपकी शिक्षा को बार-बार चाहते हैं।' ऐसा कहकर पुनः इस प्रकार बोलें-हे भगवंत! आपश्री का महान् उपकार है कि जो आपने हमको अपने शरीर के समान पालन पोषण किया है। सारणा-वारणा चोदना प्रतिचोदना के द्वारा श्रेष्ठ मार्ग में चढ़ाया है और अंधे को दृष्टि वाला किया है। हृदय रहित मूर्ख को सहृदय-दयालु बनाया है, अथवा अहित करने वाले को स्वहितकारी किया है और अति दुर्लभ मोक्ष मार्ग को प्राप्त करवाया है, परंतु हे स्वामिन्! वर्तमान में आपके वियोग में अज्ञानी बनें हम कैसे बनेंगे? हमारा क्या होगा? जगत के सर्व जीवों का हित करने वाले, तथा स्थविर और जगत के सर्व जीवों के नाथ यदि परदेश जायें अथवा मर जाते हैं, तो खेदकारी बात है कि वह देश शून्य हो जाता है। परंतु आचरण और गुण से युक्त तथा अन्य को संताप नहीं करने वाला स्वामी जब प्रवासी बन जाता है या मर जाता __195 For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परगण संक्रमण विधि है, तब तो देश खत्म हो जाता है। हे गच्छाधिपति! बल रहित वृद्धावस्था से जर्जरित और पड़े हुए दाँत की पंक्ति वाले भी विचरते हुए विद्यमान आप स्वामी से आज भी साधु समुदाय सनाथ है। सर्वस्व देने वाला, सुख-दुःख से समान और निश्चल उत्तम गुरु का जो वियोग वह निश्चय दुःख को सहने के लिए है अर्थात् दुःखद रूप है। इस तरह कुनय रूपी मृग को वश करने में जाल के समान और यम के साथ युद्ध करने में जय पताका प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत इस संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में अनुशासित नाम का यह तीसरा अंतर द्वार कहा है। इस तरह हित-शिक्षा देने पर भी अपने गच्छ में रहने से आचार्य की समाधि न रहे तो अब परगण में संक्रमण करने की विधि का चौथा अंतर द्वार कहा जाता है। परगण संक्रमण चौथा विधि द्वार : (गवेषणा द्वार) इसके बाद पूर्व कहे अनुसार वह महान् आत्मा आचार्य श्री पूर्व की हित-शिक्षा के अनुसार हितकर कार्यों में तत्पर अपने नये आचार्य और गच्छ को फिर बुलाकर चंद्र किरणों के प्रवाह समान शीतल और आनंद को देने वाली वाणी द्वारा इस प्रकार से कहे-भो महानुभावों! अब मैं 'सूत्र दान करना' इत्यादि तुम्हारे कार्यों को सम्यग् रूप से पूर्ण करने से सर्व कार्यों में कृत-कृत्य हुआ हूँ, इसलिए उपयोग वाले भी तुम्हारे संबंध में अन्य अति अल्प भी तुमको कहने योग्य एक कार्य मुझे ध्यान में आता है। अतः अब मैंने जो हित-शिक्षा दी है इससे भी पहले मेरी आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए मुझे परगण में संक्रमण (प्रवेश) करने के लिए सम्यग् अनुमति दो। और गुरु के प्रति अतीव भक्ति वाले विनीत तुम्हें भी मेरा बार-बार मिच्छा मि दुक्कडं हो। इस तरह गुरुदेव के वचन सुनकर शोक के भार से अति ग्लान और अफसोस से भरे हुए गले वाले तथा सतत् गिरते हुए आँसू की बिंदु के समूह से भरे नेत्रवाले शिष्य सूरिजी के चरणकमल रूपी गोद में मस्तक रखकर गद्गद् स्वर से कहें कि-हे भगवंत! कान के शल्य समान और अत्यंत दुःसह आप यह क्या बोल रहे हो? जो कि हम सर्वथा आपका ऐसा उपकार करने वाले हैं, ऐसे बुद्धिमान नहीं हैं, ऐसे गीतार्थ नहीं हैं, आपके चरणकमल की सेवा के योग्य नहीं है तथा अंत समय की कही हुई संलेखना आदि की विधि में कुशल भी नहीं हैं, फिर भी हे भगवंत! एकान्त में परहित में तत्पर एक चित्त वाले. पर को अनग्रह करने में श्रेष्ठ और प्रार्थना का भंग नहीं करने वाले ।।४६०० ।। आप श्री हमें छोड़ देना चाहते हैं वह उचित नहीं है। क्योंकि-आज भी बीच में बैठे आपके चरण-कमल से (आपश्री द्वारा) यह गच्छ शोभा दे रहा है। इसलिए हमारे सुख के लिए कालचक्र गिरने के समान ऐसे वचन आपके बोलने से और चिंतन करने से क्या लाभ है? शिष्यों के इस तरह कहने पर गुरु महाराज भी मधुर वाणी से कहते हैं कि : श्री अरिहंत परमात्मा के वचनों से वासित बने हुए और अपनी बुद्धि रूपी धन से योग्यायोग्य को समझने वाले, हे महानुभावों! तुम्हें मन से ऐसा चिंतन करना भी योग्य नहीं है और बोलना तो सर्वथा योग्य नहीं है। कौन बुद्धिशाली उचित कार्य में भी रोके? अथवा क्या श्री अरिहंत कथित शास्त्रों में इसकी अनुमति नहीं दी है? अथवा पूर्व पुरुषों ने इसका आचरण नहीं किया? क्या तुमने ऐसा किसी स्थान पर नहीं देखा? और भयंकर वायु से आन्दोलित ध्वजापट समान चंचल मेरे इस जीवन को तुम नहीं देखते! कि जिससे अमर्यादित अति असद् आग्रह के आधीन बनकर ऐसा बोल रहे हो? अतः मेरे प्रस्तुत कार्य को सर्व प्रकार से भी प्रतिकूल न बनों। इत्यादि गुरुदेव की वाणी सुनकर शिष्यादि पुनः इस तरह उनको विनती करते हैं कि-हे भगवंत! यदि ऐसा ही है तो भी अन्य गच्छ में जाने से क्या प्रयोजन है? यहाँ अपने गच्छ में ही इच्छित प्रयोजन की सिद्धि करो, क्योंकि-यहाँ 196 For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परगण संक्रमण विधि श्री संवेगरंगशाला भी प्रस्तुत कार्य में समर्थ, भार को वहन करने वाले, महामति वाले गीतार्थ, उत्साह में वृद्धि करने वाले, भैरव आदि के सामने आते भयों में भय रहित, संवेगी, क्षमा सहन करने वाले और अति विनित ऐसे अनेक साधु हैं। इस तरह उत्तम साधुओं के कहने से किसी आचार्य महाराज के आगे कहते गुण-दोष पक्ष को-लाभ-हानि का तारतम्य का बार-बार विचारकर वही इच्छित कार्य को करें और किसी अन्य आचार्य के द्वारा कही हुई विधि अनुसार से अपने गच्छ को पूछकर बढ़ते परिणाम से आराधना के लिए परगण में प्रवेश करें, क्योंकि अपने गच्छ में रहने से १. आज्ञा कोप, २. कठोर वचन, ३. कलह करण, ४. परिताप, ५. निर्भयता, ६. स्नेह राग, ७. करुणा, ८. ध्यान में विघ्न और ९. असमाधि होती है। जैसे कि अपने गच्छ में उड्डाहकारी स्थविर, कलह करने वाले छोटे साधुओं और कठोर नये दीक्षित यदि आचार्य की आज्ञा पर कोप, अनादर करे, तो इससे असमाधि होती है। परगच्छ में रहे आचार्य का तो उन साधुओं के प्रति व्यापार (अधिकार) कम नहीं होता है, इसलिए आज्ञा का लोप करे तो भी असमाधि किस तरह हो सकती है? वहाँ असमाधि नहीं होती है। किसी क्षुल्लक साधु को, स्थविर को और नये साधुओं को असंयम में प्रवृत्ति करते देखकर वह आचार्य कठोर वचन भी कहे और बार-बार ऐसी प्रेरणा करने पर सहन नहीं करने से उनके साथ कलह भी हो जाता है, इससे आचार्य को और उन साधुओं को संताप आदि दोष भी लगता है, तथा अपने गण समुदाय में रहने पर आचार्य को शिष्यादि के प्रति ममत्व दोष के कारण असमाधि होती है। एवं अपने गच्छ में रोग आदि से साधुओं को जो पीड़ा आदि को प्राप्त करते देखें तो इससे आचार्य को दुःख, स्नेह अथवा असमाधि होती है। अति दुःसह तृष्णा या क्षुधादि होने से अपने गच्छ में विश्वास प्राप्त करने वाला वह आचार्य निर्भय होकर कुछ अकल्पनीय वस्तु की याचना करे अथवा उसका उपयोग करें। आत्यन्तिक वियोग-मरण के समय पर अनाथ साध्वियों को, वृद्ध मुनियों को और अपनी गोद में उछलते बाल साधुओं को देखकर आचार्य को उनके प्रति स्नेह उत्पन्न हो, तथा क्षुल्लक साधु अथवा क्षुल्लक साध्वियाँ निश्चय से करुणाजनक वचनादि यदि बोलें, रोवें तो आचार्य को ध्यान में विघ्न अथवा असमाधि होती है। शिष्य-वर्ग आहार पानी अथवा सेवा शुश्रूषा में यदि प्रमाद करे तो आचार्य को असमाधि होती है। अपने गण में रहने से नूतन आचार्य को और अनशन स्वीकार करने वाले को अप्रशम से अधिकतः ये दोष लगते हैं, इस कारण से वह परगण में जाता है। परगण के साधु विद्वान हैं और भक्ति वाले भी हैं, परंतु अपने गच्छ को छोड़कर, ये महात्मा हमारी आशा लेकर यहाँ पधारे हैं। ऐसा विचार करके भी परम आदरपूर्वक सर्वस्व शक्ति को छुपाये बिना उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में दृढ़तापूर्वक वर्तन करे और गीतार्थ एवं चारित्र शील आचार्य भी अपने समुदाय को पूछकर आये हुए उस आगन्तुक का सर्वथा आदरपूर्वक निर्यामक बनें और संविज्ञ. पापभीरु तथा श्री जिन वचन के सर्व सार को प्राप्त करने वाले उस आचार्य के चरणकमल में (निश्रा में) रहता हुआ आगन्तुक भी अवश्य आराधक बनता है। इस तरह शुद्ध बुद्धि-सम्यक्त्व की संजीवनी औषधि तुल्य और मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका प्राप्त कराने में निर्विघ्न हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वारा वाला गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में परगण संक्रम नामक चौथा अंतर द्वार कहा है। इस तरह परगण में संक्रम करने पर भी यथोक्त पूर्व में कहा है ऐसा सुस्थित (आचार्य) की गवेषणा प्राप्ति बिना इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं होती है, इसलिए अब उसका निरूपण करते हैं ।।४६३०।। 197 For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वार पाँचवां सुस्थित गवेषणा द्वार : उसके बाद सिद्धांत में प्रसिद्ध कही हुई विधि द्वारा अपने गच्छ को छोड़ने वाला और समाधि को चाहने वाला वह आचार्य, राजा बिना की एकत्रित हुई सेना युद्ध में कुशल महान् सेनानायक की जैसे खोज करती है, वैसे सार्थवाह बिना का अतिदूर नगर में प्रस्थान करने वाला व्यक्ति सार्थवाह (साथीदार) को खोजता है, वैसे क्षपक परगण के चारित्र आदि बड़े गुणों की खान के समान गुरु बिना का जानकर, क्षेत्र की अपेक्षा से छह सौ, सात सौ योजन तक खोज करें और काल की अपेक्षा बारह वर्ष तक निर्यामक आचार्य श्री की खोज करें। वह किस तरह आचार्य श्री की खोज करे? उसे कहते हैं। सुस्थित का स्वरूप :- चारित्र द्वारा प्रधान-श्रेष्ठ, शरणागत वत्सल, स्थिर, सौम्य, गंभीर, अपने कर्त्तव्य में दृढ़ अभ्यासी। इन बातों से प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले और महासात्त्विक इस तरह सामान्य गुण सहज स्वभाव से होते हैं। और इसके अतिरिक्त-१. आचारवान्, २. आधारवान्, ३. व्यवहारवान्, ४. लज्जा को दूर कराने वाले, ५. शुद्धि करने वाले, ६. निर्वाह करने वाले-निर्यामक, ७. अपाय दर्शक, और ८. अपरिश्रावी। ये आठ विशेष गुण वाले की खोज करें। १. आचारवान् :- जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रचार. तपाचार और वीर्याचार पंच विध आचार का अतिचार रहित पालन करें, दूसरे को पंचाचार पालन करावे और यथोक्त-शास्त्रानुसार उपदेश दे, उसे आचारवान कहते हैं। आचेलक्य आदि दस प्रकार के स्थित कल्प में जो अति रागी हैं और अष्ट प्रवचन माता में उपयोग वाला होता है, वह आचारवान् कहलाता है। इस प्रकार आचार के अर्थी आचार्य, साधु के दोषों को छुड़वाकर गुण में स्थिर करें, इससे आचार का अर्थी आचार्य निर्यामक होता है। २. आधारवान् :- महाबुद्धिमान जो चौदह, दस अथवा नौ पूर्वी हो, सागर के समान गंभीर हो और कल्प तथा व्यवहार आदि सूत्र को धारण करने वाला ज्ञाता हो, वह आधारवान् कहलाता है। अगीतार्थ आचार्य, लोक में श्रेष्ठ अंगभूत (मनुष्यत्व, धर्म श्रवण, श्रद्धा एवं संयम में उद्यमशीलता) इन क्षपक के चार अंगों का नाश करें और इन चार अंगों का नाश होने पर अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य सुलभ्य नहीं बनते हैं। क्योंकि महा भयंकर दुःख रूपी पानी वाले और अनंत जन्मों वाले इस संसार समुद्र में परिभ्रमण करते जीव को मनुष्य जन्म प्राप्त करना महामुश्किल है। उस मनुष्य जीवन में भी श्री जिनेश्वर परमात्मा के वचन का श्रवण निश्चय ही अति मुश्किल से मिलता है, उससे भी श्रद्धा होना अतीव दुर्लभ है और श्रद्धा से भी संयम का उद्यम करना दुर्लभतम है। ऐसा सुंदर संयम मिलने पर भी आधार देने में असमर्थ निर्यामक के पास से मरणकाल में संवेगजनक उपदेश का श्रवण नहीं मिलने से संयम से गिरता है। और आहार से अपना शरीर पोषण करने वाला, आहारमय जीव किसी स्थान पर कहीं पर भी आहार के विरह या अभाव वाला, अर्थात् कभी तपस्या नहीं करने वाला, आर्त्त-रौद्र ध्यान से पीड़ित, प्रशस्त तप संयम रूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं कर सकता है। परंतु कई भूखप्यास से पीड़ित भी श्री जिनवचन के श्रवण रूपी अमृत के पान से और श्रेष्ठ हितशिक्षा के वचनों से ध्यान में एकाग्र बन जाते हैं। प्रथम प्यास से अथवा दूसरी भूख से पीड़ित उस तपस्वी को अगीतार्थ द्वारा समाधिकारक उपदेश आदि नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस कारणवश प्यास आदि से पीड़ित वह कर्मवश किसी समय पर दीनता धारण करें अथवा करुणाजनक याचना या एकत्व को धारण करें। अथवा सहसा बड़ी आवाज से चिल्लायें या भाग जावें, अथवा शासन की अपभ्राजना (निंदा) करें, मिथ्यात्व प्राप्त करें, अथवा असमाधि मरण से मृत्यु प्राप्त 1. १. आचेलक्य, २. औद्देशिक, ३. शय्यातर, ४. राजपिंड, ५. कृतिकर्म, ६. व्रत, ७. ज्येष्ठ, ८. प्रतिक्रमण, ६. मासकल्प, १०. पर्युषणाकल्प। 198 For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगग संक्रजग द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वार श्री संवेगरंगशाला करें। और जब इस तरह होता है तब गीतार्थ उसे इच्छित वस्तु देकर तथा उसके शरीर की परिकर्मणा(सेवा)कर अथवा अन्य उपायों से द्रव्य, क्षेत्रादि के अनुरूप शास्त्र विधि से उसकी समाधि का कारण गीतार्थ जानें और रुचिकर उचित समझाए कि जिससे उसमें शुभ ध्यान रूपी अग्नि प्रकट हो। गीतार्थ देने योग्य प्रासुक द्रव्यआहारादि देने का समझकर और उत्कट बना हुआ वातपित्त श्लेष्म का प्रतिकार औषध को भी जाने। उत्सर्ग अपवाद के जानकार वह गीतार्थ निश्चय क्षपक के निराश चित्त को भी सम्यग् उपाय से विधिपूर्वक शांत करता है, सम्यग्क् समाधि के उपायों को करता है, किसी कारण से कर्मवश नष्ट हुई समाधि की पुनः साधना करे और असंवर अर्थात् सावध पापकारी भाषा को बोलते हुए भी रोके। इस तरह श्री जिनवचन श्रवण के प्रभाव से पुनः प्रशम गुण को प्राप्त करता है। इससे मोहरूपी अंधकार नष्ट हो जाने से हर्ष शोक रहित बनता है। राग-द्वेष से मुक्त बनकर वह सुखपूर्वक ध्यान करता है और उस ध्यान द्वारा मोह सुभट को जीतकर तथा मत्सर सहित राग रूपी राजा का भी पराभव करके वह अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूपी चतुरंगी प्रभाव से वह निर्वाण रूपी राज्य के सुख को प्राप्त करता है। इस तरह गीतार्थ के चरण-कमल में रहने से ऊपर कहे वैसे अनेक गुणों की प्राप्ति होती है। निश्चय से संक्लेश न हो और असाधारण श्रेष्ठ समाधि प्रकट हो ऐसे मेरे आधारभूत गुरुदेव की निश्रा मुझे चाहिए ।।४६५६।। ३. व्यवहारवान् :- जो पाँच प्रकार के व्यवहारों के तत्त्व का विस्तारपूर्वक ज्ञाता हो और दूसरे द्वारा दिये जाते प्रायश्चित्त को अनेक बार देखकर, प्रायश्चित्त देने का अनुभवी हो, उसे व्यवहारवान् जानना। आज्ञा, श्रुत, आगम, धारणा और जीत ये पाँच प्रकार का व्यवहार है, उसकी विस्तारपूर्वक प्ररूपणा शास्त्रों में कही है। प्रायश्चित्त के लिए आये हुए पुरुष को उसके पर्याय या वय, संघयण, प्रायश्चित्त करने वाले के उसके परिणाम, उत्साह को देखकर और द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव को जानकर व्यवहार करने में कशल. श्रीजिनवचन में विशारदपंडितवर्य धीर हो वह व्यवहारवान् राग-द्वेष को छोड़कर उसे व्यवहार में प्रस्थापित करें अर्थात् प्रायश्चित्त दे। व्यवहार का अज्ञानी-अनधिकारी होने पर व्यवहार योग्य का व्यवहार करे, अर्थात् आलोचक को प्रायश्चित्त देता है वह संसार रूपी कीचड़ में फंसता है और अशुभ कर्मों का बंध करता है। जैसे औषध को नहीं जानने वाला वैद्य रोगी को निरोगी नहीं कर सकता, वैसे व्यवहार को नहीं जानने वाले, शुद्धि को चाहने वाले आलोचक की शुद्धि नहीं करें। इस कारण से व्यवहार के ज्ञाता की निश्रा में रहना चाहिए, वहीं पर ही ज्ञान, चारित्र, समाधि और बोधिबीज की प्राप्ति होती है ।।४६६३।। ___४. ओवीलग-अपव्रीडक :- अर्थात् लज्जा दूर कराने वाला पराक्रमी, तेजस्वी, बोलने में चतुर, विस्तृत कीर्ति वाला और सिंह के समान निर्भय या रक्षक आचार्य को श्री जिनेश्वर भगवान ने आलोचक की शरम को छुडवाकर शुद्ध आलोचना देने वाला कहा है। किसी क्षपक-तपस्वी को परहित करने में तत्पर मन वाला वह आचार्य स्नेहपूर्वक, मधुर, मन की प्रसन्नता कराने वाला और प्रीतिजनक वचनों द्वारा सम्यग् रूप में समझाए, फिर भी तीव्र गारव आदि दोषों से अपने दोषों को स्पष्ट रूप से नहीं कहे तो उस ओवीलग गुरु को उसकी लज्जा को छुडवा देना चाहिए, अथवा जैसे अपने तेज से सिंहण-सियार के पेट में रहे मांस का वमन कराता है वैसे आचार्य श्री दोषों को बताने में अनुत्साही के दोषों को कठोर वाणी से प्रकट कराते हैं, फिर भी वह कठोर वचन कटु औषध के समान उस आलोचक को हितकारी होते हैं। क्योंकि परहित की उत्तरदायी की उपेक्षा करने वाला केवल स्वहित का ही चिंतन करने वाले जीव जगत में सुलभ हैं, परंतु अपने हित और पर के हित का चिंतन करने वाले जीव जगत में दुर्लभ हैं। यदि क्षपक के छोटे अथवा बड़े भी दोषों को प्रकट नहीं - 199 For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वार कराते हैं तो वह क्षपक साधु दोषों से निवृत्त नहीं हो सकता और इसके बिना वह गुणवान् नहीं बन सकता । इसलिए उस क्षपक के हित का चिंतन करते ओवीलग आचार्य को निश्चय ही क्षपक साधु के सब दोषों को प्रकट करवाने चाहिए। ५. प्रकुवी जाना, आना, अर्थात् शुद्धि करने वाला, शय्या, संथारा, उपधि, संभोग (सहभोजनादि) आहार, खड़े रहना, बैठना, सोते रहना, परठना अथवा कर्म निर्जरा करना इत्यादि में और एकाकी विहार अथवा अनशन स्वीकार करने में, अति श्रेष्ठ उपकार को करते जो आचार्य, सर्व आदरपूर्वक, सर्व शक्ति से और भक्ति से अपने परिश्रम की उपेक्षा करके भी तपस्वी की सार संभाल में हमेशा प्रवृत्त रहे वही प्रकुर्वक आचार्य कहलाते हैं। थके हुए शरीर वाले क्षपक प्रतिचरण (सेवा) गुण से प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं। इसलिए क्षपक को प्रकुर्वी के पास रहना चाहिए। ६. निर्वापक (निर्वाहक) :― अर्थात् निर्वाह करने वाले निर्यामक अथवा निर्वाहक- संथारा, आहार या पानी आदि अनिष्ट देने से अथवा बहुत विलम्ब द्वारा देने से, वैयावच्च करने के प्रमाद से या नवदीक्षित आदि अज्ञ साधुओं को सावद्य वाणी द्वारा अथवा ठण्डी, गरमी, भूख, प्यास आदि से, अशक्त बनने से या तीव्र वेदना से जब क्षपक मुनि क्रोधित हो अथवा सामाचारी- मर्यादा को तोड़ने की इच्छा करें, तब क्षमा से युक्त और मान से मुक्त निर्वापक आचार्य को क्षोभ प्राप्त किये बिना साधु के चित्त को शांत करना चाहिए । रत्न के निधान रूप अनेक प्रकार के अंग सूत्रों अथवा अंग बाह्य सूत्रों में अति निपुण तथा उसके अर्थों को अच्छी तरह कहने वाला और दृढ़तापूर्वक उसका पालक, विविध सूत्रों को धारण करने वाला, विविध रूप में व्याख्यान कथा करने वाला, हित उपायों का जानकार, बुद्धिशाली और महाभाग्यशाली निर्वापक आचार्य क्षपक को समाधि प्राप्त कराने के लिए स्नेहपूर्वक मधुर और उसके चित्त को अच्छी लगे इस तरह उदाहरण तथा हेतु से युक्त कथा उपदेश को सुनाए । परीषहरूपी तरंगों से अस्थिर बना हुआ, संसार रूपी समुद्र के अंदर चक्र में पड़ा हुआ और संयम रत्नों भरा हुआ साधुता रूपी नाव को मल्लाह के समान निर्वापक डूबते हुए बचाये। यदि वह बुद्धि बल को प्रकट करने वाला आत्महितकर, शिव सुख को करने वाला मधुर और कान को पुष्टिकारक उपदेश नहीं दे तो स्व और पर आराधना का नाश होता है। इस कारण से ऐसे निर्यामक आचार्य ही क्षपक मुनि को समाधिकारक बन सकते हैं और उस क्षपक को भी उसके द्वारा ही निश्चित आराधना होती है। ७. अपायदर्शक :- संसार समुद्र अथवा आराधना के किनारे पहुँचा हुआ भी किसी क्षपक मुनि को विचित्र कर्म के परिणामवश तृषा, भूख इत्यादि से दुर्ध्यान आदि भी होता है। तो भी कोई पूजाने की इच्छावाला, कीर्ति की इच्छा वाला, अवर्णवाद से डरने वाला, निकाल देने के भय से अथवा लज्जा या गारव से विवेक बिना का क्षपक मुनि यदि सम्यग् उपयोगपूर्वक उस दुर्ध्यानादि की आलोचना नहीं करे तो उसे भावी में अनर्थों के कारण बतलाकर इस प्रकार जो समझावे उसे अपायदर्शक जानना । आलोचना नहीं करने से इस भव में 'शठ या शल्य है' ऐसी मान्यता तथा अपकीर्ति, अतिरिक्त इस जन्म में भाव बिना की कष्टकारी की हुई क्रिया भी दुर्गति का कारण होती है । मायाचार से परभव में अनर्थ का कारण होता है, इससे निश्चित दुःखी होता है, इत्यादि जो समझाये वही सूरि नाम से अपायदर्शी कहलाते हैं । इस प्रकार के गुण समूह वाला वह अपायदर्शी मधुर वचनों से कहे कि - हे महाभाग ! क्षपक! तूं इस का सम्यग् रूप से विचार कर। जैसे कांटे आदि का उद्धार नहीं करने से वह द्रव्य शल्य भी निश्चय मनुष्य के शरीर में केवल वेदना ही नहीं करता, परंतु ज्वर, दाह जलन, शरीर में चींटियों का निकलना, ज्वाला, गर्दभ नाम का रोग दुःसाध्यलूता (करोलियों का) रोग आदि अनेक रोग उत्पन्न 200 For Personal & Private Use Only . Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार- उप-संपदा द्वार श्री संवेगरंगशाला करते हैं और इसके कारण कई बार मृत्यु भी हो जाती है। इसी प्रकार मोहमूढ़ मति वाले साधु को सम्यग् उद्धार (आलोचना) नहीं किया हो और आत्मा में ही रखा हो, इस प्रकार यह भाव शल्य भी इस भव में केवल अपयश आदि ही नहीं करता, किंतु संयम जीवन का नाश होने से चारित्र के अभाव रूपी आत्मा का भी मरण करता है और परजन्मों में अशुभ कर्मों का आक्रमण, अति पोषण करनेवाला कर्मबंध और दुर्लभ बोधित्व को प्राप्त करता है । इसलिए बोधि लाभ से भ्रष्ट आत्मा जन्म-मरण रूपी आवर्ती (चक्र) वाला, दुःखरूपी पानी वाला और अनादि अनंत भयंकर संसार समुद्र में अनंत काल तक दुःखों को भोगता है, ऊँची-नीची विचित्र प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता है और अति तीक्ष्ण दुःखरूपी अग्नि से सीझता है। तथा अज्ञानी जीव सशल्य मरण से इस संसार महासमुद्र में चिंतामणी तुल्य श्रमण धर्म का तथा तप-संयम को प्राप्त करके भी उसका नाश करता है। सशल्य मरण से मरकर आदि अंतरहित अति गाढ़ संसार अटवी में पड़ा हुआ दीर्घकाल तक भ्रमण करता है। शस्त्र, जहर अथवा नाराज हुआ वेताल, उलटा उपयोग किया यंत्र अथवा गुस्से से चढ़ा हुआ क्रोधी सर्प ऐसा नहीं करता, वैसे जो मृत्यु के समय भाव शल्य का उद्धार नहीं करें अर्थात् उसकी आलोचना नहीं करता है तो वह दुर्लभ बोधित्व को और अनंत संसार रूप परिभ्रमण को प्राप्त करता है ।। ४७०१ । । इसलिए निश्चय ही प्रमाद के वश एक मुहूर्त मात्र भी शल्य युक्त रहना वह असह्य है। इसलिए लज्जा और गारव से मुक्त तूं शल्य का उद्धार कर अर्थात् उसकी आलोचना कर । क्योंकि नये-नये जन्म रूपी संसार लता मूलभूत शल्य को मूल में से उखाड़ने के लिए भय मुक्त बना हुआ धीर पुरुष संसार समुद्र को पार कर जाता है। यदि निर्यामक आचार्य भी इसी तरह आराधक साधु को अनर्थों की जानकारी नहीं दे तो शल्य वाले उस आराधक को भी आराधना करने से क्या फल मिलेगा? इस कारण से आराधक को हमेशा अपायदर्शक की निश्रा में अपनी आत्मा को रखनी चाहिए। क्योंकि वहाँ निश्चय आराधना होती है। ८. अपरिश्रावी लोहे के पात्र में रखा हुआ पानी बाहर नहीं जाता है वैसे प्रकट हुए अतिचार जिसके मुख से बाहर नहीं निकलते उसे ज्ञानी पुरुषों ने अपरिश्रावी कहा है। जो गुप्त बात को जाहिर करता है वह आचार्य उस साधु का या अपना, गच्छ का, शासन का, धर्म और आराधना का त्याग करने वाला जानना । आलोचक कहे हुए दोष अन्य को कहने से कोई लज्जा से और गारव (मान) द्वारा विपरीत परिणाम वाला अधर्मी बन जाये, कोई भाग जाए या कोई मिथ्यात्व को प्राप्त करें। रहस्य को प्रकट करने से द्वेषी बना हुआ कोई उस आचार्य को मार दे, आत्मा का भेदन - आपघात करे और गच्छ समुदाय में भेदन (झगड़ा) करें अथवा प्रवचन का उपहास करें इत्यादि दोष को धारण करने वाले आचार्य नहीं होते हैं। इस कारण से अपरिश्रावी निर्यामक आचार्य की खोज करनी चाहिए। इस तरह आठ गुण वाले आचार्य की चरण कृपा से आराधक प्रमाद शत्रु को खत्मकर आराधना की संपूर्ण साधना करें। -: इस तरह पाप रूपी कमल को जलाने में हिम के समूह समान और यम के साथ युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत संवेगरंगशाला रूपी आराधना के दस अंतर द्वार वाला गण संक्रमण नामक दूसरे द्वार में सुस्थित ( गवेषणा) नामक पाँचवां अंतर द्वार कहा है । इस तरह कही हुई सुस्थित की गवेषणा भी जिसके अभाव में फल की साधना में समर्थ न बने इसलिए अब वह उप-संपदा द्वार को कहता हूँ । उप-संपदा नामक छट्टा अंतर द्वार : इस तरह निर्यामक के गुणों से युक्त और ज्ञान क्रिया वाले आचार्य श्री की खोज करके वह क्षपक उस For Personal & Private Use Only 201 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परीक्षा द्वार आचार्य श्री की उप-संपदा (निश्रा) को स्वीकार करें। उसमें सर्वप्रथम पच्चीस आवश्यक से शुद्ध गुरु वंदन करके विनय से दोनों हाथ से अंजलि करके सर्व प्रकार से आदरपूर्वक इस तरह कहे-हे भगवंत! आपने संपूर्ण द्वादशांगी रूप श्रुत समुद्र को प्राप्त किया है एवं इस शासन में सफल श्री श्रमण संघ के निर्यामक गुरु हो, आज इस शासन में आप ही श्री जिनशासन रूपी प्रासाद (महल) के आधार रूप स्तंभ हो और संसार रूपी वन में भ्रमण करते थके हुए प्राणियों के समूह के समाधि का स्थान हो। इस संसार में आप ही गति हो, मति हो, और हम अशरणों के शरण हो, हम अनाथों के नाथ भी आप हो, इसलिए हे भगवंत! मैंने मेरे योग्य शेष कर्तव्यों को पूर्ण किया है। मैं आपश्रीजी के चरण कमल में दीक्षा के दिन से आज तक की सम्यग भाव से आलोचना लेकर दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अति विशुद्धकर अब दीर्घकाल तक पाली हुई साधुता के फल रूप में निःशल्य आराधना करने की इच्छा करता हूँ। __ इस प्रकार साधु के कहने पर निर्यामक आचार्य कहे कि-हे भद्र! मैं तेरे मनोवांछित कार्य को निर्विघ्नतापूर्वक शीघ्र से शीघ्र सिद्ध करूँगा। हे सुविहित! तूं धन्य है कि जो इस तरह संसार के संपूर्ण दुःखों का क्षय करने वाली और निष्पाप आराधना करने के लिए उत्साही बना है। हे सुभग! तब तक तूं विश्वस्त और उत्सुकता रहित बैठो कि जब तक मैं क्षण भर वैयावच्च कारक के साथ में इस कार्य का निर्णय करता हूँ। इस तरह दुर्गति नगर को बंद करने के लिए दरवाजे के भूगल समान, मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना में दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार का छट्ठा उप-संपदा नाम का द्वार कहा है। अब उप-संपदा स्वीकार करने पर भी मुनि परंपरा की परीक्षा के अभाव में शुद्ध समाधि को प्राप्त नहीं करते हैं, इसलिए परीक्षा द्वार को कहते हैं :परीक्षा नामक सातवाँ द्वार : उसके बाद सामान्य साधु अथवा पूर्व में कहे अनुसार उस अनशन की इच्छा वाला आचार्य, उनकी प्रथम प्रारंभ में ही गंभीर बुद्धि से मौनपूर्वक उस गण के आचार्य और साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए औरक्या यह भावुक मनवाला (सद्भाव वाला) है अथवा अभावुक (सद्भाव रहित) है? इस तरह उस गच्छ में रहे साधुओं को भी उस आगंतुक क्षपक साधु की विविध प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए। और उस गच्छ के आचार्य को भी केवल अनशन करने आने वाले की ही नहीं परंतु अपने साधुओं की भी परीक्षा करनी चाहिए कि-मेरे साधु आगंतुक के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं या नहीं? उसमें आगंतुक को, उस गण के आचार्य का विचार इस तरह करना चाहिए कि-यदि उस आने वाले को देखकर हर्ष से विकसित नेत्र वाले (स्वागत) ऐसा बोलते स्वयं खड़े हो जायें अथवा औचित्य करने के लिए अपने मुनियों को सामने भेजे तो वह प्रस्तुत कार्य को सिद्ध करेगा ऐसा जानना। और यदि मुख की कांति मलीन हो, शून्य दृष्टि से देखे तथा मंद अथवा टूटी-फूटी आवाज से बुलाये तो ऐसे को प्रस्तुत प्रवृत्ति में सहायता के लिए अयोग्य जानना। जब भिक्षा के लिए जाये तब मुनियों की भी परीक्षा के लिए कहना कि-अहो! तुम मेरे लिए दूध रहित चावल लेते आना। ऐसा कहने के बाद यदि वे साधु परस्पर हँसें अथवा उद्धत जवाब दें तो वे असद्भाव वाले हैं ऐसा जानना। परंतु वे यदि सहर्ष ऐसा कहें किआपश्री ने हमको अनुगृहित किया है, सर्व प्रयत्न से भी मिलेगा तो ऐसा ही करेंगे, तो उन्हें सद्भाव वाला समझना। इस तरह आये हुए को स्थानिक साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए। स्थानिक साधु आगंतुक की भी इसी तरह परीक्षा करें। आगंतुक के बिना माँगने पर भी श्रेष्ठ चावल आदि उत्तम आहार को लाकर दे। इससे यदि वह 202 For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-पडिलेहणा द्वार श्री संवेगरंगशाला आश्चर्यपूर्वक ऐसा बोले कि-अहो! बहुत काल पृथ्वी पर परिभ्रमण करने पर भी चावल की ऐसी उत्तम गंध की मनोहरता और स्वादिष्टता को मैंने कहीं पर भी देखा नहीं है। ऐसी व्यंजन सामग्री भी दूसरे स्थान पर नहीं दिखती है, इसलिए मैं इस भोजन को अति अभिलाषा से खाऊँगा। यदि वह ऐसा बोलता है तो वह जितेन्द्रिय नहीं होने से अनशन की प्रसाधना के लिए समर्थ नहीं हो सकता है. इसलिए उसे निषेध करना चाहिए और जिस तरह आया हो उसी तरह वापिस भेज देना चाहिए।।४७४१।। परंत अनशन करने आने वाला यदि ऐसा भोजन देखकर ऐसा कहे कि-हे महानभाव! मझे ऐसा श्रेष्ठ भोजन देने से क्या लाभ होगा? ऐसा श्रेष्ठ आहार को खाने का मुझे यह कौन सा अवसर है? तो वह महात्मा अनशन करने के लिए योग्य है। ऐसा समझकर उसे स्वीकार करना चाहिए। इस तरह चिकित्सा करते, उनकी खड़े रहना, बैठना, चलना, स्वाध्याय करना, आवश्यक, भिक्षा देना, स्थंडिल भूमि जाना इत्यादि में परस्पर परीक्षा करे, इसके बाद जब वह आराधना करते बार-बार उत्साही हो अथवा आराधना की बार-बार याचना करे, तब स्थानिक आचार्य को भी उसकी इस तरह परीक्षा करनी चाहिए। आचार्य पूछे कि-हे सुंदर! तुमने आत्मा की संलेखना की है? वह यदि उत्तर में ऐसा कहे कि-हे भगवंत! क्या केवल हाड़ और चमड़ी वाले मेरे शरीर को आप नहीं देखते? जैसे सुना न हो वैसे आचार्य पुनः भी पूछे इससे वह क्षपक साधु रोषपूर्वक कहे कि-आप अति चतुर हो कि जो कहने पर भी और दृष्टि से देखने पर भी विश्वास नहीं करते हैं। इस तरह बोलते यदि अपनी अंगुली को मरोड़कर दिखाये कि-हे भगवंत! अच्छी तरह देखो! इस शरीर में अति अल्पमात्र भी मांस, रुधिर या मज्जा है? इस तरह होने पर भी हे भगवंत! अब मैं कौन-सी संलेखना करूँ? उसके बाद आचार्य उसे इस तरह कहे-मैं तेरी द्रव्य शरीर की संलेखना नहीं पूछता तूंने अपनी अंगुलियाँ क्यों मरोड़ी? तेरी कृश काया को क्या मैं दृष्टि से नहीं देखता? मेरी सलाह है कि तुम भाव संलेखना करो इसमें शीघ्रता न करो। सर्वप्रथम इन्द्रिय, कषाय और गारव को कृश (पतले) करो, हे साधु! मैं तेरे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करता हूँ। स्थानिक निर्यामक आचार्य द्वारा आराधना के लिए आये हुए को प्रतिबोध करने के लिए ये दो श्लोक कहे हैं। इस तरह परस्पर स्वयं अच्छी तरह परीक्षा करने से उभय पक्षों को भक्त परिज्ञा (अनशन) समय में थोड़ी भी असमाधि नहीं होती है। परंतु अति रभसत्व (सहसा) की हुई धर्म-अर्थ संबंधी प्रयोजन भी विपाक (परिणाम) प्रायः अंत में निवृत्ति के लिए नहीं होता है। इस प्रकार धर्म रूपी तापस के आश्रम तुल्य और मरण के सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार में परीक्षा नाम का सातवाँ द्वार कहा है। अब उभय पक्ष की परीक्षा करने पर भी जिसके बिना आराधना के अर्थी का कार्य भविष्य में निर्विघ्न (सिद्ध) न हो अतः पडिलेहणा द्वार कहता हूँ। आठवाँ पडिलेहणा द्वार : अथवा प्रतिलेखना द्वार, वह पडिलेहणा इस प्रकार से होती है-निश्चय अप्रमत्त मन वाले उत्साही निर्यामक आचार्य गुरु परंपरा से प्राप्त हुआ इस दिव्य निमित्त द्वारा उपसम्पन्न-आये हुए क्षपक की आराधना में विक्षेप होगा या नहीं होगा, उसकी प्रतिलेखना निश्चय करें। उसमें राज्य और क्षेत्र के अधिपति राजादि को गण को और अपने को देखकर यदि वे विघ्न करने वाले न हो तो क्षपक को स्वीकार करें। इस प्रकार पडिलेहणा नहीं करने से बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। अथवा किसी अन्य द्वारा उसे परिपूर्ण रूप में जानकर उसे स्वीकार करें अन्यथा 203 For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त मुनि का प्रबंध स्वीकार न करें। अतः उसके कल्याण, कुशलता और सुकाल में यदि भाव में व्याघात नहीं होने वाला है, ऐसा जानकर उसे स्वीकार करें अन्यथा राजा आदि के स्वरूप की पडिलेहणा (जानकारी) के बिना स्वीकार करने से हरिदत्त मुनि के समान आराधना में विघ्न भी आ सकता है ।।४७६२।। इस विषय पर कथा कहते हैं: हरिदत्त मनि का प्रबंध शंखपुर नगर में सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त, महाबली और शत्रु समूह का विजेता शिवभद्र नामक राजा था और उसे अति मान्य वेद आदि समस्त शास्त्रों में कुशल बुद्धि मतिसागर नाम का पुरोहित था। उसने राजा को विघ्नरहित राज्य के सुख के लिए दुर्गति का कारणभूत होने पर भी यज्ञ कार्यों में हमेशा के लिए लगा दिया। उसके बाद एक समय अनेक साधुओं के समूह के साथ में गुणशेखर नाम के आचार्य नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उनको नमस्कार करने के लिए बाल, वृद्धों सहित नगर के मानवजन महावैभवपूर्वक रथ पालखी आदि वाहन में बैठकर वहाँ गयें। उसी समय में उसी पुरोहित के साथ में राजा भी नगर के बाहर विभाग में वहीं घोड़ों को खिलाने लगा। उस समय कोलाहल पूर्वक राजा ने उस नगर के लोगों को आते-जाते देखकर पूछा कि क्या आज 5 जिससे इस तरह अपने वैभव अनसार श्रेष्ठ अलंकारों से यक्त शरीर वाले लोग यथेच्छ सर्वत्र घूम रहे हैं? फिर परिवार के किसी व्यक्ति ने उसका रहस्य (कारण) कहा। इससे आश्चर्यचकित बना राजा उस उद्यान में गया और उस आचार्यश्री को वंदन नमस्कार करके अपने योग्य स्थान पर बैठा। उसके बाद राजादि पर्षदा के अनुकूल आचार्यश्री ने भी मेघगर्जना के समान गंभीर शब्दों वाली वाणी से धर्म कथा प्रारंभ की। जैसे कि-हे राजन्! सारे शास्त्रों का रहस्य भूत सर्व सुखकारी एक ही जीव दया, प्रशंसा करने योग्य है, जैसे रात्री चंद्रमा के बिना नहीं शोभती वैसे ही धर्म तप, नियम के समूह से युक्त हो तो भी इस दया के बिना लेशमात्र भी नहीं शोभता है। इस दया में रंगे हुए मन वाले गृहस्थ भी देवलोक में उत्पन्न हुए हैं और इससे विमुख मुनि ने भी अत्यंत दुःखदायी नरक को प्राप्त किया है। जो अखूट विशाल और दीर्घ आयुष्य की इच्छा करता है वह कल्पवृक्ष की महान लता सदृश जीव दया का पालन करते हैं। उत्तम मुनियों के द्वारा कही हुई और विशिष्ट युक्ति सहित होने पर भी जो धर्म जीव दया रहित हो उसका भयंकर सर्प के समान दूर से त्याग करना चाहिए। आचार्यश्री के इस तरह कहने पर राजा ने कमल के पत्र समान दृष्टि यज्ञ क्रिया के प्ररूपक पुरोहित के ऊपर फेंकी। उसके बाद अंतर में बढ़ते तीव्र क्रोध वाले पुरोहित ने कहा कि-हे मुनिवर! तुम्हारी अति कठोरता आश्चर्य कारक है कि तूं वेद के अर्थ को नहीं जानता और पुराने शास्त्रों के अल्प भी रहस्य को नहीं जानता, परंतु तूं हमारे यज्ञ की निंदा करता है। आचार्यश्री ने कहा कि-हे भद्र! रोष के आधीन बना हुआ 'तुम वेद पुराण के परमार्थ को नहीं जानते हो,' तुम इस तरह क्यों बोलते हो? हे भद्र! क्या पूर्व मुनियों के द्वारा रचित तेरे शास्त्रों में सर्वत्र जीव दया नहीं कहीं? अथवा क्या उस शास्त्र का यह वचन तूंने नहीं सुना कि-'जो हजारो गायों का और सैंकड़ों अश्वों का दान दे उस दान को सर्व प्राणियों को दिया हुआ अभयदान उल्लंघन कर देता जाता है।' सर्व अवयव वाले स्वस्थ होने पर भी जीव हिंसा करने में तत्पर मनुष्यों को देखकर मैं उनको पंगु, हाथ कटे हुए और कोढ़ी बनना अच्छा समझता हूँ। जो कपिल श्रेष्ठ वर्ण वाली हजार गाय ब्राह्मणों को दान दे और वह एक जीव को जीवन दान (अभयदान) दे वह उसकी सोलवीं कला के भी योग्य नहीं होता है। भयभीत प्राणियों को जो अभयदान देता है उससे अधिक अन्य धर्म इस पृथ्वी तल में एक भी नहीं है। एक जीव को भी अभयदान की दक्षिणा देना श्रेष्ठ है, परंत समझकर एक हजार गाय हजार ब्राह्मणों को देना श्रेष्ठ नहीं है। जो दयाल सर्व प्राणियों को अभयदान देता है वह शरीर मुक्त बने हुए पर-जन्म में किसी से भी भयभीत नहीं होता है। पृथ्वी में सोने 204 For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त मुनि का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला की गाय का और भूमि का दान करना सुलभ है, परंतु जो प्राणियों को अभयदान देता है, वे पुरुष लोक में दुर्लभ है। महान् दानों का भी फल कालक्रम से क्षीण होता है, परंतु भयभीत आत्मा को अभयदान देने से उसका फल क्षय नहीं होता है। अपना इच्छित तप करना, तीर्थ सेवा करना और श्रुतज्ञान का अभ्यास करना, इन सबको मिलाकर भी अभयदान की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं करता है। जैसे मुझे मृत्यु प्रिय नहीं है, वैसे सर्व जीवों को मृत्यु प्रिय नहीं है। इसलिए मरण के भय से डरे हुए जीवों की पंडितों को रक्षा करनी चाहिए। एक ओर सर्व यज्ञ और समग्र श्रेष्ठ दक्षिणा और दूसरी ओर भयभीत प्राणियों के प्राणों का रक्षण करना श्रेष्ठ है। सर्व प्राणियों का जो दान करना और एक प्राणी की दया करना, उसमें सर्व प्राणियों की दया से एक की दया ही प्रशंसनीय है। सर्व वेद, शास्त्र कथन अनुसार सर्व यज्ञ और तीर्थों का स्नान भी वह लाभदायक नहीं होता जब तक उसमें प्राणियों की दया नहीं है। इस तरह हे महायश ! तूं अपने शास्त्रार्थ का भी स्मरण क्यों नहीं करता है? कि जिससे तत्त्व से युक्त होने पर भी जीव दया को स्वीकार नहीं करता है? इस तरह उपदेश देने पर वह पुरोहित साधु के प्रति दृढ़ द्वेषी बना और अल्प उपशान्त चित्त वाला राजा भद्रिक बना। आचार्य श्री भी भव्य जीवों को श्री जिन कथित धर्म में स्थिर करके वहाँ से निकलकर अन्यत्र विहार करने लगे और नये-नये क्षेत्र, गाँव, नगर आकर आदि में लंबे काल तक विचरणकर पुनः उसी नगर में उचित प्रदेश में वे बिराजमान हुए। फिर वहाँ रहे हुए उस आचार्य का हरिदत्त नाम का साधु अनशन के लिए अपने गच्छ से मुक्त होकर काया की संलेखना करके आचार्यश्री के पास आकर विनयपूर्वक चरणकमल में नमस्कार करके और ललाट प्रदेश में हाथ जोड़कर इस प्रकार विनती करने लगा कि - हे भगवंत ! कृपा करो, मैंने संलेखना कर ली है, अब मुझे संसार समुद्र को तरने के लिए नाव समान अनशन उच्चारणपूर्वक अनुग्रह करो, ।।४८०२ ।। उसके बाद जल्दी ही अपने गण-समुदाय को पूछकर करुणा से श्रेष्ठ चित्तवाले गुण शेखर सूरिजी ने उसकी याचना स्वीकार की। फिर आचार्य ने अनशन के विषय में आने वाले विघ्न का विचार किये बिना ही सहसा ही शुभ मुहूर्त में उसे अनशन में लगा दिया। जब इस अनशन की नगर में प्रसिद्धि हुई तब भक्ति से तथा देखने की इच्छा से उस क्षपक साधु को वंदन करने के लिए लोग हमेशा आने लगें। और इस तरफ उस समय उस शिवभद्र राजा का बड़ा पुत्र अचानक रोग के कारण बीमार पड़ा। रोग निवारण करने के लिए उत्तम वैद्यों को बुलाया, चिकित्सा की और विविध मंत्रादि का उपयोग किया, फिर भी वह रोग शांत नहीं हुआ। इससे किंकर्त्तव्य मूढ़ मन वाला और उदास मुख कमल वाला राजा अत्यंत शोक करने लगा। उस समय मौका देखकर दीर्घकाल से छिद्र देखने में तत्पर एवं धर्म द्वेषी उस पुरोहित ने राजा से कहा कि हे देव ! जहाँ साधु बिना कारण आहार का त्याग कर मरते हों वहाँ सुख किस तरह हो सकता है? ऐसा कहकर अनशन में रहे तपस्वी साधु का सारा वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर राजा अत्यंत क्रोधित हुआ और अपने पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी कि -अरे! तुम इस प्रकार कार्य करो कि जिससे ये सब साधु अपना देश छोड़कर शीघ्र निकल जायें। इससे उन्होंने आचार्यश्री के सामने राजा की आज्ञा सुनाई। तब प्रचण्ड विद्या बल वाले एक साधु ने श्री जिनशासन की लघुता होते देखकर आवेशपूर्वक कहा कि - अरे मूढ़ लोगों ! तुम मर्यादा रहित ऐसा क्यों बोल रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि जहाँ मुनिवर्य ने आगम शास्त्रों की युक्ति के अनुसार धर्म क्रिया को स्वीकार किया है उस समय से अशिव आदि उपद्रव चले गये हैं। फिर भी किसी कारण से वह उपद्रव आदि होते है वह भी अपने कर्मों का ही दोष है, फिर साधु के प्रति क्रोध क्यों करते हो? तुम्हारे द्वारा निश्चय ही निष्फल क्रोध किया जा रहा है। अतः हमारे आदेश से राजा को न्याय मार्ग में स्थिर करो। कुतर्क को छोड़ दो। वे दुष्ट सेवक हैं कि जो उन्मार्ग में जाते स्वामी को हित की 205 . For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्चित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त जुलि का प्रबंध शिक्षा नहीं देते। साधु के कहने पर भी उन पुरुषों ने कहा कि-हे साधु! अधिक मत बोलो, यदि तुम्हें यहाँ रहने की इच्छा है तो आप स्वयमेव जाकर राजा को समझाओ। फिर वह मुनि उन पुरुषों के साथ राजा के पास गया और आशीर्वादपूर्वक इस तरह कहने लगा कि-हे राजन्! तुम्हें इस तरह धर्म में विघ्न करना योग्य नहीं है। धर्म के पालन करने वाले राजा की ही वृद्धि होती है और उस शास्त्रोक्त धर्म क्रिया के पालन में दत्त चित्तवाले साधुओं के विरोधी लोगों को समदृष्टि के द्वारा रोकने की होती है। आप ऐसा मत समझना कि-क्रोधित हुए ये साधु क्या कर सकते हैं? अति घिसने पर चंदन भी अग्नि प्रकट करता है ।।४८२२।। इत्यादि कहने पर भी जब राजा ने दुराग्रह को नहीं छोड़ा तब उस मुनिवर ने 'यह दुष्ट है' ऐसा मानकर विद्या के बल से उसके महल के महान और स्थिर स्तंभ भी चलित हो गये। मणि जड़ित भूमि का तल भाग था वह भी कम्पायमान हो गया, ऊपर के शिखर गिर पड़े, पट्टशाला टूट गई, ऊँचे तोरण होने पर भी नम गये, दिवारों में खलबली मच गयी, चारों तरफ से किल्ला काँपने लगा और कई टूटी हुई सेंध दिखने लगीं। ऐसी स्थिति देखकर राजा भयभीत बना, अति मानपूर्वक परों में पड़कर साधुओं को विनती करने लगा कि-हे भगवंत! आप ही उपशम भाव के स्वामी हो, दया की खान स्वरूप और इन्द्रिय कषायों को जीतने वाले हो, आप ही संसार रूपी कुएँ में गिरे हुए जीवों को हाथ का सहारा देकर बचाने वाले हो। इसलिए मलिन बुद्धि वाले मेरा यह एक अपराध क्षमा करो। पुनः मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा, अपने दुष्ट शिष्य के समान मेरे प्रति अब प्रसन्न हो। हे मुनीन्द्र! मन से भी कदापि ऐसा करने के लिए मैं नहीं चाहता हूँ, परंतु पुत्र पीड़ा की व्याकुलता से मैंने दुष्ट की प्रेरणा से यह कार्य किया है। अब इस प्रसंग के कारण से आपकी शक्तिरूपी मथनी से मथन करने से मेरा मनरूप समुद्र विवेक रत्न का रत्नाकर बना है अर्थात् विवेकी बना है, इस कारण से उस पुत्र से क्या प्रयोजन है? और उस राज्य तथा देश से क्या लाभ कि जिससे मैं आपके चरण-कमल की प्रतिकूलता का कारण बना? फिर नमस्कार करने वाले के प्रति वात्सल्य वाले उस मुनि ने 'यह भयभीत बना है' ऐसा जानकर राजा को प्रशान्त मुख से मधुर वचनों द्वारा आश्वासन देकर निर्भय बना दिया। उस समय पर मुनि के प्रभाव से प्रसन्न हुआ जिनदास नामक श्रावक ने राजा से कहा कि-हे देव! निश्चय इस मुनि का नाम लेने से भी ग्रह, भूत, शाकिनी के दोष शांत हो जाते हैं और चरण प्रक्षाल के जल से विषम रोग भी प्रशान्त होते हैं। ऐसा सुनकर राजा ने मुनि के चरण-कमल का प्रक्षालन किया और उसके जल से पुत्र को सिंचन किया, इससे वह शीघ्र ही स्वस्थ शरीर वाला हो गया। उसकी महिमा को स्वयं देखने से, धर्म की श्रेष्ठता पर निश्चय रूप में राजा को श्रद्धा हो गयी और साधु के वचन से जैन धर्म को राजा ने स्वीकार किया। उसके बाद सद्धर्म के विरुद्ध बोलने वाला द्वेषी और उत्तम मुनियों का शत्रु उस पुरोहित को नगर में से निकाल दिया एवं राजा अपने सर्व कार्यों को छोड़कर सर्व ऋद्धि द्वारा सर्व प्रकार से आदरपूर्वक क्षपक मुनि का सन्मान करने लगा। इस तरह अनशन में तल्लीन हरिदत्त महामुनि को आये हुए विघ्न को भी अतिशय वाले उस मुनि ने शीघ्र रोक लिया। अथवा ऐसे अतिशय वाले मुनि भी कितने हो सकते हैं? इसलिए प्रथम से ही विघ्न का विचारकर अनशन में उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार आगम समुद्र के ज्वार या बाढ़ के समान मृत्यु के साथ लड़ते विजय पताका प्राप्त कराने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नामक आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार में पडिलेहणा नाम का आठवाँ अंतर द्वार कहा। अब विघ्नों का विचार करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि अनशन को करने में समर्थ नहीं होता, उस पृच्छा द्वार को कहते हैं ।।४८४३।। 206 For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परगण संक्रमण द्वार-पडिलेहणा द्वार-पृच्छा द्वार श्री संवेगरंगशाला नौवाँ पृच्छा द्वार : इसके पश्चात् स्थानिक आचार्य अपने गच्छ के सर्व मुनियों को बुलाकर कहे कि-यह महासात्त्विक तपस्वी तुम्हारी निश्रा में विशुद्ध आराधना की क्रिया को करने की इच्छा रखता है। यदि इस क्षेत्र में तपस्वी को समाधिजनक पानी आदि वस्तुएँ सुलभ हों और तुम इसकी अच्छी तरह सेवा वैयावच्च कर सकते हो तो कहो, कि जिससे इस महानुभाव को स्वीकार करें। उसके बाद यदि वे सहर्ष ऐसा कहें कि-आहारादि वस्तुएँ यहाँ सुलभ हैं और हम भी इस विषय में तैयार हैं, अतः इस साधु पर अनुग्रह करो। उस समय तपस्वी को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह उसकी इष्ट सिद्धि विघ्न रहित होती है और अल्प भी परस्पर असमाधि नहीं होती है। इस प्रकार की पच्छा निर्यामक आचार्य को. अन्य गच्छ में से आये हए तपस्वी साध को और साधओं को स | सभी को गुणकारी होती है। और इस प्रकार नहीं पूछने से परस्पर अप्रीति एवं आहार पानी के अभाव होने पर तपस्वी को भी असमाधि इत्यादि बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। इस तरह मोक्ष मार्ग के रथ समान और मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करवाने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार में नौवाँ पृच्छा नाम का अंतर द्वार कहा है। अब विधिपूर्वक पृच्छा करने पर भी उस क्षपक के आश्रित को उसके बाद सम्यक् करने का कर्तव्य संबंधी प्रतिपृच्छा या प्रतीच्छा द्वार को कहते हैं। दसवाँ प्रतीच्छा द्वार : पूर्व में जो विस्तार से कहा है उसे विधिपूर्वक आये हुए तपस्वी को उत्साह से आचार्य और साधु सर्व आदरपूर्वक स्वीकार करें। केवल यदि उस गच्छ में किसी प्रकार भी एक ही समय में दो तपस्वी आयें, उसमें जिसने प्रथम से ही संलेखना की हो ऐसी काया हो वह श्री जिनवचन के अनुसार संथारे में रहे हुए शरीर को छोड़े और दूसरा उग्र प्रकार के तप से शरीर की संलेखना करें। परंतु विधिपूर्वक तीसरा भी तपस्वी आया हो तो उसको निषेध करें, अन्यथा वैयावच्च कारक के अभाव में समाधि का नाश होता है। अथवा किसी तरह उसके योग्य भी श्रेष्ठ वैयावच्च करने वाले दूसरे अधिक साधु हों तो उनकी अनुमति से उसे भी स्वीकार करना चाहिए। और किसी कारण से यदि वह आहार का त्यागी प्रस्तुत अनशन कार्य को पूर्ण करने में समर्थ न हो, थक जाये और लोगों ने उसे जाना—देखा हो, तो उसके स्थान पर दूसरे संलेखना करने वाले साधु को रखना चाहिए तथा उन दोनों के बीच में सम्यग् रूप परदा रखना। उसके बाद जिन्होंने उसे पूर्व में सुना हो या देखा हो वे वंदनार्थ आयें तो अल्पमात्र दर्शन कराना चाहिए अन्यथा अश्रद्धा और शासन की निंदा आदि दोष उत्पन्न होने का कारण बनता है। इस कारण से परदे के बाहर रहे उस साधु को वंदन करवाना। इस विधि से गण संक्रमण करके ममत्व से मुक्त बनें धीर आत्मा श्री जिनाज्ञा की आराधना करके दुःख का क्षय करता है। इस तरह श्री जिनचंद्रसूरिजी रचित एवं मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार में प्रतीच्छा नाम का दसवाँ अंतर द्वार कहा और यह कहने से चार मूल द्वार में परगण संक्रमण नाम का यह दूसरा द्वार भी ४८६६ श्लोक से पूर्ण हुआ। ॥ इति श्री संवेगरंगशाला द्वितीय द्वार ।। 207 For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार तृतीय ममत्व विच्छेदन द्वार तिसरे द्वार का मंगलाचरण : दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य सव्वहा धुयममत्तो । भयवं भवंऽतयारी निरंजणो जयइ वीरजिणो ।।४८६७।। सर्व द्रव्यों में, क्षेत्र में, काल में और भाव में सर्वथा ममत्व के त्यागी, संसार का अंत करने वाले और राग रहित निरंजन भगवंत श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं। जिस कारण से आत्मा का परिकर्म करने पर भी और परगण में संक्रमण करने पर भी ममत्व के विच्छेद नहीं करने वाले की आराधना नहीं होती है, इस कारण से गण संक्रमण को कहकर अब ममत्व विच्छेद के अधिकार को कहता हैं। इसमें अनक्रम से नौ अंतर द्वार हैं। वह इस प्रकार से-(१) आलोचना करना, (२) शय्या, (३) संथारा, (४) निर्यापकता, (५) दर्शन (६) हानि, (७) पच्चक्खाण, (८) क्षमापना, और (९) क्षामणा। इन्हें अनुक्रम से कहते हैं। आलोचना विधान द्वार : जिस कारण से गुरुदेव ने स्वीकार किया हुआ भी तपस्वी आलोचना के बिना शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए अब आलोचना विधान द्वार को कहता हूँ। गुरु महाराज विधिपूर्वक मधुर भाषा से सर्व गण समक्ष तपस्वी से कहे कि-हे महायश! तूंने शरीर की सम्यक् संलेखना की है, तूंने श्रमण जीवन स्वीकार किया है, उन सर्व कर्तव्यों में तूं रक्त है, शीलगुण की खान, गुरु वर्ग की चरण सेवा में सम्यक् तत्पर है, और निष्पुण्यक को दुर्लभ उत्तम श्रमण पदवी को तूंने सम्यग् रूप से प्राप्त की है, इसलिए अब अहंकार और ममकार का विशेषतया त्यागी बनकर तूं अति दुर्जय भी इन्द्रिय, कषाय, गारव और परीषह रूपी मोह सैन्य का अच्छी तरह पराजयकर दुर्ध्यान रूपी संताप के उपशम भाव वाले हे सुविहित मुनिवर्य! आत्मा का हित चाहनेवाला तूं अणुमात्र भी दुष्कृत्य की विधिपूर्वक आलोचना कर। इस आलोचना करने के दस द्वार हैं। वह इस प्रकार हैं(१) आलोचना कितने समय में लेनी? (२) किसको देनी? (३) किसको नहीं देनी? (४) नहीं लेने से कौन-से दोष लगते हैं? (५) लेने से कौन-सा गुण होता है? (६) आलोचना किस तरह लेनी? (७) गुरु को क्या कहना? (८) गुरु ने आलोचना किस तरह देनी? (९) प्रायश्चित्त, और (१०) फल, वह अनुक्रम से कहते हैं ।।४८७८ ।। १. आलोचना कब लेनी? :- जिसके पैर में काँटा लगा हो, वह जैसे मार्ग में अप्रमत्त चलता है वैसे अप्रमत्त मनवाले मुनिराज प्रतिदिन सर्व कार्यों में यतना करते हैं, फिर भी पाप का त्यागी होने पर भी कर्मोदय के दोष से किसी कार्य में किंचित् भी अतिचार लगे हों और उसकी शुद्धि की इच्छा करते मुनि, पक्खी, चौमासी आदि में अवश्य आलोचना ले तथा पूर्व में स्वीकार किये हुए अभिग्रह को बतलाकर फिर नया अभिग्रह स्वीकार करें। इस तरह श्री जिनवचन के रहस्य को जानते हुए, संवेग में तत्पर अथवा प्रमादी साधु ने भी अंतिम अनशन में तो अवश्य आलोचना लेनी चाहिए। इस तरह जितने काल की आलोचना लेनी हो उसे कहा है। अब किस प्रकार के आचार्य के पास आलोचना लेनी उसे कहते हैं। २. आलोचना किस के पास लेनी? :- जैसे लोगों में कुशल वैद्य के आगे रोग को प्रकट किया जाता 208 For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला है वैसे लोकोत्तर मोक्ष मार्ग में भी कुशल आचार्यश्री को भाव रोग बतलाना चाहिए। यहाँ पर जो भाव रोग को बतलाए उसी को ही कुशल जानना तथा दोष के प्रायश्चित्त आदि के जानकार, अत्यंत अप्रमादी और सबके प्रति समदृष्टि वाला हो, इसके दो भेद हैं प्रथम आगम व्यवहारी और दूसरा श्रुत व्यवहारी। उसमें आगम के छह प्रकार कहे हैं, वह-(१) केवली, (२) मनःपर्यवज्ञानी, (३) अवधिज्ञानी, (४) चौदहपूर्वी, (५) दसपूर्वी और (६) नौ पूर्वी जानना। और श्रुत से जिनकल्प, महानिशिथ आदि को धारण करने वाले इसके अतिरिक्त आज्ञा व्यवहारी और धारणा व्यवहारी को भी श्री जिनेश्वरों ने कारण से कुशल समान कहा है। जैसे विभंग रचित चिकित्सा शास्त्र के जानकार रोग के कारण को तथा उसे शांत करने वाली औषध के जानकार विविध रोग वालों को भी विविध औषध को देता है और उसका उपयोग करने से रोगियों का तत्काल रोग शांत होता है और सदा शुद्ध सत्य शांति को प्राप्त करता है। यह उपमा यहाँ पर आलोचना के विषय में भी इसी तरह जानना कि वैद्य के सदृश श्री जिनेश्वर भगवान, रोगी समान साधु और रोग अर्थात् अपराध, औषध अर्थात् प्रायश्चित्त और आरोग्य अर्थात् शुद्ध चारित्र है। जैसे वैभंगि कृत वैद्यकशास्त्र द्वारा रोग को जानने वाले वैद्य चिकित्सा करते हैं वैसे पूर्वधर भी प्रायश्चित्त देते हैं। श्रुत व्यवहार में पाँच आचार के पालक, क्षमादि गुणगण युक्त और जिनकल्प-महानिशीथ का जो धारक हो वही श्री जिन कथित प्रायश्चित्त द्वारा भव्य जीवात्मा को शुद्ध (दोषमुक्त) करते हैं। जंघा बल क्षीण होने से अन्यअन्य देश में रहे हुए दोनों देश के आचार्यों को भी अगीतार्थ मुनि द्वारा गुप्त रूप में भेजकर उन्हें पूछवाकर आलोचना लेना और शुद्ध प्रायश्चित्त देना यह विधि आज्ञा व्यवहार की है। गुरु महाराज ने अन्य को बार-बार प्रायश्चित्त दिया हो. उन सर्व रहस्य को अवधारण (याद रखने वाला) करने वाला हो, उसे गुरुदेव ने अनुमति दी हो, वह साधु उसी तरह व्यवहार प्रायश्चित्त प्रदान करें उसे धारणा व्यवहार वाला जानना। नियुक्ति पूर्वक सूत्रार्थ में प्रौढ़ता को धारण करने वाला जो हो, उस-उस काल की अपेक्षा से गीतार्थ हो, और जिनकल्प आदि धारण करने वाला हो, उसे भी इस विषय में योग्य जानना, इसे पाँचवां जीत व्यवहारी जानना। इसके बिना शेष योग्य नहीं है। जैसे अज्ञानी वैद्य के पास गलत चिकित्सा कराने वाले रोगी मनुष्य की रोग वृद्धि होती है, मृत्यु का कारण ब ता है. लोक में निंदा होती है. और राजा की ओर से शिक्षा-दण्ड मिलता है. वैसे ही लोकोत्तर प्रायश्चित्त अधिकार में भी सर्व इस तरह घटित होता है, ऐसा जानना। जैसे कि मिथ्या आलोचना का प्रायश्चित्त प्रदान होता है, इससे उल्टे दोषों की वृद्धि होती है। इससे फिर चारित्र का अभाव हो जाता है और इससे यहाँ आराधना खत्म (मृत्यु) हो जाती है। श्री जिनवचन के विराधक को अन्य जन्मों में भी निंदा, निंदित स्थानों में उत्पत्ति और दीर्घ संसार में रहने का दंड जानना। इस तरह उत्सर्ग से और अपवाद से आलोचना के योग्य कौन है, वह कहा है। अब वह आलोचना किसको लेनी चाहिए उसे कहता हूँ ।।४९००।। १. आलोचना लेने वाला कैसा होता है? :- जाति. कल. विनय और ज्ञान से युक्त हो तथा दर्शन और चारित्र को प्राप्त किया हो। क्षमावान, दान्त, माया रहित और पश्चात्ताप नहीं करने वाले आत्मा को आलोचना करने में योग्य जानना । उसमें उत्तम जाति और कुल वाले प्रायःकर कभी भी अकार्य नहीं करते हैं और किसी समय पर करते हैं तो फिर जाति-कुल के गुण से उसकी सम्यग् रूप से आलोचना करते हैं। शुद्ध स्वभाव वाले विनीत होने से आसन देना, वंदना करना आदि गुण को विनयपूर्वक शुद्ध प्रकृति के कारण पाप की स्वयं यथार्थ रूप में आलोचना करता है। यदि ज्ञानयुक्त हो वह अपराध के घोर विपाकों को जानकर प्रसन्नता से आलोचना 1. कहाँ मैंने आलोचना ली अब इतनी तपश्चर्या कैसे करूंगा? मेरी सारी भूले मैंने इनको बता दी अब वे मेरे विषय में कैसा विचार करेंगे? उनकी दृष्टि में मैं पापी बन गया। इत्यादि विचारणा करनी अर्थात् आलोचना का पश्चात्ताप कहा गया है। 209 For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार करता है और प्रसन्नता से प्रायश्चित्त स्वीकार करता है। दर्शन गुण वाला 'मैं दोष से सम्यक् शुद्ध हुआ' ऐसी श्रद्धा करता है, चारित्र वाला बार-बार उन दोषों का सेवन नहीं करता है तथा आलोचना किये बिना मेरा चारित्र शुद्ध नहीं होता है, ऐसा समझकर सम्यग् आलोचना करें। क्षमाशील आचार्य कठोर वचन कहें फिर भी उसे आवेश नहीं आता उसे गुरुदेव जो यथार्थ प्रायश्चित्त दे उसे पूर्ण करने में समर्थ बनता है, पाप को छुपाता नहीं है और पश्चात्ताप नहीं करने वाला, आलोचना करके फिर खिन्न नहीं होता है। इस कारण से संवेगी और अपने को कृतकृत्य मानने वाले साधु को आलोचना देना । प्रायश्चित्त लेने के बाद ऐसा चिंतन करे कि - परलोक में इस दोष के उपाय अत्यंत कठोर भोगने पड़ते हैं, इससे मैं धन्य हूँ कि जो मेरे उन दोषों को गुरुदेव इस जन्म में ही विशुद्ध करते हैं। अतः प्रायश्चित्त से निर्भय बना और पुनः दोषों को नहीं करने में उद्यमी बनूँ, परंतु विपरीत नहीं बनूँ । क्योंकि ऐसे साधु को आलोचना लेने के लिए अयोग्य कहा है। उसके भेद कहते हैं : तीसरे आलोचक के दस दोष : - (१) गुरु को भक्ति आदि से वश करके आलोचना करना, (२) अपनी कमजोरी बतलाकर आलोचना लेना, (३) जो दोष अन्य ने देखा हो उसे ही कहे, (४) केवल बड़े दोषों को कहे, (५) मात्र सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करे, (६) गुप्त रूप से कहे (७) बड़ी आवाज में आलोचना करें, (८) अनेक गुरुदेवों के पास आलोचना करें, (९) अव्यक्त गुरु के समक्ष आलोचना ले, (१०) अपने समान दोष सेवन करने वाले गुरु के पास में आलोचना ले। ये आलोचक के दस दोष हैं। इन्हें अनुक्रम से कहते हैं 'मुझे प्रायश्चित्त अल्प दें' ऐसी भावना से प्रथम सेवा, वैयावच्च आदि से गुरु को वश या प्रसन्नकर फिर आलोचना ले, जैसे कि 'थोड़ी आलोचना देने में मेरी संपूर्ण आलोचना हो जायगी' ऐसा मानकर आचार्यश्री मुझे अनुगृह करेंगे, ऐसी भावना से कोई आहार, पानी, उपकरण से या वंदन से गुरु महाराज को आवर्जित (आधीन) कर आलोचना ले, वह आलोचना का प्रथम दोष है। जैसे कोई जीने की इच्छा करने वाला पुरुष अहित को भी हित माने, जान-बूझकर जहर पिये वैसी ही यह आलोचना जानना । प्रथम दोष दूसरा दोष :- क्या यह गुरु कठोर प्रायश्चित्त देने वाले हैं अथवा अल्प देने वाले हैं? इस तरह अनुमान से जानकारी करें अथवा मुझे निर्बल समझकर अल्प प्रायश्चित्त दें, इस भावना से वह गुरु महाराज को कहे कि - 'उन साधु भगवंत को धन्य है कि जो गुरु ने दिये हुए बहुत तप को अच्छी तरह उत्साह पूर्वक करते हैं, मैं निश्चय ही निर्बल हूँ, इसलिए तप करने में समर्थ नहीं हूँ। आप मेरी शक्ति को, गुन्हा (दोष) को, दुर्बलता को और अनारोग्य को जानते हैं, परंतु आपके प्रभाव से इस प्रायश्चित्त को मैं बहुत मुश्किल से पूर्ण कर सकूँगा । इस तरह प्रथम गुरु महाराज के सामने कहकर उसके बाद शल्य सहित आलोचना करें। यह आलोचना का दूसरा दोष है। जैसे सुख का अर्थी परिणाम से अहितकर अपथ्य आहार को गुणकारी मानकर खाये वैसे ही शल्यपूर्वक की यह आलोचना भी उसी प्रकार की है। -: 210 तीसरा दोष :- तप के भय से अथवा 'यह साधु इतना अपराध वाला है' इस तरह दूसरे जानते हैं ऐसा मानकर जो-जो दोष दूसरों ने देखे हो उन-उन दोषों की ही आलोचना ले, दूसरे जन नहीं जानते हों उसकी आलोचना न ले। इस प्रकार मूढ़ मति वाला जो गुप्त दोषों को सर्वथा छुपाकर आलोचना करें। यह आलोचना का तीसरा दोष जानना। जैसे खोदते हुए कुएँ में ही कोई उसे धूल से भर देता है वैसे यह शल्य वाली विशुद्धि अशुभ कर्म बंध कराने वाली जानना । चौथा दोष :- जो प्रकट रूप में बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करें, सूक्ष्म की आलोचना न करें अथवा केवल सूक्ष्म दोषों की आलोचना करें, परंतु बड़े दोषों की आलोचना न करें, वह उसमें इस तरह श्रेष्ठ -: For Personal & Private Use Only . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला माने कि-यदि सूक्ष्म-सूक्ष्म दोषों की आलोचना करता है, वह बड़े दोषों की क्यों नहीं आलोचना करें? अथवा यदि बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करता है, वह सूक्ष्म दोषों की आलोचना क्यों नहीं करेगा? इस तरह अन्य समझेंगे, इससे प्रभाव पड़ेगा। ऐसा मानकर जहाँ-जहाँ उसके व्रत का भंग हुआ हो, वहाँ-वहाँ बड़े दोषों की आलोचना करें और सूक्ष्म दोषों को गुप्त रखे। यह चौथा आलोचना का दोष कहा है। जैसे काँसे की जाली अंदर से मैली और बारह से उज्ज्वल रहती है वैसे इस आत्मा में सशल्यत्व के दोष से यह आलोचना बाहर से लोगों को आकर्षण करने वाली, निर्दोष सिद्ध करने वाली है, परंतु अंदर काली श्याम परिणाम वाली है। पाँचवां दोष :- भय से. अभिमान से अथवा माया से जो केवल सक्ष्म या सामान्य दोषों की आलोचना करें और बड़े महा दोषों को छुपाये वह आलोचना का पाँचवां दोष है। जैसे पीतल के कंडे के ऊपर सोने का पानी चढ़ाये हुए के समान, अथवा कृत्रिम सोने का कंडा जिसके अंदर लाख भरा हुआ कड़ा हो, उसके समान यह आलोचना भी जानना। छट्टा दोष :- प्रथम, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें व्रत में यदि किसी ने मूलगुण और उत्तरगुण की विराधना की हो तो उसे कितने तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है? इस तरह गुप्त रूप से पूछकर, आलोचना लिये बिना ही अपने आप उसी तरह ही प्रायश्चित्त करें, वह आलोचना का छट्ठा दोष जानना। अथवा आलोचना करते समय स्वयं ही सुने और अन्य नहीं सुने, इस तरह गुप्त आलोचना करें, इस तरह करने से भी छट्ठा दोष लगता है। जो अपने दोषों को कहे बिना ही शुद्धि की इच्छा करता है, वह मृगतृष्णा के जल समान अथवा चंद्र के आसपास होने वाला जल का कुंडाला (तुषारावृत्) में से भोजन की इच्छा रखता है। जैसे उससे इच्छा पूर्ण नहीं होती वैसे अपने दोष कहे बिना शुद्धि नहीं होती है। सातवाँ दोष :- पाक्षिक, चौमासी और संवत्सरी इन आत्म शुद्धि करने के दिनों में दूसरे नहीं सुनेंगे ऐसा सोचकर कोलाहल में दोषों को कहें, वह आलोचना का सातवाँ दोष जानना। उसकी यह आलोचना रेहट की घड़ी के समान खाली होकर फिर भरने वाली सदृश है, शुद्धि करने पर भी नहीं करने जैसी हैं अथवा समूह में की हुई छींक निष्फल जाती है वैसे उसकी शुद्धि भी निष्फल जाती है, अथवा फूटे घड़े के समान जिसमें पानी नहीं रहे वैसे इस आलोचना का फल उसमें टिक नहीं सकता है ।४९८५।। आठवाँ दोष :- एक आचार्य के पास आलोचना लेकर जो फिर उसी ही दोषों की दूसरे आचार्य श्री के पास आलोचना करे उसे बहुजन नाम का आठवाँ दोष कहा है। गुरु महाराज के समक्ष आलोचना करके उनके पास से प्रायश्चित्त को स्वीकार करके भी उसकी श्रद्धा नहीं करता और अन्य-अन्य को पूछे वह आठवाँ दोष है। अंदर शल्य (वेदना) रह जाने पर फोड़ा खुशक होने के समान फिर रोगी को भयंकर वेदनाओं से दुःख होता है वैसे यह प्रायश्चित्त भी उसके समान दुःखदायी होता है। नौवाँ दोष :- जो गुरु महाराज आलोचना के योग्य श्रुत से अथवा पर्याय से अव्यक्त-अधूरे हों उसे अपने दोष कहने वाले को स्पष्ट आलोचना का नौवाँ दोष लगता है। जैसे कृत्रिम सोना अथवा दुर्जन की मैत्री करना वह अंत में निश्चय ही अहितकर होती है वैसे ही यह प्रायश्चित्त लाभदायक नहीं होता है। दसवाँ दोष :- आलोचना के समान ही उसी अपराधों को जिस आचार्य ने सेवन किया हो उसे तत्सेवी कहते हैं। इससे आलोचना करने वाला ऐसा माने कि 'यह मेरे समान दोष वाला है, इससे मुझे बहुत बड़ा ? इस तरह मोह से संक्लिष्ट भाव वाला ऐसे गुरु के पास आलोचना ले, वह आलोचना का दसवाँ दोष है। जैसे कोई मूढ़ात्मा, रुधिर से बिगड़े हुए वस्त्र की शुद्धि उसी रुधिर से ही करें, उसके समान यह - 211 For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-लज्जा से दोष छुपानेवाले ब्राह्मण पुत्र की कथा दोष शुद्धि जानना । जैसे दुष्कर तप को करने वाला हो, परंतु जिनशासन का विरोधी हो, उसकी किसी प्रकार सिद्धि नहीं होती है। इसी तरह यह शुद्धि भी दोष युक्त अशुद्ध जानना। इस तरह इन दस दोषों का त्यागकर भय, लज्जा, मान और माया दूरकर आराधक तपस्वी शुद्ध आलोचना करें। जो नटकार के समान चंचलता, गृहस्थ की भाषा, गूंगत्व और जोर की आवाज को छोड़कर गुरुदेव के संमुख रहकर विधिपूर्वक सम्यग् आलोचना करता है, उसे धन्य है । इस तरह आलोचना लेने वाला कैसा होता है वह दुष्ट आलोचक का स्वरूप सहित संक्षेप में कहा है। अब आलोचना नहीं लेने से जो दोष लगते हैं, उसे कहते हैं। ४. आलोचना नहीं लेने से होने वाले दोष :- • लज्जा, गारव और बहुश्रुत ज्ञान के अभिमान से भी जो अपना दुश्चरित्र (दोष) को गुरुदेव के संमुख नहीं कहते हैं, वे निश्चय आराधक नहीं होते हैं। यदि थोड़ी-सी भी भूल हो जाये तो भी गुरु महाराज को कहने में लज्जा नहीं करनी चाहिए। लज्जा तो हमेशा केवल अकार्य करने में करनी चाहिए। इस विषय में एक युवराज का उदाहरण है :- एक युवराज मैथुन से रोगी बना था, उसने लज्जा से वैद्य को नहीं कहा, इससे रोग की वृद्धि हुई। भोग का अभाव वाला बना और आखिर वह मर गया। इसका उपनय इस प्रकार है :- युवराज समान साधु है, उसके मैथुन के रोगों के समान अपराध नहीं कहने के सदृश आलोचना रूपी औषध और वैद्य समान आचार्य जानना । लज्जा से रोग की वृद्धि समान यहाँ असंयम की वृद्धि है, भोग के अभाव तुल्य देव मनुष्य के भोगों का अभाव और बार-बार मृत्यु रूप यहाँ संसार समझना । अथवा लज्जा के आधीन अपराध को सम्यग् रूप से नहीं कहने से दोष होता है और लज्जा को छोड़कर अपराध कहने से गुण प्रकट होता है। इसे समझाने के लिए ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत कहते हैं ।। ४९५३ ।। लज्जा से दोष छुपाने वाले ब्राह्मण पुत्र की कथा उद्यान, भवन, गोल बावड़ी, देवमंदिर, चतुष्कोण बावड़ी और सरोवर से रमणीय, एवं समग्र जगत में प्रसिद्ध पाटलीपुत्र नामक नगर में वेद और पुराण का ज्ञाता, ब्राह्मणों में मुख्य तथा सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करने वाला, धर्म में उद्यमशील बुद्धि वाला कपिल नाम का ब्राह्मण था । वह अपनी बुद्धि बल से भव स्वरूप को मदोन्मत्त स्त्री के कटाक्ष समान नाशवान्, यौवन के लावण्य को वायु से उड़े हुए आक की रुई समान चपल, तथा विषय सुख को किंपाक के फल समान प्रारंभ में मधुर और परिणाम में दुःखद मानकर तथा सारे स्वजन के संबंधों को भी अति मजबूत बंधन समान जानकर, घर का राग छोड़कर, एक जंगल की भयानक झाड़ियों वाले प्रदेश में तापस दीक्षा स्वीकारकर रहा हुआ था। और उस शास्त्र कथनानुसार विधिपूर्वक विविध तपस्या तथा फल, मूलकंद आदि से तापस के योग्य जीवन निर्वाह करने लगा। एक दिन वह स्नान के लिए नदी किनारे गया और वहाँ उसने मछली के मांस को खाते पापी मछुए को देखा, कि जिससे उसके पूर्व की पापी प्रकृति से और जीभ इन्द्रिय की प्रबलता से मांस भक्षण की तीव्र इच्छा प्रकट हुई। फिर उसने उनके पास से उस मांस की याचना कर गले तक खाया और उसके खाने से अजीर्ण के दोष से उसे भयंकर बुखार चढ़ा। इससे चिकित्सा के लिए नगर में से कुशल वैद्य को बुलाया और वैद्य ने उससे पूछा कि - हे भद्र! पहले तूंने क्या खाया है? लज्जा से उसने सत्य नहीं कहा, परंतु उसने कहा कि- मैंने वह खाया है जो तापस कंद, मूल आदि खाते हैं। ऐसा कहने पर वैद्य ने 'बुखार वात दोष से उत्पन्न हुआ है' ऐसा मानकर उसकी शांति करने वाली क्रिया की, परंतु उससे कोई लाभ नहीं हुआ । वैद्य ने फिर पूछा, तब भी उसने लज्जा से वैसे ही कहा और वैद्य ने भी वही क्रिया - दवा को विशेष रूप से किया। फिर उल्टे, उपचार से वेदना बढ़ गयी । अत्यंत पीड़ा और मृत्यु के भय 212 For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला से कंपते शरीर वाले, उसने लज्जा छोड़कर एकांत में वैद्य को मांस खाने का वृत्तान्त मूल से कहा, तब वैद्य ने कहा कि-हे मूढ़! इतने दिन इस तरह आत्मा को संताप में क्यों रखा? अब भी हे भद्र! तूंने श्रेष्ठ ही कहा है कि रोग का कारण जाना है। तूं अब डरना मत, अब मैं ऐसा करूँगा जिससे तूं निरोगी हो जायगा। उसके बाद उसने योग्य औषध का प्रयोग करके उसे स्वस्थ कर दिया। इस तरह इस दृष्टांत से लज्जा छोड़कर जिस दोष को जिस तरह सेवन किया उसे उसी तरह कहने वाले परम आरोग्य-मुक्ति को प्राप्त करते हैं। गारव (बडप्पन) का पक्ष नहीं करना चाहिए, परंतु चारित्र का पक्ष करना चाहिए, क्योंकि गारव से रहित स्थिर चारित्र वाला मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है। यह मेरा ऋद्धि आदि सुख नहीं रहेगा, नष्ट हो जायगा ऐसे भय से एवं दुर्गति का मूल ऋद्धि आदि गारव में आसक्त होकर अपने अपराध को नहीं स्वीकारता, उसकी आलोचना नहीं करता, वे जड़ मानव अस्थिर काँचमणि को परमप्रिय स्वीकार करके शाश्वत निरुपम सुख को देने वाले चिंतामणि रत्न का अपमान करते हैं। इसलिए गारव के त्यागी, इन्द्रियों को जीतनेवाले, कषाय से रहित आत्मा को राग द्वेष से मुक्त होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना परसाक्षी से करें :- मैं जिस तरह प्रायश्चित्त के अधिकार का सम्यग् ज्ञाता हूँ, इस तरह दूसरा कौन ज्ञाता है? अथवा मेरे से अधिक ज्ञानवान दूसरा कौन है? इस प्रकार अभिमान से जो अपने दुश्चरित्र को दूसरे को न कहें, वह पापी प्रमाद से सम्यग् औषध को नहीं करने वाले रोगी वैद्य के समान आराधना रूपी आरोग्यता को प्राप्त नहीं करता है। जैसे कोई रोगी वैद्य ज्ञान के गर्व से अपने रोग को न कहकर, स्वयं सैंकड़ों औषध करने पर भी रोग की पीड़ा से मर जाता है। उसी तरह जो अपने अपराध रूपी रोग को दूसरे को सम्यग् रूप से नहीं कहता, वह श्वास के जीते हुए अथवा ज्ञान से ज्ञानी होने पर भी नाश होता है। क्योंकि व्यवहार में अच्छे कुशल छत्तीस गुण वाले आचार्य को भी यह आलोचना सदा परसाक्षी से ही करनी चाहिए। आठ-आठ भेद वाला दर्शन, ज्ञान, चारित्राचारों से और बारह प्रकार के तप से युक्त, इस तरह आचार्य में छत्तीस गुण होते हैं। 'वयछक्क' आदि गाथा में कहा है अर्थात् छह व्रतों का पालक, छह काया का रक्षक तथा अकल्पनीय वस्तु, गृहस्थ का पात्र, पल्यंक, निषधा, स्नान और विभूषा का त्याग इस तरह अठारह गुण तथा पंचविध आचार का निरतिचार पालन करें, पालन करावे और यथोक्त शास्त्रानुसार उपदेश दें। इस तरह आचारवान् आदि आठ तथा दस प्रकार के प्रायश्चित्त के जानकार इस तरह भी छत्तीस गुण होते हैं। तथा आठ प्रवचन माता और दस प्रकार का यति धर्म यह अठारह एवं छह व्रतों का पालन, छह काया का रक्षण आदि ऊपर कहे अनुसार अठारह भेद मिलाकर भी छत्तीस गुण होते हैं।। ___अथवा आचारवान् आदि आठ गुण, अचेलकत्व औद्देशिक त्याग आदि दस प्रकार का स्थित कल्प, बारह प्रकार का तप और छह आवश्यक इस तरह भी छत्तीस गुण होते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार से कहे हुए छत्तीस गुणों के समूह से शोभित आचार्य को भी मुक्ति के सुख के लिए आलोचना सदा परसाक्षी से ही करनी चाहिए। जैसे कुशल वैद्य भी अपना रोग दूसरे वैद्य को कहता है और दूसरा वैद्य भी सुनकर रोगी वैद्य की श्रेष्ठ चिकित्सा प्रारंभ करता है वैसे प्रायश्चित्त विधि का स्वयं अच्छी तरह जानकार हो फिर भी अपने दोषों को अन्य गुरु को अति प्रकट रूप से कहना चाहिए। तथा जो अन्य आलोचनाचार्य होने पर उन्होंने आलोचना दिये बिना ही वे आलोचना नहीं देते, ऐसे मानकर यदि अपने आप 1. गुरुगुणषट्त्रिशिका (उपा, श्री यशोविजयजी रचित) में ३६प्रकार से ३६ गुणों का वर्णन है। 213 For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार आलोचना-प्रायश्चित्त करता है वह भी आराधक नहीं है। इस कारण से ही प्रायश्चित्त के लिए गीतार्थ की खोज करें, क्षेत्र से उत्कृष्ट सात सौ योजन तक और काल से बारह वर्ष तक करनी चाहिए। इस तरह आलोचना नहीं करने से होने वाले दोषों को संक्षेप से कहा है। अब प्रायश्चित्त करने से जो गुण प्रकट होते हैं उसे कहता हूँ। ५. आलोचना से गुण प्रकट :- (१) लघुता, (२) प्रसन्नता, (३) स्व-पर दोष निवृत्ति, (४) माया का त्याग, (५) आत्मा की शुद्धि, (६) दुष्कर क्रिया, (७) विनय की प्राप्ति, और (८) निशल्यता। ये आठ गुण आलोचना करने से प्रकट होते हैं, इसे अनुक्रम से कहता हूँ : (१) लघुता :- यहाँ पर कर्म के समूह को भार स्वरूप जानना क्योंकि वह जीवों को थकाता है, पराजित करता है, उस भार से थका हुआ जीव शिव गति में जाने में असमर्थ हो जाता है, संक्लेश को छोड़कर शुद्ध भाव से दोषों की आलोचना करने से बार-बार पूर्व में एकत्रित किये कर्म-बंध रूपी महान भार खत्म करता है, और ऐसा होने से जीव को भाव से शिव गति का कारणभूत चारित्र गुण की प्राप्ति होकर परमार्थ से महान कर्मों की लघुता प्राप्त करता है। अर्थात् वह आत्मा कर्मों से हल्का बन जाता है। (२) प्रसन्नता :- शुद्ध स्वभाव वाला मुनि जैसे-जैसे सम्यग् उपयोगपूर्वक अपने दोष गुरु महाराज को बताता है वैसे-वैसे नयी-नयी संवेग रूप श्रद्धा से प्रसन्न होता है 'मुझे यह दुर्लभ उत्तम वैद्य मिला है, भाव रोग में ऐसा वैद्य मिलना दुर्लभ है, व्याधि बढ़ाने वाले, लज्जा आदि अधम दोष भयंकर हैं, इसलिए इस गुरुदेव के चरण-कमल के पास लज्जादि छोड़कर सम्यग् आलोचना लेकर अप्रमत्त दशा में संसार के दुःखों की नाशक क्रिया अनशन स्वीकार करूँगा।' इस तरह शुभ भावपूर्वक आलोचना करता है और वह शुभ भाव वाले को 'मैं धन्य हूँ कि जो मैंने इस संसार रूपी अटवी में आत्मा को शुद्ध किया है' ऐसी प्रसन्नता प्रकट होती है। (३) स्व पर दोष निवृत्ति :- पूज्यों के चरण-कमल के प्रभाव से शुद्ध हुई आत्मा, लज्जा के कारण और प्रायश्चित्त के भय से पुनः अपराध न करें। इस तरह आत्मा स्वयं दोषों से रूकती है और इसी तरह उद्यम करते उस उत्तम साधु को देखकर पाप के भय से डरते हुए दूसरे भी अकार्य नहीं करते, केवल संयम के कार्यों को ही करते हैं ।।५०००।। इस तरह. अपने और दसरे के दोषों की निवत्ति होने से स्व पर उपकार होता है. और स्व पर उपकार से अत्यंत महान् दूसरा कोई गुण स्थानक नहीं है। (४)-(५) माया त्याग और शुद्धि :- श्री वीतराग भगवंतों ने आलोचना करने से भवभय का नाशक और परम निवृत्ति का कारण माया त्याग और शुद्धि की प्राप्ति कहा है। माया रहित सरल जीव की शुद्धि होती है, शुद्ध आत्मा को धर्म स्थिर होता है और इससे घी से सिंचन किये अग्नि के समान परम निर्वाण (परम तेज अथवा पवित्रता) प्राप्त करता है। परंतु मायावी क्लिष्ट चित्त वाला बहुत प्रमादी जीव पाप कार्यों का कारणभूत अनेक क्लिष्ट कर्मों का ही बंध करता है। और यहाँ पर उस अति कर्मों को भोगते जो परिणाम आते हैं वह प्रायः संक्लेश कारक पाप कर्म का कारक बनता है। इस तरह क्लिष्ट चित्त से पाप कर्मों का बंध और उसे भोगते हुए क्लिष्ट चित्त होता है, उसमें पुनः पाप कर्म का बंध होता है, इस तरह परस्पर कार्य कारण रूप में संसार की वृद्धि होती है और संसार बढ़ने से अनेक प्रकार के दुःख प्रकट होते हैं। इस प्रकार माया ही सर्व संक्लेशों-दुःखों का मूल मानना वह योग्य है। आलोचना से माया का उन्मूलन होता है, इससे आर्जव-सरलता प्रकट होती है और आलोचना से जीव की शुद्धि होती है, आलोचना करने से ये दो गुण प्रकट होते हैं। (६) दुष्कर क्रिया :- यह आलोचना करना अति दुष्कर है, क्योंकि-कर्म के दोष से जीव प्रमाद से दोषों का सेवन सुखपूर्वक करता है, और यथास्थित आलोचना करते उसे दुःख होता है। अतः कर्म के दोष से सैंकड़ों, 214 For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला हजारों अनेक भव में बार-बार दोषों का सेवन करते हुए महा बलवान बने हुए लज्जा, अभिमान आदि का त्याग कर जो आलोचना करता है, वह जगत में दुष्कर कारक है, जो इस तरह सम्यक् प्रकार से आलोचना करता है, वही महात्मा सैंकड़ों भवों के दुःखों का नाश करने वाली निष्कलंक - शुद्ध आराधना को भी प्राप्त कर सकता है। (७) विनय सम्यग् आलोचना करने से श्री तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा का पालन होने से प्रभु का विनय होता है, गुरुदेवों का विनय होता है और ज्ञानादि सफल होने से भी विनय गुण होता है। कहा है कि विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाओ विप्पमुक्कस्स कओ धम्मो कओ तवो ।। ५०१२ ।। :— विनय यह शासन का मूल है, अतः संयत विनीत होते हैं, 'विनय रहित को धर्म की प्राप्ति कहाँ से और तप भी कहाँ से होता है?' क्योंकि कहा है कि - चातुरंत संसार से मुक्ति के लिए आठ प्रकार के कर्मों को विनय ही दूर करता है, इसलिए संसार मुक्त श्री अरिहंत भगवान ने विनय को ही श्रेष्ठ कहा है। (८) निःशल्यता :- आलोचना करने से ही साधु अवश्य शल्य रहित होते हैं अन्यथा नहीं होते हैं, इस कारण से आलोचना का गुण निःशल्यता है । शल्य वाला निश्चय शुद्ध नहीं होता है, क्योंकि श्री वीतराग के शासन में कहा है कि 'सर्व शल्यों का उद्धार करने वाला ही जीव क्लेशों का नाश करके शुद्ध होता है।' इसलिए गारव रहित आत्मा नये-नये जन्म रूपी लता का मूलभूत मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और नियाण शल्य को मूल में से उखाड़ता है, जैसे भार वाहक मजदूर भार को उतारकर अति हल्का होता है, वैसे गुरुदेव के पास में दुष्कृत्यों की आलोचना और निंदा करके सर्व शल्यों का नाश करने वाला साधु कर्म के भार को उतारकर अति हल्का होता है। इस तरह आलोचना के आठ गुण संक्षेप से कहें। इस तरह यह पाँचवां अंतर द्वार जानना। अब यह आलोचना किस तरह दे, उसे कहते हैं। ६. आलोचना किस तरह दे? आलोचना में इस तरह सात मर्यादा हैं - (१) व्याक्षेप चित्त की चंचलता को छोड़कर, (२) प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का योग प्राप्त कर, (३) प्रशस्त दिशा संमुख रखकर, (४) विनय द्वारा, (५) सरल भाव से, (६) आसेवन आदि क्रम से, और (७) छह कान के बीच आलोचना करनी चाहिए। उसे क्रमसर कहते हैं : — : (१) अव्याक्षिप्त मन से • इसमें अव्याक्षिप्त साधु नित्यमेव संयम स्थान के बिना अन्य विषय में व्याक्षेप रहित अनासक्त रहना चाहिए और आलोचना लेने में तो सविशेष व्याक्षेप रहित रहना चाहिए। दो अथवा तीन दिन में आलोचना लेनी चाहिए, उस कारण से सोकर या जागते अपराध को यादकर सम्यग् रूप से मन में स्थिर करो, फिर ऋजुता - सरलता को प्राप्तकर, उन सब दोषों को तीन बार यादकर लेश्या से विशुद्ध होते हुए शल्य के उद्धार के लिए श्री गुरुदेव के पास आओ और पुनः संवेग को प्राप्त करते उसी तरह सम्यग् दोषों को कहें कि - जिस प्रकार परिणाम की विशिष्टता से अन्य जन्मों में किये हुए कर्मों का भी छेदन-भेदन हो जाये । (२) प्रशस्त द्रव्यादि का योग द्रव्य, क्षेत्र आदि चारों भाव के प्रत्येक के प्रशस्त और अप्रशस्त इस तरह दो-दो भेद हैं, उसमें से अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त में आलोचना करनी चाहिए। उसमें द्रव्य के अंदर अमनोज्ञतुच्छ धान्य का ढेर और तुच्छ वृक्ष यह अप्रशस्त द्रव्य हैं, क्षेत्र में - गिरे हुए अथवा जला हुआ घर, उखड़ भूमि आदि स्थान, यह अप्रशस्त क्षेत्र हैं, काल में- दग्धातिथि, अमावस्या और दोनों पक्ष की अष्टमी, नौवीं, छठी, चतुर्थी तथा द्वादशी ये तिथियाँ तथा संध्यागत, रविगत आदि दुष्ट नक्षत्र और अशुभ योग ये सब अप्रशस्त काल जानना, भाव में-राग-द्वेष अथवा प्रमाद, मोह आदि अप्रशस्त भाव जानना । इसे स्वदोष : For Personal & Private Use Only 215 . Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्य विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार समझना, इन अप्रशस्त द्रव्यादि में आलोचना नहीं करनी, परंतु उसके प्रतिपक्षी प्रशस्त द्रव्यादि में करनी, वह प्रशस्त द्रव्य में-सुवर्ण आदि अथवा क्षीर वृक्ष आदि के योग में आलोचना करनी। प्रशस्त क्षेत्र में-गल्ले के क्षेत्र, चावल के क्षेत्र या श्री जिनमंदिरादि हों वहाँ पर या जोर से आवाज करते या प्रदक्षिणावर्त वाले-जल के स्थान में आलोचना करनी, प्रशस्त काल में-पूर्व में कहे उससे अन्य शेष तिथियाँ, नक्षत्र करण योग आदि में आलोचना करनी और प्रशस्त भाव में-मन आदि की प्रसन्नता में और ग्रह आदि उच्च स्थान में हो अथवा प्रशस्त भावजनक सौम्य ग्रह से युक्त, पवित्र या पूर्ण लग्न में वर्तन हो, इस तरह शुभ द्रव्यादि का समुदाय इस विषय में प्रशस्त योग जानना उस समय आलोचना करनी। (३) प्रशस्त दिशा :- पूर्व, उत्तर अथवा श्री जिनेश्वर आदि से लेकर नौ-पूर्वधर तक ज्ञानी महाराज जिस दिशा में विचरते हों अथवा जिस-जिस दिशा में श्री जिनमंदिर हों वह दिशा उत्तम जानना, उसमें भी यदि आचार्य महाराज पूर्वाभिमुख बैठे हों तो आलोचक उत्तराभिमुख दाहिनी ओर, और यदि आचार्य उत्तराभिमुख हों तो आलोचक पूर्वाभिमुख बायी ओर खड़े रहें। इस तरह परोपकार करने में श्रेष्ठ मन वाले आचार्य श्री पूर्व अथवा उत्तर सन्मुख या चैत्य सन्मुख सुखपूर्वक बैठकर आलोचना को सुनें। (४) विनयपूर्वक :- भक्ति एवं अति मानपूर्वक गुरु महाराज को उचित आसन देकर, वंदन नमस्कारकर, दो हाथ जोड़कर, सन्मुख खड़े रहकर, संवेग रंग से निर्वेदी और विषयों से विरागी, वह महासात्त्विक आलोचक उत्कृष्ट से उत्कट आसन में और यदि बवासीर आदि रोग से पीड़ित हो या अनेक दोष सेवन किये हों और उसे कहने में अधिक समय लगने वाला हो तो गुरु महाराज की आज्ञा लेकर आसन पर बैठकर भक्ति और विनय से मस्तक नमाकर सर्व दोषों का यथार्थ स्वरूप निवेदन करे। (५) ऋजु भावपूर्वक :- जैसे बालक बोलते समय कार्य अथवा अकार्य को जैसे देखा हो उसके अनुसार सरल भाव से बोलता है वैसे माया और अभिमान रहित आलोचक बालक के समान सरल स्वभाव से दोषों की आलोचना करें। (६) क्रमपूर्वक :- इसमें आसेवना क्रम और आलोचना क्रम दो प्रकार का क्रम है। उसमें आसेवना क्रम अर्थात् जो दोष जिस क्रम से सेवन किया हो उसी क्रम से आलोचना करे। आलोचना क्रम में बड़े-बड़े अपराधों की बाद में आलोचना करे 'पंचक' आदि से प्रायश्चित्त के क्रम से प्रथम छोटे दोष को कहना फिर जैसेजैसे प्रायश्चित्त की वृद्धि हो उस-उस क्रम से आकुट्टि द्वारा सेवन किया हो, कपट से सेवन किया हो, प्रमाद से सेवन किया हो, कल्पना से सेवन किया हो, जयणापूर्वक सेवन किया हो, अथवा अवश्य करने योग्य, कारण प्राप्त होने पर जयणा से सेवन किया हो उन-उन सर्व दोषों को यथास्थित जैसा सेवन किया हो उस प्रकार आलोचना करें। (७) छह श्रवण :- इसमें साधु को आचार्य और आलोचक इन दोनों के चार कान और साध्वी के ६ कान जानना। वह इस तरह गुरु महाराज यदि वृद्ध हों तो अकेले और वृद्ध साध्वी हों, फिर भी दूसरी एक साध्वी को साथ में रखें। इस तरह तीन मिलकर छह कान में आलोचना करनी चाहिए और गुरु महाराज यदि युवा हों तो दूसरे साधु को रखकर और यदि साध्वी तरुण हों तो वृद्ध साध्वी को साथ रखकर, इस तरह दो साधु और दो साध्वी, इस प्रकार चार के समक्ष आठ कान में आलोचना लेनी चाहिए। इस प्रकार आलोचना जिस तरह लेनी, उस तरह संक्षेप से कहा है, अब आलोचना में जो अनेक प्रकार के दोषों की आलोचना करनी चाहिए, वह कहता हूँ। 216 For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला ७. क्या-क्या आलोचना करे? - यह आलोचना ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इस प्रकार पाँच प्रकार के आचार में विरुद्ध प्रवृत्ति हो उसकी जानना। इसमें समस्त पदार्थों को प्रकाश करने में (जानने में) शरद ऋतु के सूर्य समान अतिशयों के भंडार और इससे तीन जगत से पूजनीय, ज्ञानी भगवंत का एवं ज्ञान का काल, विनय आदि आचार से विरुद्ध प्रवृत्ति करने से जो अतिचार लगा हो, आत्म सुख में विघ्नभूत, ऐसा कोई भी अतिचार लगा हो उसकी स उसकी सम्यग रूप से आलोचना करनी चाहिए। इसी तरह सम्यग ज्ञान रूपी लक्ष्मी के विस्तार को धारण करने वाले पुरुष सिंह, ज्ञानी पुरुष तथा ज्ञान के आधारभूत पुस्तक, पट, पटड़ी आदि उपकरणों को पैर आदि के संघट्टन द्वारा, निंदा करने से अथवा अविनय करने द्वारा जो अतिचार लगा हो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए। इसी तरह निश्चय ही दर्शनाचार में भी किसी तरह प्रमाद के दोष से शंका-कांक्षा आदि अकरणीय कार्य को करने से तथा प्रशंसा आदि कार्य को नहीं करने से, एवं लोक प्रसिद्ध प्रवचन आदि शासन प्रभावक विशिष्ट पुरुष प्रति उचित व्यवहार नहीं करने से तथा सम्यक्त्व के निमित्त भूत श्री जिनमंदिर, जिनप्रतिमा आदि की एवं श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, तपस्वी और उत्तम श्रावक, श्राविकाओं की अति आशातना अथवा अवज्ञा निंदा आदि करने से जो अतिचार लगा हो वह भी निश्चय आलोचना के योग्य जानना ।।५०५३।। ___ मूल गुणरूप और उत्तर गुणरूप तथा अष्ट प्रवचन माता रूप चारित्राचार में भी जो कोई अतिचार सेवन किया हो उसकी आलोचना करनी, उसमें मूल गुण में छह काय जीवों का संघट्टन (स्पर्श) परिताप तथा विविध प्रकार की पीड़ा आदि करने से प्रथम प्राणातिपात विरमण व्रत में अतिचार लगता है। इस तरह दूसरे व्रत में भी क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से तथाविध असत्य वचन बोलने से अतिचार लगता है। मालिक के दिये बिना जो सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य का हरण करना वह तीसरे व्रत संबंधी अतिचार लगता है। देव, तिर्यंच या मनुष्य की स्त्रियों के भोग की मन से अभिलाषा करना, वचन से प्रार्थना करना और काया से स्पर्श आदि से लगे हुए चौथे व्रत के अतिचार को आलोचना के योग्य जानना। तथा अंतिम पाँचवें व्रत में देश, कुल अथवा गृहस्थ में तथा अतिरिक्त-अधिक वस्तु में ममत्व स्वरूप जो अतिचार लगा हो वह भी आलोचना करने योग्य जानना। दिन में लाया हुआ रात में, रात में लाया हुआ दिन में, रात में लाया हुआ रात में और पूर्व दिन में लाया हुआ दूसरे दिन में खाया हो, इस तरह चार प्रकार से रात्रि भोजन के अंदर जो अतिचार सेवन किया हो वह भी सम्यग् रूप से सद्गुरु देव के समीप में आलोचना करने योग्य जानना।।५०६०।। उत्तर गुणरूप चारित्र में भी आहारादि पिंड विशुद्धि की प्राप्ति में अथवा साधु की बारह पडिमाओं में, बारह भावनाओं में तथा द्रव्यादि अभिग्रह में, प्रतिलेखना में, प्रमार्जन में, पात्र में, उपधि में अथवा बैठते-उठते आदि में जो कोई अतिचार सेवन किया हो वह भी निश्चय आलोचना करने योग्य जानना। ईर्या समिति में उपयोग बिना चलने-फिरने से, भाषा समिति में सावध या अवधारणी भाषा बोलने से, एषणा समिति में अशुद्ध आहार, पानी आदि लेने से, चौथी समिति में पडिलेहन-प्रमार्जन बिना के पात्र, उपकरण आदि लेने-रखने से, और पारिष्ठापनिका समिति में उच्चार, प्रश्रवण आदि को अशद्ध भमि में जैसे-तैसे परठने से. इस तरह पाँच समिति में तथा तीन गुप्ति में प्रमाद के कारण जो कोई भी अतिचार लगा हो उन सबको आलोचना करने योग्य जानना। इस प्रकार रागादि के वश होकर विवेक नष्ट होने से अथवा अशुभ लेश्या से भी चारित्र को जिस प्रकार दूषित किया हो उसकी हमेशा आलोचना करनी चाहिए। इसी प्रकार अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य तप में तथा प्रायश्चित्त आदि छह भेद वाले अभ्यंतर तप 217 For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार में शक्ति होने पर भी प्रमाद के कारण जो अनाचरण किया हो वह अतिचार भी अवश्य आलोचना करने योग्य है। वीर्याचार में शिवगति के कारणभूत कार्यों में अपना वीर्य - पराक्रम को छुपाने से जो अतिचार का सेवन किया हो उसे भी अवश्य आलोचना करने योग्य जानना । इस तरह राग द्वारा, द्वेष से, कषाय से, उपसर्ग से, इन्द्रियों से और परिषहों से पीड़ित जीव में जो कुछ दुष्ट वर्तन किया हो उसकी भी सम्यग् आलोचना करनी चाहिए । अवधारण शक्ति की मंदता से जो स्मृति पथ में नहीं आये उस अतिचार की भी अशठ भाव ओघ (सरलता) से आलोचना करनी चाहिए। इस प्रकार विविध भेद वाला आलोचना योग्य आचरण कहा। अब गुरु को आलोचना किस तरह देनी चाहिए? उसे कहते हैं। ८. गुरु आलोचना किस तरह दे? पूर्व में कहा है उसी तरह आलोचनाचार्य गुरु भी उसमें जो आगम व्यवहारी (जघन्य से नौ पूर्व का जानकार और उत्कृष्ट से केवली भगवंत) हो वह 'जो कहूँगा उसे स्वीकार करेगा ' ऐसा ज्ञान से जानकर आलोचक को विस्तारपूर्वक भूलों को याद करवा दे, परंतु जिसको यत्नपूर्वक अच्छी तरह समझाने पर भी स्वीकार नहीं करेगा, ऐसा ज्ञान से जाने उसको वह आचार्य भगवंत दोषों का स्मरण न करावें । क्योंकि-स्मरण करवाने से 'यह मेरे दोष जानते हैं ऐसी लज्जा को प्राप्त करते वह गुण समूह से शोभते उत्तम गच्छ का त्याग करें अथवा गृहस्थ बन जाये या मिथ्यात्व को प्राप्त करें। गुरु प्रथम आलोचक के गुण-दोष को ज्ञान से जानकर फिर आलोचना सुनने की इच्छा, फिर जिस देश काल आदि में आलोचक सम्यक् प्रायश्चित् स्वीकार करेगा। ऐसा जानकर उस देश काल में पुनः उसे आलोचना देने की प्रेरणा करें अथवा एकान्त से यदि अयोग्य जाने तो उसका अस्वीकार करें, इस तरह करे कि जिससे अल्प भी अविश्वास न हो। अन्य जो श्रुत व्यवहारी आदि आलोचनाचार्य कहे हैं, वे तीन बार आलोचना को सुने और समान विषय में आकार आदि से निष्कपटता को जानकर प्रायश्चित्त दे। क्योंकि - ज्ञानी गुरुदेव आलोचक की आकृति से, इससे और पूर्वापर बाधित शब्दों से प्रायःकर मायावी के स्वरूप को जानते हैं। जो सम्यग् आलोचना नहीं ले, माया करे उसे पुनः शिक्षा दे। फिर भी स्थिर न बनें ऋजुभाव से यथार्थ न कहे उसे केवल आलोचना करने का निषेध करें। यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि - छद्मस्थ की आलोचना स्वीकार न करे और प्रायश्चित्त भी न दे क्योंकि ज्ञान का अभाव होने से दोष लगने का कारण उसका परिणाम और क्रिया किसकी कैसी थी, वह नहीं जान सकते हैं, और निश्चय नय से उस दोष की जानकारी बिना प्रायश्चित्त कर्म भी उस दोष के सेवन समान हो सकता है। इसका उत्तर देते हैं कि-जैसे शास्त्रों में परिश्रम करने वाले, शास्त्र के जानकार और बार-बार औषध को देने वाले अनुभवी वैद्य छद्मस्थ होने पर भी रोग का नाश करते हैं, वैसे यह छद्मस्थ होने पर भी प्रायश्चित्त शास्त्र के अभ्यासी और बार-बार पूर्व गुरु द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त को देखने वाले उसके अनुभवी गुरु महाराज आलोचक के दोषों को दूर कर सकते हैं। इस तरह गुरु को आलोचना जिस तरह देनी चाहिए, उस तरह कहा है। अब संक्षेप में प्रायश्चित्त द्वार कहते हैं। ९. प्रायश्चित्त क्या देना? :- आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र आदि प्रायश्चित्त दस प्रकार का है। उसमें जो अतिचार जिस प्रायश्चित्त से शुद्ध हो, वह प्रायश्चित्त उसके योग्य जानना । कोई अतिचार आलोचना मात्र से शुद्ध होता है, कोई प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है, और कोई मिश्र से शुद्ध होता है, इस तरह कोई अंतिम पारांचित से शुद्ध होता है। पुनः ऐसा दोष नहीं लगाने में दृढ़ शुद्ध चित्तवाले और अप्रमत्त भाव से प्रायश्चित्त करने वाले 1. १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. कायोत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाय, १०. पारांचित । 218 For Personal & Private Use Only . Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार- सूरतेज राजा का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला को पाप की शुद्धि होती है। इस कारण से इस विषय में नित्य बाह्य अभ्यंतर समग्र इन्द्रियों से धर्मी होना चाहिए, परंतु मिथ्या आग्रह वाला नहीं होना चाहिए। इस तरह क्रम प्राप्त प्रायश्चित्त द्वार को संक्षेप से कहा है, अब फल द्वार को कहते हैं। इसमें शिष्य प्रश्न करते हैं कि - यहाँ पर आलोचना अधिकार में पूर्व में आलोचना का जो गुण कहा है वह गुण आलोचना को देने के बाद होने वाला वही आलोचना का फल है, अतः पुनः इस द्वार को कहने से क्या लाभ है? इसका समाधान कहते हैं कि - तुम कहते हो वह पुनरुक्त दोष यहाँ नहीं है, क्योंकि पूर्व में जो कहा है वह गुण आलोचना का अनंतर फल है और यहाँ इस द्वार का प्रस्ताव परम्परा के फल को जानने के लिए कहा है। १०. आलोचना का फल :- राग-द्वेष और मोह को जीतने वाले श्री जिनेश्वर भगवान ने इस आलोचना का फल शरीर और आत्मा के दुःखों का क्षय होने से शाश्वत सुख वाले मोक्ष की प्राप्ति कहा है, क्योंकिसम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप को मोक्ष का हेतु कहा है। चारित्र होने पर सम्यक्त्व और ज्ञान अवश्य होता है। वह चारित्र विद्यमान होने पर भी प्रमाद दोष से मलिनता को प्राप्त करते हुए उसके लाखों भवों का नाश करता है, परंतु उसकी शुद्धि इस आलोचना के द्वारा करता है। और शुद्ध चारित्र वाला संयम में यत्न करते अप्रमादी, धीर, साधु शेष कर्मों को क्षय करके अल्पकाल में श्रेष्ठ केवल ज्ञान को प्राप्त करता है। और फिर केवल ज्ञान को प्राप्त करने वाले, सुरासुर मनुष्यों से पूजित और कर्म मुक्त बनें, वे भगवान उसी भव में शाश्वत सुख वाला मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार प्रायश्चित्त का फल अल्पमात्र इस द्वार द्वारा कुछ कहा है और यह कहने से प्रस्तुत प्रथम आलोचना विधान द्वार पूर्ण रूप में कहा है। हे क्षपक (महासेन) मुनि ! इसको सम्यग् रूप से जानकर आत्मोत्कर्ष का त्यागी-निरभिमानी और उत्कृष्ट आराधना विधि की आराधना करने की इच्छा वाला वह तूं हे धीर पुरुष ! बैठते, उठते आदि में लगे हुए अल्पमात्र भी अतिचार का उद्धार कर, क्योंकि जैसे जहर का प्रतिकार नहीं करने से एक कण भी अवश्य प्राण लेता है, वैसे ही अल्प भी अतिचार प्रायःकर अनेक अनिष्ट फल को देने वाला होता है। इस विषय पर सूरतेज राजा का उदाहरण है ।। ५१०० ।। वह इस प्रकार : सूरतेज राजा का प्रबंध विविध आश्चयों का निवास स्थान पद्मावती नगरी के अंदर प्रसिद्ध सूरतेज नाम का राजा था। उसे निष्कपट प्रेमवाली धारणी नाम से रानी थी। उसके साथ में समय के अनुरूप उचित विषयसुख को भोग तथा राज्य के कार्यों की सार संभाल लेते और धर्म कार्य की भी चिंता करते राजा के दिन व्यतीत हो रहे थे। एक समय श्रुत समुद्र के पारगामी, जगत प्रसिद्ध एक आचार्य श्री नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उनका आगमन सुनकर नगर श्रेष्ठ मनुष्यों से घिरा हुआ हाथी के स्कन्ध पर बैठा हुआ, मस्तक पर आभूषण के उज्ज्वल छत्र वाला, पास में बैठी हुई तरुण स्त्रियों के हाथ से ढुलाते सुंदर चामर के समूह वाला और आगे चलते बंदीजन के द्वारा सहर्ष गुण गाते वह राजा श्री अरिहंत धर्म को सुनने के लिए उसी उद्यान में आया एवं आचार्यजी के चरण-कमल में नमस्कार करके अपने योग्य प्रदेश में बैठा। फिर आचार्यश्री ने उसकी योग्यता जानकर जलयुक्त बादल की गर्जना समान गंभीर वाणी से शुद्ध सद्धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया। जैसे कि - जीवात्मा अत्यधिक काल में अपार संसार समुद्र के अंदर परिभ्रमण करके महामुसीबत से और कर्म की लघुता होने से मनुष्य जीवन प्राप्त करता है। परंतु उसे प्राप्त करने पर भी क्षेत्र की हीनता से जीव अधर्मी बन जाता है। किसी समय ऐसा आर्य क्षेत्र मिलने पर भी उत्तम जाति और कुल बिना का भी वह क्या कर सकता है ? उत्तम 219 For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्य विच्छेदन द्वार-सूरतेज राजा का प्रबंध-(अवंतीनाथ और वरसुंदर की कथा) जाति कुल वाला भी पाँच इन्द्रिय की पटुता, आरोग्यता आदि गुण समूह से रहित, छाया पुरुष (पड़छाया) के समान वह कुछ भी शुभ कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता है। रूप और आरोग्यता प्राप्त करने पर भी पानी के बुलबुले के समान अल्प आयुष्य वाला वह जीव चिरकाल तक स्थिरता को प्राप्त नहीं कर सकता है। दीर्घ आयुष्य वाला भी बुद्धि के अभाव और धर्म श्रवण की प्राप्ति से रहित, हितकर प्रवृत्ति से विमुख और काम से अत्यंत पीड़ित कई मूढ पुरुष तत्त्व के उपदेशक उत्तम गुरु महाराज को वैरी समान अथवा दुर्जन लोक के समान मानते हुए दिन रात विषयों में प्रवृत्ति करते है और इस तरह प्रवृत्ति करने वाला तथा विविध आपत्तियों से घिरा हुआ अवंतीराज के समान मनुष्य भव को निष्फल गँवाकर मृत्यु को प्राप्त करता है। और अन्य उत्तम जीव चतुर बुद्धि द्वारा, विषय जन्य सुख के अनर्थों को जानकर शीघ्र ही नर सुंदर राजा के समान धर्म में अति आदर वाले बनते हैं। इसे सुनकर विस्मित हृदयवाले सूरतेज राजा ने पूछा कि-हे भगवंत! यह अवन्तीनाथ कौन है? अथवा वह नर सुंदर राजा कौन है? गुरु महाराज ने कहा-हे राजन्! मैं जो कहता हूँ उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो। अवंतीनाथ और नरसुंदर की कथा पृथ्वीतल की शोभा समान ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी, उसमें क्रोध से यम, कीर्ति से अर्जुन के समान और दो भुजाओं से बलभद्र सदृश एक होने पर भी अनेक रूप वाला नरसुंदर नामक राजा था। उसे रति के समान अप्रतिम रूप वाली, लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ लावण्य वाली एवं दृढ़ स्नेहवाली बंधुमति नाम की बहन थी। विशाला नगरी के स्वामी अवंतीनाथ के राजा ने प्रार्थनापूर्वक याचनाकर परम आदरपूर्वक उससे विवाह किया। फिर उसके प्रति अति अनुराग वाला वह हमेशा सुरापान के व्यसन में आसक्त बनकर दिन व्यतीत करने लगा। उसके प्रमाद दोष से राज्य और देश में जब व्यवस्था भंग हुई तब प्रजा के मुख्य मनुष्यों और मंत्रियों ने श्रेष्ठ मंत्रणा करके उसके पुत्र को राज्य गद्दी पर स्थापन कर राजा को बहुत सुरापान करवाकर रानी के साथ में पलंग पर सोये हुए को संकेत किए अपने मनुष्यों के द्वारा उठवाकर सिंह, हरिण, सूअर, भिल्ल और रीछों से भरे हुए अरण्य में फेंक दिया और राजा के उत्तराचल वस्त्र के छेडे पर वापिस नहीं आने का निषेध सचक लेख (पत्र) बाँध दिया। प्रभात में जागृत हुआ और मद रहित बने राजा ने जब पास में देखा, तब वस्त्र के छेड़े पर एक पत्र देखा और उसे पढ़कर, उसके रहस्य को जानकर क्रोधवश ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर अति लाल दृष्टि फेंकते और दांत के अग्रभाग से होंठ को काटते रानी से इस प्रकार कहने लगा-हे सुतनु! जिसके ऊपर हमेशा उपकार किया है, हमेशा दान दिया है, हमेशा मेरी नयी-नयी मेहरबानी से अपनी सिद्धियों को विस्तारपूर्वक सिद्ध करने वाले, अपराध करने पर भी मैंने हमेशा स्नेहयुक्त दृष्टि से देखा, उनके गुप्त दोषों को कदापि जाहिर नहीं किया और संशय वाले कार्यों में सदा सलाह लेने योग्य भी उन पापी मंत्री. सामंत और नौकर आदि ने इस तरह अपने कलक्रम के अनुरूप प्रपंच किया है, उसे तूंने देख लिया? मैं मानता हूँ कि-उन पापियों ने स्वयंमेव मृत्यु के मुख में प्रवेश करने की इच्छा की है, अन्यथा उनको स्वामी द्रोह करने की बुद्धि कैसे जागृत होती? अतः निश्चय मैं अभी ही उनके मस्तक को छेदनकर भूमि मण्डल को सजाऊँगा, उनके मांस से निशाचरों को भी पोषण करूँगा और उनके खून से व्यंतरियों के समूह की प्यास दूर करूँगा। हे सुतनु! यम के समान क्रोधायमान मुझे इसमें क्या असाध्य ___ इस तरह बोलते अपने भाग्य के परिणाम का चिंतन नहीं करते राजा को, मधुर वाणी से बन्धुमति ने विनती की कि-हे देव! आप प्रसन्न हों, क्रोध को छोड़ दो, शान्त हो जाओ, अभी यह प्रसंग उचित नहीं है, समय के उचित सर्व कार्य करना अति हितकर होता है। हे नाथ! आप इस समय बिना सहायक के हो, श्रेष्ठ राज्य से 220 For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-अवंतीनाथ और नरसुंदर की कथा श्री संवेगरंगशाला भ्रष्ट हुए हो, और प्रजा विरोधी बनी है, फिर तुम शत्रुओं का अहित करने की चिंता कैसे करते हो? अतः उत्सुकता को छोड़ दो, हम ताम्रलिप्ति नगर में जाकर वहाँ दृढ़ स्नेहवाले नरसुंदर राजा को मिलेंगे। इस बात को राजा ने स्वीकार किया और चलने का प्रारंभ किया। दोनों चलते क्रमशः ताम्रलिप्ति नगर की नजदीक सीमा में पहुँच गये। फिर रानी ने कहा कि-हे राजन्! आप इस उद्यान में बैठो और मैं जाकर अपने भाई को आपके आगमन का समाचार देती हूँ कि जिससे वह घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं की अपनी महान् ऋद्धि सहित सामने आकर आपका नगर प्रवेश करवायेगा। राजा ने 'ऐसा ही हो' ऐसा कहकर स्वीकार किया। रानी राजमहल में गयी और वहाँ नरसुंदर को सिंहासन ऊपर बैठा हुआ देखा, अचानक आगमन देखकर विस्मय मनवाले उसने भी उचित सत्कारपूर्वक उससे सारा वृत्तान्त पूछा। उसने भी सारा वृत्तान्त कहकर कहा कि राजा अमुक स्थान पर बिराजमान है, इससे वह शीघ्र सर्व ऋद्धिपूर्वक उसके सामने जाने लगा। ___ इधर उस समय अवंतीनाथ राजा भूख से अतीव पीड़ित हुआ। अतः खरबूजा खाने के लिए चोर के समान पिछले मार्ग से खरबूजे के खेत में प्रवेश किया। खेत के मनुष्यों ने देखा और निर्दयता से उस पर लकड़ी का प्रहार मर्म स्थान पर किया। कठोर प्रहार से बेहोश बना वह लकड़े के समान चेतन रहित मार्ग के मध्य भाग में जमीन के ऊपर गिरा ।।५१४७।। उस समय श्रेष्ठ विजय रथ में, नरसुंदर राजा बैठकर उसे मिलने के लिए उस प्रदेश में पहुँचा, परंतु चपल घोड़ों के खूर के प्रहार से उड़ती हुई धूल से आकाश अंधकारमय बन गया और प्रकाश के अभाव में राजा के रथ की तीक्ष्ण चक्र के आरे ने अवंतीनाथ के गले के दो विभाग कर दिये अर्थात् रथ के चक्र से राजा का सिर कट गया। फिर पूर्व में कहे अनुसार स्थान पर बहनोई को नहीं देखने से राजा ने यह वृत्तान्त बंधुमति को सुनाया। भाई के संदेश को सुनकर, हा, हा! दैव! यह क्या हुआ?' ऐसे संभ्रम से घूमती चपल आँखों वाली बंधुमति शीघ्र वहाँ पहुँची। फिर गुम हुए रत्न की जैसे खोज करते हैं वैसे अति चकोर दृष्टि से खोज करती उसने महामुसीबत से उसे उस अवस्था में देखा। उसे मरा हुआ देखकर वज्र प्रहार के समान दुःख से पीड़ित और मूर्छा से बंध आँख वाली वह करुणा युक्त आवाज करती पृथ्वी के ऊपर गिर गयी। पास में रहे परिवार के शीतल उपचार करने से चेतना में आयी और वह जोर से चिल्लाकर इस प्रकार विलाप करने लगी-हा, हा! अनुपम पराक्रम के भंडार! हे अवंतीनाथ! किस अनार्य पापी ने तुझे इस अवस्था को प्राप्त करवाया है, अर्थात् मार दिया? हे प्राणनाथ! आपका स्वर्गवास हो गया है, पुण्य रहित अब मुझे जीने रहने से कोई भी लाभ नहीं है। हे हतविधि! राज्य लूटने से, देश का त्याग करने से और स्वजन का वियोग करने पर भी तूं क्यों नहीं शांत हुआ? कि हे पापी! तूंने इस प्रकार का उपद्रव किया? हे नीच! हे कठोर आत्मा! हे अनार्य हृदय! तूं क्या वज्र से बना है? कि जिससे प्रिय के विरह रूपी अग्नि से तपे हुए भी अभी तक तेरा नाश नहीं हुआ? वह राज्य लक्ष्मी और भय से नमस्कार करते छोटे राजाओं का समूह युक्त, वे मेरे स्वामी, अन्य कोई स्त्री को ऐसा प्रेम प्राप्त न हुआ हो ऐसा मनोहर उनका मेरे में प्रेम था। उसकी आज्ञा का प्रभुत्व और सर्व लोक को उपयोगी उस धन को धिक्कार हो, जो मेरा सारा सुख गंधर्वनगर के समान एक साथ नाश हो गया। आज तक आपके आनंद से झरते संदर मख चंद्र को देखने वाली अब अन्य के क्रोध से लाल मख को मैं किस तरह देख सकँगी? अथवा आज दिन तक आपकी मेहरबानी द्वारा विविध क्रीड़ाएँ की हैं, अब कैदखाने में बंद हुए शत्रु की स्त्री के समान में पर के घर में किस तरह रहूँगी? इत्यादि विलाप करती पुष्ट स्तन पृष्ठ को हाथ से जोर से मारती, बिखरे हुए केश वाली, भुजाओं के ऊपर से वस्त्र उतर गया था और कंकण निकल गये, लम्बे समय तक आत्मा में कोई अति महान् शोक समूह को धारण किया। उस समय नरसुंदर राजा ने अनेक प्रकार के वचनों से समझाया, फिर भी 221 For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-सूरतेज राजा का प्रबंध पतंगे के समान पति के साथ में वह ज्वालाओं से व्याप्त चिता की अग्नि में गिर गयी। उस समय संवेग प्राप्तकर नरसुंदर राजा चिंतन करने लगा कि-अचिन्त्य रूप वाली संसार की इस स्थिति को धिक्कार हो कि जहाँ केवल थोड़े से काल के अंदर ही सुखी भी दुःखी हो जाता है, राजा भी रंक हो जाता है, उत्तम मित्र भी शत्रु और संपत्ति भी विपत्ति रूप में बदल जाती है। बहन का बहुत लम्बे काल के बाद अचानक समागम किस तरह हुआ और शीघ्र वियोग भी कैसा हुआ? इस संसारवास को धिक्कार हो! मैं मानता हूँ कि-इस संसार में सर्व पदार्थ हाथी के कान, इन्द्र धनुष्य और बिजली की चपलता से युक्त हैं, इस कारण से देखते ही वह क्षण में नाश होता है। संसार इस प्रकार का होने से परमार्थ के जानकार पुरुष विश्वास पूर्वक अपने घर में एक क्षण भी कैसे रह सकते हैं? अहो! उनकी यह कैसी महान् कठोरता है? इस प्रकार संसार से विरागी बना हुआ वह महात्मा अपने राज्य पर पुत्र को स्थापन करके शुभ भाव में प्रवृत्ति करने लगा और श्री सर्वज्ञ शासन में अपूर्व बहुत मान को धारण करते आयुष्य पूर्ण कर ब्रह्मदेवलोक में देदीप्यमान कांतिवाला देव हुआ, उसके बाद उत्तरोत्तर विशुद्धि के कारण से कई जन्मों तक मनुष्य और देव की ऋद्धि को भोगकर परम सुख वाले मुक्ति पद को प्राप्त किया। इस तरह हे राजन्! तुमने जो अवंतीनाथ का और नरसुंदर राजा का चरित्र पूछा था वह संपूर्ण कहा और इसे सुनकर हे सूरतेज! शत्रु के पक्ष के सर्व अशुभ कर्त्तव्य को छोड़कर, कोई ऐसी उत्तम प्रवृत्ति करो कि जिससे हे सूरतेज! तूं देवों में तेजस्वी बनें ।।५१७६ ।। गुरु महाराज से ऐसा उपदेश सुनने पर राजा का संवेगरंग अत्यंत बढ़ गया और रानी के साथ गुरु के पास दीक्षा स्वीकार की। सूत्र अर्थ को जानकर प्रतिदिन शुभ भावना बढ़ने लगी। अतिचार रूपी कलंक से रहित निरतिचार साधु जीवन के रागवाले, छट्ठ-अट्ठम आदि कठोर तपस्या में एक बद्ध लक्ष्य वाले उन दोनों के दिन अप्रमत्त भाव से व्यतीत होने लगे। एक समय वे महात्मा विविध दूर देशों में विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर में पधारें और अवग्रह (मकान मालिक) की अनुमति लेकर एक गृहस्थ के स्त्री, पशु, नपुंसक रहित घर में वर्षा ऋतु में निवास करने के लिए रहे। वह साध्वी भी विहार करते उसी नगर में उचित स्थान में चौमासा करने के लिए रही। साधु धर्म का पालन करते विशुद्ध चित्तवाले उनका उस नगर में जो वृत्तान्त बना वह कहते हैं। ५१८३।। वहाँ अपने धन समूह से कुबेर के वैभव को भी जीतने वाला विष्णु नाम का धनपति था। उसको कामदेव के समान रूप वाला, सर्व कलाओं में कुशल विविध विलासों का स्थान, निर्मल शीयल वाला 'दत्त' नाम से प्रसिद्ध पुत्र था। वह एक दिन बुद्धिमान मित्रों के साथ नृत्यकार का नाटक देखने गया। वहाँ विकासी नील कमल के समान लम्बी नेत्रों वाली तथा साक्षात् रति सदृश नट की पुत्री को उसने देखा और उसके प्रति प्रेम जागृत हुआ। इससे उसी समय जीवन तक के अपने कुल के काले कलंक का विचार किये बिना, लज्जा को भी दूर फेंककर, घर जाकर उसका ही स्मरण करते योगी के समान सर्व प्रवृत्ति को छोड़कर पागल के समान और मूर्च्छित के सदृश घर के एक कोने में वह एकान्त में बैठा, उस समय पिता ने पूछा कि-हे वत्स! तूं इस तरह अकाल में ही हाथ-पैर से कमजोर, चंपक फल के समान शोभा रहित निराश क्यों दिखता है? क्या किसी ने तेरे पर क्रोध किया है, रोग से, अथवा क्या किसी ने अपमान किया है या किसी के प्रति राग होने से, हे पुत्र! तूं ऐसा करता है? अतः जो हो वह कहो, जिससे मैं उसकी उचित प्रवृत्ति करूँ। तब दत्त ने कहा कि-पिताजी! कोई भी सत्य कारण मैं नहीं जानता, केवल अंतर से पीड़ित होता हूँ, इस तरह अज्ञान का अनुभव करता हूँ। इससे सेठ बहुत व्याकुल हुआ और उसकी शांति के लिए अनेक उपाय किये, परंतु थोड़ा भी लाभ नहीं हुआ। फिर सेठ 222 For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार- सूरतेज राजा का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला को पुत्र के मित्रों ने नाटक में नटपुत्री के प्रति राग उत्पन्न हुआ है, वह सारा वृत्तान्त कहा। इससे सेठ विचार करने लगा कि अहो! दोष को रोकने के लिए समर्थ कुलीनता और सुंदर विवेक विद्यमान है, फिर भी जीव को कोई ऐसा जोर का उन्माद उत्पन्न होता है कि जिससे वह गुरुजनों को, लोक-लज्जा को, धर्म-ध्वंस को, कीर्ति को बंधुजन और दुर्गति में गिरने रूप सर्वनाश को भी नहीं गिनता है। तो अब क्या करूँ? इस तरह सोचता हुआ मूढ़ हृदय वाले इसका कोई उपाय नहीं है कि जिससे उभय लोक में विरुद्ध न हो। फिर भी उत्तम कुल में जन्म लेने वाली मनोहर रूप रंगवाली अन्य कन्या को बतलाऊँ कि जिससे किसी भी तरह उसका मन नट की पुत्री से रुक जाय। ऐसा सोचकर अनेक कन्याएँ उसे बतलाई, परंतु नट की कन्या में आसक्त हुआ उसने उनके सामने देखा ही नहीं। इस कारण से यह पुत्र सुधारने के लिए अयोग्य है, ऐसा मानकर सेठ ने दूसरे उपाय की उपेक्षा की। बाद में निर्लज्ज बनकर उसने नटों को धन देकर उस कन्या विवाह किया। इससे 'अहो! अकार्य किया है।' ऐसा लोकापवाद सर्वत्र फैल गया और उसे कोई नहीं रोक सका ।।५२०० ।। फिर मनुष्यों के मुख से परस्पर वह बात फैलती हुई सूरतेज मुनि ने सुनी और रागवश अल्प विस्मयपूर्वक मुनिश्री ने कहा कि - निश्चय राग को कोई असाध्य नहीं है, अन्यथा उत्तम कुल में जन्म लेकर भी वह बिचारा इस प्रकार का अकार्य करने में कैसे उद्यम करता? उस समय पर वहाँ वंदन के लिए वह साध्वी भी आई थी, यह वृत्तान्त सुनकर अल्प द्वेषवश कहा कि -अरे! नीच मनुष्यों की बात करने से क्या लाभ है? अपने कार्य साधने में उद्यम करो! कामांध बने हुए को अकार्य करना सुलभ ही है, इसमें निंदा करने योग्य क्या है? इस तरह परस्पर बात करने से मुनि को सूक्ष्म राग और साध्वी को सूक्ष्म द्वेष हुआ। इस कारण से नीच गोत्र का बंध किया और प्रमाद के आधीन उन्होंने गुरु महाराज के पास सम्यग् आलोचना बिना ही दोनों अंत में अनशन करके मर गये, और केसर कपूर समान अति सुगंध के समूह से भरे हुए सौधर्म देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ पाँच प्रकार के विषय सुखों को भोगते सूरतेज का जीव अपना आयुष्य पूर्ण कर बड़े धनवान वणिक के घर पुत्र रूप में जन्म लिया और देवी ने भी नट के घर में पुत्री रूप में जन्म लिया। दोनों ने योग्य उम्र में कलाएँ ग्रहण कीं। फिर उन दोनों ने यौवनवय को प्राप्त किया, परंतु किसी तरह सूरतेज के जीव को युवतियों में और उस नट कन्या को पुरुष प्रति राग बुद्धि नहीं हुई। इस प्रकार उनका काल व्यतीत होते भाग्य योग से एक समय किसी कारण उनका मिलाप हुआ और परस्पर अत्यंत राग उत्पन्न हुआ। इससे कामाग्नि से जलते उस दत्त के समान माता, पितादि स्वजनों के रोकने पर भी लज्जा छोड़कर नट को बहुत दान देकर उस नट कन्या के साथ विवाह किया और घर को छोड़कर उन नटों के साथ घूमने लगा। बहुत समय दूर देश परदेश में घूमते उसे किसी समय मुनि का दर्शन हुआ और मुनि दर्शन का उहापोह ( चिंतन) होने से पूर्व जन्म का ज्ञान स्मरण हुआ। इससे पूर्व जन्म के ज्ञान वाले उस महात्मा ने (सूरतेज के जीव ने) विषय राग को छोड़कर दीक्षा को स्वीकार की और शुद्ध आराधना करके अंत में मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए ।।५२१५।। इस तरह आलोचना बिना का अल्प भी अतिचार, हित को नाश करने में समर्थ और परिणाम में दुःखदायी जानकर हितकर बुद्धि वाला जीव पूर्व में कही विधि के अनुसार उत्तम प्रकार से आत्मा की शुद्धि (आलोचना) करे कि जिससे शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से सारे कर्मरूपी वन को जलाकर लोक के अग्रभागरूपी चौदह राजपुरुष के मस्तक का मणि सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंत सुख और अनंत वीर्य वाला, अक्षय, निरोगी, शाश्वत, कल्याणकारी, मंगल का घर और अजन्म बना हुआ वह पुनः जहाँ से संसार में नहीं For Personal & Private Use Only 223 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-दूसरा शय्या द्वार-दो तोतों की कथा आना है, ऐसे उपद्रव रहित मुक्ति रूपी स्थान को प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रवचन (आगम) समुद्र के पारगामी और चारित्र शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त की विधि के जानकार वह आचार्य उस आराधक को समझाकर दोष मुक्त विशुद्ध करें। आराधना की इच्छा वाले तपस्वी आचार्य श्री के अभाव में उपाध्याय आदि के पास आत्मा की शुद्धि करें। यदि किसी तरह भी सेवन किये अतिचार भूल गये हों तो उस विषय में शल्य के उद्धार के लिए इस प्रकार से कहना कि-श्री जिनेश्वर भगवंत जिस-जिस विषय में मेरे अपराधों को जानते हैं, उन अतिचारों की सर्व भाव से तत्पर मैं आलोचना करता हूँ। इस तरह आलोचना करते गारव रहित विशुद्ध परिणाम वाला आत्मा विस्मृत हुए भी अपराधजन्य पाप समूह का नाश करता है। इस तरह दुर्भेद पाप को धोने में जल के विभ्रम समान और संविज्ञ मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए फूलों के वन समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम का तीसरे मूल द्वार में आलोचन विधान नामक प्रथम मूल द्वार पूर्ण हुआ। अब पूर्व में कहे अनुसार विधि से प्रायश्चित्त (शुद्धि) करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि समाधि को प्राप्त नहीं करता है, उस शय्या द्वार को कहता हूँ ।।५२२७।। दूसरा शय्या द्वार : ___ शय्या, वसति (आश्रय) कहलाती है। आराधक के लिए योग्य वसति होनी चाहिए। उसके आस-पास कठोर कर्म करने वाले चोर, वेश्या, मछुआ, शिकार करने आदि पापी तथा हिंसक, असभ्य बोलने वाले, नपुंसक और अति व्यभिचारी आदि पड़ोसी रहते हों, उस स्थान को स्वीकार न करें। क्योंकि इस प्रकार की वसति में रहने से क्षपक मुनि को उनके अनुचित शब्दादि सुनने या देखने आदि से समाधि में व्याघात हो जाता है। सुंदर भावयुक्त बुद्धि वालों की भी कुत्सित की संगति से भावना बदल जाती है, इस कारण से ही पापी के संसर्ग का निषेध किया है। तिर्यंच योनि वालों में भी अशुभ संसर्ग से दोष और शुभ संसर्ग से गुण प्रकट होते हैं। इस विषय में पर्वत के दो तोतों का दृष्टांत है ।।५२३२।। वह इस प्रकार : दो तोतों की कथा विन्ध्याचल नामक महान् पर्वत के समीप में बहने वाली हजारों नदियों से रमणीय, कुलटा के समान, वृक्षों से घिरी हुई कादम्बरी नामक अटवी थी। उसमें नीम, आम, जामुन, नींबू, साल, वास, बील वृक्ष, शल्ल, मोच, मालु की लताएँ, बकुल, कीकर, करंज, पुन्नाग, नागश्री, पर्णी, सप्तपर्ण आदि विविध नाम वाले, पुष्ट गंध वाले पुष्पों से भरे हुए वृक्षों का समूह शोभायमान था। वहाँ एक बड़े वृक्ष के खोखर में एक मैना ने सुंदर संपूर्ण शरीर वाले दो तोतों को उचित समय पर जन्म दिया। फिर प्रतिदिन पांख के पवन से सेवन करती और दाने को खिलाती उन दोनों को बड़ा किया। फिर किसी दिन थोड़े उड़ने की शक्ति प्राप्त होने से वे दोनों जब चपल स्वभाव से उड़कर वहाँ से अन्यत्र जाने लगे तब पंखों की निर्बलता के कारण थक जाने से अर्ध मार्ग में नीचे गिर गये। उस समय उस प्रदेश में तापस आये थे, उनमें से एक को अपने साथ आश्रम में ले गये और दूसरे को भिल्ल, चोर की पल्ली में ले गये। उसमें चोर की पल्ली में रहने वाला तोता हर समय भिल्लों के 'मारो, काटो, तोड़ो, इसका मांस जल्दी खाओ, खून पीओ' इत्यादि दुष्ट वचन सुनते अत्यंत क्रूर मन वाला हुआ और दूसरा करुणा प्रेम के अंतःकरण वाले तापस मुनि के 'जीवों को न मारो, न मारो, मुसाफिर आदि की दया करो, दुःखी के प्रति 224 For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-दूसरा शय्या द्वार-दो तोतों की कथा श्री संवेगरंगशाला अनुकम्पा करो' इत्यादि वचनों से अत्यंत दयालु बना। इस प्रकार काल व्यतीत होते एक समय वृक्ष के ऊपर शिखर पर भिल्लों का तोता बैठा था। उस समय अति शीघ्र वेग वाले, परंतु विपरीत शिक्षा को प्राप्त किये हुए घोड़े के द्वारा हरण होने से बसन्तपुर नगर का निवासी कनककेतु राजा को किसी तरह वहाँ आते देखा, तब पाप विचारों से युक्त उस तोते ने कहा कि-'अरे! भिल्लों! दौड़ो, जाते हुए राजा को शीघ्र पकड़ो और इसके दिव्य मणि, सुवर्ण तथा रत्नों के अलंकार को शीघ्र लूट लो देखों तुम्हारे देखते-देखते वह भाग रहा है।' इसे सुनकर 'जिस प्रदेश में ऐसे दुष्ट पक्षी रहते हों, उस प्रदेश का दूर से त्याग करना चाहिए।' ऐसा सोचकर राजा शीघ्र वहाँ से वापस निकल गया और किसी पुण्योदय से तापस के उस आश्रम के नजदीक प्रदेश में पहुँचा। वहाँ तापस के तोते ने राजा को देखकर मधुर वाणी से कहा-हे तापस मुनियों! यह ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रम वालों का गुरु सदृश राजा घोड़े द्वारा हरण किया हुआ यहाँ आया है, इसलिए उसकी भक्ति-उचित विनय करो।' उसके वचन से तापसों ने सर्व आदरपूर्वक राजा को अपने आश्रम में ले गये, वहाँ भोजन आदि से उसका सत्कार किया। फिर स्वस्थ शरीर वाला और विस्मित मन वाले राजा ने तोते को पूछा कि-समान तिर्यंच जीवन है, फिर भी आचरण परस्पर विरुद्ध क्यों है? जिससे वह भिल्लों का तोता ऐसा निष्ठुर बोलता है और तूं कोमल वाणी से ऐसा एकान्त हितकर बोलता है? तब तोते ने कहा कि-मेरी और उसकी माता एक है और पिता भी एक है, केवल उसे भिल्ल पल्ली में ले गये और मुझे मुनि यहाँ ले आये हैं, इस तरह हमारे में निज-निज संसर्ग जन्य यह दोष-गुण प्रकट हुआ है। वह आपने भी प्रकट रूप से देखा है। इस प्रकार यदि तिर्यंचों को भी संसर्गवश गुण-दोष की सिद्धि जगत में प्रसिद्ध है, तो तप से दुर्बल दुःख से पालन हो सके ऐसी अनशन की साधना में उद्यमशील बना तपस्वी दुष्ट मनुष्यों के पड़ोस में रहे तो स्वाध्याय में विघ्न आदि का कारण कैसे नहीं हो सकता है? उनका भी पतन हो सकता है। कुशील मनुष्यों के पड़ोस में रहने से श्रेष्ठ समता वाला, इन्द्रियों का श्रेष्ठ दमन करने वाला और पूर्ण निरभिमानी भी कलुषित बनता है, उसमें क्या आश्चर्य है? अन्य मनुष्यों से रहित एकांत वसति में क्लेश, बातें, झगड़ा, विमूढ़ता दुर्जन का मिलन, ममत्व और ध्यान-अध्ययन में विघ्न नहीं होता है। इसलिए जहाँ मन को क्षोभ करने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषय न हों, वहाँ तीनों गुप्ति से गुप्त क्षपक मुनि शुभ ध्यान में स्थिर रह सकता है। जो उद्गम, उत्पादना और एषणा से शुद्ध हो, साधु के निमित्त में सफाई अथवा लिपाई आदि किये बिना का हो, स्त्री, पशु, नपुंसक से अथवा सूक्ष्म जीवों से रहित हो, साधु के लिए जल्दी अथवा देरी से तैयार नहीं किया हुआ हो, जिसकी दिवार मजबूत हो, दरवाजे मजबूत हों, गाँव के बाहर हो, गच्छ के बाल-वृद्धादि साधुओं के योग्य हों, ऐसे रहने का स्थान शय्या में, उद्यान में, घर में, पर्वत की गुफा में अथवा शून्य घर में हो वहां रहें। तथा सुखपूर्वक निकल सके और प्रवेश कर सके, ऐसा चटाई के परदे वाली और धर्म कथा के लिए मंडप सहित दो अथवा तीन वसति रखनी चाहिए, उसमें एक के अंतर क्षपक को और दूसरे के अंदर गच्छ में रहे साधुओं को रखना चाहिए कि जिससे आहार की गंध से क्षपक मुनि को भोजन की इच्छा न हो। पानी आदि भी वहाँ रखें जहाँ तपस्वी नहीं देखे, अपरिणत (तुच्छ सामान्य) साधुओं को भी वहाँ नहीं रखे। यहाँ प्रश्न करते हैं-सामान्य साधु को नहीं रखने का क्या कारण है? इसका उत्तर देते हैं-नहीं रखने का मुख्य कारण यह है कि-किसी समय क्षपक मुनि को असमाधि हो जाय तो उसको अशनादि देते देखकर मुग्ध साधुओं को क्षपक मुनि के प्रति अश्रद्धा हो जाती है। और महानुभाव क्षपक को भी अनेक भव की परंपरा से आहार का परिचय होने से वहाँ रखने से किसी समय सहसा गृद्धि प्रकट न हो, 225 For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्य विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार क्योंकि-आराधना रूपी महासमुद्र के किनारे पर पहुँचा हुआ भी तपस्वी की चारित्र रूपी नाव को किसी कारण से विघ्न आ जाय उसके लिए यह जयणा है। इस तरह धर्म शास्त्रों के मस्तक के मणि समान और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए विकसित पुष्पों वाली उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में यह दूसरा शय्या नाम का अंतर द्वार कहा। ___शय्या यथोक्त हो परंतु संथारा के बिना आराधक को प्रसन्नता नहीं रहती है, अतः अब उस द्वार को कहते हैं ।।५२७०।। संस्तारक नामक तीसरा द्वार : पूर्व में विस्तार से कहा है, उस शय्या में भी जहाँ चूहे के खोदे हुए रज समूह का थोड़ा भी नाश (विराधना) न हो, जहाँ जमीन में से उत्पन्न हुआ खार और जलकण आदि का विनाश न हो, जहाँ दीपक का, बिजली का और पूर्व पश्चिमादि दिशा के प्रबल वायु का विनाश न हो, जहाँ अनाज आदि बीज का अथवा हरी वनस्पति का स्पर्श न हो, जहाँ चींटी आदि त्रस जीवों की हिंसा न हो, जहाँ पर असमाधिकारक अशुभ द्रव्यों की गंध आदि न हो, जहाँ जमीन खड्डे और फटी न हो, वहाँ क्षपक मुनि की प्रकृति के हितकारी प्रदेश में समाधि के लिए पृथ्वी की शिला का, काष्ठ का अथवा घास का संथारा बनाकर उत्तर में मुख रखें अथवा पूर्व सन्मुख रखना चाहिए। उसमें भूमि संथारा अचित्त, समान, खोखलों से रहित जमीन पर और शिला संथारे के अंदर पत्थर फटा हुआ न हो अथवा जीव संयुक्त न हो और ऊपर का भाग सम हो, उस शिला पर संथारा करना चाहिए। काष्ठमय संथारा छिद्र रहित हो, स्थिर हो, भार में हल्का हो, एक ही विभाग अखंड काष्ठ का करना और घास का संथारा जोड़ बिना का, लम्बे तृण का, पोलेपन से रहित और कोमल करना चाहिए, एवं उभयकाल पडिलेहणा से शुद्ध किया हुआ और योग्य माप से किये हुए इस संथारे में तीन गुप्ति से गुप्त होकर बैठना। मुनि को भावसमाधि का कारण होने से ऊपर कहे अनुसार यह द्रव्य संथारा भी निःसंगता का प्रतीक कहा है। फिर संलीनता में स्थिर रहा हुआ संवेग गुणयुक्त और धीर संलेखना करने वाला क्षपक मुनि संथारे में बैठकर अनशन के काल को निर्गमन करें। मजबूत और कठिनता से तृण आदि के संथारे में, बैठने में असमर्थ, क्षपक मुनि को यदि किसी भी प्रकार असमाधि हो तो उस पर एक, दो अथवा अधिक कपड़े बिछाए और अपवाद मार्ग में तो तलाई आदि भी उपयोग में ले सकते हैं। भाव संथारा – इस तरह द्रव्य की अपेक्षा से संथारा अनेक प्रकार का कहा है। भाव की अपेक्षा से भी संथारा अनेक प्रकार का जानना, जैसे कि-राग, द्वेष, मोह और कषाय के जाल को दूर से त्यागकर परम प्रशम भाव को प्राप्त करने वाला आत्मा ही संथारा है। सावध योग से रहित संयम धन वाला, तीन गुप्ति से गुप्त और पाँच समिति से समित आत्मा जो भाव साधु है उसका आत्मा ही संथारा है। निर्मम और निरहंकारी, तृण मणि में, तथा पत्थर के टुकड़े और सुवर्ण में अत्यंत समचित्त वाला एवं परमार्थ से तत्त्व के ज्ञाता जो आत्मा है वही संथारा है। जिसको स्वजन अथवा परजन में, शत्रु और मित्र में, तथा स्व-पर विषय में परम समता है वही आत्मा निश्चय संथारा है। दूसरों को प्रिय या अप्रिय करने पर भी जिसका मन हर्षित अथवा दीनता को धारण नहीं करता उसकी आत्मा ही संथारा है। किसी भी द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में या भाव में राग को त्याग करने के लिए तत्पर रहना और जो सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव वाली आत्मा हो वही भाव संथारा है। सम्यक्त्व, ज्ञान और 1. अववाएणं ता जा पावारगतूलिभाऽऽई वि ||५२८२।। 226 For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-गजसुकुमार की कथा श्री संवेगरंगशाला चारित्र रूप जो मोक्ष साधक गुण उस आत्मा में ही सुरक्षित हैं, इसलिए भाव से आत्मा ही संथारा है। शुद्ध और अशुद्ध संथारा - आश्रव द्वार को नहीं रोकने वाले आत्मा को उपशम भाव में स्थिर नहीं करता है और संथारा में रहे, अनशन स्वीकार करे उसका संथारा अशुद्ध है। गारव से उन्मत्त जो गुरुदेव के पास आलोचना लेने की इच्छा न रखें और संथारे में बैठा हो उसका संथारा अशुद्ध है। योग्यता प्राप्त करने वाला यदि गुरु महाराज के पास आलोचना को करता है और संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। सर्व विकथा से मुक्त, सात भय स्थानों से रहित बुद्धिमान जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। नौ वाड़ सुरक्षित ब्रह्मचर्य वाला एवं दस प्रकार के यति धर्म से युक्त जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। आठ मद स्थानों से पराभव प्राप्त करने वाला, निध्वंस परिणाम वाला, लोभी और उपशम रहित मन वाले का यह संथारा क्या हित करेगा? जो रागी, द्वेषी, मोह, मूढ़, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी है वह संथारे में रहा हुआ भी संथारे के फल का भागीदार नहीं होता है। जो मन, वचन और काया रूप योग । के प्रचार को नहीं रोकता और सर्व अंगों से, जिसकी आत्मा संवर रहित है, वह वस्तुतः धर्म से रहित, संथारे के फल का हिस्सेदार कैसे बन सकता है? अतः जो गुण बिना का भी संथारे में रहकर मोक्ष की इच्छा करता है तब तो उस मुसाफिर, रंक और सेवक जन का मोक्ष प्रथम होगा! बाह्य-अभ्यंतर गुणों से रहित और बाह्यअभ्यंतर दोष से दूषित रंक आत्मा संथारे में रहता है, फिर भी अल्पमात्र भी फल को प्राप्त नहीं करता।।५३०० ।। बाह्य-अभ्यंतर गुण से युक्त और बाह्य-अभ्यंतर दोषों से दूर रहा हुआ, संथारे में नहीं रहने पर भी इच्छित फल का पात्र बनता है। तीनों गारव से रहित, तीन दण्ड का नाश करने में जिसकी कीर्ति फैली हुई है, जो निःस्पृह मन वाला है उसका संथारा निश्चय सफल है। जो छह काय जीवों की रक्षा के लिए एकाग्र जयणा पूर्ण प्रवृत्ति करता है, आठ मद रहित और विषय सुख की तृषा से रहित है, वह संथारे के फल का हिस्सेदार बनता है। जो तपस्वी समता से युक्त मन वाला हो, संयम, तप, नियम के व्यापार में रक्त मनवाला और स्व-पर कषायों को उपशम करने वाला हो वह संथारे का फल वास्तविक रूप में प्राप्त कर सकता है। अच्छी तरह गुणों को विस्तार करने वाले संथारे को जो सत्पुरुष प्राप्त करता है, उसीने जीवलोक में सारभूत धर्म रत्न को प्राप्त किया है। सर्व क्षमा रूपी बख्तर से सर्व अंगों की रक्षा कर, सम्यग् ज्ञानादि गुण और अमूढ़ता रूप शस्त्र को धारण कर, अतिचार रूपी मलिनता से रहित और पंच महाव्रत रूपी महा हाथी के ऊपर बैठा हुआ क्षपक वीर सुभट प्रस्तुत संथारा रूपी युद्ध की भूमि में विलास करते उपसर्ग और परिषहों रूपी सुभटों से युक्त प्रचण्ड कर्म शत्रु की प्रबल सेना को सर्व प्रकार से जीतकर आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करता है, क्योंकि-तीन गुप्ति से गुप्त आत्मा श्रेष्ठ संलेखना के करने के लिए सम्यक्त्व रूपी पृथ्वी के संथारे में अथवा विशुद्ध सद्धर्म गुणरूपी तृण के संथारे में अथवा प्रशम रूपी काष्ठ के संथारे में या अति विशुद्ध लेश्या रूपी शिला के संथारे में आत्मा को स्थिर करता है, इससे वह आत्मा ही संथारा है। और विशुद्ध प्रकार से मरने वाले को तो तृणमय संथारा या अचित्त भूमि भी आराधना में कारण नहीं है, परंतु वहाँ आत्मा ही स्वयं अपने संथारे का आधार बनता है। जो त्रिविध-त्रिविध उपयोग वाला है उसे तो अग्नि में भी, पानी में भी अथवा त्रस जीवों के ऊपर या सचित्त बीज और हरी वनस्पति के ऊपर भी संथारा होता है। अग्नि, पानी और त्रस जीव के संथारे में अनुक्रम से धीर गजसुकुमार, अर्णिका पुत्र आचार्य और चिलाती पुत्र आदि के दृष्टांत हैं ।।५३१३।। वह इस प्रकार : अग्नि संथारे पर गजसुकुमार की कथा द्वारिका नगरी में यादव कुल में ध्वजा समान अर्द्ध-भरत की पृथ्वी का स्वामी श्री कृष्ण नामक अंतिम 227 For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा वासुदेव था। उसका गजसुकुमार नाम का छोटा भाई था। इच्छा नहीं होने पर भी माता और वासुदेव आदि स्वजनों के आग्रह से उसने सोमशर्मा नाम के ब्राह्मण की पुत्री के साथ विवाह किया, परंतु श्री नेमिनाथ भगवान के पास धर्म को सुनकर सारे जगत को क्षीण, विनश्वर जानकर नवयुवक होने पर भी और रूप से कामदेव समान होने पर भी वह चरम शरीरी महासत्त्वशाली गजसुकुमार साधु बना और भय मोहनीय से रहित निर्भय बनकर वे मुनि भगवान के साथ गाँव, नगरादि में विहार करने लगे। इस तरह विहार करते बहुत काल के बाद वे द्वारका में पधारें। वहाँ श्री रैवतगिरि के ऊपर देवों ने भगवंत के समवसरण की रचना की। भगवंत समवसरण में विराजमान हुए और गजसुकुमार मुनि श्मशान में कायोत्सर्ग करके खड़े रहे। फिर किसी कारण से उस प्रदेश में सोमशर्मा आया। 'यह वही है कि जिसने मेरी पुत्री से विवाह करके त्याग किया है' ऐसा विचार करते तीव्र क्रोध चढ़ गया। उसको मार देने की इच्छा से उसने उसके मस्तक ऊपर मिट्टी की पाल बाँधकर, उस पाल के अंदर जलते अंगारे भर दिये, तब उसका मस्तक अग्नि से जलने लगा, परंतु गजसुकुमार शुभ ध्यान में स्थिर रहते अंतकृत केवली बनकर मोक्ष गये। इस तरह उस गजसुकुमार का अग्नि का संथारा जानना। अब जिनको जल का संथारा हुआ था उस अर्णिका पुत्र आचार्य का प्रबंध कहते हैं। जल संथारे पर अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा श्री पुष्पभद्र नगर में प्रचण्ड शत्रु पक्ष को चूरण करने का व्यसनी पुष्पकेतु नामक महान राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उस रानी से युगल रूप पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री ने जन्म लिया था। उन दोनों को परस्पर अति स्नेह वाले देखकर राजा ने उनका वियोग नहीं करने के कारण से परस्पर उनका विवाह किया। पुष्पवती को इसके कारण निर्वेद उत्पन्न हुआ और दीक्षा लेकर देवलोक में उत्पन्न हुई। वहाँ से सुख पूर्वक सोई हुई पुष्पचूला को करुणा से प्रतिबोध करने के लिए स्वप्न में भयंकर दुःखों से अति दुःखी नरक के जीवों को तथा नारकों को बतलाने लगी। फिर भयंकर स्वरूप वाले उन स्वप्नों को देखकर उसी समय जागृत होकर उसने राजा को नरक का वृत्तान्त कहा। उसने भी रानी के विश्वास के लिए सभी पाखण्डियों को बुलाकर पूछा कि-भो! नरक कैसी होती है? और उसमें दुःख कैसा होता है? उसे कहो। अपने-अपने मतानुसार उन्होंने नरक का वृत्तान्त कहा, परंतु रानी ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर राजा ने बहुश्रुत सर्वत्र प्रसिद्ध एवं स्थविर अर्णिका पुत्र आचार्य को बुलाकर पूछा-उन्होंने नरक का यथास्थित वर्णन किया। इससे भक्तिपूर्ण हृदय वाली पुष्पचूला रानी ने कहा कि-हे भगवंत! क्या आपने भी स्वप्न में यह वृत्तान्त देखा है? गुरु महाराज ने कहा कि-हे भद्रे! जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिस वस्तु को श्री जिनेश्वर परमात्मा के आगम रूपी दीपक के बल से नहीं जान सकते। इस नरक का वृत्तान्त तो कितना मात्र है? ।।५३३४।। फिर किसी समय उसकी माता ने उसको स्वप्न में आश्चर्यकारक वैभव से युक्त देवों के समूहवाला स्वर्गलोक बतलाया। और पूर्व के समान पुनः सभी को आमंत्रण देकर राजा ने पूछा, परंत यथार्थ उत्तर नहीं मिला, इससे आखिर में आचार्य श्री को बुलाकर स्वर्ग का वृत्तान्त पूछा, तब आचार्य श्री ने भी उसका स्वरूप यथार्थ कहा और हर्षित हुई रानी पुष्पचूला ने भक्ति से चरणों में नमस्कार करके कहा कि-गुरुदेव! नरक के दुःखों की प्राप्ति किस प्रकार होती है? और देवों के सुख की प्राप्ति किस प्रकार होती है? गुरु महाराज ने कहाभद्रे! विषयासक्ति आदि पापों से नरक का दुःख और उसके त्याग से स्वर्ग सुख मिलता है। तब सम्यक् प्रतिबोध को प्राप्त कर उसने विषय के व्यसन को छोड़कर दीक्षा लेने के लिए राजा से अनुमति माँगी और उसके विरह से राजा मुरझा गया। फिर 'तुझे कभी भी अन्य क्षेत्र में विहार नहीं करना, इस स्थान पर रहना।' ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक, 228 For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा श्री संवेगरंगशाला महाकष्टपूर्वक आज्ञा दी, फिर पुष्पचूला दीक्षा लेकर अनेक तपस्या द्वारा पापों का पराभव करने लगी। एक समय दुष्काल पड़ा। सभी शिष्यों को दूर देश में विहार करवा दिया। अर्णिका पुत्र आचार्य का जंघा बल क्षीण होने से अकेले वहीं स्थिरवास किया और पुष्पचूला साध्वी राजमंदिर से आहार, पानी लाकर देती थी। इस तरह समय व्यतीत करते अत्यंत विशुद्ध परिणाम वाली उस साध्वी ने घातीकर्म को नाश करके केवल ज्ञान रूप प्रकाश प्राप्त किया। परंतु 'केवली रूप में प्रसिद्ध न हो वहां तक केवली पूर्व में जो आचार पालन करते हैं, उस विनय का उल्लंघन नहीं करते हैं।' ऐसा आचार होने से वह पूर्व के समान गुरु महाराज को अशनादि लाकर देती थी। एक समय श्लेष्म से पीड़ित आचार्य श्री को तीखा भोजन खाने की इच्छा हुई। उसने उचित समय उस इच्छा को उसी तरह पूर्ण की, इससे विस्मय मन वाले आचार्य श्री ने कहा कि-हे आर्या! तूंने मेरा मानसिक गुप्त चिंतन को किस तरह जाना?1 उसने कहा-ज्ञान से। आचार्यश्री ने पूछा-कौन से ज्ञान के द्वारा? उसने कहा किअप्रतिपाती ज्ञान के द्वारा। यह सुनकर, धिक्कार हो, धिक्कार हो, मुझ अनार्य के, मैंने इस केवली की कैसी आशातना की है? इस तरह आचार्य शोक करने लगे। तब, हे मुनीश्वर! शोक मत करो। क्योंकि-'यह केवली है' ऐसा जाहिर हए बिना केवली भी पर्व के व्यवहार को नहीं छोडते हैं। ऐसा कहकर उसे शोक करते रोका। फिर आचार्य ने पूछा- 'मैं दीर्घकाल से उत्तम चारित्र की आराधना करता हूँ, क्या मैं निर्वाण पद को प्राप्त करूँगा या नहीं?' उसने कहा कि-हे मुनीश! निर्वाण के लिए संशय क्यों करते हो? क्योंकि गंगा नदी के पार उतरते तुम भी शीघ्र कर्मक्षय करोगे। यह सुनकर आचार्यश्री गंगा पार उतरने के लिए नाव में आकर बैठे। नाव चलने लगी, परंतु कर्म दोष से नाव में जहाँ-जहाँ वे बैठने लगे, वह नाव का विभाग डूबने लगा, इससे 'सर्व का नाश होगा' ऐसी आशंका से निर्यामक ने अर्णिका पुत्र आचार्य को नाव में से उठाकर पानी में फेंक दिया। फिर परम प्रशम रस में निमग्न अति प्रसन्न चित्त वृत्ति वाले, सम्पूर्णतया सभी आश्रव द्वार को रोकने वाले, द्रव्य और भाव से परम वैराग्य को प्राप्त करते, अति विशुद्धि को प्राप्त करते वे आचार्य शुक्ल ध्यान में स्थिर होने से उसके द्वारा कर्मों का क्षय करते, केवल ज्ञान प्राप्त किया। जल के संथारा में रहने पर भी सर्व योगों का संपूर्ण निरोध करते, उन्होंने मोक्ष पद प्राप्त किया और उसके द्वारा मन वांछित कार्य की सिद्धि की। इस तरह जल संथारे पर अर्णिका पुत्र का वर्णन किया और त्रस संथारा के विषय में चिलाती पुत्र का दृष्टांत है वह पूर्व में कहा है। इस तरह अन्य भी जिस-जिस संथारे में मृत्यु के समय जिस-जिस आत्मा को समभाव से उत्तम समाधि प्राप्त होती है, वह सर्व उनका संथारा जानना। इस तरह संथारा में रहता हुआ वह क्षपक मुनि सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में रहकर अनेक जन्मों तक पीड़ा देनेवाले कर्मों को तोड़कर समय व्यतीत करता है, चक्रवर्ती को भी वह सुख नहीं और सारे उत्तम देवों को भी वह सुख नहीं है जो सुख द्रव्य, भाव संथारे में रहे राग रहित वैरागी मुनि को है। इस तरह संथारे में रहा हुआ अति विशुद्ध योग वाला मुनि हाथी के समान अनेक काल के एकत्रित हुए कर्मरूपी वृक्षों के जंगल को चारित्र द्वारा खत्म करता हुआ विचरता है। इस तरह कामरूपी सर्प को पराभव करने में गरुड़ की उपमायुक्त और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पोंवाली उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरे मूल द्वार में तीसरा संथारा नामक अंतर द्वार कहा। अब संथारे में रहने वाले क्षपक मुनि को निर्यामक बिना समाधि की प्राप्ति नहीं होती है, इसलिए उस निर्यामक द्वार को कहते हैं ।।५३६५ ।। 1. अन्य कथा में वर्षा में गोचरी लाने का कथन है। २. अन्य ग्रन्थों में शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दु जल में गिरने का प्रसंग आया है। 229 For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-निर्यामक नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला निर्यामक नामक चौथा द्वार : उसके बाद जिसने द्रव्य से शरीर की संलेखना की हो और भाव से परीषह तथा कषाय की जाल को तोड़ी हो, वह क्षपक मुनि निर्यामणा करने वाले जो गुरु हो उसकी इच्छा करें, वह निर्यामक छत्तीस गुण वाला, प्रायश्चित्त की विधि में विशारद - गीतार्थ, धीर, पाँच समिति का पालक, तीन गुप्ति से गुप्त, अनासक्त अथवा स्वाश्रयी, राग, द्वेष और मद बिना के योग सिद्ध अथवा कृत क्रिया का सतत् अभ्यासी, समय का ज्ञाता, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप समृद्धिशाली, मरण- समाधि की क्रिया और मरणकाल का ज्ञाता, इंगित आकृति से शीघ्र अथवा प्रार्थना-इच्छा करने वाले के स्वभाव को जानने वाला, व्यवहार कार्य करने में कुशल, अनशन रूपी रथ के सारथी अर्थात् क्षपक मुनि के अनशन को निर्विघ्न पूर्ण कराने वाले एवं अस्खलित आदि गुणों से युक्त द्वादशांगी रूप सूत्र के एक समुद्र सदृश निर्यामणा कराने वाले गुरु की और निर्यामक मुनियों की खोज करें। फिर आगम को प्रकाश करने में दीपक समान उस आचार्य श्री की निश्रा में धीर क्षपक मुनि महा प्रयोजन - मोक्ष के साधन के लिए अनशन को स्वीकार करें। फिर गुरु महाराज ने दिये हुए अल्प निद्रा वाले, संवेगी, पापभीरु, धैर्यवाले तथा पासत्था, अवसन्न और कुशील अथवा शिथिलाचार के स्थान छोड़ने में उद्यमी, क्षमापूर्वक सहन करने वाले, मार्दव गुण वाले, अशठ, लोलुपतारहित, लब्धिवंत, मिथ्या आग्रह से मुक्त, चतुर, सुंदर स्वरवाले, महासत्त्व वाले, सूत्र अर्थ में एकान्त आग्रह बिना स्याद्वादी, निर्जरा के लक्ष्य वाले, जितेन्द्रिय, मन से दान्त, कुतूहल से रहित, धर्म में दृढ़ प्रीति वाले, उत्साही, अवश्य कार्य में स्थिर दृढ़ मन वाले, उत्सर्ग - अपवाद के उस उस स्थान में श्रद्धालु और उसका उपदेशक, दूसरे के अभिप्राय के ज्ञाता, विश्वासपात्र, पच्चक्खाण में उसके विविध प्रकारों ज्ञाता, कल्प्य अकल्प्य को जानने में कुशल, समाधि को प्राप्त करने में और आगम रहस्यों के ज्ञाता, ऐसे अड़तालीस मुनि उसके निर्यामक बनें। वह इस प्रकार : १-उद्वर्तनादि कराना, २- अंदर के द्वार पर बैठना, ३ - संथारा का प्रतिलेखन आदि करना, ४ क्षपक मुनि को धर्मकथा सुनानी, ५- आगंतुक वादियों के साथ में वाद करना, ६ - मुख्य द्वार पर चौकी करना, ७ - आहार ले आना, ८-पानी ले आना, ९-मलोत्सर्ग करवाना, १० - प्रश्रवणश्लेष्म आदि परठना, ११ - बाहर के श्रोताओं को धर्म सुनाना, और १२ - चारों दिशाओं में संभाल रखनी । । ५३७६ ।। इन बारह विषयों में प्रत्येक के चार-चार विभाग होते हैं, वह इस प्रकार : १. अत्यंत कोमल हाथ से चार मुनि क्षपक मुनि के करवट को बदलाएँ, फिर दूसरी करवट बदलाएँ या चलाना आदि शरीर की सेवा करें, उसके बाद शरीर से कमजोर बनें तब हाथ आदि का सहारा देकर चलायें और यदि वह भी सहन करने में असमर्थ हो तो संथारे में रखकर ही उसे उठाना फेरना आदि करना। २. चार मुनि अंदर के द्वार में अच्छी तरह उपयोगपूर्वक बैठे और खयाल रखें। और ३. चार मुनि प्रतिलेखनापूर्वक संथारा बिछाये। ४. चार मुनि बारी-बारी अस्तो व्यस्त न बोले, इस तरह एक दूसरे अक्षरों को मिलाये बिना, अस्खलित, कम, अधिक, बिना विलम्ब से न हो, इस तरह शीघ्रता भी नहीं करना, एकत्रित उच्चारण से नहीं, वैसे एक ही उच्चारण बार-बार नहीं करना, परंतु मधुर स्वर पूर्वक स्पष्ट समझ में आये इस तरह, बहुत बड़ी आवाज नहीं, अति मंद स्वर से भी नहीं, असत्य अथवा निष्फल भी नहीं बोले, प्रतिध्वनि या गूंज न हो, इस तरह शुद्ध संदेह रहित सुनने वाले को अर्थ का निश्चय हो, इस तरह पदच्छेदनपूर्वक बोले अथवा क्षपक मुनि के हृदय को अनुकूल हो, इस तरह स्नेहपूर्वक मीठे शब्दों से और पथ्य भोजन के समान आनंदजनक धर्मकथा को चार मुनि उस क्षपक 230 For Personal & Private Use Only . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-निर्यामक नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला को सम्यग् रूप में कहें। उसमें क्षपक मुनि को वह धर्मकथा इस प्रकार कहना कि जिसको सम्यग् सुनकर वह आर्त्त-रौद्र रूपी अपध्यान को छोड़कर संवेग निर्वेद को प्राप्त करें। ५. चार वादी मुनि वाद के लिए आने वाले प्रतिवादियों को बोलने से रोके अथवा समझाएँ। ६. तपस्वी के मुख्य द्वार पर चार मुनि उपयोगपूर्वक बैठे। ७. लब्धि वाले कपट बिना के चार मुनि उद्वेग बिना उत्साहपूर्वक क्षपक मुनि को रुचिकर दोष रहित आहार खोज कर लाये। ८. चार मुनि ग्लान के योग्य पानी लाकर दें। ९. चार महामुनि क्षपक मुनि की बड़ी नीति को परठे। १०. चार मुनि उसके कफ की कूण्डी, प्याला आदि को विधिपूर्वक परठे। ११. श्रोताओं को धर्मकथा करने वाले चार गीतार्थ बाहर बैठे। १२. सहस्र मल्ल के समान चार मुनि तपस्वी मुनि के उपद्रव आदि से रक्षण करते चार दिशा में रहें। इस तरह अड़तालीस निर्यामक मुनियों द्वारा क्षपक मुनि की निर्यामणा करानी चाहिए। उसमें भी भरत, ऐरावत क्षेत्रों में जब ऐसा काल हो, तब उस काल के अनुरूप अड़तालीस निर्यामक भी उसी तरह होते हैं, और काल के अनुसार इतने मुनियों का अभाव में क्रमशः चार-चार कम करना, जघन्य से चार अथवा दो भी निर्यामक होते हैं। कहा है कि जो जारिसओ कालो भरहैरवएसु होइवासेसु। ते तारिसया तइया दुवे जहन्नेण निज्जवया ।।५३९० ।। 'भरत और ऐरावत क्षेत्र में जब जैसा काल हो, तब उस काल अनुरूप निर्यामक भी जघन्य से दो होते हैं।' उसमें एक सदा पास में रहकर अप्रमत्त भाव में क्षपक मुनि की सार संभाल रखें और दूसरा प्रयत्नपूर्वक साथ के साधु का तथा अपना उचित निर्दोष आहारादि खोजकर ले आएँ। परंतु यदि किसी कारण से एक ही निर्यामक हो तो वह अपने लिए भी भिक्षा भ्रमण आदि नहीं कर सकता है, इसलिए अपने आपको छोड़ता है अथवा इससे विपरीत रूप से भिक्षार्थ भ्रमण करता है तो क्षपक को छोड़ता है, उसकी सारसंभाल नहीं कर सकता है, उस क्षपक मुनि की सार संभाल न करने से उसे साधु धर्म से अवश्य दूर करता है। क्योंकि निर्यामक के अभाव में तृषा-क्षुधा आदि से मंद उत्साही क्षपक बन जाता है। अकल्प्य आहारादि उपयोग अथवा दूसरे के पास याचनादि करता, अपभ्राजना (अपमान) करता है, अथवा असमाधि से मर जाये और दुर्गति में भी चला जाता है, इत्यादि दोष लगने के कारण क्षपक के पास जघन्य से दो निर्यामक होने ही चाहिए। तथा संलेखना करने वाले को निर्यामणा कराता है ऐसा सुनकर सुविहित आचार वाले सर्व मुनियों को वहीं जाना चाहिए और अन्य कार्य की गौणता रखनी चाहिए। क्योंकि यदि तीव्र भक्ति राग से संलेखना करने वाले के पास जाता है. वह दैवी सखों को भोगकर उत्तम स्थान रूप मक्ति को प्राप्त करता है। जो जीव एक जन्म में भी समाधि मरण से मरता है वह सात या आठ भव से अतिरिक्त अधिक बार संसार में परिभ्रमण नहीं करता है। श्रेष्ठ अनशन के साधक को सुनकर भी यदि साधु तीव्र भक्तिपूर्वक वहाँ नहीं जाता है तो उसकी समाधि मरण में भक्ति कैसी? और जिसको समाधि मरण में भी भक्ति नहीं हो, उसे मृत्युकाल में समाधि मरण किस तरह हो सकता है? ।।५४०० ।। तथा शिथिलाचारी साधुओं को क्षपक के पास में प्रवेश करने नहीं देना चाहिए, क्योंकि उनकी सावध (पापकारी) वाणी से क्षपक मुनि को असमाधि उत्पन्न होती है। तथा क्षपक मुनि को तेल या अर्क आदि के कुल्ले बार-बार कराने चाहिए कि जिससे जीभ और कान का बल टिका रहें और उच्चारण स्पष्ट हो अथवा मुख निर्मल रहें। इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों का उद्यान समान - 231 For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-दर्शन नामक पाँचवा द्वार-हानि नामक छट्टा द्वार संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम के तीसरे द्वार में चौथा निर्यामक नाम का अंतर द्वार कहा । इस प्रकार निर्यामकादि के साथ अनशन की सामग्री हो तब आहार त्याग की इच्छा वाले क्षपक मुनि को सर्व वस्तुओं में इच्छा रहित जानने के बाद अनशन उच्चारण करावें, इच्छा रहित है या नहीं यह भोजन आदि दिखाने से जान सकते हैं। इसलिए अब वह दर्शन द्वार को अल्पमात्र कहते हैं । । ५४०६ ।। दर्शन नामक पाँचवां द्वार : उसके बाद प्रति समय बढ़ते उत्तम शुद्ध परिणाम वाला वह क्षपक महात्मा मरूभूमि के अंदर गरमी से दुःखी हुए मुसाफिर के समान अनेक पत्तों से युक्त वृक्ष को प्राप्त करके अथवा रोग से अत्यंत पीड़ित रोगी दुःख का प्रतिकार करने वाले वैद्य को प्राप्तकर जैसे विनती करता है, वैसे निर्यामक को प्राप्तकर और गुरुदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर इस तरह निवेदन करता है - हे भगवंत ! बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सके ऐसी यह सामग्री मैंने प्राप्त की है, इसलिए मुझे अब काल का विलम्ब करना योग्य नहीं है। कृपा करके मुझे अनशन का दान करो। दीर्घकाल काया की संलेखना करने वाले मुझे अब इस भोजनादि के उपभोग से क्या प्रयोजन है? इसके बाद उसकी निरीहता (इच्छा रहितता) जानने के लिए गुरु महाराज स्वभाव से ही श्रेष्ठ स्वाद वाला, स्वभाव से ही चित्त में प्रसन्नता प्रकट करने वाला, स्वभाव से ही महकते सुगंध और स्वभाव से ही इच्छा प्रकट कराने वाला आहार आदि श्रेष्ठ पदार्थ उसे दिखाये, दिखाने से जैसे कुरर पक्षी के कुरर शब्द को सुनकर मछली का समूह जल में से बाहर आता है, वैसे उसके हृदय में रहे संकल्प भाव अवश्य प्रकट होते हैं। यदि इस तरह द्रव्य को दिखाये बिना उसे आहार का त्रिविध से त्याग करवा दिया जाये तो बाद में किसी प्रकार के भोजन में उस क्षपक मुनि को उत्सुकता हो सकती है। और अन्नादि से सेवन की हुई आहार की संज्ञा भी कैसी है - पूर्व में जो भुक्त भोगी, गीतार्थ अच्छी तरह से वैरागी और शरीर से स्वस्थ हो, वह भी आहार के रस धर्म में जल्दी क्षोभित होता है। इसलिए त्रिविध आहार के उद्देश्य को नियम कराने वाले उसको प्रथम सारे उत्कृष्ट द्रव्य को दिखाने चाहिए। इस तरह चार कषाय के भय को भगाने वाली संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों के उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में पाँचवां दर्शन नाम का अंतर द्वार कहा । अब क्रमानुसार हानि द्वार की प्ररूपणा द्वारा द्रव्यों को दिखाने के बाद क्षपक मुनि को होता है, उस परिणाम को कहते हैं। हानि नामक छट्टा द्वार : अर्थात् आहार का संक्षेप रूप, गुरु महाराज से भोजन के लिए अनुमति प्राप्तकर अत्यंत प्रबल सत्त्व वाले क्षपक मुनि के आगे रखा हुआ अशनादि द्रव्यों को देखकर, स्पर्श करके, सूँघकर अथवा उसे ग्रहण करके इच्छा से मुक्त बना, इस प्रकार सम्यग् विचार करें- अनादि इस संसार रूपी अटवी में अनंतबार भ्रमण करते मैंने मन वांछित क्या नहीं भोगा? किस वस्तु को स्पर्श नहीं किया? क्या नहीं सूँघा ? अथवा मैंने क्या-क्या वस्तु प्राप्त नहीं की? अर्थात् मैंने हर पदार्थ का भोग, स्पर्श आदि सब कुछ किया, फिर भी इस पापी जीव को अल्पमात्र भी यदि तृप्ति नहीं हुई है, वह तृप्ति क्या अब होगी ? अतः संसार के किनारे पर पहुँचे हुए मुझे इन द्रव्यों से क्या प्रयोजन है? इस तरह चिंतन करते कोई संवेग में तत्पर बनता है। कोई अल्प आस्वादन करके अब किनारे पर पहुँचे हुए मुझे इस द्रव्य को खाने से क्या प्रयोजन है? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है। कोई 232 परिणाम प्रकट For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-दर्शन नामक पाँचवा द्वार-हानि नामक छट्टा द्वार श्री संवेगरंगशाला खाकर खेद करता है हा, हा! मुझे अब इन द्रव्यों से क्या प्रयोजन है? ऐसे वैराग्य के अनुसार संवेग में परायण बनता है। कोई संपूर्ण खाकर पश्चात्ताप करता है धिक् धिक् ! मुझे अब इन द्रव्यों की क्या आवश्यकता है? इस प्रकार वैराग्य के अनुसार संवेग में दृढ़ बनता है। और कोई उसे खाकर यदि मनपसंद रस में रसिक बने हुए चित्त परिणाम वाला उस भोजन में ही सर्व से या देश से आसक्ति करता है तो उस क्षपक मुनि को पुनः समझाने के लिए गुरु महाराज रसासक्ति को दूर कने वाले आनंद दायक वचनों से धर्मोपदेश करते हैं। केवल धर्मोपदेश को ही नहीं करे, परंतु उसको भय दिखाने के लिए सूक्ष्म भी गृद्धि शल्य के कष्टों को इस प्रकार बतालाए । भूखे इस जीव ने हिमवंत पर्वत, मलय पर्वत, मेरु पर्वत और सारे द्वीप, समुद्र तथा पृथ्वी के ढेर के समान, ढेर से भी अधिकतर आहार खाया है। इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते सभी पुद्गलों को अनेक बार भोगा है और शरीर रूप में परिवर्तन किया है, फिर भी तूं तृप्त नहीं हुआ। पापी आहार के कारण शीघ्र सर्व नरकों में जाता है वहाँ से अनेक बार सर्व प्रकार की म्लेच्छ जातियों में भी उत्पन्न होता है। आहार के कारण तन्दुलिया मच्छ अंतिम सातवीं नरक में जाता है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! तूं आहार की सर्व क्रिया को मन से भी इच्छा नहीं करना । तृण और काष्ठों से जैसे अग्नि शांत नहीं होती अथवा हजारों नदियों से लवण समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे भोजन क्रिया का रस जीव को तृप्त नहीं कर सकता है। गरमी, ताप से पीड़ित जीव ने निश्चय ही इस संसार में जितना जल पिया उतना जल सारे कुओं में, तालाबों में, नदियों और समुद्रों में भी नहीं है। 1 इस अनंत संसार में अन्य अन्य जन्मों में माताओं के स्तन का जो दूध पिया है वह भी समुद्र के पानी से अधिकतर है। और स्वादिष्ट घृत समुद्र, क्षीर समुद्र और इक्षुरस समुद्र आदि महान् समुद्र में भी अनेक बार उत्पन्न हुआ है, फिर भी उस शीतल जल से तेरी प्यास शांत नहीं हुई। यदि इस तरह अनंत भूतकाल में तूंने तृि प्राप्त नहीं की तो वर्तमान में अनशन में रहे तेरी इसमें गृद्धि करने से क्या प्रयोजन है? जैसे-जैसे गृद्धि (आसक्ति) की जाये वैसे-वैसे जीवों को अविरति की वृद्धि होती है। जैसे-जैसे उसकी अविरति की वृद्धि होती है वैसे-वैसे उसके कारण से कर्मबंध होता है, इससे संसार और उस संसार में दुःखों की परंपरा बढ़ती है। इस तरह सर्व दुःखों का कारण रस गृद्धि है, इस कारण से संसारी जीवों के सारे दुःखों की पीड़ा, अभिमान का और अपमान का मूल कारण यह रस गृद्धि ही जानना । इस तरह ज्ञानादि गुणों से महान् और दीर्घ दुःख रूपी वृक्षों का मूल से छेदन करने वाले गुरु महाराज द्वारा गृद्धि रूप शल्य के विविध कष्टों को अच्छी तरह कहने से भव भ्रमण के दुःखों से डरा हुआ सम्यग् आराधना करने की रुचि वाला वह क्षपक महात्मा संवेगपूर्वक रसगृद्धि का त्याग करता है। ऐसा कहने पर भी कर्म के दोष से यदि गृद्धि का त्याग नहीं करें तो उसकी प्रकृति के हितकर निर्दोष भोजन उसे दे, ऐसे भोजन की प्राप्ति न हो, तो उसकी याचना करें अथवा खोज करें और ऐसा होने पर भी यदि नहीं मिले तो उसकी समाधि स्थिर रखने के लिए मूल्य आदि द्वारा उपयोगपूर्वक लाकर दें। केवल गुरु एकांत में मुनियों को प्रेरणा करे कि तुम्हें क्षपक के सामने इस तरह कहना कि 'संयम योग्य वस्तु यहाँ दुर्लभ है।' फिर इस तरह शिक्षा दिये हुए वे, क्षपक के आगे इसी तरह कहें और दुःख से पीड़ित हो इस तरह प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम देते जाएँ। फिर उचित समय गुरु कहे कि - हे क्षपक मुनि! तेरे लिए दुर्लभ अशनादि ले आने में मुनि कैसे कष्टों को सहन करते हैं? इससे वह पश्चात्ताप करते और प्रतिदिन एक-एक कौर का त्याग द्वारा आहार को कम करता है, वह क्षपक अपने पूर्व के मूल आहार में स्थिर रहता है और अनुक्रम से उसे भी कम करता जाये, इस तरह सारे आहार का संवर (त्याग) करता क्षपक मुनि अपने आपको पानी के अभ्यास से वासित करे अर्थात् त्रिविध आहार का त्याग करे । इस तरह मिथ्यात्वरूपी कमल को जलाने में हिम समान और संवेगी मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए 1. इसीलिए कहा है "सर्वं जितं जिते रसे" रसनेन्द्रिय को जीतने पर सब जीत लिया। For Personal & Private Use Only 233 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-पच्चस्खाण नामक सातवाँ द्वार पुष्पों का उद्यान समान संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में छट्ठा हानि नामक अंतर द्वार कहा है। अब पानी के पोषण द्वारा वह क्षपक मुनि जिस तरह संवर करता है उसे अल्पमात्र कहते हुए पच्चक्खाण द्वार को कहते हैं ।।५४५४।। सातवा पच्चक्रवाण नामक द्वार : स्वच्छ, चावल आदि का ओसामण (मांड), लेपकृत, अलेपकृत, कण वाला और कण रहित इस तरह छह प्रकार के जल को शरीर रक्षा के लिए योग्य कहा है। उसमें तिल, जौ, गेहूँ आदि अनाज के धोये हुए जल, गुड़-खांड के पात्र का धोया हुआ जल, इमली आदि का धोया हुआ खट्टा जल, इस प्रकार का दूसरा भी जो स्वकाय शस्त्र से अथवा परकाय शस्त्र से अचित्त हुआ हो, वह नौ कोटि से अर्थात् हनन, क्रयण, या पाचन, नहीं किया हो, नहीं करवाया हो या अनुमति नहीं दी हो, अति विशुद्ध केवल अन्य किसी की आशा की अपेक्षा बिना लोगों से मिला हुआ जल साधुओं के योग्य है। इस प्रकार से सहज स्वभाव से मिले हुए पानी द्वारा क्षपक मुनि सदा समाधि के लिए अपने संस्कार का पोषण करें, केवल खट्टे पानी से श्लेष्म, कफ आदि का क्षय होता है और पित्त का उपशम होता है, वायु के रक्षण के लिए पूर्व में कही विधि करनी चाहिए। पेट के मल की शुद्धि के लिए तिखे पानी का त्याग करके क्षपक मुनि को मधुर पानी पिलाना और मंद रूप में देना। इलायची, दालचीनी, केसर और तमाल पत्र डाला हुआ सक्कर सहित उबालकर ठण्डे किए हुए दूध को समाधि स्थिर रहे उतना पिलाकर फिर उस क्षपक मुनि को सुपारी आदि मधुर द्रव्य दे कि जिससे जठराग्नि शांत होने से सुखपूर्वक समाधि को प्राप्त करें। अथवा गुरु महाराज की आज्ञा से बस्ती कर्म आदि से भी उदर शुद्धि करना, क्योंकि-अशांत अग्नि होने से उदर में पीड़ा उत्पन्न करती है। इसके बाद क्षपक मुनि जावज्जीव त्रिविध से आहार का त्याग की इच्छा करें तब उस समय निर्यामक आचार्य श्री संघ को इस प्रकार बतलाए-जावज्जीव (जब तक जीता रहूँगा तब तक) अनशन स्वीकार करने की इच्छा वाला यह क्षपक महात्मा मस्तक पर हस्त कमल जोड़कर आपको पादवंदन करता है और विनति करता है कि-हे भगवंत! आप मेरे ऊपर इस तरह प्रसन्न हो-आशीर्वाद दो कि जिससे मैं इच्छित अर्थ अनशन को पार प्राप्त करूँ। इसके बाद प्रसन्न मन वाला श्रमण संघ क्षपक की आराधना के निमित्त और उपसर्ग रहित निमित्त कार्योत्सर्ग को करें। और फिर आचार्यश्रीजी संघ समुदाय के समक्ष चैत्यवंदनपूर्वक विधि से क्षपक मुनि को चतुर्विध आहार का पच्चक्खाण करा दे, अथवा यदि समाधि के लिए आगारपूर्वक प्रारंभ में त्रिविध आहार त्याग करें, उसके बाद में भी पानी का सदाकाल (जावज्जीव तक) त्याग करें। पानी के उपयोग करने में जो पूर्व में छह प्रकार का पानी कहा है वह उसे त्रिविध आहार के त्याग में कल्प (ले) सकता है। इस तरह गुरु महाराज के पास से चारित्र के भार को उठाने वाला, सदा उत्सुकता रहित और सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में रागरहित जीव का पच्चक्खाण करने पर आश्रव द्वार बंध होता है और आश्रव का विच्छेद होने से तृष्णा का व्युच्छेदन होता है। तृष्णा व्युच्छेदन से जीव के पाप का उपशम होता है और पाप के उपशम से आवश्यक (सामायिक आदि) की शुद्धि होती है। आवश्यक शुद्धि से जीव दर्शन शुद्धि को प्राप्त करता है और दर्शन शुद्धि से निश्चय चारित्र शुद्धि को प्राप्त करता है। शुद्ध चारित्र वाला जीव ध्यान-अध्ययन की शुद्धि को प्राप्त करता है और ध्यान अध्ययन के विशुद्ध होने से जीव परिणाम की शुद्धि प्राप्त करता है, परिणाम विशुद्धि से कर्म विशुद्धि को प्राप्त करता है और कर्म विशुद्धि से विशुद्ध हुआ आत्मा सर्व दुःखों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त करता है। इस तरह दुर्गति नगर के दरवाजे को बंद करने वाला संवेग मनरूपी भ्रमरों के लिए खिले हुए पुष्पों वाला 234 For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-क्षमापना नामक आठवाँ द्वार स्वयं क्षामणा नामक नौवाँ द्वार उद्यान के समान संवेगरंगशाला नाम का सातवाँ अंतर द्वार कहा। अब पच्चक्खाण करने पर भी क्षमापना बिना क्षपक मुनि की सद्गति नहीं होती, इसलिए क्षमापना द्वार को कहते हैं ।। ५४७९ ।। क्षमापना नामक आठवाँ द्वार : पच्चक्खाण करने बाद निर्यामक आचार्य मधुर शब्दों से क्षपक मुनि को कहे कि - हे देवानुप्रिय ! पिता तुल्य, बंधु तुल्य अथवा मित्र तुल्य इस तरह अनेक गुणों के समूह रूप यह श्री संघ अथवा जो तीन लोक को वंदनीय है ऐसे तीर्थंकर परमात्मा भी 'नमो तित्थस्स' ऐसा कहकर नमस्कार करते हैं। वह अनेक जन्मों की परंपरा से प्रकट हुआ दुष्कृत्य रूपी अंधकार के समूह को नाश करने में सूर्य समान महाभाग श्री संघ उपकार करने यहाँ आया है, इसलिए भक्ति पूर्ण मन वाले तूं इस भगवंत श्री संघ को पूर्व कालीन आशातनाओं के समूह का त्यागकर पूर्ण आदरपूर्वक क्षमा याचना कर । फिर वह क्षपक मुनि भक्ति के भार से नमा हुआ अपने मस्तक पर दोनों हाथ से सम्यग् अंजलि करके 'आपकी शिक्षा को मैं चाहता हूँ, आपने मुझे श्रेष्ठ शिक्षा दी है।' इस तरह गुरुदेव के वचन की प्रशंसा करता त्रिकरण शुद्धि से नमस्कार करके अन्य को भी संवेग प्रकट करते सर्व संघ से इस तरह क्षमा याचना करता है - हे भगवंत ! हे भट्टारक! हे गुणरत्नों के समुद्र ! हे श्री श्रमण संघ ! आपके कारण मैंने जो कुछ सूक्ष्म या बादर पापानुबंधी पाप इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मन से चिंतन किया हो, वचन से बोला हो अथवा काया से किया हो, अथवा मन, वचन, काया से यदि किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उन सब पाप को वर्तमान में मैं त्रिविध-त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ। आपको नमस्कार हो ! आपको नमस्कार हो! बार- बार भी भाव से आपको नमस्कार हो ! निश्चय ही पैरों में गिरा हुआ मैं आपको बारबार खमाता हूँ। भगवंत श्री संघ मुझ दीन पर दया करके क्षमा करें! और निर्विघ्न आराधना के लिए आशिष देने के लिए तत्पर बनें। आपको खमाने से इस जगत में ऐसा कोई नहीं है कि जिसको मैंने खमाया न हो, क्योंकिआप निश्चय समग्र जीव लोक के माता-पिता तुल्य है, इससे आपको खमाने से विश्व के साथ क्षमा याचना होती है। आचार्य, उपाध्याय, शिष्य साधर्मिक कुल और गण के प्रति भी मैंने जो कोई कषाय, मन, वचन और काया से पूर्व में किया हो तथा करवाया हो और अनुमोदन किया हो उन सबको त्रिविध-त्रिविध खमाता हूँ तथा उनके विषय में भी सर्व अपराध को मैं खमाता हूँ। शत्रु-मित्र प्रति समचित्त वाले और सर्व जीवों के प्रति करुणा रस के एक समुद्र, श्रमण भगवंत भी अनुकंपा पात्र मुझे क्षमा करें। इस तरह सम्यक् संवेगी मन वाला वह बाल, वृद्ध सहित सर्व श्री संघ को और फिर पूर्व में जिसके साथ विरोध हुआ हो उनसे सविशेष क्षमा याचना करें। जैसे किप्रमाद से पूर्व में जो कोई भी मैंने आपके प्रति सद्वर्तन आदि नहीं किया हो, उन सबको वर्तमान में शल्य और कषाय से रहित मैं खमाता हूँ। इस तरह समता रूपी समुद्र को विकसाने में चंद्र समान और संवेग मनरूपी भ्रमर के लिए विकासी पुष्पों के उद्यान सदृश संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में आठवाँ क्षमापना नाम का अंतर द्वार कहा । अब क्षमा याचना योग्य वर्ग द्वारा क्षमा याचना करने पर स्वयं क्षमा न करे, तो वांछित सिद्धि नहीं होती, इसलिए स्वयं का क्षामणा द्वार कहता हूँ । स्वयं क्षामणा नामक नौवाँ द्वार : सद्भावपूर्वक 'मिच्छामि दुक्कडं' देने आदि से जो कषाय को जीतना उसको यहाँ परमार्थ से श्रेष्ठ क्षमापना 235 श्री संवेगरंगशाला For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-चंडरुद्राचार्य की कथा कहा है ।।५५०० ।। क्योंकि-पूर्व में तीव्र रस वाले, दीर्घ स्थिति वाले कठोर कर्मों का बंध किया हो, उसका नाश इस क्षमापना से ही होता है। निर्यामक आचार्य के पास से सम्यक् प्रकार से सुनकर संवेग को धारण करते क्षपक मुनि पुनः इस प्रकार कहे-मैं सर्व अपराधों को खमाता हूँ, भगवंत श्री संघ मुझे क्षमा करें, मैं भी मन, वचन, काया से शुद्ध होकर गुण के भंडार श्री संघ को क्षमा करता हूँ। दूसरे को ज्ञात हो या अज्ञात हो सारे अपराध स्थानों को निश्चय यह त्रिकरण अति विशुद्ध आत्मा मैं सम्यग रूप में खमाता हैं। दूसरे मुझे जानते हों अथवा नहीं जानते हों, दूसरे मुझे खमाएँ अथवा नहीं खमाएँ तो भी त्रिविध शल्य रहित मैं स्वयं खमाता हूँ। इसलिए यदि सामने वाला भी क्षमा याचना करें, तो उभय पक्ष में श्रेष्ठ होता है और अत्यंत अभिमान युक्त, सामने वाला व्यक्ति क्षमा याचना नहीं कर सकता है तो भी अहंकार के स्थान से वह तो मुक्त है। इस तरह विकास करते प्रशम के प्रकर्ष के ऊपर चढ़ते अति विशुद्ध तीनों करण के समूह वाला समता में तल्लीन रहते क्षमा नहीं करने वाले को भी सामने वाले को सम्यक् क्षमापना करने में तत्पर यह मैं निश्चय स्वयं खमाता हूँ, क्योंकि-मेरा यह काल क्षमा याचना का है। मैं सर्व जीवों को खमाता हूँ और वे सर्व भी मुझे क्षमा करें। मैं सर्व जीवों के प्रति वैर मुक्त होकर मैत्री भाव में तत्पर हूँ। इस तरह अन्य को क्षमा याचना करता स्वयं भी क्षमा करते विशुद्ध मन वाला जीव श्री चंडरुद्रसूरि के समान तत्काल कर्मक्षय करता है। उसकी कथा इस प्रकार है :- ।।५५१०।। चंडरुद्राचार्य की कथा उज्जैन नगर में गीतार्थ और पाप का त्याग करने में तत्पर चंडरुद्र नाम के प्रसिद्ध आचार्य थे। एवं वे स्वभाव से ही प्रचंड क्रोधी होने से मुनियों के बीच बैठने में असमर्थ थें, इससे अन्य साधुओं से रहित स्थान में स्वाध्याय ध्यान में तत्पर बनकर प्रयत्नपूर्वक अपने उपशम भाव से अत्यंत तन्मय करते गच्छ की निश्रा में रहते थे। एक समय क्रीड़ा करने का प्रेमी प्रिय मित्रों से युक्त नयी शादी वाला श्रृंगार से युक्त एक धनवान का पुत्र तीन मार्ग वाले चौक में, चोहटे में, तथा चार मार्ग वाले चौक आदि में सर्वत्र फिरते हुए वहाँ आया और हँसी पूर्वक उन साधुओं को नमस्कार करके उनके चरणों के पास बैठा। उसके बाद उसके मित्रों ने मजाक से कहा कि-हे भगवंत! संसार वास से अत्यंत उद्विग्न बना हुआ यह हमारा मित्र दीक्षा लेने की इच्छा रखता है, इसलिए ही श्रेष्ठ श्रृंगार करके यहाँ आया है इसलिए आप इसे दीक्षा दो। उसके भाव जानने में कुशल मुनियों ने उनकी मजाक जानकर अनजान के समान कुछ भी उत्तर दिये बिना अपने कार्यों को करने लगे। फिर भी बार-बार बोलने लगे जब वे चिरकाल तक बोलते रुके नहीं तब 'ये दुर्शिक्षा वाले भले शिक्षा को प्राप्त करें' ऐसा विचारकर साधुओं ने कहा- 'एकान्त में हमारे गुरुदेव चंडरुद्राचार्य बैठे हैं वे दीक्षा देंगे।' ऐसा कहकर उन्होंने गुरु का स्थान बतलाया। फिर कतहल प्रिय प्रकृति वाले वे वहाँ से आचार्य श्री के पास गये और पर्व के समान सेठ के पत्र ने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। इससे 'अरे रे! मेरे साथ भी ये पापी यहाँ कैसी हँसी करते हैं?' ऐसा विचार करते आचार्य श्री को अतीव क्रोध चढ़ा और कहा कि-अहो! यदि ऐसा है तो मुझे जल्दी राख दो। और उसके मित्रों ने शीघ्र ही कहीं से राख लाकर दी। फिर आचार्य श्री ने उस सेठ के पुत्र को मजबूत पकड़कर श्री नमस्कार महामंत्र सुनाकर अपने हाथ से लोच करने लगे। भवितव्यतावश जब उसके मित्रों ने तथा उस सेठ के पुत्र ने कुछ भी नहीं कहा, तब उन्होंने मस्तक का पूरा लोच कर दिया। लोच होने के बाद सेठ के पूत्र ने कहा कि-भगवंत! इतने समय तक तो मजाक थी, परंतु अब सद्भाव प्रकट हुआ है, इसलिए कृपा करो और संसार समुद्र तरने में सर्वश्रेष्ठ नाव समान और मोक्ष नगर के सुख को देने वाली तथा जगत् गुरु श्री जिनेश्वर देवों के द्वारा कथित दीक्षा को भावपूर्वक दो। ऐसा कहने से उस आचार्य ने 236 For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-चंडरुद्राचार्य की कथा श्री संवेगरंगशाला उसे दीक्षा दी और दुःखी होते मित्र अपने-अपने स्थान पर चले गये। फिर उसने कहा कि-हे भगवंत! यहाँ मेरे बहुत स्वजन हैं, इसलिए मैं यहाँ निर्विघ्न धर्म की आराधना नहीं कर सकता हूँ, अतः दूसरे गाँव में जाना चाहिए। गरुजी ने स्वीकार किया. और उसे मार्ग देखने के लिए भेजा. वह मार्ग देखकर आया। फिर वद्धावस्था के कारण कांपते हुए उस आचार्य ने उसके कंधे के ऊपर दाहिना हाथ रखकर धीरे-धीरे चलना प्रारंभ किया। रात्री के अंदर मार्ग में चक्षु बल से रहित उनको थोड़ी भी पैर की स्खलना होते ही क्रोधातुर हो जाते, नये साधु को बार-बार कठोर तिरस्कार करते थे और 'यह तूंने ऐसा मार्ग देखा है?' इस तरह बार-बार वचन बोलते दण्ड से मस्तक पर प्रहार करते थे। तब नव दीक्षित होने पर भी वह चिंतन करता है कि-अहो! महापाप के भाजन मैंने इस महात्मा को ऐसे दुःख समुद्र में डाला है? एक मैं ही शिष्य के बहाने धर्म के भण्डार इस गुरुदेव का प्रत्यनीक (शत्रु) बना हूँ। धिक्कार हो! धिक्कार हो! मेरे दुराचरण को। इस तरह अपनी निंदा करते-करते उसे ऐसी कोई अपूर्व श्रेष्ठ भावना प्रकट हुई कि जिससे उसमें निर्मल केवल ज्ञान का प्रकाश प्रकट हुआ। उसके बाद निर्मल केवल ज्ञान रूप दीपक से तीन जगत का विस्तार प्रकट रूप में दिखने लगा, वह शिष्य सम्यग् रूप में चलने लगा, इससे गुरुजी के पैरों की स्खलना नहीं हुई। इस तरह चलते जब प्रभात हुआ तब दण्ड के प्रहार से मस्तक पर से खून निकले हुए शिष्य को देखकर चंडरुद्रसूरि ने विचार किया कि-अहो! प्रथम दिन का दीक्षित नये मुनि की ऐसी क्षमा है? और चिरदीक्षित होने पर भी मेरा ऐसा आचरण है? क्षमा गुण से रहित मेरे विवेक को धिक्कार हो! निष्फल मेरी श्रुत संपत्ति को धिक्कार हो। मेरे आचार्य पद को भी धिक्कार हो! इस तरह संवेग प्राप्त करते श्रेष्ठ भक्ति से उस शिष्य को खमाते उन्होंने ऐसे श्रेष्ठ ध्यान को प्राप्त किया कि जिस ध्यान से वे केवली बनें। इस तरह क्षमा याचना से और क्षमा करने से जीव पाप समूह का अत्यंत नाश करता है, इसलिए यह क्षमा करने योग्य है। इस तरह अन्य के अपराध को खमाने में तत्पर क्षपक सर्वश्रेष्ठ तप समाधि में प्रवृत्ति करते अनेक जन्मों तक पीड़ा वाले कर्म को तोड़ते विचरण करता है वह इस प्रकार : तीव्र महामिथ्यात्व की वासना से व्याप्त और चिरकाल तक पापों को करने में अति समर्थ अठारह पाप स्थानक का आचरण करने वाला प्रमाद रूपी महामद से उन्मत्त अथवा कषाय से कलुषित जीव ने पूर्व में दुर्गति की प्राप्ति करने में समर्थ जो कुछ भी पाप बंध किया हो उसे शुद्ध भावना रूपी पवन से उत्तेजित की हुई तपस्या रूपी अग्नि की ज्वालाओं से क्षपक तपस्वी मुनि सूखे बड़ वृक्षों के समूह के समान क्षणभर में जला देता है। इस तरह विघ्नों के समूह का सम्यग् घात करने वाला श्री श्रमण संघ आदि सर्व जीवों को खमाने में तत्पर रहता है और स्वयं भी श्री संघ आदि सर्व जीवों को क्षमा देने वाला इसलोक-परलोक के बाह्य सुख, निदान अभिलाषा रहित, जीवन मरण में समान वृत्ति वाला चंदन के समान अपकारी-उपकारी और मान-अपमान में समभाव वाला क्षपक मुनि अपने आत्मा को सर्व गुणों से युक्त निर्यामक को सौंपकर उनका शरण स्वीकार करके संथारा में बैठा हुआ सर्वथा उत्सुकता रहित काल व्यतीत करें। इस तरह परिकर्म करते हुए अन्य गण में रहा हुआ ममता को छेदन करके मोक्ष को चाहने वाला क्षपक मुनि समाधि मरण की प्राप्ति के लिए उद्यम करें। इस तरह श्री जिनचंद्रसूरिजी रचित संवेगी मनरूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों के उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाले तीसरे ममत्व विच्छेद द्वार में नौवाँ खामणा नाम का अंतरद्वार कहा। और इसे कहने से मूल चार द्वार का यह ममत्व विच्छेद नाम का तीसरा द्वार संपूर्ण हुआ है। इस तरह संवेगरंगशाला नामक आराधना का नौ अंतर द्वार से रचा हुआ ममत्व विच्छेद नामक तीसरा मूल द्वार यहाँ समाप्त हुआ। इस तरह ५५५४ गाथाएँ पूर्ण हुई। ॥ इति श्री संवेगरंगशाला तृतीय द्वार ।। 237 For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला चौथे द्वार का मंगलाचरण : समाधि लाभ द्वार- अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार (४) चौथा समाधि लाभ द्वार सद्धम्मोसहदाणा, पसमियकम्माऽऽमयो तयऽणु काउं । सव्वंग निव्वुइं लद्ध-जयपसिद्धी सुवेज्जो व्व ।। ५५५५ ।। तइलोक्कमत्थयमणी मणीहियत्थाण दाणदुल्ललिओ । सिरिवद्धमाणसामी समाहिलाभाय भवउ ममं ।। ५५५६ ।। अर्थात्-औषधदान से रोग को उपशम करके और फिर सर्व अंगों में स्वस्थता प्राप्त करवाकर उत्तम वैद्य जैसे प्रसिद्धि प्राप्त करता है, वैसे भव्य जीवों को धर्मरूपी औषधदान देने से कर्मरूपी रोग का विनाश करके और फिर सर्वांग निवृत्ति (निर्वाण) पद प्राप्त करके तीन जगत में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले तीन लोक के चूड़ामणि भव्य जीवों के मन वांछित प्रयोजन का दान करने में एक महान् व्यसनी श्री वर्धमान स्वामी मुझे समाधि प्राप्त कराने वाले हो । आत्मा का परिकर्म करें, फिर अन्य गच्छ में जायें और ममत्व का छेदन करें, फिर भी क्षपक मुनि समाधि के बिना प्रस्तुत समाधि मरण रूप कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है, इस कारण से ममत्व विच्छेद को कहकर अब 'समाधि लाभ द्वार' को कहते हैं। इसमें यह नौ अंतर द्वार हैं (१) अनुशास्ति, (२) प्रतिपत्ति, (३) सारणा, (४) कवच, (५) समता, (६) ध्यान, (७) लेश्या, (८) आराधना का फल, और (९) शरीर का त्याग। इस विश्व में कारण के अभाव में कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है और यहाँ प्रस्तुत कार्य एक अत्यर्थ आराधना रूप है। उसका परम कारण चतुर्विध आहार का पच्चक्खाण स्वीकारकर क्षपक मुनि को समाधि लाभ होता है, और वह अनुशास्ति करने से होता है, इसलिए निषेध और विधान रूप श्रेष्ठ अर्थ समूह रूप तत्त्व को जानने में दीपक समान प्रथम अनुशास्ति द्वार को विस्तारपूर्वक कहता हूँ। 238 अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार : स्वयं भी पाप व्यापार का त्यागी और अति प्रशांत चित्त वाले निर्यामक गुरु महाराज क्षपक मुनि को मधुर वाणी से कहे कि - निश्चय से हे देवानुप्रिय ! तूं इस जगत में धन्य है, शुभ लक्षणों वाला, पुण्य की अंतिम सीमा वाला, और चंद्र समान निर्मल यश संपत्ति से सर्व दिशाओं को उज्ज्वल करने वाला है। मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ फल तूंने प्राप्त किया है और तूंने दुर्गति के कारणभूत अशुभ कर्मों को जलांजली दी है। क्योंकि - तूं पुत्र, स्त्री आदि परिवार से युक्त था, फिर भी गृहस्थवास का तृण के समान त्यागकर अत्यंत भावपूर्वक श्री भगवती श्रेष्ठ दीक्षा को स्वीकार की और उसका दीर्घकाल तक पालनकर अब धीर तूं सामान्य मनुष्य को सुनकर ही चित्त में अतीव क्षोभ प्रकट हो, ऐसा अति दुष्कर अनशन को स्वीकारकर इस तरह अप्रमत्त चित्त से साधना कर रहा है । इस प्रकार की प्रवृत्ति तुझे सुविशेष गुण साधन में समर्थ और दुर्गति को भगाने वाली कुछ शिक्षा - उपदेश देता हूँ, इस शिक्षा में त्याज्य वस्तु विषय के पाँच और करणीय वस्तु विषय के तेरह द्वार जानना । वह इस तरह(१) अठारह पाप स्थानक, (२) आठ मद स्थान, (३) क्रोधादि कषाय, (४) प्रमाद, और (५) प्रतिबंध For Personal & Private Use Only . Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार श्री संवेगरंगशाला त्याग द्वार हैं, ये पाँच निषेध द्वार हैं। तथा (६) सम्यक्त्व में स्थिरता, (७) श्री अरिहंतादि ६ के प्रति भक्ति भाव, (८) पंच परमेष्ठि नमस्कार में तत्परता, (९) सम्यग् ज्ञान का उपयोग, (१०) पाँच महाव्रतों की रक्षा, (११) क्षपक के चार शरण स्वीकार, (१२) दुष्कृत की गर्दा करना, (१३) सुकृत की अनुमोदना करना, (१४) बारह भावना से युक्त होना, (१५) शील का पालन करना, (१६) इन्द्रियों का दमन करना, (१७) तप में उद्यमशील, और (१८) निःशल्यता। इस तरह अनुशास्ति द्वार में निषेध और विधान रूप अठारह अंतर द्वारों के यहाँ नाम मात्र कहे है। अब अपने-अपने क्रमानुसार आये हुए उन द्वारों को ही सिद्धांत से सिद्ध दृष्टांत युक्ति और परमार्थ से युक्त विस्तारपूर्वक कहता हूँ। इसमें अब प्रथम अठारह अंतर द्वार वाला अठारह पाप स्थानकों का द्वार मैं कहता हूँ। अठारह पाप स्थान के नाम :- जीव को कर्मरज से मलिन करता है इस कारण से इसे पाप कहते हैं। इसके ये अठारह स्थानक अथवा विषय हैं (१) प्राणिवध, (२) अलिक वचन, (३) अदत्त ग्रहण, (४) मैथुन सेवन, (५) परिग्रह, (६) क्रोध, (७) मान, (८) माया, (९) लोभ, (१०) प्रेम (राग), (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान, (१४) अरति-रति, (१५) पैशुन्य, (१६) पर-परिवाद, (१७) माया मृषावचन, और (१८) मिथ्यादर्शन शल्य। इन्हें अनुक्रम से विस्तारपूर्वक कहते हैं ।।५५८०।। (१) प्राणिवध :- उच्छ्वास आदि प्राण जिसको होते है उसे जीव-प्राणी कहते हैं। उन प्राणों का वध करना अथवा वियोग करना वह प्राणिवध कहलाता है और वह नरक का मार्ग है। निर्दयता धर्म ध्यान रूपी कमल के वन का नाश करने वाली अचानक प्रचण्ड हिम की वृष्टि रूप अथवा अग्नि के बड़े चूल्हे के घिराव रूप हैं, अपकीर्ति रूपी लता के विस्तार के लिए पानी की बड़ी नीक है, प्रसन्न मन वचन वाले मनुष्यों के देश में शत्रु सैन्य का आगमन का श्रवण है तथा असहनता और अविरति रूप रति और प्रीति का कामदेव रूप पति है। महान् प्राणी रूपी पतंगिये के समूह का नाश करने वाला प्रज्ज्वलित दीपक का पात्र है, अति उत्कट पाप रूपी कीचड़ वाला समुद्र अति गहरा है। अत्यंत दुर्गम दुर्गति रूपी पर्वत की गुफा का बड़ा प्रवेश द्वार है, संसार रूपी भट्टी में तपे हुए अनेक प्राणी को लोहे के हथौड़े से मारने के लिए एरण है। क्षमा आदि गुण रूप अनाज के कण को दलने के लिए मजबूत चक्की है तथा नरक भूमि रूपी तालाब में अथवा नरक रूपी गुफा में उतरने के लिए सरल सीढ़ी है। प्राणिवध में आसक्त जीव इस जन्म में ही बार-बार वध, बंधन, जेल, धन का नाश, पीड़ा और मरण को प्राप्त करता है। जीव दया के बिना दीक्षा, देव पूजा, दान, ध्यान, तप, विनय आदि सर्व क्रिया अनुष्ठान निरर्थक है। यदि गौहत्या, ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या की निवृत्ति से परम धर्म होता है, तो सर्व जीवों की रक्षा से वह धर्म उससे भी उत्कृष्ट कैसे न हो? होता ही है! इस संसार चक्र में परिभ्रमण करते जीव ने सर्व जीवों के साथ सभी प्रकार के संबंध किये हैं. इसलिए जीवों को मारने वाला तत्त्व से अपने सर्व सगे संबंधियों को मारता है। जो एक भी जीव को मारता है वह करोड़ों जन्म तक अनेक बार मरता हुआ अनेक प्रकार से मरता है। चार गति में रहे जीव को जितने दुःख उत्पन्न होते हैं वे सभी हिंसा के फल का कारण है, इसे सम्यक् प्रकार से समझो। जीव वध करनेवाला वह स्वयं अपने आपका वध करता है और जीव दया करने वाला अपने आप पर दया करता है इसलिए आत्मार्थी जीव को सर्व जीवों की सर्वथा हिंसा का त्याग करना चाहिए। विविध योनियों में रहे मरण के दुःख से पीड़ित जीवों को देखकर बुद्धिमान उसको नहीं मारें, सभी जीवों को अपने समान देखें। कांटा लग जाने मात्र से जीव को तीव्र वेदना होती है तो तीर, भाला आदि शस्त्रों से मारे 239 For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार जाते हैं उन जीवों को कितनी, कैसी पीड़ा होती होगी? हाथ में शस्त्र रखने वाले हिंसक को आये देखकर भी विषाद और भय से व्याकुल बनकर जीव कांपने लगता है, निश्चय से लोक में मरण के समान भय नहीं है। 'मर जा' इतना कहने पर भी जीव को यदि अतीव दुःख होता है, तो तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार से मरते हुए क्या दुःख नहीं होता होगा? जो जीव जहाँ जिस शरीर आदि में जन्म लेता है वहीं राग करता है, इसलिए जहाँ जीव रहता है उसकी हमेशा दया करनी चाहिए। अभयदान समान अन्य कोई बड़ा दान सारे जगत में भी नहीं है। इसलिए जो उसे देता है, वही सच्चा दानवीर-दातार है ।।५६००।। इस जगत में मरते जीव को यदि करोड़ सोना महोर का दान दे और दूसरी ओर जीवन दान देने में आये तो जीवन को चाहनेवाला जीव करोड़ सोना महोर स्वीकार नहीं करेगा। जैसे राजा की मृत्यु के समय राजा समग्र राज्य का दान देता है वैसे जो अमूल्य जीवन को देता है वह इस जीवलोक में अक्षयदान को देता है। वह धार्मिक है, विनीत है, उत्तम विद्वान है, चतुर है, पवित्र और विवेकी है कि अन्य जीवों में सुख-दुःख को अपनी उपमा दी है अर्थात् सुख-दुःख अपने आप में माना है। अपना मरण आते देखकर जो महादुःख होता है, उसके अनुमान से सर्व जीवों को भी देखना चाहिए। जो स्वयं को अनिष्ट हो वह दूसरों के प्रति सर्वथा नहीं करे, क्योंकि इस जन्म में जैसा किया जाता है वैसा ही फल मृत्यु के बाद मिलता है। समग्र जगत में जीवों को प्राणों से अधिक कोई भी प्रिय नहीं है, इसलिए अपने दृष्टांत से उनके प्रति दया ही करनी चाहिए। जो जीव जिस प्रकार, जिस निमित्त, जिस तरह से पाप को करता है, वह उसका फल भी उसी क्रम से वैसा ही अनेक बार प्राप्त करता है। जैसे इस जन्म में दातार अथवा लूटेरा उस प्रकार के ही फल को प्राप्त करता है। वैसे ही सुख दुःख का देने वाला भी पुण्य पाप को प्राप्त करता है। जो दुष्ट मन, वचन और काया रूपी शस्त्रों से जीवों की हिंसा करता है, वह उन्हीं शस्त्रों द्वारा दस गुणा से लेकर अनंत गुणा तक मारा जाता है। जो हिंसक भयंकर संसार को खत्म करने में समर्थ है और दया तत्त्व को नहीं समझता है, उसके ऊपर गर्जना करती भयंकर पाप रूपी वज्राग्नि गिरती है। इसलिए हे बंधु! सत्य कहता हूँ कि-हिंसा सर्वथा त्याग करने योग्य है, जो हिंसा को छोड़ता है वह दुर्गति को भी छोड़ देता है, ऐसा समझो! जैसे लोहे का गोला पानी में गिरता है तो आखिर नीचे स्थान पर जाता है, वैसे हिंसा से प्रकट हुए पाप के भार से भारी बना जीव नीचे नरक में गिरता है। और जो इस लोक में जीवों के प्रति विशुद्ध जीव दया को सम्यग् रूप से पालन करता है वह स्वर्ग में मंगल गीत और वाजिंत्रों के शब्द श्रवण का सुख, अप्सराओं के समूह से भरा हुआ और रत्न के प्रकाश वाला श्रेष्ठ विमान चिंतन मात्र से प्राप्त करता है, सकल विषय सुख वाला देव बनता है और वहाँ से च्यवकर भी असाधारण संपत्ति के विस्तार वाले, उज्ज्वल यश वाले, उत्तम कुल में ही जन्म लेता है। दया के प्रभाव से वह जगत् के सभी जीवों को सुख देने वाला, दीर्घ आयुषी, निरोगी, नित्य शोक-संताप रहित और कायक्लेश से रहित मनुष्य होता है, वह हीन अंग वाला, पंगु, बड़े पेट वाला, कुबड़ा, ठिगना, लावण्य रहित और रूप रहित नहीं होता है। तथा दया धर्म को करने से मनुष्य सुंदर रूप वाला, सौभाग्यशाली, महाधनिक, गुणों से महान् और असाधारण बल, पराक्रम और गुण रत्नों से सुशोभित शरीर वाला, माता-पिता के प्रति प्रेम वाला, अनुरागी स्त्री, पुत्र, मित्रों वाला और कुल वृद्धि को करने वाला होता है। जिनको प्रिय मनुष्यों के साथ वियोग, अप्रिय का समागम, भय, बिमारी, मन की अप्रसन्नता, हानि, पदार्थ का नाश नहीं होता है। इस प्रकार पुण्यानुबंधी पुण्य के प्रभाव से उनको बाह्य, अभ्यंतर सर्व संयोग सदा अनुकूल ही होते हैं, दयालु मनुष्य संपूर्ण जैन धर्म की सामग्री को प्राप्तकर और उसकी विधिपूर्वक आराधनाकर जीव दया के पारमार्थिक फल को प्राप्त करता है। इस तरह जिसके प्रभाव से जीवात्मा श्रेष्ठ कल्याण की परंपरा 240 For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार-सासु-बहू और पुत्री की कथा श्री संवेगरंगशाला को सम्यग् रूप से प्राप्त करता है और पूज्य बनता है वह जीवदया विजयी रहे। अथवा लौकिक शास्त्र में भी इस जीव हिंसा का पूर्व कहे अनुसार त्याग रूप ही कहा है, तो लोकोत्तर शास्त्र में पुनः क्या कहना? प्राणिवध में आसक्त और उसकी विरति वाले इस जन्म में दोष और लाभ को प्राप्त होते हैं। इस हिंसा अहिंसा विषय में भी सासू, बहू और पुत्री का दृष्टांत देते हैं, वह इस प्रकार है :- ।।५६२५।। सास-बहू और पुत्री की कथा बहुत मनुष्यों वाले और विशाल धन वाले तथा शत्रु सैन्य, चोर या मरकी का भय कभी देखा ही नहीं था, उस शंखपुर नामक नगर में बल नाम का राजा था। उस राजा के प्रीति का पात्र और सभी धन वालों का माननीय सर्वत्र प्रसिद्ध सागरदत्त नाम का नगर सेठ था। उस सेठ की संपदा नाम की स्त्री थी, उसको मुनिचंद्र नाम का पुत्र, बंधुमती नाम की पुत्री और थावर नामक छोटा बाल नौकर था। उस नगर के नजदीक में वटप्रद नामक अपने गोकल में जाकर सेठ अपनी गायों के समूह की सार संभाल करता था। प्रत्येक महीने में से घी, दूध से भरी हुई बैलगाड़ी लाता था और स्वजन, मित्र तथा दीन दरिद्र मनुष्यों को देता था। बंधुमती भी श्री जिनेश्वर देव के धर्म को सुनकर हिंसादि, पाप स्थानकों की त्याग वाली प्रशम गुण वाली श्राविका बनी थी। फिर जीवन इन्द्र धनुष्य समान चंचल होने से क्रमशः सागर दत्त सेठ की किसी दिन मृत्यु हो गयी और नागरिक और स्वजनों ने उस नगर सेठ के स्थान पर मुनिचंद्र को स्थापन किया। वह स्व-पर के सारे कार्यों में पूर्व पद्धति अनुसार करने लगा। थावर नौकर भी पूर्व अनुसार उसका अति मान करता था और मित्र के समान, पुत्र के समान तथा स्वजन के समान घर का कार्य करता था। केवल कामाग्नि से पीड़ित, उससे व्याकुल दुःशील संपदा स्त्री स्वभाव से और विवेक शून्यता से थावर को देखकर चिंतन करने लगी कि-एकांत में रहकर मैं किस उपाय से इसके साथ किसी भी रोक-टोक के बिना विघ्न रहित विषयसुख का कब भोग करूँगी? अथवा किस तरह इस मुनिचंद्र को मारकर इस थावर को धन सुवर्ण से भरे हुए अपने घर का मालिक भी बनाऊँगी? इस तरह विचार करती वह स्नान, भोजनादि द्वारा थावर की सविशेष सेवा करने लगी। अहो! पापी स्त्रियों की कैसी दुष्टता? उसके आशय को नहीं जानते थावर इस तरह उसका व्यवहार देखकर ऐसा मानने लगा कि इस तरह मुझे पुत्र तुल्य मान कर अपना मातृत्व बता रही है। एक समय लज्जा को छोड़कर और अपने कुल की मर्यादा को दूर रखकर उसने एकांत में सर्व आदरपूर्वक उसे आत्मा सौंप दी, अंतःकरण की सत्य बात कही कि-हे भद्र! मुनिचंद्र को मार दो, इस घर में मालिक के समान विश्वस्त तं मेरे साथ भोग विलास कर। उसने पूछा कि इस मनिचंद्र को किस तरह मारूँ? उसने कहा कि मैं तुझे और उसको गोकुल देखने के लिए जब भेजूंगी तब मार्ग में तूं तलवार से उसे मार देना, उसने वह स्वीकार किया। निर्लज्ज को क्या अकरणीय है? यह बात बंधुमती ने सुन ली और स्नेहपूर्वक उसी समय घर में आते भाई से कह दी। उसको मौन करवाकर मुनिचंद्र घर में आया और माता भी कपट से रोने लगी। उसने पूछा कि-हे माताजी! आप क्यों रो रही हो? माता ने कहा कि-पुत्र! अपने कार्य को कमजोर देखकर मैं रो रही हूँ। तेरा पिता जब जीता था तब अवश्य मास पूर्ण होते देखकर गोकुल में से घी, दूध लाकर देते थे। हे पुत्र! तूं तो अब अत्यंत प्रमादवश हो गया है, इसलिए गोकुल की अल्प भी सारसंभाल नहीं करता, कहो अब किसको कहूँ? पुत्र ने कहा कि-माता! रो मत, मैं स्वयं प्रभात में थावर के साथ गोकुल जाऊँगा, आप शोक को छोड़ दो। ऐसा सुनकर प्रसन्न हुई वह मौन धारण कर रही, फिर दूसरे दिन घोड़े के ऊपर बैठकर वह थावर के साथ चला। चलते हुए मार्ग में थावर मन में विचार करने लगा कि-यदि किसी तरह मुनिचंद्र आगे चले तो तलवार से मैं उसे जल्दी मार दूंगा। 241 For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार-सासु-बहू और पुत्री की कथा मुनिचंद्र भी बहन के कथन का विचार करते अप्रमत्त बनकर मार्ग में उसके साथ में ही चलने लगा। फिर विषम मार्ग आया तब घोड़े को चाबुक का प्रहार किया और घोड़ा आगे चलने लगा, जब मुनिचंद्र शंकापूर्वक जाने लगा उस समय पीछे रहे वह उसको मारने के लिए तलवार म्यान में से खींचने लगा। मुनिचंद्र ने उसी तरह वैसी ही परछायी देखी, इससे उसने घोड़े को तेजी से दौड़ाया और तलवार का निशाना निष्फल किया। ___ दोनों गोकुल में पहुँचे और गोकुल के रक्षकों ने उनका सत्कार सेवा की, फिर अन्य-अन्य बातें करते सूर्यास्त तक वहीं रहे। थावर उसे मारने के लिए उपायों का विचार करता है. निश्चय किया कि रात में इसे अवश्य मार दूंगा। फिर रात्री में जब पलंग सोने के लिए घर में रखा तब मुनिचंद्र ने कहा कि-आज में बहुत समय के बाद यहाँ आया हूँ, इसलिए इस पलंग को गायों के बाड़े में रखो कि जिससे वहाँ रहे हुए सर्व गाय, भैंस के प्रत्येक समूह को देख सकूँ। नौकरों ने पलंग को उसी तरह रख दिया। फिर मुनिचंद्र विचार करता है कि-जब मैं थावर नौकर की संपूर्ण प्रवृत्ति आज देखू। उसको अकेला सोया हुआ देखकर 'अब मैं रूकावट बिना सुखपूर्वक मार दूंगा।' ऐसा मानकर थावर भी मन में प्रसन्न हुआ। फिर जब सब लोग सो गये तब मुनिचंद्र तीक्ष्ण तलवार लेकर अपने पलंग पर लकड़ी और ऊपर वस्त्र ढककर देखने वाले को पुरुष दिखे, इस तरह रखकर थावर का दुष्ट आचरण देखने के लिए अत्यंत सावधान मन वाला, मौन धारण करके एकांत में छुप गया। थोड़े समय के बाद विश्वास होते थावर ने आकर जब उस पलंग पर प्रहार किया, उसी समय मुनिचंद्र ने थावर पर तलवार से प्रहार किया, इससे वह मर गया। उसकी बात छुपाने के लिए सारे पशुओं के समूह को बाड़े से बाहर लाकर मुनिचंद्र बोलने लगा कि-अरे भाइयों! दौड़ो, दौड़ो! चोरों ने गायों का हरण किया है और थावर को मार दिया। इससे सर्वत्र पुरुष दौड़े। वे गायों को वापिस ले आये और ऐसा मानने लगे कि-चोर भाग गये हैं। इसके बाद थावर का सारा मृत कार्य किया। इधर माता चिंतातुर हो रही थी 'वहाँ क्या हुआ होगा?' और उसके आने वाले मार्ग को देख रही थी, इतने में मुनिचंद्र अकेले शीघ्र घर पर पहुँचा। तलवार को घर की कील पर लगाकर अपने आसन पर बैठा और उसकी पत्नी उसके पैर धोने लगी। शोकातुर माता ने पूछा कि-हे पुत्र! थावर कहाँ है? उसने कहा कि-माताजी! मंद गति से पीछे आ रहा है। इससे क्षोभ होते उसने जब तलवार सामने देखी तब खून की गंध से चींटियाँ आती देखीं और स्थिर दृष्टि से देखते उसने तलवार को भी खून से युक्त देखी, इससे प्रबल क्रोधाग्नि से जलते शरीर वाली उस पापिनी ने उस तलवार को म्यान में से बाहर निकालकर अदृश्य-गुप्त रूप में रहकर उसने अन्य किसी कार्य से एकचित्त बने पुत्र का मस्तक शीघ्र काट दिया। अपने पति को मरते देखकर उसकी पत्नी का अत्यंत क्रोध चढ़ गया और बंधुमती के देखते-देखते ही मूसल से सासू को मार दिया और जीव हिंसा से विरागी चित्त वाली वह बंधुमती हृदय में महा संताप को धारण करती घर के एक कोने में बैठी रही। नगर के लोग वहाँ आये और उस वृत्तांत को जानकर उन्होंने बंधुमती से पूछा कि-माता को मारने वाली इस बहु को क्यों नहीं मारा? तब उसने कहा कि- 'मुझे किसी भी जीव को नहीं मारने का नियम है।' इससे लोगों ने उसकी प्रशंसा की और बहु को बहुत धिक्कारा। इसके बाद घर की संपत्ति राजा ले गया, पुत्रवधू को कैदखाने में बंद कर दिया और बंधुमती सत्कार करने योग्य बनी। इस तरह प्राणीवध अनर्थका कारण है। प्राणिवध नाम का यह प्रथम पाप स्थानक कहा है। अब मृषावाद नामक दूसरा पाप स्थानक कहते हैं। (२) मृषावाद द्वार :- मृषा वचन वह अविश्वास रूप वृक्षों के समूह का अति भयंकर कंद है, और मनुष्यों के विश्वास रूप पर्वत के शिखर के ऊपर वज्राग्नि का गिरना है। निंदा रूपी वेश्या को आभूषण का दान 242 For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रथम द्वार-सासु-बहू और पुत्री की कथा श्री संवेगरंगशाला है, सुवासना रूपी अग्नि में जल का छिड़काव है और अपयश रूपी कुलटा को मिलने का सांकेतिक घर है, दोनों जन्म में उत्पन्न होने वाली आपत्ति रूपी कमलों को विकसित करने वाला शरद ऋतु का चंद्र है और अति विशुद्ध धर्म गुण रूपी धान्य संपत्तियों को नाश करने में दुष्ट वायु है, पूर्वापर वचन विरोध रूप प्रतिबिम्ब का दर्पण है और सारे अनर्थों के लिए सार्थपति के मस्तक मणि है। और सज्जनता रूपी वन को जलाने में अति तीव्र दावानल है, इसलिए सर्व प्रयत्न से इसका त्याग करना चाहिए। और जैसे जहर मिश्रित भोजन परम विनाशक है तथा जरा यौवन की परम घातक है, वैसे असत्य भी निश्चय सर्व धर्म का विनाशक जानना। भले जटाधारी हो, शिखाधारी या मुण्डन किया हो, वृक्ष के छिलकों के वस्त्र धारण करने वाले हों अथवा नग्न हों फिर भी असत्यवादी लोक में पाखंडी और चंडाल कहलाता है ।।५६८६ ।। एक बार भी असत्य बोलने से अनेक बार बोले हुए सत्य वचनों का भी नाश करता है। और इस तरह यदि वह कभी सत्य बोले फिर भी वह मृषावादी तो अविश्वास पात्र ही रहता है। इसलिए झूठ नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि लोक में असत्यवादी निंदा का पात्र बनता है और अपने प्रति अविश्वास प्रकट करता है। राजा भी मृषावादी के दुष्ट प्रवृत्ति को देखकर जीभ छेदन आदि कठोर दण्ड देता है। मृषा बोलने से उत्पन्न हुए पाप के द्वारा जीव को इस जन्म में अपकीर्ति और परलोक में सबसे निम्न गति प्राप्त होती है। इसलिए परलोक की आराधना के एकचित्त वाले आत्मा को क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से भी मृषावाद नहीं बोलना चाहिए। इर्ष्या और कषाय से भरा हुआ बिचारा मनुष्य मृषावाद बोलने से दूसरे का उपघात करता है। ऐसा वह नहीं जानता कि मैं अपना ही घात करता हूँ। लांच (रिश्वत) लेने में रक्त है, कूटसाक्षी देने वाला है, मृषावादी है, आदि लोगों के धिक्कार रूप पुद्गल से मारा जाता है और महाभयंकर नरक में गिरता है। उसमें लांच लेने में रक्त मनष्य की कीर्ति अपना प्रयोजन. मन की शांति अथवा धर्म नहीं होता है, परंतु दुर्गति गमन ही होता है। झूठी साक्षी देने वाला अपना सदाचार, कुल, लज्जा, मर्यादा, यश, जाति, न्याय, शास्त्र और धर्म का त्याग करता है तथा मृषा बोलने वाला मृषावादी जीव इन्द्रिय रहित, जड़त्व, मूंगा, खराब स्वर वाला, दुर्गंध मुख वाला, मुख के रोग वाला और निंदा पात्र बनता है। मषा वचन यह स्वर्ग और मोक्ष मार्ग को बंद करने वाली जंजीर है, दुर्गति का सरल मार्ग है और अपना प्रभाव नाश करने वाला है। जगत में भी सारे उत्तम पुरुषों ने मृषा वचन की जोरदार निंदा की है, झूठा जीव अविश्वासकारी होता है, इसलिए मृषा नहीं बोलना चाहिए। यदि जगत में जो दयालु है वह सहसा कुछ भी झूठ नहीं बोलते हैं, फिर यदि दीक्षित भी झूठ बोले तो ऐसी दीक्षा से क्या लाभ? ।।५६९९।। सत्य भी वह नहीं बोलना कि जो किसी तरह असत्य-अहितकर वचन हो, क्योंकि जो सत्य भी जीव को दुःखजनक बनें वह सत्य भी असत्य के समान है ।।५७००।। अथवा जो पर को पीड़ाकारक हो उसे हास्य से भी नहीं बोलना चाहिए। क्या हास्य से खाया हुआ जहर कड़वा फल देने वाला नहीं बनता है? इसलिए हे भाई! सत्य कहता हूँ कि-निश्चय मृषा वचन को सर्व प्रकार से त्याग कर, यदि उसका त्याग किया, तो कुगति का सर्वथा त्याग किया है, ऐसा जान। झूठ बोलने से पापसमूह के भार से जीव, जैसे लोहे का गोला पानी में डूब जाता है, वैसे नरक में डूब जाता है इसलिए असत्य को छोड़कर हमेशा सत्य ही बोलना चाहिए, क्योंकि वह सत्य स्वर्ग में और मोक्ष में ले जाने के लिए मनोहर विमान है। जो वचन कीर्तिकारक, धर्मकारक, नरक के द्वार को बंद करने वाला, दुर्गति के द्वार के सांकल के समान, सुख अथवा पुण्य का निधान, गुण को प्रकट करने वाला तेजस्वी दीपक, शिष्ट पुरुषों का इष्ट और मधुर हो, स्व पर पीड़ा नाशक, बुद्धि द्वारा विचारा हुआ, प्रकृति से ही सौम्य-शीतल, निष्पाप और कार्य सफल करने वाला हो, उस वचन को सत्य जानना। 243 For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-मृपावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा इस प्रकार सत्य वचन रूपी मंत्र से मंत्रित विष भी मारने में समर्थ नहीं हो सकता है और सत्य वचनी धीर पुरुषों द्वारा श्राप दी हुइ अग्नि भी जला नहीं सकती। उल्टे मार्ग में जाती पर्वत की नदी को भी निश्चय सत्य वचन से रोक सकते हैं और सत्य से श्रापित किये हुए सर्प भी किल के समान स्थिर हो जाते हैं। सत्य से स्तम्भित हुआ तेजस्वी शस्त्रों का समूह भी प्रभाव रहित बन जाता है और दिव्य प्रभाव पड़ने पर भी सत्य वचन सुनने मात्र से जल्दी मनुष्य शुद्ध होता है। सत्यवादी धीर पुरुष सत्य वचन से देवों को भी वश करते हैं और सत्य वक्ता से पराभव हुए डाकिनी, पिशाच और भूत-प्रेत भी छल कपट नहीं कर सकते हैं। सत्य से इस जन्म में अभियोगिक देव प्रायोग्य पुण्य समूह का बंधकर महर्द्धिक देव बनकर अन्य जन्म में उत्तम मनुष्यत्व को प्राप्त करता है और वहाँ आदेय नाम कर्म वाला, वह सर्वत्र मान्य वचन वाला, तेजस्वी, प्रकृति से सौम्य, देखते ही नेत्रों को सुखकारी और स्मरण करते मन की प्रसन्नता प्राप्त कराने वाला, तथा बोलते समय कान और मन को दूध समान, मधु समान और अमृत समान प्रिय और हितकारी बोलता है, इस तरह सत्य से पुरुष वाणी के गुण वाला बनता है। सत्य से मनुष्य जड़त्व, मूंगा, तुच्छ स्वर वाला, कौएँ के समान अप्रिय स्वर वाला, मुख में रोगी और दुर्गन्ध युक्त मुखवाला नहीं होता है। परंतु सत्य बोलने वाला मनुष्य सुखी, समाधि प्राप्त करने वाला, प्रमोद से आनंद करने वाला, प्रीति परायण, प्रशंसनीय, शुभ प्रवृत्ति वाला, परिवार को प्रिय बनता है। तथा प्रथम पाप स्थानक के प्रतिपक्ष से होने वाले जो गुण बतलाये हैं उस गुण से युक्त और इस गुण से युक्त बनता है। इस तरह इसके प्रभाव से जीव श्रेष्ठ कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है और पूज्य बनता है, अतः यह सत्य वाणी विजयी बनती है। सत्य में तप, सत्य में संयम और सत्य में ही सर्व गुण रहे हैं। अति दृढ़ संयमी पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान कीमत रहित बनते हैं। इस तरह सत्य असत्य बोलने के गुण-दोष जानकर-हे सुंदर! असत्य वचन का त्याग कर सत्यवाणी का ही उच्चारण कर। दूसरे पाप स्थानक में वसु राजा के समान स्थान भ्रष्ट आदि अनेक दोष लगते हैं और उसके त्याग से जीव को नारद के समान गुण उत्पन्न होते हैं ।।५७२०।। वह इस प्रकार : वसु राजा और नारद की कथा इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में शक्तिमती नगर में अभिचंद्र नाम का राजा राज्य करता था और उसका वसु नाम का पुत्र था। उसे वेद का अभ्यास करने के लिए पिता ने आदरपूर्वक गुणवान् क्षीर कदंबक नामक ब्राह्मण उपाध्याय को सौंपा। उपाध्याय का पुत्र पर्वत और नारद के साथ राजपुत्र वसु वेद के रहस्यों का हमेशा अभ्यास करने लगा। एक समय आकाश मार्ग से अतीव ज्ञानी महामुनि जा रहे थे, इन तीनों को देखकर परस्पर कहा किजो ये वेद पढ़ रहे हैं इनमें दो नीच गति में जाने वाले और एक ऊर्ध्व गति में जाने वाला है। ऐसा कहकर वे वहाँ से आगे चले। यह सुनकर उपाध्याय क्षीर कदंबक ने विचार किया कि-ऐसा अभ्यास कराना निरर्थक है, इससे क्या लाभ है? इससे तो मुझे भी धिक्कार है, ऐसा संवेग प्राप्तकर उसने दीक्षित होकर मोक्ष पद प्राप्त किया। अभिचंद्र राजा ने अपने राज्य पर अभिषेक करके वसु को राजा बनाया। वह राज्य भोगते उसे एक दिन एक पुरुष ने आकर कहा कि-हे देव! आज मैं अटवी में गया वहाँ हिरण को मारने के लिए बाण फेंका था, परंतु वह बीच में ही टकरा कर गिर पड़ा। इससे आश्चर्यचकित होते हुए में वहाँ गया, वहाँ हाथ का स्पर्श करते मैंने एक निर्मल स्फटिक रत्न की शिला देखी जिस शिला के पीछे के भाग में हिरण स्पष्ट दिखता था। बाद में मैंने 1. अन्य कथानकों में परीक्षा करने का उल्लेख है। 244 For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार - मृषावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा-अदत्तादान द्वार श्री संवेगरंगशाला विचार किया कि - वह आश्चर्यकारी रत्न राजा के ही योग्य है, इसलिए आपको कहने के लिए आया हूँ। यह सुनकर राजा ने उस स्फटिक की शिला को गुप्त रूप में मंगवाकर सिंहासन बनाने के लिए कलाकारों को सौंपा। उसका सिंहासन बनाकर सभा मंडप में स्थापन किया, उसके ऊपर बैठा हुआ राजा आकाश तल अंतरिक्ष में (हवा में लटकता) बैठा हो, इस तरह दिखता था। नगर लोग विस्मित होते थे और अन्य राजाओं में प्रसिद्धि हुई किवसु राजा सत्य के प्रभाव से अंतरिक्ष में बैठता है । और ऐसी प्रसिद्धि को सदा रखने के लिए उसने उन सब कलाकारों को खत्म कर दिया और लोगों को दूर रखकर विज्ञप्ति आदि बात करता था, परंतु किसी को भी नजदीक आने नहीं देता था । और वह पर्वत तथा नारद भी शिष्यों को अपने-अपने घर वेद का अध्ययन करवाते थे, इस तरह बहुत समय व्यतीत हुआ । किसी समय अनेक शिष्यों के साथ नारद पूर्व स्नेह से और अपने गुरु का पुत्र मानकर पर्वत के पास आया, पर्वत ने उसका विनय किया और दोनों बातें करने लगे। प्रसंगोपात अति मूढ़ पर्वत ने यज्ञ के अधिकार सम्बन्धी व्याख्यान किया 'अजेहिं जट्टव्वं' इस वेद पर से 'अज अर्थात् बकरे द्वारा' यज्ञ करना चाहिए। इस तरह अपने शिष्य को समझाया। इससे नारद ने कहा कि - यहाँ इस विषय में अज अर्थात् तीन वर्ष का पुराना अनाज जो फिर उत्पन्न न हो ऐसे जो व्रीही आदि हो उसके द्वारा ही यज्ञ करना ऐसा गुरुजी ने कहा है । यह वचन पर्वत ने नहीं माना, इससे बहुत विवाद हुआ और निर्णय हुआ कि जो वाद में हार जाय उसकी जीभ का छेदन करना, ऐसी दोनों ने प्रतिज्ञा की तथा साथ में पढ़ने वाला वसु राजा था। वह इस विषय में जो कहेगा वह प्रमाण रूप मानना । फिर नारद को सत्यवादी जानकर पर्वत की माता भयभीत हुई कि - निश्चय अब मेरे पुत्र की जीभ छेदन से मृत्यु होगी, इसलिए राजा के पास जाकर निवेदन करूँ। ऐसा सोचकर वह वसु राजा के महल में गयी । गुरु पत्नी को आते देखकर राजा ने खड़े होकर विनय किया, फिर उसने एकांत में नारद और पर्वत की सारी बातें कहीं । वसु राजा ने कहा कि - हे माता ! आप कहो, इसमें मुझे क्या करना है? उसने कहा कि - मेरा पुत्र जीते ऐसा करो। उसके अति आग्रह के कारण वसु राजा ने भी स्वीकार किया और दूसरे दिन दोनों पक्ष उसके सामने आये, सत्य बात सुनाकर नारद ने कहा कि - हे राजन् ! तुम इस विषय में धर्म का तराजू हो, तूं सत्यवादियों में अग्रसर हो इसलिए कहो कि 'अजेहिं जट्टव्वं' इसकी गुरुजी ने किस तरह व्याख्या की है? तब अपने सत्यवादी की प्रसिद्धि को छोड़कर राजा ने कहा कि - हे भद्र! 'अजेहिं अर्थात् बकरे द्वारा जट्टव्वं अर्थात् यज्ञ की पूजा करनी' ऐसा कहा है । ऐसा बोलते ही अति गलत साक्षी देने वाला जानकर कुलदेवी कुपित हुई और स्फटिक सिंहासन से उसे नीचे गिराकर मार दिया और इसके बाद भी उस सिंहासन पर आठ राजा बैठे, उन सबको मार दिया। 'पर्वत भी अति असत्यवादी है' ऐसा मानकर लोगों ने धिक्कारा और वसु राजा मरकर नरक में उत्पन्न हुआ। नगर लोगों में सत्यवादी के रूप में नारद का सत्कार हुआ, उसकी इस लोक में चंद्र समान उज्ज्वल कीर्ति हुई और परलोक में देवलोक की सुख संपत्ति की प्राप्ति हुई । इस तरह दूसरा मृषावाद नामक पाप स्थानक कहा, अब तीसरा अदत्तादान नामक पाप स्थानक कहते हैं ।। ५७५२ ।। (३) अदत्तादान द्वार : - • कीचड़ जैसे जल को, मैल जैसे दर्पण को और धुँआ जैसे दोवार के चित्रों को मलिन करता है वैसे परधन लेन का स्मरण भी चित्त रूपी रत्न को मलिन करता है। इसमें आसक्त जीव बिना विचारे धर्म का नाश करने वाला, सत्पुरुषों ने पालन की हुई कुल व्यवस्था का अनादर करने वाला, कीर्ति को कलंक नहीं देखने वाला, जीवन की परवाह न करके, मृग जैसे गीत के शब्द को, पतंग जैसे दीप की ज्योति को, 1. नारद का शिष्यों को पढाने का उल्लेख अन्य कथानकों में नहीं है। For Personal & Private Use Only 245 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-मृषावाद द्वार-वसु राजा और नारद की कथा-अदत्तादान द्धार मत्स्य जैसे जल में लोहे के कांटे में मांस के टुकड़ों को, भ्रमर जैसे कमल को और जंगली हाथी जैसे हथणी के स्पर्श करने की इच्छा से मृत्यु को आमंत्रण देता है, वैसे वह पापी परधन को हरण कर मृत्यु को आमंत्रण देता है और उसी जन्म में भी हाथ का छेदन, कान छेदन, नेत्रों का नाश, करवत से काटा जाना अथवा मस्तक आदि अंगों का छेदन-भेदन होता है। पर के धन को. चोरी को आनंद मानता है और अपना धन जब दूसरा हरण करता है तब मानो शक्ति नामक शस्त्र से सहसा भेदन हुआ हो, इस तरह दुःखी होता है। लोग भी अन्य अपराध करने वाले अपराधी का पक्ष करते हैं, परंतु चोरी के व्यसनी का उसके स्वजन भी पक्ष नहीं करते हैं। अन्य अपराध करने वाले को सगे संबंधी घर में रहने के लिये स्थान देते हैं, परंतु परधन की चोरी करने वाले को माता भी घर में स्थान नहीं देती और किसी तरह भी जिसके घर में उसे आश्रय दिया जाता है वह उसे बिना कारण ही महा अपयश में. दःख में और महा संकट में फंसा देता है। मनुष्य महा कष्ट से लम्बे काल के बाद विविध आशाओं से कुछ धन एकत्रित करता है। ऐसा प्राण प्रिय समान उस धन की जो चोरी करता है उससे अधिक पापी और कौन है? संसारी जीवों को यह कष्ट से मिला हुआ धन सर्व प्रकार से प्राण तुल्य होता है, उसका उस धन की चोरी करने वाला पापी उसको जीते ही मारता है। वैभव चोरी होते ही दीन मुख वाले कितने भूख से मरते हैं, जब कृपण के समान कितने दूसरे के शोकाग्नि से जलते हैं। करुणा रहित उस समय जन्म लेने वाले पशु आदि का हरण करता है, इससे माता से अलग हुए दुःखी वे बच्चे मरते हैं। इस तरह अदत्तादान (चोरी) करने वाला प्राणीवध करता है और झठ भी बोलता है. इससे इस जन्म में भी अनेक प्रकार के संकट और मृत्यु प्राप्त करता है। तथा चोरी के पाप से जीव जन्मान्तर में दरिद्रता, भीरुता और पिता, पुत्र, स्त्री, स्वजन का वियोग इत्यादि दोषों को प्राप्त करता है। इसलिए हे भाई! सत्य कहता हूँ कि-निश्चय ही सर्व प्रकार से परधन हरण का त्याग करना चाहिए, परधन हरण के त्याग से दुर्गति का भी सर्वथा त्याग होता है। जैसे लोहे का गोला जल में डूबता है वैसे अदत्तादान से उपार्जन किये पाप समूह के भार से भारी बना जीव नरक में पड़ता है। अदत्तादान का ऐसा भयंकर विपाक वाला फल जानकर आत्महित में स्थिर चित्त वाले को इसका नियम लेना चाहिए। जो जीव परधन को लेने की बुद्धि का भी सर्वथा त्याग करता है वह ऊपर कहे उन सर्व दोषों को दाहिने पैर से अल्प प्रयास द्वारा खत्म करता है, इसके अतिरिक्त उत्तम देवलोक प्राप्त करता है, और वहाँ से उत्तम कुल में जन्म लेकर तथा शुद्ध धर्म को प्राप्त कर आत्महित में प्रवृत्ति करता है। मणि, सुवर्ण, रत्न आदि धन समूह से भरे हुए कुल में मनुष्य जन्म को प्राप्त करता है और चोरी के त्याग की प्रतिज्ञा से पुण्यानुबंधी पुण्य वाला धन्य पुरुष बनता है। उसका धन, गाँव, नगर, क्षेत्र, खड्डे अथवा अरण्य या घर में पड़ा हो, मार्ग में पड़ा हो, जमीन में गाड़ा हो अथवा किसी स्थान पर गुप्त रखा हो, या प्रकट रूप में रखा हो, अथवा ऐसे ही कहीं पर पड़ा हो, कहीं भूल गये हों अथवा व्याज में रखा हो, और यदि फेंक भी दिया हो फिर भी वह धन दिन अथवा रात में भी नष्ट नहीं होता है, परंतु अधिक होता (वृद्धि को पाता) है। अधिक क्या कहें? सचित्त, अचित्त या मिश्र कुछ भी वह धन धान्यादि दास, दासी, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि इधर-उधर किसी स्थान पर रहा हो उसे दूसरा कोई ग्रहण नहीं करता है। देश, नगर, गाँव का भयंकर नाश होता है, परंतु उसका नाश नहीं होता है। और बिना प्रयत्न से और इच्छा अनुसार मिले हुए धन का वह स्वामी और उसका भोक्ता होता है तथा उसके अनर्थों का क्षय होता है। वृद्धा के घर में भोजन के लिए आयी हुइ टोली वृद्धा के घर में धन को देखकर हरण करने वाले विलासियों के समान तीसरे पाप स्थानक में आसक्त जीव इस जन्म में बंधन आदि कष्टों को प्राप्त करता है और जो इसका नियम करता है वह अपने शुद्ध स्वभाव से ही उस समूह में रहते हुए श्रावक पुत्र के समान कभी भी दोष-दुःख के स्थान को प्राप्त नहीं करता है ।।५७८१।। इसका प्रबंध इस प्रकार है : 246 For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदनादान द्वार-श्रावक पुत्र और टोनी का दृष्टांत-मैथुन विरमण द्वार श्री संवेगरंगशाला श्रावक पुत्र और टोली का दृष्टांत वसंतपुर नगर में वसंतसेना नाम की एक वृद्धा रहती थी। उसने बड़े महोत्सव से नगर के सभी जनों को भोजन करवाया। उस नगर में एक विलासी दुष्ट मण्डली–टोली रहती थी। उन्होंने वृद्धा के घर धन देखकर रात्री के समय लूटने गये, केवल उस मण्डली में श्रावक पुत्र वसुदत्त भी था, उसने चोरी नहीं की। इससे 'चोरी मत करो, चोरी मत करो' ऐसा बोलते वृद्धा ने नमस्कार करने के बहाने से श्रावक पुत्र को छोड़कर शेष सब चोरों के चरणों को मोर के पिच्छ के (शरीर जन्य धातु) द्वारा निशान किया। घर के धन को उठाकर चोर निकल गये। फिर उसी समय प्रभात में वृद्धा ने वह वृत्तांत राजा से कहा। राजा ने नियुक्त किये पुरुषों को आदेश दिया। उन्होंने मोर के पिच्छ से अंकित पैर वाले पुरुषों की खोज करते आनंदपूर्वक स्वच्छन्दतया पान भोजनादि करती तथा विलास करती उस दुष्ट विलासी मण्डली को देखकर 'ये ही चोर हैं' ऐसा निश्चयकर वे चोरों को पकड़कर राजा के पास ले गये। वहाँ अनंकित पैर वाले एक श्रावक पुत्र को छोड़कर अन्य सब को छेदन, भेदन आदि अनेक पीड़ाओं द्वारा मरण के शरण कर दिया। इस तरह अदत्तादान की प्रवृत्ति वाले और उसके नियम वाले जीवों का अशुभ तथा शुभ फल को देखकर-हे वत्स! तूं इससे रुक जा। इस तरह अदत्त ग्रहण नाम का तीसरा पाप स्थानक कहा है। अब चौथा अनेक विषय वाला है फिर भी अल्पमात्र कहता हूँ। (४) मैथुन विरमण द्वार :- मैथुन लम्बे काल में कष्ट से प्राप्त धन का मूल से नाश करने वाला, दोषों की उत्पत्ति का निश्चित कारण और अपयश का घर है। गुण के प्रकर्ष रूपी कण समूह को चूरण करने वाली भयंकर ओखली है, सत्यरूपी पृथ्वी को खोदने वाले हल की अग्रधारा है और विवेक रूपी सूर्य की किरणों के विस्तार को ढांकने वाली ओस है। इसमें आसक्त जीव गुरुजनों से पराङ्मुख, आज्ञा का लोप करता है और भाई, बहन तथा पुत्रों से भी विरुद्ध रूप से चलता है। वह नहीं करने योग्य कार्य करता है, करने योग्य का त्याग करता है, विशिष्ट वार्तालाप करते लज्जित होता है और बाह्य प्रवृत्ति से विरक्त चित्तवाला सदा स्त्री के विषय में इस तरह से ध्यान करता है कि-अहो! अरुण समान लाल, नखों की किरणों से व्याप्त, रमणीय चरण युगल, प्रभात में सूर्य की किरणों से युक्त कमल के सदृश शोभायमान होते हैं। अनुक्रम से गोल मनोहर साथल मणि की कलश नली के समान रमणीय है और दोनों पिंडली कामदेव के हाथी की सैंड की समानता को धारण करती हैं। पाँच प्रकार के प्रकाशमय रत्नों का कंदोरे से यक्त नितम्ब प्रदेश भी स्फरायमान इन्द्र धनष्य से आकाश विभाग शोभता है वैसे शोभता है। मुष्टि ग्राह्य उदर भाग में मनोहर बलों की परंपरा शोभती है, स्तन रूपी पर्वतों के शिखर के ऊपर चढ़ने के लिए स्वर्ण की सोपान पंक्ति के समान शोभती है, कोमल और मांस से पुष्ट हथेलियों से शोभित दो भुजा रूपी लताएँ भी ताजे खिले हुए कमल वाले कमल के नाल की उपमा धारण करते हैं ।।५८०० ।। आनंद के बिंदु गिरते सुंदर विशाल चंद्र के बिंब समान स्त्री का मुख रूपी शतपत्र कमल है, वह कामी पुरुष रूपी चकोर के मन में उल्लास बढ़ाता है। भ्रमर के समूह रूप एवं काजल समान श्याम उसका केश समूह, चित्त में जलते कामाग्नि का धम समह समान शोभता है। इस तरह कामासक्त स्त्री के अंग के सर्व अवयवों के ध्यान में आसक्त रहता है। उससे शून्य चित्त बना हो, उस स्त्री के हाड़ के समूह से बना हो, नारी से अधिष्ठित बना हो अथवा सर्वात्म के संपूर्ण उसकी परिणति रूप तन्मय बना हो, इस तरह बोलता है कि-अहो! जगत में कमल पत्र तुल्य नेत्रों वाली युवतियों की हंस गति को जीतने वाली गति का विलास, अहो! मनोहर वाणी! और अर्ध नेत्रों से कटाक्ष फेंकने की चतुराई। अहो! कोई अति प्रशस्त है। अहो! उसका अल्प विकसित कैरव पुष्प समान, स्फुरायमान दांत का सामान्य दिखने वाला सुखद मधुर हास्य। अहो! सुवर्ण के गेंद के समान उछलते स्थूल स्तन 247 For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति नामक प्रधन द्वार-सासु-मैथुन विरमण द्वार भाग। अहो! देखो, उसकी नाच करती वलय से युक्त प्रकट विकसित नाभि कमल और कंचुक को तोड़ते उसका बहुत बड़ा मरोड़! इसमें से एक-एक भी दुर्लभ है, तो उसके समूह का तो कहना ही क्या? अथवा संसार का सारभूत उन स्त्रियों का क्या वर्णन करना? कि जिसके चिंतन-स्मरण भी शतमूल्य, दर्शन सहस्र मूल्य, वार्तालाप कोटि मूल्य और अंग का संभोग अमूल्य है। इस तरह वह विचार करते हुए उसकी चिंता, विलाप और मन, वचन, काया की चेष्टाओं से उन्मत्त के समान, मूर्छित के समान और सर्व ग्रहों से चेतना नष्ट हुई हो इस तरह दिन या रात्री, तृषा या भूख, अरण्य या अन्य गाँव आदि, सुख या दुःख, ठण्डी या गरमी, योग्य या अयोग्य कुछ भी नहीं जानता है, किन्तु बायी हथेली में मुख को छुपाकर निस्तेज होकर वह बार-बार लम्बे निःश्वास लेता है, पछताता है, कम्पायमान होता है, विलाप करता है, रोता है, सोता है और उबासी खाता है। इस तरह अनंत चिंता की परंपरा से खेद करते कामी के दुर्गति का विस्तार करने वाले विकारों को देखकर सभी प्रकार के मैथुन को, बुद्धिमान द्रव्य से, देव संबंधी, मनुष्य संबंधी और तिर्यंच संबंधी, क्षेत्र से ऊर्ध्व, अधो और तिर्छ लोक में, काल से दिन अथवा रात्री तथा भाव से राग और द्वेष से मन द्वारा भी चाहना नहीं करना। मैथुन अनंत दोषों का, महापाप और सर्व कष्टों का कारण होने से उसका सर्वथा त्याग करना। क्योंकि इसकी चिंता करने से प्रायः पर-स्व स्त्री के भोगने के दोष-गुण के पक्ष को नहीं जानता, श्रेष्ठ बुद्धि वाले भी जंगली हाथी के समान मैथुन की इच्छा को रोक न सके। उसकी ऐसी मैथुन प्रति दृढ़ अभिलाषा प्रकट होती है, क्योंकि जीवों की, स्वभाव से ही मैथुन संज्ञा अति विशाल होती है। और वह प्रतिदिन बढ़ती है। इच्छा रूपी वायु द्वारा अति तेजस्वी ज्वाला वाली प्रचंड कामाग्नि किसी प्रकार शांत नहीं होती फिर उसके संपूर्ण शरीर को जलाती है, और इससे जलता जीव मन में उग्र साहस धारण करके अपने जीवन की भी परवाह न करके, बुजुर्ग की लज्जा आदि का भी अपमान करके मैथुन का सेवन करता है। इससे इस जन्म, परजन्म में अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इस जन्म में वह हमेशा सर्वत्र शंकापूर्वक भ्रमण करता है। बाद में कभी किसी स्थान पर लोग यदि उसे व्यभिचार सेवन करते देख लेते हैं. तब क्षणभर में मरने के लिए पीडा का अनभव होता है. इस तरह दीन मख वाला है। और घर के लोगो द्वारा, स्त्री के द्वारा, मालिक अथवा नगर के कोतवाल से पकड़ा हुआ उसे मार पीटकर दुष्ट गधे पर बैठाया जाता है, उसके बाद उस रंक को उद्घोषणापूर्वक जहाँ तीन मार्ग का चौक हो, चार रास्ते हों, ऐसे चौक में बड़े राज्य मार्ग में घुमाते हैं उद्घोषणा करते हैं कि-भो, भो नागरिकों! इस शिक्षा में राजा आदि कोई अपराधी नहीं है, केवल अपने किये पापों का ही यह अपराधी है, इसलिए हे भाइयों! इस प्रकार के इन कर्मों को अन्य कोई करना नहीं! इस प्रकार मैथुन के व्यसनी को इस जन्म में हाथ-पैर का छेदन, मार, बंधन, कारागृह और फाँसी आदि मृत्यु तक के भी कौन-कौन से दुःख नहीं होते? और परभव संबंधी तो उसके दोष कितने प्रमाण में कहूँ? क्योंकि-मैथुन से प्रकट हुए पाप के द्वारा अनंत जन्मों में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए हे भाई! सत्य कहता हूँ कि सर्व प्रकार से मैथुन सेवन का सम्यक् प्रकार से त्याग कर दें, उसके त्याग से दुःख स्वभाव वाली दुर्गति का भी त्याग होता है। और भी कहा है कि-मैथुन निंदनीय रूप को प्रकट करने वाला, परिश्रम और दुःख से साध्य, सर्व शरीर में बहुत श्रम से प्रकट हुआ, पसीने से अति उद्वेग करने वाला, भय से वाचा को भी व्याकुल करने वाला, निर्लज्जों का कर्त्तव्य और जुगुप्सनीय है, इस कारण से ही गुप्त रूप में सेवन करने योग्य है, हृदयव्यापि क्षय आदि विविध प्रकार की व्याधियों का कारणभूत और अपथ्य भोजन के समान बल-वीर्य की हानि करने वाला है। किंपाक फल के समान भोगने योग्य वह आखिर में दुःखदायी, 248 For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार - मैथुन विरमण द्वार-तीन सखी आदि की कथा श्री संवेगरंगशाला अति तुच्छ और नृत्यकार के नाच समान अथवा गंधर्व नगर के समान, भ्रांति कराने वाला है। सारे जगत में तिरस्कार को प्राप्त करते कुत्ते आदि अधम प्राणियों के समान वह है । सर्व को शंका प्रकट करने वाला, परलोक में धर्म, अर्थ का विघ्नकारी और प्रारंभ में ही अल्प सुख (कल्पना) के स्वभाव वाला, मैथुन सुख को विवेकी आत्मा केवल एक मोक्ष सुख की अभिलाषा वाला कौन इच्छा करता है? मैथुन के कारण से उत्पन्न किये पाप के भार से भारी बना मनुष्य लोहे के गोले के समान पानी में डूबकर नरक में गिरता है। ब्रह्मचर्य के गुण :अखंड ब्रह्मचर्य को पालकर संपूर्ण पुण्य समूह वाला मनुष्य इच्छा मात्र से प्रयोजन सिद्ध करने वाला उत्तम देवत्व प्राप्त करता है। और वहाँ से च्यवकर मनुष्य आयुष्य में देव समान भोग उपभोग की सामग्री वाला, पवित्र शरीर वाला और विशिष्ट कुल जाति से युक्त होता है, वह मनुष्य आदेय पुण्य वाला, सौभाग्यशाली, प्रिय बोलने वाला, सुंदर आकृति वाला, उत्तम रूप वाला तथा प्रिय और हमेशा प्रमोद आनंद करने वाला होता है। निरोगी, शोकरहित, दीर्घायुषी, कीर्तिरूपी कौमुदिनी के चंद्र समान, क्लेश आदि निमित्तों से रहित, शुभोदय वाला, अतुल बल-वीर्य वाला, सर्व अंगों में उत्तम लक्षणधारी, काव्य की श्रेष्ठ गूंथन समान अलंकारो वाला, श्रीमंत, चतुर, विवेकी और शील से शोभते तथा निरुपक्रमी पूर्ण आयु को भोगने वाला, स्थिर, दक्ष, तेजस्वी, बहुतजन मान्य और ब्रह्मचारी विष्णु - ब्रह्मा के समान होता है। इस चौथे पाप स्थानक में प्रवृत्ति के दोष और निवृत्ति के गुणों के विषय में गिरि नगर में रहने वाली सखियों का और उसके पुत्र का दृष्टांत है ।। ५८४१ । । वह इस प्रकार है :― तीन सखी आदि की कथा रैवतगिरि से शोभायमान विशिष्ट सौराष्ट्र देश के अंदर तिलक समान गिरि नगर में तीन धनवान की तीन पुत्री सखी रूप में थीं। उसी नगर में उनका विवाह किया था और श्रेष्ठ सुंदर मनोहर अंगवाली उन्होंने योग्य समय पर एक-एक पुत्र को जन्म दिया था। किसी एक दिन नगर के पास बाग में तीनों सखी मिलकर क्रीड़ा करने लगीं, उस समय चोरों ने उनको पकड़कर पारस नामक देश लेकर गये और वेश्या से बहुत धन लेकर बेचा। वेश्याओं ने उनको संपूर्ण वेश्या की कला सिखाई। फिर दूर देश से आये हुए श्रेष्ठ व्यापारी के पुत्र आदि धनवानों के उपभोग के लिए उन सखियों की स्थापना की और उन लोगों से उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की । इधर तीनों सखी के पुत्रों ने यौवनवय प्राप्त किया, तीनों पुत्र पूर्व माताओं के दृष्टांत से ही परस्पर प्रीति से युक्त रहते थे, उसमें केवल एक श्रावक पुत्र था जो अणुव्रतधारी था और स्वदार संतोषी था और दूसरे दो मिथ्यादृष्टि थे। किसी समय नाव में विविध प्रकार का अनाज लेकर धन प्राप्ति के लिए वे पारस बंदरगाह पर आये और भवितव्यतावश उन वेश्याओं के घर में रहे। केवल एक वेश्या ने अणुव्रतधारी श्रावक पुत्र को निर्विकारी मन वाला देखकर पूछा- हे भद्र! आप कहाँ से आये हैं? और ये दो तेरे क्या होते हैं? उसे कहो ! उसने उससे कहा कि - हे भद्रे ! हम गिरि नगर से आये हैं, हम तीनों परस्पर मित्र हैं और हमारी तीनों की माताओं को चोरो ने हरण किया है। उसने पूछा कि - हे भद्र! वर्तमान काल में भी वहाँ क्या जिनदत्त, प्रियमित्र और धनदत्त ये तीनों व्यापारी रहते हैं? उसने कहा कि उनके साथ तुम्हारा क्या संबंध है? उसने कहा कि वे हमारे पति थे और हमारे तीनों का एक-एक पुत्र था, इत्यादि सारा वृत्तान्त सुनाया, इससे उसने कहा कि मैं जिनदत्त का पुत्र हूँ और ये दोनों उन दोनों के पुत्र हैं। ऐसा कहने पर अपने पुत्र होने के कारण वह गले से आलिंगन कर मुक्त कण्ठ से अत्यंत रोने लगी और पुत्र भी उसी तरह रोने लगा । क्षणमात्र सुख-दुःख को पूछकर मित्रों को अकार्य करते रोकने की बुद्धि से जल्दी उन मित्रों के पास गया और एकांत में वह सारी बात कही, इससे वे दोनों उसी समय माता भोग करने 249 For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-परिग्रह पापस्थानक द्वार के पाप द्वारा शोक से अत्यंत व्याकुल हुए। फिर बहुत धन देकर उन तीनों को वेश्याओं के हाथ में से छुड़ाकर उनको साथ लेकर नगर की ओर चलें। समुद्र मार्ग में चलते दोनों मित्रों को ऐसी चिंता प्रकट हुई कि-हमने महाभयंकर अकृत्यकारी कार्य किया है, हम अपने स्वजनों को मुख किस तरह दिखायेंगे? इस तरह संक्षोभ के कारण लज्जा से दोनों मित्र परदेश में चले गये और उनकी माताएँ वहीं समुद्र में गिरकर मर गईं। वह अणुव्रतधारी श्रावक पुत्र माता को लेकर अपने नगर में गया और उसका सर्व व्यतिकर जानकर नगर के लोगों ने प्रशंसा की। यह दृष्टांत सुनकर-हे सुंदर! परम तत्त्व के जानकार पुरुषों को भयजनक अब्रह्म (मैथुन) का त्याग करना चाहिए और आराधना के एक मनवाले तूं ब्रह्मचर्य का पालन कर। इस तरह मैथुन नामक चौथा पाप स्थानक कहा अब पाँचवां परिग्रह पाप स्थानक को कहता हूँ। (५) परिग्रह पाप स्थानक द्वार :- यह परिग्रह सभी पाप स्थानक रूपी महेलों का मजबूत बुनियाद है और संसार रूपी गहरे कुएँ की अनेक नीक का प्रवाह है। पंडितों द्वारा निंदित अनेक कुविकल्प रूपी अंकुरों को उगाने वाला वसंतोत्सव है और एकाग्रचित्तता रूपी बावड़ी को सुखाने वाली ग्रीष्म ऋतु की गरमी का समूह है। ज्ञानादि निर्मळ गुण रूपी राजहंस के समूह को विघ्नभूत वर्षा ऋतु है और महान् आरंभ रूप अत्यधिक अनाज उत्पन्न करने के लिए शरद ऋतु का आगमन है। परिग्रह स्वाभाविकता के आनंद रूप विशिष्ट सुख रूपी कमलिनी के वन को जलाने वाली हेमंत ऋतु है और अति विशुद्ध धर्मरूपी वृक्ष के पत्तों का नाश करने वाली शिशिर ऋतु है। मूर्छारूपी लता का अखंड मंडप है, दुःख रूपी वृक्षों का वन है, और संतोष रूपी शरद के चंद्र को गलाने वाला अति गाढ़ दाढ़ वाला राहु का मुख है। अत्यंत अविश्वास का पात्र है, और कषायों का घर है ऐसा परिग्रह मुश्किल से रोक सकते हैं, ऐसा ग्रह के समान किसको पीड़ा नहीं देता? इसी कारण से ही बुद्धिमान धन, धान्य, क्षेत्र-जमीन, वस्तु-मकान, सोना, चाँदी, पशु, पक्षी, नौकर आदि तथा कुप्य वस्तुओं में हमेशा नियम करते हैं। अन्यथा यथेच्छ अनुमति देना, अतीव कष्ट से रोकने वाला, स्व-पर मनुष्यों को दान करने की इच्छा रोकने वाली और जगत में जय को प्राप्त यह इच्छा किसी तरह कष्ट द्वारा भी क्या पूर्ण होती है? (अर्थात् पूर्ण नहीं होती) क्योंकि इस संसार में जीव को एक सौ से, हजार से, लाख से, करोड़ से, राज्य से, देवत्व से और इन्द्रत्व से भी संतोष नहीं होता है। कोड़ी बिना का बिचारा गरीब कोड़ी की इच्छा करता है और कोड़ी मिलने के बाद रुपये को चाहता है और वह मिलने पर सोना मोहर की इच्छा करता है। यदि वह मिल जाती है तो उसमें एक-एक की उत्तरोत्तर वद्धि करते सौ सोना मोहर की इच्छा करता है. उसे भी प्राप्त कर हजार, और हजार वाला लाख की इच्छा करता है, लखपति करोड़ की इच्छा करता है और करोड़पति राज्य की इच्छा करता है, राजा चक्रवर्ती बनने की इच्छा करता है और चक्रवर्ती देवत्व की इच्छा करता है। किसी तरह उसे वह भी मिल जाए तो वह इंद्र बनने की इच्छा करता है और उतना मिलने पर भी इच्छा करे तो आकाश के समान अनंत होने से अपूर्ण ही रहती है। कोड़िया के घाट के समान अक्रम से जिसकी इच्छा अधिक-अधिक बढ़ती है वह सद्गति को लात मारकर दर्गति का पथिक बनता है। बार-बार मापने पर भी आढक का माप मंडा नहीं बनता ये दोनों एक जात के छोटे बड़े माप हैं] इस तरह जिसके भाग्य में अल्प धन है वह क्या कोटीश्वर हो सकता है? क्योंकि पूर्व में जितने धन की प्राप्ति का कर्म बंध किय हो उसी मर्यादा से उतना ही धन प्राप्त करता है, द्रोणमेघ की वर्षा होने पर भी पर्वत के शिखर पर पानी नहीं कता है। इस तरह निश्चय यह हुआ की अनेक प्रकार की प्रवृत्ति करने 250 For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-परिग्रह पापस्थानक द्वार-लोभानंदी और जिनदास का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला पर भी अल्प पुण्य वाला यदि बहुत धन की इच्छा करता है वह अपने हाथ द्वारा आकाश तल को पकड़ने की इच्छा करता है। यदि निर्भागी भी इस पृथ्वी तल में राज्य आदि इच्छित पदार्थ को प्राप्त कर सकता हो तो कभी भी कोई भी किसी स्थान पर दुःखी नहीं दिखेगा। यदि मणि, सुवर्ण और रत्नों से भरा हुआ समग्र जगत को भी किस तरह प्राप्त करे फिर भी निश्चय अक्षीण इच्छा वाला बिचारा जीव अकृतार्थ अपूर्ण ही रहता है। पुण्य से रहित होने पर भी यदि मूढात्मा धन की इच्छा करता है वह इसी तरह अधूरे मनोरथ से ही मरता है। जैसे इस जगत में वायु से थैला भरा नहीं जा सकता वैसे आत्मा को भी धन से कभी पूर्ण संतुष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए इच्छा के विच्छेद के लिए संतोष को ही स्वीकार करना सर्वोत्तम है। संतोषी निश्चय से सुखी है और असंतोषी को अनेक दुःख होते हैं। पाँचवें पाप स्थानक में आसक्त और उससे निवृत्ति वाले को दोष और गुण लोभानंदी और जिनदास श्रावक के समान जानना ।। ५८८७ ।। उसकी कथा इस प्रकार है : लोभानंदी और जिनदास का प्रबंध पाटली पुत्र नगर में अनेक युद्धों में विजय प्राप्त करने से विस्तृत यशस्वी अनेक गुणों से युक्त जयसेन नामक राजा था। उस नगर में कुबेर धन समूह को भी तिरस्कार करता महा धनिक नंद आदि व्यापारी और जिनदास आदि उत्तम श्रावक रहते थे। एक समय समुद्रदत्त नाम के व्यापारी अति प्राचीन एक सरोवर को खुदाने लगा। उसे खोदने वाले मनुष्यों को पूर्व में वहाँ रखे हुए बहुत काल के कारण मलिन बने हुए सुवर्ण सिक्के मिले। फिर लोहा समझकर वे व्यापारी के पास ले गये और जिनदास ने लोहा समझकर उसमें से दो सिक्के लिए, बाद में सम्यग् रूप से देखते सुवर्ण के जानकर उसने परिग्रह परिमाण का उल्लंघन होने के भय से उस सिक्के को श्री जिनमंदिर में अर्पण कर दिये और दूसरे नहीं लिये, परंतु उसे सुवर्ण जानकर नंद ने अधिक मूल्य देकर उसे लेने लगा और उनको कहने लगा कि अब लोहे के सिक्कों को अन्य व्यापारी को मत देना, मैं तुम्हें इच्छित मूल्य दूँगा, उन्होंने वह स्वीकार किया। दूसरे दिन उसका मित्र उसे जबरदस्ती भोजन के लिए अपने घर ले गया, उस समय अपने पुत्र को कहा कि-सिक्के जितने मिलें वह जितना मूल्य माँगे उतना देकर ग्रहण करना, पुत्र ने वह स्वीकार किया और स्वयं मित्र के घर भोजन करने गया । और वह अत्यंत व्याकुल चित्त से खाकर वापिस घर की ओर चला। इधर परमार्थ नहीं जानने के कारण उस पुत्र ने बहुत मूल्य जानकर सिक्के नहीं लिये, और गुस्से में आकर वे अन्य स्थान पर चले गये। फिर इधर-उधर घूमते किसी तरह मैल दूर होने से एक सिक्के का सुवर्ण प्रकट हुआ इससे राजपुरुषों ने उनको पकड़कर राजा को सौंपा, राजा ने पूछा कि अन्य सिक्के कहाँ बेचे हैं उसे कहो ! ।। ५९०० ।। उन्होंने कहाहे राजन्! दो सिक्के जिनदास सेठ को दिये हैं और शेष सब नंद व्यापारी को दिये हैं। इस तरह कहने पर राजा ने जिनदास को बुलाकर पूछा, उसने अपना सारा वृत्तांत यथास्थित सुनाया। तब राजा ने सन्मान करके उसे अपने घर भेजा। इधर नंद अपनी दूकान पर आया और पुत्र से पूछा कि - अरे ! क्यों सिक्के लिये या नहीं लिये? उसने कहा—पिताजी! बहुत मूल्य होने से वह नहीं लिये। इससे छाती कूट ली- 'हाय ! मैं लूटा गया ।' ऐसा बोलते नंद ने 'इन पैरों का दोष है कि जिसके द्वारा मैं पर घर गया।' ऐसा मानकर सिक्कों से अपने पैरों को तोड़ा। उसके बाद राज सैनिको द्वारा पकड़ा गया और राजा ने उसका वध करने की आज्ञा दी और उसका सर्व धन लूट लिया, इत्यादि इच्छा की विरति बिना के जीवों को बहुत दोष लगते हैं, इसलिए हे तपस्वी ! परिग्रह में मन को जरा भी लगाना नहीं। देखते ही क्षण में नाश होने वाला वह है इसलिए धीर पुरुष उसकी इच्छा कैसे करे ? इस तरह परिग्रह विषयक पांचवाँ पाप स्थानक कहा। अब क्रोध का स्वरूप कहते हैं । वह इस प्रकार :― For Personal & Private Use Only 251 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - प्रथम अनुशास्ति द्वार-क्रोध पाप स्थानक द्वार प्रसन्नचंद्र राजर्षि की कथा (६) क्रोध पाप स्थानक द्वार :- दुर्गंध वस्तु में से उत्पन्न हुआ दुर्गंधमय क्रोध से किसको उद्वेग नहीं होता है। इसलिए ही पंडितों ने इसका दूर से ही त्याग किया है। और महान क्रोधाग्नि की ज्वालाओं के समूह से अधिकतया ग्रसित—जला हुआ, अविवेकी पुरुष तत्त्व से अपने को और पर को नहीं जान सकता। अग्नि जहाँ होती है वहाँ ईंधन को प्रथम जलाती है वैसे क्रोध उत्पन्न होते ही जिसमें उत्पन्न हुआ उसी पुरुष को प्रथम जलाता है। क्रोध करने वाले को क्रोध अवश्य जलाता है, दूसरे को जलाने में एकांत नहीं है उसे जलाये अथवा नहीं भी जलाये। अथवा अग्नि भी अपने उत्पत्ति स्थान को जलाती है दूसरे को जलाए वह नियम नहीं है। अथवा जो अपने आश्रय वाले को अवश्य जलाता है, वह अपनी शक्ति के योग से क्षीण हुआ महापापी क्रोधान्ध दूसरे की ओर आग फेंकता है और क्या कर सकता है? क्रोध रूपी कलह से कलुषित मन वाले जिस पुरुष का दिन क्रोध करने में ही जाता है, वह नित्य क्रोधी मनुष्य इस जन्म या पर- जन्म में सुख की प्राप्ति कैसे कर सकता है? वैरी भी निश्चय एक ही जन्म में अपकार करता है और क्रोध दोनों जन्मों में महाभयंकर अपकारी होता है। जिस कार्य को उपशम वाला सिद्ध करता है, उस कार्य को क्रोधी कदापि नहीं कर सकता, कारण कि कार्य करने में दक्षनिर्मल वह बुद्धि क्रोधी को कहाँ से हो सकती है? और भी कहा है महापापी क्रोध उद्वेगकारी, प्रिय बंधुओं का नाश करने वाला, संताप कारक और सद्गति को रोकने वाला है। इसलिए विवेकी पुरुष कभी भी हजारों पंडितों द्वारा निंदनीय स्वभाव से ही पापकारी क्रोध के वश नहीं होते हैं। जीव क्रोध से प्राणी का अथवा प्राण का नाश करता है । मृषा वचन बोलता है, अदत्त ग्रहण करता है, ब्रह्मचर्य व्रत को भंग करता है, महाआरंभ और परिग्रह संग्रह करनेवाला भी होता है। अधिक क्या कहें? क्रोध से सर्व पाप स्थानक का सेवन होता है। उसमें निष्पक्ष तूं क्षमा रूपी तीक्ष्ण तलवार महा प्रतिमल्ल क्रोध को चतुराई से खत्म कर उपशम रूपी विजय लक्ष्मी को प्राप्त कर । क्रोध दुःखों का निमित्त रूप है और केवल एक उसका प्रतिपक्षी उपशम सुख का हेतुभूत है। ये दोनों भी आत्मा के आधीन हैं, इसलिए उसका उपशम करना ही यही श्रेष्ठ उपाय है। मन से भी क्रोध किया जाये तो नरक का कारण बनता है और मन से उसका उपशम किया हो तो वह मोक्ष के लिए होता है। यहाँ पर दोनों विषय में प्रसन्नचंद्र राजर्षि का दृष्टांत है ।। ५९२३ ।। वह इस प्रकार : प्रसन्नचंद्र राजर्षि की कथा पोतनपुर के राजा प्रसन्नचंद्र ने उग्र विषधर सर्पों से भरे घट के समान राज्य को छोड़कर श्री वीर परमात्मा के पास दीक्षा स्वीकार की। फिर जगत गुरु के साथ विहार करते वे राजगृह में आये और वहाँ परि के समान दो भुजाओं को सम्यग् लम्बी कर काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। इसके बाद श्री जिनेश्वर भगवान को वंदन करने के लिए श्रेणिक राजा सैन्य सहित जा रहा था। दो अग्रसर दुर्मुख और सुमुख नाम के दो दूतों ने उस महाऋषि को देखा और सुमुख ने कहा कि - यह विजयी है और इनका जीवन सफल है, क्योंकि इन्होंने श्रेष्ठ राज्य को छोड़कर इस प्रकार दीक्षा स्वीकार की है। यह सुनकर दुर्मुख ने कहा कि - भद्र! इनकी प्रशंसा से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वयं नपुंसक (कायर) है, निर्बल पुत्र को राज्य पर बैठाकर, शत्रुओं के भय से पाखंड स्वीकारकर वह इस तरह रहता है और राज्य, पुत्र तथा प्रजा भी शत्रुओं से पीड़ित हो रही है। इस तरह सुनकर तत्काल धर्म ध्यान की मर्यादा भूलकर प्रसन्नचंद्र मुनि कुपित होकर विचार करने लगे कि - मैं जीता हूँ, फिर मेरे पुत्र और राज्य पर कौन उपद्रव करने वाला है? मैं मानता हूँ कि सीमा के राजाओं की यह दुष्ट कारस्तानी है, इसलिए उनका नाश करके राज्य को स्वस्थ करूँगा । इस तरह काउस्सग्ग ध्यान में रहें मन से पूर्व के समान उनके साथ युद्ध करने लगे। 252 For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और समाधि लाभ द्वार-प्रथन अनुशास्ति द्वार-मान पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला इधर प्रसन्नचंद्र मुनि को धर्म ध्यान में स्थिर हुए देखकर श्रेणिक राजा 'अहो! यह महात्मा किस तरह ध्यान में स्थिर है?' इस तरह आश्चर्य रस से विस्मित हुए और भक्ति के समूह को धारण करते सर्व प्रकार से आदरपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार करके विचार करने लगे कि-ऐसे शुभ ध्यान से युक्त हो और यदि मर जाये तो यह महानुभव कहाँ उत्पन्न होंगे? ऐसा भगवंत को पूछंगा। ऐसा विचार करते वह प्रभु के र जगत् पूज्य श्री वीर परमात्मा से पूछा कि-भगवंत! इस भाव में रहने वाले प्रसन्नचंद्र मुनि मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे? वह मुझे कहो? प्रभु ने कहा कि सातवीं नरक में उत्पन्न होगा। इससे राजा ने सोचा की निश्चय मैंने अच्छी तरह नहीं सुना ऐसा विचार में पड़ा। यहाँ प्रश्नोत्तरी के बीच में मन द्वारा लड़ते और सर्व शस्त्र खत्म होने से मुकुट द्वारा शत्रु को मारने की इच्छा वाले प्रसन्नचंद्र मुनि ने सहसा हाथ को मस्तक पर रखा और केश समूह का लोच किये मस्तक का स्पर्श होते ही चेतना उत्पन्न हुई कि 'मैं श्रमण हूँ' इससे विषाद करते विशिष्ट शुभध्यान को प्राप्त किया जिससे उस महात्मा को उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त हुआ, और समीप में रहे देवों ने केवली की महिमा को बढ़ाया तथा दुंदुभी का नाद किया, तब राजा श्रेणिक ने पूछा कि-हे भगवंत! यह बाजे किस कारण बजे हैं? जगत पूज्य वीर प्रभु ने कहा कि-'ये देव प्रसन्नचंद्र मुनि के केवलज्ञान उत्पन्न होने का महोत्सव कर रहे हैं।' तब विस्मयपूर्वक श्रेणिक ने प्रभु को पूर्वापर वचनों के विरोध का विचार करके पूछा कि-हे नाथ! इसमें नरक और केवलज्ञान होने का क्या कारण है? उस समय प्रभु ने यथास्थित सत्य कहा। ऐसा जानकर हे क्षपक मुनि! क्रोध का त्याग करने से प्रशम रस की सिद्धि प्राप्त होती है, अतः अति प्रसन्न मन वाले तूं विशुद्ध आराधना को प्राप्त कर। इस तरह क्रोध नाम का छट्ठा पाप स्थानक कहा। अब मान नाम का सातवें पाप स्थानक के विषय में कुछ कहते हैं। (७) मान पाप स्थानक द्वार :- मान संतापकारी है, मान अनर्थों के समूह को लाने वाला मार्ग है, मान पराभव का मूल है और मान प्रिय बंधुओं का विनाशक है। मान रूपी बड़े ग्रह के आधीन हुए अक्कड़ता के दोष से अपने यश और कीर्ति का नाश करता है तथा सर्वत्र तिरस्कार पात्र बनता है। यह महापाप मान लघुता का मूल कारण है, सद्गति के मार्ग का घातक है, दुर्गति का मार्ग है और सदाचार रूपी पर्वत को नाश करने में वज्र के समान है। मान के द्वारा अक्कड़ शरीर वाला हित अहित को नहीं जानता है। क्या इस जगत में मैं भी किसी प्रकार से कम अथवा क्या गुण रहित हूँ? इस तरह कलुषित बुद्धि आधीन बना व्यक्ति संयम का मूलभूत जो विनय है उस विनय को वह नहीं करता, विनय रहित में ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, और ज्ञान के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं है। चारित्र गुण से रहित जगत में विपुल निर्जरा नहीं कर सकता, उसके अभाव में मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के अभाव में सुख कैसे हो सकता है? मान रूपी अंधकार के समूह से पराभूत, मूढ़ कर्त्तव्य अकर्त्तव्य में मुरझाकर बार-बार गुण रहित व्यक्तियों का अतिमान करके गुणवंतों का अपमान करता है, इससे बुद्धि भ्रष्ट होती है, पापी बना गोष्ठा माहिल्ल के समान सर्व सुखों का मूलभूत सम्यक्त्व रूप कल्पवृक्ष को भी मूल में से ही उखाड़ देता है। इस तरह मानांध पुरुष अशुभ नीच गोत्र कर्म का बंधकर नीच में भी अति नीच बनकर अनंत संसार में परिभ्रमण करता है। तथा विषय आदि की आसक्ति अथवा घरवास का त्यागकर भी चरण-करण गुणों के बाह्य चारित्र को प्राप्त करता है, अति उग्र तप आदि कष्टकारी अनुष्ठान आचरण करता है। हम ही त्यागी हैं, हम ही बहुत श्रुतवान, हम ही गुणी और हम ही उग्र क्रिया वाले हैं अन्य तो कुत्सित मात्र वेषधारी हैं। अहो! यह कष्ट है कि इस तरह विलास प्राप्त 253 For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-मान पाप स्थानक द्वार - बाहुबली का दृष्टांत होते मान रूपी अग्नि से पूर्व में किये विद्यमान भी अपने गुणरूपी वन को जला देते हैं? ऐसे मान को धिक्कार है, धिक्कार है। और विपरीत धर्माचरण वाले तथा आरंभ - परिग्रह से भरे हुए स्वयं मूढ़ पापी मानी पुरुष अन्य मनुष्यों को भी मोह मूढ़ करके जीव समूह की हिंसा करते हैं । सदा शास्त्र विरुद्ध कर्मों को करते हैं और भी गर्व करते हैं कि इस जगत में धर्म के आधारभूत पालन करने वाले हम ही हैं। शाता, रस और ऋद्धि गारव वाले, द्रव्य क्षेत्रादि में ममता करने वाले और अपनी-अपनी क्रिया के अनुरूप जिनमत की भी उत्सूत्र प्ररूपणा करने वाले, द्रव्य क्षेत्रादि के अनुरूप अपना बल-वीर्य आदि होने पर भी चरण-करण गुणों में यथाशक्ति उद्यम नहीं करते, अपवाद मार्ग में आसक्त, ऐसे लोगों से पूजित मानी पुरुष इस शासन में 'हम ही मुख्य हैं इस प्रकार अपने बड़प्पन और अभिमान से काल के अनुरूप क्रिया में रक्त संवेगी, गीतार्थ, श्रेष्ठ मुनिवर आदि की 'यह तो माया आदि में परायण - कपटी है' इस तरह लोगों के समक्ष निंदा करता है, और अपने आचार के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला ममत्व से बद्ध पासत्था लोग को 'यह कपट से रहित है' ऐसा बोलकर उसकी प्रशंसा करते हैं और इस तरह अशुभ आचरण वाले वे ऐसा कठोर कर्म का बंध करते हैं कि जिससे अतीव कठोर दुःखों वाली संसार रूपी अटवी में बार-बार परिभ्रमण करते हैं। मनुष्य जैसे-जैसे मान करता है, वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है और क्रमशः गुणों का नाश होने से उसे गुणों का अभाव हो जाता है। और गुण-संयोग से सर्वथा रहित पुरुष जगत में उत्तम वंश में जन्मा हुआ भी गुण रहित धनुष्य के समान इच्छित प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता है। इसलिए स्व पर उभय कार्यों का घातक और इस जन्म पर - जन्म में कठोर दुःखों को देने वाले मान का विवेकी पुरुष दूर से सर्वथा यत्नपूर्वक त्याग करते है। इसलिए हे सुंदर ! निर्दोष आराधना (मोक्ष संबंधी) की इच्छा करता है तो तूं भी मान को त्याग दें, क्योंकि प्रतिपक्ष का क्षय करने से स्वपक्ष की सिद्धि होती है, ऐसा कहा है। जैसे बुखार चले जाने से शरीर का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रकट होता है, वैसे यह मान जाता है तब आत्मा का श्रेष्ठ स्वास्थ्य प्रकट होता है तथा उसी तरह ही आराधना रूपी पथ्य आत्मा को गुण करता है। सातवाँ पाप स्थानक मान के दोष से बाहुबली ने निश्चय ही क्लेश प्राप्त किया और उससे निवृत्त होते ही उसी समय केवल ज्ञान प्राप्त किया । । ५९७१ । । यह इस प्रकार है : बाहुबली का दृष्टांत तक्षशिला नामक नगर के अंदर इक्ष्वाकु कुल में जन्मे हुए जगत् प्रसिद्ध बाहुबली यथार्थ नाम वाला श्री ऋषभदेव का पुत्र राजा था । अट्ठानवें छोटे भाईयों ने दीक्षा लेने के बाद भरतचक्री की सेवा को नहीं स्वीकारने से भरत ने बाहुबली को इस प्रकार कहा- राज्य को शीघ्र छोड़ दो अथवा आज्ञा पालन कर अथवा अभी ही युद्ध में तैयार होकर सन्मुख आ जाओ। यह सुनकर असाधारण भुजा बल से अन्य सुभटों को जीतने वाला बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती के साथ युद्ध प्रारंभ किया । वहाँ मदोन्मत्त हाथी मरने लगे, योद्धाओं का विशेष रूप में नाश होने लगा, कायर पुरुष भागने लगे, रथों के समूह टूट रहे थे, योगीनिओं का समूह आ रहा था, फैलता हुआ खून चारों तरफ दिख रहा था, मानो भयंकर यम का घर हो, ऐसा दिखता था । महान भय का एक कारण, बाणों से आच्छादित भूतल वाला, हाथी के झरते मदरूपी बादल वाला, सूर्य को चिंता कराने वाला अथवा शूरवीर के बाण फेंकने की प्रवृत्ति वाला, मांस भक्षण के लिए घूमते तुष्ट याचकों वाला और अनेक लोगों की मृत्यु रण मैदान में देखकर एक दयारस से युक्त मन वाला महायशस्वी बाहुबली बोला - हे भरत ! इन निरपराधी लोगों को मारने से क्या लाभ है? वैर परस्पर हम दोनों का है, अतः हम और आप लड़ेंगे। 1 भरत ने स्वीकार किया, उसके बाद 1. अन्य कथानकों में इन्द्र द्वारा कहने का कथन है। 254 For Personal & Private Use Only . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-माया पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला वे दोनों लड़ने लगे, इसमें बाहुबली ने भरत को सर्व प्रकार से हराया। इससे भरत चक्री विचार करने लगा किक्या मैं चक्री नहीं हूँ? क्योंकि सामान्य मनुष्य के समान में सर्व प्रकार से इसके भुजा बल के द्वारा हार गया हूँ। ऐसी चिंता करते भरत के करकमल में चमकते बिजली के समान चंचल और यम के प्रचंड दंड के समान उसके दख सके ऐसा दड रत्न आ गया। तब ऐसा देखकर, बाहुबली की, क्रोधाग्नि बढ़ गई। क्या दंड सहित इसको चकनाचूर कर दूं? इस तरह एक क्षण विचार करके अल्प शुद्ध बुद्धि प्रकट हुई और विचार करने लगा कि-विषय षय के अनुराग को धिक्कार है कि जिसके कारण जीवात्मा मित्र, स्वजन और बंधुओं को भी तृण तुल्य भी नहीं गिनते, तथा अकार्य को करने के लिए भी उद्यम करते हैं। इससे विषय वासना में वज्राग्नि लगे। ऐसा चिंतन करते उसे वैराग्य हुआ और उस महात्मा ने स्वयंमेव लोच करके दीक्षा स्वीकार की। फिर 'प्रभु के पास गया तो मैं छोटे भाईयों को वंदन किस तरह करूँगा? ऐसे अभिमान दोष के कारण ध्यान में खड़ा रहा और 'केवल ज्ञान होने के बाद वहाँ जाऊंगा।' ऐसी प्रतिज्ञा करके निराहार खड़ा रहा। एक साल बाद वह कृश हो गया। एक साल के अंत में श्री ऋषभदेव ने ब्राह्मी और सुंदरी दो साध्वियों को भेजा। साध्वियों ने आकर कहा कि-हे भाई! परम पिता परमात्मा ने फरमाया है कि-'क्या हाथी के ऊपर चढ़ने से कभी केवल ज्ञान होता है?' ये शब्द सुनने के पश्चात् जब उस पर सम्यग् रूप से विचार करने लगे तब 'मान यही हाथी है' ऐसा जानकर शुद्ध भाव प्रकट हुए और उस मान को छोड़कर प्रभु के चरणों में जाने के लिए पैर उठाया, उसी समय श्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति होने से पूर्ण प्रतिज्ञा वाले बनें। इस तरह हे महात्मा क्षपक! मान कषाय की प्रवृत्ति और विरति से होने वाले दोष, गुणों का शुद्ध बुद्धि से विचारकर तूं इस आराधना की साधनाकर दर्शन, ज्ञान सहित श्रेष्ठ चारित्र गुण से युक्त अनंत शिव सुख को प्राप्त कर। इस तरह मान विषयक सातवाँ पाप स्थानक कहा है. अब माया विषयक आठवाँ पाप स्थानक को कछ अल्पमात्र कहते हैं। (८) माया पाप स्थानक द्वार :- माया उद्वेग करने वाली है इसकी धर्म शास्त्रों में निंदा की है, वह पाप की उत्पत्ति रूप है और धर्म का क्षय करने वाली है। माया गुणों की हानिकारक है, दोषों को स्पष्ट रूप में बढ़ाने वाली है और विवेक रूपी चंद्र बिंब को गलाने वाली एक राहु ग्रह के जैसी है। ज्ञानाभ्यास किया, दर्शन का आचरण किया, चारित्र पालन लिया और अति चिरकाल तप भी किया परंतु यदि माया है तो वह सर्व नष्ट हो जाता है। इससे परलोक की तो बात तो दूर रही, परंतु मायावी मनुष्य यद्यपि अपराधकारी नहीं होता है फिर भी इस जन्म में ही सर्प के समान भयजनक दिखता है। मनुष्य जैसे-जैसे माया करता है, वैसे-वैसे लोक में अविश्वास प्रकट करता है और अविश्वास के कारण आकड़े की रुई से भी हल्का बन जाता है ।।६०००।। इसलिए हे सुंदर! इस विषय का विचारकर। माया का सर्वथा त्याग कर, क्योंकि माया के त्याग से निर्दोष शुद्ध सरलता गुण प्रकट होता है। सरलता से पुरुष जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ लोग उसकी 'यह सज्जन है, सरल स्वभावी है' इस प्रकार प्रशंसा करते हैं। मनुष्यों की प्रशंसा को प्राप्त करने से शीघ्रता से गुण प्रकट होते हैं, इसलिए गुण समूह के अर्थी को माया त्याग करने में प्रयत्न करना ही योग्य है। प्रथम मधुर फिर खट्टी छाश के समान प्रथम मधुरता बताकर फिर विकार दिखाने वाला मायावी मनुष्य मधुरता को छोड़ने से जगत को रुचिकर नहीं होता यहाँ पर आठवें पाप स्थानक के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टांत है अथवा दोष-गुण में यथाक्रम दो वणिक पुत्रों का भी दृष्टांत है ।।६००५ ।। वह इस प्रकार है : 1. अन्य कथानकों में चक्रवर्ती द्वारा चक्ररत्न को याद कर चक्ररत्न फेंकने का वर्णन आता है। 255 For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-माया पाप स्थानक द्वार-साध्वी पंडरा आर्या की कथा-दो वणिक पुत्र की कथा साध्वी पंडरा आर्या की कथा एक शहर में धनवान उत्तम श्रावक के विशाल कुल में एक पुत्री ने जन्म लिया, और उसने संसार से वैराग्य प्राप्तकर दीक्षा स्वीकार की, उत्तम साध्वियों के साथ रहती हुई भी वह ग्रीष्म ऋतु में मलपरीषह को सहन नहीं कर सकी। अतः शरीर और वस्त्रों को साफ सुथरा करती थी, इससे साध्वी उसको प्रेरणा करती कि ऐसा करना साध्वी के लिए योग्य नहीं है। ऐसा सहन नहीं करने से वह अलग उपाश्रय में रहने लगी। वहाँ उज्ज्वल वस्त्र और शरीर साफ रखने से लोग में 'पंडरा आर्या' इस नाम से प्रसिद्ध हुई, और वह अपनी पूजा के लिए विद्या के बल से नगर के लोगों को आश्चर्यचकित तथा भयभीत करती थी, परंतु अंतिम उम्र में किसी प्रकार परम वैराग्य को प्राप्त कर उसने सद्गुरुदेव समक्ष पूर्व के दुराचारों का प्रायश्चित्त करके, संघ समक्ष अनशन स्वीकार किया और शुभ ध्यान में रहकर भी केवल अपने पूजा सत्कार के लिए मंत्र प्रयोग से लोगों को आकर्षण करने लगी। नगर के लोग हमेशा उसके पास आते देखकर गुरु ने कहा कि-हे महानुभाव! तुझे मंत्र का प्रयोग करना योग्य नहीं है। गुरु के शब्दों से उसने 'मिच्छा मि दुक्कडं देकर पुनः नहीं करूँगी। आपने जो प्रेरणा की वह बहुत अच्छा किया।' इस तरह उत्तर दिया। फिर पुनः एक दिन एकांत में नहीं रह सकने से उसने फिर लोगों को आकर्षण किया और गुरु ने उसका निषेध किया। इस तरह जब चार बार निषेध किया तब उसने माया युक्त कहा कि-हे भगवंत! मैं कुछ भी विद्या बल का प्रयोग नहीं करती हूँ, किन्तु ये लोग स्वयमेव आते हैं। इस तरह उसने माया के आधीन बनकर आराधना का फल गुमा दिया और अंतिम समय में मरकर सौधर्म कल्प में ऐरावण नामक देव की देवी रूप बनी। इस तरह माया के दोष में पंडरा साध्वी का दृष्टांत कहा है। अब दोष और गुण दोनों का पूर्व में कहा था उन वणिकों का दृष्टांत कहता हूँ। दो वणिक पुत्र की कथा पश्चिम विदेह में दो व्यापारी मित्र रहते थे। उसमें एक मायावी और दूसरा सरलता युक्त था, इस तरह दोनों चिरकाल व्यापार करते मर गये और भरत क्षेत्र में सरलता वाले जीव ने युगलिक रूप में जन्म लिया और दूसरा मायावी हाथी रूप में उत्पन्न हुआ। किसी समय परस्पर दर्शन हुआ, फिर मायावश बंध किये आभियोगिक कर्म के उदय से हाथी ने पूर्व संस्कार की प्रीति से उस युगलिक दंपति को कंधे के ऊपर बैठाकर विलास करवाया। इस तरह मायावी का अनर्थ और उससे विपरीत सरलता के गुण को देखकर हे क्षपक मुनि! माया रहित बनकर तूं सम्यग् आराधना को प्राप्त कर। इस तरह आठवाँ पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है। अब लोभ के स्वरूप को बताने में परायण नौवाँ पाप स्थानक को कहते हैं। (७) लोभ पाप स्थानक द्वार :- जैसे पूर्व में न हो, फिर भी वर्षा के बादल प्रकट होते हैं और प्रकट होने के बाद बढ़ते हैं, वैसे पुरुष में लोभ न हो तो प्रकट होता है तथा हर समय बढ़ता जाता है और लोभ के बढ़ते पुरुष कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के विचार बिना का हो जाता है, मृत्यु को कुछ भी नहीं गिनता, महासाहस को करता है। लोभ से मनुष्य पर्वत की गुफा में और समुद्र की गहराई में प्रवेश करता है तथा भयंकर युद्ध भूमि में भी जाता है तथा प्रिय स्वजनों को तथा अपने प्राणों का भी त्याग करता है। तथा लोभी को उत्तरोत्तर इच्छित धन की अत्यंत प्राप्ति हो जाती है, फिर भी तृष्णा ही बढ़ती है तथा स्वप्न में भी तृप्ति नहीं होती है। लोभ अखंड व्याधि है, स्वयंभूरमण समुद्र के समान किसी तरह शांत नहीं होने वाला है, जैसे ईधन से अग्नि बढ़ती है, वैसे लाभ रूपी ईंधन से अत्यंत वृद्धि को प्राप्त करता है। लोभ सर्व विनाशक है, लोभ परिवार में मनोभेद करने वाला 256 For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-लोभ पाप स्थानक द्वार-कपिल ब्राह्मण की कथा श्री संवेगरंगशाला है और लोभ सर्व आपत्तियों वाला दुर्गति में जाने के लिए राजमार्ग है। इसके द्वारा घोर पापों को बढ़ाकर उसके प्रायश्चित्त किये बिना का मनुष्य अति चिरकाल तक संसार रूपी भयंकर अटवी में बार-बार परिभ्रमण करता है। और जो महात्मा लोभ के विपाक को जानकर विवेक से उससे विपरीत चलता है, अर्थात संतोष भाव को रखता है वह उभय लोक में सुख का पात्र बनता है। इस पाप स्थानक में कपिल ब्राह्मण दृष्टांत रूप है कि जो दो मासा की इच्छा करने वाला भी करोड़ सुवर्ण मोहर लेने की इच्छा वाला हुआ और उसके प्रतिपक्ष-संतोष में भी समग्र स्थूल और सूक्ष्म भी लोभ के अंश को नाश करने वाला और केवल ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करने वाला उस कपिल का ही दृष्टांत है ।।६०३२।। वह इस प्रकार : कपिल ब्राह्मण की कथा कौशाम्बी नगर में यशोदा नामक ब्राह्मणी थी, उसको कपिल नाम का पुत्र था, वह छोटा था उस समय उसके पिता की मृत्यु हुई। एक समय पति के समान उम्र वाला दूसरा वैभव संपन्न ब्राह्मण को देखकर पति का स्मरण हो आया इससे वह रोने लगी, तब माता को कपिल ने पूछा कि-माता! आप क्यों रो रही हो? उसने कहा कि-हे पुत्र! इस जीवन में मुझे बहुत रोना है। उसने कहा-किसलिए? माता ने कहा कि-हे पुत्र! जितनी संपतियाँ इस ब्राह्मण के पास हैं उतनी संपतियाँ तेरे पिता के पास थीं, परंतु तेरे जन्म के बाद वह सब संपत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं। कपिल ने कहा कि-कौन से गुण द्वारा मेरे पिता ने धन प्राप्त किया था। उसने कहा कि उन्होंने वेद की कुशलता से धन प्राप्त किया था। प्रतिकार करने की इच्छा रूपी रोषपर्वक कपिल ने कहा कि मैं भी वैसा अभ्यास करूँगा। माता ने कहा-श्रावस्ती में तेरे पिता के मित्र इन्द्रदत्त नाम के उपाध्याय के पास जाकर इस प्रकार का अभ्यास कर। हे पुत्र! यहाँ पर तुझे सम्यक् प्रकार से अध्ययन कराने वाले कोई नहीं हैं। उसने माता की आज्ञा स्वीकार की और वह श्रावस्ती पुरी में इन्द्रदत्त उपाध्याय के पास गया, उसने आने का कारण पूछा? तब उसने सारा वृत्तांत कहा। अपने प्रिय मित्र का पुत्र जानकर उपाध्याय ने उसे आलिंगन किया और कहा कि वत्स! सांगोपांग चारों वेदों का अभ्यास कर, परंतु इस नगर में समृद्धशाली धन सेठ को तूं भोजन के लिए प्रार्थना कर। सेठ को प्रार्थना की, सेठ ने भी आदरपूर्वक अपनी एक दासी से कहा कि इस विद्यार्थी को प्रतिदिन भोजन करवाना। इस तरह भोजन की हमेशा व्यवस्थाकर वह वेद का अभ्यास करने लगा। किंत. आदर से. प्रतिदिन भोजन देने से और परिचय से उसे दासी के ऊपर अत्यंत राग हो गया। एक दिन उस दासी ने उससे कहा कि-कल उत्सव का दिन होने से विविध सुंदर श्रृंगार करके अपने-अपने कामुक द्वारा भेंट दिये विशिष्ट वस्त्रादि से रमणीय नगर की रमणियाँ कामदेव की पूजा करने जायेंगी और उनके बीच में खराब कपड़े वाली, मुझे देखकर सखी हँसेंगी, इसलिए हे प्रियतम! आपको मैं प्रार्थना करती हूँ कि ऐसा कार्य करो कि जिससे मैं हँसी का पात्र न बनें। ऐसा सुनकर कपिल उससे दुःखी हुआ, रात्री को निद्रा खत्म होते ही दासी ने पुनः उससे कहा-हे प्रिये! संताप को छोड़ो, आप राजा के पास जाओ, जो ब्राह्मण राजा को प्रथम जागृत करता है, उसे हमेशा दो मासा सोना देकर सत्कार करता है। यह सुनकर रात्री के समय का विचार किये बिना ही कपिल घर से निकल गया, इससे जाते हुए उसे कोतवाल ने 'यह चोर है' ऐसा मानकर पकड़ लिया और प्रभात में राजा को सौंपा। आकृति से उसके हृदय को जानने में कुशल राजा ने यह निर्दोष है ऐसा जानकर पूछा कि-हे भद्र! तूं कौन है? उसने भी अपना सारा वृत्तांत मूल से लेकर कहा, इससे करुणा वाले राजा ने कहा किहे भद्र! जो माँगेगा, उसे मैं दूंगा। कपिल ने कहा कि-हे देव! एकांत में विचार करके माँगूंगा, राजा ने स्वीकार किया। फिर वह एकांत में बैठकर विचार करने लगा कि-दो मासा सुवर्ण से मेरा कुछ भी नहीं होने वाला है, 257 For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-प्रेन पाप स्थानक द्वार दस सोना मोहर की याचना करूँ, परंतु उससे क्या होगा, केवल कपड़े ही बनेंगे? अतः बीस सुवर्ण मोहर की माँग करूँ अथवा उस बीस मोहर से आभूषण भी नहीं बनेंगे, इसलिए सौ मोहर माँगूंगा तो अच्छा रहेगा। इतने में उसका क्या होगा और मेरा भी क्या होगा? इससे तो हजार माँगें, परंतु इतने से भी क्या जीवन का निर्वाह हो जायगा? इससे अच्छा है कि दस हजार मोहर की याचना करूँ, इस तरह करोड़ों मोहर की याचना की भावना हुई, और इस तरह उत्तरोत्तर बढ़ती प्रचंड धन की इच्छा से मूल इच्छा से अत्यधिक बढ़ जाने से उसने इस प्रकार विचार किया। जहा लाभो तहा लोभो लाभाल्लोभो पवड्ढइ। दो मासकयं कज्जं, कोडीए वि न निट्ठियं ।।६०५९।। जैसे लाभ है वैसे लोभ होता है, इस तरह लाभ से लोभ बढ़ता है, दो मासा से कार्य करने के लिए यहाँ आया था परंतु अब करोड़ से भी इच्छा पूर्ण नहीं हुई। अरे! लोभ की चेष्टा दुष्ट से भी दुष्ट है। ऐसा विचार करते उसने पूर्व जन्म में दीक्षा ली थी वह जाति स्मरण ज्ञान होने से संवेग प्राप्त किया और दीक्षा अंगीकार कर राजा के पास गया, राजा ने पूछा कि-हे भद्र! इस विषय में तूंन क्या विचार किया? कपिल ने करोड़ सोना मोहर की इच्छा का अपना व्यतिकर कहा। राजा ने कहा कि-करोड़ मुहर भी दूँगा इसमें कोई संदेह नहीं है। 'अब मुझे परिग्रह से कोई प्रयोजन नहीं है।' ऐसा कहकर कपिल राजमहल से निकल गया और चारित्र की आराधना कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस तरह हे सुंदर! दुर्जन भी लोभ शत्रु को संतोष रूपी तीक्ष्ण तलवार से जीतकर निश्चय तूं आत्मा की निर्वृत्ति-मुक्ति को प्राप्त कर। इस तरह लोभ नाम का नौवाँ पाप स्थानक कहा है। अब प्रेम (राग) नामक दसवाँ पाप स्थानक भी सम्यग् रूप से कहते हैं। (१०) प्रेम (राग) पाप स्थानक द्वार :- इस शासन में अत्यंत लोभ और माया रूपी आसक्ति के केवल आत्म परिणाम को ही श्री जिनेश्वर भगवंतों ने प्रेम अथवा राग कहा है। प्रेम अर्थात् निश्चय से पुरुष के शरीर के लिए अग्नि बिना का भयंकर जलन है, विष बिना की प्रकट हुई मूर्छा है और मंत्र-तंत्र से भी असाध्य ग्रह या भूत-प्रेत का आवेश है। अखंड नेत्र, कान आदि होने पर भी निर्बल है अर्थात् प्रेम के कारण आँखें होने पर भी अंधा और कान होने पर भी बहरा है, परवश है और महान् व्याकुल है अहो! ऐसे प्रेम को धिक्कार है। तथा ज्वर के समान प्रेम (राग) से शरीर में उद्वर्तन, दुर्बलता, परिताप, कंपन, निद्रा का अभाव, बार-बार उबासी और दृष्टि की अप्रसन्नता होती है। मच्र्छा प्रलाप करना. उद्वेग, और लम्बे उष्ण निश्वास आते हैं। इस तरह ज्वर के सदृश राग में अल्प भी लक्षण भेद नहीं है। राग के कारण से कुलीन मनुष्य भी नहीं चिंतन करने योग्य भी चिंतन करता है तथा हमेशा असत्य बोलता है, नहीं देखने योग्य देखता है, नहीं स्पर्श करने योग्य का स्पर्श भी करता है, अभक्ष्य को खाता है, नहीं पीने योग्य को पीता है, नहीं जाने योग्य स्थान में जाता है और अकार्य को भी करता है। और इस संसार में जीवों को विडम्बनकारी राग ही न हो तो अशुचिमल से भरी हुई स्त्री के शरीर से कौन राग करे? पंडित पुरुषों ने अशुचि, दुर्गंध बीभत्स रूप वाली स्त्री को जानकर जिसका त्याग किया है, उसके साथ में जो मूढ़ात्मा राग करता है, तो दुःख की बात है कि वह किसमें राग नहीं करता है? लज्जाकारी मानकर लोगों में निश्चय अनिष्ट पापरूप होने से जो ढंकने में आता है वही अंग उसको रम्य लगता है, तो आश्चर्य है कि उसे जहर भी मधुर लगता है। मरते समय स्त्री उच्छ्वास लेती है, श्वास छोड़ती है, नेत्र बंद करती है और अशक्त बनती है, तब उस रागी को भी वैसा ही करती है, फिर भी रागी को वह शरीर रमणीय लगता है ।।६०७६ ।। 258 For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रेम पाप स्थानक द्वार-अर्हन्नक की पत्नी और अहमित्र की कथा श्री संवेगारंगशाला __ अशुचि, अदर्शनीय, मैल से भरा हुआ, दुर्गंधमय देखने में दुःख होता है और अत्यंत लज्जास्पद, इसके कारण ही अत्यंत ढका हुआ तथा हमेशा अशुचि झरने वाला और ज्ञानी पुरुषों द्वारा निंदनीय, ऐसे स्त्री के गुप्त भाग में पराक्रमी पुरुष भी राग करता है। अतः राग के चरित्र को धिक्कार है। इस तरह शरीर के राग से उसकी मालिस और स्नान आदि द्वारा परिश्रम करता है वह ऐसा चिंतन नहीं करता कि इतना उपचार करने पर भी यह अपवित्र ही रहता है। ___इस तरह धन, अनाज, सोना, चाँदी, क्षेत्र, वस्तु में और पशु पक्षी आदि में राग से उस वस्तु की प्राप्ति के लिए स्वदेश से परदेश में जाता है और पवन से उड़े हुए सूखे पत्तों के समान अस्थिर चित्त वाला वह शारीरिक और मानसिक असंख्य तीव्र दुःखों का अनुभव करता है। अधिक क्या कहें? जगत में जीवों को जो-जो अति कठोर वेदनावाला दुःख होता है वह सब राग का फल है। जो कुंकुम को भी अपने मूल स्थान से देश का त्याग रूप परावर्तन और चूरण होता है अथवा मजीठ को मूल में से उखाड़ना आदि उबालना तक के कष्ट होते हैं तथा कुसुंभा को तपाया जाता है, खंडन और पैर आदि से मर्दन होता है, वह उसमें रहे द्रव्य के राग की ही दुष्ट चेष्टा जानना। राग द्वारा दुःख, दुःख से आर्त्त-रौद्र ध्यान और उस दुर्ध्यान से जीव इस लोक और परलोक में दुःखी होता है। जो जीवों का सर्व प्रकार से विपरीत करने वाला एक राग ही है। अर्थात् इस संसार का मूल कारण एक राग ही है और कोई हेतु का समूह नहीं हैं। और मनुष्य रागादि पदार्थ को जहाँ-तहाँ से कष्ट के द्वारा प्राप्त कर जैसे-जैसे उसे भोगता है वैसे-वैसे राग बढ़ता जाता है। जो बिंदुओं से समुद्र को भर सकता है, अथवा ईंधन से अग्नि को तृप्त कर सकता है, तो राग की तृष्णा को प्राप्त करने वाला पुरुष भी इस संसार में तृप्ति को प्राप्त कर सकता है। परंतु किसी ने इस जगत में ऐसा किया हुआ देखा अथवा सुना भी नहीं है, उससे विवेक होने पर विवेकी को राग पर विजय में प्रयत्न करना चाहिए, यही युक्त है। जगत में जीवों को जो-जो बड़े परंपरा वाला सुख होता है वह राग रूपी दुर्जय शत्रु पर अखंड विजय का फल है। जैसे उत्तम रत्नों के समूह के सामने कांच की मणि शोभायमान नहीं होती हैं वैसे राग पर विजय में सामने देवी अथवा मनुष्य का श्रेष्ठ सुख अल्पमात्र भी शोभायमान नहीं होता है। इस राग पाप स्थानक के दोष में अर्हन्नक की पत्नी और उसके वैराग्य के गुण में उसका अर्ह मित्र देवर का दृष्टांत है। वह इस प्रकार है : __ अर्हन्नक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा श्री क्षिति प्रतिष्ठित नगर में अर्हन्नक और अर्हमित्र नामक परस्पर दृढ़ प्रेमवाले दो भाई रहते थे। एक दिन तीव्र अनुराग वाली बड़े भाई की स्त्री ने छोटेभाई (देवर) को भोग करने की प्रार्थना की, और उसने बहुत बार रोका, फिर भी वह बलात्कार करती थी, तब उसने कहा कि क्या मेरे भाई को तूं नहीं देखती? इससे अनाचार वाली उसने पति को खत्म कर दिया और फिर उसने कहा-मैंने ऐसा कार्य किया है फिर भी मुझे क्यों नहीं चाहते? तब 'इस स्त्री ने मेरे भाई को मार दिया है' इस प्रकार निश्चय करके घर से वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने श्री भागवती दीक्षा स्वीकार की, तथा साधुओं के साथ अन्यत्र विहार किया। वह स्त्री आर्त्तध्यान के आधीन होकर मरकर कुत्ती हुई। साधु समूह के साथ में विचरते अर्हमित्र भी उस गाँव में आया जहाँ कुत्ती रहती थी। इससे पूर्व स्नेह के वश वह कुत्ती उनके पास में रहने लगी, दूर करने पर भी साथ रहने लगी, इससे उपसर्ग मानकर अर्हमित्र मुनि रात को कहीं भाग गये। कुत्ती भी उसके वियोग में मरकर जंगल में बंदरी रूप में जन्म लिया और वह महात्मा भी किसी तरह विहार करते उसी जंगल में पहुँचे।।६१००।। वहाँ बंदरी ने उसे देखा और पूर्व राग से वह उससे लिपट गई, शेष साधुओं ने महामुश्किल से 259 For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति दार-द्वेष पर-धर्मरुचि की कथा छुड़ाया और वह मुनि कहीं छुप गया, परंतु वह उसके विरह से मरकर यक्षिणी हुई। उसके छिद्र देखने लगी और विहार करते उस विरागी साधु को युवान साधुओं ने हँसीपूर्वक कहा-हे अहमित्र! तूं धन्य है या हे मित्र! तूं कुत्ती और पर्वत की बंदरी को भी प्रिय है। इस तरह मजाक करने पर भी कषाय रहित वह मुनि किसी समय जल प्रवाह को पार करने के लिए जंघा को लम्बी करके जब जाने लगा, तब गति भेद होने से पूर्व में क्रोधित बनी उस यक्षिणी ने उसके साथल काट दिये। अहो! दुष्ट हुआ, दुष्ट हुआ, अप्काय जीवों की विराधना न हो! ऐसा शुभ चिंतन करते वह जितने में अधीर बना, उतने में शीघ्र ही सम्यग् दृष्टि देवी ने उस यक्षिणी को पराजित करके टुकड़े सहित उसके साथल को जोड़कर पुनः अखंड बना दिया। इस तरह राग-प्रेम के वैराग्य में प्रवृत्ति करने वाला वह सद्गति को प्राप्त हुआ और राग से पराभूत वह यक्षिणी विडम्बना का पात्र बनी। इस तरह-हे देवानुप्रिय! तूं भी इष्ट अर्थ की सिद्धि के लिए श्री जिनवचन रूपी निर्मल जल से रागाग्नि को शांत कर। इस तरह दसवाँ पाप स्थानक संक्षेप से कहा है, अब द्वेष नामक ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहते हैं ।।६११०।। (११) द्वेष पाप स्थानक द्वार :- अत्यंत क्रोध और मान से उत्पन्न हुआ अशुभ आत्म परिणाम को यहाँ द्वेष कहा है। द्वेष अनर्थ का घर है, द्वेष भय, कलह और दुःख का भंडार है, द्वेष कार्य का घातक है और द्वेष अन्याय का भंडार है। द्वेष अशांति को करने वाला है, प्रेमी और मित्रों का द्रोह करने वाला है, स्व और पर उभय को संताप करने वाला है और गुणों का विनाशक है। द्वेष से युक्त पुरुष दूसरे के गुणों को भी दोष रूप में लेकर निंदा करता है और द्वेष से कलुषित मन वाला ही तुच्छ प्रकृति को धारण करता है, तुच्छ प्रकृति वाले को अन्य मनुष्य उसके विषय में भी जो-जो प्रवृत्ति करता है वह उसे निश्चय अपने विषय में मानता है और मूढ़ इस तरह से दुःखी होता है। दूसरे से कहे हुए धर्मोपदेश रूप रति के हेतु को भी वह जड़ात्मा पित्त से पीड़ित रोगी के समान शक्कर मिश्रित दूध को दूषित मानता है वैसे वह दूषित मानता है, इसलिए यदि रति का स्थान भी जिसके दोष से खेद का कारण बनता है उस पापी द्वेष को अवकाश देना योग्य नहीं है। निर्भागी द्वेष के पूर्व में जितने दोष कहे हैं, वह सुविशुद्ध प्रशमवाले को उतने ही गुण बनते हैं। द्वेष रूपी दावानल के योग से बार-बार जलता है, वह चित्त समाधि रूप बन समता रूपी जल की वर्षा से अवश्य पुनः नया संजीवन होता है। यहाँ पर द्वेष रूप पाप स्थानक से धर्मरुचि अणगार ने चारित्र अशुद्ध किया है और फिर संवेग को प्राप्त करके उस जीवन को ही उसने शुद्ध किया है।।६१२० ।। वह इस प्रकार से है : धर्मरुचि की कथा गंगा नामक महानदी में नंद नामक नाविक बहुत लोगों को मूल्य लेकर पार उतारता था। एक समय अनेक लब्धि वाले धर्मरुचि नाम के मुनिराज नाव से गंगा नदी पार उतरे, परंतु उनको नंद ने किराये के लिए नदी किनारे रोका। भिक्षा समय भी चला गया और सूर्य के किरणों से अति उष्ण रेती में गरमी के कारण से वे अति दुःखी हुए फिर भी उन्हें मुक्त नहीं किया, इससे क्रोधित हुए उस मुनि ने दृष्टि रूपी ज्वाला से उसे भस्मसात् कर अन्यत्र विहारकर गये। नाविक एक सभा स्थान में घरवासी कोयल बनी। साधु ने भी विचरते गाँव से आहार पानी लेकर भोजन करने के लिए उसी सभा में प्रवेश किया। उसे देखकर पूर्व के दृढ़ वैर से अति तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ। उसके भोजन प्रारंभ करते उस साधु के ऊपर ऊँचे स्थान से कचरे को फेंकने लगी। इससे उस स्थान को छोड़कर मुनि अन्य स्थान पर बैठे, वहाँ भी वह कचरा गिराने लगी, इससे दूसरे स्थान पर बैठे, वहाँ भी उसी तरह कचरा डाला, अतः क्रोधी बने धर्मरुचि मुनि ने भी 'यह नंद के समान कौन है?' ऐसा कहा और दृष्टि ज्वाला से जला दिया, तब वह नदी प्रवाह में रुके हुए गंगा किनारे हँस रूप में उत्पन्न हुआ, मुनि ने भी वहाँ से गाँव 260 For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-कलह पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला गाँव विचरते भाग्य योग से उस प्रदेश से जाते हुए किसी तरह हँस पक्षी को देखा, उसके बाद क्रोधातुर होकर वह जल भरी पाँखों से मुनि को जल के छींटे डालने लगा, इससे प्रचण्ड क्रोध से साधु ने उसे जला दिया और वहाँ से मरकर अंजन नामक बड़े पर्वत में वह सिंह उत्पन्न हुआ। फिर एक साथ कई साधु के साथ चलते उसी प्रदेश से जाते किसी तरह उनका साथ छोडकर एकाकी आगे बढे। उस साध को सिंह ने देखा. इससे मारने के लिए आते सिंह को मुनि ने जला दिया। तब वह मरकर बनारसी नगर में ब्राह्मण का पुत्र हुआ और साधु भी किसी भाग्ययोग से उसी नगर में पधारें। वहाँ भिक्षार्थ नगर में घूमते उनको बटुक ब्राह्मण ने देखा और धूल फेंकना इत्यादि उपसर्ग करने लगा, वहाँ भी पूर्व के समान मुनि ने उसे जला दिया और उस समय पश्वात्ताप के शुभ भाव से उसी नगर में वह राजा उत्पन्न हुआ, मुनि भी चिरकाल अन्यत्र विहार करने लगे। फिर राज्य लक्ष्मी को भोगते राजा को अपने पूर्व जन्म का चिंतन करने से जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, इससे भयभीत बना वह विचार करने लगा कि-यदि अब वह मुझे मारेगा तो महान् अनर्थ होगा और राज्य का विशिष्ट सुख से मैं दूर हो जाऊँगा। इसलिए किसी तरह मैं मुनि की जानकारी करूँ और शीघ्र उनसे क्षमा याचना करूँ। इसलिए उसकी जानकारी के लिए उस राजा ने डेढ़(१/२) श्लोक से पूर्वभव का वृत्तांत रचकर घर के बाहर लगाया, वह इस प्रकार : गंगा में नंद नाविक, सभा में कोकिल, गंगा किनारे हँस, अंजन पर्वत में सिंह और वाराणसी में बटुक ब्राह्मण होकर वही राजा रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर इस तरह उद्घोषणा करवाई कि-जो कोई इसे पूर्ण करेगा उसे राजा आधा राज्य देगा। इससे नगर के सभी नागरिक अपनी मति रूप वैभव के अनुरूप उत्तरार्द्ध श्लोक की रचना कर राजा को सुनाते थे, परंतु इससे राजा को विश्वास नहीं होता था। एक दिन धर्मरुचि अणगार दीर्घकाल तक अन्यत्र विहारकर वहाँ आये और बाग में रुके, वहाँ बाग में माली 'गंगा में नंद नाविक' इत्यादि पद को बार-बार बोलते सुना। मुनि ने कहा कि-हे भद्र! तूं इस पद को बार-बार क्यों बोलता है? उसने सारा वृत्तांत कहा, तब उसका रहस्य जानकर मुनि ने उसका अंतिम आधा श्लोक इस प्रकार बनाकर कहा जो उसका घातक था वही यहाँ पर आया है। फिर प्रतिपूर्ण समस्या को लेकर माली राजा के पास गया और उसने उत्तरार्द्ध श्लोक सुनाया, इससे भयवश पीड़ित राजा मूर्छा से आँखें बंद कर दुःखी होने लगा। फिर 'यह राजा का अनिष्ट करने वाला है' ऐसा मानकर क्रोधित हुए लोग उसे मारने लगे, तब उसने कहा कि-'मैं काव्य रचना नहीं जानता हूँ, लोगों को क्लेश करने वाला यह वाक्य मुझे साधु ने कहा है।' फिर क्षण में चैतन्य को प्राप्तकर राजा ने उसे मारने से रोका और पूछा कि-यह उत्तरार्द्ध श्लोक किसने बनाया है? उसने कहा कि यह मुनि की रचना है, तब प्रधान को भेजकर राजा ने पूछवाया कि-यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं वंदनार्थ आऊँ, मुनि ने उसको स्वीकार करने से राजा वहाँ आया और उपदेश सुनकर श्रावक बना। महात्मा धर्मरुचि ने भी अपने पूर्व के दुराचरण का स्मरण करके उसकी आलोचना-प्रतिक्रमण कर, सर्व प्रकार के कर्मों को मूल से नाश कर द्वेष रूपी वृक्ष को मूल से उखाड़कर अचल-अनुत्तर शिव सुख को प्राप्त किया ।।६१५१।। इस प्रकार जानकर हे सत्पुरुष! तूं फैलता हुआ दोष रूपी दावानल को प्रशम रूपी जल की वर्षा से शांत कर। हे सुंदर! ऐसा करने से अति तीव्र संवेग प्राप्त कर तूं भी स्वीकार किये हुए कार्य रूपी समुद्र को शीघ्र पारगामी होगा। इस प्रकार ग्यारहवाँ पाप स्थानक कहा, अब कलह नाम का बारहवाँ पाप स्थानक कहता हूँ। (१२) कलह पाप स्थानक द्वार :- क्रोधाविष्ट मनुष्य के वाग्युद्ध रूपी वचन कलह कहलाता है और वह 261 For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-कलह द्धार-हरिकेशीबल की कथा तन में तथा मन में प्रकट हुए असंख्य सुखों का शत्रु है। कलह कलुषित करने वाला, वैर की परंपरा का हेतु उत्पन्न करनेवाला, मित्रों को त्रास देनेवाला और कीर्ति का क्षय काल है। कलह धन का नाश करनेवाला, दरिद्रता का प्रथम स्थान, अविवेक का फल और असमाधि का समूह है। कलह राजा के रूकावट का ग्रह है, कलह से घर में रही लक्ष्मी का भी नाश होता है, कलह से कुल का नाश होता है और अनर्थ को फैलाने वाला है। कलह से भवोभव अति दुस्सह दुर्भाग्य प्राप्त करता है, धर्म का नाश होता है एवं पाप को फैलाता है। कलह सुगति के मार्ग का नाशक, कुगति में जाने के लिए सरल पगडण्डी, कलह हृदय का शोषण करता है और फिर संताप होता समान मौका देखकर शरीर को भी नाश करता है. कलह से गणों की हानि होती है और कलह से समस्त दोष आते हैं। कलह स्व-पर उभय के हृदय रूपी महान पात्र में रहा हुआ स्नेह रस को तीव्र अग्नि के समान उबालकर क्षय करता है। कलह करने से धर्म कला का नाश होता है और इससे शब्द लक्षण (व्याकरण) में विचक्षण पुरुषों ने उसका नाम 'कलं हनन्ति इति कलहः' कल अर्थात् सुंदर आरोग्य या संतोष का नाश करे उसे कलह कहते हैं। इससे दूसरे की बात तो दूर रही किंतु अपने शरीर से उत्पन्न हुए फोड़े के समान अपने अंग से उत्पन्न हुआ कलह रूपी प्रिय पुत्र लोक में अति दुस्सह तीक्ष्ण दुःख को प्रकट करता है। शास्त्र में कलह से उत्पन्न हुए जितने दोष कहे हैं उतने ही गुण उसके त्याग से प्रकट होते हैं। इसलिए हे धीर! कलह को प्रशम रूपी वन को खत्म करने में हाथी के बच्चे समान समझकर परम सुख का जनक और शुभ ऐसे उसके (कलह के) विजय में हमेशा राग पूर्वक प्रयत्न कर तथा अपने और दूसरे को कलह न हो वैसा कार्य कर। फिर भी यदि किसी तरह वह प्रकट हो, तो भी वह बढ़े नहीं इस तरह वर्तन कर। प्रारंभ में हाथी के बच्चे के समान निश्चय बढ़ते जाते कलह को बाद में रोकना दुष्कर बन जाता है, उसके बाद तो विविध वध बंधन का कारण बनता है। यहाँ कलह पाप स्थानक के दोष से दुष्ट हरिकेशीबल अपने माता-पिता को भी अति उद्वेगकारी बना।' और उन दो सौ के व्यतिकर को देखकर तत्त्व का ज्ञाता बनकर साधुता को स्वीकारकर देवों का भी पूज्य बना।।६१७०।। वह इस प्रकार है : हरिकेशीबल की कथा? मथुरा नगरी में महाभाग्यशाली शंख नाम का राजा था। उसने सर्व वस्तुओं के राग का त्यागकर सद्गुरु के पास दीक्षा स्वीकार की थी। कालक्रम से सूत्र अर्थ का अभ्यास कर पृथ्वी ऊपर विहार करते वे तीन और चार प्रकार के मार्ग वाले मनोहर गजपुर नगर में आये, और भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश करते (वहां एक व्यंतराधिष्ठित अति तप्त मार्ग था) मुनि ने उस अग्नि वाले मार्ग के पास खड़े सोमदत्त नामक पुरोहित को पूछा कि-'क्या मैं इस मार्ग से जा सकता हूँ?' 'इससे अग्नि के मार्ग में जाते जलते हुए इसको मैं देखूगा।' ऐसा अशुभ विचार कर उसने कहा कि-हे भगवंत! आप इस मार्ग से पधारो! और इर्यासमिति में उपयोग वाले वे मुनि जाने लगे। फिर झरोखे में बैठकर पुरोहित उस मुनि को धीरे-धीरे जाते देखकर स्वयं भी उस मार्ग में गया। उस मार्ग को शीतल देखकर विस्मयपूर्वक इस तरह विचार करने लगा कि-धिक्कार हो! धिक्कार हो! मैं पापिष्ठ हूँ किमैंने ऐसा महापाप का आचरण किया है, अब इस महात्मा के दर्शन करने चाहिए, कि जिसके तप के प्रभाव से अग्नि से व्याप्त मार्ग भी शीघ्र ठण्डे जल के समान शीतल हो गया है। (व्यंतर उनके तप तेज को सहन न कर सकने से वहां से चला गया।) आश्चर्यकारक चारित्र वाले महात्माओं को क्या असाध्य है? ऐसा विचार करते वह उस तपस्वी के पास गया और भावपूर्वक नमस्कारकर अपने दुराचरण को बतलाया। मुनि ने भी उसे अति विस्तारपूर्वक श्री जिनधर्म का स्वरूप समझाया। उसे सुनकर वह प्रतिबोधित हुआ और उसने साधु धर्म स्वीकार 1. इह कलहयावठाणग-दोसेणं दूसिओ उ हरिएसो । नियजणणीजणगाण वि, उब्वियणिज्जो दढं जाओ ।।६१६६ ।। 262 For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-कलह द्वार-हरिकेशीबल की कथा श्री संवेगरंगशाला किया, तथा यथा विधि उसका पालन करने लगा, परंतु उसने मद के महा भयंकर विपाकों को सुनने पर भी किसी प्रकार जाति मद को नहीं छोड़ा। आखिर मरकर वह स्वर्ग में देदीप्यमान देव हुआ और वहाँ से आयुष्य पूर्णकर जाति मद के अभिमान से गंगा नदी के किनारे चंडाल के कुल में रूप रहित और अपने स्वजनों का भी हाँसी पात्र बल नाम का पुत्र हुआ। अत्यंत कलह खोर और महा पिशाच के समान उद्वेगकारी उसने क्रमशः दोषों से और शरीर से वृद्धि प्राप्त की। फिर वसंतोत्सव आते मदिरापान और नाचने में परायण स्वजनों से कलह करते उसे स्वजनों ने निकाल दिया। इससे अत्यंत खेदित होते स्वजनों के नजदीक में रहकर विविध श्रेष्ठ क्रीड़ाएँ करता था। इतने में काजल और मेघ के समान काला श्याम तथा हाथी की सैंड समान स्थूल सर्प उस प्रदेश में आया और लोगों ने मिलकर उसे मार दिया। उसके बाद थोड़े समय में वैसा ही उसी तरह दूसरा सर्प आया, परंतु वह जहर रहित है, ऐसा मानकर किसी ने भी उसे नहीं मारा। यह देखकर बल ने विचार किया कि निश्चय ही सर्व जीव अपने दोष और गुण के योग्य अशुभ-शुभ फल को प्राप्त करते हैं, इसलिए भद्रिक परिणाम वाला होना चाहिए। भद्रिक जीव कल्याण को प्राप्त करता है जहर के कारण सर्प का नाश हुआ और जहर रहित सर्प मुक्त बना। दोष सेवन करने वाले को अपने स्वजनों से भी पराभव होता है इसमें क्या आश्चर्य है? इसलिए अब मुझे भी दोषों का त्याग और गुणों को प्रकट करना चाहिए। ऐसा विचार करते साधु के पास गया, वहाँ धर्म सुनकर संसारवास से अति उद्वेग होते हुए वह मातंग नाम का महामुनि बना। दो, तीन, चार, पाँच और पन्द्रह उपवास आदि विविध तप में रक्त वह महात्मा विचरते वाराणसी नगरी में आया और वहाँ तिंदुक नामक उद्यान में गंडी तिंदुक यक्ष के मंदिर में रहा और वह यक्ष मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा करने लगा। किसी समय दूसरे उद्यान में रहे यक्ष ने आकर गंडी तिंदुक यक्ष को कहा कि-हे भाई! तुम क्यों दिखते नहीं हो? उसने कहा कि सभी गुणों के आधारभूत इस मुनिवर की हमेशा स्तुति-सेवा करता हूँ और अपना समय व्यतीत करता हूँ। मुनिश्री का आचरण देखकर प्रसन्न हुआ और उसने भी तिंदुक यक्ष हा कि-हे मित्र। तं ही कतार्थ बना है कि जिसके वन में ऐसे मनि बिराजमान हैं. मेरे उद्यान में भी मनिराज पधारे हैं, इसलिए एक क्षण के लिए चल, हम दोनों साथ में जाकर उनको वंदन करें। फिर वे दोनों गये और वहाँ उन्होंने प्रमाद से युक्त किसी तरह विकथा करने में रक्त मुनि को देखा। इससे उस मातंग मुनि में वह यक्ष गाढ़ अनुरागी बना, फिर नित्यमेव उस महामुनि को भावपूर्वक वंदन करता और पाप रहित बना, उस यक्ष के दिन अत्यंत सुखपूर्वक व्यतीत होने लगे ।।६२०० ।। ___एक समय कोशल देश के राजा की भद्रा नाम की पुत्री परम भक्ति से यक्ष के मंदिर में आयी, साथ में अनेक प्रकार के फल-फूल की टोकरी उठाकर नौकर आये थे। भद्रा ने यक्ष प्रतिमा की पूजाकर उस मंदिर की प्रदक्षिणा देते उसने मैल से मलिन शरीर वाले विकराल काले श्याम वर्ण वाले लावण्य से रहित और तपस्या से सूखे हुए मातंग मुनि को काउस्सग्ग ध्यान में देखा। उसे देखकर उसने अपनी मूढ़ता से थुत्कार किया और उनकी निंदा की, इससे तुरंत कोपायमान होकर यक्ष ने उसके शरीर में प्रवेश किया। बार-बार अनुचित आलाप-संलाप करती उसे महा मुश्किल से राजभवन में ले गये और अत्यंत खिन्न चित्तवाले राजा ने भी अनेक मंत्र-तंत्र के रहस्यों के जानकार पुरुषों और वैद्यों को बुलाया, उन्होंने उसकी चारों प्रकार की औषधोपचारादि क्रिया की, परंतु कुछ भी लाभ नहीं होने से वैद्य आदि रुक गये तब अन्य किसी व्यक्ति में प्रवेश कर उस यक्ष ने कहा कि-इसने साधु की निंदा की है, इससे यदि तुम इसे उस साधु को ही दो तो छोड़ दूंगा, अन्यथा छूटकारा नहीं होगा। यह सुनकर 'किसी तरह यह बेचारी जीती रहे' ऐसा मानकर राजा ने उसे स्वीकार किया। फिर स्वस्थ शरीर वाली - 263 For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-हरिकेशीबल की कथा बनी फिर सर्व अलंकार से विभूषित होकर विवाह के योग्य सामग्री को लेकर वह बड़े आडम्बर पूर्वक वहाँ आयी और पैरों में गिरकर मुनि से कहा कि हे भगवंत! मेरे ऊपर इस विषय में कृपा करो। मैं स्वयं विवाह के लिए आयी हूँ, मेरे हाथ को आप हाथ से स्वीकार करो। मुनि ने कहा कि जो स्त्रियों के साथ बोलना भी नहीं चाहता है, वह अपने हाथ से स्त्रियों के हाथ को कैसे पकड़ सकता है? ग्रैवेयक देव के समान मुक्तिवधू में रागी महामुनि दुर्गति के कारण रूप युवतियों में राग को किस तरह करते हैं? फिर यक्ष ने प्रतिकार करने के तीव्र रोष से मुनि रूप धारण करके उसके साथ विवाह किया और समग्र रात्री तक उसने उसकी विटंबना (दुःख दिया) की विवाह को स्वप्न समान मानकर और शोक से व्याकुल शरीर वाली वह प्रभात में माता-पिता के पास गयी और सारा वृत्तांत कहा, फिर यह स्वरूप जानकर रुद्रदेव नामक पुरोहित ने व्याकुल हुए राजा से कहा कि-हे देव! यह साधु की पत्नी है और उस साधु ने त्याग दी है, अतः तुम्हें उसे ब्राह्मण को देना चाहिए। राजा ने उसे स्वीकार किया और उस रुद्रदेव को ही उसको दे दी। वह उसके साथ विषय सेवन करते काल व्यतीत करने लगा। एक समय उसने यज्ञ प्रारंभ किया और अन्य देशों से वेद के अर्थ के ज्ञाता विचक्षण, बहुत पंडित, ब्राह्मण विद्यार्थिओं का समूह वहाँ आया। फिर वहाँ यज्ञ क्षेत्र में अनेक प्रकार का भोजन तैयार हुआ था। वहाँ मातंग मुनि मासक्षमण के पारणे पर भिक्षा के लिए आये और तप से सूखे काया वाले, अल्प उपधि वाले, मैलेकुचैले और कर्कश शरीर वाले उनको देखकर विविध प्रकार से हँसते धर्म द्वेषी उन ब्राह्मण विद्यार्थियों ने कहा कि-हे पापी! तूं यहाँ क्यों आया है? अभी ही इस स्थान से शीघ्र चला जा। उस समय यक्ष ने मुनि के शरीर में प्रवेश करके कहा कि मैं भिक्षार्थ आया हूँ, अतः भिक्षा दो। ब्राह्मणों ने सामने ही कहा कि जब तक ब्राह्मणों को नहीं दिया जाय और जब तक प्रथम अग्निदेव को तृप्त नहीं करते तब तक यह आहार क्षुद्र को नहीं दिया जाता, इसलिए हे साधु तूं चला जा! जैसे योग्य समय पर उत्तम क्षेत्र में विधिपूर्वक बोया हुआ बीज फलदायक बनता राह्मण और अग्निदेव को दान देने से फल वाला बनता है। फिर मनि के शरीर में प्रवेश किये हए यक्ष ने कहा कि तुम्हारे जैसे हिंसक, झूठे और मैथुन में आसक्त पापियों को जन्म मात्र से ब्राह्मण नहीं माने जा सकते हैं। अग्नि भी पाप का कारण है तो उसमें स्थापन करने से कैसे भला हो सकता है? और परभव में गये पिता को भी यहाँ से देने वाले का कैसे स्वीकार हो सकता है? यह सुनकर 'मुनि को गुस्सा आया है' ऐसा मानकर, सभी ब्राह्मण क्रोधित हुए और हाथ में डण्डा, चाबुक, पत्थर आदि लेकर चारों तरफ से मुनि को मारने दौड़े। यक्ष ने उनमें से कईयों को वहीं कटे वृक्ष के समान गिरा दिया, कई को प्रहार से मार दिया और कई को खून का वमन करवाया। इस प्रकार की अवस्था में सर्व को देखकर भय से काँपते हृदयवाली राजपुत्री ब्राह्मणी कहने लगी कि यह तो वे मुनि है कि जिसके पास उस समय स्वयं विवाह के लिए गयी थी, परंतु इन्होंने मुझे छोड़ दी है, ये तो मुक्तिवधू के रागी हैं, अतःदेवांगानाओं की इच्छा भी नहीं करते हैं। अति घोर तप के पराक्रम से इन्होंने सारे तिर्यंच, मनुष्य और देवों को भी वश किया है। तीनों लोक के जीव इनके चरणों में नमस्कार करते हैं। इनके पास विविध लब्धियाँ है, क्रोध, मान और माया को जीता है तथा लोभ परीषह को भी जीता है और महासात्त्विक हैं जो सूर्य के समान अति फैले हुए पाप रूपी अंधकार के समूह को चूरने वाले हैं। और कोपायमान बने अग्नि के समान जगत को जलाते हैं तथा प्रसन्न होने पर वही जगत का रक्षण करते हैं, इसलिए इनकी तर्जना करोगे तो मरण के मुख में जाओगे। अतः चरणों में गिरकर इस महर्षि को प्रसन्न करो। यह सुनकर पत्नि सहित रुद्रदेव विनयपूर्वक कहने लगा कि-हे भगवंत! रागादि से आपका अपराध किया है, उसकी आप हमें क्षमा करें, क्योंकि लोग में उत्तम मुनि का नमन करने वाले के प्रति वात्सल्य भाव होता है। फिर उनको मुनि ने कहा कि 264 For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार-रुद्र और अंगर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला संसार का कारणभूत क्रोध है इसको कौन आश्रय दे? उसमें भी श्री जिन वचन के ज्ञाता तो विशेषतः स्थान कैसे दे? केवल मेरी भक्ति में तत्पर बनकर यक्ष यह कार्य करता है इसलिए उसे ही प्रसन्न करो कि जिससे कुशलता को प्राप्त करों। उस समय विविध प्रकार से यक्ष को उपशांत करके हर्ष से रोमांचित हुए सभी ब्राह्मणों ने भक्तिपूर्वक अपने निमित्त तैयार किया वह भोजन उस साधु को दिया और प्रसन्न हुए यक्ष ने आकाश में से सोनामोहर की वर्षा की तथा भ्रमरों से व्याप्त सुगंधी पुष्प समूह से मिश्रित सुगंधी जल की वर्षा की। इस तरह कलह के त्याग से वह मातंग मनि देव पूज्य बनें। इसलिए हे क्षपक मुनि! कलह में दोषों को और उसके त्याग में गुणों का सम्यग् विचारकर इस तरह कोई उत्तम प्रकार से वर्तन करें जिससे तेरे प्रस्तुत अर्थ की सिद्धि होती है। इस तरह बारहवाँ पाप स्थानक भी कुछ अल्प मात्र कहा है। अब तेरहवाँ अभ्याख्यान नामक पाप स्थानक कहते हैं ।।६२४२।। (१३) अभ्याख्यान पाप स्थानक द्वार :- प्रायःकर जिसमें दोषों का अभाव हो फिर भी उसको उद्देश्य कर उस पर जो प्रत्यक्ष दोषारोपण करना उसे ज्ञानियों ने अभ्याख्यान कहा है। यह अभ्याख्यान स्व-पर उभय के चित्त में दुष्टता प्रकट करने वाला है, तथा उस अभ्याख्यान का परिणाम वाला पुरुष कौन-कौन सा पाप बंध नहीं करता? क्योंकि अभ्याख्यान बोलने से क्रोध, कलह आदि पापों में जो कोई भी यह भव-परभव संबंधी दोष पूर्व में कहे हैं वे सब पाप प्रकट होते हैं। यद्यपि अभ्याख्यान देने का पाप अति अल्प होता है, फिर भी वह निश्चय दस गुणा फल को देने वाला होता है। सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि 'एक बार भी किया हुआ वध, बंधन, अभ्याख्यान दान, परधन हरण आदि पापों का सर्व से जघन्य अर्थात् कम से कम भी उदय दस गुणा होता है और तीव्र-तीव्रतर प्रद्वेष करने से तो सौ गुणा, हजार गुणा, लाख गुणा, करोड़ गुणा अथवा बहुत, बहुतर भी विपाक होता है। तथा सर्व सुखों का नाश करने में प्रबल शत्रु समान है, गणना से कोई संख्या नहीं है, किसी से रक्षण नहीं हो सकता है तथा अत्यंत कठोर हृदय रूपी गुफा को चिरने में एक दक्ष-स्नेह घातक है, इन सब दुःखों का कारण यह अभ्याख्यान है। और इससे विरति वाले को इस जगत में इस भव-परभव में होने वाले सारे कल्याण नित्यमेव यथेच्छित स्वाधीन होते हैं। तेरहवें पाप स्थानक से रुद्र जीव के समान अतिशय अपयश को प्राप्त करता है और उससे विरक्त मनवाला अंगर्षि के समान कल्याण को प्राप्त रुद्र और अंगर्षि की कथा चंपा नगर में कौशिकाचार्य नामक उपाध्याय के पास अंगर्षि और रुद्र दोनों धर्मशास्त्र को पढ़ते थे। वे भी बदले की इच्छा बिना केवल पूजक भाव से पढ़ते थे। उपाध्याय ने अनध्याय (छुट्टी) के दिन उन दोनों को आज्ञा दी कि-अरे! आज शीघ्र लकड़ी का एक-एक भार जंगल में से ले आओ। प्रकृति से ही सरल अंगर्षि उस समय 'तहत्ति' द्वारा स्वीकार करके लकड़ी लेने के लिए जंगल में गया और दुष्ट स्वभाव वाला रुद्र घर से निकलकर बालकों के साथ खेलने लगा, फिर संध्याकाल के होते वह अटवी की ओर चला और उसने दूर से लकड़ी का बोझ लेकर अंगर्षि को आते देखा। फिर स्वयं कार्य नहीं करने से भयभीत होते उसने लकडी के भार को लाती उस प्रदेश से ज्योति यशा नामक वृद्धा को देखकर उसे मारकर खड्डे में गाड़ दिया और उसकी लकड़ियाँ उठाकर शीघ्रता से गरु के पास आया. फिर वह कपटी कहने लगा कि-हे उपाध्याय! आपके धर्मी शिष्य का चरित्र कैसा भयंकर है? क्योंकि आज संपूर्ण दिन खेल तमाशे कर अभी वृद्धा को मारकर, उसके लकड़ी के गढे को लेकर वह अंगर्षि जल्दी-जल्दी आ रहा है। यदि आप सत्य नहीं मानो तो पधारो कि जिसने उस वृद्धा की दशा की है और जहाँ उसे गाड़ा है, उसे दिखाता हूँ। जहाँ इस तरह कहता था इतने में लकड़ी का गट्ठा उठाकर 265 For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ दार-अरति रति द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा अंगर्षि वहाँ आया, इससे क्रोधित हुए उपाध्याय ने कहा कि-अरे पापी! ऐसा अकार्य करके अभी तूं घर पर आता है? मेरी दृष्टि से दूर हट जा, तुझे पढ़ाने से क्या लाभ? । वज्रपात समान यह दुस्सह कलंक सुनकर अति खेद को करते वह अंगर्षि इस तरह विचार करने लगा कि-हे पापी जीव! पूर्व जन्म में इस प्रकार का कोई भी कर्म तूंने किया होगा, जिसके कारण यह अति दुस्सह संकट आया है। इस तरह संवेग को प्राप्त करते, उसने पूर्व में अनेक जन्मों के अंदर चारित्र धर्म की आराधना की थी ऐसा उस समय उत्पन्न जाति स्मरण ज्ञान से देखा और शुभ ध्यान से क्षपक श्रेणि पर चढकर कर्मों का विनाश करके केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया। तथा देव और मनुष्यों ने उसकी पूजा की और रुद्र को उसी देवों ने 'पापी तथा अभ्याख्यान देने वाला है' ऐसी उद्घोषणा कर सर्वत्र बहुत निंदा की। यह सुनकर क्षपक मुनि! तूं भी अभ्याख्यान से विरति प्राप्त कर कि जिससे इच्छित गुण की सिद्धि में हेतुभूत समाधि को शीघ्र प्राप्त हो। यहाँ तक यह तेरहवाँ पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है, अब अरति रति नामक चौदहवाँ पाप स्थानक कहते हैं। (१४) अरति रति पाप स्थानक द्वार :- अरति और रति दोनों का एक ही पाप स्थानक कहा है, क्योंकि उस विषय में उपचार (कल्पना) विशेष से अरति भी रति और रति भी अरति होती है। जैसे कि-जो वस्त्र मुलायम न हो उसे धारण करने में अरति होती है, और वही वस्त्र मुलायम हो तो उसे धारण करने में रति होती है, मुलायम धागे वाला वस्त्र धारण करने में रति होती है, वही वस्त्र दूसरी ओर से जहाँ मुलायम धागे वाला न हो उसे धारण करने में अरति होती है। जैसे इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने से जिस पर अरति होती है वही अरति उसकी प्राप्ति होते ही रति रूप में परिवर्तन हो जाती है। तथा यहाँ उस प्रस्तुत वस्तु की प्राप्ति से जो रति होती है, वही उस वस्तु के नाश होते ही अरति रूप में परिवर्तन होती है। अथवा किसी बाह्य निमित्त बिना भी निश्चय अरति मोह नामक कर्म के उदय से शरीर में ही अनिष्ट सूचक जो भाव होते हैं वह अरति जानना, उसके आधीन से आलसु, शरीर से व्याकुल वाला, अचेतन बना हुआ और इस लोक, परलोक के कार्य करने में प्रमादी बने जीव को किसी भी प्रकार के कार्य में उत्साहित करने पर भी वह कभी उत्साहीत नहीं होता है, ऐसा वह मनुष्य इस जीव लोक में बकरी के गले में आंचल के समान निष्फल जीता है। तथा रति भी वस्तु में राग से आसक्त चित्त वाला कीचड़ में फंसी हुई वृद्ध गाय के समान उस वस्तु से छुटने के लिए अशक्त बना जीव इस लोक के कार्य को नहीं कर सकता है तो फिर अत्यंत प्रयत्न से स्थिर चित्त से साध्य जो परलोक का कार्य है उसे वह किस तरह सिद्ध करेगा? इस तरह अरति और रति को संसार भावना का कारण जानकर हे क्षपक मुनि! तूं क्षण भर भी उसका आश्रय मत करना अथवा असंयम में अरति को भी कर और संयम गुणों में रति को कर। इस तरह करते तूं निश्चय आराधना को प्राप्त करेगा। अधिक क्या कहें? संसार का कारण भूत अप्रशस्त अरति रति का नाश करके संसार से छुड़ानेवाले धर्मरूपी बाग में प्रशस्त अरति को कर अधर्म में प्रशस्त अरती कर। हे धीरपुरुष! यदि तुझे समता के परिणाम से इष्ट विषय में रति न हो और अनिष्ट विषय में अरति न हो तो तूं आराधना को प्राप्त करता है। संयम भार को उठाने में थका हुआ क्षुल्लक कुमार मुनि के समान धर्म में अरति और अधर्म में रति, ये दोनों पुरुष को संसार में शोक के पात्र बना देता है। असंयम में अरति से, संयम में रति से पुनः सम्यक् चेतना को प्राप्त कर वही मुनि जैसे पूज्य बना, वैसे संसार में पूज्य बनता है ।।६२८५।। वह इस तरह : क्षुल्लक कुमार मुनि की कथा साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में पुंड' के नाम का राजा था, उसे कंडरिक नाम का छोटा भाई था। छोटे भाई 266 For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला की यशोभद्रा नाम की पत्नी थी। एक दिन अत्यंत मनोहर अंग वाली घर के प्रांगण में घूमती हुई उसे देखकर पुंडरिक अत्यंत आसक्त बना, उसने उसके पास दूती को भेजा और लज्जायुक्त बनी यशोभद्रा ने उसे निषेध किया। राजा ने फिर भेजा. बाद में राजा के अति आग्रह होने पर उसने उत्तर दिया कि क्या आपको छोटे भाई से भी लज्जा नहीं आती कि जिससे ऐसा बोल रहे हो? अतः राजा ने कंडरिक को गुप्त रूप से मरवा दिया और फिर प्रार्थना की तब ब्रह्मचर्य खंडन के भय से शीघ्र आभूषणों को लेकर वह राजमहल से निकल गयी और एकाकी भी वृद्ध व्यापारी से पितृभाव को धारणकर उसके साथ श्रावस्ती नगर में पहुँच गयी। वहाँ श्री जिनसेन सूरि की शिष्या कीर्तिमती नाम की महत्तरा साध्वी को वंदन के लिए गयी और वहाँ सारा वृत्तांत कहा। साध्वी का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हुआ और दीक्षा स्वीकार की। परंतु 'गर्भ की बात करूँगी तो मुझे दीक्षा नहीं देंगे' अतः अपने गर्भ की बात महत्तरा को नहीं कहीं। कालक्रम से गर्भ बढ़ने लगा, तब महत्तरा ने उससे एकान्त में कारण पूछा, तब उसने भी सारा सत्य निवेदन किया, फिर जब तक पुत्र का जन्म हो तब तक उसे गुप्त ही रखा। फिर उसके पुत्र का जन्म हुआ, श्रावक के घर बड़ा हुआ और बाद में आचार्य श्री के पास उसने दीक्षा ली, उसका नाम क्षुल्लक कुमार रखा और साधु के योग्य समग्र सामाचारी को पढ़ाया, जब यौवन वय प्राप्त किया, उस समय संयम पालन करने के लिए असमर्थ बन गया। दीक्षा छोड़ने के परिणाम जागृत हुए और इसके लिए माता को पूछा। साध्वी माता ने अनेक प्रकार से उसे रोका, फिर भी नहीं रहा, तब माता ने फिर कहा कि-हे पुत्र! मेरे आग्रह से बारह वर्ष तक पालन कर, उसने वह स्वीकार किया। वे बारह वर्ष जब पूर्ण हुए तब पुनः जाने की इच्छा प्रकट की, तब साध्वी माता ने कहा कि मेरी गुरुणी को पूछो? उसने भी उतना काल बारह वर्ष रोका और इसी प्रकार हाराज ने भी बारह वर्ष रोका ।।६३००।। इसी तरह उपाध्याय ने भी बारह वर्ष रोका। इस तरह अड़तालीस वर्ष व्यतीत हो गये, फिर भी नहीं रुकने से उसकी माता ने उपेक्षा की और केवल पूर्व की संभालकर रखी, उसके पिता के नाम की अंगूठी और रत्न कंबल उसे देकर कहा कि-हे पुत्र! इधर-उधर कहीं पर मत जाना, परंतु पुंडरिक राजा तेरे पिता के बड़े भाई हैं। उसे यह तेरे पिता की नाम वाली अंगूठी दिखाना कि जिससे वे तुझे जानकर अवश्य राज्य देंगे। इसे स्वीकारकर क्षुल्लक कुमार मुनि वहाँ से निकल गया और कालक्रम से साकेतपुर में पहुँचा। उस समय राजा के महल में आश्चर्यभूत नाटक चल रहा था, इससे 'राजा का दर्शन फिर करूँगा' ऐसा सोचकर वहीं बैठकर वह एकाग्रता से नाटक को देखने लगा और नटी समग्र रात नाचती रही, अतः अत्यंत थक जाने से नींद आते नटी को विविध कारणों के प्रयोग से मनोहर बनें नाटक के रंग में भंग पड़ने के भय से अक्का ने प्रभात काल में गीत गाकर सहसा इस प्रकार समझाती है 'हे श्यामसुंदरी! तूंने सुंदर गाया है, सुंदर बजाया है, और सुंदर नृत्य किया है। इस तरह लम्बी रात्री तक नृत्य कला बतलाई है, अब रात्री के स्वप्न के अंत में प्रमाद मत कर।' यह सुनकर क्षुल्लक मुनि ने उसको रत्न कंबल भेंट किया। राजा के पुत्र ने कुंडल रत्न दिया, श्रीकान्त नाम की सार्थवाह पत्नी ने हार दिया, मंत्री जयसंघी ने रत्न जड़ित सुवर्णमय कड़ा अर्पण किया और महावत ने रत्न का अंकुश भेंट किया, उन सबका एक-एक लाख मूल्य था। इन सबका रहस्य जानने के लिए राजा ने पहले ही क्षुल्लक को पूछा कि तूंने यह कैसे किया? इससे उसने मूल से ही अपना सारा वृत्तांत सुनाकर कहा कि मैं यहाँ राज्य के लिए आया हूँ, परंतु गीत सुनकर बोध हुआ है और अब विषय की इच्छा रहित हुआ हूँ तथा दीक्षा में स्थिर चित्तवाला बना हूँ। इसलिए 'यह गुरु है' ऐसा मानकर इसको रत्न कंबल दे दिया है। फिर उसे पहचान कर राजा ने कहा कि-हे पुत्र! यह राज्य स्वीकार कर, 267 For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-पैशुन पाप स्थानक द्वार तब क्षुल्लक ने उत्तर दिया कि-शेष आयुष्य में अब चिरकालिक संयम को निष्फल करने वाले इस राज्य से क्या लाभ है? इसके बाद राजा ने पुत्र आदि को पूछा कि-तुम्हें दान देने में क्या कारण है? तब राजपुत्र ने कहा किहे तात! आपको मारकर मुझे राज्य लेने की इच्छा थी परंतु मुझे यह गीत सुनकर राज्य से वैराग्य हुआ है, तथा सार्थवाह पत्नी ने कहा कि मेरे पति को परदेश गये बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं, इसलिए मैंने विचार किया था कि दूसरे पति को स्वीकार करूँ, ऐसी आशा से-'किसलिए दुःखी होऊँ" ऐसा विचार करती थी। उसके बाद मंत्री ने कहा कि-हे देव! 'अन्य राजाओं के साथ में संधि करूँ अथवा नहीं करूँ" इस तरह पूर्व में विचार करता था और महावत ने भी कहा कि-सीमा के राजा कहते थे कि पट्टहस्ति को लाकर दे अथवा उसको मार दे। इस तरह बहुत कहने से मैं भी चिरकाल से झूले के समान शंका से चलचित्त परिणाम वाला रहता था, परंतु इसकी बात सुनकर सावधान हो गया और अपूर्व अमूल्य वस्तु भेंट की। उन सबके अभिप्रायों को जानकर प्रसन्न हुए पुंडरिक राजा ने उनको आज्ञा दी कि-'तुम्हें जो योग्य लगे वैसा करो।' तब इस प्रकार का द्रोह रूप अकार्य करके हम कितने लंबे काल तक जी सकेंगे? ऐसा कहकर वैराग्य होते उन सबने उसी समय क्षुल्लक के पास दीक्षा ली और सकल जन पूज्य बनें। उन महात्माओं ने उनके साथ विहार किया। इस प्रकार इस दृष्टांत से हे क्षपक मुनि! तूं मन वांछित अर्थ की सिद्धि के लिए असंयम में अरति कर और संयम मार्ग में रति को कर। इस तरह चौदहवें पाप स्थानक को अल्पमात्र कहकर अब पैशुन्य नामक पन्द्रहवाँ पाप स्थानक द्वार कहता हूँ ।।६३२६।। (१५) पैशुन्य पाप स्थानक द्वार :- गुप्त सत्य अथवा असत्य दोष को प्रकाशित रूप जो चुगली का कार्य करता है वह इस लोक में पैशुन्य कहलाता है। मोहमूढ़ इस प्रकार पैशुन्य करने वाला उत्तम कुल में जन्म लेने वाला भी, त्यागी और मुनि भी इस लोक में 'यह चुगलखोर है' ऐसा बोला जाता है। इस जगत में मनुष्यों की वहाँ तक मित्रता रहती है, जब तक शुभ चित्त रहता है और वहाँ तक ही मैत्री भी रहती है जब तक निर्भागी चुगलखोर बीच में नहीं आता है। अर्थात् चुगलखोर चुगली करके संबंध खत्म कर देता है। अहो! चुगलखोर लोहार चुगल रूपी अति तीक्ष्ण कुल्हाड़ी हाथ में लेकर नित्यमेव पुरुषों का प्रेम रूपी काष्ठों को चीरता है अर्थात् परस्पर वैर करवाता है। अति डरावना, भयंकर जो चुगलखोर कुत्ता रूके बिना लोगों के पीठ पीछे भौंकते हमेशा कान को खाता है अर्थात् दूसरे के कान को भरता है अथवा दो हाथ कान पर रखकर 'मैं कुछ भी नहीं जानता इस तरह बतलाता है। अथवा जैसे एक चुगलखोर तो सभी की चुगली करता है, परंतु कुत्ता उज्ज्वल वेष वाले, पड़ौसी, स्वामी, परिचित और भोजन देनेवाले को नहीं भौंकता है। (अर्थात् चुगलखोर से कुत्ता अच्छा) अथवा चुगलखोर सज्जनों के संयोग से भी गुणवान नहीं होता है, चंद्रमंडल के बीच में रहते हुए भी हिरण काला ही रहता है। यदि इस जन्म में एक ही पैशुन्य है तो अन्य दोष समूह से कोई प्रयोजन नहीं है, वह एक ही दोष उभय लोक को निष्फल कर देगा। जिसके कारण से जिसकी चुगली करने में आती है उसका अनर्थ होने में अनेकांत है उसका अनर्थ हो अथवा न भी हो, परंतु चुगलखोर का तो द्वेषभाव से अवश्य अनर्थ होता है। पैशुन्य से माया, असत्य, निःशूकता, दुर्जनता और निर्धन जीवन आदि अनेक दोष लगते हैं। दूसरे के मस्तक का छेदन करना अच्छा परंतु चुगली करना अच्छा नहीं है, क्योंकि-मस्तक छेदन में इतना दुःख नहीं होता जितना दुःख पैशुन्य द्वारा मन को अग्नि देने समान हमेशा होता है। पैशुन्य के समान अन्य महान पाप नहीं है, क्योंकि पैशुन्य करने से सामने वाला अन्य जहर से लिप्त बाण अथवा भाले से पीड़ित शरीरवाले के समान यावज्जीव दुःखपूर्वक जीता है। क्या चुगलखोर स्वामी घातक है? गुरु घातक है? अथवा अधर्माचारी है? नहीं, नहीं इनसे भी वह अधिक अधम है। पैशुन्य के दोष से सुबंधु मंत्री ने कष्ट को प्राप्त किया और उसके ऊपर पैशुन्य नहीं करने से चाणक्य ने सद्गति प्राप्त की ।।६३४०।। वह इस प्रकार : 268 For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पैशुन पाप स्थानक द्वार-सुबंधु मंत्री और चाणक्य की कथा श्री संवेगरंगशाला सुबंधु मंत्री और चाणक्य की कथा पाटलीपुत्र नगर में मौर्य वंश का जन्म हुआ, बिन्दुसार नाम का राजा था और उसका चाणक्य नाम का उत्तम मंत्री था। वह श्री जैनधर्म में रक्त चित्त वाला, औत्पातिकी आदि बुद्धि से युक्त और शासन प्रभावना में उद्यमशील बनकर, दिन व्यतीत करता था। एक दिन पूर्व में राज्य भ्रष्ट हुआ नंद राजा का सुबंधुं नामक मंत्री ने पूर्व वैर के कारण चाणक्य के दोष देखकर राजा को इस तरह कहा कि-हे देव! यद्यपि आप मुझे प्रसन्न या खिन्न दृष्टि से भी नहीं देखते हैं, फिर भी आपको हमें हितकर ही कहना चाहिए। चाणक्य मंत्री ने तुम्हारी माता को पेट चीरकर मार दी थी, तो इससे दूसरा आपका वैरी कौन हो सकता है? ऐसा सुनकर क्रोधित बने राजा ने अपनी धावमाता से पूछा तो उसने भी वैसे ही कहा, परंतु मूल से उसका कारण नहीं कहा। उस समय पर चाणक्य आया और राजा उसे देखकर शीघ्र ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर विमुख हुआ। उस समय अहो! इस समय राजा की मर्यादा भ्रष्ट हुई है। इस तरह मेरा पराभव क्यों करता है? ऐसा सोचकर चाणक्य अपने घर गया, फिर घर का धन, पुत्र, प्रपौत्र आदि स्वजनों को देकर निपुण बुद्धि से उसने विचार किया कि-मेरे मंत्री पद की इच्छा से किसी चुगलखोर ने इस राजा को इस प्रकार क्रोधित किया है, अतः मैं ऐसा करूँ कि जिससे वह चिरकाल दुःख से पीड़ित होकर जीये। इस तरह सोचकर उसने श्रेष्ठ सुगंध वाला जहर मिलाकर चूर्णों को वासित किया और डब्बे में भर दिया तथा भोज पत्र में इस तरह लिखा कि-जो इस उत्तम चूर्ण को सूंघकर इन्द्रियों के अनुकूल विषयों का भोग करेगा वह यममंदिर में जायगा। और जो श्रेष्ठ वस्त्र, आभूषण, विलेपन आदि को, तलाई, दिव्य पुष्पों को भोगेगा तथा स्नान-श्रृंगार भी करेगा वह शीघ्र मरेगा। इस तरह चूर्ण के स्वरूप को बताने वाले भोजपत्र को भी उस चूर्ण में रखकर उस डब्बे को पेटी में रखा। उस पेटी को भी मजबूत कीलों से जोड़कर मुख्य कमरे में रखकर उसके दरवाजे पर मजबूत ताला लगाकर रखा। फिर स्वजनों से क्षमायाचना कर उनको जिन धर्म में लगाकर उसने अरण्य में जाकर गोकुल के स्थान पर इंगिनी अनशन को स्वीकार किया। इसका मूल रहस्य जानकर धावमाता ने राजा से कहा कि-पिता से अधिक पूजनीय चाणक्य का पराभव क्यों किया? राजा ने कहा कि वह मेरी माता का घातक है। तब उसने कहा कि यदि तेरी माता को इसने न मारी होती तो तूं भी नहीं होता। क्योंकि तूं जब गर्भ में था, तब तेरे पिता के विष मिश्रित भोजन का कोर लेकर खाते ही जहर से व्याकूल होकर तेरी माता रानी मर गई और उसका मरण देखकर महानुभाव चाणक्य ने उसका पेट छुरी से चीरकर तुझे निकालकर बचाया है। इस तरह निकालते हुए भी तेरे मस्तक पर काले वर्ण वाला जहर का बिन्दु लगा, इस कारण से हे राजन्! तूं बिन्दुसार कहलाता है। यह सुनकर अति संताप को करते राजा सर्व आडम्बर सहित उसी समय चाणक्य के पास गया और राग मुक्त उस महात्मा को उपले के ढेर के ऊपर बैठे देखा। राजा ने उसे सर्व प्रकार से आदरपूर्वक नमस्कार करके अनेक बार क्षमा याचना की और कहा कि-आप नगर में पधारों और राज्य को संभालो! तब उसने कहा कि मैंने अनशन स्वीकार किया है और राग से मुक्त हुआ हूँ। चुगली के कड़वे फल को जानते हुए चाणक्य ने उस समय सुबंधु की कारस्तानी को जानते हुए भी उसने राजा को कुछ भी नहीं कहा। इसके बाद दो हाथ ललाट पर जोड़कर सुबंधु ने राजा से कहा कि-हे देव! मुझे आपकी आज्ञा हो तो मैं इनकी भक्ति करूँ। राजा की आज्ञा मिलते ही क्षुद्र बुद्धि वाले सुबंधु ने धूप जलाकर उसके अंगारे उपलों में डाले। राजा आदि सभी लोग अपने स्थान पर चले गये। फिर शुद्ध लेश्या में स्थिर रहा चाणक्य उस उपले की अग्नि से जल गया और देवलोक में देदीप्यमान शरीरवाला, महर्द्धिक देव हुआ। वह सुबंधु मंत्री उसके मरण से आनंद मनाने लगा। 269 For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-परपरिवाद पाप स्थानक द्वार किसी योग्य समय पर सुबंधु मंत्री ने राजा से चाणक्य के महल को रहने के लिए देने की प्रार्थना की, अतः राजा की आज्ञा से वह चाणक्य के घर गया और वहाँ मजबूत बंद किये प्रपंचवाले दरवाजे तथा गंधयुक्त कमरे को देखा 'सारा धन समूह यहीं होगा' ऐसा मानकर दरवाजे खोलकर पेटी बाहर निकाली, उसके बाद जब चूर्ण को सूंघा और लिखा हुआ भोजपत्र को देखा, उसका अर्थ भी सम्यग् रूप से जाना, तब उसके निर्णय के लिए एक पुरुष को वह चूर्ण सँघाया और उसने विषयों का भोग किया, उसी समय वह मर गया। इस तरह अन्य भी विशिष्ट वस्तुओं में निर्णय किया। तब अरे! मरते हुए भी उसने मुझे भी मार दिया। इस तरह दुःख से पीड़ित जीने की इच्छा करता वह रंक उत्तम मुनि के समान भोगादि का त्यागकर रहने लगा। इस तरह ऐसे दोष वाले पैशुन्य-चुगलखोर को और ऐसे गुणवाले उसके त्याग को जानकर हे क्षपक मुनि! आराधना के चित्त वाले तूं उस पैशुन्य को मन में नहीं रखना। इस तरह पन्द्रहवाँ पाप स्थानक कहा है, अब परपरिवाद नामक सौलहवाँ पाप स्थानक को संक्षेप में कहते हैं ।।६३७६ ।। (१६) परपरिवाद पाप स्थानक द्वार :- यहाँ लोगों के समक्ष ही जो अन्य के दोषों को कहा जाता है उसे परपरिवाद कहते हैं। वह मत्सर (ईर्ष्या) से और अपने उत्कर्ष से प्रकट होता है। क्योंकि मत्सर के कारण, स्नेह को, अपनी स्वीकार की प्रतिज्ञा को, दूसरे के किये उपकार को, परिचय को, दाक्षिण्यता को, सज्जनता को, स्वपर योग्यता के भेद को, कुलक्रम को और धर्म स्थिति को भी वह नहीं गिनता है, केवल हमेशा वह दूसरा कैसे चलता है? कैसा व्यवहार करता है? क्या विचार करता है? क्या बोलता है? अथवा क्या करता है? इस तरह पर के छिद्र देखने के मन वाला सख का अनुभव नहीं करता है, परंत केवल दःखी होता है। इस क्रम से परपरिवाद करने में एक मत्सर का ही महान कारण बनता है। फिर वह आत्मोत्कर्ष के साथ मिल जाय तो पूछना ही क्या? आत्मोत्कर्ष वाला मेरु पर्वत के समान महान आत्मा को भी अति छोटा और स्वयं तृण के समान तुच्छ होने पर भी अपने को मेरु पर्वत से भी महान मानता है। इस प्रकार मत्सर आदि प्रौढ़ कारण से परपरिवाद अकार्य को रोकने में शक्तिमान भी अविवेकी मनुष्य किस तरह शक्तिमान हो सकता है? मनुष्य जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे नीचता को प्राप्त करता है और जैसे-जैसे नीचता को प्राप्त करता है वैसे-वैसे अपूज्य-तिरस्कार पात्र बनता है। जैसे-जैसे परपरिवाद करता है वैसे-वैसे गुणों का नाश करता है, जैसे-जैसे वह गुणों का नाश करता है वैसे-वैसे दोषों का आगमन होता है और जैसे-जैसे दोषों का संक्रमण होता है वैसे-वैसे मनुष्य निंदा का पात्र बनता है। इस तरह परपरिवाद अनर्थ-अमंगल का मुख्य कारण है। परपरिवाद करने वाले मनुष्य में दोष न हो तो भी दोषों का प्रवेश होता है और यदि हो तो वह बहुत, बहुतर और बहुतम मजबूत स्थिर होते हैं। जो मनुष्य दूसरों के प्रति मत्सर और अपने उत्कर्ष से परनिंदा करता है वह अन्य जन्मों में भी चिरकाल तक हल्की योनियों में परिभ्रमण करता है। धन्य पुरुष गुण रत्नों को हरने वाले और दोषों को करने वाले परपरिवाद को जानकर परनिंदा नहीं करते हैं। क्योंकि श्री जिनेश्वरों ने तंदुलवेयालिय ग्रंथ में कहा है कि-जो सदा परनिंदा करता है, आठ मद के विस्तार में प्रसन्न होता है और अन्य की लक्ष्मी देखकर जलता है, वह सकषायी हमेशा दुःखी होता है। कुल, गण और संघ से भी बाहर किया हुआ तथा कलह और विवाद में रुचि रखनेवाले साधु को निश्चय देवलोक में भी देवों की सभाओं में बैठने का स्थान नहीं मिलता है। इसलिए जो एक व्यक्ति लोक व्यवहार विरुद्ध अकार्य को करता है और उस कार्य की जो दूसरा निंदा करता है वह उसके दोष से मिथ्या दुःखी होता है। अच्छी तरह संयम में उद्यमशील साधु को भी (१) आत्म प्रशंसा, (२) पर निंदा, (३) जीभ, (४) जननेन्द्रिय और (५) कषाय ये पाँच 270 For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-परपरिवाद पाप स्थानक द्वार-सती सुभद्रा की कथा श्री संवेगरंगशाला संयम से रहित करते है। परनिंदा की प्रकृति वाला जिन-जिन दोषों से अथवा वचन द्वारा दूसरे को दूषित करता है उन-उन दोषों को वह स्वयं प्राप्त करता है। इसलिए वह अदर्शनीय है। परपरिवाद में आसक्त और अन्य के दोषों को बोलनेवाला जीव भवांतर में जाने के बाद स्वयं उन्हीं दोषों को अनंतानंत गुणा प्राप्त करता है। इस कारण से परपरिवाद अति भयंकर विपाक वाला है, सैंकड़ों संकट का संयोग वाला है, समस्त गुणों को खींचकर ले जाने वाली दुष्ट आंधी है और सुख रूपी पर्वत को नाश करने में वज्रपात समान है, इस जन्म में सर्व दुःखों का खजाना और जन्मांतर में दुर्गति के अंदर गिराने वाला है, उस जीव को संसार से कहीं पर भी जाने नहीं देता है। सुभद्रा के श्वसुर वर्ग के समान अपयश के वाद से मारा गया तथा परनिंदा के व्यसनी लोग में निंदा को प्राप्त करता है और निंदा करने वाले उस श्वसुर वर्ग की निंदा को नहीं करनेवाली महासत्त्व वाली उस सुभद्रा ने दैवी सहायता को प्राप्त करके कीर्ति प्राप्त की। वह इस प्रकार : सती सुभद्रा की कथा चंपा नगरी में बौद्ध धर्म के भक्त एक व्यापारी पुत्र ने किसी समय जिनदत्त श्रावक की सुभद्रा नाम की पुत्री को देखा ।।६४००।। और उसके प्रति तीव्र राग वाला हुआ, उसके साथ विवाह करने की याचना की, परंतु वह मिथ्या दृष्टि होने से पिता ने उसे नहीं दी। फिर उससे विवाह करने के लिए उसने कपट से साधु के पास जैन धर्म को स्वीकार किया और बाद में वह धर्म उसे भावरूप में परिवर्तित हो गया। जिनदत्त श्रावक ने भी कपट रहित धर्म का रागी है, ऐसा निश्चय करके सुभद्रा को देकर विवाह किया और कहा कि-मेरी पुत्री को अलग घर में रखना, अन्यथा विपरीत धर्म वाले श्वसुर के घर में यह अपनी धर्म प्रवृत्ति किस तरह करेगी? उसने वह कबूल किया और उसी तरह उसे अलग घर में रखी। वह हमेशा श्री जिनपूजा, मुनिदान आदि धर्म करती थी। परंतु जैन धर्म के विरोधी होने से श्वसुर वर्ग उसके छिद्र देखते, निंदा करने लगे। उसका पति भी 'यह लोक द्वेषी है' ऐसा मानकर उनके वचनों को मन में नहीं रखता था। इस तरह सद्धर्म में रक्त उन दोनों का काल व्यतीत होता था। एक दिन अपने शरीर की सार संभाल नहीं लेने वाले त्यागी एक महामुनि ने भिक्षार्थ उसके घर में प्रवेश किया। भिक्षा को देते सुभद्रा ने मुनि की आँख में घास का तिनका गिरा हुआ देखा 'यह मुनि को पीड़ाकारी है' ऐसा जानकर सावधानीपूर्वक स्पर्श बिना जीभ से निकाल दिया, परंतु उसे दूर करते उसके मस्तक का तिलक मुनि के मस्तक पर लग गया और वह ननंद आदि ने उसे देखा। इससे लम्बे काल में निंदा का निमित्त को प्राप्तकर उसने उसके पति को कहा कि-तेरी स्त्री का इस प्रकार निष्कलंक शील को देख! अभी ही उससे भोग भोगकर इस मुनि को विदा कर दिया, यदि विश्वास न हो तो साधु के ललाट में लगा हुआ उसका तिलक देख! फिर उस तिलक को वैसा देखकर लज्जा को प्राप्त करते उसके रहस्य को जाने बिना उसका पर्व स्नेह मंद हो गया और उसके प्रति मंद आदर करनेवाला हुआ। फिर उसने श्वसुर के कुल में सर्वत्र भी उसके उस दोष को जाहिर किया और पति को अत्यंत परांगमुख देखने से और लोगों से अपने शील को दोष रूपी मैल से मलिन और जिनशासन की निंदा जानकर अति शोक को धारण करती सुभद्रा ने श्री जिन परमात्मा की पूजा करके कहा कि-'यदि कोई भी देव मुझे सहायता करेगा तभी इस काउस्सग्ग को पूर्ण करूँगी।' ऐसा कहकर अत्यंत सत्त्ववाली दृढ़ निश्चयवाली उसने काउस्सग्ग किया। उसके भाव से प्रसन्न हुए समकित दृष्टि देव वहाँ आया। और कहा कि-हे भद्रे! कहो कि तेरा जो इच्छित करने का है वह 'मैं करूँ" फिर काउस्सग्ग को पारकर सुभद्रा ने इस प्रकार कहा कि-हे देव! दुष्ट लोगों ने गलत बातें फैलाई हैं, इससे शासन की निंदा हो रही है, वह खत्म हो और शीघ्र शासन की महान प्रभावना हो, इस तरह कार्य करो। 271 For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्धार-सती सुभद्रा की कथा-माया मृघावाद पाप स्थानक द्वार देवता ने वह बात स्वीकारकर उसे इस प्रकार कहा कि-कल नगर के दरवाजे में इस तरह मजबूत बंद करूँगा कि उसे कोई भी खोल नहीं सकेगा और मैं आकाश में रहकर कहूँगा कि 'अत्यंत शुद्ध शीलवाली स्त्री चालनी में रखे जल से तीन बार छींटे देकर इन बंद दरवाजों को खोलेगी, परंतु अन्य स्त्री नहीं खोल सकेगी।' इससे उस कार्य को अनेक स्त्रियाँ साध्य नहीं कर सकेंगी, तब पूर्वोक्त विधि अनुसार तूं लीला मात्र में उसे खोल देगी। इस तरह समझाकर उस समय वह देव अदृश्य हो गया और सुभद्रा ने भी कार्य सिद्ध हो जाने से परम संतोष को प्राप्त किया। जब प्रभात हुआ तब नगर के दरवाजे नहीं खुलने से नागरिक व्याकुल हुए और उस समय आकाश में वह वाणी प्रकट हुई, तब राजा, सेनापति की तथा उत्तम कुल में जन्मी हुई शील से शोभित स्त्रियाँ द्वार को खोलने के लिए आयीं, परंतु चालनी में पानी नहीं टिकने से गर्व रहित हुईं और कार्य सिद्ध नहीं होने से वापस आयीं। इसे देखकर सारा लोग समूह अत्यंत व्याकुल हुआ। फिर पुनः नगरी में सर्वत्र शीलवती स्त्री की विशेषतया खोज होने लगी। उस समय सासु आदि को विनयपूर्वक नमस्कार करके सुभद्रा ने कहा कि-यदि आप आज्ञा दो, तो मैं भी नगर के द्वार को खोलने जाऊँ। इससे वे परस्पर गुप्त रूप में हँसने लगे और ईर्ष्यापूर्वक कहा कि-पुत्री! स्वप्न में भी दोष नहीं करने वाली, तूं ही अति प्रसिद्ध महासती है, इसलिए जल्दी जाओ और स्वयंमेव अपनी निंदा करवाओं, इसमें क्या अयोग्य है? उनके इस तरह कहने पर भी सुभद्रा स्नान करके सफेद वस्त्रों को धारणकर चालनी में पानी भरकर, लोग से पूजित और भाट चारण आदि द्वारा स्तुति कराती हुई उसने नगर के तीन दरवाजे खोलकर कहा कि-अब यह चौथा दरवाजा शील से मेरे समान जो होगी वह स्त्री फिर खोलेगी। इस तरह कहकर उसने उस दरवाजे को ऐसा ही छोड़ दिया। उस समय राजा आदि लोगों ने पूजा सत्कार किया और वह अपने घर गयी। उसके बाद उसके श्वसुर वर्ग के लोगों को मिथ्या निंदाकारक मानकर नगर जनोंने उनकी बहुत निंदा की। इसलिए वस्तु स्वरूप जानकर, हे क्षपक मुनि! श्रेष्ठ आराधना में ही तत्पर बन, परंतु अनेक संकट के कारणभूत परनिंदा को मन से भी नहीं करना। इस तरह सौलहवाँ पाप स्थानक संक्षेप से कहा है। अब माया मृषावाद नामक सत्तरहवाँ पाप स्थानक को भी कहता हूँ ।।६४३७।। (१७) माया मृषावाद पाप स्थानक द्वार :- अत्यंत क्लेश के परिणाम से उत्पन्न हुआ माया द्वार अथवा कुटिलता से युक्त मृषा वचन को माया मृषावाद अथवा मायामोष कहते हैं। इसको यद्यपि दूसरे और आठवें पाप स्थानक में भिन्न-भिन्न दोषों के वर्णन द्वारा कहा है, फिर भी मनुष्य दोनों द्वारा दूसरे को ठगने में मुख्य वेष अभिनय करने वाली चतुर वाणी द्वारा पाप में प्रवृत्ति करता है। इस कारण से इसे अलग रूप में कहा है। माया मृषा वचन भोले मनुष्यों के मन रूपी हिरण को वश करने का जाल है, शील रूपी वांस की घटादार श्रेणी का नाशक फल का प्रादुर्भाव है, ज्ञानरूपी सूर्य का अस्ताचल गमन है, मैत्री का नाशक, विनय का भंजक और अकीर्ति का कारण है, इस कारण से दुर्गति से विमुख (डरनेवाला) बुद्धिमान पुरुष किसी तरह से उसका आचरण नहीं करता और चाहे! मस्तक से पर्वत को तोड़ दो, तलवार की तीक्ष्ण धार के अग्र भाग को चबाओ, ज्वलित अग्नि की शिखा का पान करो, आत्मा को करवत से चीरो, समुद्र के पानी में डूबो अथवा यम के मुख में प्रवेश करो, अधिक क्या कहें? ये सारे कार्य करो, परंतु निमेष मात्र काल जितना भी माया मृषावाद न करो। क्योंकि मस्तक से पर्वत को तोड़ना आदि कार्य, साध्य धनवाला साहसिक धीर पुरुष को किसी समय अदृश्य सहायता के प्रभाव से अपकारक नहीं होता, यदि अपकारी हो फिर भी वह एक जन्म में ही होता है और मायामोष करने से तो अनंत भव तक भयंकर फल देने वाला होता है। जैसे खट्टे पदार्थ से दूध अथवा जै दूध आदि पंच गव्य निष्फल जाते हैं, वे बिगड़ जाते हैं वैसे माया मृषा युक्त धर्म क्रिया भी निष्फल होती है। कठोर 272 For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-कूट तपस्वी की कथा-मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार श्री संवेगरंगशाला तपस्या करो, श्रुतज्ञान का अभ्यास करो, व्रतों को धारण करो तथा चिरकाल तक चारित्र का पालन करो, परंतु वह यदि माया मृषा युक्त है तो वह गुण कारक नहीं होता है। एक ही पुरुष माया मृषावादी और अति धार्मिक इस तरह परस्पर दोनों विरोधी हैं, ये दोनों नाम भोले मनुष्यों को भी निश्चय अश्रद्धेय बनाते हैं। इसलिए आत्महित के गवेषक बुद्धिमान मनुष्य ऐसा कौन होगा कि शास्त्र में जिसके अनेक दोष सुने जाते हैं उस माया मृषावाद को करें? फिर भी यदि दुर्गति में जाने का मन हो, तो उन अठारह पाप स्थानकों में से यह एक ही होने पर माया मृषा निश्चय वहाँ ले जाने की क्रिया में समर्थ है। इस तरह यदि माया मृषा के अंदर एकांत अनेक दोष नहीं होता तो पूर्व मुनि, बिना द्वेष बड़ी आवाज से इस तरह त्याग करने के लिए नहीं कहते। इस प्रकार होने पर भी जो मुग्ध लोगों को माया मृषा द्वारा ठगकर लूटता है, वह तीन गाँव के बीच में रहने वाले कूट तपस्वी के समान शोक करता है ।।६४५३।। उसकी कथा इस प्रकार : कूट तपस्वी की कथा उज्जयनी नामक नगरी में अत्यंत कूट कपट का व्यसनी अघोर शिव नाम का महा तुच्छ ब्राह्मण रहता था। इन्द्रजाल के समान माया से लोगों को ठगने की प्रवृत्ति करता था। इससे लोगों ने नगर में से निकाल दिया था। वह अन्य देश में चला गया, वहाँ पर हल्के चोर लोगों के साथ मिल गया और अति रौद्र आशयवाले उसने उनको कहा कि-यदि तुम मेरी सेवा करो, तो मैं साधु होकर निश्चय से लोगों के धन का सही स्थान जानकर तुम्हें कहूँगा, फिर तुम सुखपूर्वक चोरी करना। चोर लोगों ने उसका कथन स्वीकार किया और वह भी त्रिदंडी वेश धारणकर तीन गाँवों के बीच के उपवन में जाकर रहा। तथा उन चोर लोगों ने जाहिर किया कि-यह ज्ञानी और महातपस्वी महात्मा है, एक महीने में आहार लेते हैं। उसे बहुत कष्टों से थका हुआ और स्वभाव से ही दुर्बल देखकर लोग 'यह महा तपस्वी है' ऐसा मानकर परम भक्ति से उसकी पूजा करने लगे। उसको वे अपने घर आमंत्रण देते, हृदय की सारी बातें कहते, निमित्त पूछते और वैभव के विस्तार को कहते थे। इस तरह प्रतिदिन उसकी सेवा करने लगे। परंतु वह बगवृत्ति से अपने आपको तो बाह्य से लोगों को उपकारी रूप में दिखाता और अंतर से चोरों को उनके भेद कहता था। और रात्री में चोरों के साथ मिलकर वह पापी उन लोगों का धन चोरी करता था। कालक्रम से वहाँ ऐसा कोई मनुष्य न रहा कि जिसके घर चोरी न हुई हो। एक समय वे एक घर में सेंध खोदने लगे और घर के मालिक ने वह जान लिया, इससे उसने सेंध के मख के पास खडे रहकर देखा और एक चोर को सर्प के समान घर में प्रवेश करते पकडा. दसरे सभी भाग गये। प्रभात का समय होते ही चोर राजा को अर्पण किया। राजा ने कहा कि-यदि तूं सत्य कहेगा तो तुझे छोड़ दिया जायगा। फिर भी उसने सत्य नहीं कहा, तब चाबुक, दण्ड, पत्थर और मुट्ठी से बहुत मारते उसने सारा वृत्तांत कहा, इससे शीघ्र ही उस त्रिदंडी को भी बाँधकर उपवन में से लाया और वहाँ तक उसे इतना मारा कि जब तक उसने भी अपने दुराचार को स्वीकार नहीं किया। फिर वेदज्ञ ब्राह्मण का पुत्र मानकर राजा ने उसकी दोनों आँखें निकाल दी और तिरस्कार करके उसी समय उसे नगर से निकाल दिया। बाद में भिक्षार्थ घूमते, लोगों से तिरस्कार प्राप्त करते और दुःख से पीड़ित होते, वह 'हाय! मैंने यह क्या किया?' इस तरह अपने आपका शोक करने लगा। इस तरह हे सुंदर! अविनय जिसमें मुख्य है और अन्याय का भंडार रूप माया मृषा को छोड़कर तूं परम प्रधान मन की समाधि को स्वीकार कर। इस तरह सत्तरहवाँ पाप स्थानक कहा। अब मिथ्या दर्शन शल्य नाम का अठारहवाँ पाप स्थानक कहता हूँ ।।६४७२ ।। (१८) मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार :- दृष्टि की विपरीतता रूप एक साथ दो चंद्र के दर्शन के - 273 For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - प्रथम अनुशास्ति द्वार - मिध्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार समान जो मिथ्या, अर्थात् विपरीत दर्शन उसे यहाँ मिथ्या दर्शन कहा है और वह शल्य के समान मुश्किल से नाश होता है, दुःखों को देने वाला होने से उसे 'मिथ्या दर्शन शल्य' नाम से उपचार किया है। यह शल्य दो प्रकार का है, प्रथम द्रव्य और दूसरा भाव से । उसमें द्रव्य शल्य भाला, तलवार आदि शस्त्र और भाव शल्य मिथ्या दर्शन जानना। शल्य के समान हृदय में रहा हुआ, सभी दुःखों का कारण मिथ्या दर्शन शल्य भयंकर विपाक वाला है। प्रथम द्रव्य शल्य निश्चय एक को ही दुःख का कारण है और दूसरा जो भाव शल्य है वह स्व- पर उभय को भी दुःख का कारण बनता है। जैसे राहु की प्रभा का समूह केवल सूर्य के ही प्रकाश को नाश नहीं करता, परंतु अंधकारत्व से समग्र जगत के प्रकाश को भी नाश करता है, इस तरह फैलता हुआ भाव शल्य भी एक उस आत्मा को ही नहीं परंतु समग्र जगत के प्रकाश (सम्यक्त्व) का भी नाश करता है। इस प्रकार होने से मिथ्या दर्शन रूपी राहु की प्रभा के समूह से सम्यक्त्व का प्रकाश नाश होता है और भाव अंधकार के समूह को करनेवाले मिथ्या दर्शन से जो मुरझा जाता है वह मूढात्मा किसी भी पुरुष रूपी सूर्य में और अपने जीवन में भी वह मिथ्यात्व रूप अंधकार को ही बढ़ाता है, और परंपरा से फैलता हुआ प्रमाण रहित, अमर्यादित वह अंधकार से व्याप्त है, इसलिए अंधकारमय पर्वत की गुफा के समान प्रकाश रहित इस जगत में संसारवास से उद्विग्न और पदार्थों को सम्यग् जानने की इच्छा वाले जीव भी को सम्यक्त्व का प्रकाश सुखपूर्वक इस पापस्थानक की उपस्थिति में किस तरह प्राप्त कर सकते हैं? और यह मिथ्या दर्शन शल्य दिग्मोह है, आँखों के ऊपर बाँधी हुई पट्टी है, यही जन्मांध जीवन है, यही आँखों को नाश करने का उपाय है, अथवा वह इस जगत को शीघ्र हमेशा परिभ्रमण करने वाला चक्र है। अथवा वह इस समुद्र की ओर दक्षिण में जानेवाले की इच्छा वाले का हिमवंत की ओर उत्तर में गमन है या पीलिया के रोगी का वह मिथ्या ज्ञान है अथवा वह बुद्धि का विभ्रम है अथवा वह सीप में रजत का भ्रान्त ज्ञान है अथवा वह मृग तृष्णा में उज्ज्वल जल का दर्शन है अथवा तो वह इस लोक में सुनी जाती विपरीत धातु है अथवा वह अकाल में उत्पन्न हुआ उपद्रव है तथा वह रजो वृष्टि का उत्पात है अथवा वह निश्चय घोर अंध कुएँ रूपी गुफा में पतन है, क्योंकि मिथ्या दर्शन रूपी शल्य सम्यक्त्व को रोकने वाला प्रति मल्ल है और सन्मार्ग में चलने वाले को महान् कीचड़ का समूह है। और इसके कारण जीव जो अदेव को भी देव, अगुरु को भी गुरु, अतत्त्व को भी तत्त्व और अधर्म को भी धर्म रूप में मानता है तथा जो परम पद का साधक है, यथोक्त गुण वाले देव, गुरु, तत्त्व और धर्म में अरुचि अथवा प्रद्वेष को करता है तथा देव आदि परम पदार्थों में उदासीनता से करता है वह सर्व इस विश्व में मिथ्या दर्शन शल्य का दुष्ट विलास है। तथा यह मिथ्या दर्शन शल्य सर्व प्रकार से जीता अविवेक का मूल बीज है, क्योंकि मिथ्यात्व से मनुष्य बुद्धिमान होकर भी मूढ़ मन वाला हो जाता है। जैसे अि तृषातुर मृग मृगजल में भी पानी को खोजता है वैसे मिथ्यात्व से मूढ़ मनवाला गलत को सत्य देखता है। जैसे धतूरे का भक्षण करनेवाला पुरुष मिथ्या पदार्थ को भी सत्य देखता है, वैसे मिथ्यात्व से मूढ़ मति वाला धर्म अधर्म के विषय में उलटा देखता है। अनादिकाल से मिथ्यात्व की भावना से मूढ़ बना जीव मिथ्यात्व के क्षयोपशम से प्राप्त सम्यक्त्व में दुःख से प्रीति करता है। उसमें रुचि करते पीड़ा होती है। तीव्र मिथ्यात्वी जीव जो महान दोष करता है ऐसा दोष अग्नि भी नहीं करती है, जहर भी नहीं करता है और काला नाग भी नहीं करता है। जैसे अच्छी तरह जल से धोये भी कड़वे पात्र में दूध का नाश होता है, वैसे मिथ्यात्व से कलुषित जीव में प्रकट हुआ तप, ज्ञान और चारित्र का विनाश होता है। यह मिथ्यात्व संसार रूप महान् वृक्ष के बड़े बीज रूप में है, इसलिए मोक्ष को चाहने वाले 274 For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-मिथ्या दर्शन शल्य पाप स्थानक द्वार- जमाली की कथा श्री संवेगरंगशाला आत्माओं को उसका त्याग करना चाहिए ।। ६५०० || मिथ्यात्व से मूढ़ मन वाला जीव मिथ्या शास्त्रों के श्रवण से प्रकट हुई कुवासना से वासित होता है, अतत्त्व, तत्त्व अथवा आत्मतत्त्व को भी नहीं जानता है। मिथ्यात्व के अंधकार से विवेक रूपी नेत्र को बंद करनेवाला जीव, उल्लू के समान सद्धर्म को जाननेवाले धर्मोपदेशक रूपी सूर्य को भी नहीं देख सकता है। यदि मनुष्य में यह एक ही मिथ्यात्व रूप शल्य लगा है तो सर्व दुःखों के लिए वही पर्याप्त है अन्य दोष से कोई प्रयोजन नहीं है। जहर से युक्त बाण से भेदन हुआ पुरुष उसका प्रतिकार नहीं करने से जैसे वह वेदना प्राप्त करता है वैसे मिथ्यात्व शल्य से वेधा गया यदि उसे दूर नहीं करता है तो वह जीव तीव्र वेदना को प्राप्त करता है। इसलिए हे सुंदर ! चतुराई को प्रकटकर शीघ्र मिथ्यात्व को दूर करके हमेशा सम्यक्त्व में ममता रख। यह मिथ्या दर्शन शल्य वस्तु का उलटा बोध करानेवाला है, सद्धर्म को दूषित करने वाला और संसार अटवी में परिभ्रमण कराने वाला है। मनमंदिर में सम्यक्त्व रूप दीपक ऐसा प्रकाशित कर दे कि मिथ्यात्व रूप प्रचंड पवन तुझे प्रेरणा न कर सके, अथवा ज्ञान रूपी दीपक बुझा न सके। पुण्य के समूह से लभ्य सम्यक्त्व रत्न मिलने पर भी मिथ्याभिमान रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बना हुआ जीव जमाली के समान उस सम्यक्त्व का नाश करता है । । ६५०८ ।। उसका प्रबंध इस प्रकार : जमाली की कथा जगत् गुरु श्री वर्धमान स्वामी के पास भगवंत की बहन के पुत्र जमाली ने राज्य सुख को त्यागकर पाँच सौराज पुत्रों के साथ दीक्षा ली थी और उत्तम धर्म की श्रद्धापूर्वक संवेग से साधु जीवन की क्रिया में प्रवृत्ति करता था। एक समय पित्त ज्वर की तीव्र पीड़ा से निरुत्साही हुआ, तब उसने शयन के लिए अपने स्थविरों को संथारा बिछाने के लिए कहा। कहने के बाद शीघ्रता से मुनि संथारा बिछा रहे थें तब थोड़े समय का भी काल विलंब सहन करने में असमर्थ होने से उन्होंने पुनः साधुओं को पूछा कि - क्या संथारा बिछा दिया? साधुओं ने थोड़ा संथारा बिछाया था फिर भी ऐसा कहा - 'संथारा बिछा दिया है' तब जमाली उस स्थान पर आया, और संथारे को बिछाते देखकर सहसा भ्रमणा प्राप्त कर उसने कहा कि हे मुनियों! असत्य क्यों बोल रहे हो? जो कि 'बिछाते हुए भी संथारे को 'बिछा दिया' ऐसा बोलते हो?' तब स्थविरों ने कहा कि 'जैसे तीन जगत में जो कार्य प्रारंभ हो गया उस कार्य को श्री वीर परमात्मा ने किया' ऐसा कहने का कहा हैं वैसे बिछाते - बिछाते संथारे को बिछाया ऐसा कहने में क्या अयुक्त है? उन्होंने ऐसा कहा फिर भी मिथ्या आग्रह से सम्यक्त्व भ्रष्ट हुआ, इससे 'कार्य पूर्ण होने पर ही वह कार्य हुआ कहना चाहिए' ऐसा गलत पक्ष की स्थापनाकर उसमें चंचल बना त्रिलोक बंधु वीर प्रभु का विरोधी बना। दुष्कर तप करने पर भी मुग्ध मनुष्यों को भ्रम में डालते वह जमाली चिरकाल तक पृथ्वी के ऊपर विचरता रहा। और अपनी पुत्री को अपने हाथ से दीक्षा दी तथा सदा स्वयं ने साध्वी प्रियदर्शना को अध्ययन करवाया था परंतु मिथ्यात्व दोष से जमाली के मत के अनुसार चलने वाली थी । अहो ! आश्चर्य की बात है कि तीन जगत जगतगुरु प्रत्यक्ष सूर्य समान उपस्थित होते हुए उनकी ही पुत्री और जमाई भी प्रभु श्री वर्धमान स्वामी के विरोधी हुए । इस विषय पर अधिक क्या कहें? केवल संयम को विफल बनाकर जमाली मरकर लांतक कल्प में किल्बिष देव हुआ । उसका वह चारित्र गुण, वह ज्ञान की उत्कृष्टता और उसका वह सुंदर संयम जीवन सब एक साथ ही नाश हुआ। ऐसे मिथ्याभिमान को धिक्कार हो । हे सुंदर ! जिस मिथ्यात्व के परदे से आच्छादित हुए जीव को उसी क्षण में वस्तु भी अवस्तु रूप दिखती है । यदि उसकी वह सम्यक्त्व आदि गुण रूप लक्ष्मी मिथ्यात्व के अंधकार से आच्छादित न हुई होती तो हम नहीं 275 For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संदेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-जातिमद द्वार जानते कि उसका कितना अधिक हित होता? इस प्रकार जानकर हे वत्स! विवेकरूपी अमृत का पान करके तूं मन रूपी शरीर में व्याप्त हुए इस मिथ्यात्व रूपी जहर का सर्वथा वमन कर! तथा मिथ्यात्व के जहर से मुक्त और उसके सर्व विकार से रहित, स्वस्थ बना हुआ तूं प्रस्तुत आराधना को सम्यग् रूप में प्राप्त कर। इस तरह यह मिथ्या दर्शन शल्य को कहा है और उसे कहने से सभी अठारह पाप स्थानक कहे हैं। ये पाप स्थानक में एकएक भी पाप महादुःखदायी है तो वे सभी का समूह तो जो दुःखदायी बनता है उसमें क्या कहना? इस लोक के सुख में आसक्त जीव, जीव की हिंसा करने से, दूसरों को कठोर आदि झूठ बोलकर, दूसरे के धन को हरण कर, मनुष्य देव और तिर्यंच की स्त्रियों के विषय की अति आसक्ति द्वारा, नित्य अपरिमित विविध परिग्रह का आरंभ करने से, विरोधजनक क्रोध द्वारा, तथा दुःख के कारण मान द्वारा, स्पष्ट अपायरूप माया द्वारा, सुख अथवा शोभा का नाश करने वाले लोभ द्वारा, उत्तम मुनियों के द्वारा छोड़े हुए दुष्ट राग द्वारा, कुगति पोषक द्वेष द्वारा, स्नेह के शत्रु कलह द्वारा, खल नीच अभ्याख्यान द्वारा, संसार की प्राप्ति कराने वाली अरति रति द्वारा, अपयश के महान प्रवाह रूप पर निंदा द्वारा, नीच अधम पुरुषों के मन को प्रसन्न करने वाला माया मृषावाद द्वारा और अत्यंत संकलेश से प्रकट हआ. शद्ध मार्ग में विघ्न करने वाला महासभट रूप मल्ल के समान मिथ्या दर्शन शल्य द्वारा परलोक की चिंता, भय से रहित, मूढ़ात्मा अपने सुख के लिए मन, वचन और काया से कठोर पाप के समूह को उपार्जन करता है। इससे चौरासी लाख योनि से व्याप्त अनादि भवसागर में बार-बार जन्म-मरण करते चिरकाल तक परिभ्रमण करता है और जो मूढ़ात्मा अपने में अथवा दूसरे में भी इन पाप स्थानों को उत्पन्न करता है और उससे उसे जो कर्म का बंध होता है उससे वह भी लिप्त होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय! इसे जानकर प्रयत्नशील तूं उन पापस्थानकों से शीघ्र रूककर उसके प्रतिपक्ष में अर्थात् अहिंसा सत्यादि में उद्यम कर। इस तरह अनुशास्ति द्वार में अठारह पाप स्थानक का यह प्रथम अंतर द्वार कहा है अब आठ मदस्थान का दूसरा अंतर द्वार कहते हैं ।।६५३९।। आठ मदस्थान त्याग नामक दूसरा अनुशास्ति द्वार : गुरु महाराज क्षपक मुनि को अठारह पाप स्थानक से विरक्त चित्त वाला जानकर सविशेष गुण की प्राप्ति के लिए इस प्रकार कहते है कि-हे गुणाकर! हे आराधनारूपी महान् गाड़ी का जुआ (धूरी) उठाने में वृषभ समान! धन्य है, कि तूं इस आराधना में स्थिर है, सारे मनोविकार को रोककर त्याग करने योग्य धर्मार्थी को सदा अकरणीय, नीच जन के आदरणीय और गुणधन को लूटने में शत्रु सैन्य समान, अष्टमद का त्याग करना चाहिए। वह (१) जातिमद, (२) कुलमद, (३) रूपमद, (४) बलमद, (५) श्रुतमद, (६) तपमद, (७) लाभमद और (८) ऐश्वर्यमद हैं। इसे अनुक्रम से कहते हैं : (१) जातिमद द्वार :-हे श्री जिनवचन से युक्त बुद्धिमान! तुझे तीव्र संताप कारक और अनर्थ का मुख्य कारण भूत प्रथम जातिमद नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह जातिमद करने से कालान्तर में तथाविध दुःखद अवस्थान को प्राप्त करवाकर मानी पुरुषों के भी मान को अवश्यमेव मलिन करता है। और बहुत काल तक नीच योनियों में दुःख से पीड़ित जहाँ तहाँ भ्रमण करके वर्तमान में महा मुश्किल से एक बार उच्च गोत्र मिलने पर बुद्धिमान पुरुष को मद करने का अवसर कैसे हो? अथवा तो जातिमद तब कर सकता है कि यदि वह उत्तम जाति रूप गुण हमेशा स्थिर रहे तो, अन्यथा वायु से फूली हुई मसक के समान मिथ्यामद करने से क्या लाभ? संसार में कर्मवश से होती उत्तम, मध्यम और जघन्य जातियों को देखकर तत्त्व के सम्यग् ज्ञाता कौन ऐसा मद करे? संसार में जीव इन्द्रियों की रचना से एक दो तीन आदि इन्द्रिय वाला अनेक प्रकार की जातियों को प्राप्त करता है 276 For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-जातिमद द्वार-ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत श्री संवेगरंगशाला इसलिए उन जातियों की स्थिरता शाश्वत नहीं होती है। इस संसार में राजा अथवा ब्राह्मण होकर भी यदि जन्मान्तर में वह कर्मवश चण्डाल भी होता है तो उसके मद से क्या लाभ? और सर्वश्रेष्ठ जातिवाले को भी कल्याण का कारण तो गुण ही है, क्योंकि जातिहीन भी गुणवान लोक में पूजा जाता है। 'वेदों का पाठक और जनेऊ का धारक हूँ, इससे लोक में गौरव को प्राप्त करते मैं ब्राह्मण सर्व में उत्तम हूँ इस तरह जातिमद से उन्मत बनें ब्राह्मण को भी यदि नीच लोगों के घर में नौकर होना पड़ता है, तो उसे जातिमद नहीं परंतु मरण का शरण करना पड़ता है। जातिमद करने से जीव नीच गोत्र का ही बंध करता है। इस विषय पर श्रावस्ती वासी ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत है ।।६५५४।। वह इस प्रकार :-- ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत देवमंदिर, चार कोने वाली बावड़ी, लम्बी बावड़ी, गोलाकार बावड़ी तथा बाग की श्रेणियों से रमणीय श्रावस्तीपुरी में अनेक राजाओं को चरण कमल में नमानेवाला और जगत प्रसिद्ध नरेन्द्र सिंह नाम का राजा था। उसे वेद के अर्थ के विचार करने में कुशल अमरदत्त नामक पुरोहित था। उस पुरोहित का सुलस नामक पुत्र यौवनवय से ही श्रुतज्ञान से, वैभव से और राजा के सत्कार से अत्यंत गर्व को धारण करता था। समान वय वाले मित्रों से घिरा हुआ वह निरंकुश हाथी के समान लोकापवाद का भी अपमान करके नगर के मुख्य बड़े आदि राजमार्ग में स्वच्छंदतापूर्वक घूमता था। एक समय सुखपूर्वक बैठा हुआ उसे माली ने ,-, गुंजार करते भौंरों से भरी हुइ आम की मंजरी भेंट दी। कामदेव ने स्वहस्त से लिखा हुआ आमंत्रण पत्र हो इस तरह मंजरी लेकर वसंत मास आया हो ऐसा मानकर प्रसन्न हुआ, वह अपने हाथ से माली को दान देकर चतुर परिवार से घिरा हुआ शीघ्र नंदन नामक उद्यान में गया। फिर विनय से खडे हए नंदन उद्यान के रक्षक ने उसे कहा-हे कुमार! आप स्वयं एक क्षण इस प्रदेश में दृष्टिपात करें। फैलती श्रेष्ठ सुगंध से आये हुए भ्रमरों के समूह से शोभती डालियों के अंतिम भाग वाले बकुल वृक्ष हाथ में पकड़े हुए रुद्राक्ष माला वाले जोगी के समान शोभते थे। ऊँचे बढ़े हुए पत्तों से आकाश तल के विस्तार को स्पर्श करते कमेलि वृक्ष भी प्रज्वलित अग्नि के समूह के समान विरही जनों को संताप करता है, और कमलरूपी मुखवाली, केसुड़ के पुष्परूपी रेशमी वस्त्र वाली, मालती की कलियाँ रूपी दांत वाली, पाटल वृक्ष रूपी नेत्रों वाली, कलियाँ वाला कुरूबक जाति वृक्ष का गुच्छ रूप महान् स्तनवाली और स्फुरायमान अति कोमल तिलक वृक्षरूप तिलक वाली यह वन लक्ष्मी कोयल के मधुर आवाज से कामदेव रूपी राजा के तीन जगत के विजय यश के गीत गाती हो। इस तरह वह गा रही थी। इस तरह नंदन वनपालक ने प्रकट वृक्ष की शोभा बताने से दो गुणा उत्साह वाला वह उद्यान के अंदर परिभ्रमण करने लगा। वहाँ घूमते हुए उसने किसी तरह वन की गाढ़ झाड़ियों के बीच एकांत में रहे स्वाध्याय करते एक महामुनिवर को देखा। फिर पापिष्ठ मन से अत्यंत जातिमद को धारण करते हँसी करने की इच्छा से मुनि श्री को (माया से) भक्तिपूर्वक वंदन किया और कहा कि-हे भगवंत! संसार के भय से डरा हुआ मुझे आप अपना धर्म कहो, कि जिससे आपके चरण कमल में दीक्षा स्वीकार करूँ। सरल स्वभाव से मुनि ने प्राणिवध, मृषावाद, परद्रव्य, मैथुन और परिग्रह के त्याग युक्त पिंड विशुद्धि आदि श्रेष्ठ गुणों के समूह से सुंदर जगत गुरु श्री जिनेश्वर भगवान ने उसका मूल जीव दया कहा है, इससे शिवगति की प्राप्ति होती है, अतः शिवगति प्राप्त न हो वहाँ तक धर्म की अच्छी तरह आराधना करने को कहा है। यह सुनकर वह हँसीपूर्वक ऐसा बोलने लगा कि___हे साधु! किस ठग ने तुझे इस तरह ठग लिया है, कि जिससे प्रत्यक्ष दिखते हुए दिव्य विषय सुख को 277 For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-जातिमद द्वार-ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत छोड़कर अपने को और पर को क्लेश की चिंता में डालता है? जीव-दया करने से धर्म और उसका फल मोक्ष है, परंतु किसने देखकर कहा है कि जिससे इस तरह कष्ट सहन करते हो? अतः मेरे साथ चलो, इस वन की शोभा देखो, पाखण्ड को छोड़कर, महल में रहकर स्वेच्छानुसार स्त्रियों के साथ विलास करो।' इस तरह अयोग्य वचनों द्वारा अपने साथ रहे परिवार को हँसाते उसने मनि को हाथ से पकडकर वहाँ से घर की ओर ले जाने लगा। उस समय मुनि के हास्य से क्रोधित हुई वनदेवी ने उसे काष्ठ समान बेहोश कर पृथ्वी पर गिरा दिया। मुनि अल्प भी प्रद्वेष किये बिना स्वकर्त्तव्य में स्थिर रहे, और सुलस की ऐसी अवस्था देखकर मित्र वर्ग उसे घर ले गये, और यह सारा वृत्तांत उसके पिता से कहा। दुःख से पीड़ित पिता ने उसकी शांति के लिए देवपूजा आदि विविध उपाय किये। फिर भी उसको अल्प भी शांति नहीं हुई। इससे उसे लाकर मुनि के पास रखा, वहाँ कुछ स्वस्थ हुआ। तब उसके पिता ने मुनि श्री से कहा कि-हे भगवंत! आपका अपमान करने का फल इसने प्राप्त किया है, अतः आप कृपा करे और मेरे पुत्र का दोष दूर कर दे। इत्यादि नाना प्रकार से पुरोहित ने कहा, तब देवी ने कहा कि-अरे! म्लेच्छ तुल्य! तूं स्वच्छंदता पूर्वक बहुत क्या बोलता है? यदि यह तेरा दुष्ट पुत्र सदा मुनि के पास दास के समान प्रवृत्ति करेगा तो स्वस्थता को प्राप्त करेगा, अन्यथा जीता नहीं रहेगा। अतः किसी तरह भी यदि जीता रहेगा तो मैं देख सकूँगा। इस तरह चिंतनकर उसके पिता ने उसे मुनि को सौंपा। उस मुनि ने भी इस तरह कहा कि- 'साधु असंयमी गृहस्थ को स्वीकार नहीं करते हैं।' इसलिए यदि दीक्षा को स्वीकार करे तो यह मेरे पास रहे। मुनि के ऐसा कहने पर पुरोहित ने पुत्र से कहा कि-हे वत्स! यद्यपि तेरे सामने इस तरह कहना योग्य नहीं है, फिर भी तेरे जीवन में दूसरा उपाय कोई नहीं है, इसलिए इस साधु के पास दीक्षा को स्वीकार कर। हे पत्र! धर्म के आचरण करते तेरा अहित नहीं होगा. क्योंकि मन वांछित की प्राप्ति कराने में समर्थ धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। फिर मृत्यु होने के अति कठोर संताप से दीन मुख वचन वाले सुलस ने अनिच्छा से भी पिता के वचन को मान दिया और मुनि ने उसे दीक्षा दी। सर्व कर्त्तव्य की विधि की शिक्षा दी और उचित समय में शास्त्रार्थ का विस्तारपूर्वक अध्ययन करवाया, फिर केवल मृत्यु के भय से दीक्षा लेने वाला भी वह विविध सूत्र-अर्थ का परावर्तन करते जैन धर्म में स्थिर हुआ और विनय करने में रक्त बना। परंतु मद के अशुभ फल को जानते हुए भी वह जातिमद को नहीं छोड़ता था, आखिर में उसकी आलोचना किये बिना आयुष्य पूर्ण किया और सौधर्म देवलोक में देव हुआ। वहाँ आयुष्य का क्षय होते ही वहाँ से च्यवन हो कर जातिमद के दोष से नंदीवर्धन नगर में चण्डाल पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, पूर्व जन्म में किये अल्प सुकृत्य के योग से वह रूपवान और सौभाग्यशाली हुआ और क्रमशः उसने मानवों के मन और आँखों को आनंदप्रद यौवनवय को प्राप्त किया। विलास करते नागरिकों को देखकर वह इस तरह विचार करता है किशिष्टजनों के निंदा पात्र मेरे जीवन को धिक्कार हो! कि जिस चंडाल की संगत से मेरी यह श्रेष्ठ यौवन लक्ष्मी भी शोभा रहित बनी और अरण्य की कमलिनी के समान उत्तम पुरुषों को सुख देने वाली नहीं बनी। हे हत विधाता! यदि तूंने मेरा जन्म निंदित कुल में दिया तो निश्चय निष्फल रूपादि गुण किसलिए दिया? अथवा ऐसे निरर्थक खेद करने से भी क्या लाभ? उस देश में जाऊँ कि जहाँ मेरी जाति को कोई मनुष्य नहीं जानें। इस तरह विचारकर अपने स्वजन और मित्रों को कहे बिना, कोई भी नहीं जानें इस तरह वह अपनी नगरी से निकल गया ।।६६००।। और चलते हुए अति दूर प्रदेश में रहे कुंडिननगर में वह पहुँचा। वहाँ राजा के ब्राह्मण मंत्री की सेवा करने लगा, अपने गुणों से मंत्री की परम प्रसन्नता का पात्र बना और निःशंकता से पाँच प्रकार के विषय सुख को भोगने लगा। एक समय संगीत में अति कुशल उसके मित्र श्रावस्ती से घूमते हुए वहाँ आये और मंत्री के सामने गीत 278 For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-दूसरा अनुशास्ति द्वार-कुलमद द्वार-मरिचि की कथा श्री संवेगरंगशाला गाते उन्होंने उसे देखा। इससे हर्ष के आवेश वश भावी दोषों का विचार किये बिना ही उन्होंने उसे कहा किहे मित्र! यहाँ आओ, जिससे बहुत काल के बाद हुए तेरे दर्शन के उचित हम आलिंगन आदि करें। और आपके पिता आदि का वृत्तांत सुनाएं। फिर उनको देखकर वह मुंह छुपाकर चला गया, इससे विस्मय प्राप्तकर मंत्री ने उनसे असली बात पूछी। सरलता से उन्होंने यथास्थिति कह दी। इससे क्रोधित होकर उसे शूली के प्रयोग से मार देने की आज्ञा की। राज पुरुष उसे गधे पर बिठाकर तिरस्कार पूर्वक नगर में घुमाकर शूली के पास ले गये। उस समय प्रसन्न रूप वाले को देखकर एक जोगीश्वर को अति करुणा प्रकट हुई, उनके पास अंजन सिद्धि थी। उसने विचार किया कि यह पुरुष अकाल में छोटी-सी उम्र वाला बिचारा अभी ही मर जायगा? अतः अंजन की सलाई से स्वयं अदृश्य बनकर उसके आँखों में अंजन डाला और कहा कि-यम से भी निर्भय होकर यहाँ से चला जा। फिर अंजन सिद्धि के साधक को विनयपूर्वक नमस्कार कर वह वहाँ से भागा, और आखिर मरकर कई जन्मों तक नीच योनियों में जन्म लिया। फिर मनुष्य जन्म को प्राप्त किया और वहाँ केवली भगवंत से अपने पूर्व जन्म को जानकर दीक्षा स्वीकार की, वहाँ आयुष्य पूर्णकर माहेन्द्र कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। इस तरह हे क्षपक मुनि! जातिमद से होने वाले दोष को देखकर तुझे अनिष्ट फलदायक जातिमद अल्प भी नहीं करना चाहिए। इस तरह प्रथम मद स्थान कहा और अब मैं कुल के मद का दूसरा मद स्थान अल्पमात्र कहता हूँ ।।६६१५।। (२) कुलमद द्वार :-जातिमद के समान कुलमद को करने से निर्गुणी परमार्थ से अज्ञ मनुष्य अपने आपको दुःखी करता है। क्योंकि इस लोक में स्वयं दुरात्मा को गुण से युक्त उत्तम कुल भी क्या लाभ करता है? क्या सुगंध से भरे हुए पुष्प में कीड़े उत्पन्न नहीं होते हैं? हीन कुल में जन्मे हुए भी गुणवान सर्व प्रकार से लोक पूज्य बनते हैं; तथा कीचड़ में उत्पन्न हुए भी कमल को मनुष्य मस्तक पर धारण करते हैं। उत्तम कुल वाले भी मनुष्य यदि शील, बल, रूप, बुद्धि, श्रुत, वैभव आदि से रहित हो और अन्य पवित्र गुणों से रहित हो तो कुलमद करने से क्या लाभ है? कुल भले अति ऊंच हो और कुशील को अलंकार से भूषित भी करो, परंतु चोरी आदि दुष्ट आसक्ति वाले उस कुशील को कुलमद करने से क्या हितकर है? उत्तम कुल में जन्म लेनेवाला भी यदि हीन कुल वाले का मुख देखता है उसका दासत्व स्वीकार करता है तो उसको कुलमद नहीं करना परंतु मरना ही श्रेयस्कर है और दूसरी बात यह है कि यदि गुण नहीं है तो कुल से क्या प्रयोजन है? गुणवंत को कुल का प्रयोजन नहीं है, गुण रहित मनुष्यों को निष्कलंक कुल की प्राप्ति यह भी एक महान् कलंक है। यदि उस समय मरिचि ने कुल का मद नहीं किया होता, तो अंतिम जन्म में कुल बदलने का समय नहीं आता ।।६६२३।। उसका दृष्टांत इस प्रकार है : मरिचि की कथा नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव के राज्य काल में अभिषेक में उद्यम करते विवेकी युगलिकों का विनय देखकर प्रसन्न चित्त हुए इन्द्र ने श्रेष्ठ विनीता नगरी बनायी थी। त्रिभुवन पति श्री ऋषभदेव भगवान के चरणों रूपी कमलों के स्पर्श से पूजित विनीता नगरी के सामने इन्द्रपुरी भी अल्पमात्र श्रेष्ठता को प्राप्त नहीं कर सकी। मैं मानता हूँ कि उसके महान् सौन्दर्य को फैलते नजर से देखते देवता वहीं पर ही अनिमेषत्व प्राप्त करते हैं। राजाओं के मस्तक मणि के किरणों से व्याप्त चरण वाले और भयंकर चक्र द्वारा शत्रु समूह को कंपायमान करने वाले भरत राजा उसका पालन करता था। जिस भरत महाराजा के शत्रु की स्त्रियों का समूह स्तन पीठ ऊपर गिरते आंसु वाली, बड़े मार्ग की उड़ती धूल से नष्ट हुई शरीर की कांति के विस्तार वाली, आहार ग्रहण से मुक्त (भूख से पीडित होने से) बील के फल से जीते, सर्प और मेंढक के बच्चों से भरे हुए घर (जंगल) में रहते और प्रकट शिकारी - 279 For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - अनुशास्ति द्वार-कुलमद द्वार-मरिचि की कथा प्राणियों की वेदना को सहन करते, दुःखी होते हुए भी मानो सुखी समान था । (सुख के पक्ष में) स्तन पीठ ऊपर से सरकते वस्त्रों वाला, महाप्रभा वाले रत्नों से उज्ज्वल शरीर की कांति के विस्तार वाला, मोती के हार को धारण करते राजलक्ष्मी और फल समूह को भोगते, हाथी, घोड़ों से शोभित महल में रहते और प्रकट चामर से सेवा होती थी। उसकी वामा नाम की प्रिय पत्नी ने उचित काल में किरणों के कांति समूह को फैलाते सूर्य के समान पुत्र को जन्म दिया। इससे बारहवें दिन राजा ने बड़े वैभव से जन्मकाल के अनुरूप उसका नाम 'मरिचि' स्थापन किया। बाल काल पूर्ण होने के बाद एक समय वह महात्मा मरिचि श्री ऋषभ जिनेश्वर के पास धर्म सुनकर प्रतिबोधित हुआ। जीवन को कमलिनी पत्र के अंतिम विभाग में लगे जल बिंदु समान चंचल और संसार में उत्पन्न होते सारे वस्तु समूह को विनश्वर जानकर, विषयसुख का त्यागी और स्वजनादि के राग की भी अपेक्षा बिना उसने श्री ऋषभदेव के पास संयम के उद्यम को स्वीकार किया । फिर उत्तम श्रद्धा से स्थविरों के पास सामायिकादि अंग सूत्रों का अध्ययन करते श्रीजिनेश्वर भगवान के साथ विचरने लगा । अन्यथा किसी समय सूर्य के प्रचंड किरणों से विकराल ग्रीष्म ऋतु आयी, तब पृथ्वी तल अति गरम हो गया और पत्थर के टुकड़े के समूह के स्पर्श समान कठोर स्पर्श वाला वायुमंडल हो गया और स्नान नहीं करने के कारण पीड़ित मरिचि इस तरह कुवेश का चिंतन करने लगा कि तीन दण्ड से विरक्त श्रमण भगवंत तो स्थिर शरीर वाले होते हैं, परंतु इन्द्रिय दण्ड को नहीं जीतने वाला मैं त्रिदण्ड का चिह्न वाला बनूँ । साधु लोच से मुण्डन मस्तक वाले होते हैं, मैं तो अस्त्र से मुण्डन वाला, चोटी रखने वाला बनूँ, मैं हमेशा स्थूल हिंसा की विरति वाला बनूँ । साधु अकिंचन (धन से रहित) होते हैं, परंतु मुझे तो कुछ परिग्रह होगा। साधु शील से सुगंध वाले हैं, मैं तो शील से दुर्गंध वाला हूँ। साधु मोह रहित है, मैं मोह से आच्छादित हुँ अतः छत्र धारण करूँगा, साधु जूते रहित होते हैं मैं तो जूते रखूँगा । साधु श्वेत वस्त्र वाले शोभा रहित होते हैं, मेरे रंगीन वस्त्र हों, क्योंकि - कषाय से कलुषित मति वाला में उसके योग्य हूँ। पापभीरु साधु अनेक जीवों से व्यास जल के आरंभ का त्याग करते हैं, मुझे तो परिमित जल से स्नान और जल पान भी होगा। इस तरह उसने स्वच्छंद बुद्धि से कल्पना कर बहुत विचित्र युक्तियों से संयुक्त, साधुओं से विलक्षण रूप वाला परिव्राजक वेश की प्रवृत्ति की। परंतु वह जिनेश्वर भगवान के साथ विहार करता था और भव्य जीवों को प्रतिबोध करके तीन जगत एक गुरु ऋषभदेव स्वामी को शिष्य रूप में अर्पण करता था । एक दिन भरत महाराजा समवसरण में आया और श्री ऋषभदेव स्वामी का अत्यंत वैभवशाली ऐश्वर्य देखकर पूछा कि - हे तात! आपके समान अरिहंत कितने होंगे? श्री जगत्गुरु ने कहा- अजितनाथ आदि तेईस जिनेश्वर और होंगे और तेरे सहित बारह चक्रवर्ती, नव वासुदेव तथा नव बलदेव भी होंगे। भरत ने फिर पूछाहे भगवंत! क्या इस आपकी देव, मनुष्य, असुर की इतनी विशाल पर्षदा में से इस भरत में कोई तीर्थंकर होगा ? तब प्रभु ने भरत को कहा - सिर के ऊपर छत्र धारण करने वाला, एकांत में बैठा मरिचि यह अंतिम तीर्थंकर होगा । और यही मरिचि पोतानपुर के अंदर वासुदेव में प्रथम होगा, विदेह में मूका नगरी में चक्रवर्ती की लक्ष्मी भी यही प्राप्त करेगा। यह सुनकर हर्ष आवेश में फैलते गाढ़ रोमांच वाला भरत महाराजा प्रभु की आज्ञा लेकर मरिचि को वंदन करने गया । परम भक्ति युक्त उसे तीन प्रदक्षिणा देकर, सम्यक् प्रकार से वंदन करके मधुर भाष में कहने लगा कि - हे महायश! आप धन्य हो, आपने ही इस संसार में प्राप्त करने योग्य सर्व कुछ प्राप्त किया है, क्योंकि तुम वीर नाम के अंतिम तीर्थंकर होंगे, वासुदेवों में प्रथम अर्द्ध भरत की पृथ्वी के नाथ होंगे और मूका नगरी में छह खण्ड पृथ्वी मंडल के स्वामी चक्री होंगे। मैं मनोहर मानकर तुम्हारे इस जन्म को तथा 280 For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-रूपमद द्वार-दो भाइयों की कथा 'श्री संवेगरंगशाला परिव्राजकपने को वंदन नहीं करता हूँ, परंतु अंतिम जिनेश्वर होंगे, इस कारण से नमस्कार करता हूँ। इत्यादि स्तुति करके जैसे आया था वैसे भरत वापिस चला गया। उसके बाद गाढ़ हर्ष प्रकट हुआ, विकसित नीलकमल के पत्र समान नेत्रवाला मरिचि रंगभूमि में रहे मल्ल के समान तीन बार त्रिदण्ड को पछाड़कर अपने विवेक को छोड़कर इस तरह बोलने लगा- 'देखो वासुदेवों में प्रथम मैं, विदेह की मूका नगरी में चक्रवर्ती भी मैं और तीर्थंकरों में अंतिम भी मैं हूँ तो अहो! मेरा पूण्य कितना उत्तम है' वासुदेवों में में प्रथम, मेरे पिता चक्रवर्ती के वंश में प्रथम, और आर्य-दादा तीर्थंकरों में प्रथम हैं, अहो! मेरा कुल कितना उत्तम है। इस तरह अपने कुल की सुंदरता की सम्यक् प्रशंसा रूपी कलुषित भाववश उसने नीच गोत्र कर्म का बंध किया, और उस निमित्त से वापिस वह महात्मा छह भवों तक ब्राह्मण कुल में और दूसरे नीच कुल में उत्पन्न हुआ तथा वासुदेव, चक्रवर्ती की लक्ष्मी को भोगकर अरिहंत आदि बीस स्थानकों की आराधना करके, अंतिम जन्म में अरिहंत होने पर भी अनेक पूर्वकाल में बांधे हुए नीच गोत्र कर्म के दोष से वह ब्राह्मण कुल में देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ रूप में उत्पन्न हुए, बयासी दिन बाद इन्द्र महाराज ने 'यह अनुचित है' ऐसा जानकर विचारकर हरिणैगमेषी देव को आदेश देकर उसे सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला के गर्भ में रखवाया। फिर उचित समय में उनका जन्म हुआ, तब देवों ने मेरु पर्वत ऊपर जन्माभिषेक किया, और तीर्थ (धर्म) की स्थापना करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया। इस तरह अपने कुल की प्रशंसा से बांधे हुए नीच कर्म के दोष से यदि श्री तीर्थंकर परमात्मा भी ऐसी अवस्था को प्राप्त करते हैं, तो संसार के जानकार पुरुष कुलमद की इच्छा भी कैसे करे? इसलिए हे क्षपकमुनि! तुझे अब से इस मद को किसी प्रकार से भी नहीं करना चाहिए। इस तरह दुसरा कुलमद का अंतर द्वार कहा। अब तीसरा रूप मद द्वार को भी मैं अल्पमात्र कहता ६८।। (३) रूपमद द्वार :-प्रथम से ही शुक्र और रुधिर के संयोग से जिस रूप की उत्पत्ति है, उस रूप को प्राप्त करके मद करना योग्य नहीं है। जिसके नाश का कारण रोग है। पुद्गल का गलना, सड़ना, जरा और मरण यह साथ ही रहता है। ऐसे नाशवंत रूप में मद करना वह ज्ञानियों को मान्य नहीं है। विचार करने पर वस्त्र आभूषणादि के संयोग से कुछ शोभा दिखती है, हमेशा बार-बार मरम्मत करने योग्य, नित्य बढ़ने घटने के स्वभाव वाला, अंदर दुर्गंध से भरा हुआ, बाहर केवल चमड़ी से लिपटा हुआ और अस्थिर समान रूप में मद करने का कोई अवकाश ही नहीं है। कर्मवश विरूप वाला भी रूपवान और रूपवाला भी रूप रहित होता है। इस विषय में काकंदी निवासी दो भाइयों का दृष्टांत कहते हैं ।।६६७३।। वह इस प्रकार : काकंदी के दो भाइयों की कथा __ अनेक देशों में प्रसिद्ध और विविध आश्चर्यों का स्थान भूत काकंदी नगरी में यश नामक धनपति रहता था। उसकी कनकवती नाम की स्त्री थी। और उनका देव कुमार समान रूप लक्ष्मी से जीवों को विस्मित करने वाला वसुदेव नाम का मुख्य पुत्र था। दूसरा स्कंदक नाम का पुत्र डरपोक नेत्रों वाला ठिगना शरीर वाला था। अधिक क्या कहें? सारे कुरूप वालों में वह उदाहरण रूप था। उनके दोनों पुत्रों को लोकोत्तर सुंदर रूपवाले और कुरूप वाले सुनकर कुतूहल से व्याकुल लोग दूर-दूर से उनको देखने के लिए आते थे। इस तरह समय व्यतीत होते एक दिन अवधि ज्ञानी विमलयश नाम के आचार्य वहाँ पधारें। उनका आगमन जानकर राजा आदि नगर निवासी और उस धनपति के दो पुत्र भी वंदन के लिए आये। गाढ़ भक्ति राग को धारण करते वे बार-बार प्रदक्षिणा देकर आचार्य श्री के चरणों में नमन कर अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठे। फिर धर्मकथा करते आचार्य श्री की दृष्टि अमीवृष्टि के समान किसी तरह उस धनपति के पुत्रों पर पड़ी। उस समय ज्ञान रूपी चक्षु से उनके 281 For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-रुपमद द्वार-दो भाइयों की कथा पूर्वभव को देखते कुछ प्रसन्न बनें गुरु महाराज ने कहा कि-अरे! कर्म का दुष्ट विलास भयंकर है। क्योंकिनिरुपम रूप वाला भी विरूप बनता है और वही विरूपी पुनः कामदेव के रूप की उपमा को प्राप्त करता है। बाद में विस्मित पूर्वक पर्षदा के लोगों ने नमस्कार कर कहा कि-हे भगवंत! इस विषय में तत्त्व के रहस्य को बतलाएँ, हमें जानने की बहुत इच्छा है ।।६६८४ ।। तब गुरुदेव ने कहा कि-आप सब सावधान होकर सुनो : धनपति के ये दो पुत्र तामलिप्ती नगरी में धनरक्षित और धर्मदेव नाम के दो मित्र थे। उसमें प्रथम धनरक्षित रूपवान और दूसरा धर्मदेव अति विरूप था। दोनों परस्पर क्रीड़ा करते थे, परंतु धनरक्षित रूपमद से लोग समक्ष धर्मदेव की अनेक प्रकार की हँसी करता था। एक समय धनरक्षित ने धर्मदेव से कहा कि-हे भद्र! पत्नी के बिना सारा गृहवास का राग निष्फल है। इसलिए स्त्री के विवाह से विमुख तूं बेकार क्यों दिन गंवा रहा है? यदि इस तरह ही अविवाहित रहने की इच्छा है तो साधु बन जा। सरल स्वभाव से उसने कहा कि हे मित्र! यह सत्य है, परंतु संसार में स्त्री की प्राप्ति में दो हेतु होते हैं एक मनुष्य के मन को हरण करने वाला रूप अथवा अति विशाल लक्ष्मी हो, ये दोनों भी दुर्भाग्यवश मुझे नहीं मिली हैं। फिर भी अब ऐसी बुद्धि द्वारा स्त्री की प्राप्ति यदि संभव हो जाए तो वह तं ही बतला. तझे दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करता हैं। उसके ऐसा कहने से धनरक्षित ने कहा कि-हे मित्र! तूं निश्चिंत रह, इस विषय में मैं संभाल लूंगा। धन, बुद्धि, पराक्रम, न्याय से अथवा अन्याय से अधिक क्या कहूँ? किसी तरह भी तेरे वांछित अर्थ को सिद्ध करूँगा। उसने कहा कि कुछ भी कर। निष्कपट प्रेमवाला तूं मेरा मित्र है, आज से मेरा दुःख तुझे देकर मैं सुखी हुआ हूँ। उसके बाद धनरक्षित ने उसके समान रूप वैभववाली कुबेर सेठ की पुत्री को दूती भेजकर कहलवाया कि-यदि तूं विकल्प छोड़कर, मैं जो कहूँ उसे स्वीकार करे तो तुझे मैं कामदेव समान रूपवाला पति दूंगा। उसने कहा कि-निःशंकता से आदेश दो, मैं स्वीकार करूँगी। फिर उसने कहलवाया कि-आज रात्री में कोई भी नहीं जाने, इस तरह तूं मुकुंद के मंदिर में आ जाना, जिससे उसके साथ में अच्छी तरह तेरा विवाह कर दूंगा। उसने वह स्वीकार किया। फिर सूर्य अस्त होते कोयल के कण्ठ समान काला अंधकार का समूह फैलते और प्रतिक्षण गली में मनुष्यों का संचार रहित होने पर विवाह के उचित सामग्री को उठाकर परम हर्षित मनवाला धर्मदेव के साथ वह वहाँ मुकुंद के मंदिर में गया।।६७०१।। उस समय विवाह के उचित वेश धारण कर वह भी वहाँ आयी, फिर संक्षेप से उनकी विवाह विधि की, फिर हर्षित हुए धनरक्षित ने दीपक को सामने रखकर कहा कि-हे भद्रे! पति का नेत्र दर्शन कर! फिर लज्जा वश स्थिर दृष्टि वाली वह जब मुख को जरा ऊँचा करके दीपक के प्रकाश से देखने लगी तब होंठ के नीचे तक लगा हुआ बड़े दांत वाला, अत्यंत चपटी नाक वाला, हडपची के एक ओर उगे हुए बीभत्स कठोर रोम वाला, उल्लू के समान आँख वाला, मुख में घुसे हुए कृश गाल वाला, तिरछी स्थिर रही धूम रेखा समान भ्रमर वाला, मसि समान श्याम कांतिवाला उसका मुख दृष्टि से देखा। उसका मुख भी उसके उस गुण से युक्त था, केवल उससे रोम रहित का ही भेद था। दाढ़ी मूंछ या शरीर पर रोम नहीं थे। फिर शीघ्र गरदन घुमाकर अपना मुख उल्टा करके उसने कहा कि-हे धनरक्षित! निश्चय ही तूंने मुझे ठगा है। कामदेव समान कहकर पिशाच समान पति को प्राप्त करवाकर तंने मेरे आत्मा को यावच्चन्द्र अपयश से बदनाम किया है। धनरक्षित ने कहा कि मेरे प्रति क्रोध न कर, क्योंकि-विधाता ने ही योग्य के साथ योग्य-सी जोड़ी की है, इसमें मेरा क्या दोष है? फिर तीव्र क्रोध से दांत से होठ को काटती, स्वभाव से ही श्याम मुख को सविशेष काला करती और अस्पष्ट अक्षरों से मंद-मंद कुछ बोलती शीघ्र हाथ से कंकणों को उतारकर विवाह नहीं हुआ हो, इस तरह वह मुकुंद मंदिर में 282 For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-बलमद द्वार-मल्लदेव की कथा श्री संवेगरंगशाला से निकल गयी। हृदय में फैले हास्य वाले धनरक्षित ने उसे (धर्मदेव से) कहा कि-हे मित्र! इतना होते हुए भी तूं क्यों नहीं बोलता? अब मैं क्या करूँ? इससे परम संताप को धारण करते उसने सरलता से कहा कि-भाई! अब भी क्या बोलने जैसा है? तूं अपने घर जा, क्योंकि राक्षसी समान भी उसने इस तरह पराभव किया, उससे मुझे अब जीने से क्या प्रयोजन है? धनरक्षित ने कहा-पुरुष के गुण-दोष के ज्ञान से रहित स्त्रियों के प्रति मिथ्या शोक क्यों करते हो? बाद में मुश्किल से उसे घर ले आया, परंतु रात को निकलकर उसने तापस मुनि के पास दीक्षा ली। उसने अज्ञान तप कर आखिर मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ आयुष्य पूर्णकर वह यह वसुदेव नाम से सुंदर रूपवाला धनपति का पुत्र हुआ। और रूप मद से अत्यंत उन्मत्त मनवाला धनरक्षित परलोक के कार्यों का प्रायश्चित्त किये बिना मरकर चिरकाल तिथंच आदि गतियों में परिभ्रमणकर, रूप मद के दोष से इस प्रकार सर्व अंगहीन विकल अंगवाला और लावण्य रहित यह स्कंदक नाम से उत्पन्न हुआ है। अतः जो तुमने पहले परमार्थ पूछा था, वह यह है। इस प्रकार सुनकर जो उचित हो उसका आचरण करो। ऐसा सुनकर वहाँ अनेक जीवों को प्रतिबोध हुआ और वे दोनों धनपति के पुत्रों ने दीक्षा लेकर मुक्ति पद प्राप्त किया। इस तरह रूप मद से दोष प्रकट होता है और उसके त्याग करने से गुण होते जानकर, हे क्षपक मुनि! तुझे अल्पमात्र भी रूपमद नहीं करना चाहिए। इस तरह मैंने यह तीसरा रूपमद स्थान को कुछ बतलाया है। अब चौथा बलमद स्थान को संक्षेप में कहता हूँ। (४) बलमद द्वार :-अनियत रूपत्व से क्षण में बढ़ता है और क्षण में घटता है ऐसा जीवों का शरीर बल अनित्य है ऐसा जानकर कौन बुद्धिमान उसका मद-अभिमान करें। पुरुष प्रथम बलवान और संपूर्ण गाल कनपट्टी वाला होकर भय, रोग तथा शोक के कारण जब क्षण में निर्बल होता है तथा निर्बलता होते अति शुष्क गाल और कनपट्टी होती है और उपचार करने से पुनः वह बलवान हो जाता है और प्रबल बल वाला मनुष्य भी मृत्यु के सामने जब नित्य अत्यंत निर्बल होता है तब बलमद करना किस तरह योग्य है? सामान्य राजा बल से श्रेष्ठ होता है तथा उससे बलदेव और बलदेवों से भी चक्रवर्ती अधिक, अधिक श्रेष्ठ होता है, उससे भी तीर्थंकर प्रभु अनंत बली होते हैं। इस तरह निश्चय बल में उत्तरोत्तर अन्य अधिक श्रेष्ठ होते हैं, फिर भी अज्ञ आत्मा बल का गर्व मिथ्या करते हैं। क्षयोपशम से उपार्जित अल्प बल से भी जो मद करता है, वह मल्लदेव राजा के समान इस जन्म में भी मृत्यु प्राप्त करता है ।।६७३१।। वह इस प्रकार : मल्लदेव राजा की कथा श्रीपुर नगर में अजोड़ लक्ष्मी की विशालता वाले शरदचंद्र के समान यश समूहवाला, विजयसेन नाम का राजा राज्य करता था। वह एक समय जब सुखपूर्वक आसन पर बैठा था, तब दक्षिण दिशा में भेजा हुआ सेनापति आया और पंचांग से नमस्कार करके पास में बैठा। उसके बाद उसे राजा ने स्नेहभरी आँखों से देखकर कहा कि-तेरा अति कुशल है? उसने कहा कि-आपके चरण कृपा से केवल कुशल ही नहीं, परंतु दक्षिण के राजा को जीता हूँ। इससे अत्यंत हर्ष से श्रेष्ठ प्रसन्न नेत्रों वाले राजा ने कहा कि-कहो उसे किस तरह जीता? उसने कहा कि-सुनो! आपकी आज्ञा से हाथी, घोड़े, रथ और यौद्धा रूप चतुर्विध सेना के यूथ सहित लेकर मैं दक्षिण देश के राजा के सीमा स्थल पर रूका और दूत द्वारा उसे मैंने कहलवाया कि-शीघ्र मेरी सेवा को स्वीकार करो अथवा युद्ध के लिए तैयार हो। ऐसा सुनकर प्रचंड क्रोधित हुए उस राजा ने दूत को निकाल दिया और अपने प्रधान पुरुषों को आदेश दिया कि-अरे! अभी ही शीघ्र शस्त्र सजाने की सूचना देकर भेरी बजा दो, चतुर्विध सैन्य को तैयार करो, जयहस्ती को ले आओ, मुझे शस्त्र दो और सेना को शीघ्र प्रस्थान करने की आज्ञा दो। फिर मनुष्यों 283 For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-बलमद द्वार-मल्लदेव की कथा ने उसी क्षण स्वीकार करके, सारे तैयार हुए। एक साथ तीन जगत का ग्रास करने की इच्छावाला हो, इस तरह वह मगर, गरूड़, सिंह आदि चिह्न वाली ध्वजाओं से भयंकर सेना के साथ मेरे सामने चला। चरपुरुषों के कहने से उसे आते जानकर मैंने भी सेना को तैयार करके लम्बे प्रस्थान कर उसके सन्मुख जाने लगा, फिर उसके समीप में पहुँचने पर चरपुरुष द्वारा जाना की उसकी सेना अपरिमित बहुत विशाल है। ऐसा जानकर मैं कपट युद्ध करने की इच्छा से उसे दर्शन देकर अति वेग वाले घोड़े से अपनी सेना को शीघ्र वहाँ से दूर वापिस ले चला कि जिससे मुझे डरा हुआ और वापिस जाते हुए जानकर उसका उत्साह अधिक बढ़ गया और मुग्ध बुद्धि वाला वह राजा मेरी सेना के पीछे पड़ा। इस तरह प्रतिदिन मेरे पीछे चलने से अत्यंत थका हुआ संकट में आ गया। निर्भय और प्रमादी चित्तवाली उसकी सेना को देखकर मैं सर्व बल से लड़ने लगा और हे देव! आपके प्रभाव से अनेक सुभटों द्वारा भी उस शत्रु सैन्य को मैंने अल्पकाल में हरा दिया। उस समय सेनापति के आदेश अनुसार पुरुषों ने उस शत्रु राजा के भण्डार और आठ वर्ष का उसका पुत्र विजयसेन राजा को दिया। फिर सेनापति ने कहा कि-हे देव! यह भंडार दक्षिण राजा का है और पुत्र भी उसका ही है, अब इसका जो उचित लगे वैसा करो। उस पुत्र को अनिमेष दृष्टि से देखते राजा को उसके प्रति अनुभव से ही अपना पुत्र हो ऐसा राग प्रकट हुआ और पादपीठ के ऊपर बैठाकर मस्तक पर चुंबन करके उसने कहा कि-हे वत्स! अपने घर के समान यहाँ प्रसन्नता से रहो। फिर राजा के पास बैठी रानी को सर्व आदरपूर्वक उस पुत्र को सौंपा और कहा कि-मैं इस पुत्र को दे रहा हूँ। उसने स्वीकार किया और बाद में उस पुत्र ने विविध कलाओं का अभ्यास किया, क्रमशः वह देव के सौंदर्य को जीते ऐसा यौवनवय प्राप्त किया। उसने अपने अत्यंत भुजा बल से बड़े-बड़े मल्लों को जीता, इसलिए राजा ने उसका नाम मल्लदेव रखा। फिर उसे योग्य जानकर उसे अपने राज्य पर स्थापित किया। और स्वयं तापसी दीक्षा लेकर राजा वनवासी बना। मल्लदेव भी प्रबल भुजा बल से सीमा के सभी राजाओं को जीतकर असीम बल मद को धारण करता अपने राज्य का पालन करता था। एक समय उसने उद्घोषणा करवाई कि जो कोई मेरा प्रतिमल्ल बतलायेगा उसे मैं एक लाख मोहर अवश्य दूंगा। यह सुनकर एक जीर्ण कपड़े को धारण करते दुर्बल काया वाले परदेशी पुरुष ने राजा के पास आकर कहा कि-हे देव! सुनो! सारी दिग्चक्र में परिभ्रमण करते मैंने पूर्व दिशा में वज्रधर नामक राजा को देखा है अप्रतिम प्रकृष्ट बल से शत्रु पक्ष को विजय करने वाला वह अपने आप 'त्रैलोक्य वीर' कहलाता है। और वह नहीं संभव वाला असंभवित नहीं है, क्योंकि उस राजा के लीलामात्र से भी तमाचा मारने मात्र से निरंकुश हाथी भी वश होकर ठीक मार्ग पर आते हैं। ऐसा सुनकर उसे लाख सोना मोहर देकर अपने आदमी को आज्ञा दी किअरे! उस राजा के पास जाकर ऐसा कहना कि-यदि किसी तरह दान का अर्थी भाट चारण ने 'त्रैलोक्य वीर' रूप में तेरी स्तुति की, तो तूंने उसे क्यों नहीं रोका? अथवा इस कीर्तन से क्या प्रयोजन है? अब भी इस बिरुदावली को छोड़ दे। अन्यथा यह मैं आ रहा हूँ, युद्ध के लिए तैयार हो जा। उस मनुष्य ने वहाँ जाकर उसी तरह सर्व उससे निवेदन किया। अतः भृकुटी चढ़ाकर भयंकर मुख वाले उस वज्रधर ने कहा कि-अरे! वह तेरा राजा कौन है? उसका नाम भी मैंने अभी ही जाना है, अथवा इस तरह कहने का उसे क्या अधिकार है? अथवा अन्यायवाद से अभिमानी और असमर्थ पक्ष बल वाला है, उस रंक की दशा यदि मेरे युद्धरूपी अग्नि शिखा में पतंगा के समान न हो तो मेरी लड़ाई मत कहना। इसलिए 'अरे! जल्दी जा और उसे भेज कि जिससे उसके विचार अनुसार करूँगा।' ऐसा सुनकर वापिस जाकर उस पुरुष ने मल्लदेव राजा को उसीके अनुसार कहा। फिर मंत्रि-वर्ग के रोकने पर भी सर्व सैन्य सहित मल्लदेव ने प्रस्थान किया और क्रमशः उसके देश में पहुँचा, उसका आगमन 284 For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-श्रुतमद द्वार-स्थूलभद्र की कथा श्री संवेगरंगशाला र वज्रधर भी शीघ्र सामने आया और अनेक सुभटों का क्षय करने वाला परस्पर युद्ध हुआ। लोगों का क्षय होते देखकर वज्रधर ने मल्लदेव को कहलवाया कि यदि तूं बल का अभिमान रखता है तो तूं और मैं हम दोनों ही लड़ेंगे। उभय पक्ष के निरपराधी मनुष्यों का क्षय करने वाले इस युद्ध से क्या लाभ है? उसने भी यह स्वीकार किया और दोनों परस्पर युद्ध करने लगे उनके युद्ध का संघर्ष मल्लों के समान खड़े होना, नीचे गिरना, पासा बदलना, पीछे हटना इत्यादि भयंकर देव और मनुष्यों को विस्मय कारक था, फिर प्रचंड भुजाबल वाले वज्रधर ने उसे शीघ्रमेव हरा दिया, इस तरह बलमद रूपी यम के आधीन होने से उसकी मृत्यु हुई। बलमद को इस प्रकार विशेष दोषकारक जानकर हे क्षपक मुनि! आराधना में स्थिर रहकर उसका आचरण मत करना। बलमद नाम का यह चौथा मद स्थान कहा। अब पाँचवां श्रुत के मद स्थान को भी अल्पमात्र कहते हैं ।।६७७७।। (५) श्रुतमद द्वार :-निरंतर विस्तार होने वाला, महा मिथ्यात्व रूपी आंधी वाला, प्रबल प्रभावाला, परदर्शन रूप ज्योतिश्चक्र के प्रचार वाला, परम प्रमाद से भरपूर, अति दुर्विदग्ध विलासी मनुष्य रूपी उल्लू समान और दर्शन के लिए प्रयत्न करते अन्य जीव समूह की दृष्टि के विस्तार को नाश करती ऐसी महाकाली रात्री समान वर्तमान काल में मैं एक ही तीन जगत रूप आकाश तल में सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्य हूँ। इस तरह हे धीर! तुझे अल्प मात्र श्रुतज्ञान का मद नहीं करना चाहिए। और जिसको सूत्र, अर्थ और तदुभय सहित चौदह पूर्व का ज्ञान होता है उनको भी यदि परस्पर छट्ठाण आपत्ति अर्थात् वृद्धि हानि रूप तारतम्य सुना जाता है तो उसमें श्रुतमद किस प्रकार का? उसमें और अद्यकालिक (वर्तमान के) मुनि अथवा जिनकी मति अल्प है और श्रुत समृद्धि भी ऐसी विशिष्ट नहीं है उनको तो विशेषतः श्रुतमद कैसे हो सकता है क्योंकि वर्तमान काल में अंग प्रविष्ट, अनंग प्रविष्ट श्रुत का शुद्ध अभ्यास नहीं है, नियुक्तियों में भी ऐसा परिचय नहीं और भाष्य, चूर्णि तथा वृत्तियों में भी ऐसा परिचय नहीं है। संविज्ञ गीतार्थ और सत्क्रिया वाले पूर्व मुनियों द्वारा रचित प्रकीर्णक-पयन्ना आदि में भी यदि ऐसा परिचय नहीं है तो श्रुतमद नहीं करना चाहिए। यदि सकल सूत्र और अर्थ में पारंगत होने पर भी श्रुतमद करना योग्य नहीं है तो उसमें पारंगत न हो फिर भी मद करना वह क्या योग्य गिना जाय? क्योंकि कहा है कि सर्वज्ञ के ज्ञान से लेकर जीवों की बुद्धि, वैभव तारतम्य योग वाले-अल्प, अल्पतर आदि न्यूनता वाले है, इसलिए 'मैं पंडित हूँ ऐसा इस जगत में कौन अभिमान करें! दुःशिक्षित अज्ञ कवियों की रचना, शास्त्र विरुद्ध प्रकरण अथवा कथा प्रबंधों को दृढ़तापूर्वक पढ़ना फिर भी उसका मद करने का अवकाश ही नहीं है। केवल सामायिक, आवश्यक का श्रुतज्ञान भी मदरहित आत्मा को निर्मल केवल ज्ञान प्राप्त करवाता है और श्रुत समुद्र के पारगामी भी मद से दीर्घकाल तक अनंतकाय में रहते हैं। इसलिए सर्व प्रकार से मद का नाश करने वाले श्रुत को प्राप्त करके भी उसका अल्प भी मद मत करना और अनशन वाला तुझे तो विशेषतया नहीं करना चाहिए। क्या तूंने सुना नहीं कि श्रुत के भंडार भी स्थूलभद्र मुनि को श्रुतमद के दोष से गुरु ने अंतिम चार पूर्व का अध्ययन नहीं करवाया था? ।।६७९०।। वह इस प्रकार : आर्य स्थूलभद्र सूरि की कथा पाटलि पुत्र नगर में प्रसिद्ध यश वाला नंद राजा का सारे निष्पाप कार्यों को करनेवाला शकडाल मंत्रीश्वर था और उसका प्रथम पुत्र स्थूलभद्र दूसरा श्रीयक तथा रूपवती यक्षा आदि सात पुत्री थीं। उसमें सेना, वेणा और रेणा ये तीनों छोटी पुत्रियाँ अनुक्रम से एक, दो और तीन बार सुनते ही नया श्रुत याद कर सकती थीं। 1. अन्य कथानकों में सातों पुत्रियों की स्मरण शक्ति की बात कही है। 285 For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-श्रुतमद द्वार-स्थूलभद्र की कथा श्रीजिनचरण की पूजा वंदन शास्त्रार्थ का चिंतन आदि धर्म को करते उनके दिन अच्छी तरह से व्यतीत होते थे। वहीं रहने वाला कवि वररुचि ब्राह्मण प्रतिदिन एक सौ आठ काव्यों से राजा की स्तुति करता था उसकी काव्य शक्ति से प्रसन्न होकर राजा उसे दान देने की इच्छा करता था. परंतु शकडाल मंत्री उसकी प्रशंसा नहीं करने से नहीं देता था। इससे वररुचि पुष्प आदि भेंट देकर शकडाल की पत्नी की सेवा करने लगा। तब उसने उससे कहा कि-मेरा कोई कार्य हो तो कहो! उसने कहा कि आप के पतिदेव को इस तरह समझाओ कि जिससे राजा के सामने मेरे काव्यों की प्रशंसा करें। उसने वह स्वीकार किया और मंत्री को कहा कि-वररुचि की प्रशंसा क्यों नहीं करते? मंत्री ने कहा-मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा कैसे करूँ? बार-बार पत्नी के कहने पर उसका वचन मंत्री ने स्वीकार किया और राजा के सामने 'काव्य सुंदर है' इस तरह उसकी प्रशंसा की ।।६८००।। इससे राजा ने उसे एक सौ आठ सोना मोहर दी और प्रतिदिन उसकी उतनी आजीविका प्रारम्भ हो गयी। इस तरह धन का क्षय होते देखकर मंत्री ने कहा कि-देव! इसे आप दान क्यों देते हो? राजा ने कहा कि तूंने इसकी प्रशंसा की थी इसलिए देता हैं। मंत्री ने कहा-मैंने तो 'लोगों के काव्यों को वह अखंड बोल सकता है ऐसा मानकर प्रशंसा की थी इससे राजा ने पूछा कि-ऐसा किस तरह? मंत्री ने कहा-क्योंकि मेरी पुत्रियाँ भी इस तरह बोल सकती है। फिर योग्य समय पर वररुचि स्तुति करने आया, तब मंत्री ने अपनी पुत्री को परदे में रखा उसको प्रथम बार बोलते सुनकर सेना पुत्री ने याद कर लिया इससे राजा के सामने अखंड बोल दिया, इससे दूसरी बार सुनकर वेणापुत्री को याद हो गया और उसको बोलते तीसरी बार सुनकर रेणापुत्री को याद हो गया और वह भी लम्बे काल पूर्व में याद किया हो और स्वयं मेव रचना की हो वैसे राजा के सामने बोली इससे क्रोधित हुए राजा ने वररुचि का राज्य सभा में आना बंध करवा दिया। इसके बाद वररुचि गंगा में यंत्र के प्रयोग से रात्री के समय उसमें पोटली रख आता था और प्रभात समय में गंगा की स्तुति करके, पैर से यंत्र को दबाने से उसमें से सोना मोहर की पोटली उछलते हुए को ग्रहण करता था और लोगों के आगे कहता था कि-स्तुति से प्रसन्न हुई गंगा मैया मुझे यह देती है। इस तरह बात फैलते राजा ने सनी और उसे मंत्री को कहा। मंत्री ने कहा कि-'हे देव! यदि मेरे समक्ष गंगा दे तो गंगा ने दिया है ऐसा मानूँगा। अतः प्रभात में गंगा किनारे जायेंगे।' राजा ने स्वीकार किया। फिर मंत्री ने सायंकाल में अपने विश्वासु आदमी को आदेश दिया कि-हे भद्र! गंगा किनारे जाकर छुपकर रहना और वररुचि जल में जो कुछ रखे वह मुझे लाकर देना। फिर उस पुरुष ने जाकर वहाँ से सोना मोहर की गठरी लाकर दी। प्रभात में नंदराजा और मंत्री वहाँ गये और पानी में रहकर उसे गंगा की स्तुति करते देखा, स्तुति करने के बाद उसने उस यंत्र को हाथ पैर से चिरकाल तक दबाया, फिर भी जब गंगा ने कुछ भी नहीं दिया, तब वररुचि अत्यंत दुःखी होने लगा। उस समय मंत्री शकडाल ने सोना मोहर की गठरी राजा को प्रकट कर दिखाई और राजा ने उसकी हंसी की, इससे वररुचि मंत्री के ऊपर क्रोधित हुआ, और उसके छिद्र देखने लगा। एक दिन श्रीयक के विवाह करने की इच्छा वाला शकडाल राजा को भेंट करने योग्य विविध शस्त्रों को गप्त रूप में तैयार करवा रहा था। यह बात उपचरित रूप से केवल बाह्य वत्ति से सेवा करने वाली मंत्री की दासी ने वररुचि को कही। इस छिद्र का निमित्त मिलते ही, उसने छोटे-छोटे बच्चों को लड्डू देकर तीन मार्ग, चार मार्ग, मुख्य राज मार्ग पर इस तरह बोलने के लिए सिखाया कि-'शकडाल जो करेगा, उसे लोग नहीं जानते हैं नंद राजा को मरवाकर श्रीयक को राज्य ऊपर स्थापन करेगा।' और बालकों के मुख से ऐसे बोलते राजा ने सुना और गुप्त पुरुष द्वारा मंत्री के घर की तलाश करवायी, वहाँ गुप्त रूप में अनेक शस्त्रादि तैयार होते देखकर उन 286 For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-श्रुतमद द्वार-स्थूलभद्र की कथा श्री संवेगरंगशाला पुरुषों ने राजा को वह सारी स्थिति कही। इससे राजा को गुस्सा चढ़ गया। जब मंत्री सेवा के लिए आया और चरणों में नमस्कार किया तब राजा ने मुख विमुख किया। इससे 'राजा गुस्से हुआ है' ऐसा जानकर शकडाल ने घर जाकर श्रीयक को कहा कि हे पत्र! यदि मैं नहीं मरूं तो राजा सर्व को मार देगा. अतः हे वत्स! राजा के चरण में नमस्कार करते मुझे तूं मार देना, यह सुनते ही श्रीयक ने कान बंध कर लिये। तब शकडाल ने कहा कि पहले मैं तालपुट विष को खाकर स्वयं मरते हुए मुझे राजा के चरणों में नमन करते समय तूं निःशंक बनकर मार देना। फिर सर्व विनाश की आशंका युक्त मन वाला श्रीयक ने वैसा करना स्वीकार किया और उसी तरह राजा के चरणों में नमस्कार करते शकडाल का मस्तक काट दिया। हा! हा! 'अहो अकार्य किया' ऐसा बोलते नंद राजा खड़ा हो गया। इससे श्रीयक ने कहा कि राजन्! आप व्याकुल क्यों हो रहे हो? क्योंकि जो आपका विरोधी हो, वह यदि पिता हो तो भी मुझे उससे कोई काम नहीं है। फिर राजा ने कहा कि-अब तूं मंत्री पद को स्वीकार कर। तब उसने कहा कि-स्थूलभद्र नामक मेरा बड़ा भाई है उसे वेश्या के घर रहते बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं। राजा ने उसे बुलाया और कहा कि-मंत्री पद को स्वीकार करो। उसने कहा कि मैं इस विषय पर विचार करूँगा, तब राजा ने नजदीक में रहे अशोक वन में उसे भेजा, तब वह विचार करने लगा कि परकार्यों में व्याकुल मनुष्यों का भोग कैसा और सुख कैसा? और यदि सुख मिले तो भी अवश्य नरक में जाना पड़ता है इस कारण से इस सुख से क्या लाभ है? ऐसा विचारकर वैराग्य को प्राप्त किया संसार से विरक्त चित्त वाला उसने पंचमुष्टिक लोच कर स्वयं मुनि वेश को धारण कर राजा के पास जाकर कहा कि-हे राजन्! मैंने इस प्रकार विचार किया है। फिर राजा के द्वारा उत्साहित किये वह महात्मा राजमंदिर से निकला और वेश्या के घर जायगा ऐसा मानकर राजा उसे देखता रहा। तब मृत कलेवर की दुर्गंध वाले मार्ग में भी देखे बिना जाते देखकर राजा ने जाना कि-निश्चय यह काम भोग से विरागी हुआ है। फिर श्रीयक को मंत्री पद पर स्थापन किया और स्थूलभद्र आर्य श्री संभूतिविजय के पास दीक्षित हुए और विविध प्रकार के अति उग्र तप को करने लगे। इस समय का वररुचि का नाश आदि शेष वर्णन अन्य सूत्र में से जान लेना। आर्य स्थूलभद्र पढ़ने के लिए आर्य भद्रबाहु स्वामी के पास गये और वह न्यून दस पूर्व को पढ़े, फिर विद्या गुरु श्री भद्रबाहु स्वामी के साथ विहार करते पाटलीपुत्र नगर पधारें। वहाँ दीक्षित हुई यक्षा आदि सात बहनें भाई को वंदन करने आयीं। आचार्य को वंदन करके उन्होंने पूछा कि-हमारे बड़े भाई महाराज कहाँ है? आचार्यश्री ने कहा कि-सूत्र का परावर्तन करने के लिए देव कुलिका में बैठे हैं। अतः वे वहाँ गयी और उनको आते देखकर अपनी ज्ञान लक्ष्मी को दिखाने के लिए स्थूलभद्र मुनि ने केसरी सिंह का रूप बनाया। उसे देखकर भयभीत होकर भागकर साध्वी ने आचार्यश्री से निवेदन किया किभगवंत! सिंह ने बड़े भाई का भक्षण किया है। श्रुत के उपयोग वाले आचार्यश्री ने कहा कि वह सिंह नहीं है, स्थूलभद्र है, अब जाओ। इससे वे गयीं और स्थूलभद्र मुनि को वंदन किया। और एक क्षण खड़ी रहकर विहार संयम आदि की बातें पूछकर स्व स्थान पर गयीं। फिर दूसरे दिन सूत्र का नया अध्ययन करने के लिए स्थूलभद्र मूनि आर्य भद्रबाहु स्वामी के पास आयें, तब उन्होंने 'तूं अयोग्य है' ऐसा कहकर पढ़ाने का निषेध किया। इससे उस स्थलभद्र ने सिंह रूप बनाने का अपना दोष जानकर सरिजी को कहा कि-हे भगवंत। पनः ऐसा नहीं करूँगा. मेरे इस अपराध को क्षमा करो। और महाकष्ट से अति विनती करने पर सूरिजी ने पढ़ाने का स्वीकार किया और कहा कि-केवल अंतिम चार पूर्वो का अध्ययन करवाऊँगा, उसे पढ़, परंतु दूसरे को तूंने पढ़ाना नहीं। इससे वह चार पूर्व उसके बाद विच्छेद हो गये। इसलिए अनर्थकारक श्रुतमद करना वह उत्तम मुनियों के योग्य नहीं है। अतः हे क्षपकमुनि! तूं उसे त्याग कर अनशन के कार्य में सम्यग् उद्यम कर। इस तरह पाँचवां श्रुतमद स्थान को 287 For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-तपमद द्वार-दृढ़ प्रहारी की कथा कहा। अब तप के मद को निषेध करने वाला छट्ठा मद स्थान संक्षेप में कहता हूँ ।।६८४९।। (६) तपमद द्वार :-'मैं ही दुष्कर तपस्वी हूँ इस तरह मद करते मूर्ख चिरकाल किया हुआ उग्र तप को भी निष्फल करता है। बाँस में से उत्पन्न हुई अग्नि के समान तप से उत्पन्न हुई मद अग्नि शेष गुण रूपी वृक्षों के समूह को क्या नहीं जलाती? अर्थात् तपमद गुणों को जला देता है, शेष सब अनुष्ठानों में तप को ही दुष्कर कहा है, उस तप को भी मद से मनुष्य गंवा देता है, वस्तुतः मोह की महिमा महान् है। और अज्ञान वृत्ति से कोई बदला लेने की इच्छा बिना, बल-वीर्य को अल्प भी छुपाए बिना केवल निरपेक्ष वृत्ति से श्रीजिनेश्वर भगवान आदि ने जो तप किया है वह तीन जगत में आश्चर्यकारी और अनुत्तर सुनकर कौन अनार्य अपने अल्पमात्र तप का मद करे? अत्यंत असाधारण बल बुद्धि से मनोहर पूर्व पुरुष तो दूर रहे, परंतु इस प्रकार के श्रुत को नहीं जानने वाले और सामान्य रूप वाले जो दृढ़ प्रहारी मुनि थे उनकी भी तपस्या जानकर अल्प तप का मद कौन बुद्धिशाली करे? (नहीं करना!) ।।६८५६।। उसका प्रबंध इस प्रकार : दृढ़ प्रहारी की कथा एक महान् नगरी में न्यायवंत एक ब्राह्मण रहता था, उसका दुर्दान्त नामक पुत्र हमेशा अविनय करता था। एक दिन संताप के कारण पिता ने उसे अपने घर से निकाल दिया और घूमते हुए वह किसी तरह चोरों की पल्ली में पहुँच गया। वहाँ पल्लीपति ने उसे देखा और पुत्र बिना का होने से उसे पुत्र बुद्धि से रखा और तलवार, धनुष्य, शस्त्र आदि चलाने की कला सिखाई। वह अपनी बुद्धिरूपी धन से उसमें अत्यंत समर्थ बना और पल्लीपति तथा अन्य लोगों का प्राण से भी प्रिय बना। निर्दय कठोर प्रहार करने से हर्षित होते पल्लीपति ने उसका गुणवाचक दृढ़प्रहारी नाम स्थापन किया। फिर घोड़े की राल और इन्द्र धनुष्य के समान सर्व पदार्थ विनश्वर होने से तथाविध रोग के कारण पल्लीपति मर गया। उसका मृत कार्य कर लोगों ने दृढ़प्रहारी को उचित मानकर पल्लीपति पद पर स्थापन किया और सभी ने नमस्कार किया। महा पराक्रमी वह अपने पल्ली के लोगों का पूर्व के समान पालन पोषण करता था और निर्भयता से गाँव, खान, नगर और श्रेष्ठ शहर को लूटता था। फिर किसी दिन गाँव को लूटने वे कुशस्थल में गये। वहाँ देवशर्मा नामक अति दरिद्र ब्राह्मण रहता था। उस दिन उसके संतानों ने खीर की प्रार्थना करने से अत्यंत प्रयत्न से घर-घर से भीख मांगकर चावल सहित दूध पत्नी ने लाकर दिया। उसके बाद वह खीर तैयार हो रही थी तब देव पूजा आदि नित्य क्रिया करने के लिये वह ब्राह्मण नदी किनारे गया। उस समय चोर उसके घर में पहुँचे, वहाँ खीर तैयार हुई देखकर और भूख से पीड़ित एक चोर ने उसे ग्रहण की। उस खीर की चोरी होते देखकर 'हा! हा! लूट गये।' ऐसा बोलते बालकों ने दौड़े हुए जाकर देव शर्मा से कहा। इससे क्रोधवश ललाट ऊँची चढ़ाकर विकराल भृकुटी से भयंकर मुखवाला प्रचंड तेजस्वी आँखों को बार-बार नचाते मस्तक के चोटी के बाल बिखरे हुए अति वेग पूर्वक चलने से कटी प्रदेश का वस्त्र शिथिल हो गया, हाथ की अंगुलियों से पुनः स्वस्थ करते और ऊँट के बच्चे की पूँछ समान दाढ़ी मूंछ को स्पर्श करते वह देव शर्मा अरे पापी! म्लेच्छ! अब कहाँ जायगा? ऐसा बोलते वह द्वार के परिघ (द्वार की एक शाख) को लेकर चोरों के साथ युद्ध करने लगा। तब गर्भ के महान् भार से आक्रांत उसकी पत्नी युद्ध करते उसको रोकने लगी। फिर भी कुपित यम के समान प्रहार करते वह रुका नहीं। इससे उसके द्वारा अपने चोरों को मारते देखकर अत्यंत गुस्से हुए दृढ़ प्रहारी ने तीक्ष्ण तलवार को खींच ब्राह्मण को और 'न मारो! न मारो!' इस तरह बार-बार 1. अन्य कथानकों में चार हत्या का उल्लेख है। 288 For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-लाभमद द्वार-ढंढणकुमार का दृष्टांत श्री संवेगरंगशाला बोलती, हाथ से रोकती उन दोनों के बीच में पड़ी, ब्राह्मणी को भी काट दिया। फिर तलवार के आधार से दो भाग हुए तड़फते गर्भ को देखकर पश्चात्ताप प्रकट हुआ। फिर दृढ़प्रहारी विचार करने लगा कि-हा! हा! दुःखद है, कि अहो! मैंने ऐसा पाप किया है? इस पाप से मैं किस तरह छुटकारा प्राप्त करूँगा? इसके लिए क्या मैं तीर्थों में जाऊँ? अथवा पर्वत पर जाकर वहाँ से गिरकर मर जाऊँ? अथवा अग्नि में प्रवेश करूँ या क्या गंगा के पानी में डूब मरूँ। पाप की विशुद्धि के लिए अनेक विचारों से उद्विग्न मन वाले उसने एकांत में स्थिर धर्मध्यान में तत्पर मुनि को देखा। परम आदरपूर्वक उनके चरण कमल में नमस्कार करके उसने कहा कि-हे भगवंत! मैं इस प्रकार का महाघोर पापी हूँ, मेरी विशुद्धि के लिए कोई उपाय बतलाओ? मुनि ने उसे सर्व पापरूपी पर्वत को चकनाचूर करने में वज्र समान और शिव सखकारक श्रमण (साध) धर्म कहा। कर्म के क्षयोपशम से उसे वह अमृत के समान अति रुचिकर हुआ और इससे संवेग को प्राप्तकर वह उस गुरु के पास दीक्षित हुआ। फिर जिस दिन उस दुश्चरित्र का मुझे स्मरण होगा उस दिन भोजन नहीं करूँगा। ऐसा अभिग्रह स्वीकारकर वह उसी गाँव में रहा। वहाँ लोग 'वह इस प्रकार के महापापों को करने वाला है' इस प्रकार बोलते उसकी निंदा करते थे और मार्ग में जाते आते उसे मारते थे। वह सब समतापूर्वक सहन करता था, बार-बार अपनी आत्मा की निंदा करता था और आहार नहीं लेता था, धर्मध्यान में स्थिर रहता था। इस तरह उस धीरपुरुष ने कभी भी एक बार भी भोजन नहीं किया। इस प्रकार सर्व कर्म रज को नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। और देव, दानव तथा वाण व्यंतरों ने चंद्र के समान निर्मल गुणों की स्तुति की, क्रमशः अगणित सुख के प्रमाण वाला निर्वाण पद को प्राप्त किया। इसे सम्यग् रूप से सुनकर हे क्षपकमुनि! महान् उग्र तप को करते हुए भी मोक्ष की अभिलाषा वाले तुझे अल्प भी तप मद को नहीं करना चाहिए। यह छट्ठा मद स्थान अल्पमात्र दृष्टांत के साथ कहा। अब सातवाँ लाभ संबंधी मद स्थान कहता हूँ ।।६८८९ ।। (७) लाभमद द्वार :-मनुष्यों को लाभान्तराय नामक कर्म के क्षयोपशम से लाभ होने का उदय होता है और पुनः उससे अलाभ होता है, इसलिए विवेकी जन को लाभ होने पर 'मैं भी लब्धिवंत हूँ ऐसा अपना उत्कर्ष और लाभ नहीं होने पर विषाद नहीं करना चाहिए। जो इस जन्म में लाभ प्राप्त करने वाला होता है उसे कर्मवश अन्य जन्म में भिक्षा की प्राप्ति भी नहीं होती है। इस विषय पर ढंढणकुमार मुनि का दृष्टांत है ।।६८९२।। वह इस प्रकारः श्री ढंढणकुमार मुनि का दृष्टांत मगध देश में धन्यपुर नामक श्रेष्ठ गाँव था, वहाँ कृशी पारासर नाम से धनाढ्य ब्राह्मण रहता था। पूर्वोपार्जित पुण्य के आधीन वह धन के लिए खेती आदि जो कोई भी उपाय करता था उसे उसको लाभ के लिए होता था। और श्रेष्ठ अलंकार, दिव्य वस्त्र तथा पुष्पों से मनोहर शरीर वाला वह 'लक्ष्मी का यह फल है' ऐसा मानता स्वजनों के साथ विलास करता था। मगध राजा के आदेश से गाँव के पुरुषों द्वारा पांच सौ हल से वह हमेशा अनाज बोता था। फिर राजा के खेत से निवृत्त हुए किसान भोजन का समय होते भूख से पीड़ित और बैल थक जाते थे फिर भी बलात्कार पूर्वक निर्दय युक्त उसी समय अपने खेत में उनके द्वारा एक बार कार्य करवाता था। और उस निमित्त से उसने गाढ़ अंतराय कर्म बंध किया। फिर वह मरकर नरक भूमि में नरक का जीव बना। वहाँ से निकलकर विविध भेदवाली तिर्यंच योनियों में उत्पन्न हुआ और किसी तरह पुण्य उपार्जन होने से देव और मनुष्य में भी जन्म लिया ।।६९०० ।। फिर सौराष्ट्र देश में समुद्र के संग से अथवा पवित्र लावण्य को प्राप्त करने वाली, मनोहर शरीर वाली, स्त्रियों से शोभित, विशिष्ट धन धान्य से समृद्धशाली, प्रत्यक्ष देवलोक के समान और 289 For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-अनुशास्ति द्वार-लाभमद द्वार-ढंढणकुमार का दृष्टांत स्वभाव से गुण रागी, सम्यग् दान देने से शूरवीर धर्मिष्ठ लोगों वाली द्वारिका नगरी में उस केशी अश्वमुख दैत्य और कंस के अहंकार को चकनाचूर करनेवाले भरत के तीन खण्ड के राजाओं के मस्तक मणि की कांति से शोभित चरण वाले, यादवों के कुलरूपी आकाश में सूर्य समान श्रीकृष्ण वासुदेव के ढंढणकुमार नाम से पुत्र रूप में जन्म लिया। सर्व कलाओं का अभ्यासकर क्रमशः यौवन वय प्राप्त किया। और अनेक युवान स्त्रियों के साथ विवाह कर दोगुंदक देव के समान विलास करने लगा। किसी दिन देह की कांति से सभी दिशाओं में कमल के समूह को फैलाते हो वैसे शीतलता से सभी प्राणिओं के संताप को शांत करते तथा साक्षात् शरीर शीतल हो इस तरह अठारह हजार उत्तम साधुओं से युक्त और धर्मोपदेश देनेवाले शासन प्रभावक वर्ग के हितस्वी श्री अरिष्टनेमि भगवंत ग्रामानुग्राम विचरते हुए द्वारिका नगरी में पधारें और रैवत नामक उद्यान में रहें। इसके बाद भगवान के पधारने के समाचार उद्यानपाल ने नमस्कार पूर्वक श्रीकृष्ण महाराज को दिये। फिर उन्होंने उचित तुष्टि जनक दान देकर यादवों के समूह के साथ श्रीकृष्ण श्री नेमिनाथ भगवान को वंदनार्थ निकले। हर्ष के परम प्रकर्ष से विकसित नेत्रवाले वे श्री जिनेश्वर और गणधर आदि मनियों को नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठे। तीन जगत के नाथ प्रभ ने देव. मनष्य और तिर्यंचों को समझ में आये ऐसी सर्व साधारण वाणी से धर्म देशना प्रारंभ की और अनेक प्राणियों को प्रतिबोध दिया। तथाविध अत्यंत कुशल (पुण्य) कर्म के समूह से भावी में जिसका कल्याण नजदीक है ऐसे ढंढणकुमार ने भी धर्म कथा सुनकर प्रतिबोध प्राप्त किया। इससे अपकारी विकारी दुष्ट रूप दिखनेवाले मित्र के समान अथवा सर्प से भयंकर घर के समान, विषयसुख को त्यागकर उस धन्यात्मा ने प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की। संसार की असारता का चिंतन करते वह सदा श्रुतज्ञान का अभ्यास करते हैं और विविध तपस्या करते सर्वज्ञ परमात्मा के साथ विचरते थें। इस तरह विचरते ढंढणकुमार के पूर्व जन्म में जो कर्म बंध किया था वह अनिष्ट फलदायक अंतराय कर्म उदय में आया। इससे उस कर्म के दोष से वह जिस साधु के साथ भिक्षा के लिए जाता था उसकी भी लब्धी को खत्म करता था। अहो! कर्म कैसे भयंकर हैं? एक समय जब साधुओं ने उसे भिक्षा नहीं मिलने की बात कही, तब प्रभु ने मूल से लेकर उस कर्म बंध का वृत्तांत कहा। यह सुनकर बुद्धिमान उस ढंढणकुमार मुनि ने प्रभु के पास अभिग्रह किया कि अब से दूसरे की लब्धि से मिला हुआ आहार में कदापि ग्रहण नहीं करूँगा। इस तरह रणभूमि में प्रवेश करते समय सुभट के समान विषाद रहित प्रसन्न चित्तवाला दुष्कर्म रूपी शत्रुओं के दुःख को अल्प भी नहीं मानता, निर्वाण रूपी श्रेष्ठ भोजन करते तृप्त बना हो इस तरह ढंढण मुनि दिन व्यतीत करता था फिर एक दिन कृष्ण ने भगवान से पूछा कि-हे भगवंत! इन साधुओं में दुष्करकारक कौन है? उसे फरमाइये। प्रभु ने कहा कि-निश्चय ये सभी साधु दुष्करकारक हैं, फिर भी इसमें विशेष दुष्करकारी ढंढणकुमार मुनि है। क्योंकि धीर हृदयवाला, दुःसह उग्र अलाभ परीषह को सम्यग् रूप से सहन करते उसका बहुत काल व्यतीत हो गया है। यह सुनकर वह धन्य है, और कृत पुण्य है कि जिसकी इस तरह जगत प्रभु ने स्वयं स्तुति की है। ऐसा विचारकर कृष्ण जैसे आया था वैसे वापिस गया और नगरी में प्रवेश करते उसने भाग्य योग से उच्च नीच घरों में भिक्षार्थ घूमते उस महात्मा को देखा। इससे दूर से ही हाथी ऊपर से उतरकर परम भक्तिपूर्वक पृथ्वी तल को स्पर्श करते मस्तक द्वारा श्री कृष्ण ने उनको नमस्कार किया। कृष्ण वासुदेव द्वारा वंदन करते उस मुनि को देखकर विस्मित मन वाले घर में रहे एक धनाढ्य सेठ ने विचार किया कि यह महात्मा धन्य है कि जिसको इस तरह देवों के भी वंदनीय वासुदेव सविशेषतया भक्तिपूर्वक वंदन करता है। फिर कृष्ण महाराज वंदन कर जब वापिस चले तब क्रमशः भिक्षार्थ घूमते ढंढणकुमार उस धनाढ्य सेठ के घर पहुँचे। इससे उसने 290 For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार- ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा श्री संवेगरंगशाला परम भक्तिपूर्वक सिंह केसरी लड्डु थाल में से मोदक उनको दिये और वह मुनि प्रभु के पास गया, नमस्कार करके उस मुनि ने कहा कि - हे भगवंत ! क्या मेरा अंतराय कर्म आज खत्म हो गया है? प्रभु ने कहा कि -अभी भी उसका अंश विद्यमान है। परमार्थ से यह लब्धि कृष्ण की है, क्योंकि कृष्ण द्वारा तुमको नमस्कार करते देखकर धनाढ्य ने यह लड्डू तुम्हें वहोराए हैं। प्रभु ने जब ऐसा कहा तब अन्य की लब्धि होने से वह महात्मा शुद्ध भूमि को देखकर उन लड्डू को सम्यग् विधि पूर्वक परठने लगे। उसे परठते और कर्मों का कटु विपाकों का चिंतन करते उन्हें शुद्ध शुक्ल ध्यान के प्रभाव से केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर केवली पर्याय को पालकर और भव्य जीवों को प्रतिबोध देकर, जिसके लिए दीक्षा ली थी वह मोक्षपद प्राप्त किया । इस तरह लाभालाभ कर्माधीन जानकर - हे धीर! लाभ की प्राप्ति वाले भी तुझे अत्यंत प्राप्ति होने पर उसका मद नहीं करना चाहिए। इस तरह सातवाँ लाभमद का स्थान कहा। अब ऐश्वर्य मद को रोकने में समर्थ आठवाँ मद स्थान को संक्षेप से कहता हूँ ।। ६९३८ ।। (८) ऐश्वर्यमद द्वार : - गणिम, धरिम, मेय और पारिछेद्य इस तरह चार प्रकार का धन मुझे बहुत है, और भंडार क्षेत्र तथा वस्तु मकान मुझे अनेक प्रकार का है। चाँदी, सोने के ढेर हैं, आज्ञा के पालन करनेवाले अनेक नौकर हैं, दास दासीजन भी हैं, तथा रथ, घोड़े और श्रेष्ठ हाथी भी हैं। विविध प्रकार की गायें हैं, भैंस, ऊँट आदि हैं, बहुत भंडार हैं, गाँव, नगर और खान आदि हैं, तथा स्त्री, पुत्रादि परिवार अनुरागी हैं। इस तरह मेरा ऐश्वर्य सर्वत्र प्रशस्त पदार्थों के विस्तार से स्थिर है, इससे मानता हूँ कि मैं ही इस लोक में साक्षात् वह कुबेर यक्ष हूँ। इस तरह ऐश्वर्य के आश्रित भी मद सर्वथा नहीं करना चाहिए। क्योंकि संसार में मिले हुए सभी पदार्थ नाशवान हैं। राजा, अग्नि, चोर, हिस्सेदार और अति कुपित देव आदि से धन का क्षय करनेवाले कारण सदा पास में होते हैं। इसलिए उसका मद करना योग्य नहीं है। तथा दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की शास्त्र प्रसिद्ध कथा को सुनकर धन्य पुरुष ऐश्वर्य में अल्पमात्र भी मद नहीं करते । । ६९४५ । । वह कथा इस प्रकार है: दक्षिण मथुरा और उत्तर मथुरा के व्यापारियों की कथा जगत प्रभु श्री सुपार्श्वनाथ के मणि के स्तुप से शोभित अति प्रशस्त तीर्थभूत और देवनगरी के समान मनोहर मथुरा नाम की नगरी थी। वहाँ कुबेर तुल्य धन का विशाल समूह वाला लोगों में प्रसिद्ध परम विलासी धनसार नाम का बड़ा धनिक सेठ रहता था । एक समय तथाविध कार्यवश अनेक पुरुषों से युक्त वह दक्षिण मथुरा में गया और वहाँ उसका सत्कार सन्मान आदि करने से उसके समान वैभव से शोभित धनमित्र नामक व्यापारी के साथ स्नेहयुक्त शुद्ध मैत्री हो गयी। एक दिन सुख से बैठे और प्रसन्न चित्त वाले उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ कि–पृथ्वी के ऊपर घूमते, किसको, किसकी बात नहीं करते? अथवा स्नेह युक्त मैत्री भाव को कौन नहीं स्वीकार करता ? परंतु संबंध बिना की मैत्री बहुत दिन जाने के बाद रेती की बाँधी पाल के समान टूट जाती है। वह संबंध दो प्रकार का होता है। एक मूलभूत और दूसर उत्तर भूत । उसमें पिता, माता, भाई का संबंध मूलभूत होता है, वह हमें आज नहीं है, पुनः उत्तर संबंध विवाह करने से होता है, वह यदि हमारे यहाँ पुत्री अथवा पुत्र जन्म हुआ तो करने योग्य है। ऐसा करने से वज्र से जुड़ी हुई हो ऐसी मैत्री जावज्जीव तक अखंड रहती है। यह कथन योग्य होने से कुविकल्प को छोड़कर दोनों ने उसे स्वीकार किया । फिर धनमित्र को पुत्र का जन्म हुआ और धनसार सेठ के घर पुत्री ने जन्म लिया। उन्होंने पूर्व में स्वीकार करने के अनुसार कबूल कर बालक होने पर भी उनकी परस्पर सगाई की। बाद में धनसार अपना कार्य पूर्णकर अपने नगर में गया, और धनमित्र अपने इष्ट कार्यों में प्रवृत्ति करने लगा। For Personal & Private Use Only 291 . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा ___ किसी समय जीवन का शरद ऋतु के बादल समान चंचल होने से वह धनमित्र मर गया, और उसके स्थान पर उसका पुत्र अधिकारी हुआ। वह एक दिन जब स्नान करने के लिए पटारे (बाजोट) पर बैठा था, तब चारों दिशा में सवर्ण के चार उत्तम कलश स्थापन किये. उसके पीछे दो चाँदी सवर्ण आदि मि उसके पीछे ताम्बे के और उसके पीछे मिट्टी के कलश स्थापन किये। उन कलशों से महान सामग्री द्वारा जब स्नान करता है तब ऐश्वर्य इन्द्र धनुष्य के समान चंचलतापूर्वक पूर्व दिशा के सुवर्ण कलश विद्याधर के समान आकाश मार्ग से चले गये। इसी तरह सभी कलश आकाश मार्ग में उड़ गये। उसके बाद स्नान से उठा तो उसका विविध मणि सुवर्ण से प्रकाशमान स्नान पटारा बाजोट भी चला गया। इस तरह व्यतिकर को देखकर अत्यंत शोक प्रकट हुआ, उसने संगीत के लिए आये हुए नाटककार मनुष्यों को विदा किया। फिर जब भोजन का समय हुआ, तब नौकरों ने भोजन तैयार किया, और वह देव पूजादि कार्य करके भोजन करने बैठा। नौकरों ने उसके आगे अत्यंत जातिवंत सुवर्ण तथा चांदी के कलायुक्त कटोरी सहित चंद्र समान उज्ज्वल चाँदी का थाल रखा, और भोजन करते एक के बाद एक बर्तन उसी तरह उड़ने लगे इस तरह उड़ते आखिर मूल थाल भी उड़ने लगा, इससे विस्मय होते उसको उडते उसने हाथ से पकड़ा और जितना भाग पकड़ा था उतना भाग हाथ में रह गया और उड़ गया। उसके बाद भंडार को देखा तो उसका भी नाश हो गया देखा, जमीन में रखा हुआ निधान भी खत्म हो गया और जो दूसरे को ब्याज से दिया था वह भी नहीं मिला अपने हाथ से रखा हुआ भी आभूषणों का समूह भी नहीं तथा आज तक संभालकर रखे दास-दासी भी शीघ्र निकल गये। अनेक बार उपकार किया था वह समग्र स्वजन वर्ग अत्यंत अपरिचित हो इस तरह किसी कार्य में सहायता नहीं करता था। इस प्रकार वह सारा गंधर्व नगर के समान अथवा स्वप्न दर्शन समान अनित्य मानकर शोकातुर हृदयवाला वह विचार करता हैः ___ मंदभागियों में शिरोमणी मेरे जीवन को धिक्कार है कि नये जन्म के समान जिसका इस तरह एक ही दिन में जीवन बदल गया। सत्पुरुष सैंकड़ों बार नाश हुई सम्पत्ति को पुनः प्राप्त करते हैं और अरे! मेरे सदृश कायर पुरुष संपत्ति होने पर गँवा देता है। मैं मानता हूँ कि पूर्व जन्म में निश्चय मैंने कोई भी पुण्य नहीं किया, इसलिए ही आज इस विषम अवस्था का विपाक आया है। इसलिए वर्तमान में भी पुण्य प्राप्ति के लिए मैं प्रवृत्ति करूँ, अफसोस करने से क्या लाभ है? ऐसा सोचकर वह आचार्य श्री धर्मघोषसूरि के पास दीक्षित हुआ। संवेग से युक्त बुद्धिमान और विनय में तत्पर उसने धर्म की प्रवर श्रद्धा से सूत्र और अर्थ से ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। परंतु भविष्य में कभी किसी तरह विहार करते पूर्व के थाल को देखूगा, इस तरह जानने की इच्छा से पूर्व में संभालकर थाल का टुकड़ा रखा था, उसे नहीं छोड़ता था। अनियत विहार की मर्यादा से विचरते वह किसी समय उत्तरमथुरा नगरी में गया और भिक्षार्थ घूमते किसी दिन वह धनसार सेठ के सुंदर मकान में पहुँचा और उसी समय स्नान करके सेठ भोजन के लिए आया, उसके आगे वही चाँदी का थाल रखा और नवयौवन से मनोहर उसकी पुत्री भी पंखा लेकर आगे खड़ी थी। साधु भी जब टकटकी दृष्टि से उस टूटे थाल को देखने लगा, तब सेठ भिक्षा दे रहा था तो भी वह देखता नहीं था, इससे सेठ ने कहा कि-हे भगवंत! मेरी पुत्री को क्यों देखते हो? मुनि ने कहा कि-भद्र! मुझे आपकी पुत्री से कोई प्रयोजन नहीं है। किंतु यह थाल तुझे कहाँ से मिला है, उसे कह? सेठ ने कहा कि-भगवंत! दादा परदादा की परंपरा से आया है। साधु ने कहा कि-सत्य बोलो! तब सेठ ने कहा-भगवंत! मुझे स्नान करते यह सारी स्नान की सामग्री आकर मिली है और भोजन करते यह भोजन के बर्तन आदि साधन मिले हैं तथा अनेक निधानों द्वारा भण्डार भी पूर्ण भर गया है। मुनि ने कहा कि-यह सारा 292 For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-ऐश्वर्यमद द्वार-दो व्यापारियों की कथा मेरा था। इससे सेठ ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? तब मुनि ने विश्वास करवाने के लिए वहाँ से थाल मँगवाकर पूर्व काल में संग्रह कर रखा हुआ उस थाल के टुकड़े को उसको दिया और उसने वहाँ लगाया, फिर तत्त्व के समान तत्स्वरूप हो इस तरह वह टुकड़ा शीघ्र अपने स्थान पर थाल में जुड़ गया और मुनि ने अपना गाँव, पिता का नाम, वैभव का नाश आदि सर्व बातें कहीं। इससे यह मेरा जमाई है। ऐसा जानकर हृदय में महान् शोक फैल गया, अश्रु जलधारा बहने लगी, सेठ साधु को आलिंगन कर अत्यंत रोने लगा । विस्मित मन वाले परिवार को महामुसीबत से रोते बंद करवाया। फिर वह अत्यंत राग से, मनोहर वाणी से साधु को इस प्रकार कहने लगा-तेरा सारा धन समूह उसी अवस्था में विद्यमान है और पूर्व में जन्मी हुई यह मेरी पुत्री भी तेरे आधीन है। यह सारा नौकर वर्ग तेरी आज्ञानुसार वर्तन करनेवाला है, इसलिए दीक्षा छोड़कर अपने घर के समान स्वेच्छापूर्वक विलास कर। मुनि ने कहा कि - प्रथम पुरुष काम भोग को छोड़ता है अथवा तो पुण्य का नाश होते वह विषय पहले पुरुष को छोड़ता है। इस तरह जो छोड़कर चला जाता है, उन विषयों को स्वीकार करना वह मानी पुरुषों को योग्य नहीं है। इसलिए शरद ऋतु के बादल समान नाश होनेवाले विषयों से मुझे कोई संबंध नहीं है। यह सुनकर सेठ को संवेग उत्पन्न हुआ और विचार किया कि - यह पापी विषय मुझे भी अवश्य छोड़ देंगे, अतः अवश्य नश्वर स्वभाव वाले परिणाम से कटु दुःखदायी दुर्गति का कारणभूत, राजा, चोर आदि को लुटाने योग्य, हृदय में खेद कराने वाला, मुश्किल से रक्षण करने योग्य, दुःखदायी और सर्व अवस्थाओं में तीव्र मूढ़ता प्रकट करानेवाले इन विषयों से क्या लाभ होता है? ऐसा चिंतनकर उस सेठ ने सर्व परिग्रह छोड़कर सद्गुरु के पास उत्तम मुनि दीक्षा को स्वीकार की । कर्मवश तथाविध विशिष्ट वैभव होने पर भी इस तरह ऐश्वर्य को नाशवान समझकर कौन बुद्धिशाली उसका मद करे ? तथा इस प्रकार आज्ञाधीन मेरे शिष्य, मेरी शिष्याएँ और मेरे संघ की सर्व पर्षदा और स्व- पर शास्त्रों के महान् अर्थ युक्त मेरी पुस्तकों का विस्तार ।। ७००० ।। मेरे वस्त्र पात्रादि अनेक हैं तथा मैं ही नगर के लोगों में ज्ञानी - प्रसिद्ध हूँ इत्यादि साधु को भी ऐश्वर्य का मद अति अनिष्ट फलदायक है। इस तरह प्राणियों की सद्गति की प्राप्ति को रोकने वाला, गाढ़ अज्ञान रूपी अंधकार फैलाने वाला तथा विकार से बहुत दुःखदायी, ये आउ प्रकार के मद तुझे नहीं करना चाहिए। अथवा तपमद और ऐश्वर्य मद इन दो के बदले बुद्धि-बल और प्रियता मद भी कहने का है उसका स्वरूप इस प्रकार जानना । इसमें बुद्धि मद अर्थात् शास्त्र को ग्रहण करना, दूसरे को पढ़ाना, नयी-नयी कृतियाँ - शास्त्र रचना, अर्थ का विचार (विस्तार) करना और उसका निर्णय करना इत्यादि अनंत पर्याय की अन्यान्य जीवों की अपेक्षा से बुद्धि वाला, बुद्धि के विकल्पों में जो पुरुषों सिंह समान हो गये हैं उन पूर्व के ज्ञानियों का अतिशय वाला विज्ञानादि अनंत गुणों को सुनकर आज के पुरुष अपनी बुद्धि का मद किस तरह करें? अर्थात् पूर्व के ज्ञानियों की अपेक्षा से वर्तमान काल के जीवों की बुद्धि अति अल्प होने से उसका मद किस तरह कर सकता है? दूसरा लोक प्रियता का मद करना योग्य नहीं है, क्योंकि कुत्ते के समान सैंकड़ों मीठे चाटु वचनों से स्वयं दूसरे मनुष्यों का प्रिय बनता है, फिर भी खेद की बात है कि वह रंक बड्डपन का गर्व करता है। तथा उस गर्व से ही वह मानता है कि- मैं एक ही इनका प्रिय हूँ और इसके घर में सर्व कार्यों मैं ही कर्त्ता, धर्त्ता हूँ। परंतु वह मूढ़ यह नहीं जानता कि पूर्व में किये अति उत्तम पुण्यों से पुण्य के भंडार बनें 'यह पुण्य वाले का मैं सर्व प्रकार से नौकर बना हूँ।' और किसी समय में उसका तथा किसी प्रकार प्रियता की अवगणना करके यदि वह सामने वाला अप्रियता दिखाता है तब उसे विषाद रूपी अग्नि जलाती है अर्थात् खेद प्राप्तकर मन में ही जलता है, इसलिए हे सुंदर ! आखिर विकार दिखाने वाला, इस प्रकार की प्रियता प्राप्त करने श्री संवेगरंगशाला For Personal & Private Use Only 293 . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला মাসাধি লাম -ঘোকি নিয়ন্ত নাসেন্ট নীহা রে पर भी मद करने से क्या लाभ है? पूर्व में कही हुई चाणक्य और शकडाल नामक मंत्रियों की कथा सुनकर तूं प्रियता का मद मत करना। इसलिए प्रियता को प्राप्त करके भी तूं 'मैं इसका प्रिय हूँ" ऐसी वाणी रूपी मद का भयंकर सर्प के समान त्यागकर इस प्रकार ही विचार करना कि-मेरे कार्यों की अपेक्षा छोड़कर मैं इसके सभी कार्यों में प्रवृत्ति करता हूँ, इसलिए यह मेरे प्रति स्नेहयुक्त प्रियता दिखाता है, किंतु यदि मैं निरपेक्ष बनूँ तो निरुपकारी होने से अवश्य उसका अपराध किया हो, वैसे मैं उसके दृष्टि समक्ष खड़ा रहूं, फिर भी प्रियता नहीं होगी। यहाँ पर मद स्थान आठ हैं वह उपलक्षण वचन से ही जानना। अन्यथा मैं वादी हूँ, वक्ता हूँ, पराक्रमी हुँ, नीतिमान हूँ इत्यादि गुणों के उत्कर्ष से मद स्थान अनेक प्रकार का भी है, इसलिए हे वत्स! सर्व गुणों का कभी मद मत करना। जाति कुल आदि का मद करने वाले पुरुषों को गुण की प्राप्ति नहीं होती है, परंतु मद करने से जन्मांतर में उसी जाति कुल आदि में हीनता को प्राप्त करता है। और अपने गुणों से दूसरे की निंदा करते तथा उसी गुण से अपना उत्कर्ष प्रशंसा करते जीव कठोर नीच गोत्र कर्म का बंध करता है। फिर उसके कारण अत्यंत अधम योनि रूपी तरंगों में खींचते अपार संसार समुद्र में भटकता है, और इस जन्म के सर्वगुण समूह का गर्व नहीं करता है वह जीव जन्मांतर में निर्मल सारे गुणों का पात्र बनता है। __ इस तरह आठ मद स्थान नाम का दूसरा अंतर द्वार कहा है, अब क्रोधादि का निग्रह करने का यह तीसरा द्वार कहता हूँ ।।७०२१।। क्रोधादि निग्रह नामक तीसरा द्वार : जो कि अठारह पाप स्थानक में क्रोधादि एक-एक का विपाक दृष्टांत द्वारा कहा है, फिर भी उसका त्याग अत्यंत दुष्कर होने से और उसका स्थान निरूपण रहित न रहे, इसलिए यहाँ पर पुनः भी गुरु महाराज (गणधर गौतमस्वामी) क्षपक मुनि को उद्देश्य कर कहते हैं कि-हे सत्पुरुष! क्रोधादि के विपाक को और उसको रोकने से होने वाले गुणों को जानकर तूं कषाय रूपी शत्रुओं का प्रयत्नपूर्वक नाश कर। तीनों लोक में जो अति कठोर दुःख और जो श्रेष्ठ सुख है, वह सर्व कषायों की वृद्धि और क्षय के कारण ही जानना। 'क्रोधित शत्रु, व्याधि और सिंह मुनि का उतना अपकार नहीं करते हैं जितना अपकार क्रोधित कषाय रूपी शत्रु करता है। राग-द्वेष के आधीन बने हुए और कषाय से व्यामूढ़ बनें अनेक मनुष्य संसार का अंत करने वाले श्री जिनेश्वर के वचन को भी शिथिल करते हैं अर्थात् कषाययुक्त आत्मा श्री जिन वचन का भी अनादर करते हैं। धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य अत्यंत फैले हुए भी गर्जना करते दूसरे के क्रोधरूपी वायु से टकराते बादल के समान बिखर जाते हैं। इससे भी अधिक धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य कुलवान के काम विकार के समान अकार्य किये बिना ही सदा अंतर में ही क्षय हो जाते हैं। और कई अति धन्य पुरुषों के कषाय तो निश्चय ही ग्रीष्म ऋतु के ताप से पसीने के जल बिंदुओं के समान जहां उत्पन्न होते हैं वहाँ ही नाश हो जाते हैं। कई धन्य पुरुषों के कषाय खुदती हुई सुरंग की धूल जैसे सुरंग में ही समा जाती है, वैसे दूसरे के मुख वचनरूपी कोदाली के बड़े प्रहार से उत्पन्न हुए कषाय अंतर में ही समा जाते हैं। कई धन्य पुरुषों के कषाय अवश्य दूसरे वचनरूपी पवन से प्रकट हुए उच्च शरद ऋतु के जल रहित बादल के समान असार फल वाले (निष्फल) होते हैं। ईर्ष्या के वश कई धन्य पुरुषों के कषाय अति भयंकर समुद्र की बड़ी जल तरंगों के समान किनारे पर पहुँचकर नाश होते हैं। धन्यों में भी वह पुरुष धन्य है कि जो कषाय रूप गेहूँ और जौ के कणों को संपूर्ण चूर्ण करने के लिए चक्की के समान अन्तःकरण रूपी चक्की में पिसते हैं। 1. न वि तं करेंति रिउणो, न वाहिणो न य मयारिणो कुविया। कुव्वंति जमऽवयारं मुणिणो कुविया कसायरिऊ ।।७०२६।। 294 For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रनाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला ___ इसलिए हे देवानुप्रिय! क्रोधादि निरोध करने में अग्रसर होकर तूं भी उसका उसी तरह विजय कर कि जिससे तूं सम्यग् आराधना कर सके। इस तरह क्रोधादि के निग्रह का तीसरा द्वार संक्षेप से कहा। अब चौथा प्रमाद त्याग द्वार को भेदपूर्वक कहता हूँ ।।७०३६ ।। प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार : जिसके द्वारा जीव धर्म में प्रमत्त-अर्थात् प्रमादी बनता है उसे प्रमाद कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है(१) मद्य, (२) विषय, (३) कषाय, (४) निद्रा और (५) विकथा। प्रथम मद्य प्रमाद का स्वरूप = इसमें जिसके कारण जीव विकारी बनता है वह कारण सर्व प्रकार के विकारों का प्रकट अखंड कारण मद्य कहलाता है। अबुध और सामान्य लोगों के पीने योग्य मद्य-शराब पंडित जन उत्तम पुरुषों को अपेय अर्थात् पीने योग्य नहीं है, क्योंकि पेय और अपेय पंडित और उत्तम मनुष्य ही जानते हैं। इसलोक और परलोक के हित के विचार में विशिष्ट पुरुषों ने जिसको इस जगत में निर्दोष देखा है या माना है वह उत्तम, यश-कारक और पवित्र, श्रेष्ठ पीने योग्य पदार्थ है। अथवा जो आगम द्वारा निषिद्ध है, विशिष्ट लोगों में निंदापात्र, विकारकारक इस लोक में भी जिसमें बहुत दोष प्रत्यक्ष दिखते है, पीने से जो निर्मल बुद्धि को आच्छादन करने वाला है, मन को शून्य बनाने वाला है, सर्व इन्द्रियों के विषयों को विपरीत बोध कराने वाला है, और सर्व इन्द्रिय समभाव वाली हो, स्वस्थ हो, प्रौढ़ बुद्धि वाली हो, और स्पष्ट चैतन्य वाले चतुर पुरुषों की आत्मा भी उसे पीने मात्र से सहसा अन्यथा परिणाम वाली होती है। अर्थात् समभाव छोड़कर रागी द्वेषी बनती है, विभाव दशा को प्राप्त करती है वह आत्मा क्षुद्र बुद्धि वाली और शून्य चेतना वाली बनती हो। अतः वह स्पष्ट अनार्य पापी मद्य को कौन बुद्धिशाली पियेगा। जैसे जल से दूसरे में अंकुर प्रकट होते हैं वैसे मद्य पीने से प्रत्येक समय में इस भव पर भव में दुःखों को देने वाले विविध दोष प्रकट होते हैं। तथा मद्यपान से राग की वृद्धि होती है, राग वृद्धि से काम की वृद्धि होती है और काम में अति आसक्त मनुष्य गम्यागम्य का भी विचार नहीं करता है। इस तरह यदि मद्य इस जन्म में ही समझदार मनुष्यों को विकल-पागल करता है तथा उसके साथ विष की भी सदृशता को धारण करता है। और हम क्या कहें? अर्थात् मद्य और जहर दोनों समान मानों! अथवा यदि मद्य अवश्य जन्मांतर में भी विकलेन्द्रिय रूप बनता है तो एक ही जन्म में विकलेन्द्रिय रूप करनेवाले विष को मद्य के साथ कैसे समानता दे सकते हैं? विष से मद्य अधिक दुष्टकारक है। ऐसा विचार नहीं करना कि द्रव्यों का मिलन रूप होने से सज्जनों को मद्य पीने योग्य ही है, परंतु इस विषय में सभी पेय अपेय की व्यवस्था विशिष्ट लोककृत और शास्त्रकृत है सब द्रव्यों का एक रूप होने पर भी एक वस्तु पीने योग्य होती है परंतु दूसरी वस्तु वैसे नहीं होती। जैसे द्रव्य मिलाकर द्राक्षादि का पानी सर्वथा पीने योग्य कहा है, उसी तरह मिलाये हुए द्रव्य से तुल्य होने पर भी (अत्थीय करीर) करीर के अचार के लिए धोया हुआ पानी पीने योग्य नहीं कहा है। ऊपर कहा हुआ यह पेय और अपेय व्यवस्था लोककृत है और अब शास्त्रकृत कहते हैं। वह शास्त्र दो प्रकार का है. लौकिक तथा लोकोत्तरिक। उसमें प्रथम लौकिक शास्त्र कहता है कि-गड, आटा और महडा इस तरह तीन प्रकार की मदिरा होती है। वह जैसे एक, वैसे तीनों सुरा उत्तम ब्राह्मण को पीने योग्य नहीं है। क्योंकि जिसका शरीरगत ब्रह्म मद्य से एक बार लिप्त होता है, उसका ब्राह्मणपन दूर हो जाता है और शूद्रता आती है। स्त्री का घात करने वाला, पुरुष का घात करने वाला, कन्या का सेवन करने वाला, और मद्यपान करने वाला ये चारों तथा पाँचवां उसके साथ रहनेवाला इन पाँचों को पापी कहा है। ब्रह्म-हत्या करने वाला, 1. नारीपुरुषयोर्हन्ता, कन्यादूषकमद्यपौ। एते पातकि नः प्रोक्ताः, पञ्चमस्तौ सहाऽऽवसन् ।।७०५५|| 295 For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग वानक चौथा द्वार-लौकिक ऋषि की कथा बारह वर्ष वन में व्रत का पालन करे, तब शुद्ध होता है, परंतु गुरु पत्नी को सेवन करने वाला अथवा मदिरापान करने वाला ये दो तो मरे बिना शुद्ध नहीं होते हैं। मद्य से या मद्य की गंध से भी स्पर्श हुए बर्तन को ब्राह्मण स्पर्श नहीं करे, फिर भी यदि स्पर्श हो जाए तो स्नान द्वारा शुद्ध होता है। लोकोत्तर शास्त्र के वचन हैं कि 'मद्य और प्रमाद से मुक्त' तथा 'मद्य मांस को नहीं खाना चाहिए' इस तरह मद्यपान उभय शास्त्र से निषिद्ध है। मैं मानता हूँ कि-पाप का मुख्य कारण मद्य है, इसलिए ही विद्वानों ने सर्व प्रमादों में इसे प्रथम स्थान दिया है। क्योंकि मद्य में आसक्त मनुष्य उसे नहीं पीने से आकांक्षा वाला और पीने के बाद भी सर्व कार्यों में विकल बुद्धिवाला होता है। इसलिए उसमें आसक्त जीव सर्वथा अयोग्य है। मद्य से मदोन्मत्त बने हुए की विद्यमान बुद्धि भी नहीं रहती है, ऐसा मेरा निश्चय अभिप्राय है। अन्यथा वे अपना धन क्यों गँवायें और अनर्थ को कैसे स्वीकार करें? मद्यपान से इस जन्म में ही शत्रु से पकड़ा जाना आदि अनेक विपत्ति के कारण होते हैं और परलोक में दुर्गति में जाना आदि अनेक दोष होते हैं। मैं जानता हूँ कि मद्य से मत्त बना हुआ बोलने में स्खलन रूप होता है। उसके आयुष्य का क्षय नजदीक आया हो, इस तरह और नीचे लोटता है। वह नरक में प्रस्थान करता हो वैसे स्वयं नरक में जाता है। आँखें लाल होती हैं वह नजदीक रहा हुआ नरक का ताप है, और निरंकुश हाथ इधर-उधर लम्बा करता है वह भी निराधार बना हो, उसका प्रतीक है। यदि मद्य में दोष नहीं होता तो ऋषि, ब्राह्मण और अन्य भी जो-जो धर्म के अभिलाषा वाले हैं वे निषेध क्यों करते? और स्वयं क्यों नहीं पीते? प्रमाद का मुख्य अंग और शुभचित्त को दूषित करने वाले मद्य में अपशब्द बोलना इत्यादि अनेक प्रकार के दोष प्रत्यक्ष ही हैं। सुना है किकिसी लौकिक ऋषि महातपस्वी ने भी देवियों में आसक्त होकर मद्य से मूढ़ के समान विडम्बना प्राप्त की।।७०६७।। वह कथा इस प्रकार है : लौकिक ऋषि की कथा कोई ऋषि तपस्या कर रहा था। उसके तप से भयभीत होकर इन्द्र ने उसे क्षोभित करने के लिए देवियों को भेजा। तब उन्होंने आकर उसे विनय से प्रसन्न किया और वह वरदान देने को तैयार हुआ। तब उन्होंने कहा कि-मद्यपान करो, हिंसा करो, और हमारा सेवन करो तथा देव की मूर्ति का खंडन करो। यदि ये चारों न करो तो भगवंत कोई भी एक को करो। ऐसा सुनकर उसने सोचा कि-शेष सब पाप नरक का हेतु है और मद्य सुख का कारण है, ऐसा अपनी मति से मानकर उसने मद्य पिया, इससे मदोन्मत्त बना उसने निर्भर अति मांस का परिभोग किया, उस मांस को पकाने के लिए काष्ठ की मूर्ति के टुकड़े किये और लज्जा को छोड़कर तथा मर्यादा को एक ओर रखकर उसने उन देवियों के साथ भोग भी किया। इससे तप शक्ति को खंडित करने वाला वह मरकर दुर्गति में गया। इस तरह मद्य अनेक पापों का कारण और दोषों का समूह है। मद्य से यादवों का भी नाश हुआ। ऐसे अति दारुण दोष को सुनकर, हे सुंदर! तत्त्वों के श्रोता तूं मद्य नामक प्रमाद का आजीवन त्याग कर दे। जिसने मद्य का त्याग किया है उसका धर्म हमेशा अखंड है, उसने ही सर्व दानों का अतुल फल प्राप्त किया है और उसने सर्व तीर्थों में स्नान किया है। मांसाहार और उसके दोष :-अनेक उत्तम वस्तु मिलाने से उत्पन्न हुए जंतु समूह के कारण जैसे मद्यपान करना पाप है वैसे मांस, मक्खन और मद्य भक्षण करना बहुत पाप है। सतत जीवोत्पत्ति होने से, शिष्ट पुरुषों से निंद्य होने से और सम्पातिक (उड़कर आ गिरते) जीवों का विनाश होने से ये तीनों दुःखरूप हैं। धर्म का सार जो दया है वह भी मांस भक्षण में कहाँ से हो सकती है? यदि हो तो कहो। इसलिए धर्म बुद्धि वाले मांस का जीवन 296 For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-मांसाहार और उसके दोष श्री संवेगरंगशाला तक त्याग करते हैं। मनुष्यों के योग्य लोक में अन्य भी जीव की हिंसा किये बिना अत्यंत स्वादवाली, रसवाली, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से, स्वभाव से ही मधुर, पवित्र, स्वभाव से ही सर्व इन्द्रियों को रुचिकर और पुरुषों के योग्य, उत्तम वस्तु होने पर भी निंदनीय मांस को खाने से क्या लाभ है? हा! उस मांस को धिक्कार हो ! कि जिसमें अति विश्वासु, दूसरे जीवों के स्थिर प्राणों का अतर्कित (आकस्मिक) विनाश होता है। क्योंकि मांस वृक्षों से उत्पन्न नहीं होता अथवा पुष्प, फल से नहीं होता, जमीन से प्रकट नहीं होता अथवा आकाश से बरसता नहीं है, परंतु भयंकर जीव हिंसा से ही उत्पन्न होता है। तो क्रूर परिणाम वाला जीव वध से उत्पन्न हुए मांस को कौन दयावान खायगा ? क्योंकि उसे खाकर शीघ्र मार्ग भ्रष्ट होता है। और भूख से जलते केवल जठर भरने योग्य यह एक ही शरीर के लिए अल्प सुख-स्वादार्थ मूर्ख मनुष्य जो अनेक जीवों का वध करता है तो स्वभाव से ही हाथी के कान समान चंचल जीवन क्या अन्य मांस पोषण से स्थिर रहने वाला है? और ऐसा कभी भी विचार नहीं करना कि - मांस भी जीवों का अंग रूप होने से वनस्पति आदि आहार के समान सज्जनों को भक्ष्य है? क्योंकि भक्ष्य - अभक्ष्य की सारी व्यवस्था विशिष्ट लोककृत और शास्त्रकृत है। जीव का अंग रूप समान होने पर भी एक भक्ष्य है परंतु दूसरा भक्ष्य नहीं है। यह बात अति प्रसिद्ध है कि- जीव का अंग रूप समान होने पर भी जैसे गाय का दूध पीया जाता है, वैसे उसका रुधिर नहीं पीया जाता। इस तरह अन्य वस्तुओं में भी जानना । इस तरह केवल जीव अंग की अपेक्षा तो गाय और कुत्ते के मांस का निषेध भी नहीं रुकेगा, क्योंकि वह भी जीव का अंग होने से वह भी भक्ष्य गिना जायगा । और जीव अंग रूप हड्डी आदि समान होने से वह भी भक्ष्य गिना जायगा । और यदि केवल जीव अंग की समानता मानकर इस लोक में प्रवृत्ति की जाए तो माता और पत्नी में स्त्री भाव समान होने से वे दोनों भी तुल्य भोग योग्य होती हैं। इस तरह यह लोककृत भक्ष्याभक्ष्य की व्यवस्था कही है। अब शास्त्रकृत कहते हैं। शास्त्र लौकिक और लोकोत्तरिक इस तरह दो प्रकार का है, उसमें प्रथम लौकिक इस प्रकार से है-मांस हिंसा प्रवृत्ति कराने वाला है, अधर्म की बुद्धि कराने वाला है और दुःख का उत्पादक है, इसलिए मांस नहीं खाना चाहिए। जो दूसरे के मांस से अपने मांस को बढ़ाना चाहता है, वह जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ-वहाँ उद्वेगकारी स्थान को प्राप्त करता है। दीक्षित अथवा ब्रह्मचारी जो मांस का भक्षण करता है, वह अधर्मी, पापी पुरुष स्पष्ट - अवश्य नरक में जाता । ब्राह्मण आकाश गामी है, परंतु मांस भक्षण से नीचे गिरता है। इसलिए उस ब्राह्मण का पतन देखकर मांस का भक्षण नहीं करना चाहिए । मृत्यु से भयभीत प्राणियों का माँस जो इस जन्म में खाता है वह घोर नरक, नीच तिर्यंच योनियों में अथवा हल्के मनुष्य में जन्म लेता है। जो मांस खाता है और वह मांस जिसका खाता है उन दोनों का अंतर तो देखो। एक को क्षणिक तृप्ति और दूसरे को प्राणों से मुक्ति होती है। शास्त्र में सुना जाता है कि भरत! जो मांस खाता नहीं है वह तीनों लोक में जितने तीर्थ हैं उसमें स्नान करने का पुण्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य मोक्ष अथवा देवलोक को चाहता है, फिर भी मांस को नहीं छोड़ता है, तो उससे उसे कोई लाभ नहीं है। जो मांस को खाता है तो साधु वेश धारण करने से क्या लाभ है? और मस्तक तथा मुख को मुंडाने से भी क्या लाभ? अर्थात् उसका सारा कार्य निरर्थक ।। ७१०० ।। जो सुवर्ण के मेरु पर्वत को और सारी पृथ्वी को दान में दे, तथा दूसरी ओर मांस भक्षण का त्याग करे, तो हे युधिष्ठिर ! वह दोनों बराबर नहीं होते अर्थात् मांस त्याग पुण्य में बढ़ जाता है। और प्राणियों की हिंसा के बिना कहीं पर मांस उत्पन्न नहीं होता है और प्राणिवध करने से स्वर्ग नहीं मिलता है। इस कारण से मांस को नहीं खाना चाहिए । जो पुरुष शुक्र और रुधिर से बना अशु मांस को खाता है और फिर पानी से शौच करता है, उस मूर्ख की मूर्खता पर देव हँसते हैं। क्योंकि जैसे जंगली For Personal & Private Use Only 297 . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला सनाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-नांसाहार और उसके दोष हाथी निर्मल जल के सरोवर में स्नान करके धूल से शरीर को गंदा करता है, उसके समान वह शौचकर्म और मांस भक्षण है। जो ब्राह्मणों को एक हजार कपिला गाय का दान करे और दूसरी ओर एक को जीवन दान करे, उसमें गौदान प्राणदान के सौलहवें अंश की भी कला को प्राप्त नहीं करता है। १. हिंसा की अनुमति देने वाला, २. अंगों का छेदन करने वाला, ३. प्राणों को लेने वाला, ४. मांस बेचने वाला, ५. खरीदने वाला, ६. उसको पकाने वाला, ७. दूसरे को परोसने वाला और ८. खाने वाला ये आठों घात करनेवाले माने गये हैं। जो मनुष्य माँस भक्षी है वह अल्पायुष्य वाले, दरिद्री, दूसरों की नौकरी से जीने वाले और नीच कुल में जन्म लेता है। इत्यादि मांस की दुष्टता जानने के लिए लौकिक शास्त्र वचन अनेक प्रकार के हैं। और 'मद्य माँस नहीं खाना' आदि लोकोत्तरिक वचन भी है। अथवा जो लौकिक शास्त्र का वर्णन यहाँ पूर्व में बतलाया है वह भी इस ग्रंथ में रखा है इससे इस वचन को निश्चय लोकोत्तरिक वचन जानना। क्योंकि सुवर्ण रस से युक्त लोहा भी जैसे सुवर्ण बनता है वैसे मिथ्यादृष्टियों ने कहा हुआ भी श्रुत समकित दृष्टि के ग्रहण करने से सम्यग्क् श्रुत बन जाता है। यहाँ यह प्रश्न करते हैं कि-यदि पंडितजनों ने माँस को जीव का अंग होने से त्याग करने योग्य है ऐसा कहा है तो क्या मूंग आदि अनाज भी प्राणियों का अंग नहीं है कि जिससे उसे दूषित नहीं कहा? इसका उत्तर देते हैं कि मूंग आदि अनाज जो जीवों का अंग है वह जीव पंचेन्द्रियों के समान रूप वाले नहीं होते हैं, क्योंकि पंचेन्द्रिय जीव में जिस तरह मानस विज्ञान से युक्त चेतनावाला होता है, और तीक्ष्ण शस्त्रों से शरीर के एक भाग रूप मांस काटने पर प्रतिक्षण चीख मारता है, उस समय उसे अत्यंत दुःख होता है उस तरह जीव रूप में समान होने पर भी एक ही इन्द्रिय होने से मूंग आदि के जीवों को उस प्रकार का दुःख नहीं होता है, तो उनकी परस्पर तुलना कैसे हो सकती है? अरे मारो! जल्दी भक्षण करो। इत्यादि अत्यंत क्रूर वाणी को वे कान से स्पष्ट सुन सकते हैं, अति तेज चमकती तीक्ष्ण तलवार आदि के समूह को हाथ में धारण करते पुरुष को और उसके प्रहार को, उसकी भय से डरी हुई चपल नेत्रों की पुतली शीघ्र देखती है, चित्त में भय का अनुभव करता है, और भय प्राप्त करते वह कांपते शरीर वाला बिचारा ऐसा मानता है कि अहो! मेरी मृत्यु आ गयी। इस तरह जीवत्व तुल्य होने पर भी जिस तरह पंचेन्द्रिय जीव तीक्ष्ण दुःख को स्पष्ट अनुभव करता है, उस तरह मूंग आदि एकेन्द्रिय जीव अनुभव नहीं करते हैं। तथा पंचेन्द्रिय जीव परस्पर सापेक्ष मन, वचन और काया इन तीनों के अत्यंत दुःख को अवश्य प्रकट रूप में अनुभव करता है और मूंग आदि एकेन्द्रिय तो प्राप्त दुःख को केवल काया से और वह भी कुछ अल्पमात्र अव्यक्त रूप में भोगता है। और दूसरा हिंसक को पास में आते देखकर मरण से डरता है वह बिचारा पंचेन्द्रिय जीव किस तरह अपने जीवन की रक्षा के लिए जिस तरह इधर-उधर हलचल करता है, हैरान होता है, भागता है, छुप जाता है, और देखता है, उस तरह माँस की आसक्ति वाला आवेश वश बना हुआ वध करने वाला भी उसे विश्वास प्राप्त करवाने के लिए, ठगने के लिए, पकड़ने और मारने आदि के उपायों को जिस तरह चिंतन करता है, उस तरह एकेन्द्रिय को मारने में नहीं होता है। अतः जहाँ जहाँ मरनेवाले को बहुत दुःख होता है, और जहाँ-जहाँ मारने वाले में दुष्ट अभिप्राय होता है वही हिंसा में अनेक दोष लगते हैं। और त्रस जीवों में ऐसा स्पष्ट दिखता है इसलिए उसके अंग को ही मांस कहा है और उसका ही निषेध किया है। उस पंचेन्द्रिय से विपरीत लक्षण होने से बहुत जीव होने पर मूंग आदि में माँस नहीं है और लोक में भी वह अति प्रसिद्ध होने से दष्ट नहीं है। और इस तरह केवल जीव अंग रूप होने से ही यह अभक्ष्य नहीं है. किन्त उसमें उत्पन्न होते 298 For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला अन्य भी बहुत जीव होने से वह अभक्ष्य है, क्योंकि कहा है आमासु य पक्कासु य विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। आयंतियमुववाओ, भणिओ य निओयजीवाणं ।।७१२८ ।। 'कच्चे, पक्के हुए और पकाते प्रत्येक मांस की पेशी में निगोद जीव हमेशा अत्यधिक उत्पन्न होते हैं।' और कई मूढ़ बुद्धि वाले पाँच मूंग खाने से पंचेन्द्रिय का भक्षण मानते हैं, उनका कहना बराबर नहीं है वह मोह का अज्ञान वचन है। जैसे तन्तु परस्पर सापेक्षता से पट रूप बनता है, और पुनः बहुत तन्तु होने पर भी निरपेक्षता (अलग रहने) से पटरूप नहीं होता है। इस तरह परस्पर सापेक्ष भाव वाली और स्व विषय को ग्रहण करने में तत्पर पाँच इन्द्रियों का एक शरीर में मिलने से वह पंचेन्द्रिय बनता है। सुख दुःख का अनुभव कराने वाले विज्ञान का प्रकर्ष भी वही होता है। जब प्रत्येक भिन्न-भिन्न इन्द्रिय वाले अनेक भी मूंग आदि में उस संवेदना का प्रकर्ष नहीं होता है। इस तरह अत्यंत अव्यक्त केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय के ज्ञान के आश्रित बहुत भी मूंग आदि में पंचेन्द्रिय रूप कहना अयोग्य है। लौकिक शास्त्रों में ऊपर कहे अनुसार मांस का निषेधकर पुनः उसी शास्त्र में आपत्ति अथवा श्राद्ध आदि में उसकी अनुज्ञा दी है-वहाँ इस प्रकार कहा है कि-वेद मंत्र से मंत्रित मांस को ब्राह्मण की इच्छा से अर्थात् खाने वाले ब्राह्मण की अनुमति से शास्त्रोक्त विधि अनुसार गुरु ने जिसको यज्ञ क्रिया में नियुक्त किया हो, उस यज्ञ विधि को कराने वाले को खाना चाहिए, अथवा जब प्राण का नाश होता हो तभी खा लेना चाहिए। विधिपूर्वक यज्ञ क्रिया में नियुक्त किये जो ब्राह्मण उस मांस को नहीं खाता है वह मरकर इक्कीस जन्म तक पशु योनि को प्राप्त करता है। इस तरह अनुज्ञा की फिर भी इस माँस का त्याग करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि उस शास्त्र में भी इस प्रकार से कहा है कि-"आपत्ति में और श्राद्ध में भी जो ब्राह्मण मांस को नहीं खाता है वह उत्तम गोत्रवाला पुत्र सहित और गोत्रीय मनुष्य सहित सूर्य लोक में पूजित बनता है।"।।७१३८।। इस प्रकार लौकिक और लोकोत्तर शास्त्रों में मांस भक्षण का निषेध किया है, इसलिए उस अवस्तु मांस को धीर पुरुष दूर से ही सर्वथा त्याग करे। मांस खाने वाले का अवश्य इस लोक में अनादर होता हैं, जन्मांतर में कठोरता, दरिद्रता, उत्तम जाति कुल की अप्राप्ति, अति नीच पाप कार्य द्वारा, आजीविका प्राप्त करने वाला भव मिलता है, शरीर पर आसक्ति, भय से हमेशा पीड़ित, अति दीर्घ रोगी, और सर्वथा अनिष्ट जीवन प्राप्त होता है। मांस बेचने वाले को धन के लोभ से, भक्षक उपयोग करने से और जीव को वध बंधन करने से ये तीनों मांस के कारण हिंसकत्व हैं। जो कभी भी मांस को नहीं खाता है, वह अपने अपयशवाद का नाश करता है और जो उसे खाता है उसे नीच स्थानों का दुःखद संयोग सेवन करना पड़ता है। इस तरह मांस अत्यंत कठोर दुःखों वाली नरक का एक कारण है. अपवित्र. अनुचित और सर्वथा त्याग करने योग्य है, इसलिए वह ग्रहण करने योग्य नहीं है। जो व्यवहार में दुष्ट है और लोक में तथा शास्त्र में भी जो दूषित है वह मांस निश्चय अभक्ष्य ही है, उसे चक्षु से भी नहीं देखना चाहिए। हाथ में मांस को पकड़ा हो चंडाल आदि भी किसी समय मार्ग में सामने आते सज्जन को देखकर लज्जा प्राप्त करता है। यदि अनेक दोष के समूह मांस को मन से भी खाने की इच्छा नहीं करता है, उसने गाय, सोना, गोमेध यज्ञ और पृथ्वी आदि लाखों का दान दिया है, अर्थात् उसके समान पुण्य को प्राप्त करता है। मैं मानता हूँ कि मांसाहारी जैसे दूसरे का मांस खाता है, वैसे अपना ही मांस यदि खाता है तो निश्चय अन्य को पीड़ा नहीं होने से उस प्रकार का दोष भी नहीं लगता है। परंतु ऐसा संभव नहीं है। अन्यथा तीन जौं जितने मांस के लिए अभयकुमार को अठारह करोड़ सोना मोहर मिली, ऐसा सुना जाता है वे नहीं मिलती ।।७१४९।। वह कथा इस प्रकार है : 299 For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अभयकुमार की कथा अभयकुमार की कथा राजगृह नगर में अभयकुमार आदि मुख्य मंत्रियों के साथ राजा राजसभा में बैठा था, श्रेणिक राजा के सामने विविध बातें चलते समय एक प्रधान ने कहा कि-हे देव! आपके नगर में अनाजादि के भाव तेज और दुर्लभ हैं, केवल एक मांस सस्ता और सर्वत्र सुलभ है। उसके वचन सामंत और मंत्रियों सहित राजा ने सम्यक् स्वीकार किया, केवल निर्मल बुद्धि वाले अभयकुमार ने कहा कि-हे तात! इस तरह मोहवश क्यों होते हो? इस जगत में निश्चय ही मांस सभी से महंगा है उस तरह धातु और वस्त्र आदि महंगा नहीं है, सुलभ है। मंत्रियों ने कहा कि थोड़ा मूल्य देने पर भी बहुत माँस मिलता है, तो इस तरह माँस को अति महंगा कैसे कह सकते हैं? उसे प्रत्यक्ष ही देखो! दूसरी वस्तु बहुत धन देने के बाद मिलती है। जब सब ने ऐसा कहा तब अभय मौन करके रहा। फिर उसी वचन को सिद्ध करने के लिए उसने श्रेणिक राजा को कहा कि-हे तात! केवल राज्य मुझे दो! राजा ने सभी लोगों को बुलाकर कहा कि मेरा सिर दर्द करता है अतः अभय को राज्य पर स्थापन करता हूँ। इस तरह स्थापनकर राजा स्वयं अंतपुर में रहा। अभयकुमार ने भी समस्त लोगों को दान मुक्त किया और अपने राज्य में अहिंसा पालन की उद्घोषणा करवाई। जब पाँचवा दिन आया तब रात में वेश परिवर्तन करके शोक से पीड़ित हो, इस तरह उन सामंत और मंत्रियों के घर में गया। सामंत आदि ने कहा कि-नाथ! इस तरह पधारने का क्या कारण है? अभय ने कहा कि-श्रेणिक राजा मस्तक की वेदना से अति पीड़ित है और वैद्यों ने उत्तम पुरुषों के कलेजे के माँस की औषधि बतलायी है, इसलिए आप शीघ्र अपने कलेजे का तीन जौ जितना माँस दो। उन्होंने भी सोचा कि यह अभयकुमार प्रकृति से क्षुद्र है इसलिए लांच देकर छुट जाय ऐसा विचारकर अपनी रक्षा के लिए सोना महोरें दी और एक रात में सभी के घरों से इस प्रकार कहकर अठारह करोड़ सोना मोहर ले आया। प्रभात काल होते और पाँच दिन पूर्ण होते अभयकुमार ने अपने पिता को राज्य पर वापिस स्थापन किया और वह अठारह करोड़ सोना मोहर का ढेर राज्य सभा में किया। इसे देखकर व्याकुल मन वाले श्रेणिक ने विचार किया कि-निश्चय ही अभयकुमार ने लोगों को लूटकर निर्धन कर दिया है, अन्यथा इतनी बड़ी धन की प्राप्ति कहाँ से होती? फिर नगरवासी लोगों के आशय को जानने के लिए श्रेणिक राजा ने त्रिकोण मार्ग, चार रास्ते, आदि बड़े-बड़े स्थानों पर तलाश करने के लिए गुप्तचरों को आदेश दिया। वहाँ 'प्रकट तेज वाले, प्रकट प्रभावी मनोहर अमृत की मूर्ति समान अभयकुमार यावच्चन्द्र दिवाकर चिरकाल तक राज्य लक्ष्मी को भोगो।' इस प्रकार नगर में सारे घरों में मनुष्यों के मुख से अभयकुमार का यश वाद सुनकर गुप्तचरों ने राजा को यथास्थित सारा वृत्तांत सुनाया। तब विस्मित मन वाले राजा ने अभयकुमार से पूछा कि-हे पुत्र! इतनी महान् धन संपत्ति कहाँ से प्राप्त की है? तब उसने भी विस्मित हृदयवाले श्रेणिक को 'तीन जौ के दानों के प्रमाण जितने माँस की याचना' आदि सारा वृत्तांत यथास्थित सुनाया। उसके बाद राजा ने और शेष सभी लोगों ने निर्विवाद रूप में मांस को अत्यंत महंगा और अति दुर्लभ रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार सम्यग् रूप से सुनकर हे मुनिवर! आराधना के मन वाले अगर तूंने पूर्व में माँस सेवन किया हो तो उसे याद मत करना। इस तरह प्रसंगानुसार माँस आदि के स्वरूप कथन से संबद्ध मद्य द्वार को कहकर अब विषय द्वार को कहते हैं ।।७१७३।। दूसरा विषय प्रमाद का स्वरूप :-इसके पहले ही मद्य के जो दोष कहे हैं वही दोष विषय सेवन में भी प्रायः विशेषतया होते हैं। क्योंकि इस विषय में आसक्त मनुष्य विशेषतया शिथिल होता है। इस कारण से विषय 300 For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अभयकुमार की कथा श्री संवेगरंगशाला की (वि+सय=विषय) ऐसी नियुक्ति (व्याख्या) की है। यह विषय निश्चय महाशल्य है, परलोक के कार्यों में महाशत्रु है, महाव्याधि है, और परम दरिद्रता है। जैसे हृदय में चुभा हुआ शल्य (कांटा) प्राणियों को सुखकारक नहीं होता है, वैसे हृदय में विषय के विचार मात्र भी जीव को दुःखी ही करता है। जैसे कोई महाशत्रु विविध दुःख को देता है वैसे विषय भी दुःख को देता है अथवा शत्रु तो एक ही भव में और विषय तो परभव में भी दुःखों को देता है। जैसे महाव्याधि इस भव में पीड़ा देती है वैसे यह विषय भी यहाँ पीड़ा देता है, इसके अतिरिक्त वह अन्य भवों में भी अनंतगुणी पीड़ा देता है। जैसे यहाँ महादरिद्रता सभी पराभवों का कारण है वैसे विषय भी अवश्य पराभवों का परम कारण है। जो विषय रूपी मांस में आसक्त हैं उन अनेक पुरुषों ने बहुत प्रकार से पराभव के स्थान प्राप्त किये हैं, प्राप्त करते हैं और प्राप्त करेंगे। विषयासक्त मनुष्य जगत को तृण समान मानता है, विषय का संदेह हो वहाँ भी प्रवेश करता है, मरण के सामने छाती रखता है, अर्थात् डरता नहीं है, अप्रार्थनीय नीच को भी प्रार्थना करता है, भयंकर समुद्र को भी पार करता है तथा भयंकर वेताल को भी सिद्ध करता है। अधिक क्या कहें? विषय के लिए मनुष्य यम के मुख में भी प्रवेश करता है, मरने के लिए भी तैयार होता है। विषयातुर जीव बड़े-बड़े हितकर कार्य को छोड़कर एक मुहूर्त मात्र वैसा पाप कार्य करता है कि जिससे जावज्जीव तक जगत में हंसी होती है। विषय रूपी ग्रह के आधीन पड़ा मूढात्मा पिता को भी मारने का प्रयत्न करता है. बंध को भी शत्रु समान मानता है और स्वेच्छा से कार्यों को करता है। विषय अनर्थ का पंथ है, पापी विषय मान महत्त्व का नाशक है, लघुता का मार्ग है और अकाल में उपद्रवकारी है। विषय अपमान का स्थान है, अपकीर्ति का अवश्य कारण है, दुःख का एक परम कारण है और इस भव परभव का घातक है। विषयासक्त पुरुष का मन मार्ग भ्रष्ट होता है, बुद्धि नाश होती है, पराक्रम खत्म होता है, और गुरु के हितकर उपदेश को भूल जाता है। तीन लोक के भूषण रूप उत्तम जाति, कुल, और कीर्ति को भी विषयासक्ति से दोनों पैरों से दूर फेंक देता है। श्री जिनमुख देखने में चतुर नेत्र वाला अर्थात् ज्ञान चक्षु वाला हो, परंतु वह तब तक दर्शनीय पदार्थों को देख सकता है कि जब तक विषयासक्ति रूप नेत्र रोगी नहीं होता है। मन मंदिर में धर्म के अभिप्राय का आदर रूपी प्रदीप तब तक प्रकाशमान रहता है, जब तक विषयासक्ति रूपी वायु की आँधी नहीं आती है। सर्वज्ञ की वाणी रूपी जहाज वहाँ तक संसार समुद्र से तरने में समर्थ है कि जहाँ तक विषयासक्ति रूपी प्रतिकूल पवन नहीं चलता है। निर्मल विवेक रत्न वहाँ तक चमकता है अथवा प्रकाश करता है कि जब तक विषयासक्ति रूपी धूल ने उसे मलिन नहीं किया। जीव रूपी शंख में रहा हुआ शील रूपी निर्मल जल तब तक शोभता है कि जब तक विषय के दुराग्रह रूपी अशुचि के संग से मलिन नहीं हुआ है। धर्म को करने में अनासक्त और विषयसेवन में आसक्त ऐसे अति कठोर जीव अपनी अशरणता के स्वरूप को नहीं जानता और अपने हित को नहीं करता है। विषय विद्वानों को जहर देता है, श्री जिनागम रूपी अंकुरे का सर्वथा अपमान करने वाला, शरीर के रुधिर को चूसने में मच्छर के समान और सैंकड़ों अनिष्टों को करने वाला होता है। अति चिरकाल तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और श्रुतज्ञान भी बहुत पढ़ा हो, फिर भी यदि विषय में बुद्धि है तो निश्चय वह सारा निष्फल है।' अहो! विषय रूपी प्रचंड लुटेरा जीव के सम्यग् ज्ञानरूपी मणियों से अति मूल्यवान और स्फुरायमान चारित्र रत्न से सुशोभित भंडार को लूटता है। उस विषयाभिलाषा को धिक्कार हो! कि जिससे महत्त्व, तेज; विज्ञान और गुण सर्व निश्चय ही एक क्षण में विनाश होते हैं। हा! धिक्कार है! पूर्व में कभी नहीं मिला ऐसे श्री जिनवचन रूपी उत्तम रसायण का पानकर भी विषय रूपी महाविष से व्याकुल होकर जिन वचन का 1. सुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरणं चरणं सुयं च बहु पढियं । जइ ता विसएसु मई, ता तं ही! निष्फलं सव्वं ।।७१६७।। 301 For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अभयकुमार की कथा वमन करता है ।।७२०० ।। सदाचरण में बलरहित और पाप के आश्रव में सशक्त पापी, अपनी आत्मा को विषय के कारण दुःखी प्राण रहित करता है। जो विषयों की गद्धि करता है वह पापी दृष्टि विष सर्प के पास खडा रहता है और उससे मर जाता है। तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलता है, तलवार के बने पिंजरे में क्रीड़ा करता है, भाले की नोंक पर शयन करता है, और अग्नि को वस्त्र में बंध करता है। तथा वह मूढ़ अपने मस्तक से पर्वत को तोड़ता है, भयंकर अग्नि ज्वालाओं से आलिंगन करता है और जीने के लिए जहर को खाता है। और वह भूखे सिंह, क्रोधित सर्प के पास जाता है तथा बहुत मक्खी युक्त मधपुड़े पर प्रहार करता है। अथवा जिसको विषयों में गृद्धि है, उसके मुख में जहर है, कंधे पर अति तीक्ष्ण तलवार है, सामने ही खाई है, गोद में ही काला नाग और पास में ही यम स्थिर है। उसके हृदय में ही प्रलय की अग्नि जल रही है तथा मूल में कलह छुपा है। अथवा निश्चय उसने मृत्यु को अपने वस्त्र की गांठ से बांधकर रखा है, और वह अशक्त शरीरवाला काँपती दीवार और आंगनवाले मकान में सोया है। अर्थात् मौत की तैयारी वाला है। और जो विषयों में गृद्धि करता है, वह शूली के ऊपर बैठता है, जलते लाख के घर में प्रवेश करता है और भाले की नोंक पर नाचता है। अथवा ये सारी बातें कही हैं, दृष्टि विष सर्प आदि तो इस भव में ही नाश करने वाले हैं और धिक्कार पात्र विषय तो अनंत भव तक दारुण दुःख देने वाले हैं। अथवा दृष्टि विष सर्प आदि सब तो मंत्र, तंत्र या देव आदि के प्रयोग से स्तंभित-वश करने पर इस भव में भी भयजनक नहीं बनते हैं और विषय तो अनेक भवों तक दुःखदायी होते हैं। जड़ पुरुष काम पीड़ा के दुःख को उपशांत करने के लिए विषय भोगता है, परंतु घी से जैसे अग्नि बढ़ती है, वैसे उस विषय से पीड़ा अति गाढ़ बढ़ती है। जो विषय में गृद्ध है वह शूरवीर होते हुए भी अबला के मुख को देखता है। जो उस विषय से विरागी होता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। मोह महाग्रह के वश हुआ विषयाधीन जीव अरति से युक्त है और धर्म राग से मुक्त होकर मन, वचन, काया को अविषय में भी जोड़ता है और विषयों के सामने युद्ध भूमि में जुड़ी हुई दुर्जन इन्द्रिय रूपी हाथियों के समूह, शत्रु रूप शब्द आदि विषयों को देखकर मन, वचन, काया से विलास करता है अर्थात् जो इन्द्रिय विषय को जीतने के लिए है वह उसी में फंस जाता है। विषयासक्ति का त्यागी और अपनी बुद्धि में उस प्रकार के निर्मल विवेक को धारण करने वाला पुरुष भी युवती वर्ग में सद्भाव, विश्वास, स्नेह और राग से परिचय करते अल्पकाल में ही तप, शील और व्रत का नाश करता है। क्योंकि-जैसे-जैसे परिचय करने में आता है, वैसे-वैसे क्षण-क्षण में उसका राग बढ़ता जाता है, और थोड़ा राग भी बढ़ जाता है फिर उसे रोकने में जीव को संतोष नहीं होता है अर्थात् उसे रोकने में समर्थ नहीं होता है, और इस तरह असंतोष-आसक्ति बढ़ जाने से निर्लज्ज बन जाता है, फिर अकार्य करने की इच्छा वाला बनता है और अंगीकार किये व्रत, नियम आदि सुकृत कार्यों से मुक्त बनकर वह पापी शीघ्र उस विषय सेवन को करता है। स्वयं चारों तरफ से डरता हुआ विषयासक्त पुरुष, चारों तरफ से डरती हुई विषयासक्त स्त्री के साथ जब गुप्त रीति से विषय क्रीड़ा करता है, तब भयभीत होकर भी यदि वह सुखी हो तो इस विश्व में दुःखी कौन? विषयाधीन मनुष्य दुर्लभ चारित्र रत्न को किसी समय केवल एक बार ही खंडित कर फिर जिंदगी तक सारे लोक में तिरस्कार का पात्र बनता है। केवल प्रारंभ में कुछ अल्प माना हुआ सुख देनेवाला है, परंतु भविष्य में अनेक जन्मों का निमित्त होने से सत्पुरुषों को सेवन करने के समय भी विषय दुःखदायक होता है। हा! धिक्कार है! कि सड़ा हुआ, बीभत्स और दुर्गंछापात्र स्त्री के गुस अंग में कृमि जीव के समान दुःख को भी सुख मानता जीव खुश रहता है। फिर उस विषय के लिए आरंभ और महा परिग्रहमय बनकर जीव सैंकड़ों दुःखों का 1. जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ। थोवो वि होइ बहुओ, न य लहइ धिई निरुंभंतो ||७२१७|| 302 For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-कंडरीक की कथा श्री संवेगरंगशाला कारणभूत अनेक प्रकार के पाप का बंध भी करता है। इससे अनेकशः नरक की वेदनाओं को और तिर्यंच गतियों के दुःखों को प्राप्त करता है। इस तरह विषय रूपी ज्वर का रोगी जीव को श्रीखंड-दही पदार्थ आदि का पान करने के समान है। यदि विषयों से कुछ भी गुण होता तो निश्चय ही श्री जिनेश्वर, चक्रवर्ती और बलदेव इस तरह विषय सुख को लात मार कर धर्मरूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं करते। इसलिए हे देवानुप्रिय! तूं इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक विचार कर विषय के अल्पमात्र सुख को छोड़ दे और प्रशम रस का अपरिमित सुख का भोग कर। क्योंकि प्रशम रस का सुख क्लेश बिना साध्य है, इसमें कोई लज्जा का कारण नहीं है, परिणाम में सुंदर और इस विषय सुख से अनंतानंत अधिक गुण वाला है। इसलिए अत्यंत कृतार्थ इस प्रशम रस में ही गाढ़ राग मन वाले, धीर और नित्य परमार्थ के साधक, उन साधुओं को ही धन्य है कि जिन्होंने संसार को मृत्यु के संताप से भयंकर जानकर विष समान विषय सुख का अत्यंत त्याग किया है। विषयों की आशा से बद्ध चित्तवाला जीव विषय सुख की प्राप्ति बिना भी कंडरीक के समान अवश्य घोर संसार में भटकता है ।।७२३०।। वह इस प्रकार : कंडरीक की कथा पुंडरीकिणी नगरी में प्रचंड भुजादंड से शत्रुओं का पराभव करने वाला फिर भी श्री जिनेश्वर के धर्म में एक दृढ़रागी पुंडरीक नामक राजा था। सद्गुरु के पास राजलक्ष्मी को बिजली के प्रकाश के समान नाशवंत, जीवन को जोरदार वायु से टकराते दीपक ज्योति के समान अति चपल और विषयसुख को भी किंपाक फल समान, अंत में सविशेष दुःखदायी जानकर प्रतिबोध प्राप्त कर दीक्षा लेने की इच्छा वाले उस महात्मा ने अति स्नेही कंडरीक नामक अपने छोटे भाई को बुलाकर कहा कि-हे भाई! तूं यहाँ अब राज्यलक्ष्मी को भोग। संसार वास से विरागी मैं अब दीक्षा को स्वीकार करूँगा। कंडरीक ने कहा कि-महाभाग! दुर्गति का मूल होने से यदि तूं राज्य छोड़कर दीक्षा लेने की इच्छा करता है तो मुझे भी राज्य से क्या प्रयोजन है? सर्वथा राग मुक्त मैं गुरु के चरण कमल में अभी ही श्री भगवती दीक्षा को स्वीकार करूँगा। फिर राजा ने अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा बहुत समझाया, फिर भी अत्यंत चंचलता से उसने आचार्य महाराज के पास दीक्षा ली। गुरुकुल वास में रहा, पुर नगर आदि में विचरते और अनुचित्त आहार के कारण शरीर में बीमारी हो गयी, एक बार विहार करते चिरकाल के बाद पुंडरीकिणी नगरी पधारें, उस समय पुंडरीक राजा ने वैद्य के औषधानुसार उनकी सेवा की। इससे वह स्वस्थ शरीर वाला हुआ फिर भी रस स्वाद के लालच से दूसरे स्थान पर विहार करने का अनुत्साही बन गया। राजा ने उसे इस तरह से उत्साहित किया कि-हे महाशय! आप धन्य हो। कि जिस तप को कमजोर शरीरवाले होने पर भी वैरागी बने द्रव्य क्षेत्र आदि में निश्चय थोड़ा भी राग नहीं करते हैं। आप ही हमारे कुलरूपी आकाश में पूर्णिमा के पूर्ण चंद्र हो कि जिससे उत्तम चारित्र की प्रभा के विस्तार से विश्व उज्ज्वल होता है, अर्थात् विश्व निर्मल कीर्ति को प्राप्त करता है। हे महाभाग! आपने ही अप्रतिबद्ध विहार का पालन किया है कि जिससे आप मेरी विनती से भी यहाँ पर नहीं रूकते हो। इस प्रकार उत्साहकारक वचनों से राजा ने इस तरह उत्तम रीति से समझाया कि जिससे शीतल विहारी भी कंडरीक ने अन्य स्थान पर विहार किया, परंतु भूमिशयन, सुलभ भोजन आदि से संयम में भग्नमनवाला शीलरूपी महाभार को उठाने में थका हुआ, मर्यादा रहित विषयों में महान् रागवाला वह गुरुकुल वास में से निकलकर राज्य के उपभोग के लिए पुनः अपनी नगरी में आया। उसके बाद राजा के उद्यान में वृक्ष की शाखा पर चारित्र के उपकरणों को लगाकर निर्लज्ज वह हरी वनस्पति से युक्त भूमि पर बैठा। और उसे इस तरह बैठा 303 For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-कंडरीक की कथा हुआ सुनकर राजा वहाँ आया और संयम में स्थिर करने के लिए उसे वंदनकर इस तरह कहने लगा कि - आप एक ही धन्य हो, कृतपुण्य हो, और जीवन के फल को प्राप्त कर रहे हो कि जो आप श्री जिन कथित दीक्षा को निरतिचार रूप पालन करते हो, और दुर्गति का हेतुभूत कठोर बंधन रूप राज्य बंधन में पड़ा मैं कुछ भी धर्म कार्य नहीं कर सकता हूँ। ऐसा कहने पर भी वृक्ष के सामने कठोर दृष्टि से देखते वह जब कुछ भी नहीं बोला तब वैराग्य को धारण करते राजा ने फिर कहा कि - हे मूढ़ ! पूर्व में भी दीक्षा को स्वीकार करते तुझे मैंने बहुत रोका था और उस समय राज्य देता था। अब अपनी प्रतिज्ञा को खत्म करने वाला तृण से भी हल्के बने तुझे इस राज्य को देने पर क्या सुख होगा? ऐसा कहकर राजा ने सारा राज्य उसको दे दिया और स्वयं लोच कर उसका साधु वेश गृहण किया। उसके बाद स्वयं दीक्षा को स्वीकारकर गुरु महाराज के पास गया और पुनः वहाँ विधिपूर्वक दीक्षा को स्वीकारकर छट्ट (दो उपवास) के पारणे में शरीर के प्रतिकूल आहार लेने से पेट में कठोर दर्द उत्पन्न हुआ और मरकर सवार्थ सिद्ध में देव रूप में उत्पन्न हुआ। इधर कंडरीक अंतःपुर में गया, मंत्री, सामंत दंड नायक आदि सारे लोगों ने 'यह दीक्षा छोड़ने वाला पापी है' इस तरह तिरस्कार किया, विषयों की अत्यंत गृद्धि से प्रचुर रस वाले पानी और भोजन में आसक्त बना। इससे विशूचिका रोग उत्पन्न हुआ, अधूरा आयुष्य तोड़कर उपक्रम से मरकर वह रौद्रध्यान के कारण सातवीं नरक में गया। इस तरह विषयासक्त जीव ने विषयों की प्राप्ति किये बिना ही दुर्गति को प्राप्त की । इसलिए हे सुंदर! यहाँ बतलायें गये दोषों से दूषित पापी विषयों को विशेष प्रकार से छोड़कर आराधना में एक स्थिर मनवाला तूं निष्पाप निर्मल मन को धारण कर। इस तरह विषय द्वार को कहा, अब क्रमानुसार तीसर कषाय रूप प्रमाद द्वार को अल्प मात्र कहता हूँ ।। ७२६३ ।। तीसरा कषाय प्रमाद का स्वरूप : - यद्यपि पूर्व में कषायों की बहुत व्याख्या और युक्तियों के समूह से कहा है, फिर भी वह अति दुर्जय होने से पुनः अल्प मात्र से कहते हैं । पिशाच के समान फिर से खेद कारक और अशुभ या असुख करने का एक व्यवसाय वाला यह दुष्ट कषाय जीव को विडम्बना कारक है। प्रथम प्रसन्नता को दिखाकर फिर अनिष्ट करके वह दुष्ट अध्यवसाय का जनक है, सिद्धि के सुख को रोकने वाला और परलोक में अनिष्ट की प्राप्ति कराने वाला है। कषाय सेवन करने वाला इस लोक में महासंकट में गिरता है। अति विपुल संपत्ति का नाश होता है और कर्त्तव्य से वंचित करता है । आश्चर्य की बात है कि केवल एक कषाय करने से पुरुष धर्मश्रुत यश को अथवा सभी गुण समूह को जलांजलि देकर नाश करता है। कषाय करने से इस जन्म में सर्व लोग में निंदा का पात्र बनता है और परलोक में जरा मरण से दुस्तर संसार बढ़ता है। फिर पुण्य, पाप को खेलने की चार गति संसार रूप अश्व को दौड़ने की भूमि में जीव गेंद के समान कषाय रूपी प्रेरक की मार खाते हुए भ्रमण करता है। दुष्ट कषाय निश्चय सर्व अवस्थाओं में जीवों का अखूट अनिष्ट करने वाला है, क्योंकि पूर्व मुनियों ने भी कहा है कि कषाय रूपी कटु वृक्ष के पुष्प और फल दोनों दुःखदायी हैं। पुष्प से कुपित हुआ पाप का ध्यान करता है और फल से पाप का आचरण करता है। (अर्थात् कषाय का चिंतन-ध्यान पुष्प है और कषाय का आचरण फल है।) श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि - निश्चय सर्व मनुष्यों का जो सुख और सर्व उत्तम देवों का भी जो सुख है, इससे भी अनंतगुणा सुख कषाय जीतनेवाले को होता है। इसीलिए लोक में पीड़ा कारक माना हुआ भी खल पुरुषों के आक्रोश, वध आदि ताप को उत्तम तपस्वी मुनि चंदन रस समान शीतल मानते हैं। धीर पुरुष, अज्ञ जीवों को सुलभ आक्रोश, वध करना, मारना और धर्म भ्रष्ट करना उसके उत्तरोत्तर अभाव में ही लाभ मानते हैं। अर्थात् धीर पुरुष अज्ञानी आत्मा पर आक्रोश आदि करना लाभ नहीं मानते हैं। अहो ! जले हुए कषायों 304 For Personal & Private Use Only . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला को बार-बार जीतने पर भी उसे विजय करने की इच्छा वाले मुनियों में कषाय का पुनः उदय हो जाता है। क्योंकि सिद्धांत में कहा है कि ग्यारहवें गए स्थान पर उपशम को प्राप्त हए गण के घातक कषाय जिन तल्य यथाख्यात चारित्र वाले को भी गिराता है तो पुनः शेष सराग चारित्र वाले में रहा कषाय उसका क्या नहीं करता है? कषाय से कलुषित जीव भयंकर चार गति रूप संसार समुद्र में जैसे खंडित जहाज पानी से भर जाता है वैसे पाप जल से भर जाता है। और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, कंदर्प, दर्प और मत्सर ये जीव के महा शत्रु हैं। निश्चय ये जीव के सर्व धन को हरण करने वाले और अनर्थों के करनेवाले हैं, इसलिए सम्यग् विवेक रूप प्रतिस्पर्धी सैन्य की रचना कर उसे आगे बढ़ने न दे इस प्रकार कर दुःख से हरण करने योग्य कषाय रूपी प्रचंड शत्रु सर्व जगत को पीड़ित करता है इसलिए वे धन्य है कि जो उन कषायों का सम्यग् हरणकर समता का आलिंगन करते हैं। जो इस संसार में धीरपुरुष भी काम और अर्थ के राग से पीड़ित होते हैं तब मैं मानता हूँ कि-निश्चय दुष्ट कषायों का विलास कारण है। इसलिए किसी भी तरह तुम निश्चय करो कि जिससे कषायों का उदय न हो अथवा उदय होते ही उस कषाय सुरंग की उड़ती धूल के समान अंतर में ही समा जाय। यदि अन्य लोगों में कुशास्त्र रूपी आंधी से प्रेरित हुई कषाय रूपी अग्नि जलती हो तो भले जले। परंतु जो श्री जिनवचन रूपी जल से सिंचन किया हुआ मनुष्य जले वह अयोग्य है। क्योंकि उत्कट कषाय रोग के प्रकोप से उदय हए गाढ पीडा वाले को श्री जिन वचन रूपी रसायण से प्रशम रूपी आरोग्य प्रकट होता है। फैले हुए अहंकारी और अति भयंकर कषाय रूपी सों से घिरे हुए शरीर वाले अल्प सत्त्व वाले जीवों का रक्षण श्री जिनवचन रूपी महामंत्र से होता है। इसलिए जो दुर्जय महाशत्रु एक कषाय को ही जीत लेता है उसने सर्व जीतने योग्य शत्रु समूह को जीत लिया है। अतः कषाय रूपी चोरों का नाश करके मोह रूपी महान शेर को भगाकर ज्ञानादि मोक्ष मार्ग में चले हुए तूं भयंकर भयाटवी का उल्लंघन कर। इस तरह कषाय द्वार को कहा है। अब क्रमानुसार निद्रा दोष से मुक्त होने के लिए निद्रा द्वार को यथास्थित कहता हूँ। ___ चौथा निद्रा प्रमाद का स्वरूप :-अदृश्य रूप वाले जगत में यह कोई निद्रारूपी राहु है, कि जो जीव रूपी चंद्र और सूर्य नहीं दिखे इस तरह ग्रहण करता है। इस निद्रा का क्षय हो जाये। इससे जीता हुआ भी मनुष्य मरे हुए के समान और मद से मत्त समान, मूर्च्छित के समान, शीघ्र सत्त्वरहित बन जाता है। जैसे स्वभाव से ही कुशल, सकल इन्द्रियों के समूह वाला भी मनुष्य निश्चय जहर का पान करके इन्द्रियों की शक्ति से रहित बनता है, वैसे निद्रा के आधीन बना भी वैसा ही बनता है। और अच्छी तरह आँखें बंद की हों, नाक से बार-बार घोर 'घुर-घुर' आवाज करता हो, फटे होठ में दिखते खुले दाँत से विकराल मुख के पोलापन वाला हो, खिसक गये वस्त्र वाला हो, अंग उपांग इधर-उधर घुमाता हो, लावण्य रहित और संज्ञा रहित सोये या मरे हुए के समान मानो या देखो तथा निद्राधीन पुरुष नींद में इधर-उधर शरीर चेष्टा करते सूक्ष्म और बादर अनेक जीवों का नाश करता है। निद्रा उद्यम में विघ्नरूप है, जहर की भयंकर बेचैनी के समान है, असभ्य प्रवृत्ति है और निद्रा महान् भय का प्रादुर्भाव है। निद्रा ज्ञान का अभाव है। सभी गुण समूह का परदा है और विवेक रूपी चंद्र को ढांकने वाला गाढ़ महान बादल समूह समान है। निद्रा इस लोक परलोक के उद्यम को रोकने वाली है और निश्चित सर्व अपायों का परम कारण है। इस कारण से ही निद्रा त्याग द्वारा अगडदत्त जीता रहा और अन्य मनुष्य निद्रा प्रमाद से मर गये ।।७२९८ ।। उसका प्रबंध इस प्रकार है : 305 For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अगड़त की कथा अगड़दत्त आदि की कथा उज्जैन नगरी में जितशत्रु नामक राजा को मान्य अमोघरथ नाम से रथिक था । उसे यशोमती नामक स्त्री थी और अगड़दत्त नाम का पुत्र था, वह बालक ही था तब अमोघरथ मर गया था और उसकी आजीविका राजा ने दूसरे रथिक को दी ।। ७३०० ।। यशोमती उसे विलास करते और अपने पुत्र को कला-कौशल्य से सर्वथा रहित देखकर शोक से बार-बार रोने लगी । यह देखकर पुत्र ने माता को पूछा कि - हे माता ! तूं हमेशा क्यों रोती है ? अति आग्रह होने पर उसने रोने का कारण बतलाया। इससे पुत्र ने कहा कि -माता! क्या यहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो कि मुझे कलाएँ सिखा सके? उसने कहा कि - पुत्र ! यहाँ तो कोई नहीं है, परंतु दृढ़प्रहरी नाम का कौशाम्बी पुरी में तेरे पिता का मित्र है। इससे वह शीघ्र वहाँ उसके पास गया। उसने भी पुत्र के समान रखकर बाण, शस्त्र आदि कलाओं में अति कुशल बनाया, और अपनी विद्या दिखाने के लिए राजा के पास ले गया । अगड़दत्त ने बाण, शस्त्र आदि का सारा कौशल्य बतलाया, इससे सब लोग प्रसन्न हुए परंतु केवल एक राजा प्रसन्न नहीं हुआ, फिर भी उसने कहा कि - तुम्हें कौन सी आजीविका दूँ? उसे कहो। फिर अति नम्रता से मस्तक नमाकर अगड़दत्त ने कहा कि - यदि मुझे धन्यवाद नहीं दो अन्य दान से मुझे क्या प्रयोजन है? उस समय नगर के लोगों ने राजा को निवेदन किया कि—हे देव! इस समग्र नगर को गूढ़ प्रवृत्ति वाला कोई चोर लूट रहा है, इसलिए आप उसका निवारण करो। तब राजा ने नगर के कोतवाल से कहा कि - हे भद्र! तुम सात दिन के अंदर चोर को पकड़कर ले आओ। उसके बाद जब आँखें बंद कर नगर का कोतवाल कुछ भी नहीं बोला तब 'अब समय है' ऐसा समझ कर अगड़दत्त ने कहा कि - हे देव! कृपा करो । यह आदेश मुझे दो कि जिससे सात रात में चोर को कहीं पर से पकड़कर आपको सौंप दूँ। फिर राजा ने उसे आदेश दिया। वह राज दरबार से निकला और विविध वस्त्र धारण करता तथा साधु वेश धारक संन्यासी आदि की खोज करता था। चोर लोग प्रायः शून्य घर, सभा स्थान, आश्रम और देव कुलिका आदि स्थानों में रहते हैं, इसलिए गुप्तचर पुरुषों द्वारा में उन स्थानों को देखूं । ऐसा विचार करके सर्व स्थानों को सम्यक् प्रकार से खोजकर उस नगरी से निकला और एक उद्यान में पहुँचा । वहाँ मैले वस्त्रों को पहनकर एक आम्र वृक्ष के नीचे बैठकर चोर को पकड़ने के उपाय का चिंतन करता था। इतने में कहीं से आवाज करता हुआ एक परिव्राजक संन्यासी वहाँ आया और उस वृक्ष की शाखा तोड़कर उसका आसन बनाकर बैठा । पिंडली को बाँधकर बैठे हुए, ताड़ जैसी लम्बी जंघा वाले और क्रूर नेत्र वाले उसे देखकर अगड़दत्त ने विचार किया कि - यह चोर है। इतने में उसे उस परिव्राजक ने कहा कि - हे वत्स! तूं कहाँ से आया है? और किस कारण से भ्रमण करता है? उसने कहा कि - हे भगवंत ! उज्जैन से आया हूँ और निर्धन हूँ, इस कारण से भटक रहा हूँ मुझे आजीविका का कोई उपाय नहीं है। परिव्राजक ने कहा पुत्र ! यदि ऐसा ही है तो मैं तुझे धन दूँगा । अगड़दत्त ने कहा- हे स्वामी! आपने मेरे ऊपर महाकृपा की। इतने में सूर्य अस्त हो गया और परिव्राजक को अकार्य करने की इच्छा के समान संध्या भी सर्वत्र फैल गयी। वह संध्या पूर्ण होते ही अंधकार का समूह फैल गया तब त्रिदंड में से तीक्ष्ण धारवाली तलवार खींचकर शस्त्रादि से तैयार हुआ, और शीघ्र अगड़दत्त के साथ ही नगरी में गया तथा एक धनिक के घर में सेंध लगायी वहाँ से बहुत वस्तुएँ भर कर पेटियाँ बाहर निकालीं और अगड़दत्त को वहीं रखकर वह परिव्राजक देव-भवन में सोये हुए मनुष्यों को उठाकर उनको धन का लालच देकर वहाँ लाया। उन पेटियों को उनके द्वारा उठवाकर उनके साथ नगर से शीघ्र ही निकल गया और जीर्ण उद्यान में पहुँचा। वहाँ उसने उन पुरुषों और अगड़दत्त से स्नेहपूर्वक कहा कि - हे पुत्रों ! जब तक रात्री कुछ कम नहीं होती तब तक थोड़े समय यहीं सो जाओ। सभी ने स्वीकार किया और सभी गाढ़ निद्रा में श्री संवेगरंगशाला 306 For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अगड़त की कथा श्री संवेगरंगशाला सो गये। केवल मन में शंका वाला अगड़दत्त कपट निद्रा एक क्षण कर, वहाँ से निकलकर वृक्षों के समूह में छुप गया। सभी पुरुषों को निद्राधीन जानकर परिव्राजक ने उन सब को मार दिया और अगड़दत्त को भी मारने के लिए उसके स्थान पर गया, परंतु वहाँ नहीं मिलने से वह वन की घटा में उसे खोजने लगा, तब सामने आते चोर पर अगड़दत्त ने तलवार से प्रहार किया। फिर प्रहार की तीव्र वेदना से दुःखी शरीर वाले उसने कहा कि-हे पुत्र! अब मेरा जीवन प्रायः कर पूर्ण हो गया है, इससे मेरी तलवार को तूं स्वीकार कर और श्मशान के पीछे के भाग में जा। वहाँ चण्डी के मंदिर की दीवार के पास खडे होकर तं आवाज देना. जिससे उसके भोयरे में से मेरी बहन निकलेगी। उसे यह तलवार दिखाना जिससे वह तेरी पत्नी बनेगी और तुझे घर की लक्ष्मी बतायेगी। उसके कहे अनुसार अगड़दत्त भी वहाँ भोयरे तक पहुँचा और वहाँ पाताल कन्या के समान मनोहर शरीर वाली एक युवती को देखा। उसने पूछा कि-तं कहाँ से आया है? तब अगडदत्त ने तलवार को बाहर निकालकर उसे बतलाया। इससे उसने अपने भाई का मरण जानकर और उसका शोक छुपाकर आदरपूर्वक नेत्रों वाली उसने कहा-हे सुभग! तेरा स्वागत करती हूँ। फिर उसे आसन दिया और अगड़दत्त शंकापूर्वक बैठा। उसके बाद उसने पूर्व में बनाई हुई बड़ी शिला रूपी यंत्र से युक्त दिव्य सिरहाने से शोभित पलंगादि की सर्व आदरपूर्वक तैयारी की और अगड़दत्त से कहा कि-महाभाग! इसमें क्षणवार आराम करो। वह उसमें बैठा, परंतु उसने ऐसा विचार किया कि-निश्चय यहाँ रहना अच्छा नहीं है। शायद! यह कपट न हो, इससे यहाँ जागृत रहूँ। फिर क्षण खड़ी रहकर यंत्र से शिला को नीचे गिराने के लिए वह वहाँ से निकल गयी और अगड़दत्त भी पलंग छोड़कर अन्य स्थान पर छुप गया। उसने कील खींचकर सहसा उस शिला को गिराया और वह शिला गिरते ही पलंग संपूर्ण रूप में टूट गया। फिर परम हर्ष से अतीव प्रसन्न हृदय वाली उसने कहा कि-हा! मेरे भाई का विनाश करने वाले पापी को ठीक मार दिया। तब हा! हा! दासी पत्री! मझे मारने वाला कौन है? ऐसा बोलते अगड़दत्त ने दौड़कर उसे चोटी से पकड़ा। तब उसने पैरों में गिरकर कहा कि-रक्षा करो! रक्षा करो! तब उसे पकड़कर राजा के चरणों में ले गया। उसके बाद उसने सारा वृत्तांत कहा। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उसे बड़ी आजीविका वाले पद पर स्थापन किया और लोगों ने उसे बहुत पूज्य रूप में स्वीकार किया, फिर उसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गयी। वह कालक्रम से अपने नगर में गया, वहाँ के राजा ने सत्कार कर उसके पिता के स्थान पर स्थापित किया। इस तरह जागत और नींद वाले के गुण दोष को सम्यग रूप से जानकर इस भव और परभव के सुख की इच्छा करने वाला कौन निद्रा का सत्कार करे? राजसेवा आदि अनेक प्रकार के इस जन्म के कार्य और स्वाध्याय. ध्यान आदि परजन्म के कार्यों का भी निद्रा घात करती है। शत्रु सोये हुए का मौका देखता है, उसमें सर्प डंख लगाता है, अग्नि का भोग बनता है और मित्र आदि 'बहुत सोने वाला' ऐसा कहकर हँसी करते हैं। अथवा गाढ निद्रा करने वाले के ऊपर चन्दुवे आदि में रहे छिपकली आदि जीवों का मूत्रादि सोये हुए के मुँह में गिरता है या गाढ़ नींद में सोये प्रमादी को क्षुद्र देवता भी उपद्रव करते हैं। पुरुष की चतुराई, बुद्धि का प्रकर्ष और निश्चय वह उत्तम विज्ञान आदि निद्रा से एक साथ में ही खत्म हो जाते हैं। और निद्रा अंधकार के समान सर्व भावों को अदृश्य-आवरण करने वाली है और इसके समान दूसरा अंधकार नहीं है। इसलिए ध्यान में विघ्नकारी निद्रा पर सम्यग् विजय करो, क्योंकि-श्री जिनेश्वर भगवान ने भी वत्स देश के राजा की बहन जयंती श्राविका को कहा था कि 'धर्मी' व्यक्ति को जागृत और अधर्मी को निद्रा में रहना श्रेयस्कर है। सोये हुए का ज्ञान सो जाता है, प्रमादी का ज्ञान शंका वाला और भूल वाला बनता है और जागृत, अप्रमादी का ज्ञान स्थिर और दृढ़ बनता है। और अजगर के समान जो सोता है उसका अमृत तुल्य 307 For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्रुतज्ञान नाश होता है। अमृत तुल्य श्रुतज्ञान नाश होते ही वह बैल समान बन जाता है। इसलिए हे देवानुप्रिय! निद्रा प्रमादरूपी शत्रु सेना को जीतकर अखंड जागृत दशा में तूं स्थिर अभ्यस्त सूत्र-अर्थ वाला बन। इस तरह चौथा निद्रा नामक अंतर द्वार कहा, अब पाँचवां विकथा द्वार विस्तारपूर्वक कहता हूँ ।।७३५९।। पाँचवां विकथा प्रमाद का स्वरूप :-विविधा, विरूप अथवा संयम जीवन में बाधक रूप से जो विरुद्ध कथा हो उसे विकथा कहते हैं। इस की अपेक्षा से उसके स्त्री कथा, भक्त कथा, देश कथा और राज कथा इस तरह चार प्रकार सिद्धांत में कहे हैं। इसकी अलग-अलग रूप में व्याख्या करते हैं। (१) स्त्री कथा :-अर्थात् स्त्रियों की अथवा स्त्रियों के साथ में कथा–बातें करना। उस कथा द्वारा जो संयम का विरोध हो अथवा बाधक हो उस कथा को विकथा कहते हैं। यह स्त्री कथा जाति, कुल, रूप और वेश के भेद से चार प्रकार की होती है। उसमें भी क्षत्रियाणी, ब्राह्मणी, वैश्यी और शुद्री इन चार में से किसी भी जाति की स्त्री की प्रशंसा अथवा निंदा करना उसे जाति कथा कहते हैं। उसका स्वरूप इस तरह है जैसे कि बाल विधवा, क्षत्रियाणी, ब्राह्मणी और वैश्य की स्त्री का जीना भी मरण के समान है तथा सर्व लोक को शंका पात्र होने से उसके जीवन को धिक्कार हो। मैं मानता हूँ कि-जगत में केवल एक शुद्र की स्त्री को ही धन्य है कि जो नये-नये अन्य परुष को पति करने पर भी दोष नहीं मानती। उग्र आदि उत्तम या अन्य नीच कुल में जन्मी हुई किसी भी स्त्री के उस कुल के कारण प्रशंसा अथवा निंदा करना उसे कुल कथा कहते हैं। जैसे कि-चौलुक्य वंश में जन्मी हुई स्त्रियों का जो साहस होता है, ऐसा अन्य स्त्रियों में नहीं होता है। जो कि प्रेम रहित होने पर भी पति मरे तब उसके साथ अग्नि में प्रवेश करती हैं। आन्ध्रप्रदेश या अन्धी आदि किसी की भी रूप की प्रशंसा अथवा निंदा करना उस कथा के जानकार पुरुषों ने रूप कथा कहा है। जैसे कि-विलासपूर्वक नाचते नेत्रों युक्त मुखवाली और लावण्य रूपी जल का समुद्र सदृश आन्ध्रप्रदेश की स्त्रियाँ होती हैं, उसमें काम भी सर्व अंग के अंदर फैला हुआ है अथवा शरीर उसका धूल से भरा हुआ है और गले में लाख के मणि भी बहुत नहीं हैं, शोभा रहित है, तथापि जाट देश की स्त्रियों का रूप अति सुंदर है, उसके रूप आकर्षण से पथिक उठ-बैठ करते रहते हैं। उसके ही किस वेश की प्रशंसा या निंदा आदि करना उसके ज्ञाताओं ने उसे नेपथ्य या वेष कथा कहा है जैसे कि विशिष्ट आकर्षक वेश से सजे अंगों वाली, विकसित नील कमल समान नेत्रों वाली और सौभाग्यरूपी जल की बावडी समान संदर भी नारी के यौवन को धिक्कार हो! धिक्कार हो! कि जिसने लावण्य रूपी जल को युवा के नेत्र रूपी अंजलि से पिया नहीं है। अर्थात् युवानों को जो दर्शन नहीं देती उस वेष को धिक्कार है। [चूंघट प्रथा का अपमान करना भी स्त्री कथा में नेपथ्य कथा है| इत्यादि वेष कथा है। स्त्री कथा समाप्त। (२) भक्त कथा :-यह चार प्रकार की है-१. आवाप कथा, २. निर्वाप कथा, ३. आरंभ कथा, और ४. निष्ठान कथा। इसमें आवाप कथा अर्थात् भोजन में अमुक इतने प्रमाण में साग-सब्जियाँ, नमकीन आदि नाना प्रकार के थे और इतने प्रमाण में शुद्ध घी आदि स्वादिष्ट वस्तु का प्रयोग किया था। निर्वाप कथा उसे कहते हैं जैसे कि-उस भोजन में इतने प्रकार के व्यंजन-साग, दाल आदि थे तथा इतने प्रकार की मिठाई आदि थीं। आरंभ कथा अर्थात् उस भोजन में इतने प्रमाण में जलचर, स्थलचर और खेचर जीवों का प्रकट रूप में उपयोग हुआ था। और निष्ठान कथा उसे कहते हैं कि-उस भोजन में एक सौ, पाँच सौ, हजार अथवा अधिक क्या कहूँ? लाख रुपये से अधिक ही खर्च किया होगा इत्यादि। यह भक्त कथा है। 308 For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला (३) देश कथा :- इसमें भी चार भेद हैं (१) छंद कथा, (२) विधि कथा, (३) विकल्प कथा और (४) नेपथ्य कथा। इसमें मगध आदि देशों का वर्णन करना। छंद अर्थात् भोग्य, अभोग्य का विवेक। जैसे कि लाट देश के लोग मामा की पुत्री का भी भोग करते हैं और गोल्ल आदि देश के लोगों को वह बहन मानने से निश्चय अभोग्य समझते हैं। अथवा औदिच्य जाति के लोगों में माता की शोक्य भोग्य मानते हैं, वैसे दूसरे उसे माता तुल्य मानकर अगम्य मानते हैं, यह छंद कथा है। प्रथम जिस देश में जो भोगने योग्य है या नहीं भोगने योग्य है, उस देश की विधि जानना और उसकी कथा करना वह देश विधि कथा हैं, अथवा विवाह, भोजन, वर्तन और रत्न, मोती, मणि आदि समूह की सम्भाल-रक्षा अथवा आभूषण या भूमि में मणि लगाना आदि रचना की जो विधि हो उसकी कथा करना वह विधि कथा जानना। जिसमें विकल्प अर्थात् अनाज की निष्पत्ति तथा किल्ले, कुंआ, नीक, नदी का प्रवाह का वर्णन, चावल रोपण आदि करना तथा घर मंदिर का विभाग, गाँव, नगर आदि की स्थापना करना इत्यादि विकल्प करने वाली कथा को विकल्प कथा कहते हैं। स्त्री पुरुषों के विविध वेष को नेपथ्य कहते हैं, वह स्वभाविक और शोभा के लिए की जाती है, इस तरह दो प्रकार के भेद हैं उसकी प्रशंसा या निंदा करना वह नेपथ्य कथा है। इस तरह चार प्रकार की देश कथा जानना। अब राजकथा कहते हैं। (४) राज कथा :- यह भी चार प्रकार की कही है :-(१) निर्यान कथा, (२) अतियान कथा, (३) बल वाहन कथा तथा (४) कोठार कोष कथा। उसमें गाँव, नगर या आकर से राजा जो निकला वह निर्याण है और उसी स्थान में ही जो प्रवेश करना उसे अतियान कहते हैं। इस निर्याण और अतियान को उद्देश्य लेकर राजा का जो वर्णन करना वही निर्याण कथा और अतियान कथा है। वह इस प्रकार महा शब्दवाली दंदभि की गर्जना द्वारा. मंत्री, सामंत, राजा आदि जिसके पास आ रहे थे, जिसके हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना के समूह से पृथ्वी तल ढक गया था, हाथी की पीठ पर सम्यग् बैठा था, चंद्र समान निर्मल छत्र और चमर का आडंबर वाले और देवों का स्वामी इन्द्र समान राजा महा ऋद्धि सिद्धि के साथ नगर में से निकलता है इत्यादि निर्याण कथा है। क्रीड़ा पर्वत जंगल आदि में यथेच्छ विविध क्रीड़ा करके जिसमें घोड़ों के खूर से खुदी हुई पृथ्वी की रज से सेना के सारे मनुष्य मलिन हो गये थे, भृकुटी के इशारे मात्र से स्व-स्व स्थान पर विदा किये हुए और इससे जाते हुए सामंत जिसको नमस्कार करते है। ऐसे राजा मंगलमय बाजे बजते पूर्वक नगर में प्रवेश करते हैं। इत्यादि अतियान कथा है। बल वाहन तो हाथी, घोड़े, खच्चर, ऊँट आदि कहे जाते हैं उसका वर्णन स्वरूप कथा को बल वाहन कथा कहते हैं। जैसे कि-घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं का समूह से दुर्जन अनेक शत्रुवर्ग को जिसने हराया है, वह इस प्रकार की सेना अन्य राजाओं के पास नहीं है। ऐसा मैं मानता हूँ। इत्यादि बल वाहन कथा है। कोठार अर्थात् अनाज भरने का स्थान और कोष अर्थात् भण्डार उसका वर्णन करना उस कथा में नाम कोठार कोष कथा कहते हैं। जैसे कि-निज वंश में पूर्व पुरुषों की परंपरा से आया हुआ उनका भंडार अपने भुजा के पराक्रम से पराभव होते शत्रु राजाओं के भंडारों से हमेशा वृद्धि को प्राप्त करते अखूट रहता है। इत्यादि चार विकथा का वर्णन किया। अब इस विकथा को करने से दोष लगते हैं उन्हें कहते हैं। स्त्री कथा के दोष :- स्त्री कथा करने से अपने को और पर को अत्यंत मोह की उदीरणा होती है और उदीरित मोह वाला लज्जा-मर्यादा को दूर फेंककर मन में क्या-क्या अशुभ चिंतन नहीं करता? वाणी द्वारा क्याक्या अशुभ नहीं बोलता? काया द्वारा क्या-क्या अशुभ कार्य नहीं करता? और इस प्रकार यदि करे तो शासन का मखौल होता है ।।७४०२।। क्योंकि स्त्री कथा कहने वाले, सुनने वाले और देखकर चतुर लोग उसके वचन और आकृति से 'यह स्वयं ऐसा ही होगा' ऐसा मानते हैं। क्योंकि-पंडितजनों से युक्त गाँव में किसी समय उसके 309 For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार वक्र वचनों को, किसी समय उसके कटाक्षों को और उसके भाव को भी लोग जानते हैं और इस तरह दूसरों को कहते हैं। अंतर के भाव ऐसे हैं तो यह तुच्छ ब्रह्मचर्य से निश्चय पतित होगा ऐसी कल्पना करते हैं। और व्रत के रक्षण से गिरा हुआ पुनः वह मुनि चिंतन करता है कि ऐसे भी साधुता तो नहीं है अब अपना इच्छित अब्रह्म का सेवन करना अच्छा है'। ऐसा विचार करके वह मूढ़ात्मा प्रमाद-अब्रह्म का सेवन करता है परंतु हे भाई! इस दुषम काल में दुःखपूर्वक जीता है और अब्रह्म के फल स्वरूप अठारह पाप स्थानों का विचार करता है। इस तरह स्त्री कथा के दोष जानना। अथवा अन्य ग्रंथ में इस चार गाथा द्वारा क्रमशः चार विकथा के दोष कहे हैं। स्त्री कथा से स्वपर मोह का उदय प्रवचन का उपहास्य, सूत्र आदि जो प्राप्ति हुई थी उसकी हानि, परिचय दोष से ब्रह्मचर्य में अगुप्ति, मैथुन सेवन आदि दोष लगते हैं। भक्त कथा से भोजन किये बिना भी गृद्धि होते ही अंगार दोष, इन्द्रियों की निरंकुशता, और परिताप से उसे बुलाने का आदेश देना इत्यादि दोष होते हैं। देश कथा से-राग द्वेष की उत्पत्ति, स्व-पर पक्ष से परस्पर युद्ध और यह देश बहुत गुणकारक है ऐसा सुनकर अन्य वहाँ जाय इत्यादि दोष लगते हैं। राज कथा से–यह कोई चोर गुप्तचर या घातक है, ऐसी कल्पना से राजपुरुष आदि को मारने की इच्छा, शंकाशील बनें अथवा स्वयं चोरी आदि करने की इच्छा करें, अथवा भक्त कथा आदि को सुनकर स्वयं भोगी हुई या नहीं भोगी हुई उस वस्तु की अभिलाषा करें। तथा जो मनुष्य जिस कथा को कहे वह वैसा परिणाम से युक्त बनता है। इसलिए उसे कुछ विशेषतापूर्वक कहते है। कथा कहकर प्रायःकर चंचल चित्त वाला बनता है और चंचल चित्त बना हुआ पुरुष प्रस्तुत वस्तु होने पर अथवा नहीं होने पर भी गुण दोष का अपलाप करता है, इससे उसका सत्यवादी जीवन नहीं होता है। और अपने अनुकूल पदार्थ में प्रकर्ष का आरोप राग से होता है तथा प्रतिपक्ष में गुणों का अपकर्ष द्वेष से होता है। इस तरह उसमें रागी द्वेषी बनता है। अतः विकथा असत्यवादी, राग और द्वेष के उत्पन्न होने का कारण है, इसलिए पाप का हेतु होने से साधुओं को सभी विकथाओं का त्याग करना योग्य है। विकथा महा प्रमाद है, उत्तम धर्म ध्यान में विघ्नकारक है, अज्ञान का बीज है, और स्वाध्याय में व्याघात करता है। और विकथा अनर्थ की माता है, परम असद्भाव का स्थान है, अशिस्त का मार्ग है और लघुता कराने वाला है। विकथा समिति का घातक है, संयम गुणों की हानि करने वाली, गुप्तियों की नाशक है और कुवासना का कारण है। इस कारण से हे आर्य! तूं विकथा का सर्वथा त्यागकर हमेशा मोक्ष के सफल अंगभूत स्वाध्याय के प्रति प्रयत्नशील बन। और स्वाध्याय से जब अति श्रमिक हो तब तूं मन में परम संतोष धारण कर उसी कथाओं के संयम गुण से अविरुद्ध संयम मार्ग सम्यक् पोषक कथा का विचारकर कथा को कहे, जैसा कि गुणकारी स्त्री कथा :- तीन जगत के तिलक समान पुत्ररत्न को जन्म देने वाली मरुदेवा माता अंत में अंतकृत् केवली बनी और उसी समय मुक्ति की अधिकारी बनी। सुलसा सती ने पाखंडियों के वचनरूपी पवन से उड़ती मिथ्यात्वरूपी रज के समूह से भी अपने सम्यक्त्व रत्न को, अल्पमात्र मोक्ष मार्ग को मलिन नहीं किया। मैं मानता हूँ कि ऐसी धन्य और पवित्र स्त्री जगत में और कोई नहीं है क्योंकि जगत गुरु श्री वीर परमात्मा ने उसके गुणों का वर्णन किया है इस प्रकार उस एक को ही आगम में कहा है इत्यादि। गुणकारी भक्त कथा :- राग द्वेष रहित गृहस्थ के वहाँ विद्यमान बयालीस (४२) दोष से रहित, संयम पोषक, रागादि रहित चारित्र जीवन को टिकाने वाला, वह भी शास्त्रोक्त विधिपूर्वक संगत मात्र मौनपूर्वक प्राप्त करना, ऐसा ही भोजन हमेशा उत्तम साधुता के लिए करना योग्य है। गुणकारी देश कथा :- जहाँ आनंद को देने वाला श्री जिनेश्वर भगवंत का मंदिर हो, तथा तेरह गुण 310 For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला जहाँ व्यतिरेक युक्त हो जैसा कि १-कीचड़ बहुत न हो, २-त्रस जीवोत्पत्ति बहुत न हो, ३-स्थंडिल भूमि निरवद्य हो, ४-वसति निर्दोष हो, ५-गोरस सुलभ मिलता हो, ६-लोग भद्रिक परिणामी और बड़े परिवार वाले हों, ७वैद्य भक्ति वाले हों, ८-औषधादि सुलभ मिलते हों, ९-श्रावक संपत्तिवान और बड़े परिवार वाले हों, १०-राजा भद्रिक हो, ११-अन्य धर्म वालो से उपद्रव नहीं होता हों, १२-स्वाध्याय भूमि निर्दोष हों और १३-आहार पानी आदि सुलभ मिलते हों। इसके अतिरिक्त जहाँ साधर्मिक लोग बहुत हों, जिस देश में राजादि के उपद्रव न हों, आर्य हो और राज्य की सीमा न हो, और जो संयम की वृद्धि में एक हेतुभूत हो उस देश में साधु महाराज को विहार करना योग्य है। (चातुर्मास करना योग्य है।) गुणकारी राज कथा :- प्रचंड भुजा दण्डरूपी मंडप में जिसने चक्रवर्ती की संपूर्ण ऋद्धि को स्थापित की है अर्थात् अपने भुजाबल से छह खंड की ऋद्धि प्राप्त कर उसका रक्षण करता था जिसका पाद पीठ नमस्कार करते मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त था परंतु भरत महाराजा के अंगुली से रत्न जड़ित अंगूठी निकल जाने से संवेग वाला हुआ, और उसने अंतःपुर के मध्य रहते हुए भी केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार स्त्री, भक्त, देश और राजा की कथा भी धर्म रूपी गुण का कारण होने से वह विकथा नहीं है। इस तरह यदि विकथा रूपी ग्रह से आच्छादित धर्म तत्त्व वाले के धर्म का नाश होता है और धर्म के नाश से गुण का नाश होता है। इसलिए संयम गुण में उपयोग वाले को श्रेष्ठ धर्म कथा की प्रवृत्ति करना ही योग्य है। इस प्रकार पाँचवाँ विकथा नाम का प्रमाद कहा है और इसे कहने से मद्यादि लक्षण वाले पाँचों प्रकार के प्रमाद कहे गये हैं। जआ प्रमाद का स्वरूप :- शास्त्र के जानकार ज्ञानियों ने द्यत नामक प्रमाद को छठा प्रमाद रूप में कहा है और उसे लोक और परलोक का बाधक रूप भी कहा है। उसमें इस लोक के अंदर जुआ नामक प्रमादरूपी दुर्जय शत्रु से हारे हुए मनुष्य के समान चतुरंग सैन्य सहित समग्र राज्य को भी क्षण में हार जाता है। वैसे धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चाँदी, मनुष्य, पशु और सारा घर का सामान संपत्ति भी हार जाता है। अधिक क्या कहें? शरीर के ऊपर रही लंगोट को भी जुएँ में हार कर मार्ग में गिरे पत्ते रूपी कपड़े से गुह्य भाग को ढांकता है। ऐसा मूढ़ात्मा जुआरी सर्वस्व हारने पर भी निश्चय से हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों को भी जुआरियों को होड़ शर्त में देकर जुएँ को ही खेलता है। जुआरी रणभूमि में डरने वाला, धन नाश में बेकदरी वाला और शत्रु को जीतनेवाले के एक लक्ष्य वाले राजपुत्र के समान विलास करता है। अथवा जुआरी भूख प्यास की अवगणना कर ठंडी-गरमी, डाँस-मच्छर की भी अवगणना कर, अपने सुख, दुःख को भी नहीं गिनता, स्वजन आदि का राग नहीं करता, दूसरों के द्वारा होती हंसी को भी नहीं मानता, शरीर की भी रक्षा नहीं करता, वस्त्र रहित शरीरवाला, निद्रा को छोड़ते तथा चपल घोड़े के समान चंचल इन्द्रियों के वेग को दूसरी ओर खींचकर प्रस्तुत विषय में स्थिर एकाग्रता धारण करने वाला, ध्यान में लीन महर्षि के समान है। अर्थात् महर्षि के समान जुआरी होता है। जीर्ण फटे हुए कपड़े वाला, खाज से शरीर में खरोंच वाला, रेखाओं का घर, खड़ी लगे अंग वाला, चारों तरफ बिखरे हए बाल वाला. कर्कश स्पर्श वाली चमडी वाला. कमर में बांधे हए चमडे के के पट्टे की रगड़ से हाथ में आंटी के समूह वाला और उजागरे से लाल आँखों वाले जुआरी की किसके साथ तुलना कर सकते इस तरह से जुआरी का प्रतिदिन जुआ बढ़ता जाता है उसमें दृढ़ राग वाला, क्षण-क्षण में अन्यान्य लोगों के साथ में कषायों को करने वाला, वह बिचारा घर में कुछ भी नहीं मिलने पर जुएँ में स्त्री को भी हारता है फिर - 311 For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार- प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार उसको छुड़ाने के लिए चोरी करने की इच्छा करता है, बाद में चोर के परिणाम वाला वह चोरी में ही प्रवृत्ति करता है और इस तरह प्रवृत्ति करते वह पापी तीसरा पाप स्थानक में कहे सभी दोषों को प्राप्त करता है। और इस प्रकार समस्त अनर्थों के समूह का निस्तार करने के लिए कुलदेवी, यक्ष, इन्द्र आदि के पास मनौती मानता है कि 'वह शत्रु अधिक दुःख को प्राप्त करें। सारे जुआरी का नाश हो जाएँ। मेरे अनर्थ शांत हो जाये। और मेरे पास बहुत धन हो जाये।' इस तरह चिंतन करते अपूर्ण इच्छावाले उस जुआरी द्वारा वध, बंधन, कैद, अंगों का छेदन तथा मृत्यु को भी प्राप्त करता है, और इस तरह जुएँ में आसक्त कुल, शील, कीर्ति, मैत्री, पराक्रम अपना कुलक्रम कुलाचार, शास्त्र, धर्म, अर्थ और काम का नाश करता है। इस प्रकार इस लोक में गुणों से रहित लोगों में धिक्कार को प्राप्त करता जुआरी सद्गति के हेतुभूत सम्यग् गुणों को प्राप्त करने में क्या समर्थ हो सकता है ? कामुक मनुष्य तो काम क्रीड़ा से खुजली करने के समान सुख वासना जन्य अल्पमात्र भी कुछ सुख का अनुभव करता है। परंतु कुत्ते के समान रस रहित पुरानी सूखी हड्डी के टुकड़ों को चबाने तुल्य जुआँ खेलने से जुआरी निश्चय क्या सुख का अनुभव कर सकता है? जुएँ से घर की संपत्ति, शरीर की शोभा, शक्ति, शिष्टता रूप संपत्ति और सुख संपत्ति अथवा इस लोक परलोक के गुणरूपी संपत्ति सब शीघ्र नाश होती है। इस विषय में शास्त्र के अंदर राज्य आदि को हारने वाले नल राजा, युधिष्ठिर आदि राजाओं के अनेक प्रकार के कथानक सुनने में आते हैं ।। ७४५७ ।। और दूसरे (१) अज्ञान, (२) मिथ्या ज्ञान, (३) संशय, (४) राग, (५) द्वेष, (६) श्रुति - स्मृति भ्रंश, (७) धर्म में अनादर तथा अंतिम (८) मन, वचन, काया योगों का दुष्प्रणिधान। इस तरह प्रस्तुत प्रमाद के आठ भेद भी कहे हैं। (१) अज्ञान :- ज्ञानियों ने ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा है और वह निश्चय ही सारे जीवों का भयंकर शत्रु है । कष्टों से भी यह अज्ञान परम कष्टकारी है कि जिससे पराधीन बना यह जीव समूह अपने भी हित अहित के अर्थ को अल्पमात्र भी जान नहीं सकता। केवल यहाँ ज्ञानाभाव वह अल्पता की अपेक्षा से जानना, अर्थात् अल्पज्ञान को अज्ञान कहा है। परंतु सर्वथा ही अभाव नहीं समझना । जैसे कि - यह कन्या छोटे पेट वाली है। यद्यपि ज्ञान की अल्पता होने पर भी शास्त्र के अंदर माषतुष आदि को केवल ज्ञान हुआ ऐसा सुना जाता है, तो भी निश्चय अति ज्ञानत्व ही श्रेष्ठ है। क्योंकि – जैसे-जैसे अतिशय रूप रस के विस्तार से भरपूर नये-नये श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नयी-नयी संवेग रूप श्रद्धा से मुनि प्रसन्नता का अनुभव करता है । माषतुष मुनि आदि को उत्तम गुरु की परतंत्रता से निश्चय ज्ञानित्व ही योग्य है, फिर भी बहुत ज्ञान के अभाव से अज्ञान जानना । तथा प्रायः कर प्रमाद दोष से जीवों को अज्ञान होता है, इसलिए कारण में कार्य के उपचार से अज्ञान को ही प्रमाद कहा है। (२) मिथ्या ज्ञान :- जो थोड़ा भी ज्ञान भव के अंत का कारण होता है वह सम्यग् ज्ञान माना गया है और दूसरा ज्ञान ऐसा नहीं है, उसे यहाँ मिथ्या ज्ञान कहा है। पूर्व में मिथ्यात्व पाप स्थानक के अंदर वर्णन किया है, इस ग्रंथ में है। वहां से मिथ्या ज्ञान को जान लेना । (३) संशय :- यह भी मिथ्या ज्ञान का ही अंश है। क्योंकि श्री जिनेश्वर के प्रति अविश्वास से होता है, वह देश गत और सर्वगत दो प्रकार से होता है। यह संशय श्री जिन कथित जीवादि पदार्थों में मन को अस्थिर करने से होता है और निर्मल भी सम्यक्त्व रूपी महारत्न को अति मलिन करता है। इस कारण जीवादि पदार्थ में संशय नहीं करना चाहिए । 312 For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला ( ४ ) - (५) राग और द्वेष :इस प्रमाद को भी पूर्व में राग द्वेष पाप स्थानक के द्वार में कहा गया है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! तूं उसका भी अवश्य त्याग कर। क्योंकि इसके बिना जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता है, या सम्यक्त्व प्राप्त करने पर वह संवेग को प्राप्त नहीं करता और विषय सुखों में राग करता है वह दोष रागद्वेष का कारण है। बार-बार उपद्रव करने वाला समर्थ शत्रु ऐसा अहितकर नहीं उतना निरंकुश राग और द्वेष अहित करता है। राग-द्वेष इस जन्म में श्रम, अपयश और गुण का विनाश करते हैं तथा परलोक में शरीर और मन में दुःख को उत्पन्न करते हैं। धिक्कार है । अहो कैसा अकार्य है कि राग, द्वेष से असाधारण अति कड़वा फल देता है, ऐसा जानते हुए भी जीव उसका सेवन करता है। यदि राग-द्वेष नहीं होते तो कौन दुःख प्राप्त करता ? अथवा सुखों से किसको आश्चर्य होता? अथवा मोक्ष को कौन प्राप्त नहीं करता? इसलिए बहुत गुणों के नाशक सम्यक्त्व और चारित्र गुणों के विनाशक पापी राग, द्वेष के वश नहीं होना चाहिए । (६) श्रुति भ्रंश :― यह प्रमाद भी स्व- पर उभय को विकथा कलह आदि विघ्न करने के द्वारा होता है। श्री जिनेश्वर की वाणी के श्रवण में विघात करने वाला जानना । यह श्रुति भ्रंश कठोर उत्कट ज्ञानावरणीय कर्म बंध का एक कारण होने से शास्त्र के अंदर ध्वजा समान परम ज्ञानियों ने उसे महापाप रूप में बतलाया है। (७) धर्म में अनादर :- यह प्रमाद का ही अति भयंकर भेद है। क्योंकि धर्म में आदर भाव से समस्त जीवों को कल्याण की प्राप्ति होती है। बुद्धिमान ऐसा कौन होगा कि जो मुसीबत में चिंतामणि को प्राप्त करके कल्याण का एक निधान रूप उस धर्म में अनादर करनेवाला बनेगा? अतः धर्म में सदा सर्वदा आदर सत्कार करें। (८) मन, वचन, काया का दुष्प्रणिधान :- यह भी सारे अनर्थ दंड का मूल स्थान है। इसे सम्यग् रूप से जानकर तीन सुप्रणिधान में ही प्रयत्न करना चाहिए । । ७४८२ ।। इस तरह मद्य आदि अनेक प्रकार के प्रमाद को कहा है। वह सद्धर्म रूपी गुण का नाशक और कुगति में पतन कराने वाला है। इस संसार रूपी जंगल में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जीवों की जो भी दुःखी अवस्था होती है, वह सर्व अति कटु विपाक वाला, जन्मान्तर में सेवन किया हुआ पापी प्रमाद का ही विलास जानना । अति बहुत श्रुत को जानकर भी और अति दीर्घ चारित्र पर्याय को पालकर भी पापी प्रमाद के आधीन बना मूढात्मा भी खो देता है। संयम गुणों की उत्तम सामग्री को और ऐसी ही महाचारित्र रूपी पदवी को प्राप्तकर अथवा मोक्ष मार्ग प्राप्तकर प्रमादी आत्मा सर्वथा हार जाती है। हा! हा! खेद की बात है कि ऐसे प्रमाद को धिक्कार हो! देवता भी जो दीनता धारण करते हैं, पश्चात्ताप और पराधीनता आदि का अनुभव करते हैं, वह जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है। जीव जो अनेक प्रकार की तिर्यंच योनि में, तुच्छ मनुष्य जीवन और नरक में उत्पन्न होता है वह भी निश्चय जन्मान्तर में प्रमाद करने का फल है। यह प्रमाद वस्तुतः जीवों का शत्रु है, तत्त्वतः भयंकर नरक है, यथार्थ व्याधि और वास्तविक दरिद्रता है। इस प्रमाद से तत्त्व का क्षय होता है । यथार्थ दुःखों का समूह है और वास्तविक ऋण है। श्रुत केवली आहारक लब्धि वाले और मोह का उपशम करने वाले भी प्रमाद वश गिरते हैं तो दूसरों की तो बात ही क्या करना ? अल्प अंतर वाली अंगुलियाँ की हथेली में रहे हुए जल समान प्रमाद से पुरुष के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ नष्ट होते हैं। यदि इस जन्म में एक बार भी कोई जीव प्रमाद आधीन हो तो दुःख से पराभव प्राप्त कर वह लाखों-करोड़ों जन्मों तक संसार में भटकता है। इस प्रमाद का निरोध नहीं करने से सकल कल्याण का निरोध होता है और प्रमाद का निरोध करने से समग्र कल्याण का प्रादुर्भाव होता है। इसलिए हे देवानुप्रिय ! क्षपक मुनि! इस जन्म में पत्नी के निग्रह के समान प्रमाद का निरोध तुझे हितकर होगा । इसलिए तूं उसमें ही प्रयत्न कर। For Personal & Private Use Only 313 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पाँचवा प्रतिबंध त्याग द्वार इस तरह अनुशास्ति द्वार में विस्तृत अर्थ सहित और भेद प्रभेद सहित प्रमाद निग्रह नाम का चौथा अंतर द्वार कहा है। अब प्रमाद के निग्रह में निमित्त भूत सर्व प्रतिबंध त्याग नाम का पाँचवां अंतर द्वार संक्षेप से कहते पाँचवां प्रतिबंध त्याग द्वार : श्री जिनवचन के जानकार ने प्रतिबंध को आसक्ति रूप कहा है, वह प्रतिबंध-आसक्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित चार प्रकार का कहा है। उसमें यहाँ सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य तीन प्रकार का है। और उस प्रत्येक द्रव्य के, द्विपद, चतुष्पद और अपद इस तरह तीन-तीन भेद हैं ।।७५०० ।। इस तरह विषय के भेद से उस भेद के ज्ञाता शास्त्रज्ञों ने संक्षेप से द्रव्य प्रतिबंध ३४३=९ प्रकार का कहा है। पहले भेद के अंदर पुरुष, स्त्री, तोता आदि, दूसरे में घोड़ा, हाथी आदि, और तीसरे में पुष्प, फल आदि इस तरह ये सचित्त द्रव्य के भेद जानना। चौथे भेद में गाड़ी, रथ आदि, पाँचवें में पट्टा, पलंग, चौकी आदि और छटे में सुवर्ण आदि ये अचित्त द्रव्य के भेद जानना। सातवें भेद में आभूषण, वस्त्र, सहित पुरुष आदि, आठवें में अम्बाड़ी आभूषण आदि सहित हाथी, घोड़े आदि तथा नौवें भेद में पुष्पमाला आदि मिश्रित द्रव्यगत पदार्थ जानना। और गाँव, नगर, घर, दुकान आदि में जो प्रतिबंध है वह क्षेत्र प्रतिबंध है तथा वसंत, शरद, आदि ऋतु में या दिन, रात्री में जो आसक्ति वह काल प्रतिबंध जानना। एवं संदर शब्द, रूप आदि में आसक्ति अथवा क्रोध मान आदि का जो हमेशा त्याग नहीं करता उसे भाव प्रतिबंध जानना। ये सर्व प्रकार से प्रतिबंध कर्ता हो तो परिणाम से कठोर दीर्घकाल तक के दुःखों को देने वाला है, ऐसा श्री जिनेश्वर द्वारा कथित शास्त्र में सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों ने देखा है। और जितने प्रमाण में यह प्रतिबंध हो उतने दुःख उन जीवों को होते हैं। इसलिए इसका सर्वथा त्याग करना श्रेष्ठ है। इसका त्याग नहीं करने से अनर्थ की परंपरा का त्याग नहीं होता और यदि इस प्रतिबंध का त्याग करता है तो वह अनर्थ की परंपरा का भी अत्यंत त्याग करता है। हा! प्रतिबंध भी कर सकता है यदि उसके विषयभूत वस्तुओं में कुछ भी श्रेष्ठता हो तो यदि उसमें श्रेष्ठता नहीं है तो उस में प्रतिबंध करने से क्या प्रयोजन है? संसार में उत्पन्न होती वस्तुएँ, जो क्षण-क्षण में नाशवंत हैं, स्वभाव से ही असार है और स्वभाव से ही तुच्छ है, तो उसमें क्या अच्छाई कहना? क्योंकि काया हाथी के कान समान चंचल है, रूप भी क्षण विनश्वर स्वरूप है, यौवन भी परिमित काल का है, लावण्य परिणाम से कुरूपता को देने वाला है। सौभाग्य भी निश्चय नाश होता है, इन्द्रियाँ भी विकलता को प्राप्त करती हैं। सरसों के दाने जितना सुख प्राप्त कर मेरु पर्वत जितना कठोर दुःखों के समूह से घिरा जाता है, बल चपलता को प्राप्त कर नष्ट हो जाता है यह जीवन भी जल कल्लोल समान क्षणिक है, प्रेम स्वप्न सामान मिथ्या है, और लक्ष्मी छाया समान है। भोग इन्द्र धनुष्य समान चपल है, सारे संयोग अग्नि शिखा समान है और अन्य भी कोई वस्तु ऐसी नहीं है कि जो स्वभाव से शाश्वत हो। इस तरह सारी संसार जन्य वस्तुओं में सुख के लिए प्रतिबंध करता है तो हे सुंदर! वह अंत में दुःख रूप बनेगा। और तूं निश्चय स्वजनों के साथ जन्मा नहीं है, और उसके साथ मरनेवाला भी नहीं है, तो हे सुंदर! उनके साथ भी प्रतिबंध करने से क्या लाभ है? यदि संसार समुद्र में जीव कर्मरूपी बड़ी-बड़ी तरंगों के वेग से इधर उधर भटकते संयोग-वियोग को प्राप्त करता है, तो कौन किसका स्वजन है? बार-बार जन्म, मरण रूप इस संसार में चिर काल से भ्रमण करते कोई ऐसा जीव नहीं है कि जो परस्पर अनेक बार स्वजन नहीं हुए हों? जिसे छोड़कर जाना है वह वस्तु आत्मीय कैसे बन सकती है? ऐसा विचारकर ज्ञानी शरीर में प्रतिबंध का त्याग करते हैं। विविध उपचार-सेवा करने पर भी चिरकाल तक संभालकर रखे शरीर का भी यदि अंत में नाश दिखता है 314 For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-सन्यक्ल्व नामक छठा द्वार 'श्री संवेगरंगशाला तो शेष पदार्थों में क्या आशा रखें? प्रतिबंध बुद्धि को नाश करने वाला, अत्यंत कठोर बंधन है और संसार के सर्व दोषों का समूह है, इसलिए हे धीर! प्रतिबंध को छोड़ दो! पुनः हे महाशय! यदि तूं सर्वथा इसे छोड़ने में शक्तिमान नहीं हो तो अति प्रशस्त वस्तु में प्रतिबंध कर। क्योंकि तीर्थंकर में प्रतिबंध और सुविहित मुनिजन में प्रतिबंध, यह वर्तमान काल में सराग संयम वाले मुनियों को निश्चय प्रशस्त है।' अथवा शिव सुख साधक गुणों की साधना में हेतुभूत द्रव्यों में, शिव साधक गुणों की साधना में, अनुकूल क्षेत्र में, शिव साधक गुणों की साधना के अवसर रूप काल में, और शिव साधक गुण रूप भाव में प्रतिबंध कर। तत्त्व से तो प्रशस्त पदार्थों में प्रतिबंध करना, उसे भी केवल ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश को अत्यंत रोकने वाला कहा है। इसी कारण जगद्गुरु श्री वीर परमात्मा में प्रतिबंध से युक्त श्री गौतम स्वामी चिरकाल उत्तम चारित्र को पालन करने वाले भी केवलज्ञान को प्राप्त नहीं कर सके। इसलिए भी देवानुप्रिय! इस संसार में यदि शुभ वस्तु में यह प्रतिबंध इस प्रकार का परिणाम वाला अर्थात् केवलज्ञान रोकने वाला है तो इससे क्या लाभ हुआ? जीव सुखों का अर्थी है और सुख प्रायः इस संसार में संयोग से होता है, इसलिए जीव सुख के लिए द्रव्यादि के साथ संयोग को चाहता है। परंतु द्रव्य अनित्य होने से उसका नाश हमेशा चलता है। क्षेत्र भी सदा प्रीतिकर नहीं होता है, काल भी बदलता रहता है और भाव भी नित्य एक स्वभाव वाला नहीं है। किसी को भी उसे द्रव्यादि के साथ जो कोई भी संयोग पूर्व में हुआ है, वह वर्तमान काल में है और भविष्य में होगा वे सभी अंत में अवश्य वियोग वाले ही है। इस तरह द्रव्यादि के साथ का संयोग और अन्त में अवश्य वियोग वाला हो, तो द्रव्यादि में प्रतिबंध करने से कौन से गुण को प्राप्त करेगा? दूसरी बात यह है कि जीवद्रव्य आदि द्रव्यों का परस्पर अन्यत्व है और अन्य के आधीन जो सुख है वह परवश होने से असुख रूप ही है। इसलिए हे चित्त! यदि तूं प्रथम से ही पराधीन सुख में प्रतिबंध को नहीं करेगा, तो उसके वियोग से होने वाले दुःख को भी तूं प्राप्त नहीं करेगा। यहाँ मूढ़ात्मा संसार गत पदार्थ के समूह में जैसे-जैसे प्रतिबंध को करता है वैसे-वैसे गाढ़-अतिगाढ़ कर्मों का बंध करता है। इतना भी विचार नहीं करता कि जिस पदार्थ में प्रतिबंध करता हूँ, वह पदार्थ निश्चय विनाशी, असार और विचित्र संसार का हेतुभूत है। इसलिए यदि तूं आत्मा का हित चाहता है, तो भयंकर संसार से भय धारण कर। पूर्व में किये पापों से उद्विग्न हो। और प्रतिबंध का त्याग कर। जैसे-जैसे आसक्ति का त्याग होता है, वैसे-वैसे कर्मों का नाश होता है और जैसे-जैसे वह कर्म कम होते हैं, वैसे-वैसे मोक्ष नजदीक आता जाता है। इसलिए हे मुनिवर्य! आराधना में मन को लगाकर और सभी पाप के प्रतिबंध का सर्वथा त्याग कर नित्य आत्मारामी बन। इस तरह प्रतिबंध त्याग नामक पाँचवां अंतर द्वार कहा है। अब सम्यक्त्व संबंध से छट्ठा अंतर द्वार कहता हूँ ।।७५४१ ।। सम्यक्त्व नामक छठा द्वार : अनंत भूतकाल में जो पूर्व में कदापि प्राप्त नहीं हुआ, जिसके प्रभाव से संसार महासमुद्र को छोटे से सरोवर के समान बिना प्रयास से तर सकता है। जिसके प्रभाव से मुक्ति की सुख रूप संपत्ति हस्त कमल में आती है। जो महान कल्याण के निधान का प्रवेश द्वार है और मिथ्यात्व रूपी प्रबल अग्नि से तपे हुए जीवों को जो अमृत के समान शांत करने वाला है। उस सम्यक्त्व को हे क्षपक मुनि! तूंने प्राप्त किया है। यह सम्यक्त्व प्राप्त करने से अब तूं भयंकर संसार के भय से डरना नहीं, क्योंकि इसकी प्राप्ति से संसार को जलांजलि दी है। और जीव का नरक में अति दीर्घकाल सम्यक्त्व सहित रहना वह भी श्रेष्ठ है, परंतु इससे रहित जीव का देवलोक में उत्पन्न होना वह भी अच्छा नहीं है। क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्व के प्रभाव से नरक में से आकर कई जीव तीर्थंकर आदि लब्धि 1 तित्थयरे पडिबंधो सुविहिए जइजणे य। एसो पसत्थगो च्चिय सरागसंजमजईणऽज्ज ||७५२४।। 315 For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-सम्यक्त्व वामक छटा द्वार वाले हुए हैं, ऐसा आगम में सुना है। और सम्यक्त्व गुण से रहित देवलोक से भी च्यवन कर इस संसार में पृथ्वीकायादि में भी उत्पन्न हुए और वहाँ दीर्घकाल रहने का आगम में सुना जाता है। केवल अंतर्मुहूर्त भी यदि यह सम्यक्त्व किसी तरह स्पर्शित होता है तो अनादि संसार समुद्र निश्चय गोष्पद जितना अल्प बन जाता है, ऐसा मैं मानता हूँ। जिसको निश्चय सम्यक्त्व रूपी महाधन है वह पुरुष निर्धनी भी धनवान है। यदि धनवान केवल इस जन्म में सुखी है तो सम्यग् दृष्टि प्रत्येक जन्म में सुखी है। अतिचार रूपी रज से रहित निर्मल सम्यक्त्व रत्न जिसके मन मंदिर में प्रकाशित है वह जीव मिथ्यात्व रूपी अंधकार से पीड़ित कैसे हो सकता है? जिसके मन में सर्व अतिशयों का निमित्त सम्यक्त्व रूप मंत्र है, उस पुरुष को ठगने के लिए मोह पिशाच भी समर्थ नहीं है। जिसके मन रूपी आकाश तल में सम्यक्त्व रूपी सर्य प्रकाश करता है. उसके मन में मिथ्यात्व रूपी ज्योतिष चक्र प्रकट भी नहीं होता है। पाखंडियों रूपी दृष्टि विष सर्प द्वारा लगाया हुआ डंख जो सम्यक्त्व रूपी दिव्य मणि को धारण करता है उसे कुवासना रूप विष संक्रमण (चढ़ता) नहीं है। इसलिए सर्व दुःखों का क्षय करने वाले सम्यक्त्व में प्रमाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि-वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र भी इस सम्यक्त्व में रहा है। जैसे नगर का द्वार, मुख की आँखें और वृक्ष का मूल है वैसे वीर्य, तप, ज्ञान और चारित्र का यह सम्यक्त्व द्वार, आँखें और मूल जानना। ज्ञानादि आत्मस्वभाव, प्रीति का विषयभूत माता, पितादि स्वजन और श्री अरिहंतादि के अनुराग में रक्त अर्थात् शास्त्रोक्त भावाभ्यास, सतताभ्यास और विषयाभ्यास अनुष्ठान वाला तूं श्री जैनशासन में धर्मानुराग अर्थात् उसमें हमेशा सद्भाव, प्रेम, सद्गुण और धर्म के अनुराग से तन्मय बनना। सब गुणों में मुख्य इस सम्यक्त्व महारत्न को प्राप्त करने से इस जगत में कोई अपूर्व प्रभाव हो जाता है। क्योंकि कहा है कि-'जिसको मेरुपर्वत के समान निश्चल और शंकादि दोषों से रहित यह सम्यक्त्व एक दिन का भी प्रकट हो जाये तो वह आत्मा नरक, तिर्यंच में नहीं गिरता है। चारित्र से भ्रष्ट वह भ्रष्ट नहीं है, परंतु जो सम्यक्त्व से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है, सम्यक्त्व से नहीं गिरने वाला संसार में परिभ्रमण नहीं करता। अविरति वाला भी शुद्ध सम्यक्त्व होने से श्री तीर्थंकर नाम कर्म का बंध करता है। जैसे कि हरिकुल के स्वामी श्रीकृष्ण महाराजा और श्रेणिक महाराजा विरति के अभाव में भी भविष्य काल में कल्याणकर तीर्थंकर होंगे। विशद्ध सम्यक्त्व वाला जीव कल्याण की परंपरा को प्राप्त करता है। सम्यक्त्व महारत्न जितना मूल्य देव-दानव से युक्त तीनों लोक भी प्राप्त नहीं कर सकता। अरघट्ट यंत्र समान इस संसार में कौन जन्म नहीं लेता, परंतु तत्त्व से जगत में वही जन्म लेता है कि जिसने इस संसार में सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त किया है। अर्थात् उसका ही जन्म सफल है। हे सुंदर मुनि! चिंतामणी और कल्पवृक्ष को भी जीतनेवाले सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसकी रक्षा का प्रयत्न छोड़ना योग्य नहीं है। इस दुस्तर भव समुद्र में जो समकित रूप नाव को प्राप्त नहीं करता है, वह डूबता है, डूबा है और डूबेगा। और सम्यक्त्व रूपी नाव को प्राप्त कर भव्यात्मा दुस्तर भी संसार समुद्र को अल्पकाल में तिर जाता है, तिरता है और तिरेगा। इसलिए हे धीर साधु! जिसकी प्राप्ति के मनोहर स्वप्न भी दुर्लभ है उस सम्यक्त्व को प्राप्त कर आराधना में स्थिर मन वाला हो और प्रमाद को मत करना। अन्यथा प्रमाद में गिरे हुए तेरी यह प्रस्तुत आराधना निश्चय मार्ग से भ्रष्ट हुई नाव के समान 'तड़, तड़' आवाज करते टूट जायगी। इस तरह सम्यक्त्व नाम का छट्ठा अंतर द्वार कहा। अब श्री अरिहंत आदि छह की भक्ति का सातवाँ अंतर द्वार कहते हैं।।७५६९।। 1. जस्सं दिवसं पि एक्कं, सम्मत्तं निच्चलं जहा मेरू। संकाऽऽइदोसरहियं, न पडइ सो नरयतिरिएसु ।।७५५६।। 2. दंसणभट्टो भट्ठो, न हु भट्ठो होइ चरणपन्भट्ठो ।।७५६०पूर्वार्ध।। 316 For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-श्री अरिहंतादि छह की भक्ति नामक सातवाँ द्वार एवं कनवरध की कथा 'श्री संवेगरंगशाला श्री अरिहंतादि छह की भक्ति नामक सातवाँ द्वार : श्री अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय और साधु। ये छह को मोक्ष नगर के मार्ग में सार्थवाह(मददगार) रूप मानकर, हे क्षपक मुनि! प्रस्तुत अर्थ-आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए उनको हर्ष की उत्कंठा से विकसित तेरे हृदय कमल में भक्तिपूर्वक सम्यग् रूप से धारण कर। केवल एक श्री जिन भक्ति भी दुर्गति को रोककर दुर्लभ मुक्ति पर्यंत के सुखों को उत्तरोत्तर प्राप्त कराने में समर्थ है, फिर भी परमैश्वर्य वाले श्री सिद्ध, परमात्मा, चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, साधु की भक्ति संसार के कंद का निकंदन करने में समर्थ कैसे न हो? सामान्य विद्या भी उनकी भक्ति से ही सिद्ध होती है और सफल बनती है तो निर्वाण-मोक्ष की विद्या क्या उनकी भक्ति करने से सिद्ध नहीं होगी? आराधना करने योग्य उनकी भक्ति जो मनुष्य नहीं करता वह ऊस भूमि में बोये अनाज के समान संयम को निष्फल करता है। आराधक भक्ति बिना जो आराधना की इच्छा करता है वह बीज बिना अनाज की और बादल बिना वर्षा की इच्छा करता है। विधिपूर्वक बोया हुआ भी अनाज जैसे वर्षा से उगने वाला होता है, वैसे तप, दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों को आराधक परमात्मा की भक्ति से सफल करता है। श्री अरिहंतादि की एक-एक की भी भक्ति करने से सुख की परंपरा को अवश्य प्रकट करता है। इस विषय पर कनकरथ राजा दृष्टांत रूप है ।।७५६९।। वह इस प्रकार है : श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा जिस नगर में उत्तम पति के द्वारा रक्षण की हुई सुंदर लंबी नेत्रों वाली और उत्तम पुत्र वाली स्त्रियाँ जैसे शोभती थीं वैसे राजा से सुरक्षित उत्तम गली बाजार युक्त मिथिला नगरी थी। उसमें कनकरथ नाम का राजा राज्य करता था। सूर्य के समान जिसके प्रताप के विस्तार से शत्रु के समूह का पराभव होता था, सूर्य के तेज से रात्री विकासी कमल का खण्ड जैसे शोभारहित और संकुचित-दुर्बल बन जाय वैसे शोभारहित और दीन वे शत्र बन गये थे। याचक अथवा स्नेही वर्ग को संतोष देनेवाला और परंपरा के वैर का त्याग करने वाला नीति प्रधान राज्य के सुख को भोगता हुआ रत्नों से प्रकाशमान सिंहासन पर बैठा था। उस समय पर एक संधिपालक ने पूर्ण रूप से मस्तक नमाकर विनती की कि-हे देव! यह आश्चर्य है कि सूर्य को अंधकार जीते और सिंह के बच्चे की केसरा को मृग तोड दे, वैसे चिरकाल से भेजी हुई आपकी महान् चतुरंग सेना को उत्तर दिशा का स्वामी महेन्द्र राजा भगा रहा है। उनकी प्रवृत्ति जानने के लिए नियुक्त किये गुप्तचरों ने आकर अभी ही मुझे युद्ध का वृत्तांत यथास्थित कहा है। वहाँ जो कलिंग देश का राजा आपका प्रसाद पात्र था वह निर्लज्ज शत्रु के साथ मिल गया है। दाक्षिण्य रहित कुरुदेश का राजा भी आपके सेनापति के प्रति द्वेष दोष से उसी समय युद्ध में से वापस आ गया है। दूसरे भी काल कुंजर, श्री शेखर, शंकर आदि सामंत राजा सेना को बिखरते देखकर युद्ध से पीछे हट गये हैं और इस तरह मदोन्मत्त हाथियों की सूंढ से श्रेष्ठ रथों का समूह नष्ट हो रहा है। रथों के समूह के चूर होने से घोड़े जहाँ तहाँ भागते जन समह को गिरा रहे हैं। जनसमह गिरने से मार्ग दर्गम बन गया है। इससे व्याकल शरवीर सभट इधर-उधर भाग रहे हैं। शूरवीर सुभटों का परस्पर भागने से सेना-समूह वहाँ व्याकुल हो रहा है और सेना के लोगों की पुकार-शब्द से कायर लोगों का समूह भाग रहा है, इस तरह मारे गये योद्धायुक्त तुम्हारी सेना को शत्रु ने यम के घर पहुँचा दिया है। यह सुनकर ललाट पर भयंकर भृकुटी चढ़ाकर राजा ने प्रस्थान करने वाली महा आवाज करने वाली भेरी को बजवाई। फिर उस भेरी का बादल के समूह के आवाज समान महान् व्यापक नाद से प्रस्थान का कारण 317 For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-श्री अरिहंत की भक्ति पर कनकरथ राजा की कथा जानकर शीघ्र चतुरंग सेना उपस्थित हुई। तब अति कुपित होकर कनकरथ राजा उस सेना सहित शीघ्र प्रस्थान करके शत्रु महेन्द्र सिंह राजा की सीमा में पहुँच गया। फिर उसे आया जानकर अत्यंत उत्साह को धारण करते महेन्द्र सिंह ने उसके साथ अति जोर से युद्ध करना प्रारंभ किया। फिर चक्र और बाणों के समूह को फेंकते, तेज से उग्र सुभट उछल रहे थे, हाथ में पहला हुआ वीरत्व सूचक वीरवलय में जुड़े हुए मणि की कांति से मानो कुपितयम नेत्रों से कटाक्ष फेंकता हो, इस तरह अवरोध करता अर्थात् शत्रु को रोकते मन और पवन समान वेग वाले घोड़े के समूह वाला महेन्द्र सिंह शत्रु कनक राजा की सेना के साथ युद्ध करने लगा। फिर जो रणभूमि में भांगे हुए दण्ड रहित छत्र समूह मानो भोजन करने के बाद फेंके हुए थाल न हो ऐसे दिखते थे और तलवार से शत्रुओं के गले काट देने वाले, युद्ध क्रिया से दुष्ट व्यंतरादि देवों को प्रसन्न करने वाले और अपने मालिक के कार्य में देह का भी त्याग करने वाले उत्तम बलवान योद्धा वहाँ कृतकृत्य होने से हर्षपूर्वक मानो नाच रहे थे। वहाँ रुधिर से भीगे मस्तकों से अलंकृत पृथ्वी मानो लाल कमलों से रची दिवार न हो? और जमीन दो विभाग के ऊपर गिरे हाथी मानों टूटे हुए अंजन पर्वत के शिखर न हों? इस तरह दिखते थें। इस प्रकार बहुत लोगों का नाश करने वाला युद्ध जब हुआ तब मिथिला के राजा ने दुर्जय अपने हाथी के ऊपर बैठकर रणभूमि में शत्रु के सन्मुख खड़ा रहा ।।७६०० ।। इस अवसर पर मंत्रियों ने कहा कि-हे देव! युद्ध से रुक जाओ। शत्रु के मनोरथ को सफल न करो। स्वशक्ति का विचार करो। यह उत्तर दिशा का राजा युद्ध में दृढ़ अभ्यासी है देव सहायता करते हैं, महान् पक्ष वाला और महा सात्त्विक है, इस तरह अभी ही गुप्तचरों ने हमसे कहा है, इसलिए एक क्षण मात्र भी इस स्थान पर रहना योग्य नहीं है। हे देव! अपनी शक्ति के अतिरिक्त कार्य का आरंभ करना ज्ञानियों ने मरण का मूल कारण कहा है, इसलिए सर्व प्रकार से भी अपने आत्मा का ही रक्षण करना चाहिए। 'हे देव! अभी भी अखंड सेना शक्तिवाले आप यदि युद्ध से रुक जाओगे, तो शत्रु नें आपके भाव को नहीं जानने से आप अपने नगर में निर्विघ्न पहुँच जाओगे। अन्यथा भाग्यवश हार जाने से और शत्रुओं द्वारा भागते हुए भी रोक देने से, सहायक बिना आपको भागना मुश्किल हो जायगा। इस प्रकार मंत्रियों के वचन रूपी गाढ़ प्रतिबंध से निर्भय भी कनकरथ राजा युद्ध से वापिस लौटा, बड़े पुरुष स्पष्ट समय के जानकार होते हैं। फिर शत्रु को हारे हुए और भागते देखकर महेन्द्र सिंह राजा भी करुणा से उस पर प्रहार किये बिना वापिस चला। मान भंग होने से और हृदय में दृढ़ शोक प्रकट होने से अपने आपको मरा हुआ मानते कनकरथ ने वापिस लौटते समय सुंसुमारपुर में इन्द्र महाराज के समूह से सेवित चरणकमल वाले श्री मुनिसुव्रत स्वामी को पधारें हुए देखा। तब राज चिह्नों को छोड़कर उपशम भाव वाला वेश धारण करके गाढ भक्ति से तीन बार प्रदक्षिणा देकर गणधर मुनिवर और केवल ज्ञानियों से घिरे हुए ए जगन्नाथ परमात्मा को वंदन करके राजा धर्म सुनने के लिए शुद्ध भूमि के ऊपर बैठा। क्षणभर प्रभु की वाणी को सुनकर और फिर युद्ध की परिस्थिति को याद कर विचार करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो कि जिस पूर्व पुण्य के नाश होने से इस तरह शत्रु से हारा हुआ पराक्रम वाला होने पर भी सत्त्व नष्ट होने से मेरी अपकीर्ति बहुत फैल गयी है। इस तरह बार-बार चिंतन करते प्रभु को नमस्कार करके समवसरण से निकलते निस्तेज मुख वाले राजा को करुणा वाले विद्युत्प्रभ नामक इन्द्र के सामानिक देव ने कहा कि-हे भद्र! इस अति हर्ष के स्थान पर भी हृदय में तीक्ष्ण शल्य लगने के समान तूं इस तरह संताप क्यों करता है? और नेत्रों को हाथ से मसलकर नीलकमल समान शोभा रहित गीली हुई आँखों को क्यों धारण करता है? उसके बाद आदरपूर्वक नमस्कार करते मिथिला 1. अजहाबलमाऽऽरंभो य देव। मूलं वयंति मच्चुस्स। ता सव्वपयारेहिं वि, अप्प च्चिय रक्खियव्यो त्ति ।।७६०४।। 318 For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला पति ने उत्तर दिया कि आप इस विषय में स्वयमेव यथास्थित ज्ञान से जानते हैं। तो यहाँ इस विषय में मैं क्या कहुँ? अनेक भूतकाल में हो गये और अत्यंत भविष्य काल हो गये उसके कार्यों को भी निश्चय जानते हैं उनको यह जानना वह तो क्या है? जब राजा ने ऐसा कहा तब अवधिज्ञान से तत्त्व को जानकर विद्युत्प्रभ देव ने इस तरह कहा कि-अहो! तूं शत्रु से पराभव होने से कठोर दुःख को हृदय में धारण करता है, परंतु श्री जिनेश्वर की भक्ति को दुःख मुक्ति का मूल कारण कहा है। हे राजन्! तेरी प्रभु के चरण कमल की वंदन क्रिया से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। इसलिए अब मेरे प्रभाव से शीघ्र शत्रु के सामने जय को प्राप्त करेगा। __ऐसा देव का वचन सुनकर प्रसन्न मुख कमल वाला राजा सेना के साथ जल्दी शत्रु की ओर वापिस चला, फिर अनेक युद्धों में विजय करने वाला, अभिमान वाला महेन्द्र सिंह उसे आते सुनकर तैयार होकर सामने खड़ा हुआ और दोनों का युद्ध हुआ केवल विद्युत्प्रभ के प्रभाव से मिथिलापति ने प्रारंभ में ही महेन्द्र सिंह को हरा दिया और उसने पहले हाथी, घोड़े आदि राज्य के विविध अंग को ग्रहण किया था उसे वापिस लिया और उसे आज्ञा पालन करवा कर राज्य का सार संभाल के कार्य हेतु उसे रख दिया। फिर विजय करने योग्य शत्रु को जीतकर कनकरथ अपने नगर में आया और जगत में शरदचंद्र की किरण समान उज्ज्वल कीर्तिवाला प्रसिद्ध हुआ। एक दिन विशुद्ध लेश्या में वर्तन करते वह विचार करने लगा कि-अहो! श्रीजिनेश्वर भगवान की महिमा कैसी है कि जिसके वंदन मात्र से ही मैंने मनोरथ को भी अगोचर-कल्पना में भी नहीं आये, ऐसा अत्यंत वाञ्छित प्रयोजन को लीलामात्र से अनायास से प्राप्त किया है। इसलिए जगत में एक प्रभु इस जन्म और पर-जन्म में भावी कल्याण करने वाले सहज स्वभाव वाले परम परमात्मा और श्रेष्ठ कल्पवृक्ष समान उनकी सेवा करने योग्य है। ऐसा चिंतन करके राजा ने श्री मुनिसुव्रत प्रभु के चरण कमल में दीक्षा स्वीकार की। फिर उसे विधिपूर्वक पालन किया, इससे गुण गण का निधान समान गणधर नामगोत्र का बंध किया, अंत में आयुष्य पूर्णकर देदीप्यमान शरीर वाला महर्द्धिक देवता बना। वहाँ से आयुष्य पूर्णकर उत्तम कुल में मनुष्यत्व और उत्तम भोगों को प्राप्तकर श्री तीर्थंकर देव के पास दीक्षा लेकर गणधर बनकर संसार रूपी महावृक्ष को मूल से उखाड़कर केवलज्ञान के प्रकाश को प्राप्तकर जन्म, मरण से रहित परम निर्वाण पद को प्राप्त करेगा। इस तरह श्री अरिहंत परमात्मा आदि की भक्ति इस तरह उत्तरोत्तर कल्याणकारी जानकर हे क्षपक मुनि! तूं सम्यग् रूप से उस भक्ति का आचरण कर। श्री अरिहंतादि छह की भक्ति यह सातवाँ द्वार मैंने कहा है, अब आठवाँ पंच नमस्कार नामक अंतर द्वार कहते हैं।।७६३६ ।। पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार : हे महामुनि क्षपक! समाधि युक्त और कुविकल्प रहित तूंने प्रारंभ किया, विशुद्ध धर्म का अनुबंध (परंपरा) हो इस तरह अब बंधु समान श्री जिनेश्वर तथा सर्व सिद्ध; आचार का पालन करने वाले आचार्य, सूत्र का दान करने वाले उपाध्याय तथा शिवसाधक सर्व साधुओं को निश्चय सिद्धि के सुख साधक नमस्कार को करने में नित्य उद्यमी बन। क्योंकि यह नमस्कार संसार रूपी रण भूमि में गिरे हुए या फंसे हुए को शरणभूत, असंख्य दुःखों का क्षय का कारण रूप और मोक्षपद का हेतु है और कल्याण रूप कल्पवृक्ष का अवंध्य बीज है। संसार रूप हिमाचल के शिखर पर ठण्डी दूर करने वाला सूर्य है और पाप रूप सौ का नाश करने वाला गरुड़ है। दारिद्रता के कंद को मूल में से उखाड़ने वाली वराह की दाढ़ा है और प्रथम प्रकट सम्यक्त्व रत्न के लिए रोहणाचल की भूमि है। सद्गति के आयुष्य के बंध रूपी वृक्ष के पुष्प की विघ्न रहित उत्पत्ति है और विशुद्धउत्तम धर्म की सिद्धि की प्राप्ति का निर्मल चिह्न है। और यथा विधिपूर्वक सर्व प्रकार से आराधना कराने से इच्छित 319 For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार फल प्राप्त कराने वाला यह पंच नमस्कार श्रेष्ठ मंत्र समान है। इसके प्रभाव से शत्रु भी मित्र बन जाता है, तालपुट जहर भी अमृत बन जाता है, भयंकर अटवी भी निवासस्थान के समान चित्त को आनंद देती है। चोर भी रक्षक बनते हैं, ग्रह अनुग्रह कारक बनते हैं, अपशुकन भी शुभशुकन के फल को देने वाले बनते हैं। माता के समान डाकिणी भी अल्पमात्र भी पीड़ा नहीं करती और भयंकर मंत्र, तंत्र, यंत्र के प्रयोग भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं होते हैं। पंच नमस्कार मंत्र के प्रभाव से अग्नि कमल के समूह समान, सिंह सियार के सदृश और जंगली हाथी भी मृग के बच्चे समान दिखता है। इसी कारण से देव, विद्याधर आदि भी उठते बैठते, टकराते या गिरते इस नमस्कार का परम भक्ति से स्मरण करते हैं। मिथ्यात्व रूपी अंधकार का नाशक वृद्धि होते श्रद्धा रूपी तेलयुक्त यह नमस्कार रूप श्रेष्ठ दीपक धन्यात्माओं के मनोमंदिर में प्रकाश करता है। जिसके मनरूपी वन की झाड़ियों नमस्कार रूपी केसरी सिंह का बच्चा क्रीड़ा करता है उसको अहित रूपी हाथियों के समूह का मिलन नहीं होता है। बेड़ियों के कठोर बंधन वाली कैद और वज्र के पिंजरे में भी तब तक है जब तक नमस्कार रूपी श्रेष्ठ मंत्र का जाप नहीं किया। अहंकारी, दुष्ट, निर्दय और क्रूर दृष्टिवाला शत्रु भी तब तक शत्रु रहता है, जब तक श्री नमस्कार मंत्र का चिंतनपूर्वक जाप नहीं करता है। इस मंत्र का स्मरण करने वाले को मरण में, युद्ध भूमि में सुभट समूह का संगम होते और गाँव नगर आदि अन्य स्थान में जाते सर्वत्र रक्षण और सम्मान होता है। तथा देदीप्यमान मणि की कांति से व्याप्त विशाल फण वाले सर्पों की फणा के समूह में से निकलती किरणों के समूह से जहाँ भयंकर अंधकार का नाश होता है, ऐसे पाताल में भी इच्छा के साथ मन को आनंद देने वाला, पाँचों इन्द्रियों के विषय जिसके सिद्ध होते है ऐसे दानव वहाँ आनंद करते हैं, वह भी निश्चय से नमस्कार मंत्र के प्रभाव का एक अंश मात्र है। तथा विशिष्ट पदवी, विद्या, विज्ञान, विनय तथा न्याय से शोभित और अस्खलित विस्तार से फैलता निर्मल यश से समग्र भवन तल व्याप्त होना, और अत्यंत अनुरागी स्त्री, पुत्र आदि सारे मित्र तथा स्वजन, आज्ञा को स्वीकार करने में उत्साही बुद्धिमान, घर पर कार्य करने वाले नौकर वर्ग, अक्षीण लक्ष्मी के विस्तार का मालिक और भोगों को प्राप्त करने में श्रेष्ठ राजा, मंत्री आदि विशिष्ट लोगों और प्रजा को अति मान्य हो, मनोवांछित फल की प्राप्ति से सुंदर और दुःख की बात को चमत्कार करने वाला अर्थात् दुःख जैसा शब्द भी जहाँ नहीं है ऐसा जो मनुष्य जीवन मिलता है वह भी नमस्कार के फल का एक अल्प अंश मात्र है । और जो सुकुमार सर्व श्रेष्ठ अंग वाली सुंदर चौसठ हजार स्त्रियों वाला महाप्रभावशाली शोभित बत्तीस हजार सामंत राजाओं वाला, श्रेष्ठ नगर समान छियानवें करोड़ गाँव के समूह से अति विस्तार वाला, देव नगर के समान बहत्तर हजार श्रेष्ठ नगरों की संख्या वाला, खेट, कर्बट, मंडब, द्रोण मुख आदि अनेक स्थलों वाला, शोभते, मनोहर, सुंदर रथों के समूह से धैर्य को देनेवाला, शत्रु सैन्य को छेदन करने से अत्यंत गर्विष्ठ पैदल सेना से व्यास, मद झरते गंड स्थल वाला प्रचंड हाथियों के समूह वाला, मन और पवन तुल्य वेग वाला, चपल खूर से भूमितल को उखाड़ने वाले घोड़ों का समूहवाला, संख्या से सोलह हजार यक्षों की रक्षा से व्याप्त, नव निधान और चौदह रत्नों के प्रभाव से सिद्ध होते सर्व प्रयोजन वाला, इसमें जो छह खंड भरतक्षेत्र का स्वामित्व मिलता है, वह भी निश्चय श्रद्धारूपी जल के सिंचन से सर्व प्रकार से वृद्धि होने वाले श्री पंच नमस्कार रूप वृक्ष के ही विशिष्ट फल का विलास है ।।७६६७ ।। और जैसे दो सीप के संपुट में मोती उत्पन्न होते हैं वैसे उज्ज्वल देव दूष्य वस्त्र से आच्छादित सुंदर देव शय्या में उत्पन्न हो और उसके बाद जीव को वहाँ मनोहर शरीर वाला, जावज्जीव सुंदर, यौवन अवस्था वाला, जावज्जीव रोग, जरा, मैल और पसीने रहित निर्मल शरीर वाला, जीवन तक नस, चरबी, हड्डी, मांस, रुधिर 320 For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला आदि शरीर के दुर्गंध से मुक्त, जीवन तक ताजी पुष्प माला और देव दुष्य वस्त्र को धारण करते अच्छी तरह तपा हुआ जातिवंत सुवर्ण और मध्याह्न के सूर्य समान तेजस्वी शरीर की कांति वाला, पंच वर्ण के रत्नों के आभूषण की किरणों से सर्व दिशाओं को चित्रित करते, संपूर्ण गंडस्थल पर लहराते कुंडलों की कांति से देदीप्यमान, तथा मनोहर कंदोरे वाली देवांगनाओं के समूह से मनोहर तथा समग्र ग्रहों के समूह को एक साथ गिराने में, भूतल को घुमाने में, और सारे कुल पर्वतों के समूह को लीलामात्र से चूरण करने में, और मानसरोवर आदि बड़े-बड़े सरोवर, नदियों, द्रह और समुद्रों के जल को प्रबल पवन के समान एक काल में ही संपूर्ण शोषण करने में शक्तिमान, तीनों लोकों को पूर्ण रूप में भर देने के लिए अत्यधिक रूपों को शीघ्र बनाने वाला, तथा शीघ्र केवल परमाणु जैसा छोटा रूप बनाने में समर्थ, और एक हाथ की पाँच अंगुलियों से प्रत्येक के अग्र भाग में एक-एक को एक साथ पाँच मेरु पर्वत को उठाने में समर्थ, अधिक क्या कहें? एक क्षण में ही उपस्थित वस्तु को भी नाश और नाश वस्तु को भी मौजूद दिखाने में और करने में भी समर्थ, तथा नमस्कार करते देव समूह के मस्तक मणि की किरणों की श्रेणि से स्पर्शित चरण वाला. भकटी के इशारे मात्र के आदेश करते ही प्रसन्न होकर संभ्रमपर्वक खड़े होते आभियोगिक देवों के परिवार वाला, इच्छा के साथ में ही अनुकूल विषयों के समूह को सहसा प्राप्त करने वाला, प्रीति रस से युक्त सतत् आनंद करने की एक व्यसनी निर्मल अवधि ज्ञान से और अनिमेष दृष्टि से दृश्यों को देखने वाला तथा समयकाल में उदय को प्राप्त करते सकल शुभकर्म प्रकृतियों वाला इन्द्र महाराज भी देवलोक में जो ऋद्धि से युक्त मनोहर विमानों की श्रेणियों का चिरकाल अस्खलित विस्तार वाला स्वामित्व भोगता है वह भी सद्भावपूर्वक श्री पंच नमस्कार मंत्र की सम्यग् आराधना का अल्प प्रभाव जानना। ऊर्ध्व, अधो और तिर्छालोक रूपी रंग मंडप में द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव के आश्रित आश्चर्यकारक जो कछ भी विशिष्ट अतिशय किसी तरह किसी भी जीव में दिखता है अथवा सुना जाता है वह सभी श्रीनमस्कार मंत्र स्मरण के महिमा से प्रकट होता है, ऐसा जानो। दुःख से पार उतारने वाले, जल में, दुःख से पार कर सके ऐसी अटवी में, दुःख से पार उतरनेवाला विकट पर्वत में अथवा भयंकर श्मशान में अथवा अ समय पर जीव को नमस्कार रक्षक और शरण है। वश करना, स्थान भ्रष्ट करना, तथा स्तम्भित करना, नगर का क्षोभ करवाना या घेराव करना इत्यादि में तथा विविध प्रयोग करने में यह नमस्कार ही समर्थ है। अन्य मंत्रों से प्रारंभ किया हुआ जो कार्य, सम्यक् प्राप्ति उसके फल की भी इसके स्मरण से ही होती है। अथवा अपने मंत्र के स्मरणपूर्वक कार्य प्रारंभ किये हुए की सिद्धि करने वाला, यह श्री पंच नमस्कार के स्मरण का ही प्रभाव है। इसलिए सभी सिद्धियों का और मंगलों के इच्छित आत्मा को नमस्कार का सर्वत्र सदा सम्यक् चिंतन करना चाहिए। सोते, उठते, छींकते, खड़े होते, चलते, टकराते, या गिरते इत्यादि सर्व स्थानों पर निश्चय इस परम मंत्र का प्रयत्नपूर्वक बार-बार स्मरण करना चाहिए। पुण्यानुबंधी पुण्य वाले जिसने इस नमस्कार को प्राप्त किया है उसने नरक और तिर्यंच की गति को अवश्यमेव रोक दिया है। निश्चय ही पुनः वह कभी भी अपयश और नीच गोत्र को प्राप्त नहीं करता और जन्मांतर में भी यह नमस्कार प्राप्त होना उसे दुर्लभ नहीं है। और जो मनुष्य एक लाख नमस्कार मंत्र को अखंड गिनकर श्री जिनेश्वर भगवान की तथा संघ की पूजा करता है वह श्री तीर्थंकर नामकर्म का बंध करता है। और नमस्कार के प्रभाव से अवश्य जन्मांतर में भी जाति, कुल, रूप, आरोग्य और संपत्तियाँ इत्यादि सामग्री श्रेष्ठ मिलती हैं। चित्त से चिंतन किया हुआ, वचन से प्रार्थना की हो और काया से प्रारंभ किया हुआ, तब तक ही सफल नहीं होता कि जब तक नमस्कार मंत्र स्मरण नहीं किया। और इस नमस्कार मंत्र से ही मनुष्य संसार में कदापि नौकर-चाकर, दुर्भागी, दुःखी, नीच कुल में जन्म और विकल इन्द्रियवाला नहीं ___321 For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार होता । परमेष्ठी को भक्तिपूर्वक नमस्कार करने से इस लोक और परलोक में सुखकर होता है तथा यह मंत्र इस लोक, परलोक के दुःखों को चूरण करने में समर्थ है। अधिक क्या कहें? निश्चय जीवों को जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जो इस मंत्र की भक्ति और नमस्कार से प्राप्ति में समर्थ न हो। यदि परम दुर्लभ परमपद मोक्ष सुख भी इस नमस्कार मंत्र से प्राप्त करता है, तो उसके साथ अर्थात् अनाज के साथ घास के समान आनुषंगिक फल सिद्ध होते हैं, इसके बिना अन्य सुख की कौन-सी गिनती है ? जिसने मोक्ष नगर को प्राप्त किया है या प्राप्त करेंगे अथवा वर्तमान काल में प्राप्त करते हैं वह श्री पंच नमस्कार के गुप्त महा सामर्थ्य का योग समझना । दीर्घकाल तप किया हो, चारित्र का पालन किया हो और अति श्रुत का अभ्यास किया हो, फिर भी यदि नमस्कार मंत्र में प्रीति नहीं है तो वह सब निष्फल जानना । । ७७०० ।। 1 चतुरंग सेना का नायक सेनापति जैसे सेना का दीपक रूप प्रकाशमान है वैसे दर्शन, तप, ज्ञान और चारित्र का नायक यह भाव नमस्कार उन गुणों का दीपक समान है। इस जीव ने भूतकाल में भाव नमस्कार बिना निष्फल द्रव्य लिंग (वेश से चारित्र) को अनंत बार स्वीकार किया और छोड़ दिया। इस तरह जानकर हे सुंदर मुनि! आराधना में लगे मन वाला तूं भी प्रयत्नपूर्वक शुभ भावना से इस नमस्कार मंत्र को मन में धारण कर । हे देवानुप्रिय ! तुझे बार-बार इस विषय में सूचित करता हूँ कि -संसार समुद्र को पार उतरने के लिए पुल समान नमस्कार मंत्र धारण करने में शिथिल मत होना। क्योंकि जन्म, जरा और मरण से भयंकर संसार रूपी अरण्य में इस नमस्कार मंत्र को मंद पुण्य वाले प्राप्त नहीं कर सकते हैं। राधा वेध का भी स्पष्ट भेदन हो सकता है, पर्वत को भी मूल से उखड़ सकते हैं और आकाश तल में चल सकते, उड़ सकते हैं, परंतु महामंत्र नमस्कार को प्राप्त करना दुर्लभ है। बुद्धशालीको अन्य सब विषयों में भी शरणभूत होने से इस नमस्कार मंत्र का स्मरण करना चाहिए। और अंतिम समय की आराधना के समय में तो सविशेष स्मरण करना चाहिए यह नमस्कार मंत्र आराधना में विजय ध्वज को ग्रहण करने के लिए हाथ है, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग है तथा दुर्गति के द्वार को बंध करने के लिए अर्गला है। अन्य दिन में भी हमेशा इस नवकार मंत्र को पढ़ना, गिनना, (जपना) और सुनना चाहिए तथा सम्यग् अनुप्रेक्षा करनी चाहिए तो फिर मृत्यु समय में पूछना ही क्या ? जब घर जलता है, तब उसका मालिक अन्य सब छोड़कर आपत्ति से पार उतारने में समर्थ एक ही अमूल्य कीमती रत्न को लेता है, अथवा जैसे युद्ध के भय में सुभट भृकुटी चढ़ाकर वैरी सुभट से रणभूमि में विजय प्राप्त करने में समर्थ एक अमोघ शस्त्र को ग्रहण करता है, वैसे जब अत्यंत अस्वस्थता या अंतिम अवस्था बारह प्रकार के सर्व श्रुतस्कंध ( द्वादशांगी) का सम्यक् चिंतन करने में एकाग्रता की शक्ति वाला नहीं होता है तब उस द्वादशांगी को भी छोड़कर मृत्यु के समय में निश्चय ही वह श्री पंच नमस्कार का ही सम्यक् चिंतन करता हैं, क्योंकि वह द्वादशांगी का रहस्यभूत है । सर्व द्वादशांगी परिणाम विशुद्ध का ही हेतुमात्र है, वह नमस्कार मंत्र परिणाम विशुद्ध होने से नमस्कार मंत्र द्वादशांगी का सारभूत कैसे नहीं हो सकता है? अर्थात् द्वादशांगी का सारभूत नमस्कार है। इसलिए विशुद्ध शुभ लेश्या वाला आत्मा अपने को कृतार्थ मानता, उसमें ही स्थिर चित्तवाला बनकर उस नमस्कार मंत्र का बार-बार सम्यक् स्मरण करता है। वैसे सुभट युद्ध में जय पताका की इच्छा करता है, वैसे अवश्य मृत्यु के समय मोह की जय पताका रूप कान को अमृत तुल्य नमस्कार को कौन बुद्धिमान स्वीकार न करें? जैसे वायु जल के बादल को बिखेर देता है वैसे प्रकृष्ट भाव से परमेष्ठियों को एक बार भी नमस्कार करने से सारे दुःख के समूह नष्ट हो जाते हैं। संविज्ञ मन द्वारा, वचन द्वारा अस्खलित स्पष्ट मनोहर 1. सुचिरं पि तवो तवियं चिन्नं चरणं सुयं च बहु पढियं । जइ ता न नमोक्कारे, रई तओ तं गयं विहलं ||७७००|| 322 For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार नामक आठवाँ द्वार श्रीसंवेगरंगशाला स्वरपूर्वक और काया से पद्मासन में बैठकर तथा हाथ की योग मुद्रावाले आत्मा को स्वयं संपूर्ण नमस्कार मंत्र का सम्यग् जाप करना चाहिए। यदि यह विधि उत्सर्ग विधि है फिर भी बल कम होने से ऐसा करने में समर्थ न हो तो भी उनके नाम अनुसार 'अ-सि-आ-उ-सा' इन पाँच अक्षरों का सम्यग् रूप से मौनपूर्वक भी जाप करना चाहिए। यदि ऐसा भी करने में किसी प्रकार अशक्य हो तो 'ओम्' इतना ही ध्यान करना चाहिए। इस 'ओम्' द्वारा श्री अरिहंत, अशरीरी सिद्ध परमात्मा, आचार्य, उपाध्याय और सर्व मुनिवरों का समावेश हो जाता है। शब्द शास्त्र के जानकार वैयाकरणियों ने उनके नाम में प्रथम प्रथम अक्षरों की संधि करने से यह 'ओम्' या ॐकार को बतलाया है। इसलिए ऐसे ध्यान से अवश्य श्री पंच परमेष्ठियों का ध्यान होता है अथवा जो निश्चय इस ध्यान को भी करने में समर्थ न हो तो उसके पास बैठे हुए कल्याण मित्र साधर्मि बंधुओं के समूह से बुलवाता श्री पंच नमस्कार मंत्र को सुने और हृदय में इस प्रकार से भावों का चिंतन करे कि-यह नमस्कार मंत्र धन की गठरी है, निश्चय किसी दुर्लभ व्यक्ति को प्राप्त होता है, यह इष्ट संयोग हुआ है, और यही परम तत्त्व है। अहो! अवश्य अब मैं इस नमस्कार मंत्र की प्राप्ति से संसार समुद्र के किनारे पहुँचा, नहीं तो कहाँ मैं होता? अथवा कैसे इस तरह नमस्कार मंत्र का सम्यग् योग हुआ है? मैं धन्य हूँ कि-अनादि, अनंत संसार समुद्र में अचिंत्य चिंतामणि यह श्री पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र को प्राप्त किया है। क्या आज मेरे सर्व अंग अमृतरूप बन गये हैं अथवा क्या किसी ने अकाल में भी मुझे संपूर्ण सुखमय बना दिया है। इस तरह परम समता रस की प्राप्ति पूर्वक सुना हुआ नमस्कार मंत्र अमृतधारा के योग से जैसे जहर का नाश होता है, वैसे क्लिष्ट कर्मों का नाश होता है। जिसने मरण काल में इस नमस्कार मंत्र का भावपूर्वक स्मरण किया या सुना है उसने सुख को आमंत्रण दिया है और दुःख को जलांजलि दी है। यह नवकार मंत्र पिता, माता, निष्कारण बंधु, मित्र और परमोपकारी है। यह नमस्कार सर्व श्रेयों का परम श्रेय, सर्व मंगलों का परम मंगल, सर्व पुण्यों का परम पुण्य और सर्व फलों का परम फल है तथा यह नमस्कार मंत्र इस लोकरूपी घर में से परलोक के मार्ग में चलते हुए जीव रूप मुसाफिरों का परम हितकर पाथेय तुल्य है। जैसे-जैसे उसके श्रवण का रस मन में बढ़ता है वैसे-वैसे जल भरे कच्चे मिट्टी के घड़े के समान क्रमशः कर्म की गांठ क्षीण होती है। ज्ञानरूपी अश्व से युक्त श्री पंच नमस्कार रूप सारथि से प्रेरित तप-नियम और संयम के रथ में बैठनेवाले मनुष्य को निर्वृत्ति मोक्ष नगर में पहुँचा देता है। __ जिसके प्रभाव से अग्नि भी शीतल हो जाती है और गंगा नदी उलटे मार्ग में बहने लगती है तो क्या यह नमस्कार मंत्र परमपद मोक्ष नगर में नहीं पहुँचायगा? अवश्यमेव पहुँचायगा। इसलिए आराधनापूर्वक एकाग्र चित्त वाला और विशुद्ध लेश्या वाला तूं ,संसार का उच्छेद करने वाले इस नमस्कार मंत्र के जाप को मत छोड़ना। मरणकाल में इस नमस्कार को अवश्य साधना चाहिए, क्योंकि श्री जिनेश्वर देव ने इसे संसार का उच्छेद करने है। निर्विवाद कर्म का क्षय तथा अवश्य मंगल का आगमन ये सभी श्री पंच नमस्कार करने का सुंदर तात्कालिक फल है। कालान्तर भाविफल तो इस जन्म और अन्य जन्म का, इस तरह दो प्रकार का है, उसमें उभय जन्म में सुखकारी ऐसी सम्यग् अर्थ-काम की प्राप्ति वह इस जन्म का फल है। उसमें भी उसकी (अर्थकाम की) क्लेश बिना प्राप्ति होती है और आरोग्यता पूर्वक उन दोनों को निर्विघ्न भोगने से इस जन्म में सुखकारक है और शास्त्रोक्त विधि से उत्तम स्थान में व्यय करने से परभव में सुखकारक होता है। श्री पंच नमस्कार का अन्य जन्म संबंधी भी फल कहा है। यदि इसी जन्म में ही किसी कारण से सिद्धि में गमन न हो, फिर एक बार भी नमस्कार मंत्र को प्राप्त किया हुआ और निश्चय उसकी विराधना नहीं करने वाला, अतुल पुण्य 323 For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच नमस्कार वामक आठवाँ द्वार-श्रावक पुत्र पर एटांत-श्राविका की क्या से शोभित उत्तम देव तथा मनुष्य के अंदर महान् उत्तम कुल में जन्म लेकर अंत में सर्व कर्मों का क्षय करके सिद्धि पद को प्राप्त करता है। तथा इस संसार में नमस्कार का प्रथम अक्षर 'न' की वास्तविक प्राप्ति क्षण क्षण में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के अनंत पुद्गलों की निर्जरा होने से होती है तो फिर शेष अक्षरों की प्राप्ति तो प्रत्येक अक्षर से अनंत गुणी विशुद्धि होने से होती है। इस तरह जिसका एक-एक अक्षर भी अत्यंत कर्म क्षय करने में समर्थ है, वह नमस्कार वांछित फल को देनेवाला कैसे नहीं होता है? और जो पूर्व में कहा है कि इस जन्म में अर्थ और काम की प्राप्ति होती है। उसमें मृतक के व्यतिकर से धन प्राप्त करने वाले श्रावक पुत्र का अर्थ प्राप्ति के विषय में दृष्टांतभूत है।।७७४७।। वह इस प्रकार : श्रावक पुत्र का दृष्टांत एक बड़े नगर के अंदर यौवन से उन्मत्त वेश्या और जुएँ का व्यसनी तथा प्रमाद से अत्यंत घिरा हुआ एक श्रावक पुत्र रहता था। बहुत काल तक अनेक प्रकार से समझाने पर भी उसने धर्म का स्वीकार नहीं किया और निरंकुश हाथी के समान वह स्वछंद विलास करता था। फिर भी मरते समय पिता ने करुणा से बुलाकर उसे कहा कि-हे पुत्र! यद्यपि तूं अत्यंत प्रमादी है, फिर भी समस्त वस्तुओं के साधने में समर्थ इस श्री पंच नमस्कार मंत्र को तूं याद रखना और हमेशा दुःखी अवस्था में इस श्रेष्ठ मंत्र का स्मरण करना। इसके प्रभाव से भूत, वेताल उपद्रव नहीं करते हैं और शेष क्षुद्र उपद्रवों का समूह भी अवश्य नाश होता है। इस तरह पिता के वचन आग्रह से उसने 'तहत्ति' कहकर स्वीकार किया, बाद में पिता मर गया और धन का समूह नष्ट हो गया, तब स्वछंद भ्रमण करने के स्वभाव वाले उसने एक त्रिदंडी के साथ में मित्रता की अथवा कुल मर्यादा छोड़ने वाले पुरुष के लिए यह क्या है? एक समय त्रिदंडी ने विश्वासपूर्वक उसे कहा कि-हे भद्र! यदि तूं काली चतुर्दशी की रात्री में अखंड श्रेष्ठ अंग वाले मृतक शरीर को लेकर आये तो दिव्य मंत्र शक्ति से साधना करके तेरी दरिद्रता को खत्म कर दूँ। इस बात को श्रावक पुत्र ने स्वीकार किया और उसके कहे समयानुसार निर्जन श्मशान प्रदेश में उसी तरह का मृतक लाकर उसे दिया। फिर उस शब के हाथ में तलवार देकर मंडलाकार बनाकर उसके ऊपर शब रखा और उसके सामने ही श्रावक पुत्र को बैठाया। फिर उस त्रिदंडी ने जोर से विद्या का जाप प्रारंभ किया और विद्या के आवेश से शब उठने लगा, इससे श्रावक पुत्र डरने लगा, अतः वह शीघ्र पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करने लगा, और इसके सामर्थ्य से शब वापिस जमीन के ऊपर गिरा। पुनः त्रिदंडी के दृढ़ विद्या जाप से शब उठा और श्रावक पत्र के नमस्कार मंत्र के प्रभाव से नीचा गिरा, तब त्रिदंडी ने कहा कि हे श्रावक पत्र! तं कुछ भी मंत्रादि को जानता है? उसने कहा कि-मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ फिर ध्यान के प्रकर्ष में चढ़ते त्रिदंडी ने पुनः अपनी श्रेष्ठ विद्या का जाप करने लगा। तब पंच नमस्कार से रक्षित श्रावक पुत्र को वह शब खतम करने में असमर्थ बना और उसने शीघ्र ही त्रिदंडी के दो टुकड़े कर दिये। खड्ग के प्रहार के प्रभाव से त्रिदंडी का शब स्वर्ण पुरुष बना, श्रावक पुत्र ने उसे देखा और प्रसन्न हुआ, उसके अंग उपांग को काटकर अपने घर में लेकर रखा, और भंडार भर दिया। इस तरह श्री पंच परमेष्ठि मंत्र के प्रभाव से धनाढ्य बना। काम के विषय में मिथ्यादृष्टि पति की श्राविका पत्नी दृष्टांत रूप है कि जिस नमस्कार मंत्र के प्रभाव से सर्प भी पुष्पमाला बन गयी ।।७७६७।। वह इस तरह श्राविका की कथा एक नगर के बाहर के विभाग में एक मिथ्या दृष्टि गृहपति रहता था और उसे धर्म में अत्यंत रागी श्राविका पत्नी थी। उसके ऊपर दूसरी पत्नी से विवाह करने की उसकी भावना थी, परंतु 'एक पत्नी होने से 324 For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाथि लाभ दार-पंच रजस्वार राजवा आठवाँ द्वार-श्राविका की कथा-हुंजिका यक्ष का प्रबंध 'श्रीसंवेगरंगशाला दूसरी पत्नी नहीं मिलेगी इसलिए इस पत्नी को किसी तरह खतम करना चाहिए' ऐसा सोचकर एक दिन काले सर्प को घड़े में बंदकर घर में रख दिया फिर भोजनकर उसने श्राविका से कहा कि-हे भद्रे! उस स्थान पर घड़े के अंदर पुष्प की माला है वह मुझे लाकर दे। पति की आज्ञा से उसने घर में प्रवेश किया और उसमें अंधकार होने से श्री पंच नमस्कार का स्मरण करते उसने पुष्पमाला के लिए उस घड़े में हाथ डाला, उसके पहले ही एक देवी ने सर्प का अपहरण किया और अति सुगंधमय विकसित श्वेत पुष्पों की श्रेष्ठ माला उस स्थान पर रख दी। श्राविका ने उसे लेकर पति को अर्पण की, इससे घबराकर वहाँ जाकर उसने घड़ा देखा, परंतु सर्प को नहीं देखा तब 'यह महा प्रभावशाली है' ऐसा मानकर पैरों में गिरकर अपनी सारी बात कही और क्षमा याचनाकर श्राविका को अपने घर के स्वामित्व पद पर स्थापन किया। इस तरह इस लोक में नमस्कार मंत्र अर्थ काम का साधक है, परलोक में भी यह नमस्कार मंत्र हुंडिका यक्ष के समान सुखदायक होता है ।।७७७६ ।। वह इस प्रकार : इंडिका यक्ष का प्रबंध मथुरा नगरी में लोगों के घरों में हमेशा चोरी करने वाला हुंडिका नाम का चोर था। उसे कोतवाल ने पकड़ा और गधे के ऊपर बैठाकर नगर में घुमाया, फिर उसे शूली पर चढ़ाया, और उससे उसका शरीर अति भेदन छेदन होने लगा। तृषा से पीड़ित शरीर वाला दुःख से अत्यंत पीड़ित होते उसने जिनदत्त नामक उत्तम श्रावक को उस प्रदेश में जाते देखकर कहा कि-भो! महायश! तं दःखियों के प्रति करुणा करने वाला उत्तम श्रावक है तो मैं अति प्यासा हूँ मुझे कहीं से भी जल्दी जल लाकर दे। श्रावक ने कहा कि जब तक मैं तेरे लिए जल को लाता हूँ तब तक इस नमस्कार मंत्र का बार-बार चिंतन कर। हे भद्र! यदि तूं इसको भूल जायगा तो मैं लाया हुआ पानी तुझे नहीं दूंगा। ऐसा कहने से जल की लोलुपता से वह दृढ़तापूर्वक नमस्कार मंत्र का स्मरण करने लगा। परंतु जिनदत्त श्रावक घर से पानी लेकर जितने में आता है उतने में नमस्कार मंत्र का उच्चारण करते वह मर गया। और नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह यक्ष रूप में उत्पन्न हुआ। ___ इधर जिनदत्त चोर के लिए भोजन पानी लाते देखकर राज पुरुषों ने उसे पकड़ लिया और राजा के सामने उपस्थित किया। राजा ने कहा कि चोर की सहायता देने वाला चोर के समान दोषित होता है इसलिए इसे भी शूली पर चढ़ाओ। राजा की आज्ञा से कोतवाल जिनदत्त को वध स्थान पर ले गये, उस समय हुंडिका यक्ष ने अवधि ज्ञान का उपयोग किया, इससे शूली पर अपने शरीर को भेदन किये और जिनदत्त श्रावक को वध के लिए लाये हुए देखकर बड़ा क्रोधित हुआ और उस नगर के ऊपर पर्वत को उठाकर बोला कि अरे! देव समान इस श्रावक से क्षमा याचना कर विदा करो, अन्यथा इस पर्वत से तुम सब को चकनाचूर कर दूंगा। इससे भयभीत हुए राजा ने जिनदत्त से क्षमा याचना कर छोड़ दिया। इस तरह हुंडिक चोर के समान नमस्कार मंत्र परलोक में सुख को देने वाला है। इसी तरह उभय लोक में इस नमस्कार को सुख का मूल जानकर आराधना के अभिलाषी हे क्षपक मुनिवर्य! तूं हमेशा इसका स्मरण कर। क्योंकि पंच परमेष्ठियों को भावपूर्वक नमस्कार करने से जीव का हजारों जन्म मरण से बचाव होता है और बोधि बीज लाभ की प्राप्ति का कारण होता है। संसार का क्षय करते धन्यात्मा के हृदय को बार-बार प्रसन्न करते यह पंच परमेष्ठि नमस्कार दुर्ध्यान को रोकने वाला होता है। इस तरह पाँचों को नमस्कार निश्चय से महान् प्रयोजनवाला कहा है। इसलिए जब मृत्यु पास में आती है तब क्षण-क्षण में उसे बहुत बार स्मरण करना चाहिए। इन पाँचों का नमस्कार सर्व पापों का नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल है। इस प्रकार यह पंच नमस्कार नाम का आठवाँ अंतर द्वार कहा है, अब सम्यग्ज्ञान का उपयोग नामक नौवाँ अंतर द्वार कहते हैं ।।७७९५ ।। 325 For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-सम्यग्ज्ञानोपयोग नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला सम्यग्ज्ञानोपयोग नामक नौवाँ द्वार : - हे क्षपक मुनिराज ! तूं प्रमाद को मूल में से उखाड़कर ज्ञान के उपयोग वाला बन ! क्योंकि - ज्ञान जीवलोक (सर्व जीवों) का सर्व विघ्न बिना - रोग रहित चक्षु है, प्रकृष्ट दीपक है, सूर्य है और तीन भवन रूपी तमिस्रा गुफा में श्रेष्ठ प्रकाश करने वाला काकिणी रत्न है। यदि जीव लोक में जीवों को ज्ञान चक्षु न हो, तो मोक्ष मार्ग संबंधी सम्यक् प्रवृत्ति नहीं होती अथवा कुबोध रूपी तितली को नाश करने वाला ज्ञान दीपक बिना मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह से घिरा हुआ बिचारा यह जगत कैसा दुःखी होता? तथा यह अंधकार - अज्ञान का नाशक, सम्यग् ज्ञान रूपी सूर्य के प्रभाव से संसार रूपी सरोवर में विवेक रूपी सुंदर कमल का विकासक है ।। ७८०० ।। यदि इस सम्यग्ज्ञान रूपी काकिणी रत्न का प्रयोग न हो तो अज्ञान रूपी प्रचंड अंधकार से भयंकर इन तीन भवन रूपी तमिस्रा गुफा में से श्री जिनेश्वर रूपी चक्रवर्ती के पीछे चलने वाला यह बिचारा मूढ़ भव्यात्मा रूपी सैन्य अस्खलित रूप से प्रस्थान करते किस तरह बाहर निकल सकता है! श्री जिनशासन से संस्कारित बुद्धिवाला और श्रुतज्ञान रूपी समृद्धिशाली ज्ञानी इस जीवलोक में श्रुतज्ञान से देव और असुर से युक्त मनुष्यों से युक्त, गरूड़ सहित, नाग सहित, तथा गंधर्व व्यंतर सहित ऊर्ध्व, अधो और तिछे लोक तथा जीव कर्म बंध से युक्त, गति और अगति आदि सबको जानता है। जैसे धागा युक्त सुई कचरे में गिरी हुई भी गुम नहीं होती वैसे सूत्र-अर्थात् श्रुतज्ञान सहित जीव भी संसार में परिभ्रमण नहीं करता । जैसे कचरे के ढेर में पड़ी हुई धागे बिना की सुई खो जाती है वैसे संसार रूपी अटवी में ज्ञान रहित पुरुष भी खो जाता है, अर्थात् संसार में भटकता है। जैसे निपुण वैद्य वेदकशास्त्र से रोग की चिकित्सा करना जानता है वैसे आगम से ज्ञानी चारित्र की शुद्धि को ज्ञान द्वारा करता है। जैसे वेदकशास्त्र के ज्ञान रहित वैद्य व्याधि की चिकित्सा नहीं जानता है वैसे आगम रहित पुरुष चारित्र की शुद्धि को नहीं जानता है। इसलिए मोक्ष के अभिलाषी अप्रमत्त पुरुषों को पहले पूर्व पुरुषों द्वारा कथित आगम में अप्रमत्त रूप से उद्यम करना चाहिए। बुद्धि हो अथवा न हो, फिर भी ज्ञान की इच्छा वाले को उद्यम करना चाहिए क्योंकि ज्ञानाभ्यास से वह बुद्धि कर्म के क्षयोपशम में साध्य हो जाती है। यदि एक दिन में एक पद को, अथवा पक्ष में आधा श्लोक को भी याद कर सकता है, फिर भी ज्ञान के अभ्यास वाला तूं उद्यम को मत छोड़ना । आश्चर्य तो देख! स्थिर और बलवान् पाषाण को भी अस्थिर जल की धारा खत्म करती है। शीतल और कोमल थोड़ा-थोड़ा भी हमेशा बहने वाला और पर्वत के संयोग को नहीं छोड़नेवाला जल पर्वत का भी भेदन कर देता है। बहुत भी अपरिमित - परावर्तन रहित और अशुद्ध, स्खलना और शंका वाले श्रुतज्ञान द्वारा मनुष्य जानकार ज्ञानी पुरुषों का हँसी का पात्र बनता है, और थोड़ा भी अस्खलित, शुद्ध एवं स्थिर परिचित स्वाध्याय से अर्थ का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य अलज्जित और अनाकुल बनता है। जो गंगा नदी की रेती का माप करने और जो दो हाथ के चुल्लू से समुद्र के जल को उलेचने में समर्थ होते हैं, वे ज्ञान के गुणों को माप सकते हैं। पाप से निवृत्ति, कुशल धर्म में प्रवृत्ति और विनय की प्राप्ति, ये तीनों ज्ञान के मुख्य फल हैं। संयम योग की आराधना और श्री वर्धमान प्रभु की आज्ञा, ये दोनों ज्ञान के बल से जान सकते हैं, इसलिए ज्ञान पढ़ना ही चाहिए। मोक्ष का सरल मार्ग जिसने प्रकट किया है, जो ज्ञान में उद्यमी है और जो ज्ञान योग से युक्त है, उन ज्ञानियों की निर्जरा का माप कौन कर सकता है? अल्पज्ञानी - अर्थात् अगीतार्थ को, दो, तीन, चार और पाँच उपवास से जो शुद्धि होती है, उससे अनेक गुणों की शुद्धि हमेशा खानेवाले ज्ञानी गीतार्थ को होती है। एक दिन में तपस्वी हो सकता है। इसमें कोई संशय नहीं है, परंतु अति उद्यम वाला भी व्यक्ति एक दिन में श्रुतधर नहीं हो सकता है। अनेक 326 For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-सम्यग्ज्ञानोपयोग नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला करोड़ वर्ष तक नारक जीव जिस कर्म को खत्म करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्ति से गुप्त ज्ञानी पुरुष एक श्वास मात्र में खत्म कर देते हैं। ज्ञान से तीन जगत में रहे चराचर सर्व भावों को जानने वाले हो सकते हैं, इसलिए बुद्धिमान को प्रयत्नपूर्वक ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। ज्ञान को पढ़ें, ज्ञान को गुणें अर्थात् ज्ञान का चिंतन करें, ज्ञान से कार्य करें, इस तरह ज्ञान में तन्मय रहने वाला ज्ञानी संसार समुद्र से पार होता है। यदि निश्चय जीव की परम विशुद्धि को जानने की अभिलाषा है तो मनुष्य को अति दुर्लभ, बोधि (सम्यक्त्व) को प्राप्त करने के लिए निश्चय ही ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। श्रुत ज्ञान को सर्व बल से, सर्व प्रयत्न से पढ़ना चाहिए और तप तो बल के अनुसार यथाशक्ति करना चाहिए। क्योंकि-सूत्र विरुद्ध तप करने से गुण कारक नहीं होता है। जब मरण नजदीक आता है तब अत्यंत समर्थ चित्त वाला भी बारह प्रकार के श्रुत स्कंध (द्वादशांगी) का सर्व से अनुचिंतन नहीं कर सकता है, इसलिए श्री जिनेश्वर के सिद्धांत रूप एक पद में संयोग (अभेद) को करता है, वह पुरुष उस अध्यात्म योग से अर्थात् आत्म रमणता से मोह जाल का छेदन करता है। जो कोई मोक्ष साधक व्यापार में लगा रहता है उस कारण से उसका ज्ञान स्थायी बना रहता है, क्योंकि उस ज्ञान से वह वीतरागता को प्राप्त करता है अर्थात जितना ज्ञान का अभ्यास-उद्यम करता है उतना ही ज्ञान आत्मा का बनता है और उस एक पद से मुक्ति होती है ।।७८२९।। जो श्रुतज्ञान के लिए अल्प आहार पानी लेता है (अर्थात् ऊणोदरी करता है) उसको तपस्वी जानना, श्रुतज्ञान रहित जीव तप करता है वह बुखार से पीड़ित भूख को सहन करता है। अर्थात् ज्ञानी अल्प भोजन करने वाला तपस्वी कहलाता है और उस अल्प भोजन से उसे तृप्ति होती है, जब अज्ञानी का महातप भी भूखे रहने के समान कष्टकारी बनता है, ज्ञान के प्रभाव से त्याग करने योग्य का त्याग होता है और करने योग्य किया जाता है। ज्ञानी कर्त्तव्य को करना और अकार्य को छोड़ना जानता है। ज्ञान सहित चारित्र निश्चय सैंकड़ों गुणों को प्राप्त कराने वाला होता है। श्री जिनेश्वर भगवान की आज्ञा है कि ज्ञान से रहित चारित्र नहीं है। जो ज्ञान है. वह मोक्ष साधना में मुख्य हेतु है, जो ज्ञान का फल है वह शासन का सार है और जो शासन का सार है वही परमार्थ है, ऐसा जानना। इस परमार्थ रूप तत्त्व को प्राप्त करनेवाला जीव के बंध और मोक्ष को जानता है और बंध मोक्ष को जानकर अनेक भव संचित कर्मों का क्षय करता है। अन्यदर्शनीय अर्थात् मिथ्यात्वी को ज्ञान नहीं होता है, अज्ञानी को चारित्र नहीं है और अगुणी को मोक्ष नहीं है, इस तरह अज्ञानी को मोक्ष नहीं है। सर्व विषय में बारबार जानने योग्य उस बहुश्रुत का कल्याण हो कि श्री जिनेश्वर देव सिद्ध गति प्राप्त करने पर भी वे ज्ञान से जगत में प्रकाश करते हैं। इस जगत में मनुष्य चंद्र के समान बहुश्रुत के मुख का जो दर्शन करता है, इससे अति श्रेष्ठ, अथवा आश्चर्यकारी या सुंदरतर और क्या है? चंद्र में से किरण निकलती है वैसे बहुश्रुत के मुख में से श्री जिनवचन निकलते हैं, इसे सुनकर मनुष्य संसार अटवी से पार हो जाते हैं। जो संपूर्ण चौदह पूर्वी, अवधि ज्ञानी और केवल ज्ञानी है, उन लोकोत्तम पुरुषों का ही ज्ञान निश्चय ज्ञान है। अति मूढ़ अनेक लोगों में भी एक ही जो श्रुत-शीलयुक्त हो वह श्रेष्ठ है, इसलिए प्रवचन-(संघ) में श्रुतशील रहित का सन्मान न करें। इस कारण से प्रमाद को छोड़कर अप्रमत्त रूप श्रुत में प्रयत्न करना योग्य है। क्योंकि इसके द्वारा स्व और पर को भी दुःख समुद्र में से पार उतारते हैं। ज्ञानोपयोग से रहित पुरुष अपने चित्त को वश करने के लिए शक्तिमान नहीं होता। उन्मत्त हाथी को जैसे अंकुश वश करता है, वैसे उन्मत्त चित्त को वश करने में ज्ञान अंकुशभूत है। जैसे अच्छी तरह से प्रयोग की हुई विद्या पिशाच को पुरुषाधीन करती है, वैसे 1. दढमूढम (प)हाणम्मि वि, वरमेगो वि सुयसीलसंपन्नो । मा हु सुयसीलविगलं काहिसि माणं पवयणम्मि ।।७८४०।। 327 For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-सज्यग्ज्ञानोपयोग नानक नौवाँ द्वार-यर साधु का प्रबंध ज्ञान का अच्छी तरह उपयोग करे तो हृदय रूपी पिशाच को वश करता है। जैसे विधिपूर्वक मंत्र का प्रयोग करने से काला नाग शांत होता है वैसे अच्छी तरह उपयोगपूर्वक ज्ञान द्वारा हृदय रूपी काला नाग उपशांत होता है। मदोन्मत्त जंगली हाथी को भी जैसे रस्सी से बाँध सकते हैं वैसे यहाँ पर ज्ञान रूपी रस्सी द्वारा मन रूपी हाथी को बाँध सकते हैं। जैसे बंदर रस्सी के बंधन बिना क्षण भर भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता, वैसे ज्ञान बिना मन एक क्षण भी मध्यस्थ-समभाव वाला स्थिर नहीं होता। इसलिए उस अति चपल मनरूपी बंदर को श्री जिन उपदेश द्वारा सूत्र से (श्रुतज्ञान से) बाँधकर शुभध्यान में क्रीड़ा करानी चाहिए। इससे राधावेध करने वाले को आठ चक्रों में उपयोग लगाने के समान क्षपक मुनि को भी सदा ज्ञानोपयोग विशेषतया कहा है। विशुद्ध लेश्या वाले जिसके हृदय में ज्ञान रूपी प्रदीप प्रकाश करता है उसे श्री जिन कथित मोक्ष मार्ग में चारित्र धन लूटने का भय नहीं होता है। ज्ञान प्रकाश बिना जो मोक्ष मार्ग में चलने की इच्छा करता है, वह बिचारा जन्मांध भयंकर अटवी में जाने की इच्छा करता है, उसके समान जानना। यदि खंडित-भिन्न-भिन्न पद वाले श्लोकों ने भी यत्र नामक साधु को मरण से बचाया, तो श्री जिन कथित सूत्र जीव का संसार समुद्र से रक्षक क्यों नहीं हो सकता है? ।।७८५१ ।। अर्थात् इससे अवश्यमेव संसार समुद्र से पार हो सकता है, उसकी कथा इस प्रकार है : यव साधु का प्रबंध उज्जैन नगर में अनिल महाराजा का पुत्र यव नाम का पुत्र था, उसका गर्दभ नामक पुत्र परम स्नेह पात्र था। वह युवराज था और संपूर्ण राज्य भार का चिंतन करने वाला एवं सर्व कार्यों में विश्वासपात्र दीर्घदृषि (दीर्घपृष्ठ) नाम का मंत्री था। और अत्यंत रूप से शोभित नवयौवन से खिले हुए सुंदर अंगवाली अडोल्लिका नाम की यवराज की पुत्री थी, जो गर्दभ युवराज की बहन थी। एक समय उसे देखकर युवराज काम से पीड़ित हुआ और उसकी प्राप्ति नहीं होने से प्रतिदिन दुर्बल होने लगा। एक दिन मंत्री ने पूछा कि-तुम दुर्बल क्यों होते जा रहे हो? अत्यंत आग्रहपूर्वक पूछने पर उसने एकांत में कारण बतलाया। तब मंत्री ने कहा कि-हे कुमार! कोई नहीं जान सके, इस प्रकार तूं उसे भोयरें में छुपाकर विषय सुख का भोग कर! संताप क्या नहीं करता है? ऐसा करने से लोग भी जानेंगे कि-निश्चय ही किसी ने इसका हरण किया है। मूढ़ कुमार ने वह स्वीकार किया और उसी तरह उसने किया। यह बात जानकर यवराज को गाढ़ निर्वेद (वैराग्य) उत्पन्न हुआ और पुत्र को राज्य पर स्थापन कर सद्गुरु के पास दीक्षा अंगीकार की। परंतु बार-बार कहने पर भी वह यव राजर्षि पढ़ने में विशेष उद्यम नहीं करते थे और पुत्र के राग से बार-बार उज्जैनी में आते थे। एक समय उज्जैन की ओर आते उसने जौ के क्षेत्र की रक्षा में उद्यमी क्षेत्र के मालिक ने अति गुप्त रूप में इधर-उधर छुपते गधे को बड़े आवाज से स्पष्ट अर्थवाले रटे हुए श्लोक को बोलते हुए इस प्रकार सुना : आधावसि पधावसि, ममं चेव निरिक्खसि। लक्खितो ते मए भावो, जवं पत्थेसि गद्दहा ।। अर्थात्-सामने आता है, पीछे भागता है और मुझे जो देखता है, इसलिए हे गधे! मैं तेरे भाव को जानता हूँ कि-तूं जौं (जव) को चाहता है। फिर कुतूहल से उस श्लोक को याद करके वह साधु आगे चलने लगा, वहाँ एक स्थान पर खेलते लड़कों ने गिल्ली फैकी, वह एक खड्डे में कहीं गिर पड़ी, और प्रयत्नपूर्वक लड़के ने सर्वत्र खोज करने पर भी गिल्ली जब नहीं मिली तब उसे खड्डे में देखकर एक लड़के ने इस प्रकार कहा : इओ गया तीओ गया, मग्गिज्जंती न दीसइ । अहमेयं वियाणामि, बिले पड़िया अडोल्लिया ।। 328 For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाअ द्वार-यव साधु का प्रबंध-पंच महाव्रत रक्षण वामक दसवाँ द्वार श्रीसंवेगरंगशाला अर्थात्-इधर गई, उधर गई, खोज करने पर भी नहीं मिली, मैं इसे जानता हूँ कि-गिल्ली खड्डे में गिरी है। इस श्लोक को भी सुनकर मुनि ने कुतूहल से अच्छी तरह याद कर लिया, फिर वह मुनि उज्जैनी में पहुंचे और वहाँ कुम्हार के घर रहे। वहाँ पर भी वह कुम्हार इधर-उधर भागते भयभीत चूहे को देखकर इस तरह का श्लोक बोला :सुकुमालया, भद्दलया, रत्ति हिंडणसीलया । दीहपिट्ठस्स बीहेहि, नत्थि ते ममओ भयं ।।७८७० ।। अर्थात्-सुकुमार, भद्रक रात्री को घूमने के स्वभाव वाले, हे चूहे! तूं सर्प से चाहे डर। परंतु मेरे से तुझे भय नहीं है। इस श्लोक को भी राजर्षि यव मुनि ने याद कर लिया और इन तीनों श्लोक का विचार करते वह धर्मकृत्य में तत्पर रहने लगा। केवल कुछ पूर्व वैर को धारण करने वाला दीर्घपृष्ट मंत्री ने उस स्थान पर गुप्त रूप में विविध प्रकार के शस्त्रों को छुपाकर राजा को कहा कि-साधु जीवन से थका हुआ आपका पिता राज्य लेने के लिए यहाँ आये हैं, यदि मेरे ऊपर विश्वास न हो तो उनके स्थान को देखो। उसके बाद विविध प्रकार के शस्त्र छुपाये हुए उन्हें दिखाये और राजा ने उन शस्त्रों को उसी तरह देखा। उसके बाद राज्य के अपहरण से डरा हुआ राजा लोकापवाद से बचने के लिए रात्री के समय दीर्घपृष्ट मंत्री के साथ काली कांति की श्रेणि से विकराल तलवार को लेकर कोई नहीं जाने इस तरह साधु को मारने के लिए कुम्हार के घर गया। उस समय मुनि ने किसी कारण वह प्रथम श्लोक कहा। इससे राजा ने विचार किया कि-निश्चय ही अतिशय युक्त इस मुनि ने मुझे जान लिया है। फिर मुनि ने दूसरा श्लोक कहा, तब पुनः उसे सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ कि-अहो! बहन का वृत्तांत भी इसने किस तरह जाना? तब मनि ने तीसरा श्लोक का उच्चारण किया. इस श्लोक को सनने से मंत्री के प्रति रोष बढ़ गया और राजा विचार करने लगा कि राज्य के त्यागी मेरे पिता पुनः राज्य लेने की कैसे इच्छा करेंगे? केवल यह पापी मंत्री मेरा नाश करने के लिए इस तरह प्रयत्न करता है। इससे इस दुष्ट को ही मार दूं। ऐसा विचारकर उसके मस्तक का छेदनकर राजा ने साधु को अपना सारा वृत्तांत निवेदन किया। यह सुनकर श्रुत पढ़ने में उद्यमशील बनें और वे मुनि विचार करने लगे कि-मनुष्य को किसी प्रकार का भी अध्ययन करना चाहिए। हे आत्मन्! तूंने यदि असंबंध वाले भिन्न-भिन्न श्लोक द्वारा भी अपनी आत्मा का रक्षण किया है। इस कारण से ही पूर्व में मुझे गुरुदेव पढ़ने के लिए समझाते थे परंतु मैंने अज्ञानता के कारण उस समय थोड़ा भी अध्ययन नहीं किया। यदि मूढ़ लोगों का कहा हुआ पढ़ा हुआ ज्ञान इस प्रकार फलदायक बनता है तो श्री जिनेश्वर भगवंत कथित ज्ञान को पढ़ने से वह महाफलदायक कैसे नहीं बनें? ऐसा समझकर वह गुरु के पास गया और दुर्विनय की क्षमा याचनाकर प्रयत्नपूर्वक श्रुत ज्ञान पढ़ने लगा। इस प्रकार यव मुनि की प्राण और संयम की रक्षा हई, तथा गर्दभ राजा ने पिता को नहीं मारने से कीर्ति और सदगति को प्राप्त किया। इस तरह सामान्य श्रुत के भी प्रभाव को जानकर हे क्षपक मुनि! तूं त्रिलोक के नाथ श्री जिनेश्वर परमात्मा के कथित श्रुत ज्ञान में सर्व प्रकार से आदरमान कर! इस प्रकार सम्यग् ज्ञानोपयोग नाम का नौवाँ अंतर द्वार कहा। अब पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार कहते हैं ।।७८८८।। दसवाँ पंच महाव्रत रक्षण द्वार :सम्यग् ज्ञान उपयोग का श्रेष्ठ फल व्रत रक्षा है और निर्वाण नगर की ओर ले जाने के लिए मार्ग में रथ - 329 For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार तुल्य है उन व्रतों में प्रथम व्रत वध त्याग रूप अहिंसा, दूसरा व्रत मृषा विरमण, तीसरा व्रत अस्तेय (अचौर्य), चौथा व्रत मैथुन से निवृत्ति रूप ब्रह्मचर्य पालन और पाँचवाँ व्रत अपरिग्रह है। इसे अनुक्रम से कहते हैं : (2) अहिंसा व्रत :- जीव के भेदों को जानकर जावज्जीव मन. वचन. काया रूप योग से छह काय जीव के वध का सम्यग् रूप से त्याग कर। जीव के भेद इस प्रकार हैं। पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु इन चार के दो-दो भेद हैं, सूक्ष्म और बादर और वनस्पति साधारण तथा प्रत्येक इस तरह दो प्रकार की होती है। उसमें साधारण सूक्ष्म और बादर दो प्रकार से जानना। इस तरह ग्यारह भेद हुए, उसके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सब मिलकर स्थावर के बाईस भेद होते हैं, दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकार इस तरह कुल पाँच भेद के पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से त्रस जीव दस प्रकार के जानना। इत्यादि भेद वाले सर्व जीव में तत्त्व को जान, सर्वादर से उपयुक्त तूं सदा अपने आत्मा के समान मानकर दया कर। वह इस प्रकार से निश्चय ही सभी जीव जीने की इच्छा करते हैं, मरने की इच्छा नहीं करते हैं, इसलिए धीर पुरुष भयंकर हिंसा का हमेशा त्याग करते हैं। भूख प्यास आदि से अति पीड़ित भी तूं स्वप्न में भी कभी भी जीवों का घात करके प्रतिकार मत करना। रति, अरति, हर्ष, भय, उत्सुकता, दीनता आदि से युक्त भी तूं भोग-परिभोग के लिए जीव वध का विस्तार मत करना। तीन जगत की ऋद्धि और प्राण-इन दो में से तूं किसी की एक का वरदान माँग। ऐसा देवता कहे तो अपने प्राणों को छोड़कर तीन जगत की ऋद्धि के वरदान की कौन याचना करे? इस तरह जीव के जीवन की कीमत तीन जगत की ऋद्धि से अधिक है उसकी समानता नहीं हो सकती है इसलिए वह जीवन तीन जगत की प्राप्ति से भी दुर्लभ और सदा सर्व को प्रिय है।।७९०० ।। जैसे मधुमक्खी थोड़ा-थोड़ा संचय कर बहुत मध को एकत्रित करती है, वैसे अल्प-अल्प करते क्रमशः तीन जगत का सारभूत महान् संयम को प्राप्त कर हिंसा रूपी महान घड़ों से अब उसका त्याग नहीं करना। जैसे अणु अथवा परमाणु से कोई छोटा नहीं है और आकाश से कोई बड़ा नहीं है, इस प्रकार जीव रक्षा के समान अन्य कोई श्रेष्ठव्रत नहीं है। तथा जैसे सर्व लोक में और पर्वतों में मेरु गिरि ऊँचा है वैसे सदाचारों में और व्रतों में अहिंसा को अति महान् समझना। जैसे आकाश का आधार लोक है और भूमि का आधार द्वीप-समुद्र है वैसे अहिंसा का आधार तप, दान और शील जानना। क्योंकि जीवलोक में विषय सुख जीव वध के बिना नहीं है इसलिए विषय से विमुख जीव को ही जीवदया महाव्रत होता है। विषय संग के त्यागी प्रासुक आहार-पानी के भोगी, और मन, वचन, काया से गुप्त आत्मा में शुद्ध अहिंसा व्रत होता है। जैसे प्रयत्न करने पर भी मूल के बिना चक्र में आरा स्थिर नहीं रहता है, और आरा बिना जैसे मूल भी अपने कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता, वैसे अहिंसा बिना शेष गुण अपने स्थान का आधार भूत नहीं होता है और उस गुण से रहित अहिंसा भी स्व कार्य की सिद्धि नहीं कर सकती। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और रात्री भोजन का त्याग तथा दीक्षा आदि स्वीकार करना ये सब अहिंसा के रक्षण के लिए हैं। क्योंकि असत्य बोलने आदि से दूसरे को कठोर दुःख होता है इसलिए उन सबका त्याग करना वही अहिंसा गुण के श्रेष्ठ आधार भूत है। हिंसा का व्यसनी राक्षस के समान जीवों को उद्वेग करता है, एवं सगे संबंधी जन भी हिंसक मनुष्य पर विश्वास नहीं करते हैं। हिंसा जीव की और अजीव की दो प्रकार की होती है। उसमें जीव की हिंसा एक सौ आठ प्रकार की है और अजीव की हिंसा ग्यारह प्रकार की है। जीव हिंसा तीन योग से होती है। वह चार कषाय द्वारा, करना, करवाना और अनुमोदन द्वारा तथा संकल्प समारंभ और आरंभ द्वारा परस्पर गुणा करने से ३४४४३४३=१०८ भेद होते हैं। उसमें संकल्प करना उसे संरंभ, परिताप करना उसको 330 For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला समारंभ और प्राण नाश करना वह आरंभ है। ऐसा सर्व विशुद्ध नयों का मत है। अजीव हिंसा के निक्षेप, निवृत्ति, संयोजन और निसर्ग ये चार मूल भेद हैं उसके क्रमशः चार, दो, दो और तीन भेद से ग्यारह भेद होते हैं। उसमें १-अप्रमार्जना, २-दुष्प्रमार्जना, ३-सहसात्कार और ४-अनाभोग इस तरह निक्षेप के चार भेद होते हैं। काया से दुष्ट व्यापार करना और ऐसे हिंसक उपकरण बनाने इस तरह निवृत्ति के दो भेद हैं। उपकरणों का संयोजन और आहार, पानी का संयोजन इस तरह संयोजन के भी दो भेद होते हैं। और दुष्ट-उन्मार्ग में जाते मन, वचन और काया ये निसर्ग के तीन भेद हैं। जो हिंसा की अविरति रूपी वध का परिणाम हिंसा है, इस कारण से प्रमत्त योग वही नित्य प्राण घातक हिंसा है। अधिक कषायी होने से जीव जीवों का घात करता है, अतः जो कषायों को जीतता है वह वास्तविक में जीववध का त्याग करता है। लेने में, रखने में, त्याग करने में, खड़े रहने में या बैठने में, चलने में और सोने आदि में सर्वत्र अप्रमत्त और दयालु जीव में निश्चय अहिंसा होती है। इसलिए छह काय जीवों का अनारंभी, सम्यग्ज्ञान में प्रीति परायण मन वाला और सर्वत्र उपयोग में तत्पर जीव में निश्चय संपूर्ण अहिंसा होती है। इसी कारण से ही आरंभ में रक्त, दोषित आदि पिण्ड को भोगने वाला, घरवास का रागी, शाता, रस और ऋद्धि इन तीन गारव में आसक्ति वाला, स्वच्छंदी, गाँव कुल आदि में ममत्व रखनेवाला और अज्ञानी जीवों में गधे के मस्तक पर जैसे सींग नहीं होते वैसे उसमें अहिंसा नहीं होती है। अतः ज्ञानदान, दीक्षा, दुष्कर तप, त्याग, सद्गुरु की सेवा एवं योगाभ्यास इन सबका सार एक ही अहिंसा है। हिंसक को परलोक में अल्पायुष्य, अनारोग्य, दुर्भाग्य दुष्ट-खराब रूप, दरिद्रता और अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का योग होता है। इसलिए इस लोक-परलोक में दुःख को नहीं चाहने वाले मुनि को सदा जीव दया में उपयोग रखना चाहिए। जो कोई भी प्रशस्त, सुख, प्रभुता और स्वभाव से सुंदर आरोग्य, सौभाग्य आदि प्राप्त करता है वह सब उस अहिंसा का फल (२) असत्य त्याग व्रत :- हे क्षपक मुनि! चार प्रकार के असत्य वचन का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर। क्योंकि संयम वालों को भी भाषा दोष से कर्म का बंध होता है। सद्भूत पदार्थों का निषेध करना, जैसे कि-जीव नहीं है, वह प्रथम असत्य है, दूसरा असत्य असद्भूत कथन करना, जैसे कि-जीव पाँच भूत से बना है और कुछ भी नहीं है। तीसरा असत्य वचन जैसे जीव को एकांत नित्य अथवा अनित्य मानना। चौथा असत्य अनेक प्रकार के सावध वचन बोलना, जिससे हिंसादि दोषों का सेवन होता है तथा अप्रिय वचन या कर्कश, चुगली, निंदा आदि के वचन वह यहाँ सावध वचन कहलाते हैं। अथवा हास्य से, क्रोध से, लोभ से अथवा भय से इस तरह चार प्रकार का असत्य वचन तुझे नहीं बोलना चाहिए। जीवों को हितकर, प्रशस्त सत्य वचन बोलना चाहिए। जो मित, मधुर, अकर्कश, अनिष्ठुर, छल रहित, निर्दोष, कार्यकर, सावध रहित और धर्मी-अधर्मी दोनों को सुखकर हो वैसा ही बोलना चाहिए। ऋषि सत्य बोलते हैं, ऋषिओं ने सिद्ध की हुइ सर्व विद्याएँ म्लेच्छ सत्यवादी को भी अवश्य सिद्ध होती है। सत्यवादी पुरुष लोगों को माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूज्य और स्वजन के समान प्रिय होता है। सत्य में तप, सत्य में संयम और उसमें ही सर्व गुण रहे हैं। जगत में संयमी पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान तुच्छ बनता है। सत्य वादी पुरुष को अग्नि जलाती नहीं, पानी डूबाता नहीं और सत्य के बल वाले सत्पुरुष को तीक्ष्ण पर्वत की नदी भी खींचकर नहीं ले जाती। सत्य से पुरुष को देवता भी नमस्कार करते हैं और सदा वश में रहते हैं, सत्य से ग्रह की दशा अथवा पागलपन भी खत्म हो जाता है और देवों द्वारा रक्षण होता है। लोगों के बीच निर्दोष सत्य बोलकर मनुष्य परम प्रीति को प्राप्त करता है और जगत् प्रसिद्ध यश को प्राप्त करता है। एक असत्य से भी पुरुष माता को भी द्वेष पात्र बनता है, तो फिर दूसरो 331 For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार को वह सर्प के समान अति द्वेष पात्र कैसे नहीं बनता? वह अवश्य दूसरों का द्वेष पात्र बनता है। असत्यवादी को अविश्वास, अपकीर्ति, धिक्कार, कलह, वैर, भय, शोक, धन का नाश और वध बंधन समीपवर्ती ही होते है। मृषावादी को दूसरे जन्म में प्रयत्नपूर्वक मृषावाद का त्याग करने पर भी इस जन्म के इन दोषों के कारण चोरी आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। मृषा वचन से इस लोक और परलोक के जो दोष होते हैं वही दोष कर्कश वचन आदि वचन बोलने के कारण भी लगते हैं, असत्य बोलने वाले को पूर्व में कहे अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उसका त्याग करने से उस दोष से विपरीत गुणों को प्राप्त करता है। (३) अदत्तादान त्याग व्रत :- हे धीरपुरुष! दूसरे के द्वारा दिये बिना अल्प अथवा बहुत परधन लेने की या दाँत साफ करने का दंत शोधन हेतु सली मात्र भी लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जैसे चारों तरफ से घिरा हुआ भी बंदर पक्के फलों को खाने के लिए दौड़ता है, वैसे जीव विविध परधन को देखकर लेने की अभिलाषा करता है। उसे ले नहीं सकता है, लेने पर भी उसे भोग नहीं सकता है और भोगने पर भी उसके मन की तृप्ति नहीं होती है, इस तरह लोभी जीव सारे जगत से भी तृप्त नहीं होता है। तथा जो जिसके धन की चोरी करता है, वह उसके जीवन का भी हरण करता है। क्योंकि धन के लिए वह प्राण का त्याग करता है, परंतु धन को नहीं छोड़ता। धन होने पर वह जीता रहता है और उससे स्त्री सहित स्वयं सुख को प्राप्त करता है, उसके उस धन का हरण करने से उसका सारा हरण किया है। इसलिए जीव दया रूपी परम धर्म को प्राप्तकर श्री जिनेश्वर और गणधरों के द्वारा निषेध किया हुआ लोक विरुद्ध और अधम अदत्त को ग्रहण नहीं करना चाहिए। दीर्घकाल चारित्र की आराधनाकर भी केवल एक सली भी अदत्त ग्रहण करने वाला मनुष्य तृण समान हल्का और चोर के समान अविश्वसनीय बन जाता है। चोर वध बंधन की पीड़ाएँ, यशकीर्ति का नाश, परभव का शोक और स्वयं सर्वस्व का नाश करने वाले मृत्यु को प्राप्त करता है। तथा हमेशा दिन और रात्री में शंका करते भयभीत होता, निद्रा को प्राप्त नहीं करता, वह हिरण के समान भय से कांपते सर्वत्र देखता है और भागता फिरता है। चूहे द्वारा अल्प आवाज को सुनकर चोर सहसा सर्व अंगों से काँपता है और उद्विग्न बना हुआ गिरते चारों तरफ दृष्टि करता है। परलोक में भी चोर अपना स्थान नरक का बनाता है-उसमें जाता है और वहाँ अति चिरकाल तक तीव्र वेदनाओं को भोगता है। तथा चोर तिर्यंच गति में भी कठोर दुःखों को भोगता है। अधिक क्या कहें? दुस्तर संसार सरोवर में बार-बार परिभ्रमण करता है। मनुष्य जन्म में भी उसका धन, माल आदि चोरी वाला और उसके साथ चोरी बिना का भी नाश होता है, उसके धन की वृद्धि नहीं होती है और स्वयं धन से दूर रहता है। परधन हरण करने की बुद्धि वाला श्रीभूति दुःख से भयंकर नरक में गिरा और वहाँ से अनंत काल तक संसार अटवी में भ्रमण किया। ये सारे दोष परधन हरण की विरति वाले को नहीं होते और समग्र गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ही हमेशा उपयोगवाले तूं देवेन्द्र, राजा, गाथापति, गृहस्थ और साधर्मिक, इस तरह पंचविध-अवग्रह में उचित विधिपूर्वक अवग्रह (वसति) को साधु जीवन के लिए आवश्यक होने से ग्रहण कर।।७७६० ।। (४) ब्रह्मचर्य व्रत :- पाँच प्रकार के स्त्री के वैराग्य में नित्यमेव अप्रमत्त रहनेवाला तूं नौ प्रकार के ब्रह्म गुप्ति से विशुद्ध ऐसे ब्रह्मचर्य का रक्षण कर। जीव यह ब्रह्म है, इसलिए परदेह की चिंता से रहित साधु की प्रवृत्ति जो जीव में (ब्रह्म में) ही होती है, उसे ब्रह्मचर्य जानना। वसति शुद्धि, सराग कथा त्याग. आसन त्याग. अंगोपांगादि इन्द्रियों को रागपूर्वक देखने का त्याग, दीवार, पर्दे के पास खड़े होकर स्त्री विकार शब्दादि सुनना आदि का त्याग, पूर्व क्रीड़ा स्मरण का त्याग, प्रणीत भोजन त्याग, अति मात्रा के आहार का त्याग और विभूषा का त्याग, ये नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति (रक्षण की वाड) हैं। १. विषय भोग जन्य दोष, २. स्त्री के माया-मृषादि दोष, ३. भोग का 332 Jain Educatoffinternational For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला अशुचित्व, ४. वृद्ध की सेवा और ५. संसर्गजन्य दोष भी स्त्रियों के प्रति वैराग्य प्रकट करता है। जैसे कि मनुष्य को इस जन्म और पर-जन्म में जितने दुःख के कारणभूत दोष हैं, उन सब दोषों को मैथुन संज्ञा धारण करता है, अर्थात् उसमें से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है। काम से पीड़ित मनुष्य शोक करता है, कंपता है, चिंता करता है और असंबध बोलता है। शून्य चित्तवाला वह दिन, रात सोता नहीं है और हमेशा अशुभ ध्यान करता है। कामरूपी पिशाच से घिरा हुआ स्वजनों में अथवा अन्य लोग में शयन, आसन, घर, गाँव, अरण्य तथा भोजन आदि में रति नहीं होती है। कामातुर मनुष्य को क्षण भर भी एक वर्ष जैसा लगता है, अंग शिथिल हो जाते हैं और इष्ट की प्राप्ति के लिए मन में उत्कंठा को धारण करता है। काम से उन्मादी बना हुआ, दीन मुख वाला वह कनपटी पर हाथ रखकर हृदय में बार-बार कुछ भी चिंतन करते रहता है और उस चिंतन से हृदय में जलता है और भाग्ययोग के विपरीतपने से जब इच्छित प्राप्ति नहीं होती है, तब निरर्थक वह अपने आपको पर्वत, पानी या अग्नि द्वारा आपघात करता है। अरति और रति रूप दो चपल जीभवाला, संकल्प रूप विकराल फणा वाला, विषय रूपी बील में रहनेवाला, मद रूपी सुख वाला या मुंहवाला, काम विकार रूपी रोष वाला, विलास रूपी कंचुक और दर्परूपी दाढ़वाला, ऐसे कामरूपी सर्प से डसे हुए मानव दुस्सह दुःख रूपी उत्कट जहर से विवश होकर उनका नाश होता है। अति भयंकर आशीविष सर्प के डंख लगाने से मनुष्य को सात ही वेग (विकार) होते हैं, परंतु कामरूपी सर्प से डंख लगने पर अति दुष्ट परिणाम वाला दस प्रकार के वेग की काम की अवस्थाएँ हो हैं। प्रथम वेग में चिंता करता है, दूसरे वेग में देखने की इच्छा होती है, तीसरे वेग में निःश्वास छोड़ता है, चौथे वेग में ज्वर चढ़ता है, पाँचवें वेग में शरीर के अंदर दाह उत्पन्न होता है, छट्ठे वेग में भोजन की अरुचि होना, सातवें वेग में मूर्च्छित होना, आठवें वेग में उन्मादी होना, नौवें वेग में 'कुछ भी नहीं' इस तरह बेहोशी हो जाती है, और दसवें वेग में अवश्य प्राण मुक्त होता है, उसमें भी तीव्र मन्दादि संकल्प के आश्रित वे वेग तीव्र मंद होते हैं। सूर्य का ताप दिन को जलाता है, जब काम का ताप रात दिन जलाता है। सूर्य के, अग्नि के ताप में आच्छादन छत्र आदि होते हैं किंतु काम के ताप का आच्छादन कुछ भी नहीं है। सूर्य का ताप जल सिंचन आदि से शांत हो जाता है, जबकि कामाग्नि शांत नहीं होती है। सूर्य का ताप चमड़ी को जलाता है जबकि कामाग्नि बाहर और अंदर की धातुओं को भी जलाती है। काम पिशाच के वश बना अपना हित अथवा अहित को जानता नहीं है जब काम से जलते मनुष्य हित करनेवाले को भी शत्रु के समान देखता है। काम ग्रस्त मूढ़ पुरुष त्रिलोक के सारभूत श्रुतरत्न का भी त्याग करता है और तीन जगत से पूजित उस श्रुत की भी महिमा को निश्चय रूप में नहीं मानता है। श्री जिनेश्वर कथित और स्वयं जानने योग्य तीन लोक के पूज्य तप, ज्ञान, चारित्र, दर्शन रूपी श्रेष्ठ गुणों को भी वह तृण समान मानता है । संसारजन्य भय दुःख का भी विचार नहीं करते निर्भागी कामी पुरुष, श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, वाचक और साधु वर्ग की अवज्ञा करता है। शुद्ध मनुष्य विषय रूपी आमिष में इस जन्म में होने वाले अपयश, अनर्थ और दुःख को तथा परलोक में दुर्गति और अनंत संसार को भी नहीं गिनता है, वह नरक की भयंकर वेदनाएँ और घोर संसार समुद्र के आवेग के आधीन हो जाता है, परंतु काम सुख की तुच्छता को नहीं देख सकता है, उच्च कुल में जन्मा हुआ भी विषय वश गाता है, नाचता है और पैर से दौड़ता है। भोग से अंगों को मलिन करता है और दूसरी ओर मलमूत्र की शुद्धि करता है। काम के सैंकड़ों बाणों से भेदित कामी जैसे राजपत्नी में आसक्त वणिक पुत्र दुर्गंध वाले गुदे धोने के घर - विष्ठा की गटर में अनेक बार 1. वृद्ध की सेवा अर्थात् स्त्री काम वश होकर वृद्ध पुरुष से भी क्रीडा करती है। For Personal & Private Use Only 333 . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार रहा, उसी तरह दुर्गंध में रहता है। काम से उन्मत पुरुष वेश्यागामी के समान अथवा निजपुत्री में आसक्त कुबेरदत्त सेठ के समान भोग्य - अभोग्य को नहीं जानता है। काम के आधीन हुआ कडार पिंग नामक पुरुष ने इस जन्म में भी महान् दुःखों को प्राप्त किया और पाप से बद्ध हुआ वह मरकर नरक में गया। ये सर्व दोष ब्रह्मचारी वैरागी पुरुष को नहीं होते हैं। परंतु इससे विपरीत विविध गुण होते हैं। स्त्री अपने वश हुए पुरुष के इस जन्म, परजन्म के सर्व गुणों का नाश करके दोनों जन्म में दुःख देने वाले दोष प्रकट करवाती है। टेढ़े मार्ग समान स्वभाव से ही वक्र स्त्री हमेशा उसे अनुकूल होने पर भी पुरुष को सन्मार्ग से भ्रष्ट करके विविध प्रकार से संसार में परिभ्रमण करवाती है। मार्ग की धूल के समान, स्वभाव से ही मलिन स्त्री, निर्मल प्रकृति वाले पुरुष को भी समय मिलने पर सर्व प्रकार से मलिन करती है । वास के जंगल के समान स्वभाव से दुर्गम मायावाली, दुष्टा स्त्री संतान फल प्राप्त करने पर भी अपने वंश का क्षय करती है। स्त्रियों में विश्वास, स्नेह, परिचय - आँखों में शरम, कृतज्ञता आदि गुण नहीं होते हैं क्योंकि अन्य पुरुष में रागवाली वह अपने कुल कुटुम्ब को शीघ्र छोड़ देती है। स्त्रियाँ पुरुष को क्षण में बिना प्रयास से विश्वास दिलाती है, जबकि पुरुष तो अनेक प्रकार से भी स्त्री को विश्वास नहीं दिला सकता है। स्त्री का अति अल्प भी अविनय होने पर लाखों सत्कार्य-उपकार का भी वह अपमान कर अपने पति, स्वजन, कुल और धन का नाश करती है। अथवा अपराध किये बिना भी अन्य पुरुष में आसक्त स्त्रियाँ, पति, पुत्र, श्वसुर और पिता का भी वध करती है। परपुरुष में आसक्त स्त्री सत्कार उपकार गुण, सुखपूर्वक लालन पालन, स्नेह और मधुर वचन कहे हों फिर भी सब को निष्फल करती है। जो पुरुष स्त्रियों में विश्वास करता है। वह चोर, अग्नि, शेर, जहर, समुद्र, मदोन्मत्त हाथी, काले सर्प और शत्रु में विश्वास करता है । अथवा जगत में शेर आदि तो पुरुष को इतने दोष के कारण नहीं होते कि उतने महादोष कारक दुष्टा स्त्री होती है ।। ८००० ।। कुलीन स्त्री को भी अपना पुरुष तब तक प्रिय होता है जब तक वह उस पुरुष को रोग, दरिद्रता अथवा बुढ़ापा नहीं आता। बुड्ढा, दरिद्र अथवा रोगी पति भी उसको पिली हुई ईंख समान अथवा मुरझाई हुई सुगंध रहित माला के समान दुर्गंध तुल्य अनादार पात्र बनता है। स्त्री अनादर करती हुई भी कपट से पुरुषों को ठगती है, और पुरुष उद्यम करने पर भी निश्चय रूप में स्त्री को ठग नहीं सकता । धूल से व्यास वायु के समान स्त्रियाँ पुरुष को अवश्य मलिन करती हैं और संध्याराग के समान केवल क्षणिक राग करती है। समुद्र में जितना पानी और तरंगें होती हैं तथा नदियों में जितनी रेती होती है उससे भी अधिक स्त्री के मन के अभिप्राय होते हैं। आकाश, सर्व भूमि, समुद्र, मेरुपर्वत और वायु आदि दुर्जय पदार्थों को पुरुष जान सकता है, परंतु स्त्रियों के भावों को किसी तरह भी नहीं जान सकता। जैसे बिजली पानी का बुलबुला और आकाश में प्रकट हुआ ज्वाला रहित अग्नि का प्रकाश चिरस्थिर नहीं रहता है वैसे स्त्रियों का चित्त एक पुरुष में चिरकाल तक प्रसन्न नहीं रहता । परमाणु भी किसी समय मनुष्य के हाथ में आ सकता है, परंतु निश्चय में स्त्रियों का अति सूक्ष्म विचार पकड़ने में वह शक्तिमान नहीं है। क्रोधायमान भयंकर काले सर्प, दुष्ट सिंह और मदोन्मत्त हाथी को भी पुरुष किसी तरह वश कर सकता है, परंतु दुष्ट स्त्रियों के चित्त को वश नहीं कर सकता। कई बार पानी में भी पत्थर तैरता, और अग्नि भी न जलाकर, उल्टा हिम के समान शीतल बन जाती है, परंतु स्त्रियों को कभी भी पुरुष के प्रति ऋजुता - सरलता नहीं होती। सरलता के अभाव में उनमें विश्वास किस तरह हो सकता है? और विश्वास बिना स्त्रियों में प्रीति कैसे हो सकती है ? पुरुष दो भुजाओं द्वारा तैरकर समुद्र को भी पार उतर जाते हैं, किंतु माया रूपी जल से भरी हुई स्त्री रूपी समुद्र को पार 1. ललितांग कुमार की कथा है। 334 For Personal & Private Use Only . Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला करने को कोई शक्तिमान नहीं है। रत्न सहित परंतु शेरनी युक्त गुफा के समान और शीतल जल वाली परंतु घड़ियाल वाली नदी के समान स्त्री मनुष्यों के मन को हरने वाली होने पर भी उद्वेग करने वाली है, अतः इसे धिक्कार है। कुलीन स्त्री भी आँखों से देखा और सत्य भी कबूल नहीं करती है, अपने द्वारा कपट किया हो उसे भी गलत सिद्ध कर देती है। और पुरुष के प्रति चंदन घो के समान अपने पाप को छुपाकर रखती है। मनुष्य का स्त्री के समान दूसरा शत्रु नहीं है, इसलिए स्त्री को न + अरि= नारी कहते हैं । और पुरुष को सदा प्रमत्त - प्रमादी बनाती है, इसलिए स्त्री को प्रमदा कहते हैं। पुरुष को सैंकड़ों अनर्थों में जोड़ती है, इसलिए इसे विलया कहते हैं। 1 तथा पुरुष को दुःख में जोड़ती है, इसलिए उसे युवति अथवा योषा कहते हैं। अबला इस कारण से कहते हैं कि उसके हृदय में धैर्य-बल नहीं होता है। इस तरह स्त्री के पर्याय वाचक नाम भी चिंतन करने से असुखकारक होते है। स्त्री क्लेश का घर है, असत्य का आश्रम है, अविनयों का कुल घर (बाप दादों का घर ) है, असंतोषी अथवा खेद का स्थान है और झगड़े का मूल है तथा धर्म के लिए महान् विघ्न है, अधर्म का निश्रित प्रादुर्भाव है, प्राण को भी संदेह रूप और मान-अपमान का हेतु है, स्त्रियाँ पराभवों का अंकुर है, अपकीर्ति का कारण है, धन का सर्वनाश है, अनर्थों का समागम है, दुर्गति का मार्ग है और स्वर्ग तथा मोक्ष मार्ग की दृढ़ अर्गला रूप रुकावट है, एवं दोषों का आवास है, सर्व गुणों का प्रवास या देश निकाला है। चंद्र भी गरम हो, सूर्य भी शीतल हो और आकाश भी स्थान रहित बन जाये, परंतु कुलीन स्त्री दोष रहित भद्रिक सरल नहीं बनती है। इत्यादि स्त्री संबंधी अनेक दोषों का चिंतन करने वाले विवेकी पुरुष का मन प्रायः स्त्रियों से विरागी बनता है। जैसे इस लोक में दोषों को जानकर विवेकी लोग सिंह आदि का त्याग करते हैं, वैसे दोषों को जानकर स्त्रियों से भी दूर रहें। अधिक क्या कहें? स्त्री कृत दोषों को इस ग्रंथ में ही पूर्व में अनुशास्ति नामक द्वार के अंदर गुरुदेव ने कहा है । जो वस्तु शुद्ध सामग्री से बनी हो, उसका तो मूल कारण शुद्धि होने से शुद्ध होती है, परंतु अशुचि से बने हुए शरीर की शुद्धि किस तरह हो सकती है? क्योंकि शरीर का उत्पत्ति कारण शुक्र और रुधिर है, ये दोनों अपवित्र हैं, इसलिए अशुचि से बने हुए घड़े के समान शरीर भी अशुचिमय - अशुद्ध है ।।८०२७ ।। वह इस प्रकार से : गर्भावस्था का स्वरूप :- माता-पिता के संयोग से रुधिर और शुक्र के मिलन से जो मैला - अशुचि होती है, उसमें प्रारंभ के अंदर ही जीव की उत्पत्ति होती है। उसके बाद उस अशुचि से सात दिन तक गर्भा लपेटन रूप सूक्ष्म चमड़ी तैयार होती है, फिर सात दिन में सामान्य पेशी बनती है। उसके बाद एक महीने में घन रूप बनता है और वह दूसरे महीने में वजन में एक कर्ष न्यून एक पल अर्थात् साठ रत्ति जितना बनता है, तीसरे महीने में मांस की घन पेशी बनती है। चौथे महीने में माता को दोहद उत्पन्न होता है और उसके अंगों को पुष्ट करता है, पाँचवें महीने में मस्तक, हाथ, पैर के अस्पष्ट अंकुर प्रकट होते हैं, छट्ठे महीने में रुधिर पित्त आदि धातु एकत्रित होते हैं, सातवें महीने में सात सौ छोटी नाड़ी और पाँच सौ पेशी बनती हैं। आठवें महीने में नौ नाड़ी (बड़ी नसें) और सर्व अंग में साढ़े तीन करोड़ रोम उत्पन्न होते हैं। फिर जीव प्रायः पूर्ण शरीर वाला बनता है, नौवें अथवा दसवें महीने में माता • और अपने को पीड़ा करते करुण शब्द से रोते योनि रूपी छिद्र में से बाहर निकलता है, और अनुक्रम से बढ़ता है। उस शरीर में विशाल प्रमाण में मूत्र और रुधिर तथा एक कुडव प्रमाण श्लेष्म और पित्त है, आधा कुडव प्रमाण शुक्र और एक प्रस्थ प्रमाण मस्तक का रस होता है, आधा आढक चरण एक प्रस्थ मल और बीभत्स मांस मज्जा से तथा हड्डी के अंदर होने वाले रस से भरा हुआ, तीन सौ 1. मयणं व मणो मुणिणोवि हंत सिग्धं चिय विलाइ (भत्त १२७) (पाइअसद्दमहण्णवो पृ.७६६) For Personal & Private Use Only 335 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार सब मिलाकर एक सौ साठ संधियाँ - हड्डियों के जोड़ होते हैं। मानव शरीर में नौ सौ स्नायु, सात सौ नाड़ी और पाँच सौ मांस की पेशियाँ होती हैं। में इस तरह शुक्र, रुधिर आदि अशुचि पुद्गलों के समूह से बना अथवा नौ मास तक अशुचि में रहा हुआ और योनि से निकलने के बाद भी माता के स्तन के दूध से पालन-पोषण हुआ और स्वभाव से ही अत्यंत अशुचिमय इस देह में किस तरह पवित्रता हो सकती है? इस प्रकार इस शरीर को सम्यग् देखते या चिंतन करते केले के स्तंभ समान बाहर अथवा अंदर से श्रेष्ठता अल्पमात्र भी नहीं होती है। सर्पों के मणि, हाथियों में दाँत और चमरी गाय में उसके बाल बाल-समूह चामर सारभूत दिखते हैं, परंतु मनुष्य शरीर में कोई एक भी अवयव सार रूप नहीं है। गाय के गोबर, मूत्र और दूध में तथा सिंह के चमड़े में पवित्रता दिखती है, किंतु मनुष्य देह कुछ भी पवित्रता नहीं दिखती। और वातिक, पैत्तिक और श्लेष्म जन्य रोग तथा भूख प्यास आदि दुःख जैसे जलती तेज अग्नि के ऊपर रखा पानी जलाता है वैसे वह नित्य शरीर को जलाते हैं। इस तरह अशुचि देह वाले भी, यौवन के मद से व्यामूढ़ बना 'अज्ञ पुरुष' अपने शरीर के सदृश अशुचिमय से बने हुए भी स्त्री शरीर में राग के कारण केशकलाप को मोर की पिंछ के समान, ललाट को भी अष्टमी के चंद्र समान, नेत्रों को कमलनी के पंखड़ी के सदृश, होठों को पद्मराग मणि के साथ, गरदन को पाँच जन्य शंख के समान, स्तनों को सोने के कलश समान, भुजाओं को कमलिनी के नाल के समान, हथेली को नवपल्लव कोमल पत्तों के सदृश, नितम्बपट को सुवर्ण की शिला के साथ, जांघ को केले स्तंभ के साथ और पैरों को लाल कमल के साथ उपमित करता है। परंतु अनार्य - मूर्ख उससे शरीर अपने शरीर के सदृश अशुचि से बना है, विष्ठा, मांस और रुधिर से पूर्ण और केवल चमड़ी से ढका हुआ है, ऐसा विचार नहीं करता है। मात्र सुगंधी विलेपन, तंबोल, पुष्प और निर्मल रेशमी वस्त्रों से शोभित क्षण भर के लिए बाहर से शोभित होते स्त्री का अपवित्र शरीर को भी सुंदर है। इस तरह मानकर काम से मूढ़ मनवाला मनुष्य जैसे मांसाहारी राग से कटु हड्डी आदि से युक्त दुर्गंधमय मांस को भी खाता है, वैसे ही वह उस शरीर को भोगता है। तथा जैसे विष्ठा से लिप्त बालक विष्ठा में ही प्रेम करता है, वैसे स्वयं अपवित्र मूढ़ पुरुष स्त्री रूपी विष्ठा में प्रेम करता है। दुर्गंधी रस और दुर्गंधी गंधवाली स्त्री के शरीर रूपी झोंपड़ी का भोग करने पर भी जो शौच का अभिमान करते हैं वे जगत में हाँसी के पात्र बनते हैं। इस तरह शरीरगत इस अशुचि भावों का विचार करते अशुचि के प्रति घृणा करने वाले पुरुष को स्त्री शरीर को भोगने की इच्छा किस तरह हो सकती है? इन अशुचि भावों को अपने शरीर में सम्यग् घृणा रूप देखते पुरुष अपने शरीर में भी राग मुक्त बनता है, तो फिर अन्य के शरीर में क्या पूछना ? यानी पर शरीर में भी राग मुक्त बनता है। वृद्ध अथवा युवान भी वृद्धों के आचरणों से महान् बनता है और वृद्ध या युवान, युवान के समान उद्धत आचरण करने से हल्का बनता है। जैसे सरोवर में पत्थर गिरने से स्थिर कीचड़ को उछालता है, उसी तरह कामिनी के संग से प्रशांत बना भी मोह को जागृत करता है। जैसे गंदा मैला पानी भी कतक फल के योग से निर्मल बनता है, वैसे मोह से मलिन मन वाला भी जीव वैरागी की सेवा से निर्मल बनता है। जैसे युवान पुरुष भी वृद्ध की शिक्षा प्राप्त करने पर अकार्य में से तुरंत लज्जा प्राप्त करता है, उससे रुकावट, शंका, गौरव का भय और धर्म की बुद्धि से वृद्ध के समान आचरण वाला बनता है, वैसे वृद्ध पुरुष भी कामी तरुण की बातों से जल्दी ही अकार्य में विश्वासु, निःशंक और प्रकृति से मोहनीय कर्म के उदय वाला तरुण कामी पुरुष के समान आचरण वाला बनता है। जैसे मिट्टी में छुपी हुई गंध पानी के योग से प्रकट होती है, वैसे प्रशांत मोह भी युवानों के संपर्क में विकराल बनता है । युवान के साथ रहने वाला सज्जन संत पुरुष भी अल्पकाल में इन्द्रिय से चंचल, से मनुष्य 336 For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला मन से चंचल, स्वेच्छाचारी बनकर स्त्री संबंधी दोषों को प्राप्त करता है। पुरुष का विरह होते, एकांत में, अंधकार और कुशील की सेवा अथवा परिचय में - इन तीनों कारण से अल्पकाल में अप्रशस्त भाव प्रकट होता है। मित्रता के दोष से ही चारुदत्त ने आपत्ति को प्राप्त की तथा वृद्ध सेवा से पुनः उन्नति को प्राप्त किया था । । ८०६४ । । वह कथा इस प्रकार है : चारुदत्त की कथा चंपा नगरी में भानु नामक महान् धनिक श्रावक रहता था। उसे सुभद्रा नाम की पत्नी और चारुदत्त नामक पुत्र था। चारुदत्त युवान बना फिर भी साधु के समान निर्विकारी मन वाला वह विषय का नाम भी नहीं चाहता था। तो फिर उसे भोग की बात ही कैसे होती? इसलिए माता, पिता ने उसके विचार बदलने के लिए उसे दुर्व्यसनीय मित्रों के साथ में जोड़ा, फिर उन मित्रों के साथ में रहता वह विषय की इच्छावाला बना । इससे वसंतसेना वेश्या के घर बारह वर्ष तक रहा और उसने उसमें सारा धन नाश किया। फिर वेश्या की माता ने उसे घर से निकाल दिया। वह घर गया, और वहाँ माता-पिता की मृत्यु हो गई, ऐसा सुनकर अति दुःखी हुआ, अतः व्यापार की इच्छा से पत्नी के आभूषण लेकर वह मामा के साथ उसीरवृत्त नामक नगर में गया । वहाँ से रुई खरीदकर तामलिप्ती नगर की ओर चला और बीच में ही दावानल लगने से रुई जल गयी। फिर घबड़ाकर उस मामा को छोड़कर जल्दी घोड़े पर बैठकर पूर्व दिशा में भागा और वह प्रियंगु नगर में पहुँचा । वहाँ पर सुरेन्द्र दत्त नामक उसके पिता के मित्र ने उसे देखा और पुत्र के समान उसे बड़े प्रेम से बहुत समय तक अपने घर में रखा। फिर सुरेन्द्र दत्त के साथ जहाज भरकर धन कमाने के लिए अन्य बंदरगाह में जाकर चारुदत्त ने आठ करोड़ प्राप्त किया। वहाँ से वापिस आते उसके जहाज समुद्र में नष्ट हो गये और चारुदत्त को महामुसीबत से एक लकड़ी का तख्ता मिला और उसके द्वारा उस समुद्र को पारकर मुसीबत से राजपुर नगर में पहुँचा । वहाँ उसे सूर्य समान तेजस्वी एक त्रिदंडी साधु मिला। उस साधु ने उससे पूछा कि तूं कहाँ से आया है? चारुदत्त ने उसे सारी अपनी बात कही । त्रिदंडी ने कहा कि - हे वत्स ! आओ! पर्वत पर चलें और वहाँ से, चिरकाल से पूर्व में देखा हुआ विश्वासपात्र कोटिवेध नामक रस को लाकर तुझे धनाढ्य करूँ । चारुदत्त ने वह स्वीकार किया । वे दोनों पर्वत की गाढ़ झाड़ियों में गये, और वहाँ उन्होंने यम के मुख समान भयंकर रस के कुएँ को देखा। त्रिदंडी ने चारुदत्त से कहा कि - भद्र! तुम्बे को लेकर तुम इसमें प्रवेश करो और रस्सी का आधार लेकर शीघ्र फिर वापिस निकल आना। फिर रस्सी के आधार से चारुदत्त उस अति गहरे कुएँ में प्रवेश कर जब उसके मध्य भाग में खड़े होकर रस लेने लगा। तब किसी ने उसे रोका कि- हे भद्र! रस को मत लो। मत लो। तब चारुदत्त ने कहा कि—तुम कौन हो? मुझे क्यों रोकते हो ? उसने कहा कि - मेरे जहाज समुद्र में नष्ट हो गये थे। धन के लोभ में मैं वणिक् यहाँ आया था और मुझे रस के लिए त्रिदंडी ने रस्सी से यहाँ उतारा था, मैंने रस से भरा तुम्बा उसे दिया, तब उस पापी ने इस तरह स्वकार्य सिद्धि के लिए उस रस तुम्बा को लेकर रस कुएँ की पूजा के लिए बकरे के समान, मुझे कुएँ में फेंक दिया। रस में नष्ट हुए आधे शरीर वाला हूँ, अब मेरे प्राण कंठ तक पहुँच गये हैं, और मरने की तैयारी है। यदि तूं इस रस को लेगा और उसे देगा तो तेरा भी इसी तरह विनाश होगा। तूं तुम्बा मुझे दे कि जिससे वह रस भरकर मैं तुझे दूँ। उसने ऐसा कहा, तब चारुदत्त ने उसे तुम्बा दिया, फिर रस भरकर वह तुम्बा उसने चारुदत्त को दिया, उस समय चारुदत्त ने उसमें से निकालने के लिए हाथ से रस्सी हिलाई। तब रस की इच्छा वाले त्रिदंडी उसे खींचने लगा । परंतु जब चारुदत्त किसी तरह बाहर नहीं निकला तब चारुदत्त ने रस को कुएँ में फेंक दिया। इससे क्रोधायमान होकर त्रिदंडी ने उसे रस्सी सहित छोड़ 337 For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार - चारुदत्त की कथा दिया । वह अंदर गिरा 'अब जीने की आशा नहीं है'। ऐसा सोचकर सागार अनशन करके श्री पंच परमेष्ठी का स्मरण करने लगा। उस समय उस वणिक् ने कहा कि-कल रस पीकर गोह गयी है यदि पुनः वह यहाँ आये तो तेरा निस्तारा हो जायगा । ऐसा सुनकर कुछ जीने की आशा वाला पंच नमस्कार मंत्र का जाप करने में तत्पर बना। अन्य दिन गोह वहाँ आयी और उस रस को पीकर निकल रही थी, उसी समय चारुदत्त ने जीने के लिए उसे पूँछ से दृढ़ पकड़ लिया, फिर उस गोह ने उसे बाहर निकाला। इससे अत्यंत प्रसन्न हुआ वह पुनः चलने लगा, और उसने महा मुश्किल से जंगल को पार किया । आगे प्रस्थान करते एक तुच्छ गाँव में उसको रुद्र नामक मामा का मित्र मिला। उसके साथ ही वह वहाँ से टंकण देश में पहुँचा। और वहाँ से दो बलवान बकरे लेकर दोनों सुवर्ण भूमि की ओर चले। दूर तक पहुँचने के बाद रुद्र ने चारुदत्त से कहा कि - हे भाई! यहाँ से आगे जा नहीं सकते, अतः इन बकरों को मारकर रोम का विभाग अंदर कर अर्थात् उसे उल्टा कर थैला बना दो और शस्त्र को लेकर उसमें बंद हो जाओ जिससे माँस की आशा से भारंड पक्षी उसे उठाकर सुवर्ण भूमि में रखेंगे इस तरह हम वहाँ पहुँच जायेंगे और अत्यधिक सोने को प्राप्त करेंगे। ऐसा सुनकर उसे करुणा उत्पन्न हुई और चारुदत्त ने कहा- नहीं, नहीं ऐसा नहीं बोल । हे भद्र! ऐसा पाप कौन करेगा? जीव हिंसा से मिलने वाला धन मेरे कुल में भी प्राप्त न हो । । ८१०० ।। रुद्र ने कहा- मैं अपने बकरे को अवश्यमेव मारूँगा । इसमें तुझे क्या होता है? इससे चारुदत्त उद्विग्न मन द्वारा मौन रहा। फिर अति निर्दय मन वाला रुद्र बकरे को मारने लगा, तब चारुदत्त ने बकरे के कान के पास बैठकर पाँच अणुव्रत का सारभूत श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र सुनाया और उसके श्रवण से शुभभाव द्वारा बकरे मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। फिर उस रुद्र ने शीघ्र उस चमड़े में चारुदत्त को बंधकर स्वयं दूसरे बकरे के चमड़े में प्रवेश किया। उसके बाद माँस के लोभ से भारंड पक्षियों ने दोनों को उठाया, परंतु जाते हुए पक्षियों के परस्पर युद्ध होने से चारुदत्त दो भारंड पक्षी के चोंच में से किसी तरह पानी के ऊपर गिरा और चमड़े को शस्त्र से चीरकर गर्भ से निकलता है वैसे बाहर निकला। इस तरह दुर्जन की संगति से उसे इस प्रकार संकट का सामना करना पड़ा। अब शिष्टजन संगत से जिस प्रकार उसने लक्ष्मी को प्राप्त की, इसका प्रबंध आगे है। फिर उस जल को पारकर वह नजदीक में रहे रत्नद्वीप में गया और उसे देखता हुआ पर्वत के शिखर पर चढ़ गया। वहाँ काउस्सग्ग में रहे अमितगति नामक चारण मुनि को देखा, और हर्ष से रोमांचित शरीरवाला बनकर उसने वंदना की। मुनि श्री ने काउस्सग्ग को पारकर धर्म लाभ देकर कहा कि - हे चारुदत्त ! तूं इस पर्वत पर किस तरह आया? हे महाशय ! क्यों तुझे याद नहीं ? कि पूर्व में चंपापुरी के वन में गया था। वहाँ तूंने जिस शत्रु के बंधन से मुझे छुड़ाया था । वही मैं कई दिनों तक विद्याधर की राज्य लक्ष्मी को भोगकर दीक्षा स्वीकार कर यहाँ आतापना ले रहा हूँ। जब अमितगति मुनि इस तरह बोल रहे थे, उस समय कामदेव के समान रूप वाले दो विद्याधर कुमार आकाश में से वहाँ नीचे उतरे। उन्होंने साधु को वंदन किया, और चारुदत्त के चरणों में गिरकर दो हस्तकमल को ललाट पर लगाकर जमीन पर बैठें। उस समय मणिमय मुकट धारण करनेवाले मस्तक को नाकर देव आया, उसने प्रथम चारुदत्त को और फिर मुनि को वंदन किया। इससे विस्मयपूर्वक विद्याधर ने देव से पूछा कि - अहो! तूंने साधु को छोड़कर प्रथम गृहस्थ के चरणों में क्यों नमस्कार किया? देव ने कहा कियह चारुदत्त मेरा धर्म गुरु है, क्योंकि जब मैं बकरा था तब मृत्यु के समय श्री पंच परमेष्ठि नमस्कार मंत्र को दिया था जिसके कारण अति दुर्लभ देव की लक्ष्मी प्राप्त करवायी है। इस चारुदत्त के द्वारा ही मैं मुनियों को तथा सर्वज्ञ परमात्मा को जानने वाला बना हूँ। फिर देव ने चारुदत्त को कहा कि - भो! अब आप वरदान मांगो। तब चारुदत्त 338 For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला ने कहा-मैं स्मरण करूँ तब आ जाना। देव वह स्वीकार करके अपने स्थान पर गया। फिर विद्याधरों ने 'यह गुणवान है' ऐसा मानकर अनेक मणि और सुवर्ण के समूह से भरे हुए बड़े विमान में उसे बैठाकर चंपापुरी लाकर अपने भवन में रखा और वहाँ चारुदत्त श्रेष्ठी ने उन्नति की। इस तरह इस जगत में भी दुष्ट और शिष्ट की संगत से वैसा ही फल को देखकर निर्मल गुण से भरे हुए उत्तम बुद्धि वाले वृद्ध की सेवा करने में प्रयत्न करना चाहिए। और धीर पुरुष, वृद्ध प्रकृति वाले तरुण अथवा वृद्ध की नित्य सेवा करते और गुरुकुल वास को नहीं छोड़ने वाले ब्रह्मव्रत को प्राप्त करते हैं। बार-बार स्त्रियों के मुख और गुप्त अंगों को देखने वाले अल्प सत्त्व वाले पुरुषों का हृदय कामरूपी पवन से चलित होता है। क्योंकि स्त्रियों की धीमी चाल, उसके साथ खड़ा रहना, विलास, हास्य, श्रृंगारिका-काम विकार चेष्टा तथा हावभाव द्वारा, सौभाग्य, रूप, लावण्य और श्रेष्ठ आकृति की चेष्टा द्वारा, टेढ़ी-मेढ़ी दृष्टि द्वारा देखना, विशेष आदरपूर्वक हँसना, बोलना, रसपूर्वक क्षण-क्षण बोलने के द्वारा, तथा आनंदपूर्वक क्रीड़ा करने के द्वारा, स्वभाव से ही स्निग्ध विकारी और स्वभाव से ही मनोहर स्त्री को एकांत में मिलने से प्रायःकर पुरुष का मन क्षोभित होता है और फिर अनुक्रम से प्रीति बढ़ने से अनुराग वाला बनता है फिर विश्वास वाला निर्भय और स्नेह के विस्तार वाला लज्जायुक्त भी पुरुष वह क्या-क्या नहीं करता है? अर्थात् सभी अकार्यों को करता है। जैसे कि माता, पिता, मित्र, गुरु, शिष्ट लोग तथा राजा आदि की लज्जा को, अपने गौरव को, राग और परिचय को भी मूल में से त्याग कर देता है। कीर्ति धन का नाश, कुल मर्यादा, प्राप्त हुए धर्म गुणों को, और हाथ, पैर, कान, नाक आदि के नाश को भी वह नहीं गिनता है। इस तरह संसर्ग से मूढ़ मन वाला, मैथुन क्रिया में आसक्त, मर्यादा रहित बना हुआ और भूत भविष्य को भी नहीं गिनता, वह पुरुष ऐसा कौन सा पाप है कि जिसे वह आचरण नहीं करता? स्त्री के संसर्ग से पुरुष के हृदय में स्त्री को स्थान प्राप्त होने से इन्द्रिय जन्य शब्दादि विषय, कषाय, विविध संज्ञा और गारव आदि सब दोष स्वभाव से ही शीघ्र बढ़ते हैं यदि वय से वृद्ध और बहुत ज्ञानवान हो, तथा प्रामाणिक लोकमान्य मुनि एवं तपस्वी हो फिर भी स्त्रियों के संसर्ग से वह अल्पकाल में दोषों को प्राप्त करता है। तो फिर युवान, अल्पज्ञान वाला, अज्ञानी आदि स्वछंदचारी और मूर्ख स्त्री के संसर्ग से मूल में से ही विनाश अर्थात् व्रत से भ्रष्ट होता है उसमें क्या आश्चर्य है? मनुष्य रहित निर्जन गहन जंगल में रहनेवाले भी कुलवालक मुनि ने स्त्री के संसर्ग से महा विडम्बना प्राप्त की थी। जो जहर के समान स्त्री के संसर्ग को सर्वथा त्याग करता है वह जिंदगी तक निश्चल ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है क्योंकि-देखने मात्र से भी वह स्त्री पुरुष को मूर्च्छित करती है। इसलिए समझदार पुरुष को समझना चाहिए की पापी स्त्री के नेत्रों में निश्चय जहर भरा हुआ है। तीव्र जहर, सर्प और सिंह का संसर्ग एक बार ही मारता है जबकि स्त्री का संसर्ग पुरुष को अनंती बार मारता है। इस तरह व्रत रूपी वन के मूल में अग्नितुल्य की संगत का जो हमेशा त्याग करता है. वह सखपर्वक ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है और यश का विस्तार करता है। इसलिए हे क्षपकमुनि! यदि मोह के दोष से किसी समय भी विषय की इच्छा हो तो भी पाँच प्रकार के स्त्री वैराग्य में उपयोग वाला बनना। कीचड़ में उत्पन्न हुआ और जल में बढ़ने वाला कमल जैसे वह कीचड़ और जल से लिप्त नहीं होता है वैसे स्त्री रूपी कीचड़ से जन्मा हुआ और विषय रूपी जल से वृद्धि होने पर भी मुनि उसमें लिप्त नहीं होते हैं। अनेक दोष रूपी हिंसक प्राणियों के समूह वाली, मायारूपी मृग तृष्णा वाली और कुबुद्धि रूपी गाढ़ महान् जंगल वाली स्त्री रूपी अटवी में मुनि मोहित नहीं होता। सर्व प्रकार की स्त्रियों में सदा अप्रमत्त और अपने स्वरूप में दृढ़ विश्वास रखने वाला मुनि चारित्र का मूलभूत और सद्गति का कारण रूप 339 For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा ब्रह्मचर्य को प्राप्त करता है। जो स्त्री के रूप को चिरकाल टकटकी दृष्टि से नहीं देखता है और मध्याह्न के तीक्ष्ण तेज वाले सूर्य को देखने के समान उसी समय दृष्टि को वापस खींच लेता है, वही ब्रह्मचर्य व्रत को पार उतार सकता है। दूसरे मेरे विषय में क्या बोल रहे हैं? मुझे कैसा देख रहे हैं? और मैं कैसा वर्तन करता हूँ? इस तरह जो आत्मा नित्य अनुप्रेक्षा करता है वह दृढ़ ब्रह्मव्रत वाला है। धन्य पुरुष ही मंदहास्यपूर्वक के वचन रूपी तरंगों से व्याप्त और विषय रूपी अगाढ़ जल वाले यौवन रूपी समुद्र को स्त्री रूपी घड़ियाल में फँसे बिना पार उतरते हैं ।।८९४६।। (५) अपरिग्रह व्रत :- बाह्य और अभ्यंतर सर्व परिग्रह को तूं मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदना के द्वारा त्याग कर। इसमें १. मिथ्यात्व, २. पुरुष वेद, ३. स्त्री वेद, ४. नपुंसक वेद, ५ से ११ हास्यादिषट्क और ११ से १४ चार कषाय इस तरह चौदह प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह जानना। १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. धन, ४. धान्य, ५. धातु, ६. सोना, ७. चांदी, ८. दास, दासी, ९. पशु, पक्षी तथा शयन आसनादि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह जानना। छिलके सहित चावल-धान जैसे शुद्ध नहीं हो सकता है, वैसे परिग्रह से युक्त जीव के कर्ममल शुद्ध नहीं हो सकते हैं। जब राग, द्वेष, गारव तथा संज्ञा का उदय होता है, तब लालची जीव परिग्रह को प्राप्त करने की बुद्धि रखता है फिर उसके कारण जीवों को मारता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित धन को एकत्रित करता है। धन के मोह से अत्यंत मूढ़ बनें जीव को संज्ञा, गारव, चुगली, कलह, कठोरता तथा झगड़ा विवाद आदि कौन-कौन से दोष नहीं होते हैं? परिग्रह से मनुष्यों को भय उत्पन्न होता है क्योंकि एलगच्छ नगर में जन्मे हुए दो सगे भाइयों ने धन के लिए परस्पर मारने की बुद्धि हुई थी। धन के लिए चोरों में भी परस्पर अतिभय उत्पन्न हुआ था, इससे मद्य और मांस में विष मिलाकर उनको परस्पर मार दिया था। परिग्रह महाभय है, क्योंकि उत्तम कुंचिक श्रावक ने धन चोरी करने वाला पुत्र था फिर भी आचार्य महाराज को कष्ट दिया। वह इस प्रकार 'मुनिपति राजर्षि' कुंचिक सेठ के घर उसके भंडार के पास चौमासे में रहे, सेठ की जानकारी बिना ही उनके पुत्र गुप्त रूप में धन चोरी कर गये, परंतु सेठ को आचार्यजी के प्रति शंका हुई और उनको कष्ट दिया। धन के लिए ठण्डी, गरमी, प्यास, भूख, वर्षा, दुष्ट शय्या, और अनिष्ट भोजन इत्यादि कष्टों को जीव सहन करता है और अनेक प्रकार के भार को उठाता है। अच्छे कुल में जन्म लेनेवाला भी धन का अर्थी गाता है. नत्य है. दौडता है. कंपायमान होता है. विलाप करता है. अशचि को भी कचलता है. और नीच कर्म भी करता है। ऐसा करने पर भी उनको धन प्राप्ति में संदेह होता है, क्योंकि मंद भाग्यवाला चिरकाल तक भी धन प्राप्त नहीं कर सकता। और यदि किसी तरह धन मिल जाये फिर भी उसे उस धन से तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि लाभ से लोभ बढ़ता है। जैसे ईंधन से अग्नि, और नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता वैसे जीव को तीनों लोक मिल जायें, फिर भी तृप्ति नहीं होती है। जैसे हाथ में मांसवाले निर्दोष पक्षी को दूसरे पक्षी उपद्रव करते हैं वैसे निरपराधी धनवान को भी अन्य मारते हैं, वध करते हैं, रोकते हैं और भेदन छेदन करते हैं। धन के लिए जीव माता, पिता, पुत्र और स्त्री में भी विश्वास नहीं करता और उसकी रक्षा करते समग्र रात्री जागृत रहता है। अपना धन जब नाश होता है तब पुरुष अंतर में जलता है, उन्मत्त के समान विलाप करता है, शोक करता है और पुनः धन प्राप्ति करने की उत्सुकता रखता है। स्वयं परिग्रह का ग्रहण, रक्षण, सार संभाल आदि करते व्याकुल मन वाला मर्यादा भ्रष्ट हुआ जीव शुभ ध्यान किस तरह कर सकता है? 340 For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारूदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला और धन में आसक्त हृदय वाला जीव अनेक जन्मों तक दरिद्र होता है और कठोर हृदयवाला वह धन के लिए कर्म का बंध करता है। धन को छोड़नेवाला मुनि इन सब दोषों से मुक्त होता है और परम अभ्युदय रूप मुख्य गुण समूह को प्राप्त करता है। जैसे मंत्र, विद्या और औषध बिना का पुरुष अनेक सों वाले जंगल में अनर्थ को प्राप्त करता है वैसे धन को रखनेवाला मुनि भी महान् अनर्थ को प्राप्त करता है। मन पसंद अर्थ में राग होता है और मनपसंद न हो तो द्वेष होता है ऐसे अर्थ का त्याग करने से रागद्वेष दोनों का त्याग होता है। परीग्रह से बचने के लिए उपयोगी धन को सर्वथा छोड़ने वाला तत्त्व से तो ठण्डी, ताप, डांस, मच्छर आदि परीषहों को छाती देकर हिम्मत रखता है। अग्नि का हेतु जैसे लकड़ी है, वैसे कषायों का हेतु आसक्ति है इसलिए सदा अपरिग्रही साधु ही कषाय की संलेखना कर सकते हैं। वे ही सर्वत्र नम्र अथवा निश्चिंत बनते हैं और उनका स्वरूप विश्वास पात्र बनता है, जो परिग्रह में आसक्त है वह सर्वत्र अभिमानी अथवा चिंतातुर और शंका पात्र बनता है इसलिए हे सुविहित मुनिवर्य! तूं भूत, भविष्य और वर्तमान में सर्व परिग्रह को करना, करवाना और अनुमोदना का सदा त्याग कर। इस तरह सर्वपरिग्रह का त्यागी प्रायः उपशांत बना, प्रशांत चित्तवाला साधु जीते हुए भी शुद्ध निर्वाण-मोक्ष सुख को प्राप्त करता है। इन व्रतों से आचार्य भगवंत आदि महान् प्रयोजन सिद्ध करते हैं और स्वरूप से ये बड़े से भी बड़े हैं इसलिए इन्हें महाव्रत कहते हैं। इन व्रतों की रक्षा के लिए सदा रात्री भोजन का त्याग करना चाहिए और प्रत्येक व्रत की भावनाओं का अच्छी तरह चिंतन करना चाहिए। प्रथम महाव्रत की भावना :- यग प्रमाण नीचे दृष्टि रखकर अखंड उपयोग पूर्वक कदम रखकर शीघ्रता रहित जयणापूर्वक चलने वाले को प्रथम व्रत की प्रथम भावना होती है। बीयालीस दोष रहित ऐषणा की आराधना वाले साधु को भी आहार, पानी दृष्टि से देखने की जयणा करने से प्रथम व्रत की दूसरी भावना होती है। वस्त्र पात्रादि उपकरणों को लेने रखने में प्रमार्जन करना और प्रतिलेखना पर्वक जयणा करनेवाले को प्रथम व्रत की तीसरी भावना होती है। मन को अशुभ विषय से रोककर आगम विधिपूर्वक शुभ विषय में सम्यग् जोड़ने वाले को प्रथम व्रत की चौथी भावना होती है। और अकार्य में से वाणी के वेग को रोककर शुभ कार्य में भी आगम विधि अनुसार बुद्धिपूर्वक विचारकर वचन का उच्चारण करने वाले को प्रथम व्रत की पाँचवीं भावना होती है। ऊपर कहे अनुसार से विपरीत प्रवृत्ति करने वाला पुनः जीवों की हिंसा करता है, अतः प्रथम व्रत की दृढ़ता के लिए पांच भावनाओं में उद्यम करना चाहिए। दूसरे व्रत की भावना :- हंसी के बिना बोलने वाले को दूसरे व्रत की पहली भावना है और विचार कर बोलने वाले को दूसरे व्रत की दूसरी भावना होती है। प्रायःकर क्रोध, लोभ और भय से असत्य बोलने का कारण हो सकता है, इसलिए क्रोध, लोभ और भय के त्यागपूर्वक ही बोलने में दूसरे व्रत की शेष तीन अर्थात् तीसरी, चौथी और पाँचवीं भावनाएँ होती हैं। तीसरे महाव्रत की भावना :- मालिक अथवा मालिक ने जिसको सौंपा हो उसको विधिपूर्वक अवग्रहउपयोग करने आदि की भूमि की मर्यादा बतानी चाहिए, अन्यथा अप्रीतिस्वभाव अदत्तादान होता है। यह तीसरे व्रत की प्रथम भावना जानना। द्रव्य, क्षेत्र, आदि चार प्रकार के अवग्रह की मर्यादा बताने के लिए गृहस्थ द्वारा उसकी आज्ञा प्राप्त करें वह तीसरे व्रत की दूसरी भावना है। फिर मर्यादित किये अवग्रह का ही हमेशा विधिपूर्वक उपयोग करे अन्यथा अदत्तादान लगता है। इस तरह तीसरे व्रत की तीसरी भावना है। सर्व साधुओं के साधारण आहार और पानी में से भी जो शेष साधु को तथा गुरुदेव ने अनुमति दी हो उसका वही उपयोग करने वाले को तीसरे व्रत की चौथी भावना होती है। गीतार्थ को मान्य उद्यत विहार आदि गुण वाले साधुओं को मासादि प्रमाण 341 For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-पंच महावत' रक्षण नामक दसवाँ द्वार-चारुदत्त की कथा वाला काल अवग्रह, जाते आते पांच कोस आदि मर्यादा रूप क्षेत्र अवग्रह एवं उनकी वसति आदि प्रत्येक को उनकी अनुज्ञापूर्वक उपयोग करें, अन्यथा अदत्तादान दोष लगता है यह तीसरे व्रत की पाँचवीं भावना जानना। चौथे महाव्रत की भावना :- ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाला मुनि अति स्निग्ध आहार को एवं ऋक्ष (रुखा सूखा) भी अति प्रमाण आहार का त्याग करे वह निश्चय चौथे व्रत की प्रथम भावना होती है। अपनी शोभा के लिए श्रृंगारिक वस्तुओं का योग तथा शरीर, नाखून, दांत, केस का श्रृंगार नहीं करना वह चौथे व्रत की दूसरी भावना जानना। स्त्री के अंगोपांग आदि को सरागवृत्ति से मन में स्मरण नहीं करना और रागपूर्वक देखना भी नहीं वह चौथे व्रत की तीसरी भावना जानना। पशु, नपुंसक और स्त्रियों से युक्त वसति को तथा स्त्री के आसन-शयन का त्याग करने वाले को चौथे व्रत की चौथी भावना होती है। केवल स्त्रियों के साथ अथवा स्त्री संबंधी बातों को नहीं करने से और पूर्व में भोगे-भोगों का स्मरण नहीं करने से चौथे व्रत की पाँचवीं भावना जानना। पाँचवें महाव्रत की भावना :- मन को अरुचिकर अथवा रुचिकर शब्दादि पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषयों में प्रद्वेष और गृद्धि-आसक्ति नहीं करने वाले को पाँचवें महाव्रत की पाँचों भावनाएँ होती है। महाव्रत पालन का उपदेश :- इस प्रकार हे सुंदर क्षपक मुनि! आत्मा में व्रतों की परम दृढ़ता को चाहने वाला तूं पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का चिंतन करना। अन्यथा सख्त पवन से प्रेरित जंगल की कोमल लता के समान कोमल चंचल मन वाले और इससे इन व्रतों में अस्थिरात्मा हे क्षपक मुनि! तूं उसके फल को प्राप्त नहीं ? इसलिए हे देवानप्रिय! पाँच महाव्रत में दृढ हो जाओ। क्योंकि यदि इन व्रतों में ठगा गया तो तूं सर्व स्थानों में ठगा गया है ऐसा जान। जैसे तुम्बे की दृढ़ता बिना चक्र के आरे अपना कार्य नहीं कर सकते हैं, वैसे महाव्रतों में शिथिल आत्मा के सर्व धर्म गुण निष्फल होते हैं ।।८२००।। जैसे वृक्ष की शाखा, प्रशाखा, पुष्प और फलों का पोषक कारण उसका मूल होता है वैसे धर्म गुणों का भी मूल महाव्रतों की श्रेष्ठता, दृढ़ता है। जैसे भीतर से दीमक नामक जीवों से खाया गया खंभा घर के भार को नहीं उठा सकता, वैसे ही व्रतों में शिथिल आत्मा धर्म की धूरा के भार को उठाने में कैसे समर्थ हो सकता है? और जैसे छिद्र वाली निर्बल नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ नहीं है वैसे व्रतों में शिथिल, अतिचार वाला मुनि धर्म गुणों के भार को उठा नहीं सकता। 1 और छिद वाला घडा भी जैसे जल को धारण करने अथवा रक्षण करने में समर्थ नहीं है वैसे व्रतों में शिथिल अतिचार वाला मुनि धर्म गुणों को धारण करने में या रक्षण करने में समर्थ नहीं हो सकता है। इन व्रतों के अनादर से, अदृढ़ता से और अतिचार सहित जीवात्मा ने इस अपार संसार समुद्र में परिभ्रमण किया है, कर रहा है और परिभ्रमण करेगा। इसलिए हे सुंदर मुनि! तूं सम्यक् संविज्ञ मन वाला होकर पूर्वाचार्य के इन वचनों का मन में चिंतन कर। जिसने पाँच महाव्रत रूपी ऊँचे किल्ले को तोड़ा है, वह चारित्र भ्रष्ट है और केवल वेषधारी है उसका अनंत संसार परिभ्रमण जानना। महाव्रत और अणुव्रतों को छोड़कर जो अन्य तप का आचरण करता है, वह अज्ञानी मूढ़ात्मा डूबी हुई नाव वाला जानना। महान् फलदायक ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़कर जो सुख की अभिलाषा रखता है वह बुद्धि से कमजोर मूर्ख तपस्वी करोड़ सोना मोहर से काँच के पत्थर को खरीदता है। और चतुर्विध सकल श्री संघ वाले मंडप में मिलने पर, संसार रूपी भयंकर व्याधि से पीड़ित अन्यत्र रक्षण नहीं मिलने से इस महानुभाव वैद्य के शरण के समान हमारे शरण में आया है अतः अनुग्रह करने योग्य है। इस प्रकार समझकर परोपकार परायण श्रेष्ठ गुरु द्वारा प्रदत्त इन व्रतों में हे सुंदर मुनि! सुदृढ़ बन जाओ। जैसे भीतर की शक्ति वाला मजबूत स्तंभ सभा घर के भार को उठाने में समर्थ बनता है वैसे व्रतों में अतिदृढ आत्मा उत्तम धर्म धरा को 342 For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-पंच महाव्रत रक्षण द्वार-पुत्रवधुओं की कथा श्री संवेगरंगशाला उठाने में समर्थ बनती हैं। जैसे सर्व अंगों से समर्थ बैल भार को उठाने के लिए समर्थ होता है वैसे व्रतों में अतिदृढ़ आत्मा उत्तम धर्मधुरा को उठाने में समर्थ बनती है। जैसे अत्यंत मजबूत अंगवाली छिद्र रहित नाव वस्तुओं को उठाने में समर्थ होती है वैसे ही व्रतों में भी सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्मगुण को उठा सकती है। जैसे पका हुआ और छिद्र बिना का अखंड घड़ा पानी को धारण करने में अथवा रक्षण करने में समर्थ होता है वैसे ही व्रतों में सुदृढ़ और अतिचार रहित आत्मा धर्म गुणों को धारण करने में और रक्षण करने में समर्थ बन सकती है। इन व्रतों के सद्भाव से, पालन करने से, अति दृढ़ता से और अतिचार रहित से जीव इस अपार संसार समुद्र को तरे हैं, तर रहे हैं और तरेंगे। धन्यात्माओं को यह व्रत प्राप्त होता है, धन्य जीवों को ही इसमें अतिदृढ़ता आती है और धन्य पुरुषों को ही इसमें परम निरतिचार युक्त शुद्धि होती है। इसलिए अति दुर्लभ पाँच महाव्रत रूपी रत्नों को प्राप्त कर तूं फेंक मत देना और इनको आजीविका का आधार भी मत बनाना अन्यथा उज्जिका और भोगवती के समान तूं भी इस संसार में कनिष्ठ स्थान को प्राप्त कर अपयश और दुःख को प्राप्त करेगा। इसलिए दृढ़ चित्तवाले तूं पंच महाव्रतों की धूरा को धारण करने में समर्थ बैल बनना। स्वयं इन व्रतों का पालन करना और दूसरों को भी उपदेश देना। इससे धन नाम के सेठ की पुत्रवधू रक्षिका और रोहिणी के समान उत्तम स्थान तथा कीर्ति को प्राप्त कर तूं हमेशा सुखी होगा ।।८२२२।। वह कथा इस प्रकार : धन सेठ की पुत्रवधुओं की कथा राजगृह नगर में धन नाम का सेठ था, उसके धनपाल आदि चार पुत्र और उज्जिका, भोगवती, रक्षिका तथा रोहिणी नाम की चार पुत्रवधू थीं। सेठजी की उम्र परिपक्व होने से चिंता हुई कि अब किस पुत्रवधू को घर का कार्यभार सौंपू? फिर परीक्षा के लिए भोजन मंडप तैयार करवाया और सभी को निमंत्रण किया, भोजन करवाने के बाद उनको स्वजनों के समक्ष 'इसे संभालकर रखना और जब मांगू तब देना' ऐसा कहकर आदरपूर्वक प्रत्येक को पाँच-पाँच धान के दाने दिये। पहली बहू ने उसे फेंक दिया। दूसरी ने छिलका निकाल कर भक्षण किया, तीसरी ने बाँधकर आभूषण समान रक्षण कर रखा और चौथी ने विधिपूर्वक पीहर बोने के लिए भेजा। बहुत समय जाने के बाद पूर्व के समान भोजन करवाकर सगे संबंधियों के समक्ष उन दानों को मांगा। प्रथम और दूसरी उसका स्मरण होते ही उदास बन गयी। तीसरी ने वही दाने लाकर दिये और चौथी ने चाभी दी और कहा कि गाड़ी भेजकर मँगा लो क्योंकि आपके उस वचन का पालन इस तरह वृद्धि करने से होता है अन्यथा शक्ति होने पर विनाश होने से सम्यक् पालन नहीं माना जाता है। फिर धन सेठ ने स्वजनों से कहा कि-आप मेरे कल्याण साधक हितस्वी हो, तो इस विषय में मुझे क्या करना योग्य है उसे आप कहो? उन्होंने कहा कि-आप अनुभवी हो आपको जो योग्य लगे उसे करो। इससे उन्होंने अनुक्रम से घर की सफाई का कार्य, घर के कोठार, भंडार और घर संभाल कार्य सौंप दिया और इससे सेठजी की प्रशंसा हुई। इस दृष्टांत का उपनय इस प्रकार जानना। सेठ के समान संयम जीवन में गुरु महाराज हैं, स्वजन समान श्रमण संघ है, पुत्रवधुओं के समान भव्य जीव और धान के दाने के समान महाव्रत हैं। जैसे वह धान के दाने फेंक देने वाली यथार्थ नाम वाली उज्जिता दासीत्व प्राप्त करने से बहुत दुःखों की खान बनी। वैसे ही जो कोई भव्यात्मा गुरु ने श्रीसंघ समक्ष दिये हुए महाव्रत को स्वीकार करके महामोह से त्याग कर देता है, वह इस संसार में ही मनुष्यों के द्वारा धिक्कार पात्र बनता है और परलोक में दुःखों से पीड़ित विविध हल्की योनियों में भ्रमण करता है। और जैसे वह धान के खाने वाली यथार्थ नाम वाली भोगवती ने पीसना आदि घर के कार्य विशेष करने - 343 For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार से दुःख को ही प्राप्त किया। उसी तरह महाव्रतों का पालन करते हुए भी आहारादि में आसक्त, मोक्ष साधना से भावना रहित व्रतों को आजीविका का हेतु मानकर उससे आजीविका करता है। वह इस जन्म में साधु वेश होने के कारण इच्छानुसार आहार आदि प्राप्त करता है, परंतु पंडितजनों में विशेष पूज्य नहीं बनता है, परलोक में दुःखी ही होता है। और जैसे धान के दाने रक्षण करने वाली यथार्थ नाम वाली रक्षिता नाम की पुत्रवधू स्वजनों को मान्य बनी और भोग सुख को प्राप्त किया। उसी तरह जीव पाँच महाव्रतों को सम्यक् स्वीकार करके अल्प भी प्रमाद नहीं करता और निरतिचार पालन करता है, वह आत्महित में एक प्रेमवाला इस जन्म में पंडितों से भी पूज्य बनकर एकांत से सुखी होते हैं और परलोक मोक्ष को प्राप्त करता है। और जैसे धान के दाने की खेती करानेवाली यथार्थ नाम वाली रोहिणी नाम की पुत्रवधू ने धान के दानों की वृद्धि कर सर्व का स्वामित्व प्राप्त किया, उसी तरह जो भव्यात्मा व्रतों को स्वीकार करके स्वयं सम्यक् पालन करें और दूसरे अनेक भव्य जीवों को सुखार्थ अथवा शुभहेतु संयम दे, संयम आराधकों की वृद्धि करे वह संघ में मुख्य, इस जन्म में (युगप्रधान) समान प्रशंसा का पात्र बनता है और श्री गणधर प्रभु के समान स्व-पर का उद्धार करते, कुतीर्थिक आदि को भी आकर्षण करने से शासन की प्रभावना करते और विद्वान पुरुषों से चरणों की पूजा करवाता क्रमशः सिद्धि पद भी प्राप्त करता है। इस तरह मैंने अनुशास्ति द्वार में पाँच महाव्रतों की रक्षा नाम का दसवाँ अंतर द्वार विस्तार से अर्थ सहित कहा, अब क्रमशः परम पवित्रता प्रकट करने में उत्तम निमित्तभूत 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८२४६ ।। ग्यारहवाँ चार शरण द्वार : ग्यारहवें अंतर द्वार में श्री अरिहंतों का स्वरूप और शरण :- अहो क्षपकमुनि! व्रतों का रक्षण कार्य करने वाला, तूं भी अरिहंत, सिद्ध, साधु और जैन धर्म, इन चारों की शरणागति स्वीकार कर। इसमें हे सुंदर! जिनके ज्ञानावरणीय कर्मों का संपूर्ण नाश हुआ है। जिन्हानें किसी तरह नहीं रुके ऐसे ज्ञान, दर्शन के विस्तार को प्राप्त किया है। भयंकर संसार अटवी के परिभ्रमण के कारणों का नाश करने से श्री अरिहंतपद को प्राप्त किया है। जन्म-मरण रहित सर्वोत्तम यथाख्यात चारित्र वाले हैं। सर्वोत्तम १००८ लक्षणों से युक्त शरीर वाले हैं। सर्वोत्तम गुणों से शोभित हैं। सर्वोत्तम जिन नामकर्म आदि पुण्य के समूहवाले हैं। जगत के सर्व जीवों के हितस्वी हैं और जगत के सर्व जीवों के परमबंधु-माता पिता तुल्य श्री अरिहंत भगवंतों को तूं शरण रूप में स्वीकार कर। तथा जिसके सर्व अंग सर्व प्रकार से निष्कलंक हैं, समस्त तीन लोकरूपी आकाश को शोभायमान करने में चंद्र समान हैं। पापरूपी कीचड़ को उन्होंने सर्वथा नाश किया हैं। दुःख से पीड़ित जगत के जीवों को पिता की गोद समान हैं। महान् श्रेष्ठ महिमा वाले हैं। परम पद के साधक रूप हैं। परम पुरुष, परमात्मा और परमेश्वर हैं तथा परम मंगलभूत हैं। सद्भूत उन-उन भावों के यथार्थ उपदेशक हैं और तीन जगत के भूषण रूप श्री अरिहंत परमात्मा को हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। और जो भव्य जीव रूपी कमलों के विकास के लिए चंद्रमा समान हैं, तीन लोक को प्रकाश करने में सूर्य समान हैं, संसार में भटकते दुःखी जीव समूह का विश्राम स्थान हैं, श्रेष्ठ चौतीस अतिशयों से समृद्धशाली हैं, अनंत बल वाले, अनंत वीर्य वाले और सत्त्व से युक्त हैं, भयंकर संसार समुद्र में डूबते जीव समूह को पार उतारने में जहाज समान हैं और विष्णु, महेश्वर, ब्रह्मा तथा इन्द्र को भी दुर्जय कामरूपी महाशत्रु के अहंकार को उतारने वाले श्री अरिहंत भगवंतों को, हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। 344 For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार श्री संवेगरंगशाला जो तीनों लोक की लक्ष्मी के तिलक समान हैं, मिथ्यात्व रूप अंधकार के विनाशक सूर्य हैं, तीनों लोक रूपी मोह मल्ल को जीतने में महामल्ल के समान हैं, महासत्त्व वाले हैं, तीन लोक द्वारा जिनके चरण कमल की पूजा होती है, समस्त तीन लोक में विस्तृत प्रताप वाले हैं, विस्तृत प्रताप से प्रचंड पाखंड़ियों के प्रभाव का नाश करने वाले हैं, विस्तृत कीर्तिरूपी कमलिनी के विस्तार से समस्त भवन रूपी सरोवर के व्यापक हैं, तीन लोक रूपी सरोवर में राजहंस तुल्य हैं, धर्म की धुरा को धारण करने में श्रेष्ठ वृषभ के समान हैं, जिसकी सर्व अवस्थाएँ प्रशंसनीय हैं, अप्रतिहत-अजेय शासन वाले हैं, अतुल्य तेज वाले हैं, जिनका विशिष्ट दर्शन संपूर्ण पुण्य समूह से युक्त है, जो श्रीमान् भगवान् तथा करुणा वाले हैं और प्रकृष्ट जय वाले सर्व श्री अरिहंतों को हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। श्री सिद्धों का स्वरूप और शरण स्वीकार :-इस मनुष्य जन्म में चारित्र को पालकर पाप के आश्रव को रोककर पंडित मरण से आयुष्य पूर्णकर संसार परिभ्रमण को दूर करके कृत कृत्यपने से जो सिद्ध हुए हैं, निर्मल केवलज्ञान से बुद्ध हैं, संसार के मिथ्यात्वादि कारणों से मुक्त हैं, सुखरूपी लक्ष्मी में सर्वथा तल्लीन हैं, जिन्होंने सकल दुःखों का अंत किया हैं, सम्यग्ज्ञानादि गुणों से अनंत भावों के ज्ञाता हैं, अनंत वीर्य लक्ष्मीवाले हैं, अनंत सुख समूह से संक्रान्त-सुखी बने हैं, सर्व संग से रहित निर्मुक्त हैं और जो स्व-पर कर्म बंध में निमित्त नहीं हुए हैं ऐसे श्री सिद्ध परमात्माओं को हे सुंदर मुनि! तूं शरण रूप में स्वीकार। और जिसके कर्मों का आवरण नष्ट हो गये हैं, समस्त जन्म, जरा और मरण से पार हो गये हैं, तीन लोक के मस्तक के मुकुट रूप हैं, जगत के सर्व जीवों के श्रेष्ठ शरण भूत हैं, जो क्षायिक गुणात्मक हैं, समस्त तीन जगत के श्रेष्ठ पूजनीय हैं, शाश्वत सुख स्वरूप हैं, सर्वथा वर्ण, गंध रस और रूप से रहित हुए और जो मंगल का घर, मंगल के कारणभूत एवं परम ज्ञानमय-ज्ञानात्मक शरीर वाले हैं, ऐसे श्री सिद्ध भगवंतों का हे सुंदरमुनि! तूं शरण स्वीकार कर। और लोकान्त-लोक के अग्र भाग में सम्यग् स्थिर हुए हैं, दुःसाध्य सर्व प्रयोजनों को जिन्होंने सिद्ध किया हैं, सर्वोत्कृष्ट प्रतिष्ठा को प्राप्त की हैं, और इससे ही वे निष्ठितार्थ-कृतकृत्य भी हैं, जो शब्दादि के इन्द्रिय जन्य विषयभूत नहीं हैं, आकार रहित हैं, जिनको इन्द्रिय जन्य क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं है और उत्कृष्ट अतिशयों से समृद्धशाली हैं। उन श्री सिद्धों की शरण स्वीकार कर। एवं जो तीक्ष्ण धाराओं से अच्छेद्य, सर्व सैन्य से अभेद्य, अजय, जल समूह भीगा नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, प्रलय काल का प्रबल वायु भी चलायमान नहीं कर सकता, वज्र से भी चूर नहीं हो सकता ऐसे सक्ष्म निरंजन. अक्षय और अचिंत्य महिमा वाले हैं तथा अत्यंत परम योगी ही उनका यथास्थित स्वरूप जान सकते हैं ऐसे कृतकृत्य नित्य जन्म, जरा, मरण से रहित तथा श्रीमंत, भगवंत, पुनः संसारी नहीं होने वाले, सर्व प्रकार से विजय को प्राप्त हुए परमेश्वर और शरण स्वीकारने योग्य श्री सिद्ध परमात्मा को हे सुंदर मुनि! निज कर्मों को छेदन करने की इच्छा वाले आराधना में सम्यक् स्थिर और विस्तार होते तीव्र संवेग रस का अनुभव करते तूं शरण स्वीकार कर। साधु का स्वरूप और शरण स्वीकार :-हमेशा जिन्होंने जीव अजीव आदि परम तत्त्वों के समूह को सम्यग् रूप में जाना है, प्रकृति से ही निर्गुण संसार वासना के स्वरूप को जो जानते हैं, संवेग से महान् गीतार्थ, शुद्ध क्रिया में परायण, धीर और सारणा, वारणा चोयणा, और प्रतिचोयणा को करने वाले और जिन्होंने सद्गुरु की निश्रा में पूर्णरूप से साधुता को सम्यक् स्वीकार किया है ऐसे निग्रन्थ श्रमणों की हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। 345 For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार तथा मोक्ष में एक बद्ध लक्ष्य वाले, संसारिक सुख से वैरागी चित्त वाले, अति संवेग से संसारवास प्रति सर्व प्रकार से थके हुए और इससे ही स्त्री, पुत्र, मित्र आदि के प्रति चित्त के बंधन से रहित तथा घरवास की सर्व आसक्ति रूप चित्त के बंधन से भी सर्वथा रहित, सर्व जीवों को आत्म तुल्य मानने वाले, अत्यंत प्रशमरस से भीगे हुए सर्व अंग वाले निर्ग्रन्थ साधुओं की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। इच्छा-मिच्छा आदि, प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि, अथवा दशविध चक्रवाल समाचारी प्रति अत्यंत रागी, दो, तीन, चार अथवा पाँच दिन या अर्द्ध मास उपवास आदि तप के विविध प्रकारों में यथा शक्ति उद्यमी, उपमा से पद्मादि तुल्य, पाँच समिति के पालन में मुख्य रहने वाले, पाँच प्रकार के आचारों को धारण करने वाले, धीर और पाप को उपशम करने वाले साधुओं की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। __और गुणरूपी रत्नों के महानिधान रूप, समस्त पाप व्यापार से विरति वाले, स्नेह रूपी जंजीर को तोड़ने वाले, संयम के भार को उठाने में श्रेष्ठ, वृषभ तुल्य, क्रोध के विजेता, मान को जीतने वाले, माया को जीतने वाले, और लोभरूपी सुभट के विजयी, राग, द्वेष और मोह को जीतने वाले, जितेन्द्रिय, निद्रा का विजय करने वाले, मत्सर के विजेता, मद के विजेता, काम के विजेता और परीषह की सेना को जीतने वाले साधु भगवंतों की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। वांसले और चंदन में समान वृत्ति वाले, सन्मान और अपमान में समान मन वाले, सुख-दुःख में समचित्त वाले, शत्रु-मित्र में समचित्त वाले, तथा स्वाध्याय, अध्ययन में तत्पर, परोपकार करने में केवल एक व्यसन वाले, उत्तरोत्तर अति विशुद्ध भाव वाले, सम्यग् रूप में आश्रव द्वार को बंद करने वाले, मन से गुप्त, वचन से गुप्त, काया से गुप्त और प्रशस्त लेश्या वाले श्री श्रमण भगवंतों की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। नौ कोटि प्रकार से विशुद्ध, प्रमाणोपेत, विगइयों की विशेषता रहित आहार लेते हैं, वह भी राग, द्वेष बिना छः कारणों के कारण श्रमण वृत्ति से पवित्र, निष्पाप, वह भी एक बार विरस और साधुजन के योग्य आहार करने की इच्छा वाले, सूखा, लूखा और अप्रतिकर्मित (लेने वाले)-शुश्रूषारहित शरीर वाले, द्वादशांगी के जानकार साधुओं की तूं शरण स्वीकार कर। तथा संवेगी, गीतार्थ, निश्चय वृद्धि प्राप्त करते चरण-करण गुण वाले, संसार के परिभ्रमण में कारणभूत प्रमाद स्थानों का त्याग करने के लिए उद्यमी, अनुत्तर विमानवासी देवों की तेजोलेश्या का भी उल्लंघन करने वाले, मन,वचन, काया के क्लेशों का नाश करने वाले, सकल परिग्रह के सर्वथा त्यागी बुद्धिमंत, गुणवान, श्रीमंत, शीलवंत एवं भगवंत श्री श्रमण मुनियों की, हे सुंदर मुनि! तूं शुद्ध भाव से शरण स्वीकार कर। जैन धर्म का स्वरूप और शरण स्वीकार :- सर्व अतिशयों के निधान रूप, अन्य मत के समस्त शासन में मुख्य, सुंदर विचित्र रचना वाला, निरुपम सुख का कारण, अव्यवस्थित कष, छेद, ताप से रहित, शास्त्र श्रवण से, दुःख से पीड़ित जीवों को दुन्दुभिनाद सदृश आनंद देने वाला, रागादि का नाश करने वाला पटह, स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग और भयंकर संसाररूपी कुएँ में पड़ते, जगत का उद्धार करने में समर्थ, रस्सी समान, सम्यग् जैन धर्म की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। और महामति वाले मुनियों ने जिसके चरणों में नमन किया है उन तीर्थनाथ श्री जिनेश्वरों ने मुनिवरों को जो ध्येय रूप में उपदेश दिया है वह मोह का नाश करने वाला है ।।८३०० ।। अति सूक्ष्म बुद्धि से समझ में आये इस प्रकार आदि-अंत से रहित शाश्वत, सर्व जीवों का हितकर, जिसमें सद्भूत अथवा यथार्थ भावना, विचारणा है, अमूल्य, अमित, अजित, महा अर्थवाला, महा महिमा वाला, महा प्रकरण युक्त, अथवा अति स्पष्ट 346 For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-ग्यारहवाँ चार शरण द्वार श्री संवेगरंगशाला सुंदर विविध युक्तियों से युक्त, पुनरुक्ति दोषों से रहित, शुभ आशय का कारण, अज्ञानी मनुष्यों को जानने में दुष्कर नय, भंग, प्रमाण और गम से गंभीर, समस्त क्लेशों का नाशक, चंद्र समान उज्ज्वल गुण समूह से युक्त सम्यग् जिन धर्म की, हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग में चलते आराधक सर्व संवेगी भव्य आत्माओं को प्रमेय पदार्थ प्रमाद से अबाधित है, जो अनंत श्रेष्ठ प्रमाणभूत है, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सर्व का व्यवस्थापक है, जो सकल लोकव्यापी है, जन्म, जरा और मरणरूपी वेताल का निरोध करने में जो परम सिद्ध मंत्र है, शास्त्र कथित पदार्थों के विषय में हेय, उपादेय रूप जिसमें सम्यग् विवेक है उस जैन धर्म के आगम की, हे सुंदरमुनि! तूं सम्यक् शरणरूप स्वीकार कर। सर्व नदियों की रेती कण और सर्व समुद्रों का मिलन रूप समुदाय से भी प्रत्येक सूत्र में अनंतगुणा, शुद्ध सत्य अर्थ को धारण करते, मिथ्यात्वरूपी अंधकार से अंध जीवों को व्याघातरहित प्रकाश करने में दीपक तुल्य, दीन दुःखी को आश्वासन देने में आशीर्वाद तुल्य, संसार समुद्र में डूबते जीवों को द्वीप के समान, और इच्छा से अधिक देने वाला होने से चिंतामणि से भी अधिक, श्री जिन कथित धर्म को, हे क्षपक मुनि! तूं इसकी शरण स्वीकार कर। जगत के समग्र जीव समूह के पिता समान हितकारी, माता के समान वात्सल्यकारी, बंधु के समान गुणकारक और मित्र के समान द्रोह नहीं करने वाला, विश्वसनीय, श्रवण करने योग्य, भावों का जिसमें विकास है, अर्थात् सुनने योग्य सर्वश्रेष्ठ भाव हों, लोक में दुर्लभ भावों से भी अति दुर्लभ भाव, अमृत के समान अति श्रेष्ठ है, मोक्ष मार्ग का अनन्य उत्कृष्ट उपदेशक और अप्राप्त भावों को प्राप्त कराने वाले तथा प्राप्त भावों का पालन करने वाले श्री जिनेन्द्र द्वारा प्ररुपित धर्म का, हे सुंदर मुनि! तूं सम्यग् रूप से शरण स्वीकार कर। जैसे वैरियों की बड़ी सेना से घिरा हुआ मनुष्य रक्षण चाहता है, अथवा जैसे समुद्र में डूबता हुआ नाव को स्वीकार करता है, वैसे हे सुंदर मुनि! यथार्थ बोध कराने वाला अंग प्रविष्ट अनंग प्रविष्ट उभय प्रकार के श्रुत रूप धर्म का और विधि निषेध के अनुसार क्रियाओं से युक्त, चारित्र रूप धर्म की, तूं शरण स्वीकार कर। आठ प्रकार के कर्म समूह को नाश करने वाला, दुर्गति का निवारण करने वाला, कायर मनुष्यों को चिंतन अथवा सुनने को भी दुर्लभ, तथा अतिशयों से विचित्र द्रव्य, भाव, रूप सभी अति प्रशस्त महा प्रयोजन की लब्धि रूप, ऋद्धि में कारणभूत और असुरेन्द्र, सुरेन्द्र, किन्नर, व्यंतर तथा राजाओं के समूह को भी वंदनीय गुणवाला श्री जिनेश्वरों के धर्म की हे सुंदर मुनि! तूं शरण स्वीकार कर। सद्भाव बिना भी केवल बाह्य क्रिया कलाप रूप में भी हमेशा करते जिस धर्म का फल |वेयक देव की समृद्धि की प्राप्ति है और भावपूर्वक उत्कृष्ट आराधना करते इसी जन्म अथवा जघन्य से आराधक को सात आठ जन्म में मुक्ति का फल देता है। इस प्रकार लोकोत्तम गुण वाला, लोकोत्तम गुणधारी गणधर भगवंतों से रचित, लोकोत्तम आत्माओं ने पालन किया हुआ और फल भी लोकोत्तम सर्वश्रेष्ठ देनेवाला, श्री केवली भगवंतों द्वारा कथित और सिद्धांत रूप में गणधरों ने गूंथा हुआ भगवान के रम्य (सुंदर) धर्म की, हे धीर मुनि! तूं सम्यक् शरण स्वीकार कर। चार शरण द्वार का उपसंहार :- इस तरह हे क्षपक मुनि! चार शरण को स्वीकार करने वाला और कर्मरूपी महान् शत्रु से उत्पन्न हुए भय को भी नहीं मानने वाला-निर्भय, तुम शीघ्रमेव इच्छित अर्थ को प्राप्त करो। इस प्रकार 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अंतर द्वार कहा। अब दुष्कृत गर्दा नामक बारहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८३२३ ।। 347 For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गहरे द्वार बारहवाँ दुष्कृत गरे द्वार : हे धीर मुनिराज! श्री अरिहंत आदि चार की शरण स्वीकार करने वाला तूं अब भावी कटु विपाक को रोकने के लिए दुष्कृत्य की गर्दा कर अर्थात् पूर्व में किये पापों की निंदा कर। उसमें श्री अरिहंतों के विषय में अथवा उनके मंदिर-चैत्यालय के विषय में, श्री सिद्ध भगवंतों के विषय में, श्री आचार्यों के विषय में, श्री उपाध्यायों के विषय में, तथा श्री साधु, साध्वी के विषय में, इत्यादि अन्य भी वंदन, पूजन, सत्कार या सन्मान करने के योग्य विशुद्ध सर्व धर्म स्थानों के विषय में तथा माता, पिता, बंधु, मित्रों के विषय में अथवा उपकारियों के विषय में कदापि किसी भी प्रकार से, मन, वचन, काया से भी अनुचित किया हो और जो कोई उचित भी नहीं किया हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् गर्दा (स्वीकार) कर। आठ मद स्थानों में और अठारह पाप स्थानकों में भी किसी तरह कभी भी प्रवृत्ति की हो, उसकी भी निंदा कर। क्रोध, मान, माया, अथवा लोभ द्वारा भी जो कोई बड़ा या छोटा भी पाप किया, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उसकी भी निंदा कर। राग, द्वेष से अथवा मोह से-अज्ञानता से, विवेक रत्न से भ्रष्ट हुए तूंने इस लोक या परलोक विरुद्ध जो भी कार्य किया हो उसकी गर्दा कर। इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मिथ्या दृष्टि के वश होकर तूंने श्री जिनमंदिर, श्री जिनप्रतिमा और श्री संघ आदि की मन, वचन, काया से निश्चयपूर्वक जो कोई प्रद्वेष अवर्णवाद-निंदा तथा नाश आदि किया हो, उन सर्व की भी त्रिविध-त्रिविध हे सुंदर मुनि! तूं गर्दा कर। मोह रूपी महाग्रह से परवश हुआ और इससे अत्यंत पाप बुद्धि वाला, तूं लोभ से आक्रांत मन द्वारा यदि किसी श्री जिन प्रतिमा का भंग किया हो, गलाया हो, तोड़ा-फोड़ा या क्रय-विक्रय आदि पाप स्व-पर द्वारा किया हो, करवाया हो या अनुमोदन किया हो, उसकी सम्यक् गर्दा कर। क्योंकि यह तेरा आत्म साक्षी से गर्दा करने का समय है। तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में मिथ्यात्व का विस्तार करने वाला, सूक्ष्म-बादर अथवा त्रस-स्थावर जीवों का एकांत से विनाश करने वाला जैसे कि उखल, रहट, चक्की, मूसल, हल, कोश आदि शस्त्रों को रखें हो। तथा धर्म बुद्धि से अग्नि को जलाया, जैसे कि खेत में काँटे जलाना, जंगल जलाना, आदि पाप कार्यों को किये, वाव, कुँए, तालाब, आदि खुदवाये अथवा यज्ञ करवाया इत्यादि जो हिंसक कार्य किये हों, उन सबकी गर्दा कर। सम्यक्त्व को प्राप्त करके भी इस जन्म में जो कोई उसके विरुद्ध आचरण किया हो, उन सर्व की भी संवेगी तूं सम्यग् गर्दा कर। इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में साधु या श्रावक होने पर भी तूंने श्री जिनमंदिर, प्रतिमा, जैनागम और संघ आदि के प्रति रागादि वश होकर 'यह अपना, यह पराया है' इत्यादि बुद्धि-कल्पनापूर्वक यदि थोड़ी भी उदासीनता की हो, अवज्ञा की हो अथवा व्याघात या प्रद्वेष किया हो उन सर्व का भी, हे क्षपकमुनि! तूं त्रिविध-त्रिविध मन, वचन, काया से करना,कराना, अनुमोदन द्वारा सम्यक् प्रतिक्रमण कर। श्रावक जीवन प्राप्त कर तूंने अणुव्रत, गुणव्रत आदि में जो कोई भी अतिचार स्थान मन से किया हो उसका भी प्रतिघात-गर्दा कर। तथा इस जन्म में अथवा पर-जन्म में यदि कोई अंगार कर्म, वन कर्म, शकट कर्म, भाटक कर्म एवं यदि कोई स्फोटक कर्म या तो कोई दांत का व्यापार, रस का व्यापार, लाख का व्यापार, विष का व्यापार या केश व्यापार, अथवा जो कोई यंत्र पिल्लण कर्म, निलांछन कर्म, जो दावाग्नि दान, सरोवर द्रह, तालाबादि का शोषण या किसी असती का पोषण किया हो या करवाया हो तथा अनुमोदन किया हो उन सर्व का भी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् दुर्गच्छा-गर्दा कर। और यदि कोई भी पाप को प्रमाद से, अभिमान से, इरादापूर्वक, सहसा अथवा उपयोग शून्यता से भी किया हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर ।।८३४८|| यदि दूसरे का पराभव करने से, अथवा दूसरे को संकट में देखकर सुख का अनुभव करने से, दूसरे की हंसी करने से, अथवा पर का 348 For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्हा द्वार श्री संवेगरंगशाला विश्वासघात करने से, अथवा यदि पर दाक्षिण्यता से या विषयों की तीव्र अभिलाषा से अथवा तो क्रीड़ा, मखौल, या कुतूहल में आसक्त चित्त होने से, अथवा आर्त्त-रौद्र ध्यान से, वह भी सप्रयोजन या निष्प्रयोजन, इस तरह जो कोई भी पाप उपार्जन किया हो उन सबकी भी गर्दा कर। तथा मोहमूढ़ बनें यदि तूंने धर्म सामाचारी-सम्यग् आचार का या नियमों अथवा व्रतों का भंग किया हो उसकी भी प्रयत्नपूर्वक शुद्ध भाव से निंदा कर। तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में मिथ्यात्व रूपी अंधकार से अंध बनकर तूंने सुदेव में यदि अदेव बुद्धि, अदेव में सुदेव बुद्धि, सुगुरु में अगुरु बुद्धि अथवा अगुरु में भी सुगुरु, तथा तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि या अतत्त्व में तत्त्व की बद्धि और धर्म में अधर्म की बद्धि अथवा अधर्म में धर्म की बद्धि की हो. करवाई हो तथा अनमोदन किया हो. उसकी विशेषतया निंदा कर। एवं मिथ्यात्व मोह से मूढ़ बनकर तूंने सर्व प्राणियों के प्रति यदि मैत्री नहीं रखी हो, सविशेष गुण वालों के प्रति भी यदि प्रमोद न रखा हो, दुःखी पीड़ित जीवों के प्रति यदि कदापि करुणा नहीं की हो तथा पापासक्त अयोग्य जीव के प्रति यदि उपेक्षा न की हो और प्रशस्त शास्त्रों को भी सुनने की यदि इच्छा नहीं की, और श्री जिनेश्वर कथित चारित्र धर्म में यदि अनुराग नहीं किया तथा देव गुरु की वैयावच्च नहीं की, परंतु उनकी यदि निंदा की हो, उन सर्व की भी, हे सुंदर मुनिवर्य! तूं आत्मसाक्षी से संपूर्ण रूप से निंदा कर और गुरु के समक्ष गर्दा कर। भव्य जीवों के अमृत तुल्य अत्यंत हितकर भी श्री जिनवचन को यदि सम्यग् रूप में नही सुना और सुनकर सत्य नहीं माना, तथा सुनने और श्रद्धा होने पर भी बल और वीर्य होने पर पराक्रम और पुरुषकार होने पर भी यदि सम्यक् स्वीकार नहीं किया, स्वीकार करके भी यदि सम्यक् पालन नहीं किया। दूसरे उसे पालन में परायण जीवों के प्रति यदि प्रद्वेष धारण किया हो और प्रद्वेष से उसके साधन अथवा उनकी क्रिया का यदि भंग किया हो उन सबकी तूं गर्हा कर! क्योंकि हे सुंदर मुनि! यह तेरा गर्दा करने का अवसर है। तथा ज्ञान, दर्शन या चारित्र में अथवा तप या वीर्य में भी यदि कोई अतिचार सेवन किया हो तो उसकी निश्चय से त्रिविध गर्दा कर। ज्ञानाचार में :- अकाल समय में, विनय बिना, बहुमान बिना, यथा योग, उपधान किये बिना सूत्र और अर्थ का अभ्यास करते, पढ़ते हुए को तूं रुकावट वाला बना, तथा श्रुत आदि को अश्रुत कहा,अथवा सूत्र, अर्थ या तदुभय के विपरीत करने से भूत, भविष्य या वर्तमान में किसी भी प्रकार में यदि कोई ज्ञानाचार के विषय में अतिचार सेवन किया हो उन सब की त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। दर्शनाचार में :- जीवादि तत्त्व संबंधी देश शंका या सर्व शंका, अथवा अन्य धर्म को स्वीकार करने की इच्छा रूप देश या सर्वरूप, दो प्रकार की कांक्षा, तथा दान, शील, तप भाव आदि धर्म के फल विषय में अविश्वास रूप विचिकित्सा को, अथवा पसीने आदि के मेल से मलिन शरीर वाले मुनियों के प्रति दुर्गंध को करते और अन्य धर्म की पूजा प्रभावना आदि देखकर अन्य धर्म में मोहित होना, तथा धर्मीजनों की प्रशंसा, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना नहीं करते, तूंने भूत, वर्तमान या भविष्य काल संबंधी दर्शनाचार के विषय में जो अतिचार सेवन किया हो, उन सबकी त्रिविध-त्रिविध से गर्दा कर। चारित्राचार में :- मुख्य जो पाँच समिति और तीन गुप्ति इनमें यदि अतिचार सेवन किया हो, उसमें प्रथम समिति में यदि अनुपयोग से चला हो, दूसरी समिति में अनुपयोग से, वचन उच्चारण किया हो, तीसरी समिति में अनुपयोग से आहार आदि को ग्रहण किया हो, चौथी समिति में अनुपयोग से पात्र आदि उपकरण लिया रखा हो, तथा पाँचवीं समिति में त्याग करने योग्य वस्तु को जयणा बिना से त्याग किया हो, तथा पहली गुप्ति के विषय में मन को अनवस्थित-चंचलत्व धारण किया हो, दूसरी गुप्ति में बिना प्रयोजन अथवा प्रयोजन में भी उपयोग रहित वचन बोला, और तीसरी गुप्ति में काया से अकरणीय अथवा करणीय कार्य में उपयोग रहित प्रवृत्ति 349 For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्हा द्वार की हो, इस प्रकार आठ प्रवचन माता रूप चारित्र में तीनों काल में यदि कोई भी अतिचार का सेवन किया हो, उन सबकी भी त्रिविध-त्रिविध सम्यग् गर्दा कर। तथा राग द्वेष और कषाय आदि वृद्धि द्वारा तूंने यदि चारित्र रूप महारत्न को मलिन किया हो उसकी भी विशेषतया निंदा कर ।।८३७८।। फिर : ___ बारह प्रकार के तप में :- कभी भी किसी तरह अतिचार सेवन किया हो उन सब तपाचार के अतिचार की भी, हे धीर मुनि! सम्यग् गर्दा कर। वीर्याचार में :-बलवीर्य-पराक्रम होने पर भी ज्ञानादि गुणों में यदि पराक्रम नहीं किया, उन वीर्याचार के अतिचार की गर्दा कर। ___ यदि इस प्रकार के यति धर्म में अथवा मूल और उत्तर गुण के विषय में यदि अतिचार सेवन किया हो उसकी भी हे धीर मुनि! त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। मूल गुणों के अंदर प्राणि-वध आदि छोटे बड़े कोई भी अतिचार सेवन किया हो उन सब की भी सम्यग् गर्दा कर। और पिंड विशुद्धि आदि उत्तर गुणों में भी यदि छोटें बड़ें अतिचार सेवन किये हों उसकी भी भावपूर्वक गर्दा कर। मिथ्यात्व से ढके हुए शुद्ध बुद्धि वाले तूंने धार्मिक लोगों की अवज्ञा रूप जो पापाचरण किया हो उन सबकी गर्दा कर। और आहार, भय, परिग्रह तथा मैथुन इन संज्ञाओं के वश चित्तवाले तूंने यदि कोई भी पापाचरण किया हो, उसकी भी इस समय तूं निंदा कर। इस तरह गुरु महाराज क्षपक मुनि को दुष्कृत की गर्दा करवाकर पुनः दुष्कृत गर्दा के लिए इसी तरह यथायोग्य क्षमापना भी करावे-हे क्षपक मुनि! चार गति में भ्रमण करते तूंने यदि किसी भी जीवों को दुःखी किया हो उसकी क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय है। जैसे कि नारक जीवन में कर्म वश नरक में पड़े हुए अन्य जीवों को तूंने भवधारणीय तथा उत्तर वैक्रिय रूप शरीर से बलात्कार पूर्वक यदि बहुत कठोर दुःसह महा वेदना दी हो उन सबसे तूं क्षमा याचना कर। यह तेरा अब क्षमायाचना का समय है। तथा तिर्यंच जीवन में भ्रमण करते एकेन्द्रिय योनि प्राप्त कर तंने वर्ण. गंध. रस और स्पर्श से भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्य पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों को अन्योन्य मिलन रूप शस्त्र से यदि किसी की कभी भी विराधना की हो उसकी भी क्षमा याचना कर। तथा एकेन्द्रिय योनि से ही द्वीन्द्रिय आदि पंचेन्द्रिय तक के जीवों की भी जो कोई विराधना की हो उनसे भी क्षमा याचना कर। उसमें पथ्वीकाय शरीर से निश्चय द्वीन्द्रिय जीवों को तेरी पत्थर, लोहे आदि काया के पुद्गल द्वारा अथवा पृथ्वी शरीर के किसी भी विभाग का अवयव रूप में गिरने से विराधना हुई हो, अपकाय, जलकाय के शरीर से उन जीवों का उसमें डूबोने से या बर्फ, ओले, वर्षाधारा तथा जल सिंचन आदि के द्वारा पीड़ा करने से, तेज-अग्निकाय भी बिजली रूप गिरने से, जलती अग्नि रूप गिरने से, वन में दावानल लगने से और दीपक आदि से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करने से, वायु काय में भी निश्चय उन जीवों का शोषण, हनन, उड़ाना अथवा भगाना आदि से विराधना हुई हो, वनस्पति रूप में उनके ऊपर वृक्ष की डाली रूप गिरी हो और तूं उनके प्रकृति से विरुद्ध जहर रूप वनस्पति में उत्पन्न हुआ हो तब उसके भक्षण से उनका नाश विराधना हुई हो, तथा द्वीन्द्रिय आदि योनि प्राप्त कर तूंने एकेन्द्रिय आदि अन्य जीवों की विराधना की हो, इस तरह जो-जो विराधना की हो उन सबकी भी अवश्यमेव त्रिविध क्षमा याचना कर। उस विराधना की भावना स्वरूप स्पष्ट है ही क्योंकि केंचुआ आदि से मेंढक तक अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव बड़े होने पर प्रथम शरीर रूप भी पृथ्वी को ग्रहण कर विराधना करता है, उसके बाद हमेशा कूदना, हिलना, चलना और बार-बार मर्दन करना उसका भक्षण आदि करने से वे जीव अन्य 350 For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाअ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्दा द्वार 'श्री संवेगरंगशाला अपक उत्पन्न हुए का नाश होता है ।।८४००।। तथा खारे, कड़वे, तीखे आदि रस वाले तथा कर्कश स्पर्श वाले अपने द्वीन्द्रिय आदि शरीर से अवश्य तेजस् काय, वायुकाय की विराधना करते है, वनस्पतिकाय में भी अंदर कीड़े रूप अथवा बाहर विविध रूप उत्पन्न होते द्वीन्द्रिय आदि जीवों द्वारा वनस्पतिकाय की भी विराधना होती है, इसलिए उनसे क्षमा याचना कर। तथा द्वीन्द्रिय आदि अवस्था को प्राप्तकर तूंने स्व-पर-उभय जाति के द्वीन्द्रिय आदि जीवों का यदि किसी का भी इस जन्म में या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा दूसरे द्वारा विराधना की हो उनकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर, क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना करने का समय है। पंचेन्द्रिय रूप में जलचर, स्थलचर और खेचर जाति प्राप्त कर तूंने यदि किसी स्व, पर-उभय जाति के जलचर, स्थलचर अथवा खेचर को ही परस्पर पीड़ा की हो और आहार के कारण से, भय से, आश्रय के लिए अथवा संतान की रक्षा आदि के लिए जिस मनुष्य की विराधना की हो उसकी भी तूं त्रिविध क्षमा याचना कर। इस तरह तिर्यंच योनि में तिर्यंच और मनुष्यों की विराधना हुई हो उसकी क्षमा याचना कर अब मनुष्य जीवन में तूंने तिर्यंच, मनुष्य और देवों की जो विराधना की हो उसकी क्षमा याचना कर। मनुष्य जीवन में सूक्ष्म या बादर यदि किसी जीवों की विराधना की हो उन सबकी भी क्षमा याचना कर, क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय है, हंसिया, हल से जमीन जोतने में, कुए-बावड़ी, तालाब को खोदने में और घर-दुकान बनाने आदि में स्वयं अथवा दूसरों द्वारा, इस जन्म या अन्य जन्मों में पृथ्वीकाय जीवों की विराधना की हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। यह तेरा खमत खामणा का समय है। हाथ, पैर, मुख को धोने में अथवा मस्तक बिना शेष अर्द्ध स्नान, संपूर्ण स्नान तथा शौच करने में, पीने में, जल क्रीड़ा आदि करने में इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में स्वयं या दूसरों के द्वारा यदि पानी रूपी जीवों की विराधना की हो उसकी भी अवश्य त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि अब तेरा क्षमा याचना का समय है। घी आदि का सिंचन करना, जलते हुए अग्नि को बुझाना, आहार पकाना, जलाना, डाम देना, दीपक प्रकट करना और अन्य भी अग्निकाय के विविध आरंभ-समारंभ में इस जन्म में या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा अन्य द्वारा यदि अग्निकाय जीवों की विराधना की हो उनका भी त्रिविध-त्रिविध खमत खामणा कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय आया है। पंखा ढुलाना, गोफन फेंकना, निःश्वास-उच्छ्वास में, धौंकनी में अथवा फेंकने आदि में और शंख आदि बाजे बजाने में इस जन्म या अन्य जन्मों में, स्वयं अथवा पर द्वारा यदि वायु काय जीवों की विराधना की हो उनकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय आया है। वनस्पति को छीलने से, काटने से, मरोड़ने से, तोड़ने से, उखाड़ने से अथवा भक्षण करने आदि से, क्षेत्र, बाग आदि में इस जन्म या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा पर द्वारा यदि वनस्पतिकाय जीवों की विविध प्रकार से विराधना की हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय है। संख्या से असंख्य केंचुआ, जोंक, शंख, सीप, कीड़े आदि द्वीन्द्रिय जीवों का यदि इस जन्म या अन्य जन्मों में स्वयं दूसरों के द्वारा किसी प्रकार मारा हो उनकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का अवसर है। खटमल, कीड़ा, कुंथुआ, चींटी, नँ, घीमेल, दीमक आदि त्रीन्द्रिय जीवों का यदि इस जन्म या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा दूसरों के द्वारा किसी तरह से मारा गया हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय है ।।८४२०।। मधु-मक्खी, टिड्डी, तितली, पतंगा, डांस, मच्छर, मक्खी, भौरे और बिच्छु आदि यदि चतुरिन्द्रिय जीवों का इस जन्म या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा अन्य द्वारा विराधना की हो, उनकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमा याचना का समय 351 For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्ता द्वार है। सर्प, नेवला, गोंधा, छिपकली और उसके अण्डे आदि चूहे, कौएँ, सियार, कुत्ते या बिलाड़ आदि पंचेन्द्रिय जीवों का यदि हास्य या द्वेष से सप्रयोजन अथवा निष्प्रयोजन क्रीड़ा करते, जानते या अजानते इस जन्म अथवा अन्य जन्मों में स्वयं या पर द्वारा नाश किया हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामना का समय है। मेंढक, मछली, कछुआ और घड़ियाल आदि जलचर जीवों को, सिंह, हिरण, रीछ, सुअर, खरगोश आदि स्थलचर जीवों को, तथा हंस, सारस, कबूतर, कौंच, पक्षी, तीतर, आदि खेचर जीवों को, इन विविध जीवों को संकल्प से अथवा आरंभ से इस जन्म अथवा अन्य जन्मों में स्वयं या दूसरों के द्वारा जोजो विराधना की हो अथवा परस्पर शरीर द्वारा टकराये हों, सामने आते मारे हों, कष्ट दिया हो, डराया हो अथवा उनको मूल स्थान से अन्य स्थान पर रखा हो, अथवा थकवा दिया हो, दुःख दिया हो, और परस्पर एकत्रित किया हो, कुचले हों इस तरह विविध दुःखों में डाले हों, प्राणों से रहित किया हो उनकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमापना का अवसर है। और मनुष्य जीवन काल में यदि किसी समय राजा, मंत्री आदि अवस्था को प्राप्त कर तूंने मनुष्यों को पीड़ा दी हो उसकी क्षमा याचना कर। उसमें जिसका दुष्ट चित्त से चिंतन किया हो, मन में दुष्ट भाव का विचार किया हो, दुष्ट वचन द्वारा-कटु वचन बोला हो या कहा हो और काया द्वारा दुष्ट नजर से देखा हो, न्याय को अन्याय और अन्याय को न्याय रूप सिद्ध करते उसे कलुषित भाव से दिव्य देकर अर्थात् फंदे में फंसाकर उसे जलाया हो, दोषित को निर्दोष शुद्ध किया हो, और सत्य को असत्य दोषारोपण से दंड दिलवाया, अथवा कैद करवाया, बंधन में डाला, बेड़ी पहनवाई, ताड़न करवाया, या मरवाया, और विविध प्रकार से शिक्षा करवाई, तथा उनको दंड दिलवाया, मस्तक मुंडन करवाया, अथवा घुटने, हाथ, पैर, नाक, होंठ, कान आदि अंगोंपांगों का छेदन करवाया, और शस्त्रों को लेकर उसके शरीर को छीलकर अथवा काटकर चमड़ी उतारकर, खार से सर्व अंग जलाया, यंत्रों से पीलन किया, अग्नि से जलाया, खाई में फेंकवाया, अथवा वृक्षादि के साथ लटकाया और अंडकोष गलवाये, आँखें उखाड़ दीं, दांत रहित किया और तीक्ष्ण शूली पर चढ़ाया अथवा शिकार में युद्ध के मैदान में तिर्यंच मनुष्यों का छेदन-भेदन अथवा लूटे, अंग रहित किये, भगाये, और शस्त्रधारी भी प्रहार करते या नहीं करते अथवा शस्त्र रहित और भागते भी उनको अति तीव्र राग या द्वेष से इस जन्म अथवा अन्य जन्मों में स्वयं अथवा पर द्वारा प्राण मुक्त किया हो उसे भी त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमापना का समय है। तथा पुरुष जीवन में अथवा स्त्री जीवन में रागांध बनकर तूंने परदारा, पर पुरुष आदि में यदि अनर्थकारी पाप का सेवन किया हो, उसकी भी निंदा कर। और इस संसार रूपी विषम अटवी में परिभ्रमण करते अत्यंत रागादि से गाढ़ मूढ़ बनकर तूंने कदापि कहीं पर भी विधवादि अवस्था में व्यभिचार रूप में पाप सेवन किया उससे गर्भ धारण किया हो, उसको अति उष्ण वस्तुओं का भक्षण, अथवा कष्टकारी कसैला रस, या तीक्ष्ण खार का पानी पीने से पेट को मसलना अथवा किल डालना इत्यादि प्रयोग द्वारा दूसरे के अथवा अपने गर्भ को गलाया हो, टुकड़े-टुकड़े करके निकाला हो, गिराया हो अथवा नाश करना आदि सर्व घोर पाप किये हों उनका हे क्षपक मुनि! पुनः संवेग प्राप्त कर तूं वांछित निर्विघ्न आराधना के लिए त्रिविध-त्रिविध सर्वथा गर्दा कर। और जब जवानी में सौत के प्रति अति द्वेष आदि के कारण उसके गर्भ को स्तंभन आदि करवाया हो, अथवा पति का घात करवाया, या वशीकरण कराया, कार्मण करवाया इत्यादि से उस सौत के कारण पति का वियोग किया अथवा जीते पति को मरण तुल्य किया इत्यादि जो पाप किया हो, उसकी भी तूं निंदा कर। तथा व्यभिचारी जीवन में यदि उत्पन्न हुए जीते बालक को फेंक दिया, वेश्या जीवन में तूंने दूसरों के बालक का हरण किया, मनुष्य जीवन में ही राग Jan se352 For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-बारहवाँ दुष्कृत गर्या द्वार श्री संवेगरंगशाला द्वेष से परवश चित्त वाले मोह मूढ़ तूंने दृढ़तापूर्वक मंत्र, तंत्र प्रयोग किये, योजना बनाकर दूसरों को अत्यंत पीड़ाकारी स्तंभन मंत्र से स्थिर किया हो, स्थान भ्रष्ट करवाना, विद्वेष करवाना, वशीकरण करना, इत्यादि किसी प्रकार जिन-जिन जीवों को इस जन्म में या अन्य जन्मों में स्वयं अथवा पर द्वारा उस कार्य को किया हो उसका भी त्रिविध-त्रिविध खमत खामणा कर ।।८४५५।। क्योंकि यह तेरा क्षमापना का समय है। तथा भूत आदि हल्के जाति के देवों को भी मंत्र, तंत्रादि की शक्ति के प्रयोग से किसी तरह कभी भी कहीं पर भी बलात्कार से आकर्षण कर, आज्ञा देकर, अपना इष्ट करवा कर पीड़ा दिलवाई अथवा किसी व्यक्ति में प्रवेश करवाया अथवा व्यक्ति में उतारकर यदि किसी भी देवों को स्तंभन किया हो, ताड़न करके उस व्यक्ति में से छुड़ाया हो इत्यादि इस जन्म या अन्य जन्मों में, स्वयं या पर द्वारा इस तरह किया हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामना का समय है। इस तरह मनुष्य जीवन काल में तिर्यंच, मनुष्य और देवों की विराधना को क्षमा करके हे क्षपक मुनि! देवत्व में जिस प्रकार विराधना की उन जीवों से सम्यक् क्षमा याचना कर ।।८४५९।। वह इस प्रकार : भवनपति, वाण व्यंतर, और वैमानिक आदि देव जीवन प्राप्तकर तूंने यदि नरक, तिर्यंच और मनुष्यों या देवों को दुःखी किया, उनको राग द्वेष रहित मध्यस्थ मन वाला होकर हे क्षपक मुनि! तूं भावपूर्वक त्रिविधत्रिविध क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय है। उसमें परमाधामी जीवन प्राप्त कर तूंने नारको को यदि अनेक प्रकार से दुःख दिया हो, उसकी भी क्षमा याचना कर। और देव जीवन में राग-द्वेष और मोह से तूंने उपभोग परिभोग आदि के कारण से पृथ्वीकाय आदि की तथा उसके आधार पर रहे द्वीन्द्रियादि जीवों की यदि विराधना क हो. उसकी भी सम्यक क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय है। और देव जीवन में ही वैर का बदला लेना आदि कारण से कषाय द्वारा कलुषित होकर यदि तूंने मनुष्यों का अपहरण किया हो अथवा बंधन, वध, छेदन, भेदन, धन हरण या मरण आदि द्वारा कठोर दुःख दिया हो उसकी भी सम्यक् क्षमा याचना कर। क्योंकि यह तेरा क्षमापना का समय है। तथा देवत्व में ही महर्द्धिक जीवन से अन्य देवों को जबरदस्ती आज्ञा पालन करवायी हो, वाहन रूप में उपयोग किया हो, ताड़ना या पराभव किया इत्यादि चित्त रूपी पर्वत को चूर्ण करने में एक वज्र तुल्य यदि महान् दुःख दिया हो, उसकी भी सम्यक् क्षमापना कर। क्योंकि यह तेरा खमत खामणा का समय है। इस तरह नारक, तिथंच, मनुष्य और देवों के जीव को खामणा करके अब तूं पाँच महाव्रतों में लगे हुए भी प्रत्येक अतिचारों का त्याग कर जगत के सूक्ष्म या बादर सर्व जीवों का इस जन्म में या पर जन्मों में अल्प भी दुःख दिया हो, उसकी भी निंदा कर। जैसे कि : अज्ञान से अंधा बना हुआ तूंने प्राणियों को पीड़ा-हिंसा की हो और प्रद्वेष या हास्यादि से यदि असत्य वचन कहा हो, उसकी भी निंदा कर। पराया, नहीं दी हुई वस्तु को यदि किसी प्रकार लोभादि के कारण ग्रहण करना, नाश करना इत्यादि बढ़ते हुए पाप रज को भी गर्दा द्वारा हे भद्र! दूर कर दो। मनुष्य तिर्यंच और देव संबंधी भी मन, वचन, काया द्वारा मैथुन सेवन से यदि किसी प्रकार का पाप बंध हुआ हो, उसकी भी त्रिविध-त्रिविध निंदा कर। सचित्त, अचित्त आदि पदार्थों में परिग्रह-मूर्छा करते यदि तूंने पाप बंध किया हो, उसकी भी हे क्षपक मुनि! त्रिविध-त्रिविध निंदा कर। तथा रस गृद्धि से अथवा कारणवश या अज्ञानता से भी कभी कुछ भी जो रात्री भोजन किया हो, उन सर्व की भी अवश्य निंदा कर। भूत, भविष्य या वर्तमान काल में जीवों के साथ में जिस प्रकार वैर किया हो, उन सर्व की भी निंदा कर। तीनों काल में शुभाशुभ पदार्थों में यदि मन, वचन, काया की अकुशलता रूप प्रवृत्ति की हो, उसकी भी निंदा कर। द्रव्य, क्षेत्र, काल अथवा भाव के अनुसार शक्य होने पर 353 For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आच श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्धार-तेरहवाँ सुष्कृत अनुमोदना द्वार भी यदि करणीय नहीं किया और अकरणीय किया, उसकी भी निंदा कर। हे क्षपकमुनि! लोक में मिथ्यामत प्रवृत्ति से, मिथ्यात्व के शास्त्रों के उपदेश देने से, मोक्ष मार्ग को छुपाने और उन्मार्ग की प्रेरणा देने से इस तरह तूं अपना और पर को कर्म समूह के बंध करने में यदि निमित्त बना हो, तो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर ।।८४७९ ।। अनादि अनंत इस संसार चक्र में कर्म के वश होकर परिभ्रमण करते तूंने प्रति जन्म में जो-जो पापारंभ में तल्लीन रहकर विविध शरीर को और अत्यंत रागी कुटुंबों को भी ग्रहण किया और छोड़ा उन सबका हे क्षपक मुनि! त्याग कर। लोभ के वश होकर तूंने धन को प्राप्त कर जो पाप स्थान में उपयोग किया उस सर्व का भी सम्यग रूप में त्याग कर। भूत भविष्य वर्तमान काल में जो-जो पापारंभ की प्रवृत्ति की उन सबका अव तूं सम्यग् रूप से त्याग कर। जिन-जिन श्री जिनवचनों को असत्य कहा, असत्य में श्रद्धा की अथवा असत्य वचन का अनुमोदन किया हो, उन सबकी गर्दा कर। यदि क्षेत्र, काल आदि के दोषों से श्री जिनवचन का सम्यग् ण नहीं कर सका हो. अवश्यमेव जो मिथ्या क्रिया में राग किया हो और सम्यक क्रिया के मनोरथ भी नहीं किये हो, इसलिए हे सुंदर मुनि! तूं बार-बार सविशेष सम्यक् प्रकार से निंदा कर ।।८४८७।। हे क्षपक मुनिवर्य! अधिक क्या कहें? तूं तृण और मणि में, तथा पत्थर और सुवर्ण दृष्टिवाला, शत्रु और मित्र में समान चित्तवाला होकर संवेग रूप महाधन वाला तूं सचित्त-अचित्त अथवा मिश्र किसी वस्तु के कारण जो पाप किया हो उसकी भी त्रिविध-त्रिविध गर्दा कर। पर्वत, नगर, खान, गाँव, विश्रांति गृह, विमान तथा मकान अथवा खाली आकाश आदि में, उसके निमित्त ऊर्ध्व, अधो या तिज़लोक में, भूत, भविष्य या वर्तमान काल में एवं शीत, उष्ण और वर्षा काल में किसी प्रकार से भी, रात्री अथवा दिन में औदयिकादि भावों में रहते, अति राग, द्वेष और मोह से सोते या जागते, इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में तीव्र, मध्यम, या जघन्य, सूक्ष्म या बादर, दीर्घ अथवा अल्पकाल स्थिति वाला, पापानुबंधी यदि कोई भी पाप मन, वचन, या काया से किया, करवाया या अनुमोदन किया उसे श्री सर्वज्ञ भगवंत के वचन से 'यह पाप है, गर्दा करने योग्य है और त्याग करने योग्य है।' इस तरह सम्यग् रूप से जानकर, दुःख का संपूर्ण क्षय करने के लिए श्री अरिहंत, सिद्ध, गुरु और संघ की साक्षी में उन सबकी सर्व प्रकार से सम्यग् निंदा कर, गर्दा कर, और प्रतिक्रमण कर। इस प्रकार आराधना में मन लगाने वाला और मन में बढ़ते संवेग वाले हे क्षपक मुनि! तूं समस्त पाप की शुद्धि के लिए मुख्य अंगभूत मिच्छा मि दुक्कड़म् भावपूर्वक बोल! पुनः भी मिच्छा मि दुक्कड़म् को ही बोल और तीसरी बार भी मिच्छा मि दुक्कड़म् इस तरह बोल। और पुनः उन पापों को नहीं करने का निश्चय रूप से स्वीकार कर। इस प्रकार दुष्कृत गर्दा नामक बारहवें अंतर द्वार का वर्णन किया है। अब तेरहवाँ सुकृत की अनुमोदना द्वार कहता हूँ ।।८४९८।। वह इस प्रकारतेरहवाँ सुकृत अनुमोदना द्वार : हे क्षपक मुनिवर्य! महारोग के समूह से व्याकुल शरीर वाले रोगी के समान जैसे वह शास्त्रार्थ में कुशल वैद्य के कथनानुसार क्रिया कलाप की अनुमोदना करता है वैसे भाव आरोग्यता के लिए तूं समस्त श्री जिनेश्वरों का जो अनेक जन्मों तक शुभ क्रियाओं का आसेवन द्वारा भाव से भावित रूप हुए। उसकी सम्यग् अनुमोदना कर!।।८५००।। उसमें श्री तीर्थंकर परमात्मा के जन्म से पूर्व तीसरे जन्म में तीर्थंकर पद के कारणभूत उन्होंने वीश स्थानक की आराधना की थी, इससे देव जन्म से ही साथ में आया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान रूप निर्मल तीनों ज्ञान सहित उनका गर्भ में आगमन होता है, जिन कल्याणक दिन में सहसा निरंतर समूहबद्ध आते सर्व चार निकाय के देवों से आकाश पूर्ण भर जाता है, इससे तीनों लोक की एकता बताने वाले, जगत के सर्व 354 For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-तेरहवाँ सुष्कृत अनुमोदना द्वार श्री संवेगरंगशाला जीवों के प्रति वात्सल्यता से तीर्थ प्रवर्तना करने में वे तत्परत रहते, सर्व गुणों की उत्कृष्टता वाले, सर्वोत्तम पुण्य के स पर्व अतिशयों के निधान रूप राग देष मोह से रहित. लोकालोक के प्रकाशक केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से युक्त, देवों द्वारा श्रेष्ठ आठ प्रकार के प्रभाव वाले, प्रतिहार्यों से सुशोभित, देवों द्वारा रचित सुवर्ण कमल के ऊपर चरण कमल स्थापन कर विहार करने वाले, अग्लानता से बदले की इच्छा बिना, भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने वाले, उपकार नहीं करने वाले, अन्य जीवों के प्रति अनुग्रह प्राप्त कराने के व्यसनी, उनकी एक साथ में उदय आती समस्त पुण्य प्रकृति वाले, तीनों लोक के समूह से चरण कमल की सेवा पाने वाले, विघ्नों को नाश करते स्फूरायमान ज्ञान, दर्शन गुणों को धारण करने वाले, यथाख्यात चारित्र रूपी लक्ष्मी की समृद्धि को भोगने वाले, अबाधित प्रतापवाले, अनुत्तर विहार से विचरने वाले, जन्म, जरा, मरण रहित शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष को प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्री जिनेश्वर भगवंतों के गुणों की तूं त्रिविध-त्रिविध सम्यग् अनुमोदना कर। ___ इस तरह श्री सिद्ध परमात्मा के गुणों की अनुमोदना कर जैसे कि-मूल में से पुनः संसार वास को नष्ट हुए, ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्म लेप को दूर करने वाले, राहु ग्रह की कांति के समूह दूर होने से, सूर्य चंद्र प्रकाशित होते है वैसे ही कर्ममल दूर होने से प्रकाशित आत्मा के यथास्थित शोभायमान, शाश्वतमय, वृद्धत्वाभावमय, अजन्ममय, अरूपीमय, निरोगीमय, स्वामिरहित, संपूर्ण स्वतंत्र सिद्धपुरी में शाश्वत रहने वाले, स्वाधीन, एकान्तिक, आत्यंतिक और अनंत सुख समृद्धिमय, अज्ञान अंधकार का नाश करने वाले, अनंत केवल ज्ञान, दर्शन स्वरूपमय, समकाल में सारे लोक अलोक में रहनेवाले, सद्भूत पदार्थों को देखनेवाले और इससे ही आत्यन्तिक अनंत वीर्य से युक्त शब्दादि से अगम्य युक्त, अच्छेद्य युक्त, अभेद्य युक्त, हमेशाकृत कृत्यतावाले, इन्द्रियरहित और अनुपमता वाले, सर्व दुःखों से रहित, पापरहित, रागरहित, क्लेश रहित, एकत्व में रहनेवाले, अक्रिययुक्त, अमृत्यता और अत्यंत स्थैर्ययुक्त तथा सर्व अपेक्षा से रहित, समस्त क्षायिक गुण वाले, नष्ट परतंत्रता वाले, और तीन लोक में चुडामणि से युक्त, इस तरह तीन लोक से वंदनीय, सर्व सिद्ध परमात्माओं के गुणों की तूं हमेशा त्रिविध-त्रिविध सम्यग् अनुमोदना कर। एवं सर्व आचार्यों का जो सुविहित पुरुषों ने सम्यग् आचरण किया हुआ, प्रभु के पाद प्रसाद से भगवंत बने, पाँच प्रकार से आचार का दुःख रहित, किसी प्रकार के बदले की आशा बिना, समझदारी पूर्वक सम्यक् पालन करने वाले, सर्व भव्य जीवों को उन आचारों का सम्यग् उपदेश देने वाले और उन भव्यात्मों को नया आचार प्राप्त करवाकर उन्हीं आचारों का पालन करवाने वाले श्री आचार्य के सर्व गणों की तं सम्यक प्रकार से अनुमोदना कर। इसी प्रकार पंचविध आचार पालन करने में रक्त और प्रकृति से ही परोपकार करने में ही प्रेमी श्री उपाध्यायों को भी जो आचार्य श्री के जवाहरात की पेटी समान है, जो अंग उपांग और प्रकीर्णक आदि से युक्त श्री जिन प्रणित बारह अंग सूत्रों को स्वयं सूत्र अर्थ और तदुभय से पढ़ने वाले और दूसरों को भी पढ़ानेवाले श्री उपाध्याय महाराज के गुणों की हे क्षपकमुनि! तूं सदा सम्यग् रूप से त्रिविध-त्रिविध अनुमोदना कर। __इसी तरह कृतपुण्य चारित्र चूड़ामणि धीर, सुगृहित नामधेय, विविध गुण रत्नों के समूह रूप और सुविहित साधु भी निष्कलंक, विस्तृत शील से शोभायमान, यावज्जीव निष्पाप आजीविका से जीनेवाले, तथा जगत के जीवों के प्रति वात्सल्य भाव रखनेवाले अपने शरीर में ममत्व रहित रहने वाले, स्वजन और परजन में समान भाव को रखने वाले और प्रमाद के विस्तार को सम्यक् प्रकार से रोकने वाले, संपूर्ण प्रशम रस में निमग्न 355 For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार रहने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में परम रसिकता वाले, पूर्ण आज्ञाधीनता से रहने वाले, संयम गुणों में एक बद्ध लक्ष्य वाले, परमार्थ की गवेषणा करने वाले, संसारवास की निर्गुणता की विचारणा रखनेवाले और इससे ही परम संवेग द्वारा उसके प्रति परम वैराग्य भावना प्रकट करने वाले तथा संसार रूप गहन अटवी से प्रतिपक्षभूत रक्षक क्रिया कलाप करने में कुशल इत्यादि साधु गुणों की तूं त्रिविध-त्रिविध हमेशा सम्यक् प्रकार से अनुमोदना कर। तथा समस्त श्रावक भी प्रकृति से ही उत्तम धर्म प्रियतायुक्त हैं, श्री जिन वचनरूपी धर्म के राग से निमग्न शरीर में अस्थि मज्जा जैसे धर्म राग वाले, जीव, अजीव आदि समस्त पदार्थों के विषय को जानने में परम कुशलता प्राप्त करने वाले, देवादि द्वारा भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से अर्थात् जिन शासन से क्षोभ प्राप्त नहीं करते और सम्यग् दर्शन आदि मोक्ष साधक गुणों में अति दृढ़ता आदि गुणों की तूं सदा त्रिविध-त्रिविध सम्यक् प्रकार से अनुमोदना कर। अन्य भी जो आसन्न भवी, भद्रिक परिणामी, अल्प संसारी, मोक्ष की इच्छा वाले, हृदय से कल्याणकारी वृत्ति वाले तथा लघुकर्मी देव, दानव, मनुष्य अथवा तिथंच इन सर्व जीवों का भी सन्मार्गानुगामिता, अर्थात् मार्गानुसारी जीवन की तूं सम्यग् अनुमोदना कर। इस तरह हे भद्र! ललाट पर दोनों हस्त अंजलि जोड़कर इस प्रकार श्री अरिहंत आदि के सुकृत्यों की प्रतिक्षण सम्यग् अनुमोदना करते तुझे उन गुणों को शिथिल नहीं करना किंतु रक्षण करना है। बहुत काल से भी एकत्रित किये कर्ममल को भी क्षय करना और इसी तरह कर्म का घात करते हे संदर मनि! तेरी सम्यग आराधना होगी। इस तरह से सुकृत की अनुमोदन द्वार को कहा। अब भावना पटल-समूह नामक चौदहवाँ अंतर द्वार कहता हूँ ।।८५४०।। भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार : जैसे प्रायः सर्व रसों का मुख्य नमक मिश्रण है, अथवा जैसे पारे के रस संयोग से लोहे का सुवर्ण बनता है, वैसे धर्म के अंग जो दानादि हैं वे भी भावना बिना वांछित फलदायक नहीं होते हैं। इसलिए हे क्षपक मुनि! उस भावना में उद्यम कर। जैसे कि-दान बहुत दिया, ब्रह्मचर्य का भी चिरकाल पालन किया, और तप भी बहुत किया, परंतु भावना बिना वह कोई भी सफल नहीं है। भाव शून्य दान में अभिनव सेठ और भाव रहित शील तथा तप में कंडरिक का दृष्टांत भूत है। बलदेव का पारणा कराने की भावना वाले हिरन ने कौन सा दान दिया था, तथापि भावना की श्रेष्ठता से उसने दान करने वाले के समान फल प्राप्त किया था। अथवा तो जीर्ण सेठ दृष्टांत रूप है कि केवल दान देने की भावना से भी, दान बिना भी महा पुण्य समूह को प्राप्त किया था। शील और तप के अभाव में भी स्वभाव से ही बढ़ते तीव्र संवेग से शील तप केवल परिणाम से परिणत हुआ था फिर भी मरुदेवा माता सिद्ध हुई तथा हे क्षपक मुनि! शील तप के परिणाम वाले अल्पकाल तप शील वाले भगवंत अवंतिसुकुमाल शुभ भावना रूप गुणों से महर्द्धिक देव हुआ। और दान धर्म में अवश्य धन के अस्तित्व की अपेक्षा रखता है तथा यथोक्त शील और तप भी विशिष्ट संघयण की अपेक्षा वाला है। परंतु यह भावना तो निश्चय अन्य किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखती, वह शुभ चित्त में ही प्रकट होती है। इसलिए उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए ।।८५५०।। ___ यहाँ प्रश्न करते हैं कि यह भावना भी अंतर की धीरता के लिए बाह्य कारण की अपेक्षा रखती है। क्योंकि उद्विग्न मन वाला अल्प भी शुभ ध्यान को करने में समर्थ नहीं होता है। इसलिए ही कहा जाता है कि 356 For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-लग्गति राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला मन पसंद भोजन, और मन पसंद घर होने पर अविषादी-अखंड मन योग वाले मुनि मनोज्ञ ध्यान को कर सकते हैं। इसलिए अपेक्षित कारण सामग्री बिना भावना भी प्रकट नहीं होती है। इसका उत्तर देते हैं कि-यह तुम्हारा कथन केवल मन के निरोध करने में असमर्थ मुनि के उद्देश्य से सत्य है, परंतु कषायों को जीतनेवाला जो अति वीर्य और योग के सामर्थ्य से मन के वेग को रोकने वाला है। जो अन्य से प्रकट की हुई और बढ़ती तीव्र वेदना से शरीर में व्याकुलित होते कषाय मुक्त स्कंदक के शिष्यों के समान शुभ ध्यान को अल्पमात्र भी खंडित नहीं करते उनको बाह्य निमित्त से कोई प्रयोजन नहीं है। शुभ और अशुभ दोनों भाव स्वाधीन हैं, इसलिए शुभ करना श्रेष्ठ है। ऐसा पंडित कौन सा होगा कि स्वाधीन अमृत को छोड़कर जहर को स्वीकार करेगा? अतः हे देवानुप्रिय! 'मुझे यह मोक्ष प्रिय है' ऐसा निश्चय करके मोक्ष में एक दृढ़ लक्ष्यवाला तूं हमेशा भाव प्रधान बन। यह भावना संसार में भव की भयंकरता से दुःखी हुए उत्तम भव्यों द्वारा भावित करने से इसको नियुक्ति (व्युत्पत्ति) सिद्ध नाम भी (भावना) शब्द बनता है। निश्चय जो एकांत शुभ भाव है वही भावना है और जो भावना है, वही एकांत शुभ भाव भी है। ये भाव बारह प्रकार के हैं अर्थात् वह भावना बारह प्रकार की है, वह भाव और भावना भी संवेग रस की वृद्धि से शुभ बनती है। अतः उस भाव को प्रकट करने के लिए क्रमशः (१) अनित्य भावना, (२) अशरण भावना, (३) संसार भावना, (४) एकत्व भावना, (५) अन्यत्व भावना, (६) अशुचि भावना, (७) आश्रव भावना, (८) संवर भावना, (९) कर्म निर्जरा भावना, (१०) लोकत्व भावना, (११) बोधि दुर्लभ भावना और (१२) धर्म गुरु दुर्लभता भावना का चिंतन करना चाहिए। इन बारह भावनाओं में सर्व प्रथम हमेशा संसार जन्य समस्त वस्त समह की अनित्य भावना का इस तरह चिंतन कर ।।८५६३।। वह इस प्रकार : ?) अनित्य भावना :- अहो! अर्थात् आश्चर्य है कि यौवन बिजली के समान अस्थिर है। सुख संपदाएँ भी संध्या के बादल के राग की शोभा समान हैं और जीवन पानी के बुलबुले समान अत्यंत अनित्य ही है। परम प्रेम के पात्र माता, पिता, पुत्र और मित्रों के साथ जो संयोग है वह सब अवश्य ही अनित्य से युक्त क्षणिक है। और शरीर सौभाग्य, अखंड पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना, रूप, बल, आरोग्य और लावण्य की शोभा, ये सब अस्थिर हैं। भवनपति, वाण व्यंतर, ज्योतिषी, और बारह कल्प आदि में उत्पन्न हुए सर्व देवों का भी शरीर रूप आदि समस्त अनित्य है। मकान, उपवन, शयन, आसन, वाहन और यान आदि के साथ के यह लोक-परलोक में भी जो संयोग है वह भी अवश्य ही अनित्य है। एक पदार्थ की अनित्यता देखकर अनुमान द्वारा दूसरे पदार्थों की भी अनित्यता को सर्वगत मानकर धन्य पुरुष नग्गति राजा के समान धर्म में उद्यम करता है। वह इस प्रकारः नग्गति राजा की कथा गंधार देश का स्वामी नग्गति नामक राजा था, वह घोड़े, हाथी, रथ के ऊपर बैठे अनेक सामंत राजाओं के समूह से घिरे हुए अति ऋद्धि के समूह से शोभता था। स्वयं बसंत ऋतु के समागम से शोभायमान उद्यान को देखने के लिए अपने नगर से निकला। वहाँ जाते हुए अर्ध बीच में विकसित बड़े पत्रों से शोभित, पुष्पों के रस बिंदुओं से पीली हुई मंजरी के समूह से रमणीय, घूमते हुए भौरे धूं-धूं गुंजारव के बहाने से मानो गीत गाते हो, इस तरह वायु से प्रेरणा पाकर शाखा रूपी भुजाओं द्वारा मानो नृत्य प्रारंभ किया हो, मदोन्मत्त कोमल शब्द के बहाने से मानो काम की स्तुति करता हो, और गीच पत्तो रूपी परिवार से व्याप्त एक खिले आम्र वृक्ष को देखा। फिर उसके रमणीयता गुण से प्रसन्न चित्त वाले उस राजा ने वहाँ से जाते कुतूहल से एक मंजरी तोड़ ली। इससे अपने स्वामी के मार्गानुसार चलने वाले सेवक लोगों में से किसीने मंजरी, किसीने पत्ते समूह, किसी ने गुच्छे तो 357 For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-सेट पुत्र की कथा किसी ने डाली का अग्र भाग को अन्य किसी ने कोमल पत्ते तो किसीने कच्चे फल समूह को ग्रहण करने से क्षण में उस वृक्ष को ठूंठ जैसा बना दिया। फिर आगे चलते रहट यंत्र का चीत्कार रूप शब्दों से दिशाएँ बहरी हो गयी ऐसे फैलते सुगंध के समूह से आते भौंरे की श्रेणियों से मनोहर विकसित ठण्डे प्रदेश वाले उस उद्यान में पहुँचा । थके हुए यात्री के समान थोड़े समय घूमकर फिर उस मार्ग से ही वापिस चला, राजा ने वहाँ उस वृक्ष को नहीं देखने से लोगों से पूछा कि वह आम्र का वृक्ष कहाँ है? तब लोगों ने ठूंठ समान रूप वाला उस आम्रवृक्ष को दिखाया तब विस्मित मन वाले राजा ने कहा कि - ऐसा वह कैसे बन गया? लोगों ने भी पूर्व की सारी बात कही। इसे सुनकर परम संवेग को प्राप्त करते राजा भी अत्यंत सूक्ष्म बुद्धि से विचार करने लगा कि - अहो ! संसार की दुष्ट चेष्टा को धिक्कार है, क्योंकि यहाँ पर ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसका अनित्यता से सदा सर्व प्रकार से नाश नहीं होता हो ? इस आम्र वृक्ष के अनुमान से ही बुद्धिमान को अनित्यता से व्याप्त स्वशरीरादि सर्व वस्तुओं पर राग का स्थान क्यों होता है? इस प्रकार विविध प्रकार से चिंतनकर महासत्त्वशाली वह राजा राज्य, अन्तःपुर और नगर को छोड़कर प्रत्येक बुद्ध चारित्र वाला साधु बना । यह कथा सुनकर हे सुंदर मुनि ! तूं एकांत में गीतार्थ साधु के साथ सर्व पदार्थों की अनित्यता का चिंतन मनन कर । इस प्रकार जिस कारण से संसार जन्य समस्त वस्तुओं की अति अनित्यता है उस कारण से ही उन प्राणियों को अल्पमात्र भी शरण नहीं है। जैसे कि (२) अशरण भावना :- सर्व जीव समूह के रक्षण करने में वत्सल, महान् और करुणा रस से श्रेष्ठ एक ही श्री जिनवचन हैं। इनको छोड़कर जन्म, जरा, मरण, उद्वेग, शोक, संताप और व्याधियों से विषम और भयंकर इस संसार अटवी में प्राणियों का कोई शरण नहीं है। तथा केवल एक श्री जिनवचन में रहे आत्मा के बिना पुरुष अथवा देवों में किसी दिव्य शक्ति, द्वारा बख्तर सहित, मस्त हाथी, चपल घोड़े, रथ और योद्धा के समूह की रचनाओं द्वारा, बुद्धि द्वारा, नीति बल द्वारा, अथवा स्पष्ट पुरुषार्थ बल द्वारा भी पूर्व में मृत्यु को जीता नहीं है। माता, पिता, पुत्र, स्त्री, मित्र और अत्यंत स्नेही स्वजन तथा धन के ढेर भी रोग से पीड़ित पुरुष को अल्प भी शरणभूत नहीं होते हैं। एक ही श्री जिनवचन बिना अन्य मंगलों से, मंत्रपूर्वक स्नानादि से, मंत्रित चूर्णों से, मंत्रों से और वैद्यों की विविध औषधियों से रक्षण नहीं होता है। इस प्रकार विचार करते इस संसार में कोई भी वस्तु शरण रूप नहीं है। उसी कारण से ही दुःसह नेत्र पीड़ा से व्याकुलित शरीर वाला, प्रथम दिव्य यौवन को प्राप्त कर बुद्धिमान कौशाम्बी के धनिक पुत्र सर्व संबंधों का त्यागकर संयम उद्योग को स्वीकार किया था। उसकी कथा इस प्रकार : सेठ पुत्र की कथा राजगृही नगरी के स्वामी श्रेणिक राजा घूमने निकले। वहाँ मंडिकुक्षि नामक उद्यान में वृक्ष नीचे बैठे हुए, रतिरहित कामदेव हो, ऐसे शोभायमान तथा शरद ऋतु के चंद्र की कला समान कोमल शरीर वाले एक उत्तम मुनि को देखा। उसे देखकर रूप आदि गुणों की बहुत प्रशंसाकर तीन प्रदक्षिणा देकर आदरपूर्वक नमस्कार कर उनके नजदीक में बैठा और दोनों हाथ से अंजलि जोड़कर विस्मयपूर्वक राजा बोला कि - हे भगवंत यौवनावस्था के अंदर साधुधर्म में क्यों रहे हो? साधु ने कहा कि - हे राजन् ! मेरा कोई भी शरण नहीं था इसलिए दुःखों का क्षय करने वाली इस दीक्षा को मैंने स्वीकार की है || ८६०० ।। फिर हास्य से उछलते दांत की उज्ज्वल कांति से प्रथम उदय होते सूर्य समान लाल कांतिवाले होठ को उज्ज्वल करते राजा ने कहा कि हे भगवंत! अप्रतिम स्वरूप वाले और लक्षणों से प्रकट रूप अति विशाल वैभव वाले दिखते हुए भी आप अशरण कहते हो, वह मैं किस 358 For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-सेट पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला तरह सत्य मानूँ? अथवा ऐसे संयम से क्या लाभ है? मैं आपका शरण बनता हूँ, घरवास को स्वीकार करो और विषयसुख का उपभोग करो। क्योंकि फिर मनुष्य जन्म मिलना अति कठिन है। मुनि ने कहा कि - हे नरवर ! आप स्वयं भी शरण रहित हैं तो अन्य को शरण देने का सामर्थ्य आप में किस तरह हो सकता है। तब संभ्रम बने राजा ने कहा कि- मैं बहुत हाथी, घोड़े, रथ और लाखों सुभट की सामग्री वाला हूँ तो मैं अन्य का शरणभूत कैसे नहीं हो सकता हूँ? अतः हे भगवंत ! असत्य मत बोलो अथवा आप मुझे भी 'तुम भी अशरण हो' ऐसा क्यों कहते हो ? मुनि ने कहा कि भूमिनाथ! तुम अशरणता के अर्थ को और मेरे अशरणता का कारण जानते ही नहीं हो, उसे आप एकाग्रचित्त से सुनो : मेरा पिता कौशाम्बी नगरी में धन से कुबेर के वैभव विस्तार की हँसी करने वाला, महान् ऋद्धि सिद्धि वाला, बहुत स्वजनवर्ग वाला और जगत में प्रसिद्ध था । उस समय मुझे प्रथमवय में ही अति दुःसह, अति कठोर नेत्र पीड़ा हुई और उससे शरीर में जलन होने लगी। अतः शरीर में मानों बड़ा तीक्ष्ण भाला भ्रमण करता हो अथवा वज्रभार के समान अति भयंकर नेत्र पीड़ा के भार से मैं परवश हो गया। अनेक मंत्र, तंत्र विद्या और चिकित्सा शास्त्रों के अर्थ के जानकार लोगों ने मेरी चिकित्सा की, परंतु किंचित् आराम नहीं मिला। पिता ने भी अल्पमात्र भी वेदना शांत करने के लिए सर्वस्व देना स्वीकार कर लिया। माता, भाई, बहन, स्त्री, मित्रादि सर्व स्वजन समूह भी भोजन, पान, विलेपन, आभूषण आदि प्रवृत्ति छोड़कर अत्यंत मन दुःख निकलते आंसुओं से मुख को घोटते रोते, किं कर्त्तव्यमूढ़ होकर मेरे पास में बैठे तथापि अल्पमात्र भी चक्षुवेदना कम नहीं हुई। 'अहो ! मेरा कोई शरण नहीं है' इस तरह बार-बार चिंतन करते मैंने प्रतिज्ञा की कि - यदि इस वेदना से मुक्त हो जाऊँगा तो सर्व संबंधों को छोड़कर साधु धर्म को स्वीकार करूँगा। ऐसी प्रतिज्ञा करते ही मुझे रात को नींद आ गयी, वेदना शांत हुई और मैं पुनः स्वस्थ शरीर वाला हो गया। उसके बाद प्रभात काल में स्वजन वर्ग की आज्ञा लेकर श्री सर्वज्ञ परमात्मा कथित दीक्षा का मैंने शरण स्वीकार किया । इसलिए हे नरवर ! ऐसे दुःख के समूह से घिरे हुए जीव को श्री जिनेश्वर प्रभु के धर्म बिना अन्य से रक्षण अथवा शरण नहीं है। ऐसा सुनकर राजा 'ऐसा ही है' ऐसा स्वीकारकर मुनि को नमस्कार कर अपने स्थान पर गया और साधु भी वहाँ से विहार कर गये । इस प्रकार हे क्षपकमुनि ! संसार जन्य समस्त वस्तुओं में राग बुद्धि का त्यागकर एकाग्र चित्तवाले तूं अशरण भावना का सम्यग् चिंतन मनन कर । अब यदि संसार प्रत्येक वस्तु का चिंतन करते प्राणियों को इस संसार में कोई भी शरणभूत नहीं है, इस कारण से ही 'संसार अति विषम है' ऐसा समझ। उसे आगे कहते हैं:( ३ ) संसार भावना :- इस संसार में श्री जिनवचन से रहित, मोह के महाअंधकार के समूह से पराभव प्राप्त करते और फैलती हुई विकार की वेदना से विवश होकर सर्व अंग वाले जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, जलचर, स्थलचर, खेचर आदि विविध तिर्यंच योनियों में, तथा समस्त देव और मनुष्यों की योनियों में तथा सातो नरकों में अनेक बार भ्रमण किया है, वहाँ एक-एक जाति में अनेक बार विविध प्रकार के वध, बंधन, धनहरण, अपमान, महारोग, शोक और संताप प्राप्त किया। ऊर्ध्व, तिर्च्छा और अधोलोक में भी कोई ऐसा एक आकाश प्रदेश नहीं है कि जहाँ जीव ने अनेक बार जन्म, जरा, मरण आदि प्राप्त नहीं किया हो। भोग सामग्री, शरीर के वध-बंधनादि के कारण रूप अनेक बार समस्त रूपी द्रव्यों को भी पूर्व में प्राप्त किया है और संसार में भ्रमण करते जीव को अन्य सर्व जीव से स्वजन, मित्र, स्वामी, सेवक और शत्रु रूप में अनेक बार संबंध किये हैं। हा ! उद्वेग कारक संसार को धिक्कार है कि जहाँ अपनी माता भी मरकर पुत्री बनी और पिता भी मरकर पुनः पुत्र होता है। माता मरकर पत्नी बनती है और पत्नी मरकर माता बनती है। जिस संसार में सौभाग्य और रूप का गर्व करते For Personal & Private Use Only 359 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-तापस सेट की कथा युवान भी मरकर वहीं अपने शरीर में ही कीड़े रूप में उत्पन्न होता है और जहाँ माता भी पशु आदि में जन्म लेकर अपने पूर्व पुत्र का मांस भी खाती हैं। अरे! दुष्ट संसार में ऐसा भी अन्य महाकष्ट कौन-सा है? स्वामी भी सेवक और सेवक भी स्वामी, निजपुत्र भी पिता होता है और वहाँ पिता भी वैर भाव से मारा जाता है, उस संसार स्वरूप को धिक्कार हो। इस प्रकार विविध आश्रवों का भंडार इस संसार के विषय में कितना कहूँ? कि जहाँ जीव तापम सेठ के समान चिरकाल दुःखी होता है।।८६३३।। वह इस प्रकार : तापस सेठ की कथा कौशाम्बी नगरी में सद्धर्म से विमुख बुद्धि वाला अति महान् आरंभ करने में तत्पर अति प्रसिद्ध तापम नामक सेठ रहता था। घर की मूर्छा से अति आसक्त वह मरकर अपने ही घर में सूअर रूप में उत्पन्न हुआ और उसे वहाँ पूर्व जन्म का स्मरण हुआ। किसी समय उसके पुत्र ने उसके ही पुण्य के लिए बड़े आडंबर से वार्षिक मृत्यु तिथि मनाने का प्रारंभ किया और स्वजन, ब्राह्मण, सन्यासी आदि को निमंत्रण दिया, फिर उसके निमित्त भोजन बनाने वाली ने मांस पकवाया और उसे बिल्ली आदि ने नाश किया, अतः घर के मालिक से डरी हुई उसने दूसरा मांस नहीं मिलने से उसी सूअर को मारकर मांस पकाया। वहाँ से मरकर वह पुनः उसी घर में सर्प हुआ और भोजन बनाने वाली को देखकर मृत्यु के महाभय के कारण आर्त ध्यान करते उसे पूर्व जन्म का स्मरण हुआ। भोजन बनाने वाली उस स्त्री ने उसे देखकर कोलाहल मचाया, लोग एकत्रित हुए और उस सर्प को मार दिया। वह सर्प मरकर पुनः अपने पुत्र का ही पुत्र रूप में जन्म लिया और पूर्व जन्म का स्मरणकर इस तरह विचार करने लगा कि-मैं अपने पुत्र को पिता और पुत्रवधू को माता कैसे कहूँ? यह संकल्पकर वह मौनपूर्वक रहने लगा। समय जाने के बाद उस कुमार ने यौवन अवस्था प्राप्त की। उस समय विशिष्ट ज्ञानी धर्मरथ नाम के आचार्य उसी नगर के उद्यान में पधारें और ज्ञान के प्रकाश से देखा कि-यहाँ कौन प्रतिबोध होगा? उसके बाद उन्होंने उस मौनव्रती को ही योग्य जाना, इससे दो साधुओं को उसके पूर्व जन्म के संबंध वाला श्लोक सिखाकर प्रतिबोध करने के लिए उसके पास भेजा, और उन्होंने वहाँ जाकर इस प्रकार से श्लोक उच्चारण कियातावस किमिणा मोणव्वएण पडिवज्ज जाणिउं धम्मं । मरिऊण सयरोरग, जाओ पत्तस्स पत्तोत्ति।।८६४६।। अर्थात्-हे तापस! इस मौनव्रत से क्या लाभ है? तूं मरकर सूअर, सर्प और पुत्र का पुत्र हुआ है, ऐसा जानकर धर्म को स्वीकार कर। फिर अपने पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनकर प्रतिबोध प्राप्तकर उसने उसी समय आचार्य श्री के पास जाकर श्री तीर्थंकर परमात्मा का धर्म स्वीकार किया। इस विषय पर अब अधिक क्या कहें? यदि जीव धर्म नहीं करेगा तो संसार में कठोर लाखों दुःखों को प्राप्त करता है और प्राप्त करेगा। इसलिए हे क्षपकमुनि! महादुःख का हेतुभूत संसार के सद्भूत पदार्थों की भावना में इस तरह उद्यम कर कि जो प्रस्तुत आराधना को लीलामात्र से साधन कर सके। यह संसार वस्तुओं के अनित्यता से अलभ्य अशरण रूप है, इसी कारण से जीवों का एकत्व है। इसलिए प्रति समय बढ़ते संवेग वाले तूं ममता को छोड़कर हृदय में तत्त्व को धारण करके एकत्व भावना का चिंतन कर। वह इस प्रकार : (४) एकत्व भावना :- आत्मा अकेली ही है, एक उसके मध्यस्थ भाव बिना शेष सर्व संयोग जन्य प्रायःकर दुःख के कारण रूप है। क्योंकि संसार में सुख या दुःख को अकेला ही भोगता है, दूसरा कोई उसका नहीं है और तूं भी अन्य किसी का नहीं है। शोक करते स्वजनों के मध्य से वह अकेला ही जाता है। पिता, पुत्र, 360 For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-श्री महावीर प्रभु का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला स्त्री या मित्र आदि कोई भी उसके पीछे नहीं जाता है। अकेला ही कर्म का बंध करता है और उसका फल भी अकेला ही भोगता है। अवश्यमेव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, और जन्मांतर में अकेला ही जाता है। कौन किसके साथ में जन्मा है? और कौन किसके साथ में परभव में गया है? कौन किसका क्या हित करता है? और कौन किसका क्या बिगाड़ता है? अर्थात् कोई किसी का साथ नहीं देता, स्वयं अकेला ही सुख दुःख भोगता है। अज्ञानी मानव परभव में गये अन्य मनुष्य का शोक करते हैं, परंतु संसार में स्वयं अकेला दुःखों को भोगते अपना शोक नहीं करता है। विद्यमान भी सर्व बाह्य पदार्थों के समूह को छोड़कर शीघ्र परलोक से इस लोक में अकेला ही आता है और अकेला ही जाता है। नरक में अकेला दुःखों को सहन करता है, वहाँ नौकर और स्वजन नहीं होते हैं। स्वर्ग में सुख भी अकेला ही भोगता है, वहाँ उसके दूसरे स्वजन नहीं होते हैं। संसार रूपी कीचड़ में अकेला ही दुःखी होता है, उस समय उस बिचारे के साथ सुख दुःख को भोगनेवाला अन्य कोई इष्ट जन नजर भी नहीं आता है। इसलिए ही कठोर उपसर्गों के दुःखों में भी मुनि दूसरे की सहायता की इच्छा नहीं करते हैं, परंतु श्री महावीर प्रभु के समान स्वयं सहन करते हैं।।८६६१।। वह इस प्रकार : श्री महावीर प्रभु का प्रबंध अपने जन्म द्वारा तीनों लोक में महामहोत्सव प्रकट करने वाले, एवं प्रसिद्ध कुंडगाँव नामक नगर के स्वामी सिद्धार्थ महाराज के पुत्र श्री महावीर प्रभु ने भक्ति के भार से नमते सामंत और मंत्रियों के मुकुटमणि से स्पर्शित पादपीठ वाले और आज्ञा पालन करने की इच्छा वाले, सेवक तथा मनुष्यों के समूहवाले राज्य को छोड़कर दीक्षा ली। उस समय जय-जय शब्द करते एकत्रित हुए देवों ने उनकी विस्तार से पूजा भक्ति की और उन्होंने प्रेम से नम्र भाव रखने वाले स्वजन वर्ग को छोड़ दिया, फिर दीक्षा लेकर दीक्षा के प्रथम दिन ही कुमार गाँव के बाहर प्रदेश में काउस्सग्ग ध्यान में रहे उस प्रभु को कोई पापी गवाले ने इस प्रकार कहा कि-हे देवार्य! मैं जब तक घर जाकर नहीं आता तब तक तुम मेरे इन बैलों को अच्छी तरह से देखते रहना। काउस्सग्ग ध्यान में रहे जगत् गुरु को ऐसा कहकर वह चला गया। उस समय यथेच्छ भ्रमण करते बैलों ने अटवी में प्रवेश किया, इधर क्षणमात्र में गवाला आया, तब वहाँ बैल नहीं मिलने से भगवान से पूछा-मेरे बैल कहाँ गये हैं? उत्तर नहीं मिलने से दुःखी होता वह सर्व दिशाओं में खोजने लगा। वे बैल भी चिरकाल तक चरकर प्रभु के पास आये और गवाला भी रात भर भटककर वहाँ आया, तब जुगाली करते अपने बैलों को प्रभु के पास देखा, इससे निश्चय ही देवार्य ने हरण करने के लिए इन बैलों को छुपाकर रखा था अन्यथा मेरे बहुत पूछने पर भी क्यों नहीं बतलाया? इस प्रकार कुविकल्पों से तीव्र क्रोध प्रकट हुआ और वह गवाला अति तिरस्कार करते प्रभु को मारने दौड़ा। उसी समय सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से प्रभु की ऐसी अवस्था देखकर तर्क वितर्क युक्त मन वाला शीघ्र स्वर्ग से नीचे आया और गवाले का तीव्र तिरस्कार करके प्रभु की तीन प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करके ललाट पर अंजलि करके भक्तिपूर्वक कहने लगा ___ आज से बारह वर्ष तक आपको बहुत उपसर्ग होंगे, अतः मुझे आज्ञा दीजिए कि जिससे शेष कार्यों को छोड़कर आपके पास रहूँ। मैं मनुष्य, तिर्यंच और देवों के द्वारा उपसर्गों का निवारण करूँगा। जगत् प्रभु ने कहा कि-हे देवेन्द्र! तूं जो कहता है, परंतु ऐसा कदापि नहीं होता, न हुआ है और न ही होगा। संसार में भ्रमण करते जीवों को जो स्वयं ने पूर्व में स्वेच्छाचारपूर्वक दुष्ट कर्म बंध किया हो, उसकी निर्जरा के लिए स्वयं उसको भोगता है, अथवा दुष्कर तपस्या के बिना किसी की सहायता नहीं होती है। कर्म के आधीन पड़ा जीव अकेला ही सुख दुःख का अनुभव करता है, अन्य तो उसके कर्म के अनुसार ही उपकार या अपकार करने वाला निमित्त मात्र 361 For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-सुलस और शिवकुमार की कथा होता है। प्रभु के ऐसा कहने से इन्द्र नम गया। और त्रिभुवन नाथ प्रभु भी अकेले स्वेच्छापूर्वक दुस्सह परीषहों को सहने लगे। इस प्रकार यदि चरम जिन श्री वीर परमात्मा ने भी अकेले ही दुःख सुख को सहन किया तो हे क्षपक मुनि! तूं एकत्व भावना का चिंतन करने वाला क्यों नहीं हो? इस प्रकार निश्चय स्वजनादि विविध बाह्य वस्तुओं का संयोग होने पर भी तत्त्व से जीवों का एकत्व है। इस कारण से उनका परस्पर अन्यत्व-अलग-अलग रूप है। जैसे कि (५) अन्यत्व भावना :- स्वयं किये कर्मों का फल भिन्न-भिन्न भोगते जीवों का इस संसार में कौन किसका स्वजन है? अथवा कौन किसका परजन भी है? जीव स्वयं शरीर से भिन्न है, इन सारे वैभव से भी भिन्न है और प्रिया अथवा प्रिय पिता, पुत्र, मित्र और स्वजनादि वर्ग से भी अलग है, वैसे ही जीव इन सचित्त, अचित्त वस्तुओं के विस्तार से भी अलग है। इसलिए उसे अपना हित स्वयं को ही करना योग्य है। इसीलिए ही नरक जन्य तीक्ष्ण दुःखों से पीड़ित अंग वाले सुलस नामक बड़े भाई को शिवकुमार ने शिक्षा दी थी ।।८६८६ ।। वह इस प्रकार सुलस और शिवकुमार की कथा दशार्णपुर नामक नगर में परस्पर अतिस्नेह से प्रतिबद्ध दृढ़ चित्तवाले सुलस और शिवकुमार दो भाई रहते थे, परंतु प्रथम सुलस अति कठोर कर्म बंध करने वाला था, अतः उसे हेतु दृष्टांत और युक्तियों से समझाया फिर भी वह श्री जिन धर्म में श्रद्धावान नहीं हुआ। दूसरा शिवकुमार अतीव लघु कर्मी होने से श्री जिनेश्वर भगवान के धर्म को प्राप्त कर साधु सेवा आदि शिष्टाचार में प्रवृत्ति करता था। और पाप में अति मन लगाने वाले बड़े भाई को हमेशा प्रेरणा देता कि-हे भाई! तूं अयोग्य कार्यों को क्यों करता है? छिद्र वाली हथेली में रहे पानी के समान हमेशा आयुष्य खत्म होते और क्षण-क्षण में नाश होते शरीर की असुंदरता को तूं क्यों नहीं देखता है? अथवा शरदऋतु के बादल की शोभा, बिखरती लक्ष्मी को तथा नदी के तरंगों के समान नाश होते प्रियजन के संगम को भी क्यों नहीं देखता? अथवा प्रतिदिन स्वयं मरते भाव समूह को और बड़े समुद्र के समान विविध आपदाओं में डूबते जीवों को क्या नहीं देखता? कि जिससे यह नरक निवास का कारणभूत घोर पापों का आचरण कर रहा है। और तप. दान. दया आदि धर्म में अल्प भी उद्यम नहीं करता है? तब सुल तुम धूर्त लोगों से ठगे गये हो कि जिसके कारण तुम दुःख का कारण भूत तप के द्वारा अपनी काया को शोष रहे हो। और अनेक दुःख से प्राप्त हुए धन को हमेशा तीर्थ आदि में देते हो और जीव दया में रसिक मन वाले म पैर भी पृथ्वी पर नहीं रखते। ऐसी तेरी शिक्षा मुझे देने की अल्प भी जरूरत नहीं है। कौन प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर आत्मा के अप्रत्यक्ष सुख में गिरे? इस तरह हंसी युक्त भाई के वचन सुनकर दुःखी हुआ और शिवकुमार ने वैराग्य धारण करते सद्गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की, और अति चिरकाल तक उग्र तप का आचरण कर काल धर्म प्राप्त कर कृत पुण्य वह अच्युत कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ। सुलस भी विस्तारपूर्वक पाप करके अत्यंत कर्मों का बंधकर मरकर तीसरी नरक में नारकी का जीव हुआ ।।८७०० ।। और वहाँ कैद में डाला हो वैसे करुण विलाप करते परमाधामी देवों द्वारा हमेशा जलाना, मारना, बांधना इत्यादि अनेक दुःखों को सहन करने लगा। फिर अवधि ज्ञान से उसको इस प्रकार का दुःखी देखकर पूर्व स्नेह से वह शिवकुमार देव उसके पास आकर कहने लगा कि-हे भद्र! क्या तूं मुझे जानता है कि नहीं इससे वह संभ्रमपूर्वक बोला कि मनोहर रूप धारक तुझ देव को कौन नहीं जानता? तब देव ने पूर्व जन्म का रूप उसको 362 For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-शौचवादी ब्राह्मण का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला यथा स्थित दिखाया, इससे उसको सम्यक् प्रकार से जाना और नेत्रों को कुछ खोलकर बोला-हे भाई! तूंने यह दिव्य देव ऋद्धि किस तरह से प्राप्त की है वह मुझे कहो। इससे देव ने कहा कि-हे भद्र! मैंने विविध दुष्कर तप, स्वाध्याय, ध्यान आदि संयम के योग से शरीर को इस तरह से कष्ट दिया था कि जिससे इस ऋद्धि को प्राप्त की है। और अनेक प्रकार से लालन पालन करने से शरीर को पुष्ट बनाने वाला, धन स्वजनादि के लिए सदा पाप को करते, शिक्षा देने पर भी धर्म क्रिया में प्रमादाधीन बने तूंने इस तरह से पाप वर्तन किया, जिससे ऐसा संकट आ गया। तूंने यह भी नहीं जाना कि यह शरीर जीव से भिन्न है और धन स्वजन भी निश्चय ही संकट में रक्षण नहीं कर सकते हैं। इसी कारण से हे भद्रक! देह दुःख अवश्यमेव महाफल रूप है। इस प्रकार चिंतन करते मुनिराज शीत, ताप, भूख आदि वेदनाएँ सम्यग् रूप से सहन करते हैं। सुलस ने कहा कि यदि ऐसा ही है तो हे भाई! अब भी उस मेरे शरीर को तूं पीड़ा कर जिससे मैं सुखी बनूँ। देव ने कहा-भाई! जीव रहित उसे पीड़ा करने से क्या लाभ है? उससे कोई भी लाभ नहीं है, अतः अब पूर्व में किये कर्मों को विशेषतया समभाव पूर्वक सहन कर। इस प्रकार दुःख का अशक्य प्रतिकार जानकर उसे समझाकर देव स्वर्ग में गया और सुलस चिरकाल नरक में रहा। इसलिए हे क्षपक मुनि! शरीर, धन और स्वजनों को भिन्न समझकर जीव दया में रक्त तूं धर्म में ही उद्यमी बन। (६) अशुचि भावना :- यदि तत्त्व से शरीर से जीव की भिन्नता है तो स्वरूप में सिद्ध अवस्था वाले जीव द्रव्य भाव से पवित्र है। अन्यथा शरीर से जीव यदि भिन्न न हो तो शरीर हमेशा अशुचित्व होने से जीव को निश्चय से द्रव्यभाव से शुचित्व किसी तरह नहीं हो सकता। पुनः शरीर का अशुद्धत्व इस प्रकार है-प्रथम ही शक्र शोणित से उत्पन्न होने से. फिर निरंतर माता के अपवित्र रस के आस्वादन द्वारा. निष्पत्ति होने से. जराय के पट में गाढ़ लपेटा हुआ होने से, योनि मार्ग से निकलने से, दुर्गंधमय स्तन का दूध पीने से, अपने अत्यंत दुर्गंधता से, सैंकड़ों रोगों की व्याकुलता से, नित्यमेव विष्ठा और मूत्र के संग्रह से और नौ एवं बारह द्वारों से हमेशा झरते अति उत्कट बीभत्स मलिन-पदार्थ से शरीर अपवित्र है। अशुचि से स्पृष्ट भरे हुए घड़े के समान शरीर को समस्त तीर्थों के सुगंधी जल द्वारा जीवन तक धोने पर भी, थोड़ी भी शुद्धि नहीं होती है, ऐसे अशुचिमय ही इस शरीर की पवित्रता को कहते जो घूमता है वह शुचिवादी ब्राह्मण के समान अनर्थ की परंपरा को प्राप्त करता है।।८७२१ ।। वह इस प्रकार है : शौचवादी ब्राह्मण का प्रबंध एक बड़े नगर में वेद पुराण आदि शास्त्र में कुशल बुद्धि वाला, एक ब्राह्मण शौचवाद से नगर के सर्व लोग को हँसाता था। दर्भ वनस्पति और अक्षत से मिश्र पानी से भरे हुए ताँबे के पात्र को हाथ में लेकर 'यह सर्व अपवित्र है' ऐसा मानकर नगर के मार्गों में उस जल को छिड़कता था। उसने एक दिन विचार किया कि मुझे वसति वाले प्रदेश में रहना योग्य नहीं है, निश्चय ही अपवित्र मनुष्यों के संग से दूषित होता हूँ, यहाँ पर पवित्रता कहाँ है? इसलिए समुद्र में मनुष्यों के बिना किसी द्वीप में जाकर गन्ने आदि से प्राण पोषण करते वहाँ रहूँ। ऐसा संकल्प करके अन्य बंदरगाह पर जाते जहाज द्वारा समुद्र का उल्लंघन कर ईख वाले द्वीप में गया और भूख लगते प्रतिदिन श्रेष्ठ गन्नों का यथेच्छ भोजन करता था। हमेशा इसका भक्षण करने से थक गया और दूसरे भोजन की खोज करते, उस समुद्र में जहाज डूबने से एक व्यापारी वहाँ आया था, वह केवल ईख का रस पीता था, अतः उसकी गुड़ के पिंड जैसी विष्ठा होती थी। उसे जमीन के ऊपर पड़ी देखकर यह ईख के फल हैं, ऐसा मानकर 363 For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-शौचबादी बाहरण का प्रचं उसे खाने लगा। कुछ समय जाने के बाद उस व्यापारी के साथ उसका मिलन हुआ और साथ में ही रहने से परस्पर प्रेम हो गया। एक समय भोजन के समय ब्राह्मण ने पूछा कि-तुम क्या खाते हो? व्यापारी ने कहा कि-ईख। ब्राह्मण ने कहा कि यहाँ ईख के फलों को तूं क्यों नहीं खाता? व्यापारी ने कहा कि-ईख के फल नहीं होते हैं। ब्राह्मण ने कहा कि मेरे साथ चल, जिससे वह तुझे दिखाऊँ। तब नीचे पड़ी सुखी हुई ईख की विष्टा उस व्यापारी को दिखाई। इससे व्यापारी ने कहा कि-हा! हा! महायश! तूं विमूढ़ हुआ है, यह तो मेरी विष्ठा है। यह सुनकर परम संशयवाले ब्राह्मण ने कहा कि-हे भद्र! ऐसा कैसे हो सकता है? इससे व्यापारी ने उसके बिना दूसरों की भी विष्ठा की कठोरता समान रूप आदि कारणों द्वारा प्रतीति करवाई। फिर परम शोक को करते ब्राह्मण अपने देश की ओर जाने वाले जहाज में बैठकर पुनः अपने स्थान पर पहुँचा। इस प्रकार वस्तु स्वरूप से अज्ञानी जीव शोचरूपी ग्रह से अत्यंत ग्रसित बना हुआ इस जन्म में भी इस प्रकार के अनर्थों का भागी बनता है और परलोक में भी अशचि के प्रति दुर्गंछा के पाप विस्तार से अनेक बार नीच योनियों में जन्म आदि प्राप्त करता है। इसलिए हे क्षपक मुनि! देह की अशुचित्व को सर्व प्रकार से भी जानकर आत्मा को परम पवित्र बनाने के लिए धर्म में ही विशेष उद्यम करो ।।८७३९।। अन्य आचार्य महाराज प्रस्तुत अशुचित्व भावना के स्थान पर इसी तरह असुख भावना का उपदेश देते हैं, इसलिए उसे भी कहते हैं। श्री जिनेश्वर के धर्म को छोड़कर तीन जगत में भी अन्य सुख कारण-अथवा शुभ-कृत्य या स्थान मृत्यु लोक में या स्वर्ग में कहीं पर भी नहीं है। धर्म, अर्थ और काम के भेद से तीन प्रकार का कार्य जीव को प्रिय है. उसमें धर्म एक ही सख का कार्य है जबकि अर्थ और काम पनः असखकारक है। जैसे कि धन, वैर भाव की राजधानी, परिश्रम, झगड़ा और शोकरूपी दुःखों की खान, पापारंभ का स्थान और पाप की परम जन्मदात्री है। कुल और शील की मर्यादा को विडम्बना कारक स्वजनों के साथ भी विरोधकारक, कुमति का कारक और अनेक अनर्थों का मार्ग है। काम-विषयेच्छाएँ भी इच्छा करने मात्र से भी लज्जाकारी, निंदाकारी, नीरस और परिश्रम से साध्य हैं। प्रारंभ में कुछ मधुर होते हुए भी अति बीभत्स कामभोग निश्चय ही अंत में दुःखदायी, धर्म गुणों की हानि करने वाला, अनेक प्रकार से भयदायी, अल्पकाल रहनेवाला, क्रूर और संसार की वृद्धि करने वाला है। इस संसार में नरक सहित तिर्यंच समूह में और मनुष्य सहित देवों में जीवों को उपद्रव-दुःख रहित अल्प भी स्थान नहीं है। अनेक प्रकार के दुःखों की व्याकुलता से, पराधीनता से और अत्यंत मूढ़ता से तिर्यंचों में भी सुखी जीवन नहीं है, तो फिर नरक में वह सुख कहाँ से हो सकता है? तथा गर्भ, जन्म, दरिद्रता, रोग, जरा, मरण और वियोग से पराभव होते मनुष्यों में भी अल्पमात्र सुखी जीवन नहीं है। मांस, चरबी, स्नायु, रुधिर, हड्डी, विष्ठा, मूत्र, आंतरडियाँ स्वभाव से कलुषित और नौ एवं बारह छिद्रों से अशुचि बहते मनुष्य के शरीर में भी क्या सुखत्व है? और देवों में भी प्रिय का वियोग, संताप, च्यवन, भय और गर्भ में उत्पत्ति की चिंता इत्यादि विविध दुःखों से प्रतिक्षण खेद करता है और ईर्ष्या, विवाद, मद, लोभादि जोरदार भाव शत्रुओं से भी नित्य पीड़ित है? तो देव का भी किस प्रकार सुखी जीवन है? अर्थात् वह भी दुःखी ही है। (७) आश्रव भावना :- इस प्रकार दुःखरूप संसार में यह जीव सर्व अवस्थाओं में भी जो कुछ भी दुःख को प्राप्त करता है वह उसके बंध किये हुए पापों का पराक्रम है। अनेक द्वार वाला तालाब जैसे अति विशाल जल का संचय करता है, वैसे जीव, जीव-हिंसादि से, कषाय से, निरंकुश इन्द्रियों से, मन, वचन और काया से, अविरति से और मिथ्यात्व की वासना से जिस पाप का संचय करता है, उन सब पाप के कार्यो को आश्रव कहते हैं। वह इस प्रकार से-जैसे सर्व ओर से बड़े द्वार बंद नहीं करने से गंदे पानी का समूह किसी प्रकार से भी 364 For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-आवना पटल नानक चौदहवाँ द्वार-शिवराजर्षि की कथा श्री संवेगरंगशाला रुकावट के बिना सरोवर में प्रवेश करता है, वैसे नित्य विरति नहीं होने से जीव हिंसा आदि बड़े द्वार से अनेक पाप का समूह इस जीव में प्रवेश करता है। उसके बाद उससे पूर्ण भरा हुआ जीव सरोवर में मच्छ आदि के समान अनेक दुःखों का भोक्ता बनता है, इसलिए हे क्षपक मुनि! उस आश्रव का त्याग कर। आश्रव के वश बना जीव तीव्र संताप को प्राप्त करता है, इसलिए जीव हिंसादि की विरति द्वारा उस द्वार को बंद कर। (८) संवर भावना :- सर्व जीवों को आत्म तुल्य मानने वाला जीव सर्व आश्रव द्वारों का संवर करने से सरोवर में पानी के समान पाप रूपी पानी से नहीं भरता है। जैसे बंद किये द्वार वाले श्रेष्ठ तालाब में पानी प्रवेश नहीं करता है वैसे आश्रव द्वार को बंद करने वाले जीव में पाप समूह का प्रवेश नहीं होता है। जो पाप के आश्रव द्वारों को दूर कर उससे दूर रहते है। उनको धन्य है, उनको नमस्कार हो और उनके साथ में हमेशा सहवास हो। इस प्रकार सर्व आश्रव द्वारों को अच्छी तरह रोककर हे क्षपक मुनि! अब नौवी निर्जरा भावना पर भी सम्यक् चिंतन कर ।।८७६३ ।। जैसे कि : (९) निर्जरा भावना :- श्री जिनेश्वरों ने दूसरे आत्मा पर अति दुष्ट आक्रमण करने वाले दुष्ट भाव में पूर्व में स्वयं ने बंध किये कर्मों की मुक्ति उसके भोगने से होती है ऐसा कथन किया है। तथा अनिकाचित्त समस्त कर्म प्रकृतियों की प्रायः कर अति शुभ अध्यवसाय से शीघ्र निर्जरा होती है। और पूर्वकृत निकाचित कर्मों की भी निर्जरा दो, तीन, चार, पाँच अथवा अर्धमास के उपवास आदि विविध तप से होती है ऐसा कथन किया है। रस, रुधिर, मांस, चर्बी आदि धातुएँ एवं सर्व अशुभ कर्म तपकर भस्म हो जाये उसे तप कहते हैं। इस प्रकार निरूक्ति (व्याख्या) शास्त्रज्ञों ने कही है। उसमें भोगने से कर्मों की निर्जरा नारक, तिर्यंच आदि की होती हैं। शुभ भाव से निर्जरा भरत चक्रवर्ती आदि की हुई है। और तप से निर्जरा शाम्ब आदि महात्माओं की हुई है ऐसा जानना। इस तरह से निरंतर विविध दुःखों से पीड़ित नारकी आदि के कर्मों की निर्जरा केवल देश से कही है। अत्यंत विशुद्धि को प्राप्त करते श्रेष्ठ भावना वाले भरतादि को भी उस प्रकार की विशिष्ट कर्म निर्जरा सिद्धांत में कही है। और कृष्ण के पूछने से श्री नेमिनाथ प्रभु ने बारह वर्ष के बाद द्वारिका का विनाश होगा ऐसा कहने से सम्यग् संवेग को प्राप्तकर श्री नेमिनाथ प्रभु के पास दीक्षा लेकर दुष्कर तप में रक्त बने शाम्ब आदि कुमारों ने तप से भी कर्मों की निर्जरा की है। तथा दूसरे नये पानी का प्रवेश बंद होने से जलाशय में रहा पुराना पानी जैसे ठंडी, गरमी और वायु के द्वारा सूख जाता है वैसे आश्रव बंद करने वाले जीव में रहे हुए पूर्व में बंध किये हुए पाप भी तप, ज्ञान, ध्यान, अध्ययन आदि अति विशुद्ध क्रिया से उनकी निर्जरा होती है। इस तरह हे सुंदर मुनि! तूं निर्जरा भावना रूपी श्रेष्ठ नाव द्वारा दुस्तर कर्म रूपी जल में से अपने को शीघ्र पार उतार। फिर सर्व संग का सम्यक् त्यागी और निर्जरा का सेवन करनेवाला होकर ऊपर कही नौ भावनाओं से युक्त विरागी बन, तूं ऊर्ध्व तिर्छा और अधोलोक की स्थिति को तथा उसमें रहे सचित्त, अचित्त, मिश्र सर्व पदार्थों के स्वरूप का भी उपयोग पूर्वक इस तरह विचार कर। (१०) लोक स्वरूप भावना :- इसमें ऊर्ध्वलोक में देव विमान, ति लोक में असंख्याता, द्वीप समुद्र और अधोलोक में, नीचे सात पृथ्वी, इस प्रकार से संक्षेप में लोक स्वभाव स्वरूप है। लोक स्थिति को यथार्थ स्वरूप नहीं जानने वाले जीव स्वकार्य के साधक नहीं होते हैं और उसका सम्यग् ज्ञाता शिव तापस के समान स्वकार्य साधक बनता है ।।८७७९ ।। उसकी कथा इस प्रकार : शिवराजर्षि की कथा हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था। उसने राज्य लक्ष्मी को छोड़कर तापसी दीक्षा लेकर वनवास 365 For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नानक चौदहवाँ द्वार-शिवराजर्षि वी कथा की चर्या को स्वीकार की। वे निमेष रहित नेत्रों को सूर्य सन्मुख रखकर अतीव तप करते थे, तथा अपने शास्त्रानुसार शेष क्रिया कलाप को भी करते थे। इस प्रकार तपस्या करते उसे भद्रिक प्रवृत्ति से तथा कर्म के क्षयोपशम से विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ। फिर उस ज्ञान से लोक को केवल सात द्वीप सागर प्रमाण जानकर, अपने विशिष्ट ज्ञान के विस्तार से वह शिवराजर्षि प्रसन्न हुआ। फिर हस्तिनापुर में तीन मार्ग वाले चौक में अथवा चौराहे में आकर वह लोगों को कहता था कि इस लोक में उत्कृष्ट सात द्वीप समुद्र हैं, उससे भी आगे लोक का अभाव है। जैसे किसी के हाथ में रहे कुवलय के फल को जानते हैं वैसे मैं निर्मल ज्ञान से जानता हैं। ___ उस समय श्री महावीर परमात्मा भी उस नगर में पधारे थे और श्री गौतम स्वामी ने भी भिक्षा के लिए प्रवेश किया। फिर लोगों के मुख से सात द्वीप समुद्र की बात सुनकर आश्चर्य पूर्वक श्री गौतम स्वामी ने प्रभु के पास आकर उचित समय पर प्रभु से पूछा कि-हे नाथ! इस लोक में द्वीप समुद्र कितने हैं? प्रभु ने कहा कि असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। इस प्रकार प्रभु से कथित और लोगों के मुख से सुनकर सहसा शिवऋषि जब शंकाकांक्षा से चल-चित्त हुआ, तब उसका विभंग ज्ञान उसी समय नष्ट हो गया और अतीव भक्ति समूह से भरे हुए उसने सम्यग्ज्ञान के लिए श्री वीर परमात्मा के पास आकर नमस्कार किया। फिर दो हस्त कमल मस्तक पर लगाकर नजदीक की भूमि प्रदेश में बैठकर और प्रभु के मुख सन्मुख चक्षु को स्थिर करके उद्यमपूर्वक सेवा करने लगा। तब प्रभु ने देव, तिथंच और मनुष्य से भरी हुई पर्षदा को और शिवऋषि को भी लोक का स्वरूप और धर्म का रहस्य विस्तारपूर्वक समझाया। इसे सुनकर सम्यग् ज्ञान प्राप्त हुआ उसने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की और तपस्या करते उस महात्मा ने आठ कर्मों की अति कठोर गाँठ को लीला मात्र में क्षय करके रोग रहित, जन्म रहित, मरण रहित और उपद्रव रहित अक्षय सुख को प्राप्त किया। इसलिए हे क्षपक मुनि! जगत के स्वरूप को जानकर वैरागी, तूं प्रस्तुत समाधिरूप कार्य की सिद्धि के लिए मन को अल्पमात्र भी चंचल मत करना। हे क्षपकमुनि! लोक स्वरूप को यथा स्थित जानने वाला प्रमाद का त्यागकर तूं अब बोधि की अति दुर्लभता का विचार कर। जैसे कि : (११) बोधि दुर्लभ भावना :- कर्म की परतंत्रता के कारण संसाररूपी वन में इधर-उधर भ्रमण करते जीवों को त्रस योनि भी मिलनी दुर्लभ है। क्योंकि सूत्र सिद्धांत में कहा कि जिन्होंने कभी भी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया ऐसी अनंत जीवात्मा हैं वे बार-बार स्थावरपने में ही उत्पन्न होते हैं और वहीं मर जाते हैं। उनमें से महा मुश्किल से त्रस जीव बनने के बाद भी पंचेन्द्रिय बनना अति दुर्लभ है और उसमें पंचेन्द्रिय के अंदर भी जलचर, स्थलचर और खेचर योनियों के चक्र में चिरकाल भ्रमण करने से जैसे अगाध जल वाले स्वयंभू रमण समुद्र में आमने सामने किनारे पर डाला हुआ बैलगाड़ी का जुआ (धूरी) और कील का मिलना दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य जीवन मिलना भी अति दुर्लभ है ।।८८००।। और उसमें बोधि ज्ञान की प्राप्ति तो उससे भी अनेक गुनी अति दुर्लभ है। क्योंकि, मनुष्य जीवन में भी अकर्म भूमि और अंतरद्वीपों में प्रायःकर मुनि विहार का अभाव होने से बोधि प्राप्ति कहाँ से हो सकती है? कर्म भूमि में भी छह खंडों में से पाँच खंड तो सर्वथा अनार्य हैं क्योंकि मध्य खंड के बाहर धर्म की अयोग्यता है। और जो भरत में छठा खंड श्रेष्ठ है उसमें भी अयोध्या के मध्य से साढ़े पच्चीस देश के बिना शेष अत्यंत अनार्य है, और जो साढ़े पच्चीस देश प्रमाण आर्य देश हैं वहाँ भी साधुओं का विहार किसी काल में किसी प्रदेश में ही होता है। क्योंकि कहा है कि : (१) मगध देश में राजगृही, (२) अंग देश में चम्पा, (३) बंग देश में तामलिप्ती, (४) कलिंग में कंचनपुर, (५) काशी देश में वाराणसी, (६) कौशल देश में साकेतपुर, (७) कुरु देश में गजपुर-हस्तिनापुर, (८) 366 For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला कुर्शात देश में शौरिपुर, (९) पंचाल देश में कंपिल्लपुर, (१०) जंगला देश में अहिछत्रा, (११) सोरठ देश में द्वारामती, (१२) विदह में मिथिला, (१३) वच्छ देश में कौशाम्बी, (१४) शांडिल्य देश में नंदिपुर, (१५) मलय देश में भद्दिलपुर, (१६) वच्छ देश में वैराट, (१७) अच्छ देश में वरणा, (१८) दर्शाण में मर्तिकावती, (१९) चेदी में शुक्तिमती, (२०) सिंधु सौवीर में वीतभयनगर, (२१) सूरसेन में मथुरा, (२२) भंगी देश में पावापुरी, (२३) वर्ता (वच्छ) देश में मासपुरी, (२४) कुणाल में श्रावस्ती, (२५) लाढ देश में कोटि वर्षनगर और अर्ध कैकेय देश में श्वेतांबिका नगरी, ये सभी देश आर्य कहे हैं। इस देश में ही श्री जिनेश्वर, चक्रवती, बलदेव और वासुदेवों के जन्म होते हैं ।।८८१० ।। इसमें पूर्व दिशा में अंग और मगध देश तक दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थूण देश तक और उत्तर में कुणाल देश तक दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थूण देश तक और उत्तर में कुणाल देश तक आर्य क्षेत्र है। इस क्षेत्र में साधुओं को विहार करना कल्पता है परन्तु इससे बाहर जहाँ ज्ञानादि गुण की वृद्धि न हो वहाँ विचरना अयोग्य है। और जहाँ ज्ञानादि गुण रत्नों के निधान और वचन रूपी किरणों से मिथ्यात्व रूप अन्धकार को नाश करने वाले मुनिवर्य विचरते नहीं हैं, वहाँ प्रचण्ड पाखंडियों के समूह के वचन रूप प्रचंड वचनों से प्रेरित बोधि, वायु से उड़ी हुई रूई की पूणी के समान स्थिर रहनी अति दुर्लभ है। इस तरह हे देवानु प्रिय ! बोधि की अति दुर्लभता को जानकर और भयंकर संसार में चिरकाल तक भ्रमण करने के बाद उसे प्राप्त करके अब तुझे नित्य किसी भी उपाय से अति आदरपूर्वक ऐसा करना चाहिए कि जैसे भाग्यवश से मिली बोधि की सफलता हो, क्योंकि प्राप्त हुई बोधि को सफल नहीं करते और भविष्य में पुनः इसकी इच्छा करते तूं दूसरे बोधि के दातारको किस मूल्य से प्राप्त करेगा? और मूढ़ पुरुष तो कभी देव के समान सुख को, कभी नरक के समान महादुःख को और कभी तिर्यंच आदि के भी, दाग देना, खसी करना इत्यादि विविध दुःख को अपनी आँखों से देखकर और किसी के दुःखों को परोपदेश से जानकर भी अमूल्य बोधि को स्वीकार नहीं करता है । जैसे बड़े नगर में मनुष्य गया हो और धन होते हुए भी मूढ़ता के कारण वहाँ का लाभ नहीं लेता, वैसे ही नर जन्म को प्राप्तकर भी मूढ़ता से बोधि को प्राप्त नहीं करता । तथा सत्य की परीक्षा को नहीं जानने वाला चिन्तामणी को फेंक देने वाले मूढात्मा के समान मूढ़ मनुष्य मुश्किल से मिली उत्तम बोधि को भी शीघ्र छोड़ देता है, और अन्य व्यापारियों को रत्न दे देने के बाद व्यापारी के पुत्र के समान पुनः उन रत्नों को प्राप्त नहीं कर सका, उस तरह बोधिज्ञान से भ्रष्ट हुआ पुनः खोज करने पर भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता है ।।८८२२ । । इस विषय की कथा इस प्रकारःवणिक पुत्र की कथा महान् धनाढ्य से पूर्ण भरे हुए एक बड़े नगर में कलाओं में कुशल, उत्तम प्रशान्त वेषधारी, शिवदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके पास ज्वर, भूत, पिशाच और शाकिनी आदि के उपद्रव को नाश करने वाले प्रगट प्रभाव से शोभित विविध रत्न थे। उन रत्नों को वह प्राण के समान अथवा महानिधान समान हमेशा रखता था, अपने पुत्र आदि को भी किसी तरह नहीं दिखाता था। एक समय उस नगर में एक उत्सव में जिनके पास जितना करोड़ धन था वह धनाढ्य उतनी चन्द्र समान उज्ज्वल ध्वजा (कोटि ध्वजा) अपने-अपने मकान के ऊपर चढ़ाने लगे। उसे देखकर उस सेठ के पुत्रों ने कहा कि - 'हे तात! रत्नों को बेच दो! धन नकद करो! इन रत्नों का क्या काम है? कोटि ध्वजाओं से अपना धन भी शोभायमान होता है' इससे रुष्ट हुए सेठ ने कहा कि- 'अरे! मेरे सामने फिर ऐसा कभी भी नहीं बोलना किसी तरह भी इन रत्नों को नहीं बेचूँगा । इस तरह पिता को निश्चल जानकर पुत्रों ने मौन धारण किया और विश्वस्त मन वाले सेठ भी एक समय कार्यवश अन्य गाँव में गया। फिर 367 For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा पिता की अनुपस्थिति जानकर अन्य प्रयोजनों का विचार किये बिना पुत्रों ने दूर देश से आये व्यापारियों को वे रत्न बेच दिये। फिर उस बिक्री से प्राप्त हुए धन से अनेक करोड़ संख्या की शंख समान उज्ज्वल ध्वजापटों को घर के ऊपर चढ़ाया। फिर कुछ काल में सेठ आया और घर को देखकर सहसा विस्मय प्राप्त कर पुत्रों से पूछा कियह क्या है? उन्होंने सारा वृत्तान्त कहा, इससे अति गाढ़ क्रोध वाले सेठ ने अनेक कठोर शब्दों से बहुत समय तक उनका तिरस्कार किया और 'रत्नों को लेकर मेरे घर में आना' ऐसा कहकर जोर से गले से पकड़कर अपने घर में से निकाल दिया । फिर वे बिचारे बहुत काल तक भ्रमण करने पर भी दूर देशों में पहुँचे उन व्यापारियों के पास अपने असली रत्नों को पुनः किस तरह प्राप्त करें? अथवा किसी तरह देव आदि की सहायता से उनको वे रत्न मिल जाएँ, फिर भी नाश हुई अत्यन्त दुर्लभ बोधि पुनः प्राप्त नहीं होती है। और जब इस लोक, परलोक में सुख को प्राप्त करता है तब ही श्री जिन कथित धर्म को भाव से स्वीकार करता है। जैसे-जैसे दोष घटते हैं और जैसे-जैसे विषयों में वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे-वैसे जानना कि बोधि लाभ नजदीक है। दुर्गम संसार अटवी में चिरकाल से परिभ्रमण करते भूले हुए जीवों को इष्ट श्री जिन कथित सद्गति का मार्ग अति दुर्लभ है। मनुष्य जीवन मिलने पर भी मोह के उदय से कुमार्ग अनेक होने से और विषय सुख के लोभ से जीवों को मोक्ष मार्ग दुर्लभ है। इस कारण से महामूल्य वाले रत्नों के भंडार की प्राप्तितुल्य बोधिलाभ प्राप्त कर तुच्छ सुखों के लिए तूं उसे ही निष्फल मत गंवाना। इस प्रकार दुर्लभ भी बोधिलाभ मुश्किल से मिलने पर भी इस संसार में धर्माचार्य की प्राप्ति भी दुर्लभ है, इस कारण से तूं इसका भी विचार कर जैसे कि: (१२) धर्माचार्य दुर्लभ भावना :- जैसे जगत में रत्न का अर्थी और उसके दातार भी थोड़े होते हैं, वैसे शुद्ध धर्म के अर्थी और उसके दाता भी बहुत ही अल्प होते हैं। और यथोक्त साधुता होने पर शास्त्र कथित, कष, छेद आदि से विशुद्ध शुद्ध धर्म को देने वाले हैं वे गुरु सद्गुरु में गिने जाते हैं। इसलिए ही इन विशिष्ट दृष्टि वाले ज्ञानियों ने इस प्रमाण से सिद्ध अर्थ वाले को निश्चय से भाव साधु कहा है। इस प्रमाण से अनुमान प्रमाण की पद्धति से अपना कथन सिद्ध करते हैं कि 'शास्त्रोक्त गुण वाले वे साधु होते हैं दूसरे प्रतिज्ञा और गुण वाले नहीं होने से वे साधु नहीं होते हैं यह हेतु है।' सुवर्ण के समान यह दृष्टान्त है जैसे (१) विष घातक, (२) रसायण, (३) मंगल रूप, (४) विनीत, (५) प्रदक्षिणा वर्त, (६) भारी, (७) अदाह्य और (८) अकुत्सित ये आठ गुण सुवर्ण में होते हैं वैसे भाव साधु भी (१) मोहरूपी विष का घात करने वाले होते हैं, (२) मोक्ष का उपदेश करने से रसायण है, (३) गुणों से वह मंगल स्वरूप है, (४) मन, वचन, काया के योग से विनीत होते हैं, (५) मार्गानुसारी होने से प्रदक्षिणावर्त होते हैं, (६) गंभीर होने से गुरु रूप होते हैं, (७) क्रोध रूपी अग्नि से नहीं जलने वाले और, (८) शील वाले होने से सदा पवित्र होते हैं ।। ८८५० ।। इस तरह यहाँ सोने के गुण दृष्टांत से साधु में भी जान योग्य हैं, क्योंकि प्रायःकर समान धर्म के अभाव में पदार्थ दृष्टांत नहीं बनता है। जो कष, छेद, ताप और ताड़न इन चार क्रियाओं से विशुद्ध परीक्षित होता है वह सुवर्ण ऊपर कहे वह विष घातक, रसायण आदि युक्त होता है वैसे साधु में भी (१) विशुद्ध लेश्या वह कष है, (२) एक ही परमार्थ ध्येय का लक्ष्य वह छेद है, (३) अपकारी प्रति अनुकंपा वह ताप है और (४) संकट में भी अति निश्चल चित्तवाले वह ताड़ना जानना । जो समग्र गुणों युक्त हो वह सुवर्ण कहलाता है, वह मिलावट वाला कृत्रिम नहीं है। इस प्रकार साधु भी निर्गुणी केवल नाम से अथवा वेशमात्र से साधु नहीं है । और यदि कृत्रिम सोना सुवर्ण समान वर्ण वाला किया जाये फिर भी दूसरे गुणों से रहित होने से वह किसी तरह सुवर्ण नहीं बनता है। जैसे वर्ण के साथ में अन्य गुणों का समूह होने से जाति 368 For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला वंत साना-सोना है, वैसे इन शास्त्रों में जैसे साधु गुण कहे हैं उससे युक्त हो वही साधु है। और वर्ण के साथ में अन्य गुण नहीं होने से जैसे कृत्रिम सोना सोना नहीं है वैसे साधु गुण से रहित, जो साधुवेश लेकर भिक्षा के लिए फिरता है, वह साधु नहीं है। साधु के निमित्त किया हुआ खाये, छहकाय जीवों का नाश करने वाला, जो घर मकान तैयार करें, करावे और प्रत्यक्ष जलचर जीवों को जो पीता (सचित्त जल पीने वाला) हो उसका उपयोग करता हो उसे साधु कैसे कह सकते हैं? इसलिए कष आदि अन्य गुणों को अवश्यमेव यहाँ जानना चाहिए और इन परीक्षाओं द्वारा ही यहाँ साधु की परीक्षा करनी चाहिए। इस शास्त्र में जो साधु गुण कहे हैं उनका अत्यंत सुपरिशुद्ध गुणों द्वारा मोक्ष सिद्धि होती है, इस कारण से जो गुण वाला हो वही साधु है। गुरु परीक्षा कैसे - इस प्रकार मोक्ष साधक गुणों का साधन करने से जिसे साधु कहा है, वही धर्मोपदेश देने भी है। इसलिए अब सब लोगों की सविशेष ज्ञान करवाने के लिए संपूर्ण साधु के गुण समूह रूपी रत्नों से शोभित शरीर वाले भी गुरु की परीक्षा किस तरह करनी उसे कहते हैं। पुनः उस परीक्षा से यदि साधु परलोक के हित से पराङ्मुख हो, केवल इस लोक में ही लक्ष्य बुद्धि वाला और सद्धर्म की वासना से रहित हो तो उसे परीक्षा करने का अधिकार नहीं है और जो लोक व्यवहार से देव तुल्य गिना जाता हो तथा अति दुःख से छोड़ने वाले माता, पिता को भी छोड़कर, किसी भी पुरुष को गुरु रूप में स्वीकार करके श्रुत से विमुख अज्ञानी मात्र गडरिया प्रवाह के अनुसार प्रवृत्ति करनेवाला और धर्म का अर्थी होने पर भी स्व बुद्धि अनुसार कष्टकारी क्रियाओं में रुचि करने वाला, स्वेच्छाचारी सन्मार्ग में चलने की इच्छावाला हो, अथवा दूसरे को चलाता हो, फिर भी इस प्रकार के साधु का भी यहाँ विषय नहीं है। परंतु निश्चय रूप से जिसने संसार की निर्गुणता का यथार्थ चिंतन किया हो, जिसको संसार के प्रति वैराग्य हुआ हो और सद्धर्म के उपदेशक गुरु महाराज की खोज करता हो, उस आत्मा का विषय है, उसे परीक्षा का अधिकार है। इसलिए भवभय से डरा हुआ और सद्धर्म में एक लक्ष्य वाला भव्यात्मा को दरिद्र जैसे धनवान को, और समुद्र में डूबनेवाला जैसे जहाज की खोज करता है, वैसे इस संसार में परम पद मोक्ष नगर के मार्ग में चलते प्राणियों को परम सार्थवाह समान और सम्यग् ज्ञानादि गुणों से महान् गुरु की बुद्धिपूर्वक परीक्षा करनी चाहिए। जैसे जगत में हाथी, घोड़े आदि अच्छे लक्षणों से श्रेष्ठ गुण वाले माने जाते हैं, वैसे गुरु भी धर्म में उद्यमशील आदि लक्षणों से श्रेष्ठ गुरु जानना । इस मनुष्य जन्म में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को साधने वाला होता है, वह सद्गुरु के उपदेश से कष्ट बिना प्राप्त करता है। इस जगत में उत्तम गुरु के योग से कृतार्थ बना हुआ योगी विशिष्ट ज्ञान से पदार्थों का जानकार बनता है। और शापबददुआ देने से दूर तथा अनुगृह करने में चतुर बनता है। तीन भवन रूपी प्रासाद में विस्तरित अज्ञान रूपी अंधकार के समूह को नाश करने के लिए समर्थ सम्यग् ज्ञान से चमकते रूपवान, पाप रूपी तितली को क्षय करने में कुशल और वांछित पदार्थ को जानने में तत्पर गुरु रूपी दीपक न हो तो यह बिचारा अन्धा, बहरा जगत कैसा होता - क्या करता ? ।। ८८७५ ।। जैसे उत्तम वैद्य के वचन से व्याधि संपूर्ण नाश होती है, वैसे सद्गुरु के उपदेश से कर्म व्याधि भी नाश होती है ऐसा जानना। कलिकाल युक्त इस जगत में, विविध वांछित फलों को देने में व्यसनी, अखंड गुणवाले ऐसे गुरु महाराज साक्षात् कल्पवृक्ष के समान हैं। संसार समुद्र को तैरने में समर्थ और मोक्ष के कारणभूत सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र आदि गुणों से जो महान् है वे गुरु भगवंत हैं। आर्य देश, उत्तम कुल, विशिष्ट जाति, सुंदर रूप आदि गुणों से युक्त, सर्व पापों के त्यागी और उत्तम गुरु ने जिनको गुरु पद पर स्थापना किया है, उस 369 . . For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा प्रशम गुण युक्त महात्मा को गुरु कहा है। समस्त अनर्थों का भंडार विकार रूपी सुरापान और अशुचि मूलक विषय रूपी मांस का यदि सदाकाल त्याग करे, उसका गुरुत्व स्पष्ट है। यदि गृहस्थ शिष्य के समान गुरु को भी हल, खेत, गाय, भैंस, घर, स्त्री, पुत्र और विविध वस्तुओं का व्यवहार हो तो उसके गुरुत्व से क्या लाभ? जो पापारंभ गृहस्थ शिष्य को हो वही यदि गुरु को भी हो तो अहो! आश्चर्य की बात है कि लीला मात्र में अर्थात् कष्ट बिना संसार समुद्र को उसने पार किया है। यहाँ कटाक्ष वचन होने से वस्तुतः वह डूबा है, ऐसा समझना। यदि प्राणांत में भी सर्व प्रकार से पर पीडा करने का चिंतन न करें वह जीव माता के तल्य और करुणा के एक रसवाले को गुरु कहा है। जो पुरुष विषय रूपी मांस में आसक्त हो वह अन्य जीवों को ठगने की इच्छा करता है और इस विषय से विरक्त हो तो वह परमार्थ से गुरु है। नित्य, बाल, ग्लान आदि को यथायोग्य संविभाग देकर वह भी स्वयं किया, करवाया या अनुमोदन किया न हो, सकल दोष रहित, वह भी वैयावच्चादि कारण से ही और राग, द्वेष आदि दोषों से रहित अल्प-अल्प प्राप्त किया भोजन करता है उसे ही सत्य साधु कहते हैं। सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रित जो हमेशा राग का त्यागी है, अर्थात् द्रव्यादि की ममता नहीं है, उसे ही सत्य गरु कहा है। तप से कश शरीर वाले भी व्यास आदि महामनि जो ब्रह्मचर्य में पराजित हए हैं. वे गुरु पद में नहीं आ सकते अतः उस घोर ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले ही भाव गुरु हैं। यदि नित्य अति उछलते स्वपर उभय के कषाय रूपी अग्नि को प्रशम के उपदेश रूपी जल से शांत करने में समर्थ है और क्षमादि दस प्रकार के यति धर्म के निर्मल गुण रूप मणिओं को प्रकट कराने में रोहणाचल पर्वत की भूमि समान हो, उसे श्री जिनेश्वर भगवान ने इष्ट गुरु कहा है। गुरु कैसे= जो पाँच समिति वाले, तीन गुप्ति वाले, यम नियम में तत्पर महासात्त्विक और आगम रूपी अमृत रस से तृप्त है, उन्हें भाव गुरु कहा हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश भाषा के विशिष्ट वचन द्वारा शिष्य को पढ़ाने में कुशल जो प्रियभाषी है वे भाव गुरु हैं। जिस तरह राजा को उसी तरह रंक को भी प्रशम जन्य चित्त वृत्ति से सद्धर्म को कहे, वे भाव प्रधान गुरु हैं। सुख और दुःख में, तृण और मणि में, तथा कनक और कथिर में भी समान हैं, अपमान और सन्मान में भी समान हैं तथा मित्र शत्रु में भी समान हैं, राग, द्वेष रहित धीर है, वे गुरु होते हैं। शरीर और मन के अनेक दुःखों के ताप से दुःखी संसारी जीवों को चंद्र के समान यदि शीतलकारी हो, उनका गुरुत्व हैं। जिनका हृदय संवेगमय हो, वचन सम्यक् संवेगमय हो और उनकी क्रिया भी संवेगमय हो, वे तत्त्वतः सद्गुरु हैं। यदि सावद्य, निरवद्य भाषा को जाने और सावद्य का त्याग करें, निरवद्य वचन भी कारण से ही बोले, उन गुरु का आश्रय करो। क्योंकि सवज्जऽणवज्जाणं वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं ।।८८७८।। सावध, निरवद्य वचनों के भेद को जो नहीं जानता, उसे बोलना भी योग्य नहीं है, तो उपदेश देने के लिए तो कहना ही क्या? इसलिए जो हेतुवाद पक्ष में-युक्तिगम्य भावों में हेतु से और शास्त्र ग्राह्य, श्रद्धेय भावों में आगम से समझाने वाला हो वह गुरु है। इससे विपरीत उपदेश देने वाला श्री जिनवचन का विराधक है। क्योंकि अपनी मति कल्पना से असंगत भावों का पोषण करने वाला मूढ़ वह दूसरों के लिए 'मृषावादी सर्वज्ञ है।'।।८९०० ।। वह मिथ्या बुद्धि पैदा करता है। अविधि से पढ़ा हुआ, कुनयों के अल्पमात्र से अभिमान मूढ़ बना हुआ जिनमत को नहीं जानता वह उसे विपरीत कहकर स्व-पर उभय को भी निश्चय रूप से दुर्गति में पहुँचाता है। 370 For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-भावना पटल नामक चौदहवाँ द्वार-वणिक पुत्र की कथा श्री संवेगरंगशाला धर्मोपदेशक गुरु गुण :उपदेश देनेवाले गुरु के गुण - ( १ ) स्वशास्त्र परशास्त्र के जानकार, (२) संवेगी, (३) दूसरों को संवेग प्रकट कराने वाले, (४) मध्यस्थ, (५) कृतकरण, (६) ग्राहणा कुशल, (७) जीवों पर उपकार करने में रक्त, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला, (९) अनुवर्तक और (१०) बुद्धिमान हो, वह श्री जिन कथित धर्म पर्षदा (सभा) में उपदेश देने के लिए अधिकारी है। उसमें : (१) स्वशास्त्र - परशास्त्र के जानकार :- परदर्शन के शास्त्रों से जैन धर्म की विशेषता को देखे, जाने, इससे वह श्री जैनधर्म में उत्साह को बढ़ावे, और श्री जिनमत का जानकार होने से समस्त नयों से सूत्रार्थ को समझावें एवं उत्सर्ग अपवाद के विभाग को भी यथास्थित बतलावे । (२) संवेग :- परमार्थ सत्य को कहने वाला होता है ऐसी प्रतीति असंवेगी में नहीं होती है, क्योंकि असंवेगी चरण-करण गुणों का त्याग करते अंत में समस्त व्यवहार को भी छोड़ता है। सुस्थिर गुण वाले संवेगी का वचन घी, मद्य से सिंचित अग्नि के समान शोभता है। जब गुणहीन के वचन तेल रहित दीपक के समान नहीं शोभते हैं। (३) अन्य को संवेगजनक :- सदाचारी आचार की प्ररूपणा (उपदेश) में निःशंकता से बोल सके, आचार भ्रष्ट मुनि चारित्र का शुद्ध उपदेश दे, ऐसा एकांत नहीं है। लाखों जन्म के बाद श्री जिन वचन मिलने के बाद उसे भाव से छोड़ देने में जिसको दुःख न हो उसे दूसरे दुःखी होते देखकर दुःख नहीं होता है। वह दूसरे में संवेग उत्पन्न नहीं करवा सकता। जो यथाशक्य आ में उद्यम करता हो, वही दूसरे को संवेग प्रकट करवा सकता है। (४) मध्यस्थ :- मध्यस्थ रहने वाला, (५) कृत करण :- दृढ़ अभ्यासी और, (६) ग्राहणा कुशल :- समझाने में चतुर। इन तीनों गुण युक्त गुरु सामने आये हुए श्रोताको अनुग्रह करते है, (७) परोपकार में रक्त :- ग्लानि बिना 'बार-बार वाचना दे' इत्यादि द्वारा शिष्यों को सूत्र अर्थ अति स्थिर परिचित दृढ़ करा दे, (८) दृढ़ प्रतिज्ञा वाला :- अल्प ज्ञान वालों समक्ष अपवाद का आचरण न करें, परंतु दृढ़ प्रतिज्ञा वाला हो, (९) अनुवर्तक :- अलग-अलग क्षयोपशम वाले शिष्यों को यथा योग्य उपदेशादि द्वारा सन्मार्ग में चढ़ाये और (१०) मतिमान् :- अवश्यमेव समस्त उत्सर्ग अपवाद के विषयों को और विविध मतों (पंथों) के उपदेश योग्य, परिणत, अपरिणत या अतिपरिणत आदि शिष्यों को जानें। इस प्रकार उपदेश देने की योग्यता वाले धर्मोपदेशक गुरु जानना । । ८९१३ ।। जो पृथ्वी के समान सर्व सहन करने वाला हो, मेरु के समान अचल धर्म में स्थिर और चंद्र के समान सौम्य लेश्यावाला हो उस धर्म गुरु की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। देश काल का ज्ञाता, विविध हेतुओं का तथा कारणों के भेद का ज्ञाता और संग्रह तथा उपग्रह सहायता करने में जो कुशल हो उस धर्म गुरु की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। लौकिक, वैदिक और लोकोत्तर, अन्यान्य शास्त्रों में जो लब्धार्थ - स्वयं रहस्य का ज्ञाता हो तथा गृहितार्थ अर्थात् दूसरों से पूछकर अर्थ का निर्णय करने वाला हो, उस धर्मगुरु की ज्ञानी प्रशंसा करते हैं। अनेक भवों में परिभ्रमण करते जीव उस क्रियाओं में, कलाओं में और अन्य धर्माचरणों में उस विषय के ज्ञाता हजारों धर्म गुरुओं को प्राप्त करते हैं परंतु श्री जिन कथित निर्ग्रन्थ प्रवचन में जिनशासन में संसार से मुक्त होने के मार्ग के ज्ञाता जो धर्म गुरु हैं वे यहाँ मिलने दुर्लभ हैं। जैसे एक दीपक से सैंकड़ों दीपक प्रकट होते हैं। और दीपक प्रति प्रदेश को प्रकाशमय बनाता है वैसे दीपक समान धर्मगुरु स्वयं को और जिन शासन रूपी घर को प्रकाशमय करते हैं। धर्म को सम्यग् जानकर, धर्म परायण, धर्म को करने वाले, और जीवों को धर्मशास्त्र के अर्थ को बतानेवाले को सुगुरु कहते हैं। चाणक्य नीति, पंचतंत्र और कामंदक नामक नीति शास्त्र आदि राज्य नीतियों की जन रंजनार्थे व्याख्या करने वाले गुरु निश्चय से जीवों का हित करनेवाले नहीं हैं। तथा वस्तुओं की भावी तेजी मंदी बतानेवाले अर्थ For Personal & Private Use Only 371 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-शील पालन नामक पंद्रहवाँ द्वार काण्ड नामक ग्रंथ आदि, ज्योतिष के ग्रंथ तथा मनुष्य, घोड़े, हाथी आदि के वैद्यक शास्त्र, और धनुर्वेद, धातुर्वाद आदि पापकारी उपदेश करने वाले गुरु जीवों के घातक हैं तथा बावड़ी, कुएँ, तालाब आदि का उपदेश सद्गुरु नहीं देते हैं। क्योंकि-असंख्यात जीवों का विनाश करके अल्प की भक्ति नहीं होती है। इसीलिए ही जीवों की अनुकंपा वाले हो वे सुगुरु निश्चय से हल, गाड़ी, जहाज, संग्राम अथवा गोधन आदि के विषय में उपदेश भी कैसे दे सकते है? अतः कष, छेद आदि से विशुद्ध धर्म गुरु द्वारा धर्म रूपी सुवर्ण के दातार गुरु की ही यहाँ इस भावना में दुर्लभता कही है। ___ इसलिए हे भद्रक मुनि! भयंकर संसार की दीवार तोड़ने के लिए हाथी की सेना समान समर्थ बारह भाटमाओं को संवेग के उत्कर्षपूर्वक चित्त से चिंतन कर। दृढ़ प्रतिज्ञा वाला साधु जैसे-जैसे वैराग्य से वासित होता है वैसे-वैसे सूर्य से अंधकार का नाश हो उसी तरह कर्म अथवा दुःख क्षय होता है। प्रति समय पूर्ण सद्भावपूर्वक भावनाओं के चिंतन से भव्यात्मा के चिर संचित कर्म अतितीव्र अग्नि के संगम से मोम पिघलता है वैसे पिघल जाते हैं। नये कर्मों का बंध नहीं करता है और यथार्थ भावना में तत्पर जीव को चीभडे की उत्कट गंध से सुखडी का छेदन भेदन हो जाता है वैसे पुराने कर्मों का छेदन हो जाता हैं। अखंड प्रचंड सूर्य के किरणों से ग्रसित बर्फ के समान शुभ भावनाओं से अशुभ कर्मों का समूह क्षय हो जाता है। इसलिए ध्यानरूपी योग की निद्रा से अर्द्ध बंद नेत्र वाला संसार से डरा हुआ, तूं हे सुंदर मुनि! संसार पर अनासक्त भाव से बारह भावनाओं का चिंतन कर। इस तरह बारह प्रकार की भावनाओं के समूह नामक यह चौदहवाँ अंतर द्वार कहा है अब पंद्रहवाँ शील पालन नामक अंतर द्वार कहता हूँ ।।८९३२।। शील पालन नामक पंद्रहवाँ द्वार : निश्चयनय से शील आत्मा का स्वभाव है। और व्यवहार नय से आश्रव के द्वार को रोककर चारित्र का पालन करना उसे शील कहते हैं। अथवा शील मन की समाधि है। पुरुष स्वभाव दो प्रकार का है प्रशस्त और अप्रशस्त। उसमें जो राग, द्वेष आदि से कलुषित है वह अप्रशस्त है और चित्त की सरलता, राग, द्वेष की मंदता और धर्म के परिणामवाला है वह प्रशस्त स्वभाव है। यहाँ प्रशस्त स्वभाव का वर्णन किया है। इस प्रकार अति प्रशस्त स्वभाव रूपी शील जिसका अखंड है, वह मूल गुणों की आधार शिला है, इससे दूसरे भी गुण समूह को धारण करता है। चारित्र दो शब्दों से बना है, चय+रिक्त-चारित्र चय अर्थात् कर्म का संचय और रिक्त अर्थात् अभाव है अर्थात् जहाँ कर्म संचय का अभाव हो उसे चारित्र कहते हैं। और वह चारित्र शास्त्रोक्त विधि निषेध के अनुसार अनुष्ठान है और वह आश्रव की विरति से होता है। क्योंकि चारित्र पालन रूप शील की वृद्धि के लिए ही आश्रव का निरोध करने में समर्थ यह उपदेश ज्ञानियों ने दिया है। जैसे कि-निर्जरा का अर्थी सदा इन्द्रियों का दमन करके और कषाय रूप सर्व सैन्य को नष्ट करके आश्रव द्वार को रोकने के लिए प्रयत्न करता है। क्योंकि जैसे रोग से पीड़ित मनुष्य को अपथ्य-अहित आहार छोड़ने से रोग का नाश होता है वैसे इन्द्रिय और कषायों को जीतने से आश्रव का नाश होता ही है। इसलिए ही समस्त जीवों के प्रति मुनि स्वात्म तुल्य वर्तन करते हैं। सद्गति की प्राप्ति के लिए इससे अन्य उपाय ही नहीं है। अतः ज्ञान से, ध्यान से, और तप के बल से, बलात्कार से भी सर्व आश्रव द्वार को रोककर निर्मल शील को धारण करना हैए। और मन समाधि रूपी शील को भी मोक्ष साधक गुणों के मूल कारण रूप जानना। सूत्र में कहा है कि को समाधि है उसे तप है और जिसे तप है उसे सद्गति सुलभ है। जो पुरुष असमाधिवाला है उसको तप भी : र्लभ है। एवं करण नाम से साधक रूप, मन, वचन और काया इसे तीन योग कहा है वह भी समाधि वाले का गुणकारी है। है और असमाधि वालों को दोष 372 For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला कारक बनता है। अतः संसार वास से थके हुए वैरागी धन्य पुरुष दुःख की हेतुभूत स्त्री की आसक्ति रूपी बंधन को तोड़कर श्रमण बने हैं। धन्य पुरुष आत्महित कर कथन सुनते हैं, अति धन्य सुनकर आचरण करते हैं और उससे अति धन्य सद्गति का मार्गभूत गुण के समूह रूप शील में प्रेम करते हैं ।।८९४७।। जैसे दावानल तृण समूह को जलाता है वैसे सम्यग् ज्ञान रूपी वायु की प्रेरणा से और शील रूपी महाज्वालाओं वाली विकृष्ट (उग्र) तप रूपी अग्नि संसार के मूल बीज को जलाती है। निर्मलशील का पालन करने वालों की आत्मा इस लोक और परलोक में भी 'यही परमात्मा है' इस प्रकार लोगों से गौरव को प्राप्त करती है। सत्य प्रतिज्ञा में तत्पर शील के बल वाली आत्मा उत्साहपूर्वक लीला मात्र से अत्यंत महा भयंकर दुःखों से भी पार हो जाती है। शील रूपी अलंकार से शोभते आत्मा को उसी समय (शील भंग के प्रसंग पर) मर जाना अच्छा है परंतु शील अलंकार से भ्रष्ट हुए का लम्बा जीवन श्रेष्ठ नहीं है। निर्मलशील की परिपालना के लिए बारबार शत्रुओं के घरों में भिक्षा के लिए भ्रमण करना अच्छा है किंतु विशाल शील को मलिन करनेवाला चक्रवर्ती जीवन भी अच्छा नहीं है। परंतु बड़े पर्वत के ऊँचे शिखर से कहीं विषम खीण के अंदर अति कठोर पत्थर में गिरकर अपने शरीर के सौ टुकड़े करना श्रेष्ठ है और अति कुपित हुए बड़ी फुकार वाला भयंकर और खून के समान लाल नेत्र वाला, जिसके सामने देख भी नहीं सकते, ऐसे सर्प के तीक्ष्ण दाढ़ों वाले मुख में हाथ डालना उत्तम है, तथा आकाश तक पहुँची हुई हो, देखना भी असंभव हो, अनेक ज्वालाओं के समूह से जलती प्रलय कारण प्रचंड अग्निकुंड में अपने को स्वाहा करना अच्छा है और मदोन्मत्त हाथियों के गंड स्थल चीरने में एक अभिमानी दुष्ट सिंह के अति तीक्ष्ण मजबूत दाढ़ों से कठिन मुख में प्रवेश करना अच्छा है परंतु हे वत्स! तुझे संसार के सुख के लिए अति दीर्घकाल तक परिपालन किये हुए निर्मलशील रत्न का त्याग करना अच्छा नहीं है। शील अलंकार से शोभित निर्धन भी अवश्यमेव लोकपूज्य बनता है, किंतु धनवान होने पर भी दुःशील स्वजनों में भी पूजनीय नहीं बनता है। निर्मलशील को पालन करने वालों का जीवन चिरकालिक हो परंतु पापासक्त जीवों के चिरकाल जीने से कोई भी फल नहीं है। इसलिए धर्म गुणों की खान समान, हे भाई क्षपक मुनि! आराधना में स्थिर मन वाले तं गरल के समान दराचारी जीवन खत्म कर. मनोहर चंद्र के किरण समान निर्मल-निष्कलंक और संसार की परंपरा के अंकुर को नाश करने वाला, देव दानव के समूह के चित्त में चमत्कार करनेवाला मोक्ष नगर की स्थापना करने में खूटे समान जीवों की पीड़ा के त्याग रूप दुर्गति मार्ग की अवज्ञा कारक, पाप प्रवृत्ति में अनादर करने वाला, और परमपद रूपी ललना के साथ लीला करनेवाला निर्मलशील का परिपालन कर। इस तरह पंद्रहवाँ शील परिपालन द्वार कहा। अब इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ अंतर द्वार कुछ अल्प मात्र कहता हूँ ।।८९६३।। वह इस प्रकारःइन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार : जीव अर्थात् 'इन्द्र' और 'आ' लगाने से इन्द्रियाँ शब्द बना है। और जीव ज्ञानादि गुण रूपी लक्ष्मी का क्रीड़ा करने का महल सदृश है और इन्द्रियाँ निश्चय उस महल के झरोखे आदि अनेक द्वार समान है, परंतु उस इन्द्रियों में अपने-अपने शब्दादि विषयों की विरति रूप दरवाजों के अभाव में प्रवेश करते अनेक कुविकल्पों की कल्पना रूप पापरज के समूह से चंद्र किरण समान उज्ज्वल भी ज्ञानादि गुण लक्ष्मी अत्यंत मलिन होती है। अथवा इन्द्रिय रूपी द्वार बंद नहीं होने से जीव रूपी प्रासाद में प्रवेश करके दुष्ट विषय रूपी प्रचंड लूटेरे ज्ञानादि लक्ष्मी को लूट रहे हैं। इस प्रकार सम्यक् समझकर, हे धीर! उस ज्ञानादि के संरक्षण के लिए प्रयत्न करनेवाले तुम सर्व इन्द्रिय रूपी द्वार को अच्छी तरह बंद कर रखो। स्वशास्त्र-परशास्त्र के ज्ञान के अभ्यास से महान पंडित - 373 For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार पुरुष भी उसके वेग को नहीं रोकने से बलवान इन्द्रिय के समूह से पराभूत होते हैं। व्रतों को धारण करो अथवा तपस्या करो, गुरु का शरण स्वीकार करो, अथवा सूत्र अर्थ का स्मरण करो, किंतु इन्द्रिय दमन से रहित जीव को वह सब छिलके कूटने के समान निष्फल हैं। मद से प्रचंड गंड स्थलवाले हाथियों की घटा को नाश करने में एक समर्थ जीव यदि इन्द्रिय का विजेता नहीं है तो वह प्रथम नंबर का कायर ही है। वहाँ तक ही बड़प्पन है, वहाँ तक ही कीर्ति तीन भवन के भूषण रूप है और पुरुष की प्रतिष्ठा भी वहाँ तक है कि जब तक इन्द्रिय उसके वश में है। और यदि वही पुरुष उन इन्द्रियों के वश में है तो कुल में, यश में, धर्म में, संघ में, माता-पितादि गुरुजनों में तथा मित्र वर्ग में वह अवश्य काजल लीपता है अर्थात् कलंकित करता है। दीनता, अनादर और सर्व लोगों का शंका पात्र बनता है। अरे! वह क्या-क्या अनिष्ट है कि इन्द्रियों के वश पड़े को प्राप्त न हो? अर्थात् विषयासक्त सर्व अनिष्टों को प्राप्त करता है। मस्तक से पर्वत को भी तोड सकते हैं. ज्वालाओं से यक्त विकराल अग्नि भी पी सकते हैं और तलवार की धार पर भी चल सकते हैं, परंतु इन्द्रिय रूपी घोड़ों को वश करना दुष्कर है। अरे! हमेशा विषय रूपी जंगल को प्राप्त करते-अर्थात् विषय में रमण करते निरंकुश के समान दुर्वांत इन्द्रिय रूपी ऐरावत हाथी जीव के शील रूप वन को तोड़ते-फोड़ते परिभ्रमण करता है। जो तत्त्व का उपदेश देते हैं, तपस्या भी करते हैं और संजम गुणों का भी पालन करते हैं वे भी जैसे नपुंसक युद्ध में हारते हैं वैसे इन्द्रियों को जीतने में थक जाते हैं। शक्र जो हजार आँखों वाला हुआ, कृष्ण जो गोपियों के हास्य पात्र बनें, ब्रह्मा भी जो चतुर्मुख बनें, काम भी जलकर भस्म हुआ, और महादेव भी जो अर्धस्त्री शरीर धारी बनें वे सारे दुर्जय इन्द्रिय रूपी महाराजा का पराक्रम है। जीव पाँच के वश होने से समग्र जीव लोक के वश होता है और पाँचों को जय करने से समस्त तीन लोक को जीतता है। यदि इस जन्म में इन्द्रिय दमन नहीं किया तो अन्य धर्मों से क्या है? और यदि सम्यग रूप से उन इन्द्रिय का दमन किया तो फिर शेष अन्य धर्मों से क्या? ।।८९८१।। अहो! इन्द्रिय का समूह अति बलवान है, क्योंकि दमन करने का अर्थि और शास्त्र प्रसिद्ध दमन करने के उपायों को जानते हुए भी पुरुष उसे नहीं कर सकते हैं। मैं मानता हूँ कि श्री जिनेश्वर और जिनमत में रहनेवाले आराधकों को छोड़कर अन्य किसी ने तीन लोक में समर्थ बलवान इन्द्रियों को जीती नहीं है, जीतता नहीं है और जीतेगा भी नहीं। इस जगत में जो इन्द्रियों का विजयी है, वही शूरवीर है, वही पंडित है, वही अवश्य गुणी है और वही कुल दीपक है। जगत में जिसका प्रयोजन-ध्येय इन्द्रिय दमन का है, उसके गुण, गुण हैं और यश यशरूप हैं, उसको सुख हथेली में रहा है, उसे समाधि है और वही मतिमान है। देवों की श्रेणी से पूजित चरणकमल वाला इन्द जो स्वर्ग में आनंद करता है, फणा के मणि की कांति से अंधकार को नाश करने वाला फणीन्द्र नागराज भी जो पाताल में आनंद करता है अथवा शत्रु समूह को नाश करने चक्रवर्ती के हाथ में चक्र झूलता है, वह सब जलती हुई इन्द्रियों को अंश मात्र दमन करने की लीला का फल है। उसको नमस्कार करो, उसकी प्रशंसा करो, उसकी सेवा करो और उसके सहायक बनों या शरण स्वीकार करो कि जिसने दुर्दम इन्द्रिय रूपी गजेन्द्र को अपने आधीन किया है। वही सद्गुरु और सुदेव है, इसलिए उसे ही नमस्कार करो। उसने जगत को शोभायमान किया है कि विषय रूपी पवन से प्रेरित होते हुए भी जिनकी इन्द्रिय रूपी अग्नि नहीं जलती है। उसने जन्म को पुण्य से प्राप्त किया है और जीवन भी उसका सफल है कि जिसने इन दुष्ट इन्द्रियों के बलवान विकार को रोका है। इसलिए हे देवानुप्रिय! तुझे हितकर कहता हूँ कि तूं भी इस प्रकार का विशिष्ट वर्तन कर कि जिसे इन्द्रिय आत्मरागी-निर्विकारी बनें। इन्द्रिय जन्य सुख वह सुख की भ्रान्ति है, परंतु सुख नहीं है, वह सुख भ्रान्ति भी अवश्य कर्मों की वृद्धि के लिए है। और उन कर्मों की वृद्धि भी एक दुःख का ही कारण है। इन्द्रियों के विषयों 374 For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार श्रोत्रेन्द्रिय की आसक्ति का दृष्टांत श्री संवेगरंगशाला में आसक्त होने से उत्तम शील और गुण रूपी दो पंख के बिना का जीव हो जाता है और वह कटे पंख वाले पक्षी के समान संसार रूपी भयंकर गुफा में गिरता है। जैसे मधु लगी तलवार धार को चाटते पुरुष सुख मानता है, वैसे भयंकर भी इन्द्रियों के विषय सुख का अनुभव करते जीव सुख मानता है। अच्छी तरह खोज करने पर भी जैसे केले के पेड़ में कहीं सार रूप काष्ठ नहीं मिलता है, वैसे इन्द्रिय विषयों में अच्छी तरह खोज करने पर भी सुख नहीं मिलता है। जैसे तेज गरमी के ताप से घबराकर शीघ्र भागकर पुरुष तुच्छ वृक्ष के नीचे अल्प छाया को सुख मानता है, वैसे ही इन्द्रिय जन्य सुख भी जानना । अरे! चिरकाल तक पोषण करने पर भी इन्द्रिय समूह किस तरह आत्मीय हो सकती है? क्योंकि विषयों में आसक्त होते ही वे शत्रु से भी अधिक दुष्ट बन जाती हैं। मोह से मूढ़ बना हुआ जो जीव इन्द्रियों के वश होता है उसकी आत्मा ही उसे अति दुःख देने वाली शत्रु है। श्रोत्रेन्द्रिय से भद्रा, चक्षु के राग से समरधीर राजा, घ्राणेन्द्रिय से राजपुत्र, रसना से सोदास ने पराभव को प्राप्त किया तथा स्पर्शनेन्द्रिय से शतवार नगरवासी पुरुष का नाश हुआ। इस तरह वे एक-एक इन्द्रिय से भी नाश हुए हैं तो जो पाँचों में आसक्त है उसका क्या कहना ? ।। ९००० ।। इन पाँचों का भावार्थ संक्षेप से क्रमशः कहता हूँ । उसमें श्रोत्रेन्द्रिय संबंधी यह दृष्टांत जानना । श्रोत्रेन्द्रिय की आसक्ति का दृष्टांत वसंतपुर नगर में अत्यंत सुंदर स्वरवाला और अत्यंत कुरूपी, अति प्रसिद्ध पुष्पशाल नाम का संगीतकार था। उसी नगर में एक सार्थवाह रहता था। वह परदेश गया था और भद्रा नाम की उसकी पत्नी घर व्यवहार की सार संभाल लेती थी, उसने एकदा किसी भी कारण से अपनी दासियों को बाजार में भेजा और वे बहुत लोगों के समक्ष किन्नर समान स्वर से गाते पुष्पशाला के गीत की ध्वनि सुनकर दीवार में चित्र हो वैसे स्थिर खड़ी रह गयीं। फिर लम्बे काल तक खड़ी रहकर अपने घर आयी अतः क्रोधित होकर भद्रा ने कठोर वचन से उन्हें उपालंभ दिया। तब उन्होंने कहा कि -स्वामिनी ! आप रोष मत करो। सुनो ! वहाँ हमने ऐसा गीत सुना कि जो पशु का भी मन हरण करता है तो अन्य का क्या कहना ? भद्रा ने कहा कि - किस तरह? दासियों ने सर्व निवेदन किया। तब भद्रा ने विचार किया कि - उस महाभाग का दर्शन किस तरह करूँ? फिर एक दिन देवमंदिर की यात्रा प्रारंभ हुई, इससे सभी लोग जाते हैं और दर्शन करके फिर वापस आते हैं। दासियों से युक्त भद्रा भी सूर्य उदय होते वहाँ गयी, तब गाकर अति थका हुआ उस देवमंदिर के नजदीक में सोये हुए पुष्पशाल को दासियों ने देखा और भद्रा से कहा कि यह वह पुष्पशाल है। फिर चपटी नाकवाला, बीभत्स होठ वाला, बड़े दांत वाला और छोटी छातीवाला उसे देखा, 'हूँ' ऐसे रूप वाले के गीत को भी देख लिया, इस तरह बोलती भद्रा ने अत्यंत उल्टे मुख से तिरस्कारपूर्वक थूका और उठे हुए पुष्पशाल को दूसरे नीच लोगों ने भद्रा द्वारा कही गयी सब बातें कही। इसे सुनकर क्रोधाग्नि से जलते सर्व अंग वाला वह पुष्पशाल हा धिक्! निर्भागिणी उस वणिक् की पत्नी भी क्या मुझे देखकर हंसती है ? इस तरह अतुल रोष के आधीन अपने सर्व कार्य को भूल गया और उसका अपकार करने की इच्छा से भद्रा के घर पहुँचा, फिर सुंदर स्वर से अत्यंत आदरपूर्वक गये पति वाली स्त्री का वृत्तांत इस तरह गाने लगा जैसे कि - सार्थवाह बार- बार तेरे वृत्तांत को पूछता है, हमेशा पत्र भेजता है, तेरा नाम सुनकर अत्यंत प्रसन्न होता है, तेरे दर्शन के लिए उत्सुक हुआ वह आ रहा है और घर में प्रवेश करता है इत्यादि उसने उसके सामने इस तरह गाया कि जिससे उसने सर्व सत्य माना और अपना पति आ रहा है, ऐसा समझकर एकदम खड़ी होकर होश भूल गई, अतः खयाल नहीं रहने से आकाश तल से स्वयं नीचे गिर पड़ी। अति ऊँचे स्थान से गिर जाने से मार लगने से जीव निकल गया। श्री जिनेश्वर के 375 . For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - इन्द्रिय दमन नामक सोलहवां द्वार-चक्षु इन्द्रिय का दृष्टांत स्नात्र महोत्सव के समय में जैसे इन्द्र काया के पाँच रूप करता है वैसे उसने पंचत्व प्राप्त किया अर्थात् मर गई । कुछ समय के बाद उसका पति आया और पत्नी का सारा वृत्तांत सुनकर पुष्पशाल की अत्यंत शत्रुता को जानकर उसे बुलाया और अति उत्तम भोजन द्वारा गले तक खिलाकर कहा कि हे भद्र! गीत गाते महल पर चढ़। इससे अत्यंत दृढ़ गीत के अहंकार से सर्व शक्तिपूर्वक गाता हुआ वह महल के ऊपर चढ़ा । फिर गाने के परिश्रम से बढ़ते वेग वाले उच्च श्वास से मस्तक की नस फट जाने से बिचारा वह मर गया। इस तरह श्रोत्रेन्द्रिय का महादोष कहा । । ९०२४ ।। अब चक्षु इन्द्रिय के दोष में दृष्टांत देते हैं। वह इस प्रकार : चक्षु इन्द्रिय का दृष्टांत पद्म खंड नगर में समरधीर नामक राजा राज्य लक्ष्मी को भोग रहा था। समस्त नीति का निधान वह राजा परस्त्री, सदा माता समान, परधन तृण समान और परकार्य को अपने कार्य के सदृश गिनता था । शरण आये कारक्षण, दुःखी प्राणियों का उद्धार आदि धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करते अपने जीवन का भी मूल्य नहीं समझा था । एक समय सुखासन में बैठे उसे द्वारपाल ने धीरे से आकर आदरपूर्वक नमस्कार करते विनती की कि - हे देव ! आपके पाद पंकज के दर्शनार्थ शिव नामक सार्थपति बाहर खड़ा है। 'वह यहाँ आये या जाये ?' राजा ने कहा कि आने दो। फिर नमस्कार करते हुए प्रवेश करके उचित आसन पर बैठा और इस प्रकार से कहने लगा कि - हे देव ! मेरी विशाल नेत्र वाली रूप से रंभा को भी लज्जायुक्त करती, सुंदर यौवन प्राप्त करने वाली, पूनम के चंद्र समान मुख वाली, उन्मादिनी नाम की पुत्री है। वह स्त्रियों में रत्नभूत है, और राजा होने से आप रत्नों के नाथ हो, इसलिए हे देव ! यदि योग्य लगे तो उसे स्वीकार करो। हे देव! आपको दिखाये बिना कन्या रत्न को यदि दूसरे को दूँ तो मेरी स्वामी भक्ति किस तरह गिनी जाये? अतः आपको निवेदन करता हूँ, यद्यपि माता, पिता तो अत्यंत निर्गुणी भी अपने संतानों की प्रशंसा करते हैं, वह सत्य है, परंतु उसकी सुंदरता कोई अलग ही है। जन्म समय में भी इसने बिजली के प्रकाश के समान अपने शरीर से सूतिका घर को सारा प्रकाशित किया था और ग्रह भी इसके दर्शन करने के लिए हैं। वैसे स्पष्ट ऊँचे स्थान पर थे। इस कारण से हे देव! आप से अन्य उसका पति न हो। इस तरह जानकर अत्यंत विस्मित मन वाले राजा ने उसे देखने के लिए विश्वासी मनुष्यों को भेजा । उनको साथ लेकर सार्थवाह घर आया, घर में उसे देखा और आश्चर्यभूत उसके रूप से आकर्षित हुए। फिर मदोन्मत मूर्च्छित अथवा हृदय से शून्य बने हों, इस तरह एक क्षण व्यतीत करके एकांत में बैठकर वे विचार करने लगे कि - अप्सरा को जीतने वाला कुछ आश्चर्यकारी इसका उत्तम रूप है, ऐसी अंग की शोभा है कि जिससे हम बड़ी उम्र वाले भी लोग इस तरह मुरझा गए हैं। हमारे जैसे बड़ी उम्र वाले भी यदि इसके दर्शन मात्र से भी ऐसी अवस्था हो गई है तो नवयौवन से मनोहर अंकुश बिना का सकल संपत्ति का स्वामी और विषय आसक्त राजा इसके वश से पराधीन कैसे नहीं बनेगा? और राजा परवश होते राज्य अति तितर-बितर हो जायगा और राज्य की अव्यवस्था होने से राजा का राजत्व खत्म हो जायगा । इस प्रकार हम लोग जानते हुए भी अपने हाथ से, राजा से इस कन्या का विवाह कर समस्त भावी में होनेवाले दोषों का कारण हम लोग क्यों बनें? इसलिए भी दोष बताकर राजा को इससे बचा लें। सबों ने यह बात स्वीकार की और राजा के पास गये। फिर पृथ्वी तल को स्पर्श करते मस्तक द्वारा सर्व आदरपूर्वक राजा को नमस्कार करके, मस्तक को नमाकर, हाथ जोड़कर वे कहने लगे कि - हे देव! रूपादि सर्व गुणों से कन्या सुशोभित है, केवल वह पति का वध करने वाली एक बड़ी दुष्ट लक्षणवाली है। इसलिए राजा ने उसे छोड़ दिया। फिर उसके पिता ने उस राजा सेनापति को उस कन्या को दी और उससे विवाह किया। फिर उसके रूप से, यौवन से और सौभाग्य से आकर्षित हृदयवाला सेनापति 376 For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाअ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार-गंध में गंध प्रिय का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला अपनी पत्नी में ही अत्यंत वश हुआ ।।९०४९।। कुछ समय व्यतीत होते एक दिन राजा सुभट के समूह से घिरा हुआ हाथी पर बैठकर, सुंदर चमर के समूह से ढूलाते और ऊपर श्वेत छत्र वाले उस सेनापति के साथ घूमने चला, उस समय उस सेनापति की पत्नी ने विचार किया कि- 'मैं अपलक्षणी हूँ।' ऐसा मानकर राजा ने मुझे क्यों छोड़ दिया? अतः मैं वापिस आते उसका दर्शन करूँ। ऐसा विचारकर निर्मल अति मूल्यवान रेशमी वस्त्रों को धारणकर राजा के दर्शन के लिए मकान पर चढ़कर खड़ी रही। राजा भी बाहर श्रेष्ठ घोड़े, हाथी और रथ से क्रीड़ा करके अपने महल में जाने की इच्छा से वापिस आया। और आते हुए राजा की विकासी कमल पत्र के समान दीर्घ दृष्टि किसी तरह खड़ी हुई उसके ऊपर गिरी। इससे उसमें एक मन वाला बना राजा क्या यह रति है? क्या रम्भा है? अथवा क्या पाताल कन्या है? या क्या तेजस्वी लक्ष्मी है? इस प्रकार चिंतन करते एक क्षण खड़ा रहकर जैसे दुष्ट अश्व की लगाम से काबू करता है वैसे चक्षु को लज्जा रूपी लगाम से अच्छी तरह घुमाकर महा मुश्किल से अपने महल में पहुँचा। और सभी मंत्री सामंत तथा सुभट वर्ग को अपने-अपने स्थान पर भेजकर, अन्य सर्व प्रवृत्ति छोड़कर मुसीबत से शय्या पर बैठा। फिर उसके अंग और उपांग की सुंदरता देखने से मन से व्याकुलित बनें उस राजा का अंग काम से अतीव पीड़ित होने लगा। इससे कमल समान नेत्रवाली उसे ही सर्वत्र देखते तन्मय चित्त वाला राजा चित्र के समान स्थिर हो गया। और उसी समय पर सेनापति आया, तब राजा ने पूछा कि-उस समय तेरे घर ऊपर कौन देवी थी? उसने कहा कि-देव! यह वही थी कि जिस सार्थवाह की कन्या को आप ने छोड़ दी थी, अब वह मेरी पत्नी होने से पराई है। अरे! निर्दोष भी उस स्त्री को दोषित बताने वाले पापी वे अधिकारी मेरे पुरुषों ने मुझे क्यों ठगा? इस प्रकार अति चिंतातुर राजा लम्बा श्वास लेकर दुःसह कामाग्नि से कठोर संताप हुआ। राजा के दुःख का रहस्य जानकर सेनापति ने समय देखकर कहा कि-हे स्वामी! कृपा करो, उस मेरी पत्नी को आप स्वीकार करो। क्योंकि सेवकों का प्राण भी अवश्य स्वामी के आधीन होते हैं। तो फिर बाह्य पदार्थ धन, परिजन, मकान आदि के विस्तार को क्या कहना? यह सुनकर राजा हृदय में विचार करने लगा कि-एक ओर कामाग्नि अत्यंत दुःसह है दूसरी ओर कुल का कलंक भी अति महान है। यावच्चन्द्र काले अपयश की स्पर्शनारूप और नीति के अत्यंत घात रूप परस्त्री सेवन मेरे लिए मरणांत में भी योग्य नहीं है। ऐसा निश्चय करके राजा ने सेनापति से कहा कि-हे भद्र! ऐसा अकार्य पुनः कभी भी मुझे मत कहना। नरक रूप नगर का एक द्वार और निर्मल गुण मंदिर में मसि का काला कलंक परदारा का भोग नीति का पालन करने वाले से कैसे हो सकता है? तब सेनापति ने कहा कि-हे देव! यदि परदारा होने से नहीं स्वीकार करते, तो आप के महल में यह नाचने वाली वेश्या रूप में दूँ। उसके बाद वेश्या मानकर भोग करने से आपको परस्त्री का दोष भी नहीं लगेगा। इसलिए इस विषय में मुझे आज्ञा दीजिए। राजा ने कहा कि-चाहे कुछ भी हो मैं मरणांत में भी ऐसा अकार्य नहीं करूँगा। अतः हे सेनापति! अधिक बोलना बंध करो। फिर नमस्कार करके सेनापति अपने घर गया। राजा भी उसे देखने के अनुराग रूप अग्नि से शरीर अत्यंत जलते हुए राजकार्यों को छोड़कर हृदय में इस प्रकार कोई तीव्र आघात लगा कि जिससे आर्त्तध्यान के वश मरकर तिर्यंच में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार चक्षुराग के दोष को कहा। अब घ्राण राग के दोष संक्षेप से कहते हैं।।९०७६।। गंध में गंध प्रिय का प्रबंध अति गंध प्रिय एक राज पुत्र था। वह जिस-जिस सुगंधी पदार्थ को देखता था, उन सब को सूंघता था। ____377 For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार - इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार-सोदास एवं ब्राह्मण की कथा किसी समय बहुत मित्रों के साथ वह नाव में बैठकर नदी में क्रीड़ा करता था । उसे इस तरह क्रीड़ा करते जानकर अपने पुत्र 'को राज्य देने की इच्छा से उसकी सौतेली माता ने उसकी गंध प्रियता जानकर उसे मारने के लिए तीव्र महा जहर को अति कुशलता से पेटी में रखकर और उस पेटी को नदी में बहती छोड़ दी, फिर नदी में क्रीड़ा करते उसने पेटी को आते देख लिया और उसे बाहर निकालकर जब खोली तब उसमें रखा हुआ एक डिब्बा देखा, उसे भी खोला उसमें एक गठरी थी और उसे भी छोड़कर उस जहर को सूंघते ही वह गंध प्रिय राजपुत्र उसी समय मर गया। इस प्रकार दुःख को देने वाला घ्राणेन्द्रिय का दृष्टांत कहा। अब रसनेन्द्रिय के दोष का उदाहरण अल्पमात्र कहते हैं ।। ९०८३ ।। वह इस प्रकार : रसनेन्द्रिय में सोदास की कथा भूमि प्रतिष्ठित नगर में अत्यंत मांस प्रिय सोदास नाम का राजा था। उसने एक समय सारे नगर में अमर अर्थात् अहिंसा की उद्घोषणा करवाई, परंतु राजा के लिए यत्नपूर्वक मांस को बनाते रसोइये की किसी कारण अनुपस्थिति देखकर बिलाव ने उस माँस का हरण कर लिया, इससे भयभीत हुए रसोइये ने कसाई आदि के घर में दूसरा मांस नहीं मिलने से किसी एक अज्ञात बालक को एकांत में मारकर उसके माँस को बहुत अच्छी तरह संस्कारित-स्वादिष्ट बनाकर भोजन के समय राजा को दिया। उसे खाकर प्रसन्न हुए राजा ने कहा कि - हे रसोइया ! कहो! यह माँस कहाँ से मिला है? उस रसोइये ने जैसा बना था वैसे कह दिया। और उसे सुनकर रसासक्ति से पीड़ित राजा ने मनुष्य के माँस की प्राप्ति के लिए रसोइये को सहायक दिये। इससे राजपुरुषों से घिरा हुआ वह रसोइया हमेशा मनुष्य को मारकर उसका माँस राजा के लिए बनाता था। इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत होते न्यायधीश ने उस राजा को राक्षस समझकर रात्री में बहुत मदिरा पिलाकर जंगल में फेंकवा दिया। वहाँ वह हाथ में गदा पकड़कर उस मार्ग से जाते मनुष्य को मारकर खाता था और यम के समान निःशंक होकर घूमता फिरता था। किसी समय रात में उस प्रदेश में से एक समुदाय वहाँ से निकला, परंतु सोये हुए समूह को नहीं जान सका, केवल किसी कारण से अपने साथियों से अलग पड़े मुनियों को आवश्यक क्रिया करते देखा, इससे वह पापी उनको मारने के लिए पास में खड़ा रहा, परंतु तप के प्रबल तेज से पराभव होते साधुओं के पास खड़ा रहना अशक्य बना और वह धर्म श्रवणकर उसका चिंतन करते प्रतिबोधित हुआ और वह साधु हो गया। यद्यपि उसने अंत में प्रतिबोध प्राप्त किया, परंतु उसने पहले रसना के दोष से राज्य भ्रष्टता आदि प्राप्त किया था। अब स्पर्शनेन्द्रिय के दोष में भी उदाहरण देते हैं। वह इस प्रकार : स्पर्शेन्द्रिय में ब्राह्मण की कथा शत द्वार नगर में सोमदेव नाम का ब्राह्मण पुत्र रहता था। उसने यौवन वय प्राप्त करते रति सुंदरी नामक वेश्या के रूप और स्पर्श में आसक्त होकर उसके साथ बहुत काल व्यतीत किया। पूर्व पुरुषों से मिला हुआ जो कुछ भी धन अपने घर में था उस सर्व का नाश किया, फिर धन के अभाव में वेश्या की माता ने घर से निकाल दिया, इससे चिंतातुर होकर वह धन प्राप्ति के लिए अनेक उपायों का विचार करने लगा । । ९१०० । । परंतु ऐसा कोई उपाय नहीं मिलने से धनवान के घर में जीव की होड़-बाजी लगाकर रात्री में चोरी करने लगा और इस तरह मिले धन द्वारा दोगुंदक देव के समान उस वेश्या के साथ में यथेच्छ आनंद करने लगा। धन लोभी वेश्या की माता भी प्रसन्न होने लगी । 378 For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ द्वार-तप नामक सतरतयाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला परंतु उसकी अति गुप्त चोर क्रिया के कारण अत्यंत पीड़ित नगर के लोगों ने राजा को चोर के उपद्रव की बात कही। इससे राजा ने कोतवाल को कठोर शब्द से तिरस्कारपूर्वक कहा कि यदि चोर को नहीं पकड़ोगे, तो तुमको ही दंड दिया जायगा। इससे भयभीत होते कोतवाल तीन रास्ते पर, चार रास्ते पर, चौराहा, प्याऊ, सभा आदि विविध स्थानों में चोर की खोज करने लगा। परंतु कहीं पर भी चोर की बात नहीं मिलने से वह वेश्याओं के घर देखने लगा और तलाश करते हुए वहाँ चंदन रस से सुगंधित शरीर वाले अति उज्ज्वल रेशमी वस्त्रों को धारण किये हुए और महा धनाढ्य के पुत्र के समान उस वेश्या के साथ सुख भोगते उस ब्राह्मण को देखा। इससे उसने विचार किया कि-प्रतिदिन आजीविका के अन्य घरों में भीख माँगते इसे इस प्रकार का श्रेष्ठ भोग कहाँ से हो सकता है? इसलिए अवश्यमेव यही दुष्ट चोर होना चाहिए। ऐसा जानकर कृत्रिम क्रोध से तीन रेखा की तरंगों से शोभते ललाट वाले कोतवाल ने कहा कि-विश्वासु समग्र नगर को लूटकर, यहाँ रहकर, हे यथेच्छ घुमक्कड़ अधम! तूं अब कहाँ जायगा? अरे! क्या हम तुझे जानते नहीं हैं? उन्होंने जब ऐसा कहा, तब अपने पाप कर्म के दोष से, भय से व्याकुल हुआ और 'मुझे इन्होंने जान लिया है' ऐसा मानकर उसे भागते हए पकड़ा और राजा को सौंप दिया। फिर रतिसुंदरी के घर को अच्छी तरह तलाश कर देखा तो वहाँ विविध प्रकार के चोरी का माल देखा और लोगों ने उस माल को पहचाना। इससे कुपित हुए राजा ने वेश्या को अपने नगर में से निकाल दिया और ब्राह्मण पुत्र को कुंभीपाक में मारने की आज्ञा दी। ऐसे दोष के समूहवाली स्पर्शनेन्द्रिय के वश हुए इस जन्म-परजन्म में वक्र और कठोर दुःख को प्राप्त करता है। इसलिए हे भद्र! विषयरूपी उन्मार्ग से जाते इन्द्रिय रूप अश्वों को रोककर और वैराग्य रूपी लगाम से खींचकर सन्मार्ग में जोड़ दो। स्व-स्व विषय की ओर दौड़ते इन इन्द्रिय रूपी मृग के समूह को सम्यग् ज्ञान और भावना रूपी जाल से बांध कर रखो। तथा हे धीर! दुदाँत इन्द्रिय रूपी घोड़ों का बुद्धि बल से इस तरह दमन कर कि जिससे अंतरंग शत्रुओं को उखाड़कर आराधना रूपी पताका को स्वीकार कर। इस तरह इन्द्रिय दमन नामक अंतर द्वार अल्पमात्र कहा। अब मैं तप नाम का सत्रहवाँ अंतर द्वार को कहता हूँ ।।९११८।। वह इस प्रकार है:तप नामक सतरहवा द्वार: हे क्षपक मुनि! तूं वीर्य को छुपाये बिना अभ्यंतर और बाह्य तप को कर। क्योंकि वीर्य को छुपाने वाला, माया, कषाय और वीर्यान्तराय का बंध करता है। सुखशीलता, प्रमाद और देहासक्त भाव से शक्ति के अनुसार तप नहीं करने वाला माया मोहनीय कर्म का बंध करता है। मूढ़मति जीव सुखशीलता से तीव्र अशातावेदनीय कर्म का बंध करता है। और प्रमाद के कारण चारित्र मोहनीय कर्म का बंध करता है। और देह के राग से परिग्रह दोष उत्पन्न होता है। इसलिए सुखशीलता आदि दोषों को त्यागकर नित्यमेव तप में उद्यम कर। यथाशक्ति तप नहीं ले साधओं को यह दोष लगता है और तप को करने वाले साध को इस लोक और परलोक में गणों की प्राप्ति होती है। संसार में कल्याण, ऋद्धि, सुख आदि जो कोई देव मनुष्यों को सुख और मोक्ष का जो श्रेष्ठतम सुख मिलता है वह सब तप के द्वारा मिलता है। तथा पाप रूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र का दंड है, रोग रूपी महान् कुमुद वन को नाश करने में सूर्य है, काम रूपी हाथी को नाश करने में भयंकर सिंह है। भव समुद्र को पार उतरने के लिए नौका है। कुगति के द्वार का ढक्कन, मनवांछित अर्थ समूह को देने वाला और जगत में यश का विस्तार करने वाला, श्रेष्ठ एक तप को ही कहा है। इस तप का तूं महान् गुण जानकर, मन की इच्छाओं को रोककर, उत्साहपूर्वक, दिन प्रतिदिन तप द्वारा आत्मा को वासित कर। केवल शरीर को पीड़ा न हो और मांस, रुधिर की पुष्टि भी न हो तथा जिस तरह धर्म ध्यान की वृद्धि हो, उस तरह हे क्षपक मुनि! तुम तपस्या करो। 379 करनेव For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार- ब्रह्मदत्त का प्रबंध यह तप नाम का अंतर द्वार कहा है। अब संक्षेप में अठारहवाँ निःशल्यता नामक अंतरद्वार को भी कहता हूँ । । ९१२९ । । निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार : क्षपक मुनि! सर्व गुण शल्य रहित आत्मा में ही प्रकट होते हैं। गुण के विरोधी शल्य के तीन भेद हैं(१) नियाण शल्य, (२) माया शल्य, और (३) मिथ्या दर्शन शल्य | (१) नियाण शल्य :- इसमें नियाण - निदान, राग से, द्वेष से और मोह से तीन प्रकार का है। राग से नियाण, रूप सौभाग्य और भोग सुख की प्रार्थना रूप है । द्वेष से नियाण तो प्रत्येक जन्म में अवश्यमेव दूसरे को मारने रूप अथवा अनिष्ट करने का जानना और धर्म के लिए हीन कुल आदि की प्रार्थना करना वह नियाणा मोह से होता है अथवा प्रशस्त, अप्रशस्त और भोग के लिए नियाणा करना वह मिथ्या दर्शन है। इन तीनों प्रकार के नियाणे को तुझे छोड़ने योग्य है। इसमें संयम के लिए पराक्रम, सत्त्व, बल, वीर्य, संघयण, बुद्धि, श्रावकत्व, स्वजन, कुल आदि के लिए जो नियाणा होता है, वह प्रशस्त माना गया है। एवं नंदिषेण के समान, सौभाग्य, जाति, कुल, रूप आदि का और आचार्य, गणधर अथवा जैनत्व की प्रार्थना करना, वह अभिमान से होने के कारण अप्रशस्त निदान माना गया है। क्रोध के कारण मरकर यदि दूसरे को वध करने की प्रार्थना करे, द्वारिका के विनाश करने की बुद्धि वाला द्वैपायन के समान उसे अप्रशस्त जानना । देव या मनुष्य के भोग, राजा, ऐश्वर्यशाली, सेठ या सार्थवाह, बलदेव तथा चक्रवर्ती पद माँगनेवाले को भोगकृत नियाणा होता है। पुरुषत्व आदि निदान प्रशस्त होने पर भी यहाँ निषेध किया है, वह अनासक्त मुनियों के कारण जानना, अन्य के लिए नहीं है। दुःखक्षय, कर्मक्षय, समाधि मरण और बोधि लाभ इत्यादि प्रार्थना भी सरागी अवश्य कर सकता है। संयम के शिखर में आरूढ़ होने वाला, दुष्कर तप को करनेवाला और तीन गुप्ति से गुप्त आत्मा भी परीषह से पराभव प्राप्त कर और अनुपम शिव सुख की अवगणना करके जो अति तुच्छ विषय सुख के लिए इस तरह नियाणा करता है, वह काँच मणि के लिए वैडूर्य मणि का नाश करता है। नियाणा (निदान) करने के कारण आरंभ में मधुर और अंत में विरस सुख को भोगकर ब्रह्मदत्त के समान जीव बहुत दुःखमय नरक रूपी खड्डे में गिरता है ।।९१४२ ।। उसकी कथा इस प्रकार है : ब्रह्मदत्त का प्रबंध साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में चंद्रावतंसक नाम का राजा राज्य करता था । उसे मुनिचंद्र नाम का पुत्र था। उसने सागरचंद्र आचार्य के पास दीक्षा स्वीकार की और सूत्र अर्थ का अभ्यास करते दुष्कर तप कर्म करने लगा। दूर देश में जाने के लिए गुरु के साथ चला और एक गाँव में भिक्षार्थ गये वहाँ किसी कारण से अलग हुआ, फिर अकेले चलने लगा और अटवी में मार्ग भूल गया, वहाँ भूख, प्यास और थकावट से अत्यंत पीड़ित हुआ, उसकी ग्वालों के चार बालकों ने प्रयत्नपूर्वक सेवा की, इससे स्वस्थ हुए शरीर वाले उन्होंने बच्चों को धर्म समझाया। उन सबने प्रतिबोध प्राप्त किया और उस साधु के शिष्य हुए। वे चारों साधु धर्म का पालन करते थे, परंतु उसमें दो दुर्गंच्छा करके मरकर तप के प्रभाव से देवलोक में देवता हुए। समय पूर्ण होते वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके दशपुर नगर में संडिल नामक ब्राह्मण और उसकी यतिमति नामक दासी की कुक्षी से दोनों युगल पुत्र रूप में जन्में और क्रमशः बुद्धि-बल, यौवन से सम्यग् अलंकृत हुए। किसी समय खेत के रक्षण के लिए अटवी में गये और वहाँ रात्री में वड़ वृक्ष के नीचे सोये। वहाँ उन दोनों को सर्प ने डंक लगाया। औषध के अभाव में मरकर 380 For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार- ब्रह्मदत्त का प्रबंध श्री संवेगरंगशाला कालिंजय नामक जंगल में दोनों साथ में जन्म लेने वाले मृग हुए। स्नेह कारण साथ ही चरते थे, अशरण रूप उन दोनों को शिकारी ने एक ही बाण के प्रहार से मारकर यम मंदिर पहुँचा दिया। वहाँ से गंगा नदी के किनारे दोनों का युगल हंसरूप में जन्म हुआ। वहाँ भी मच्छीमार ने एक ही बंधन से दोनों को बाँधा और निर्दय मनवाले उसने गरदन मरोड़कर मार दिया। वहाँ से वाराणसीपुरी में बहुत धन धान्य से समृद्धशाली, चंडाल का अग्रेसर भूतदिन्न नामक चंडाल के घर परस्पर दृढ़ स्नेहवाले चित्र और सम्भूति नाम से दोनों पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। एक समय इसी नगर के शंख नामक राजा के नमुचि नामक मंत्री ने महा अपराध किया। क्रोधित हुए राजा ने लोकापवाद से बचने के लिए गुप्त रूप में मारने के लिए चंडालों के अग्रेसर उस भूतदिन को आदेश दिया। उस नमुचि को वध के स्थान पर ले जाकर कहा कि- 'यदि भोयरें में रहकर मेरे पुत्रों को अभ्यास करवाओगे तो तुझे मैं छोड़ देता हूँ।' जीने की इच्छा से उसने वह स्वीकार किया और फिर पुत्रों को पढ़ाने लगा। परंतु मर्यादा छोड़कर उनकी माता चंडालिणी के साथ व्यभिचार सेवन किया। उसे चंडाल के अग्रेसर भूतदिन्न ने 'यह जार है' ऐसा जानकर मार देने का विचार किया । परम हितस्वी के समान चित्र, संभूति ने उसे एकांत में अपने पिता के मारने का अभिप्राय बतलाया। इससे रात्री में नमुचि भागकर हस्तिनापुर नगर में गया और वहाँ सनत्कुमार चक्रवर्ती का मंत्री हुआ। इधर गीत नृत्यादि में कुशल बने उस चंडाल पुत्र चित्र, संभूति ने वाराणसी के लोगों को गीत, नृत्य से अत्यंत परवश कर दिया। अन्य किसी दिन जब नगर में कामदेव का महोत्सव चल रहा था। उस समय चौराहे आदि स्थानों में स्त्रियाँ विविध मंडलीपूर्वक गीत गाने लगीं, और तरुण स्त्रियाँ नृत्य करने लगीं, तब वहाँ अपनी मंडली में रहे वे चित्र, संभूति भी अत्यंत सुंदर गीत गाने लगे। उनके गीत और नृत्य से आकर्षित सारे लोग और उसमें विशेषतया युवतियाँ चित्र, संभूति के गीत सुनकर उसके पीछे दौड़ीं। इससे ईर्ष्या के कारण ब्राह्मण आदि नगर के लोगों ने राजा को विनती की कि - हे देव! निःशंकता से फिरते इन चंडाल पुत्रों ने नगर के सारे लोगों को जाति भ्रष्ट कर दिये हैं, इससे राजा ने उनका नगर प्रवेश बंद करवा दिया। फिर अन्य दिन कौमुदी महोत्सव प्रारंभ हुआ। इन्द्रियों की चपलता से और कुतूहल से उन्होंने सुंदर श्रृंगार करके राजा की आज्ञा की अवहेलनाकर बुरखा ओढकर नगर में प्रवेशकर एक प्रदेश में रहकर हर्षपूर्वक गाने लगे और गीत से आकर्षित हुए लोग उसके चारों तरफ खड़े हो गये। इससे अत्यंत सुंदर स्वर वाले ये कौन हैं? इस तरह जानने के लिए मुख पर से वस्त्र दूर करते यह जानकारी हुई कि - ये तो वे चंडाल पुत्र हैं इससे क्रोधित होकर लोगों ने 'मारो, मारो' इस प्रकार बोलते चारों तरफ से अनेक प्रकार लकड़ी, ईंट, पत्थर आदि से मारने लगे। मार खाते वे महा मुश्किल से नगर के बाहर निकले और अत्यंत संताप युक्त विचार करने लगे कि रूपादि समग्र गुण समूह होते हुए भी हमारे जीवन को धिक्कार है कि जिससे निंद्य जाति के कारण इस तरह हम तिरस्कार के पात्र बने हैं। अतः वैराग्य प्राप्तकर उन्होंने मरने का निश्चयकर स्वजन बंधु आदि को कहे बिना दक्षिण दिशा की ओर चले। मार्ग में जाते उन्होंने एक ऊँचे पर्वत को देखा और मरने के लिए ऊपर चढ़ते उन्होंने एक शिखर के ऊपर घोर तप से सूखी हुई काया वाले परम धर्मध्यान में प्रवृत्त कायोत्सर्ग मुद्रा में रहे एक मुनि को हर्षपूर्वक देखा। उन्होंने भक्ति पूर्वक साधु के पास जाकर वंदन किया और मुनि ने भी योग्यता जानकर ध्यान पूर्ण करके पूछा कि तुम कहाँ से आये हो? उन्होंने भी उस साधु को पूर्व की सारी बातें कह दी और पर्वत से गिरकर मरने का संकल्प भी कहा। तब मुनि ने कहा किमहानुभाव! ऐसा विचार सर्वथा अयोग्य है यदि वास्तविक वैराग्य जागृत हुआ हो, तो साधु धर्म स्वीकार करो। उन्होंने यह स्वीकार किया और अपने ज्ञान के बल उनको योग्य जानकर मुनिश्रीजी ने दीक्षा दी। For Personal & Private Use Only 381 . Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार ब्रह्मदत का प्रबंध कालक्रम से वे गीतार्थ बनें, और दुष्कर तप करने में तत्पर वे विचरते किसी समय हस्तिनापुर पहुँचे। और एक उपवन में रहे फिर एक महीने के तप के पारणे के दिन संभूति मुनि ने भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश किया। वहाँ नमुचि ने उसे देखा और पूर्व परिचय के खयाल में 'यह मेरा दुराचरण लोगों को कहेगा' ऐसा मानकर अत्यंत कुविकल्प के वश होकर उसने अपने पुरुषों को भेजकर लकड़ी, मुक्के आदि अनेक प्रकार से मारकर निरपराधी उस मुनि को नगर से बाहर निकाल दिया। इससे मुनि को प्रचंड क्रोध उत्पन्न हुआ। उस मुनि के मुख में से मनुष्यों को जलाने के लिए महाभयंकर तेजोलेश्या - आग निकलने लगी और काले बादल के समान धुआँ फैलने लगा, नगर में अंधकार छा गया। चक्रवर्ती को कारण ज्ञात होने पर चक्रवर्ती और लोग उस मुनि को शांत करने लगे। परंतु जब वे शांत नहीं हुए तब लोगों से यह बात सुनकर शीघ्र ही चित्र मुनि वहाँ आयें और उसे मधुरवाणी से कहने लगे कि - भो ! भो ! महायश! श्री जिनवचन को जानकर भी तुम क्रोध क्यों कर रहे हो ? क्रोध से अनंत भव का हेतुभूत संसार भ्रमण होगा, उसे तूं नहीं जानता है? अथवा अपकार करने वाले बिचारे नमुचि का क्या दोष है? क्योंकि जीव के दुःख और सुख में उसके कर्म ही कारण है । इत्यादि प्रशम रस से भरे अमृत समान उत्तम वचनों से शांत कषाय वाले संभूति मुनि उपशांत हुए और वे दोनों मुनि उद्यान में गये। वहाँ अनशन को स्वीकार कर दोनों एक प्रदेश में बैठे। फिर सनत् कुमार चक्रवर्ती ने अंतःपुर के साथ आकर भक्तिपूर्वक उनके चरणकमलों में नमस्कार किया, और उसकी मुख्य पट्टरानी ने भी नमस्कार किया उस समय स्त्री रत्न के मस्तक के केश का स्पर्श मुनि को हो गया और उसके केश द्वारा सुख स्पर्श का अनुभव करते संभूति मुनि ने कहा कि यदि इस तप का फल हो तो मैं जन्मांतर में चक्रवर्ती बनूँ। उसे चित्र मुनि ने संसार विपाक को बतानेवाले वचनों से अनेक बार समझाया, फिर भी उसने उसी तरह निदान का बंध किया। आयुष्य का क्षय होने पर दोनों सौधर्म देवलोक में देदीप्यमान देव हुए। वहाँ से च्यवकर चित्र पुरिमताल नगर में धनवान के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ और संभूतिकंपिलपुर में ब्रह्म राजा की चूलणी रानी से पुत्र रूप में जन्म लिया। फिर शुभ दिन में उसका ब्रह्मदत्त नाम रखा, क्रमशः वह चक्रवर्ती बना । । ९२०० । । फिर भरत चक्री के समान जब समग्र भरत की साधनाकर वह विषय सुख भोगने लगा, तब एक समय उसे जाति स्मरण ज्ञान हुआ, पूर्व जन्म के भाई को जानने के लिए दास आदि पाँच जन्मों का वर्णन वाला आधा श्लोक बनाया। आस्व दासौ मृगौ हंसौ मातंगावमरौ तथा अर्थात् : 'हम दोनों दास, मृग, हंस, चंडाल और देव थे' फिर लोगों को दिखाने के लिए उसे राजद्वार पर लटकाकर यह उद्घोषणा करवाई कि यदि इसका उत्तरार्ध श्लोक जो पूर्ण करेगा उसे मैं आधा राज्य दूँगा। इधर उस पूर्व के चित्र जीव को जाति स्मरण ज्ञान होने से घर बार का त्यागकर सम्यग् दीक्षा को स्वीकारकर अप्रतिबद्ध विहार करते उस नगर में आये और श्रेष्ठ धर्म ध्यान से तल्लीन एक उद्यान में एक ओर रहे। उस समय वहाँ एक रहट चलाने वाले के मुख से वह आधा श्लोक सुना और उपयोग वाले मुनि ने भी उसे समझकर उसका उत्तरार्द्ध श्लोक इस प्रकार कहा : एषा नौ षष्टिका जाति- रन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः । अर्थात् :― 'यह हमारा छट्ठा जन्म है, जिसमें हम एक दूसरे से अलग हुए हैं।' मुनि के मुख से आधा श्लोक की उत्तरार्द्ध पंक्ति सुनकर रहट चलानेवाले ने राजा के पास जाकर उस श्लोक का उत्तरार्द्ध सुनाकर श्लोक पूरा कर दिया। उसे सुनकर भाई के स्नेह वश राजा मूर्च्छित हो गया। इससे राजपुरुषों ने 'यह राजा का अनिष्टकारक है' ऐसा मानकर रहट वाले को मारने लगे। मार खाते उसने कहा कि मुझे मत मारो यह उत्तरार्द्ध 382 . For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लादार-नि:शल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-पीट, महापीट मुनियों की कथा श्री संवेगरंगशाला मुनि ने रचा है। इतने में राजा ने चेतना में आकर सुना। अतः सर्व संपत्ति सहित वह साधु के पास गया और अतीव स्नेह राग से उनके चरणों में नमस्कार कर वहाँ बैठा। मुनि ने सद्धर्म का उपदेश दिया, उसकी अवगणना करके चक्रवर्ती ने साधु को कहा कि-हे भगवंत! कृपा करके राज्य स्वीकार करो, विषय सुख भोगो और दीक्षा छोड़ो। पूर्व के समान हम साथ में ही समय व्यतीत करें। मुनि ने कहा कि-हे राजन्! राज्य और भोग ये दुर्गति के मार्ग हैं, इसलिए जिनमत के रहस्य को जानकर तूं इसे छोड़कर जल्दी दीक्षा स्वीकार कर जिससे साथ में ही तप का आचरण करें, राज्य आदि सभी सुखों से क्या लाभ है? राजा ने कहा कि भगवंत! प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर परोक्ष के लिए बेकार क्यों दुःखी होते हो? जिससे मेरे वचन का इस तरह विरोध करते हो? फिर चित्र मुनि ने सोचा निदान रूप दुश्चेष्टित के प्रभाव से राजा को समझाना दुष्कर है। ऐसा जानकर धर्म कहने से रुके। और काल क्रम से कर्ममल को नाश करके शाश्वत स्थान मोक्ष को प्राप्त किया। चक्री भी अनेक पापों से अंत समय में रौद्र ध्यान में पड़ा और आयुष्य पूर्ण कर सातवीं नरक में उत्कृष्ट आयुष्य वाला नरक का जीव हुआ। इस प्रकार के दोषों को करनेवाला निदान का, हे क्षपक मुनि! तूं त्याग कर। इस तरह निदान शल्य कहा है, अब माया शल्य तुझे कहता हूँ। (२) माया शल्य :- जो चारित्र विषय में अल्प भी अतिचार को लगाकर बड़प्पन, लज्जा आदि के कारण गुरु राज के समक्ष आलोचना नहीं करता अथवा केवल आग्रहपूर्वक पूछने पर आलोचना करें, वह भी सम्यग् आलोचना नहीं करता, परंतु मायायुक्त करता है। इस प्रकार के माया शल्य का त्याग किये बिना तप में रागी और चिरकाल तप का कष्ट सहन करने पर भी आत्मा को उसका शभ फल नहीं मिलता। इसीलिए चिरकाल तक श्रेष्ठ दुष्कर तप करने वाले भी उस निदान के कारण पीठ और महापीठ दोनों तपस्वी को स्त्रीत्व प्राप्त हुआ। वह इस प्रकार : पीठ, महापीठ मुनियों की कथा पूर्व काल में श्री ऋषभदेव भगवान का जीव निज कुल में दीपक के समान वैद्य का पुत्र था। वह राजा, मंत्री, सेठ और सार्थपति इन चारों के चार पुत्र उसके मित्र हुए। एक समय शुभ धर्मध्यान में निश्चल लीन परंतु कोढ़ के कीड़ों से क्षीण हुए साधु को देखकर भक्ति प्रकट हुई और उस वैद्य पुत्र ने उस साधु की चिकित्सा की । इससे श्रेष्ठ पुण्यानुबंधी समूह को प्राप्त किया और आयुष्य का क्षय होते प्राण का त्याग करके श्री सर्वज्ञ परमात्मा के धर्म के रंग से तन्मय धातु वाले वह वैद्य पुत्र चारों मित्रों के साथ अच्युत देवलोक में अति उत्तम ऋद्धिवाले देव हुए। फिर उन पाँचों ने स्वर्ग से च्यवकर इसी जम्बू द्वीप के तिलक की उपमा वाला, कुबेर नगर के समान शोभित पूर्व विदेह का शिरोमणि श्री पुंडरिकीणी नाम की नगरी में इन्द्र से पूजित चरण कमल वाले श्री वज्रसेन राजा की निर्मल गुणों को धारण करने वाली जग प्रसिद्ध धारिणी रानी की कुक्षि से अनुपम रूप सहित पुत्र रूप में उत्पन्न हुए, और अप्रतिम श्रेष्ठ गुण रूप लक्ष्मी के उत्कर्ष वाले वे उत्तम कुमार क्रमशः वृद्धि करते यौवन अवस्था प्राप्त की। उसमें से नगर की परिघ समान लम्बी, स्थिर और विशाल भुजाओं वाला प्रथम श्री वज्रनाभ चक्री, दूसरा बाहु कुमार, तीसरा सुबाहु कुमार, चौथा पीठ और पांचवाँ गुणों में लीन महापीठ नाम से प्रसिद्ध हुए। फिर पूर्व में बंध किये श्री तीर्थंकर नामकर्म वाले देवों द्वारा नमस्कार होते श्री वज्रसेन राजा ने अपना पद श्रेष्ठ चक्रवर्ती की लक्ष्मी से युक्त वज्रसेन को दिया, और स्वयं राज्य का त्यागकर पाप का नाश कर आनंद के आंसु झरते देव, दानवों के समूह द्वारा स्तुति होते सैंकड़ों राजाओं के साथ उत्तम साधु बनें। फिर मोह के महासैन्य को जीतकर केवल ज्ञान प्राप्त कर सूर्य के समान भव्य जीवों को प्रतिबोध करते पृथ्वी मंडल को शोभायमान करते, 383 For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला अज्ञान रूप अंधकार के समूह को नाश करते वे सर्वत्र विचरते थें। गाँव, नगर, पुर, आकर, कर्बट, मण्डब, आश्रम और शून्य घरों में विहार करते पुंडरिकीणी नगरी में पधारें वहाँ देवों ने आश्चर्यकारक श्रेष्ठ समवसरण की रचना की। उसमें वज्रसेन तीर्थनाथ बिराजमान हुए और उसी समय अपने भाईयों के साथ आकर वज्रनाभ चक्री भक्तिपूर्वक प्रभु को वंदन स्तुति कर पृथ्वी के ऊपर बैठे। श्री जिनेश्वर भगवान ने संसार के महाभय को नाश करने में समर्थ धर्म उपदेश दिया, उसे सुनकर चारों भाइयों के साथ श्री वज्रनाभ चक्रवर्ती ने दीक्षा ली। उसमें समस्त सूत्र, अर्थ के समूह के ज्ञाता भव्य को मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले, स्वाध्याय और ध्यान में एकाग्र चित्तवाले, शत्रु, मित्र के प्रति समदृष्टि वाले वज्रनाभ आराधना में दिन व्यतीत कर रहे थे। वे बाहु और सुबाहु भी तपस्वी और ग्यारह अंगों को सम्यक् प्रकार से अभ्यास कर शुभ मन से बाहु मुनि तपस्वी साधुओं की आहार आदि से भक्ति और सुबाहु मुनि साधुओं की शरीर सेवा करते थें। तथा दूसरे पीठ और महापीठ दोनों उत्कटुक आदि आसन करते स्वाध्याय ध्यान में प्रवृत्त रहते थें। बड़े भाई वज्रनाभ मुनि श्री जिन पद को प्राप्त करानेवाला वीस स्थानक तप की आराधना करते थें और बाहु मुनि की विनय वृत्ति तथा सुबाहु की भक्ति की हमेशा प्रशंसा करते थें। क्योंकि श्री जिन मत में निश्चय गुणवान के गुणों की प्रशंसा करने को कहा है। उसे सुनकर कुछ मान पूर्वक पीठ और महापीठ ने चिंतन किया कि 'जो विनय वाला है उसकी प्रशंसा होती है, नित्य स्वाध्याय करने वाले हमारी प्रशंसा नहीं होती है।' फिर आलोचना करते समय उन्होंने इस प्रकार के कुविकल्प को गुरु के पास सम्यग् रूप से नहीं कहा। इससे चिरकाल जैन धर्म की आराधना करके भी स्त्रीत्व को प्राप्त करने वाला कर्म बंध किया। फिर आयुष्य पूर्ण होते उन पाँचों ने सर्वार्थ सिद्ध में देवत्व की ऋद्धि प्राप्त की, उसके बाद वज्रनाभ इस भरत में नाभि के पुत्र श्री ऋषभदेव भगवान हुए, बाहु भी च्यवकर रूप आदि से युक्त ऋषभदेव का प्रथम पुत्र भरत नाम से चक्री हुआ और सुबाहु बाहुबली नामक अति बलिष्ठ दूसरा पुत्र हुआ। पीठ और महापीठ दोनों ऋषभदेव की ब्राह्मी और सुंदरी नाम से पुत्री हुईं। इस प्रकार पूर्व में कर्म बंध करने से और आलोचना नहीं करने से माया शल्य का दोष अशुभकारी होता है। इस प्रकार हे क्षपक मुनि! माया शल्य को छोड़कर उद्यमी तूं दुर्गति में जाने का कारणभूत मिथ्यात्व ल्या भी त्याग कर । समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-नंद मणियार की कथा (३) मिथ्यात्व शल्य :- यहाँ मिथ्यात्व को ही मिथ्या दर्शन शल्य कहा है, और वह निष्पुण्यक जीवों को मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय करवाता है, (१) बुद्धि के भेद से, (२) कुतीर्थियों के परिचय से अथवा उनकी प्रशंसा से और (३) अभिनिवेश अर्थात् मिथ्या आग्रह से इस प्रकार तीन प्रकार से प्रकट होता है। इस शल्य को नहीं छोड़नेवाला, दानादि धर्मों में रक्त होने पर भी मलिन बुद्धि से सम्यक्त्व का नाश करके नंद मणियार नामक सेठ के समान दुर्गति में जाता है । । ९२४९ ।। उसकी कथा इस प्रकार : नंद मणियार की कथा इसी जम्बू द्वीप के अंदर भरतक्षेत्र में राजगृह नगर में अतुल बलवान श्री श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी भुजा रूपी परीघ से रक्षित कुबेर समान धनवान लोगों को आनंद देनेवाला, राजा को भी माननीय और मणियारा के व्यापारियों में मुख्य नंद नामक सेठ रहता था । सुरासुर से स्तुति होते जगद् बंधु श्री वीर परमात्मा एक समय नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उसे सुनकर वह नंद मणियार भक्ति समूह वाला अनेक पुरुषों के परिवार से युक्त पैरों से चलकर शीघ्र वंदन के लिए आया। फिर बड़े गौरव के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर श्री वीर परमात्मा को वंदनकर धर्म श्रवण के लिए पृथ्वी पर बैठा । तब तीन भुवन के एक तिलक और धर्म के 384 For Personal & Private Use Only . Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता नामक अठारहवाँ द्वार-नंद मणियार की कथा श्री संवेगरंगशाला आवास भूत श्री वीर प्रभु ने जीव हिंसा की विरति वाला, असत्य और चौर्य कर्म से सर्वथा मुक्त, मैथुन त्याग की प्रधानता वाला एवं परिग्रह रूपी ग्रह को वश करने में समर्थ साधु और गृहस्थ के योग्य श्रेष्ठ धर्म का सम्यग् उपदेश दिया। इसे सुनकर शुभ प्रतिबोध होने से नंद मणियार सेठ ने बारह व्रत सहित संपूर्ण गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। और फिर अपने को संसार से पार उतरने के समान मानता वह प्रभु को अतीव भक्ति से वंदन करके बार-बार स्तुति करने लगा कि : भयंकर संसार में उत्पन्न हुए महाभय का नाश करने वाले, निर्मल भुजा बल वाले, क्रोध अथवा कलियुग की मलिनता का हरण करने के लिए पानी के प्रवाह तुल्य और महान बड़े गुण समूह के मंदिर, हे देव! आपश्री विजयी हो। पर-दर्शन के गाढ़ अज्ञान अंधकार का नाश करने वाले हे सूर्य!, काम रूपी वृक्ष को जलाने वाले हे दावानल! और अति चपल घोड़ों के समान इन्द्रियों को वश करने के लिए दामण-रस्सी समान, हे वीर परमात्मा! आप श्री विजयी हो। मोह महाहस्ती को नाश करने वाले हे सिंह!, लोभ रूपी कमल को कुम्हलाने वाले हे चंद्र!, और संसार के पथ में चलने से थके हुए अनेक प्राणियों के ताप को हरण करने वाले हे देव!, आप विजयी रहो। रोग, जरा और मरण रूपी शत्रु सेना के भय से मुक्त शरीरवाले, मन और इन्द्रियों को उत्कृष्ट वश करने वाले, निर्दयता रूपी पराग का नाश करने में कठोरतर पवन के समान और माया रूपी सर्प को नाश करने में हे गरूड़! आपकी जय हो। हे करुणारस के सागर! हे जहर को शांत करनेवाले अमृत! हे पृथ्वी को जोतने में बड़े हल समान! अथवा विष तुल्य जो राग है तद्प पृथ्वी को जोतने के लिए तीक्ष्ण हल समान! और रम्भा समान मनोहर स्त्रियों के भोगरस के संबंध से अबद्ध वैरागी। आप की जय हो। हे प्राणीगण के सुंदर हितस्वी बंधु! हे राग दशा को नाश करनेवाले, हे करणसित्तरी और चरणसित्तरी के श्रेष्ठ प्ररूपणा रूपी धनवान दातार! और नयो के समूह से व्याप्त सिद्धांत वाले प्रभु! आप विजयी हो। हे वंदन करते सुर असुरों के मुकुट के किरणों से व्याप्त पीले चरण तल वाले और कंकोल वृक्ष के पत्तों के समान लाल हस्त कमल वाले हे महाभाग प्रभु! आप विजयी हो। हे संसार समुद्र को पार पाये हुए! हे गौरव की खान! हे पर्वत तुल्य धीर! और फिर जन्म नहीं लेने वाले हे वीर! आप को मैं संसार का अंत करने के लिए बार-बार वंदन करता हूँ। इस प्रकार संस्कृत, प्राकृत, उभय में सम शब्दों वाली 'जैसे संसार दावा की स्तुति' है वैसी गाथाओं से श्री वीर भगवान की स्तुतिकर जैन धर्म को स्वीकारकर, अति प्रसन्न चित्तवाले नंद मणियार सेठ अपने घर गया, फिर जिस तरह स्वीकार किया था उसी तरह बारह व्रत रूप सुंदर जिन धर्म का वह पालन करने लगा और वीर प्रभु भी अन्य स्थानों में विचरने लगे। फिर अन्यथा कभी सुविहित साधुओं के विरह से और अत्यंत असंयमी मनुष्यों के बार-बार दर्शन से, प्रतिक्षण सम्यक्त्व अध्यवसाय स्थान घटने से और मिथ्यात्व के अध्यवसाय समूह हमेशा बढ़ने से, सम्यक्त्व से रहित हुआ उसने एक समय जेठ मास के अंदर पौषधशाला में अट्ठम (तीन उपवास) के साथ पौषध किया। फिर अट्ठम की तपस्या से शरीर में शिथिलता आने से तृषा और भूख से पीड़ित नंद सेठ को ऐसी चिंता प्रकट हुई कि वे धन्य हैं और कृतपुण्य हैं कि जो नगर के समीप में पवित्र जल से भरी बावड़ियाँ बनाते हैं। जो बावड़ियों में नगर के लोग हमेशा पानी को पीते हैं, ले जाते हैं और स्नान करते हैं। अतः प्रभात होते ही मैं भी राजा की आज्ञा प्राप्त कर बड़ी-बड़ी बावड़ियाँ तैयार करवाऊँगा। ऐसा विचारकर उसने सूर्य उदय होते पोषह को पारकर स्नान किया, विशुद्ध वस्त्रों को धारण कर, हाथ में भेंट वस्तुएँ लेकर वह राजा के पास गया। और राजा को विनयपूर्वक नमस्कार करके निवेदन करने लगा कि हे देव! आपश्रीजी की आज्ञा से नगर के बाहर समीप में ही बावड़ी बनाने की इच्छा करता हैं। अतः राजा ने उसे आज्ञा दी। फिर उसने शीघ्र वक्षों 385 For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-निःशल्यता वामक अठारहवाँ द्वार-लंद नगियार की कथा की घटा से शोभित महान् विस्तारपूर्वक इष्ट प्रदेश में, मुसाफिरों को आरोग्य प्रद भोजनशाला से युक्त तथा सफेद कमल, चंद्र विकासी कमल और कुवलय के समूह से शोभित, पूर्ण पानी के समूह वाली नंदा नाम की बावड़ी तैयार की। वहाँ स्नान करते, जल क्रीड़ा करते और जल को पीते लोग परस्पर ऐसा बोलते थे कि-उस नंद मणियार को धन्य है कि जिसने निर्मल जल से भरी, मछली, कछुआ भ्रमण करते, पक्षियों के समूह से रमणीय इस बावड़ी को करवाई है। ऐसी लोगों की प्रशंसा सुनकर अत्यंत प्रसन्नता को प्राप्त करते वह नंद सेठ स्वयं अमृत से सिंचन समान अति आनंद मानता था। समय जाते पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों के दोष से शत्रु के समान दुःखकारक (१) ज्वर, (२) श्वास, (३) खाँसी, (४) दाह, (५) नेत्र शूल, (६) पेट में दर्द, (७) मस्तक में दर्द, (८) कोढ़, (९) खसरा, (१०) बवासीर, (११) जलोदर, (१२) कान में दर्द, (१३) नेत्र पीड़ा, (१४) अजीर्ण, (१५) अरुचि, और (१६) अति भगंदर। इस तरह सोलह भयंकर व्याधियों ने एक साथ में उसके शरीर में स्थान किया और उस वेदना से पीड़ित उसने नगर में उद्घोषणा करवाई कि जो मेरे इन रोगों में से एक का भी नाश करेगा उसको मैं दरिद्रता का नाश हो इतना धन दे दूंगा ।।९२८६ ।। उसे सुनकर औषध से युक्त अनेक वैद्य आये और उन्होंने शीघ्र अनेक प्रकार से चिकित्सा की, परंतु उस वेदना में थोड़ा भी अंतर नहीं हुआ अर्थात् ज्वर जैसा था वैसा ही बना रहा। अतः लज्जा से युक्त निराश होकर जैसे आये थे वैसे वापिस चले गये। और रोग की विशेष वेदना से पीड़ित नंद सेठ मरकर अपनी बावड़ी में गर्भज मेंढक रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने 'नंद सेठ को धन्य है कि जिसने यह बावड़ी करवाई है।' ऐसा लोगों द्वारा बात सुनकर शीघ्र ही अपने पूर्व जन्म का स्मरण ज्ञान हुआ। इससे संवेग होते 'यह तिर्यंचगति मिथ्यात्व का फल है' ऐसा विचार करते वह पुनः पूर्व जन्म में पालन किये हुए देश विरति आदि जिन धर्म के अनुसार व्रत, नियमों का अपनी अवस्था के अनुसार पालन करने लगा और उसने अभिग्रह स्वीकार किया किआज से सदा मैं लगातार दो-दो उपवास की तपस्या करूँगा और पारणे में केवल अचित्त पुरानी सेवाल आदि को खाऊँगा, ऐसा निश्चय करके वह मेंढक महात्मा के स्वरूप में रहने लगा। एक समय वहाँ श्री महावीर प्रभु पधारें। इससे उस बावड़ी में स्नान करते लोग परस्पर ऐसा बोलने लगे कि-'शीघ्र चलो जिससे गुणशील चैत्य में बिराजमान और देवों से चरण पूजित श्री वीर परमात्मा को वंदन करें।' यह सुनकर भक्ति प्रकट हुई और अति समूह भाव वाला मेंढक श्री वीर प्रभु को वंदन के लिए अपनी तेज चाल से शीघ्र गुणशील उद्यान की ओर जाने के लिए रवाना हुआ। इधर शणगारित हाथी के समूह ऊपर बैठे सुभटों से मजबूत गाढ़ घिराववाले और अति चपल अश्व के समूह की कठोर खूर से भूमि तल को खोदते तथा सामंत, मंत्री, सार्थवाह, सेठ और सेनापतियों से घिरे हुए हाथी के ऊपर बैठे, मस्तक ऊपर उज्ज्वल छत्र धारण करते और अति मूल्यवान अलंकारों से शोभित श्रेणिक महाराजा शीघ्र भक्तिपूर्वक श्री वीर परमात्मा को वंदनार्थ चला। उस राजा के एक घोड़े के खुर के अग्रभाग से भक्तिपूर्वक प्रभु को वंदनार्थ जाते वह मेंढक मार्ग में मर गया ।।९३०० ।। उस प्रहार से पीड़ित उस मेंढक ने अनशन स्वीकार किया। प्रभु का सम्यक् स्मरण करते वह मरकर सौधर्म देवलोक में दर्दुरावतंसक नामक श्रेष्ठ विमान में दर्दुरांक नामक देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवकर अनुक्रम से वह महाविदेह में से मुक्ति को प्राप्त करेगा। अल्पकाल में सिद्धि प्राप्त करने वाले भी नंद ने यदि इस तरह मिथ्यात्व शल्य के कारण हल्की तिर्यंच गति को प्राप्त की थी, तो हे क्षपक मुनि! तूं उस शल्य का त्याग कर। और तीनों शल्यों का त्यागी तूं फिर पाँच समिति और तीन गुप्ति द्वारा शिव सुख साधने वाले सम्यक्त्व आदि गुणों की साधना कर। प्यासा जीव पानी पीने से प्रसन्न होता है, वैसा उपदेश रूपी अमृत के पान से चित्त प्रसन्न 386 For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार - प्रतिपति नामक दूसरा द्वार होते क्षपक मुनि निर्वृत्ति को प्राप्त करता है। इस प्रकार संसार सागर में नाव समान, सद्गति में जाने का सरल मार्ग रूप, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार से रची हुई समाधि लाभ नामक मूल चौथे द्वार के अंदर अठारह अंतर द्वार से रचा हुआ प्रथम अनुशास्ति द्वार का अंतिम निःशल्यता नाम का अंतर द्वार कहा है, और इसे कहने से यह अनुशास्ति द्वार समाप्त हुआ। अब इस तरह हित शिक्षा सुनाने पर भी जिसके अभाव में कर्मों का दूरीकरण न हो उसे प्रतिपत्ति (धर्म स्वीकार) द्वार कहता हूँ । । ९३०९।। श्री संवेगरंगशाला प्रतिपत्ति नामक दूसरा द्वार : इस प्रकार अनेक विषयों की विस्तार पूर्वक हितशिक्षा सुनकर अति प्रसन्न हुए और संसार समुद्र से पार होने के समान मानता हर्ष की वृद्धि से विकसित रोमांचित वाला क्षपक मुनि, मस्तक पर दो हस्त कमल को जोड़कर हृदय में फैलता सुखानंद रूपी वृक्ष के अंकुरों के समूह से युक्त हो इस तरह 'आपने मुझे सुंदर हित शिक्षा दी है' गुरुदेव को बार-बार कहता हुआ भक्ति के समूह से वाणी द्वारा कहे कि - हे भगवंत ! तत्त्व से आपसे अधिक अन्य वैद्य जगत में नहीं है कि जिसे आपश्री इस तरह मूल में से कर्मरूपी महाव्याधि को नाश करते हो । आप ही एक इन्द्रियों के साथ की युद्ध की रंगभूमि में बलवान अंतर शत्रुओं से मारे जाते अशरण जीवों की शरण हैं। आप ही तीन लोक में फैलते मिथ्यात्व रूपी अंधकार के समूह को नाश करने में समर्थ ज्ञान के किरणों का समूह रूप सूर्य हैं। इससे आपने मुझे जो अत्यंत दीर्घ संसार रूपी वृक्ष के मूल अंकुर समान और अत्यंत अनिष्टकारी अठारह पाप स्थानक के समूह को हमेशा त्याग करने योग्य बतलाया उन तीनों काल के पाप स्थानकों को मैं त्रिविध त्याग करता हूँ। उत्तम मुनियों को अकरणीय, मिथ्या पंडितों, अज्ञानियों के आश्रय करने योग्य, निंदनीय आठ मद स्थान रूपी मोह की मुख्य सेना की मैं निंदा करता हूँ। तथा दुःख के समूह में कारण भूत दुर्गतियों के भ्रमण में सहायक और अरति करने वाले क्रोधादि कषायों का भी अब से त्रिविध - त्रिविध से त्याग करता हूँ। और प्रशम के लाभ को छोड़ानेवाला और हर समय उन्माद को बढ़ाने वाला समस्त प्रमाद का मैं त्रिविध-त्रिविध त्याग करता हूँ। पाप की अत्यंत मैत्री करनेवाले, और प्रचंड दुर्गति के द्वार को खोलने वाले राग का भी बंधन के समान मैं त्रिविध - त्रिविध त्याग करता हूँ । इस प्रकार त्याग करने योग्य त्याग करके पुनः आपके समक्ष उत्कृष्ट शिष्टाचारों में एक उत्तम सम्यक्त्व को में शंका आदि दोषों में रहित स्वीकार करता हूँ। और हर्ष के उत्कर्ष से विकसित रोमांचित वाला मैं प्रतिक्षण श्री अरिहंत आदि की भक्ति प्रयत्नपूर्वक स्वीकार करता हूँ। जन्म मरणादि संसार की पुनः पुनः परंपरा रूप हाथियों के समूह को नाश करने में एक सिंह समान श्री पंच नमस्कार को मैं सर्व प्रयत्नपूर्वक स्मरण करता हूँ। सर्व पाप रूपी पर्वत को चूर्ण करने में वज्र समान और भव्य प्राणियों को आनंद देने वाले सम्यग् ज्ञान के उपयोग को मैं स्वीकार करता हूँ, और आपकी साक्षी में संसार के भय को तोड़ने में दक्ष और पाप रूपी सर्व शत्रुओं को विनाश करनेवाले पांच महाव्रतों की में रक्षा करता हूँ। तथा तीन जगत को क्लेश कारक राग रूपी प्रबल शत्रु के भय को नाश करने में समर्थ और मूढ़ पुरुषों को दुर्जय चार शरणों को मैं स्वीकार करता हूँ। पूर्व जन्म में बंध किये हुए वर्तमान काल के और भविष्य के अति उत्कृट भी दुष्कृत्य की बार-बार मैं निंदा करता हूँ। तीनों लोक के जीवों ने जिसके दोनों चरण कमलों को नमस्कार किया है वे श्री वीतराग देव के वचनों के अनुसार मैंने जोजो सुकृत किया हो, उसकी मैं आज अनुमोदना करता हूँ। बढ़ते शुभ भाव वाला मैं, अनेक प्रकार के गुणों को करने वाला और सुख रूप मच्छ को पकड़ने में श्रेष्ठ जाल तुल्य भावनाओं के समूह की दृढ़ता से स्मरण करता 387 For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रतिपनि नामक दूसरा द्वार हूँ। हे भगवंत! सूक्ष्म भी अतिचार को छोड़कर मैं अब स्फटिक समान निर्मल शील को सविशेष अस्खलित स्वीकार करता हूँ। गंध हस्ति का समूह जैसे हाथी के झुंड को भगाते हैं वैसे सत्कार्यों रूपी वृक्षों के समूह को नाश करने में सतत् उद्यमशील इन्द्रियों के समूह को भी सम्यग् ज्ञान रूपी रस्सी से वश करता हूँ। अभ्यंतर और बाह्य भेद स्वरूप बारह प्रकार के तपकर्म को शास्त्रोक्त विधि पूर्वक करने के लिए मैं सम्यग् प्रयत्न करता हूँ। हे प्रभु! आपने तीन प्रकार के बड़े शल्य को कहा है, उसे भी अब मैं अति विशेषतापूर्वक त्रिविध-त्रिविध से त्याग करता हूँ। इस प्रकार त्याग करने योग्य त्याग कर और करने योग्य वस्तु के आचरण को स्वीकार करने वाला क्षपक मुनि उत्तरोत्तर आराधना के मार्ग श्रेणि के ऊपर चढ़ता है। फिर वह प्यासा बना क्षपक मुनि को बीच-बीच में स्वाद बिना का खट्टा, तीखा और कड़वे रहित पानी जैसे हितकर हो उसके अनुसार दे। फिर जब उस महात्मा को पानी पीने की इच्छा मिट जाय तब समय को जानकर निर्यामक गुरु उसे पानी का भी त्याग करवा दे। अथवा संसार की असारता का निर्णय होने से धर्म में राग करनेवाला कोई उत्तम श्रावक भी यदि आराधना को स्वीकार करे तो वह पूर्व में कही विधि से स्वजनादि से क्षमा याचना कर संस्तारक दीक्षा स्वीकारकर इस अंतिम आराधना में उद्यम करें। और उसके अभाव में संथारे को स्वीकार न करे, तो भी पूर्व में स्वीकार किये हुए बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का पुनः उच्चारण कर उन व्रतों को सुविशुद्धतर और सुविशुद्धतम करते, वह ज्ञान दर्शन अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के अतिचारों को सर्वथा त्याग करते, प्रति समय बढ़ते संवेग वाला दोनों हस्त कमल को मस्तक पर जोड़कर दुश्चरित्र की शुद्धि के लिए उपयोग पूर्वक इस प्रकार से बोले-भगवान श्री संघ का मैंने मोहवश मन, वचन, काया से यदि कुछ भी अनुचित किया हो उसे मैं त्रिविध खमाता हूँ। और असहायक का सहायक, मोक्ष मार्ग में चलनेवाले आराधकों का सार्थवाह, तथा ज्ञानादि गुणों के प्रकर्ष वाला भगवान श्री संघ भी मुझे क्षमा करें। श्री संघ यही मेरा गुरु है, अथवा मेरी माता है अथवा पिता है, श्री संघ परम मित्र है और मेरा निष्कारण बंधु है। इसलिए भूत, भविष्य या वर्तमान काल में राग से, द्वेष से या मोह से भगवान श्री संघ की मैंने यदि अल्प भी आशातना की हो, करवाई हो, या अनुमोदन किया हो, उसकी सम्यग् आलोचना करता हूँ और प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। सुविहित साधुओं, सुविहित साध्वियों, संवेगी श्रावक, सुविहित श्राविकाओं का मैंने मन, वचन, काया से यदि कुछ भी अनुचित किसी प्रकार, कभी भी सहसात्कार या अनाभोग से किया हो उसे मैं त्रिविध खमाता हूँ। करुणा से पूर्ण मन वाले, वे सभी विनय करने वाले और संवेग परायण मनवाले मुझें क्षमा करें। उनकी भी यदि कोई आशातना किसी तरह मैंने की हो, उसकी मैं सम्यग् आलोचना करता हूँ और मैं प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। तथा श्री जिनमंदिर, मूर्ति, श्रमण आदि के प्रति मैंने यदि कोई उपेक्षा, अपमान और द्वेष बुद्धि की हो उसकी भी सम्यग् आलोचना करता हूँ। तथा देवद्रव्य, साधारण द्रव्य को यदि राग, द्वेष अथवा मोह से भोग किया हो या उसकी उपेक्षा की हो उसकी सम्यग् आलोचना करता हूँ। मैंने श्री जिनवचन को स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिंदु या पद आदि से कम अथवा अधिक पढ़ा हो और उसे उचित काल, विनयादि आचार रहित पढ़ा हो, तथा मंद पुण्य वाले और राग, द्वेष, मोह में आसक्त चित्तवाले मैंने मनुष्य जीवन आदि अति दुर्लभ समग्र सामग्री के योग होते हुए भी परमार्थ से अमृत तुल्य भी श्री सर्वज्ञ कथित आगम वचन को यदि नहीं सुना हो, अथवा अविधि से सुना हो या विधिपूर्वक सुनने पर भी श्रद्धा नहीं की अथवा यदि किसी विपरीत रूप में श्रद्धा की हो अथवा उसका बहुमान नहीं किया हो, अथवा यदि विपरीत बात कही हो, तथा बल वीर्य-पुरुषाकार आदि होने पर भी उसमें (शास्त्र के) कथनानुसार मेरी योग्यता के अनुरूप मैंने आचरण नहीं किया अथवा विपरीत आचरण किया हो या मैंने उसमें यदि हंसी की हो और यदि किसी प्रकार प्रद्वेष किया हो, 388 For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार श्री संवेगरंगशाला उन सबकी मैं आलोचना करता हूँ और प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। भयंकर संसार अटवी में परिभ्रमण करते मैंने विविध जन्मों में, जिसका जो भी अपराध किया हो, उन प्रत्येक को भी मैं खमाता हूँ। माता, पिता को, सर्व स्वजन वर्ग को और मित्र वर्ग को भी मैं खमाता हूँ। तथा शत्रु वर्ग को तो सविशेषतया मैं खमाता हूँ। फिर उपकारी वर्ग को और अनुपकारी वर्ग को भी मैं खमाता हूँ तथा दृष्ट प्रत्यक्ष वर्ग को मैं खमाता हूँ और अदृष्ट परोक्ष वर्ग को भी खमाता हूँ। सूने हुए या नहीं सूने हुए, जाने हुए या अनजान को, कल्पित या सत्य को, अयथार्थ या यथार्थ को तथा परिचित अथवा अपरिचित को और दीन, अनाथ आदि समग्र प्राणी वर्ग को भी मैं प्रयत्न से आदरपूर्वक खमाता हूँ, क्योंकि यह मेरा खामना का समय है। धर्मी वर्ग को और अधर्मी वर्ग के समूह को भी मैं सम्यक् खमाता हूँ तथा साधार्मिक वर्ग को और असाधार्मिक वर्ग को भी खमाता हूँ। और क्षमा याचना में तत्पर बना मैं सन्मार्ग में रहे मार्गानुसारी वर्ग तथा उन्मार्ग में चलने वालों को भी खमाता हूँ, क्योंकि हमारा अब यह खामना का समय है। परमाधामी जीवन को प्राप्त कर और नरक में नारकी जीव बनकर मैंने परस्पर नारकी जीवों को जो पीड़ा की हो उसकी मैं खामना करता हूँ। तथा तिर्यंच योनि में एकेन्द्रिय योनि आदि में उत्पन्न होकर मैंने एकेन्द्रिय आदि जीवों का तथा जलचर, स्थलचर, खेचर के भवों को प्राप्त कर मैंने जलचर आदि को भी किसी प्रकार मन, वचन, काया से यदि कुछ अल्प भी अनिष्ट किया हो उसकी मैं निंदा करता हूँ। तथा मनुष्य के जन्मों में भी मैंने राग से, द्वेष से, मोह से, भय या हास्य से, शोक या क्रोध से, मान से, माया से या लोभ से भी इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में यदि मन से दुष्ट मनोभाव, वचन से तिरस्कार-हाँसी से और काया से तर्जना ताड़न बंधन या मारना इस प्रकार अन्य जीवों को शरीर की, मन की यदि अनेक प्रकार से पीड़ा दी हो, इसी तरह कुछ किया हो, करवाया हो, या अनुमोदन किया हो उसे भी मैं त्रिविध निंदा करता हूँ। एवं मंत्र आदि के बल से देवों को किसी व्यक्ति या पात्र में उतारा हो, सरकाया हो, स्तंभित या किल्ली में बांधा हो, अथवा खेल तमाशा आदि करवाया हो, यदि किसी तरह भी अपराध किया हो, अथवा तिर्यंच योनि को प्राप्त कर मैंने यदि किसी तिर्यंच, मनुष्य और देवों को तथा मनुष्य योनि प्राप्त कर मैंने यदि किसी तिर्यंच, मनुष्य और देवों को और देव बनकर मैंने नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देवों को यदि किसी प्रकार भी शारीरिक, या मानसिक अनिष्ट किया हो उस समस्त को भी मैं त्रिविध-त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ और मैं स्वयं भी उनको क्षमा करता हूँ। क्योंकि यह मेरा क्षमापना का समय है ।।९३७६ ।। पाप बुद्धि से शिकार आदि पाप किया हो उसे खमाता हूँ इसके अतिरिक्त धर्म बुद्धि से भी यदि पापानुबंधी पाप किया हो, तथा यदि बछड़े का विवाह किया हो, यज्ञ कर्म किया हो, अग्नि पूजा की हो, प्याऊ का दान, हल जोड़े हों, गाय और पृथ्वी का दान तथा यदि लोहे सुवर्ण या तिल की बनी गाय का दान, अथवा अन्य किसी धातु आदि और गाय का दान दिया हो, अथवा इस जन्म में यदि कुण्ड, कुएँ, रहट, बावड़ी और तलाब खुदवाया आदि की क्रिया की हो, गाय, पृथ्वी, वृक्षों का पूजन अथवा वंदन किया हो या रूई आदि का दान दिया हो, इत्यादि धर्मबुद्धि से भी यदि किसी पाप को किया हो। यदि देव में अदेव बुद्धि और अदेव में देव बुद्धि की हो, अगुरु में भी गुरुबुद्धि और सुगुरु में अगुरु बुद्धि की, तथा यदि तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि और अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि की अथवा किसी प्रकार भी कभी भी करवाई हो अथवा अनुमोदन किया हो उन सब को मिथ्यात्व के कारणों को यत्नपूर्वक समझकर मैं सम्यग् आलोचना करता हूँ, और उसके प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। तथा मिथ्यात्व में मूढ़ बुद्धि वाले मैंने संसार में मिथ्या दर्शन को प्रारंभ किया हो और मोक्ष मार्ग का अपलाप करके यदि मिथ्या मार्ग का उपदेश दिया हो एवं मैंने जीवों को दुराग्रह प्रकट कराने वाले और मिथ्यात्व मार्ग में प्रेरणा 389 For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार- प्रतिपत्ति नामक दूसरा द्वार देनेवाले कुशास्त्रों की रचना की अथवा मैंने उसका अभ्यास किया हो, उसकी भी मैं निंदा करता हूँ। जन्म के समय ग्रहण करते और मरते समय छोड़ते पाप की आसक्ति में तत्पर जो जन्म जन्मान्तर के शरीर धारण किये, उन सबका भी आज मैं त्याग करता हूँ। जो जीव हिंसा कारक जाल, शस्त्र, हल, मूसल, उखल, चक्की, मशीन आदि जो सर्व प्रकार के अधिकरणों को इस जन्म में अथवा अन्य जन्म में किया, करवाया या अनुमोदन किया हो उन सब पर की मेरी ममता का त्रिविध - त्रिविध मैं त्याग करता हूँ। और मूढात्मा मैंने लोभवश कष्ट से धन को प्राप्त कर और मोह से रखकर यदि पाप स्थानों में उपयोग किया हो उसे निश्चय अनर्थभूत समस्त धन की आज मैं भावपूर्वक अपनी ममता का त्रिविध-त्रिविध त्याग करता हूँ। और किसी के भी साथ में मुझे यदि कुछ भी वैर की परंपरा थी और है उसे भी प्रशम भाव में रहकर मैं आज संपूर्ण रूप में खमाता हूँ। सुंदर घर कुटुंब आदि में मेरा यदि राग था अथवा और आज भी है उसे भी मैं छोड़ता हूँ ।। ९३९१।। अधिक क्या कहूँ? इस जन्म में अथवा जन्मान्तर में स्त्री, पुरुष या नपुंसक जीवन में रहा हुआ और विषयाभिलाष के वश होकर मैंने गर्भ को गिराया हो, तथा परदारा सेवन आदि जो अनार्य भयंकर पाप किये हो, तथा क्रोध से अपना घात या पर का घात आदि किया हो, मान से यदि पर का खंडन - अपमानादि किया हो, माया से परवंचनादि रूप भी जो किया हो, और लोभ की आसक्ति से महा आरंभ - परिग्रह आदि किया हो, तथा आहट्ट, दोहट्ट वश पीड़ा से जो विविध अनुचित्त वर्तन किया । और रागपूर्वक मांस भक्षण आदि अभक्ष्य भक्ष्य खाया हो, मद्य, शराब अथवा लावक नामक पक्षी का रस आदि जो कुछ अपेय का पान किया हो, द्वेष से जो कुछ परगुण को सहन नहीं किया, निंदा, अवर्णवाद आदि किया, और मोह महाग्रह से ग्रसित हुआ, और इससे हेय, उपादेय के विवेक से शून्य चित्तवाले मैंने प्रमाद से अनेक प्रकार के अनेक भेद से जो कुछ भी पापानुबंधी पाप को किया और अमुक-अमुक इस पाप को किया और अमुक इन पाप को अब करूँगा । ऐसे विकल्पों से जो किया, उसे भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों काल संबंधी सर्व पापों की त्रिविध-त्रिविध गर्हा द्वारा विशुद्ध बना संविज्ञ मन वाला मैं आलोचना, निंदा और गर्हा से विशुद्धि को प्राप्त करता हूँ ।। ९४०० ।। इस प्रकार गुणों की खान क्षपक श्रावक यथा स्मरण दुराचरणों के समूह की गर्हा करके उसके राग को तोड़ने के लिए आत्मा को समझावे जैसे कि - देवलोक में इस मनुष्य जन्म की अपेक्षा अत्यंत श्रेष्ठ रमणीयता से अनंततम गुणा अधिक रति प्रकट कराने वाला श्रृंगारिक शब्दादि विषयों को भोगकर पुनः तुच्छ, गंदा और उससे अनंत गुण हल्के इस जन्म के इन विषयों को, हे जीव ! तुझे इच्छनीय नहीं है। तथा नरक में यहाँ की अपेक्षा से स्वभाव से ही असंख्य गुण कठोर अनंततम गुण केवल दुःखों को ही दीर्घकाल तक निरंतर सहन करके वर्तमान में, आराधना में लीन मन वाले हे जीव! तूं यहाँ विविध प्रकार की शारीरिक पीड़ा हो तो फिर भी अल्प भी क्रोध मत करना । तूं निर्मल बुद्धि से विचारकर दुःखों को समता से सहन कर, स्वजनों से तुझे थोड़ा भी आधार नहीं है, स्वजन सदा तुझे छोड़कर गये है; क्योंकि—हे भद्र! तूं सदा अकेला ही है, तीन जगत में भी दूसरा कोई तेरा नहीं है, तूं भी इस जगत में अन्य किसी का भी सहायक नहीं है, अखंड ज्ञान - दर्शन - चारित्र के परिणाम से युक्त और धर्म का सम्यग् अनुकरण करता एक प्रशस्त आत्मा ही अवश्य तेरा सहायक है। और जीवों को यह सारे दुःखों का समुदाय निश्चय संयोग के कारण हैं। इसलिए जावज्जीव सर्व संयोगों का त्याग कर, तूं सर्व प्रकार के आहार का तथा उस प्रकार की समस्त उपधि समूह का, और क्षेत्र संबंधी भी सर्व क्षेत्र के राग का शीघ्र त्याग कर। और जीव का इष्ट, कान्त, प्रिय, मनपसंद, मुश्किल से त्याग हो, ऐसा जो यह पापी शरीर है उसे भी तूं तृण समान मान। 390 For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार श्री संवेगरंगशाला इस प्रकार परिणाम को शुद्ध करते सम्यग् बढ़ते विशेष संवेग वाला शल्यों का सम्यक् त्यागी सम्यग् आराधना की इच्छावाला और सम्यक् स्थिर मनवाला सुभट जैसे युद्ध की इच्छा करें, वैसे क्षपक श्रमण एवं श्रावक मनोरथ से अति दुर्लभ पंडित मरण को मन में चाहता है और पद्मासन बनाकर अथवा जैसे समाधि रहे, वैसे शरीर से आसन लगाकर, संथारे में बैठकर, डांस, मच्छर आदि को भी नहीं गिनते। धीर बनकर अपने मस्तक पर हस्त कमल को जोड़कर भक्ति के समूह से संपूर्ण मन वाला बार-बार इस प्रकार बोले : यह 'मैं' तीन जगत से पूजनीय, परमार्थ से बंधु वर्ग और देवाधिदेव श्री अरिहंतों को सम्यग् नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' परम उत्कृष्ट सुख से समृद्ध अगम्य वचनातीत रूप के धारक और शिव पदरूपी सरोवर में राजहंस समान सिद्धों को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' प्रशम रस के भंडार, परम तत्त्व-मोक्ष के जानकार और स्व सिद्धांत-पर सिद्धांत में कुशल आचार्यों को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' शुभध्यान के ध्याता भव्यजन वत्सल और श्रुतदान में सदा तत्पर श्री उपाध्यायों को नमस्कार करता हूँ। और यह 'मैं' मोक्ष मार्ग में सहायक, संयम रूपी लक्ष्मी के आधार रूप और मोक्ष में एक बद्ध लक्ष्य वाले साधुओं को नमस्कार करता हूँ। यह 'मैं' संसार में परिभ्रमण करने से थके हुए प्राणी वर्ग का विश्राम का स्थान सर्वज्ञ प्रणीत प्रवचन को भी नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' सर्व तीर्थंकरों ने भी जिसको नमस्कार किया है, उस शुभ कर्म के उदय से स्व-पर विघ्न के समूह को चूर्ण करने वाले श्री संघ को नमस्कार करता हूँ। उस भूमि प्रदेशों को मैं वंदन करता हूँ, जहाँ कल्याण के निधानभूत श्री जिनेश्वरों ने जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाणपद प्राप्त किया है। शीलरूप सुगंध के अतिशय से श्रेष्ठ, कुगुरु को जीतने वाले, उत्तम कल्याण के कुल भवन समान और संसार से भयभीत प्राणियों के शरणभूत गुरुदेवों के चरणों को मैं वंदन करता हूँ। इस प्रकार वंदनीय को वंदनकर प्रथम सेवकजन वत्सल संवेगी, ज्ञान के भंडार और समयोचित्त सर्व क्रियाओं से युक्त स्थविर भगवंतों के चरणों में सुंदर धर्म का सम्यक् स्वीकार करते मैंने सर्व त्याग करने योग्य का त्याग किया है और स्वीकार करने योग्य का स्वीकार किया है। फिर भी विशेष संवेग प्राप्त करते मैं अब वही त्याग स्वीकारकर अति विशेष रूप से कहता हूँ। उसमें सर्व प्रथम मैं सम्यग् रूप से मिथ्यात्व से पीछे हटकर और अति विशेष रूप में सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ, फिर अठारह पाप स्थानक से पीछे हटकर कषायों का अवरोध करता हूँ, आठ मद स्थानों का त्यागी, प्रमाद स्थानों का त्यागी, द्रव्यादि चार भावों के राग से मुक्त, यथासंभव सूक्ष्म अतिचारों को भी प्रति समय विशुद्ध कर, अणुव्रतों को फिर से स्वीकारकर सर्व जीवों के साथ संपूर्ण क्षमापना कर, अनशन में पूर्व कथनानसार सर्व आहार का त्याग कर नित्य ज्ञान के उपयोगपर्वक प्रत्येक कार्य की प्रवत्ति कर, पाँच अणव्रतों की रक्षा में तत्पर, सदाचार से शोभित, मुख्यतया इन्द्रियों का दमन कर, नित्य, अनित्यादि भावनाओं में रमण कर में उत्तम अर्थ की साधना करता हूँ। इस प्रकार कर्तव्यों को स्वीकारकर बुद्धिमान श्रावक एवं श्रमण जीने की अथवा मरने की भी इच्छा को छोड़ने में तत्पर, इस लोक, परलोक के सुख की इच्छा से मुक्त, कामभोग की इच्छा का त्यागी, इस प्रकार संलेखना के पाँच अतिचारों से मुक्त, उपशम का भंडार, पंडित मरण के लिए मोह के सामने युद्ध भूमि में विजय ध्वजा प्राप्त करने के लिए एक सुभट बना हुआ, उस-उस प्रकार के त्याग करने योग्य सर्व पदार्थों के समूह का त्यागी, और 'यह करने योग्य है' ऐसा मानकर स्वीकार करने योग्य कार्यों को स्वीकार करता हूँ, उस-उस काल में नया-नया उत्कृष्ट संवेग होता है, उस गुण द्वारा आत्मा को क्षण-क्षण में अपूर्व समान अनुभव करता हूँ, शत्रु, मित्र में समचित्त वाला, तृण और मणि में, सुवर्ण और कंकर में भी समान बुद्धि वाला, मन में प्रतिक्षण बढ़ते समाधिरस का उत्कृष्ट अनुभव कर, अत्यंत श्रेष्ठ अथवा अति खराब भी 391 For Personal & Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार शब्दादि विषयों को सुनकर, देखकर, खाकर, सूंघकर, और स्पर्शकर भी प्रत्येक वस्तु के स्वभाव के ज्ञान बल से अरति, रति को नहीं करने से शरद ऋतु की नदी के निर्मल जल के समान अति निर्मल चित्त वाले, महासत्त्वशाली गरुदेव और परमात्मा को नमस्कार कर उचित आसन पर बैठा हआ. उस समय में 'यह राधावेध का समय है' ऐसा मन में विचार कर, सारे कर्म रूपी वृक्ष वन को जलाने में विशेष समर्थ दावानल के प्रादुर्भाव समान धर्म ध्यान का सम्यक् प्रकार से ध्यान करें, अथवा वहाँ उस समय श्री जिनेश्वर भगवान का ध्यान करें। जैसे किः __ पूर्ण चंद्र के समान मुखवाले, उपमा से अतिक्रांत अर्थात् अनुपमेय रूप लावण्य वाले, परमानंद के कारण भूत, अतिशयों के समुदाय रूप चक्र, अंकुश, वज्र, ध्वज, मच्छ आदि संपूर्ण निर्दोष लक्षणों से युक्त शरीर वाले, सर्वोत्तम गुणों से शोभते, सर्वोत्तम पुण्य के समूह रूप, शरद के चंद्र किरणों के समान, उज्ज्वल तीन छत्र और अशोक वृक्ष के नीचे बिराजमान, सिंहासन पर बैठे, दुंदुभि की गाढ़ गर्जना के समान अर्थात् गर्जना युक्त गंभीर आवाज वाले, देव असुर सहित मनुष्य की पर्षदा में शुद्ध धर्म की प्ररूपणा (उपदेश देते) करते जगत के सर्व जीवों के प्रति वत्सल, अचिंत्यतम शक्ति की महिमा वाले, प्राणी मात्र के उपकार से पवित्र समस्त कल्याण के निश्चित कारण भूत, अन्य मतवाले को भी शिव, बुद्ध, ब्रह्मा आदि नाम से ध्यान करने योग्य केवल ज्ञान से सर्व ज्ञेय भावों को एक साथ में यथार्थ रूप में जानते और देखते मूर्तिमान देहधारी धर्म और जगत के प्रकाशक प्रदीप के समान श्री जिनेश्वर प्रभु का ध्यान कर। अथवा उसी जिनेश्वर भगवान के कथन का तीन जगत में मान्य और दःख से तपे हए प्राणियों को अमत की वर्षा समान श्रत ज्ञान का ध्यान कर। यदि अशक्ति अथवा बिमारी के कारण वह इतना बोल न सके तो 'अ-सि-आ-उ-सा' इन पाँच अक्षरों का मन में ध्यान करें ।।९४५०।। पाँच परमेष्ठिओं में से एक-एक भी परमेष्ठी का ध्यान पाप नाशक है तो एक साथ में पाँचों परमेष्ठी समग्र पापों का उपशामक कैसे न हो? अवश्यमेव समग्र पाप नाश होते हैं। ये पाँच परमेष्ठी मेरे मन में क्षण भर के लिए स्थान करो, स्थिर हो जाओ जिससे मैं अपना कार्य सिद्ध करूँ। इस प्रकार उस समय प्रार्थना करता हूँ। इन परमेष्ठिओं को किया हुआ नमस्कार संसार समुद्र तरने के लिए नौका है, सद्गति के मार्ग में श्रेष्ठ रथ है, दुर्गति को रोकने वाला है, स्वर्ग में जाने का विमान है और मोक्ष महल की सीढ़ी है, परलोक की मुसाफिरी में पाथेय है, कल्याण सुख की लता का कंद है, दुःखनाशक है और सुखकारक है। अतः अवश्यमेव मेरे प्राण पंच परमेष्ठि के नमस्कार के साथ जायें, जिससे संसार में उत्पन्न होने वाले दुःखों को जलांजलि दूँ। इस प्रकार बुद्धिमान यदि हमेशा पंच नमस्कार के प्राणिधान में तत्पर रहता है तो अंतिम समय में उसका कहना ही क्या? अथवा पास में रहे दूसरों द्वारा बोलते इस नमस्कार मंत्र को बहुमान पूर्वक एकाग्र मन से उसे धारण करें। और निर्यामक साधु सुनावें तो वह चंदा विज्जापयन्ना, आराधना पयन्ना आदि संवेग जनक ग्रंथों को हृदय में सम्यग् धारण करें। यदि वायु आदि से आराधक को बोलना बंद हो जाये अथवा अत्यंत पीड़ा हो जाने से बोलने में अशक्य हो तो अंगुलि आदि से संज्ञा करें। निर्यामण कराने में तत्पर वह साधु भी अनशन करने वाले के नजदीक से भी अति नजदीक आकर कान को सुखकारी शब्दों से जब तक अंगोपांग आदि में गरमी दिखे तब तक अपना परिश्रम न गिनता हुआ मन से एकाग्र बनकर अति गंभीर आवाज करते संवेग भाव को प्रकट कराने वाले ग्रंथों को अथवा अस्खलित पंच नमस्कार मंत्र को लगातार सुनाता रहें। और भूखा जैसे इष्ट भोजन का, अति तृषातुर, स्वादिष्ट शीतल जल, और रोगी परम औषध का बहुमान करता है वैसे क्षपक उस श्रवण का बहुमान करता है। इस प्रकार शरीर बल क्षीण 392 For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-सारणा एवं कवच नानक तीसरा, चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला होने पर भी भाव बल का आलंबनकर धीर, पुरुषसिंह वह अखंड विधि से काल करें। वास्तव में यदि निश्चय से नजदीक में कल्याण होने वाला हो तभी निश्चय कोई महासात्त्विक पुरुष इस प्रकार कथनानुसार प्राण का त्याग करता है। क्योंकि ऐसा पंडितमरण अति दुर्लभ है। ____ इस प्रकार पाप रूपी अग्नि को शांत करने के लिए मेघ समान सद्गति को प्राप्त करने में उत्तम सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में दूसरा प्रतिपत्ति द्वार कहा है। अब यदि प्रतिपत्ति वाला भी किसी कारण किसी प्रकार से उस आराधना में क्षोभित हो तो उसे प्रशम करने के लिए अब सारणा द्वार कहते हैं ।।९४६८।। सारणा नामक तीसरा द्वार : संथारे को स्वीकार करने पर भी, आराधना में उद्यमशील दृढ़ धीरज और दृढ़ संघयण बल वाला भी अति दुष्कर समाधि की अभिलाषा रखनेवाला स्वभाव से ही संसार प्रति उद्वेग को धारण करने वाला और अत्यंत उत्तरोत्तर बढ़ते शुभाशय वाला होने पर भी क्षपक महामुनि को किसी कारण से अनेक जन्मों के कर्म बंध के दोष से वात आदि धातु के क्षोभ से अथवा बैठना, पासा बदलना आदि परिश्रम से साथल, पेट, मस्तक, हाथ, कान, मुख, दांत, नेत्र, पीठ आदि किसी भी अंग में ध्यान के अंदर विघ्नकारी वेदना प्रकट हो तो उसी समय गुणरूपी मणि से भरे हुए क्षपक मुनि वाहन के समान भागे अर्थात् दुर्ध्यान करे और इस तरह परिणाम नष्ट हो जाने से वह भयंकर संसार समुद्र में चिरकाल भ्रमण करेगा, उस समय पर उसे भग्न परिणामी जानकर भी निर्यामक केवल नाम ही धारण कर यदि उसकी उपेक्षा करें, तो इससे दूसरा अधर्मी-पापी कौन है? यदि मूढ़ इस तरह क्षपक की उपेक्षा करें, उस निर्यामक साधु के जो गुण पूर्व में इस ग्रंथ में वर्णन किये है, उस गुणों से वह भ्रष्ट हुआ है। अतः औषध के जानकार, साधुओं को स्वयं अथवा वैद्य के आदेशानुसार उस क्षपक को आरोग्यजनक औषध करना चाहिए। वेदना का मूल कारण वात, पित्त या कफ जो भी हो उसे जानकर प्रासुक द्रव्यों से शीघ्र उपयोग पूर्वक वेदना की शांति करें। मूत्राशय को सेक आदि से गरमी देकर अथवा विलेपन आदि शीत प्रयोग से तथा मसलकर, शरीर दबाकर आदि से क्षपक को स्वस्थ करें। ऐसा करने पर भी यदि अशुभ कर्म के उदय से उसकी वेदना शान्त न हो अथवा उसे तृषा आदि परीषहों का उदय हो तो वेदना से पराभव होते अथवा परीषह आदि से पीड़ित मुरझाया हुआ क्षपक यदि वह बोले, अथवा बकवास करें तो अति मुरझाते उसे निर्यामक आचार्य आगम के अनुसार इस तरह समझाये कि जैसे संवेग से पुनः सम्यक् चैतन्य वाला बनें। उसे पूछना कि तूं कौन है? नाम क्या है? कहाँ रहता है? अब कौन-सा समय है? तूं क्या करता है? कौन-सी अवस्था में चल रहा है? अथवा मैं कौन हूँ? ऐसा विचार कर। इस प्रकार साधर्मिक वात्सल्य अति लाभदायक है, ऐसा मानता निर्यामक आचार्य स्वयं इस प्रकार क्षपक को स्मरण करवाये चेतनमय बनावें। इस तरह कुमति के अंधकार को नाश करने में सूर्य के प्रकाश समान और सदगति में जाने का निर्विघ्न सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथे समाधि द्वार में यह तीसरा सारणा द्वार कहा। अब इस तरह जागृत करने पर भी क्षपक जिसके बिना धैर्य को धारण कर नहीं सके उस धर्मोपदेश स्वरूप कवच द्वार को कहते हैं ।।९४८६।। कवच नामक चौथा द्वार : निर्यामणा कराने में एक निपुण और इंगित आकार में कुशल निर्यामक गुरु दुःसह परीषहों से पराभूत और इससे मर्यादा छोड़ने के मनवाले क्षपक की विपरीत चेष्टा को जानकर निजकार्यों को छोड़कर स्नेह भरी मधुर 393 For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-कवच नामक चौथा द्वार वाणी से शिक्षा दे कि-हे सुविहित! धैर्य के बल वाला तूं यदि रोग और परीषहों को जीत लेगा तो संपूर्ण प्रतिज्ञा वाला, मरण में आराधक-पंडित मरण वाला होता है तथा जैसे हाथी महान स्तंभ को भी उखाड़ देता है, वैसे तूं अनशन की प्रतिज्ञा तोड़कर, महाव्रत समान गुरु का अपमान कर, अंकुश समान उनके सद्उपदेश का तिरस्कार कर, शरीर की सेवा करने वाले अपने साधुओं को भी परांग्मुख कर और अत्यंत भक्ति के भाव से तथा कुतूहल से बहुत लोगों के दर्शन करने आने वालों से विपरीत मुखकर, लज्जा रूपी उत्तम बंधन को तोड़कर भ्रमण करते तूं हे महाभाग! विविध ऋद्धिरूपी पुण्य अंकुरें जिसमें प्रकट हुए हैं और उत्तम मुनि रूपी पात्र के संग्रह से शोभित कांति-कीर्ति वाले शीलरूपी (चारित्र) सुंदर छायादार वन को जल्दी ही नष्ट कर देगा। समिति रूपी चारित्र के घर की दीवार को तोड़ देगा। गुप्तिरूपी समस्त वाड़ का भी छेदन कर देगा और सद्गुण रूपी दुकानों की पंक्ति को भी चूर्ण कर देगा। तब हे भद्र! अवश्यमेव (यह कुलवान नहीं है) ऐसा लोकापवाद रूपी धूल से तूं मलिन होगा, और अज्ञानी लोग से चिरकाल तक निंदा का पात्र बनेगा। राजादि सन्मान आदि पूर्व में मिला था, परंतु अब गुणों से भ्रष्ट होगा तो दुर्गति रूपी खड्ढे में गिरने से विनाश होगा। इसलिए हे भद्र! सम्यग् इच्छित कार्य की सिद्धि में विघ्नभूत कांटे से छेदन होने के समान इस असमाधिजनक विकल्प से अभी भी रूक जा! तथा क्षुल्लक कुमार मुनि के समान अब भी तूं अक्का के गीत के अर्थ का सम्यग् बुद्धि से विचारकर अर्थात् अक्का ने रात्री के अंतिम में कहा था 'समग्र रात्री में सुंदर गाया है सुंदर नृत्य किया है' अब अल्प काल के लिए प्रमाद मत कर। ऐसा सुनने से नाचने वाली क्षुल्लक मुनि, राजपुत्र आदि सावधान हुए। इस प्रकार आज दिन तक तूंने अपवाद बिना निर्दोष चारित्र रूपी कोठी की रक्षा की है और अब काकिणी के रक्षण में अल्पकाल के लिए भी निर्बलता को धारण करता है। बड़े समुद्र को पार किया है अब तुझे एक छोटा सा सरोवर पार करना है। मेरु को उल्लंघन किया है अब एक परमाणु रहा है ।।९५०० ।। इसलिए हे धीर! अत्यंत धैर्य को धारण कर। निर्बलता को छोड़ दो। चंद्र समान उज्ज्वल अपने कुल का भी सम्यक् विचारकर। प्रमाद रूपी शत्रु सेना के मल्ल के समान एक ही झपट में जीतकर इस प्रस्तुत विषय में ही यथाशक्ति पराक्रम प्रकट कर और अमूल्य इस धर्म गुणों की स्वाभाविक सुंदरता को परभव में उसका साथ होना तथा पुनः दुर्लभता का भी विचार कर। और हे क्षपक मुनि! तूंने जो चतुर्विध श्री संघ के मध्य में महा प्रतिज्ञा की है कि 'मैं आराधना करूँगा।' उसे याद कर। ऐसा कौन कुल अभिमानी कुलिन सुभट होगा कि जो लोक में कुलीन का गर्व करके युद्ध में प्रवेश मात्र से ही शत्रु से डरकर भाग जाएँ? ऐसा अभिमानी पूर्व में गर्व करके कौन साधु परीषह रूपी शत्रुओं के आगमन मात्र से ही खिन्न हो जाये? जैसे प्रथम अभिमान करने वाले मानी कुलीन को रण में मर जाना अच्छा है परंतु जिंदगी तक लोक में अपने को कलंकित करना अच्छा नहीं है, वैसे मानी और चारित्र में उद्यमशील साधु को भी मरना अच्छा है, परंतु निज प्रतिज्ञा के भंग से अन्य लोगों द्वारा दिये जाते कलंक को सहन करना अच्छा नहीं है। युद्ध में से भाग जाने वाले सुभट के समान कौन सा मनुष्य अपने एक जीव के लिए पुत्र पौत्रादि सर्व को कलंकित करें? इसलिए श्री जिनवचन के रहस्य को जानकर भी केवल द्रव्य प्राणों से जीने की इच्छा वाला तूं अपने को समुदाय और समस्त संघ को भी कलंकित मत करना। और यदि अज्ञानी जीव तीव्र वेदना से व्याकुल होने पर भी संसार वर्धक अशुभ पाप में धैर्य को धारण करते हैं, तो संसार के सर्व दुःखों के क्षय के लिए आराधना करते और विराधना जन्य भावी अति तीव्र दुःख विपाक को जानते साधु धीरता कैसे नहीं रखेगा? क्या तूंने यह सुना नहीं कि तिर्यंच होने पर भी शरीर संधि स्थान टूटने की पीड़ा से व्याकुल शरीरवाले भी छोटे बैलों के बछड़े कंबल संबल ने अनशन कर सिद्धि प्राप्त की। और तुच्छ शरीर वाले, तुच्छ बल वाले, और प्रकृति से भी तुच्छ 394 For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-कवच नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला तिथंच होने पर भी वैतरणी बंदर ने अनशन स्वीकार किया था। क्षुद्र चींटियों के द्वारा तीव्र वेदनावाला भी प्रतिबोधित हुए चण्ड कौशिक सर्प ने पंद्रह दिन का अनशन स्वीकारा था तथा सुकौशल की पूर्व जन्म की माता शेरनी के भव में तिर्यंच जन्म में भी भूख की पीड़ा को नहीं गिनकर इस तरह जाति स्मरण प्राप्तकर उसने अनशन स्वीकार किया। इस प्रकार यदि स्थिर समाधि वाले इन पशुओं ने भी अनशन को स्वीकार किया, तो हे सुंदर! पुरुषों में सिंह तूं उसे क्यों स्वीकार नहीं करता? और रानी के द्वारा वैसे उपसर्ग होने पर भी सुदर्शन सेठ गृहस्थ भी मरने को तैयार हुआ, परंतु स्वीकार किये व्रत से चलित नहीं हुआ। समग्र रात्री तक अति तीव्र वेदना उत्पन्न हुई, परंतु उस पर ध्यान नहीं दिया और स्थिर सत्त्व वाले चन्द्रावतंसक राजा ने कायोत्सर्ग के द्वारा सद्गति प्राप्त की। पशुओं के बाड़े में पादपोगमन अनशन चाणक्य ने स्वीकार किया था, सुबंधु से जलाई हुई आग से जलते हुए भी उन्होंने समाधि मरण को प्राप्त किया। इस प्रकार यदि गृहस्थ भी स्वीकार किये कार्य में इस प्रकार अखंड समाधि वाले होते हैं, तो श्रमणों में सिंह समान हे क्षपक! तूं भी उस समाधि को सविशेष सिद्ध कर। बुद्धिमान सत्पुरुष बड़ी आपत्तियों में भी अक्षुब्ध मेरु के समान अचल और समुद्र के समान गंभीर बनते हैं। निज पर भार उठाते स्वाश्रयी शरीर की रक्षा नहीं करता, बुद्धि से अथवा धीरज से अत्यंत स्थिर सत्त्व वाले शास्त्र कथित विहारादि साधना करते उत्तम निर्यामक की सहायता वाला, धीर पुरुष अनेक शिकारी जीवों से भरी हुई भयंकर पर्वत की खाई में फंसे हुए अथवा शिकारी प्राणियों की दाढ़ में पकड़े गये भी शरीर पर के राग को छोड़कर अनशन की साधना करते हैं। निर्दयता से सियार द्वारा भक्षण करते और घोर वेदना को भोगते भी अवंति सुकुमार ने शुभध्यान से आराधना की थी। मुगिल्ल नामक पर्वत में शेरनी से भक्षण होते हुए भी निज प्रयोजन की सिद्धि करने की प्रीति वाले भगवान श्री सुकौशल मुनि ने मरण समाधि को प्राप्त किया। ब्राह्मण श्वसुर से मस्तक पर अग्नि जलाने पर भी काउस्सग्ग में रहे भगवान गजसुकुमाल ने समाधि मरण प्राप्त किया। इसी तरह साकेतपुर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर रहे भगवान कुरुदत्त पुत्र ने भी गायों का हरण होने से उसके मालिक ने चोर मान कर क्रोध से अग्नि जलाने पर भी मरण समाधि को प्राप्त की। राजर्षि उदायन ने भी भयंकर विष वेदना से पीड़ित होते हुए भी शरीर पीड़ा को नहीं गिनते हुए मरण समाधि को प्रास की। नाव में से गंगा नदी में फेंकते श्री अर्णिका पुत्र आचार्य ने मन से दुःखी हुए बिना शुक्ल ध्यान से अंतकृत केवली होकर आराधना कर मुख्य हेत को प्राप्त किया। श्री धर्मघोष सरि चंपा नगरी में मास क्षक्षण करके भयंकर प्यास प्रकट हुई और गंगा के किनारे पानी था, फिर भी अनशन द्वारा समाधि मरण को प्राप्त किया। रोहिड़ा नगर में शुभ लेश्या वाले ज्ञानी स्कंद कुमार मुनि ने कौंच पक्षी से भक्षण होते हुए उस वेदना को सहन करके समाधि मरण प्राप्त किया ।।९५३२।। हस्तिनापुर में कुरुदत्त ने दोहनी' में शिंग की फली के समान जलते हुए उसकी पीड़ा सहन करके समाधि मरण प्राप्त किया। कुणाल नगरी में पापी मंत्री ने वसति जलाते ऋषभ सेन मुनि भी शिष्य परिवार सहित जलने पर भी आराधक बनें थें। तथा पादपोपगमन वाले वज्रस्वामी के शिष्य बाल मुनि ने भी तपी हुई शिला पर मोम के समान शरीर गलते आराधना प्राप्त की थी। मार्ग भूले हुए और प्यास से मुरझाते धनशर्मा बाल मनि भी नदी का जल अपने आधीन होते हुए भी उसे पिये बिना अखंड समाधि से स्वर्ग को गये। एक साथ में मच्छरों ने शरीर में से रुधिर पीने पर उन मच्छरों को रोके बिना सम्यक् सहन करते सुमनभद्र मुनि स्वर्ग गये। महर्षि मेतारज सोनी द्वारा मस्तक पर गीला चमड़ा कसकर बाँध दिया गया, आँखें बाहर निकल गईं फिर भी अपूर्व 1. दोणिमंत म्मि 395 For Personal & Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-कवच नामक चौथा द्वार समाधि के द्वारा अंतकृत केवली होकर मोक्ष गये। तीन जगत में अद्वितीय मल्ल-अनंत बली भगवान श्री महावीर देव ने बारह वर्ष विविध उपसर्गों के समूह को सम्यक् सहन किया। भगवान सनत्कुमार ने खुजली, ज्वर, श्वास. शोष. भोजन की अरुचि, आँख में पीडा और पेट का दर्द ये सात वेदना सात सौ वर्ष तक सहन की। माता के वचन से पुनः चेतना-ज्ञान वैराग्य को प्राप्त कर शरीर की अति कोमलता होने से चिरकाल चारित्र के पालन में असमर्थ भी धीर भगवान अरणिक मुनि भी अग्नि तुल्य तपी हुई शीला पर पादपोपगमन अनशन करके रहे और केवल एक ही मुहूर्त में सहसा शरीर को गलते हुए श्रेष्ठ समाधि में काल धर्म प्राप्त किया। हेमंत ऋतु में रात्री में वस्त्र रहित शरीरवाले, तपस्वी सूखे शरीर वाले, नगर और पर्वत के बीच मार्ग में आस-पास काउस्सग्ग में रहे श्री भद्रबाहु सूरि के चार शिष्यों का शरीर शीत लहर से चेष्टा रहित हो गया फिर भी समाधि से सद्गति को प्राप्त की, उनको हे सुंदर! क्या तूंने नहीं सुना? उस काल में कुंभकार कृत नगर में महासत्त्व वाले आराधना करते खंदक सूरि के भाग्यशाली पाँचसौ शिष्यों को दंडक राजा के पुरोहित पापी पालक ब्राह्मण ने कोल्हू में पीला था, फिर भी समाधि को प्राप्त किया था। क्या तूंने नहीं सुना? भद्रिक, महात्मा कालवैशिक मुनि बवासीर के रोग से तीव्र वेदना भोगते हुए विचरते मुद्गल शैल नगर में गये, वहाँ उनकी बहन ने बवासीर की औषधी देने पर भी उसे दुर्गति का कारण मानकर चिकित्सा न कर, चारों आहार का त्याग करके, एकांत प्रदेश में काउस्सग्ग में रहे और वहाँ तीव्र भूख से 'खि-खि' आवाज करती बच्चों के साथ सियारणी आकर उनका भक्षण करने पर भी आराधक बनें ।।९५४९।। तथा जितशत्रु राजा के पुत्र कुमार अवस्था में दीक्षित हुए थे। उनका नाम भद्र मुनि था। वे विहार करते शत्रु के राज्य में श्रावस्ती नगर में गये। वहाँ किसी राजपुरुषों ने जाना और पकड़कर मारकर चमड़ी छीलकर चोट में नमक भरकर दर्भ घास लपेटकर छोड़ दिया। उस समय उनको अतीव महा वेदना हुई, फिर भी उसे सम्यक् सहन करते समाधिपूर्वक ही काल धर्म प्राप्त किया। एक साथ में अनेक अति तीक्ष्ण मुख वाली चींटियाँ भगवान चिलाती पुत्र को खाने लगीं, उनकी वेदना सहन करते समाधि मरण को स्वीकार किया। प्रभु की भक्ति से सुनक्षत्र मुनि और सर्वानुभूति मुनि ने गोशाले को हित शिक्षा दी थी परंतु उसे सुनकर क्रोधायमान होकर गोशाले ने उसी समय प्रलय काल के अग्नि समान तेजोलेश्या से उन्हें जलाया फिर भी उन दोनों मुनि ने आराधना कर समाधि मरण प्राप्त किया। तथा हे सुंदर! क्या तूंने उग्र तपस्वी, गुण के भंडार, क्षमा करने में समर्थ उस दंड राजा का नाम नहीं सुना? कि मथुरापुरी के बाहर यमुनावंक उद्यान में जाते दुष्ट यमुना राजा ने उस महात्मा को आतापना लेते देखकर पापकर्म के उदय से क्रोध उत्पन्न हुआ तीक्ष्ण बाण की अणी द्वारा मस्तक ऊपर सहसा प्रहार किया और उनके नौकरों ने भी पत्थर मारकर उसके ऊपर ढेर कर दिया फिर भी आश्चर्य की बात है कि उस मुनि ने समाधि से उसे अच्छी तरह से सहन किया कि जिससे सर्व कर्म के समह को खत्म कर अंतकृत केवली हए ।।९५५९।। अथवा क्या कौशाम्बी निवासी यज्ञदत्त ब्राह्मण का पुत्र सोमदेव का तथा उसका भाई सोमदत्त का नाम नहीं सुना? उन दोनों ने श्री सोमभूति मुनि के पास में सम्यग् दीक्षा लेकर संवेगी और गीतार्थ हुए। फिर विचरते हुए प्रतिबोध देने के लिए उज्जैन गये और माता, पिता के पास पहुंचे। वहाँ ब्राह्मण भी अवश्यमेव शराब पीते थे। बुजुर्गों ने मुनियों को अन्य द्रव्यों से युक्त शराब दिया और साधुओं ने अज्ञानता से 'अचित्त पानी ही है' ऐसा मानकर साधुओं ने उसे विशेष प्रमाण में पीया और उनको शराब का असर हुआ और काफी पीड़ित हुए, फिर उसका विकार शांत होते सत्य को जानकर विचार करने लगे कि-धिक्कार है कि महा प्रमाद के कारण ऐसा यह अकार्य किया। इस तरह वैराग्य को प्राप्त कर महाधीरता वाले उन्होंने चारों आहार का त्यागकर नदी के किनारे पर अति 396 For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-कवच नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला अव्यवस्थित लकड़ी के समूह ऊपर पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर रहे, उस समय बिना मौसम वर्षा से नदी की बाढ़ में बहते उस काष्ठ के साथ समुद्र में पहुँचे वहाँ उनको जलचर जीवों से भक्षण तथा जल की लहर से उछलने आदि दुःख सहन करते अखंड अनशन का पालनकर स्थिर सत्त्ववाले सम्यक् समाधि प्राप्त कर वे स्वर्ग में गये। इसलिए यदि इस प्रकार असहायक और तीव्र वेदना वाले भी सर्वथा शरीर की रक्षा नहीं कर उन सर्व ने समाधि मरण प्राप्त किया है। तो सहायक साधुओं द्वारा सार संभाल लेते और संघ तेरे समीप में है फिर भी तूं आराधना क्यों नहीं कर सकता? अर्थात् अमृत तुल्य मधुर कान को सुखकारक श्री जिन वचन को सुनानेवाला तुझे संघ बीच में रहकर समाधि मरण की साधना निश्चय ही शक्य है। तथा नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवलोक में रहकर तूंने जो सुख दुःख को प्राप्त किया है उसमें चित्त लगाकर इस तरह विचार कर।।९५७१।। नरक में काया के कारण से तूं ने शीत, उष्ण आदि अनेक प्रकार की अति कठोर वेदनाएँ अनेक बार प्राप्त की हैं। यदि पानी के लोट समान लोहे के गोले को कोई उष्ण स्पर्श वाली नरक में फैंके तो निमेष मात्र में उस नरक की जमीन पर पहुँचने के पहले बीच में गल जाता है ऐसी तेज गरमी नरक में होती है। और उसी तरह उतना ही प्रमाण वाला जलते लोहे के गोले को यदि कोई शीत स्पर्श वाली नरक में फेंके तो वह भी वहाँ नरक भूमि के स्पर्श बिना बीच में ही निमेष मात्र में सड़कर बिखर जाता है ऐसी अतीव ठण्डी में तूं दुःखी हुआ और नरक में परमाधामी देव ने तुझे शूली, कूट शाल्मली वृक्ष, वैतरणी नदी, उष्ण रेती और असि वन में दुःखी किया तथा लोहे के जलते अंगारे खिलाते तूंने जो दुःखों को भोगा, सब्जियों के समान पकाया, पारा के समान गलाया, मांस के टुकड़े के समान टुकड़े-टुकड़े काटा, अथवा चूर्ण के समान चूर्ण किया. तथा गरमागरम तेल की कढाई में तला, कुंभी में पकाया, भाले से भेदन किया, करवत से चीरा, उसका विचार कर। तिर्यंच जन्म में :- भूख, प्यास, ताप, ठण्डी सहन की, शूली में चढ़ाया गया, अंकूश में रहा, नपुंसक बनाया गया, दमन करना इत्यादि तथा मार बंधन और मरण से उत्पन्न हुए वे कठोर दुःखों का तूं विचार कर। मनुष्य जन्म में :- प्रियजनों का विरह, अप्रिय का संगम, धन का नाश, स्त्री से पराभव, तथा दरिद्रता का उपद्रव इत्यादि होने से जो दुःख भोगा, और छेदन, मुण्डन, ताड़न, बुखार, रोग, वियोग, शोक, संताप आदि शारीरिक, मानसिक और एक साथ वे दोनों प्रकार के दुःखों को भोगा उसका विचार कर। देव जन्म में :- च्यवन की चिंता और वियोग से पीड़ित, देवों के भवों में भी इन्द्रादि की आज्ञा का बलात्कार, पराभव, ईर्ष्या, द्वेष आदि मानसिक दुःखों का विचार कर। और सहसा च्यवन के चिन्हों को जानकर दुःखी होते, विरह की पीड़ा से चपल नेत्र वाला देव भी देव की संपत्ति को देखते चिंता करता है कि-सुगंधी चंदनादि से व्याप्त, नित्य प्रकाश वाले देवलोक में रहकर अब मैं दुर्गंधमय तथा महा अंधकार भरे गर्भाशय में किस तरह रहूँगा? और दुर्गंधी मल, रुधिर, रस-धातु आदि अशुचिमय गर्भ में रहकर संकोचमय प्रत्येक अंग वाला मैं कटिभाग के सांकड़ी योनि में से किस तरह निकलूँगा? तथा नेत्रों के अमृत की वृष्टि तुल्य अप्सराओं के मुख चंद्र को देखकर हा! शीघ्र माया से गर्जना करती मनुष्य स्त्री के मुख को किस तरह देखूगा? एवं सुकुमार और सुगंधी मनोहर देहवाली देवियों को भोगकर अब अशुचिमय घड़ी समान स्त्री को किस तरह भोगूंगा? पूर्व में दुर्गंधी मनुष्य शरीर की गंध से दूर भागता था। अब उस अपवित्र मनुष्य के शरीर में जन्म लेकर कैसे रहुँ? हा! दीनों का उद्धार नहीं किया, धर्मिजनों का वात्सल्य नहीं किया, और हृदय में श्री वीतराग देव को धारण नहीं किया, मैंने जन्म को गंवा दिया, मैंने मेरु पर्वत, नंदीश्वर आदि में शाश्वत चैत्यों में श्री जिन कल्याणक के समय 397 For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-समता नानक पाँचवा द्वार पर, पुण्य और कल्याण कारक महोत्सव नहीं किया, विषयों के विष से मूर्च्छित और मोह रूपी अंधकार से अंध बनकर मैंने श्री वीतराग देवों का वचन अमृत नहीं पीया, हाय! देव जन्म को निष्फल गंवा दिया। इस प्रकार च्यवन समय में देव के वैभव रूपी लक्ष्मी को याद करके हृदय चुराता हो, जलता हो, कंपायमान होता हो, पीलता हो, अथवा चीरता हो, टकराता हो, या तड़-तड़ टूटता हो इस प्रकार देव विमान के एक विभाग में से दूसरे विभाग में, एक वन से दूसरे वन में, एक शयन में से दूसरे शयन में लेटता है, परंतु तपे हुए शिला तल के ऊपर उछलते मच्छर के समान किसी तरह शांति नहीं। हा! पुनः देवियों के साथ में उस भ्रमण को, उस क्रीड़ा को, उस हास्य को और उसके साथ निवास को अब मैं कब देखूगा? इस प्रकार बड़बड़ाते प्राणों को छोड़ता है। ऐसे च्यवन के समय भय से काँपते देवों की विषम दशा को जानते धीर पुरुष के हृदय में धर्म बिना अन्य क्या स्थिर होता है? इस प्रकार पराधीनता से चार गति रूप इस संसार रूपी जंगल में अनंत दुःख को सहन करके हे क्षपक! अब उससे अनतवाँ भाग जितना इस अनशन के दुःख को स्वाधीनता से प्रसन्नतापूर्वक सम्यक् सहन कर। और तुझे संसार में अनंतीबार ऐसी तृषा प्रकट हुई थी कि उसको शांत करने के लिए सारी नदी और समुद्र भी समर्थ नहीं हैं। संसार में अनंत बार ऐसी भूख तुझे प्रकट हुई थी कि जिसे शांत करने के लिए समग्र पुद्गल समूह भी शक्तिमान नहीं है। यदि तूंने पराधीनता से उस समय ऐसी प्यास और भूख को सहन की थी अब तो 'धर्म है' ऐसा मानकर स्वाधीनता से तं इस पीडा को क्यों नहीं सहन करता है? धर्म श्रवण रूप जल से. हित शिक्षा रूपी भोजन से और ध्यान रूपी औषध से सदा सहायक युक्त तुझे कठोर भी वेदना को सहन करना योग्य है। और श्री अरिहंत, सिद्ध और केवली के प्रत्यक्ष सर्व संघ के साक्षी पूर्वक नियम किया था, उसका भंग करने के पूर्व मरना अच्छा है ।।९६००।। यदि उस । यदि उस समय तंने श्री अरिहंतादि को मान्य किया हो तो हे क्षपकमनि! उसके साक्षी से पच्चक्खाण किया था उसे तोड़ना योग्य नहीं है। जैसे चाहकर (इच्छा पूर्वक) राजा का अपमान करने वाला मनुष्य महादोष का धारक बनता है वह अपराधी माना जाता है वैसे श्री जिनेश्वरादि की आशातना करने वाला भी महादोष का धारण करनेवाला बनता है। नियम किये बिना मरनेवाला ऐसे दोषों को प्राप्त नहीं करता है। नियम करके उसी का ही भंग करने से अबोधि बीज रूप दोष को प्राप्त करता है। तीन लोक में सारभूत इस संलेखना के परिश्रम और दुष्कर साधुत्व को प्राप्त कर अल्प सुख के लिए नाश मत कर। धीरपुरुषों से कथित और सत्पुरुषों ने आचरण किये हुए इस संथारे को स्वीकारकर बाह्य पीड़ा से निरपेक्ष धन्य पुरुष संथारे में ही मरते हैं। पूर्व में संक्लेश को प्राप्त करने पर भी उसे इस तरह समझाकर पुनः उत्साही बनाये, और उस दुःख को पर देह का दुःख मानें। ऐसा मानकर और महाक्षपक का उत्सर्ग मार्ग रूप (कवच) रक्षण होता है। आगाढ़ कारण से तो अपवाद रूप रक्षण भी करना योग्य है। इस प्रकार गुणमणि को प्रकट करने के लिए रोहणाचल की भूमि समान और सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार के अंदर कवच (रक्षण) नामक चौथा अंतर द्वार कहा, अब परोपकार मैं उद्यमशील निर्यामक गुरु की वाणी से अनशन के रक्षण को करते क्षपक जो आराधना करता है उसे समता द्वार से करने का कहा है ।।९६९०।। समता नामक पाँचवा द्वार : अति मजबूत कवच वाला बख्तरधारी महासुभट के समान, निज प्रतिज्ञा रूपी हाथी ऊपर चढ़कर आराधना रूपी रण मैदान के सन्मुख आया हुआ, पास में प्रशंसा करते साधु रूपी मंगल पाठकों द्वारा प्रकट 398 For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-ध्यान नामक छट्ठा द्वार . श्री संवेगरंगशाला उत्साह वाला, वैराग्यजनक ग्रंथों की वाचना रूप युद्ध के बाजों की ध्वनी से हर्षित हुआ, संवेग प्रशम-निर्वेद आदि दिव्य शस्त्रों के प्रभाव से आठ मद स्थान रूप निरंकुश सुभटों की श्रेणी को भगाकर, दुष्ट आक्रमण करते दुर्जय हास्यादि छह निरंकुश हाथियों के समूह को बिखेरते, सर्वत्र भ्रमण करते इन्द्रियों रूपी घोड़ों के समूह को रोकते, अति बलवान् भी दुःसह परीषह रूपी पैदल सैन्य को हराते और तीन जगत से भी दुर्जय महान् मोह राज का नाश करते और इस प्रकार शत्रु सेना को जीतने से प्राप्त निष्पाप जय रूपी यश पताका वाले और सर्वत्र राग रहित क्षपक सर्व विषय में समभाव को प्राप्त करता है। वह इस प्रकार : समता का स्वरूप :- समस्त द्रव्य के पयार्यो की रचनाओं में नित्य ममता रूपी दोषों का त्यागी, मोह और द्वेष को विशेषतया नमाने वाला क्षपक सर्वत्र समता को प्राप्त करता है। इष्ट पदार्थों के संयोग, वियोग में, अथवा अनिष्टों के संयोग वियोग में रति, अरति की उत्सुकता, हर्ष और दीनता को छोड़ता है। मित्र ज्ञातिजन, शिष्य साधर्मिकों में अथवा कुल में भी पूर्व में उत्पन्न हुआ उस राग द्वेष का त्याग करे। और क्षपक देव और अभिलाषा न करे क्योंकि विषयाभिलाषा को विराधना का मार्ग कहा है। राग द्वेष रहित आत्मा वह क्षपक, इष्ट और अनिष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में तथा इस लोक परलोक में, या जीवन मरण में और मान या अपमान में सर्वत्र समभाव वाला बनें। क्योंकि राग द्वेष क्षपक को समाधि मरण का विराधक है। इस प्रकार से समस्त पदार्थों में समता को प्राप्तकर विशुद्ध क्षपक आत्मा मैत्री, करुणा, प्रमोद और उपेक्षा को धारण करे। उसमें मैत्री समस्त जीव राशि में, करुणा दुःखी जीवों पर, प्रमोद अधिक गुणवान जीवों में और उपेक्षा अविनीत जीवों में करे। दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य और समाधि योग को त्रिविध से प्राप्त कर ऊपर के सर्व क्रम को सिद्ध करें। इस प्रकार कुनय रूपी हिरणों की जाल समान, सद्गति में जाने के लिए सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नामक आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में समता नाम का पाँचवां अंतर द्वार कहा है। अब समता में लीन भी क्षपक मुनि को अशुभ ध्यान को छोड़कर सम्यग् ध्यान में प्रयत्न करना चाहिए, अतः ध्यान द्वार को कहते हैं ।।९६२८।। ध्यान नामक छट्ठा द्वार : राग द्वेष से रहित जितेन्द्रिय, निर्भय, कषायों का विजेता और अरति-रति आदि मोह का नाशक संसार रूप वृक्ष के मूल को जलाने वाला, भव भ्रमण से डरा हुआ, क्षपक मुनि निपुण बुद्धि से दुःख का महाभंडार सदृश आर्त्तध्यान और रौद्र ध्यान को शास्त्र द्वारा जानकर त्याग करें और क्लेश का नाश करने वाला चार प्रकार के धर्म ध्यान तथा चार प्रकार के शुक्ल ध्यान को शुभ ध्यान जानकर ध्यान करें। परीषहों से पीड़ित भी आर्त, रौद्र ध्यान का ध्यान न करें, क्योंकि ये दुष्ट ध्यान सुंदर एकाग्रता से विशुद्ध आत्मा का भी नाश करते हैं। चार ध्यान का स्वरूप :- श्री जिनेश्वर भगवान ने १-अनिष्ट का संयोग, २-इष्ट का वियोग, ३-व्याधि जन्य पीड़ा, और ४-परलोक की लक्ष्मी के अभिलाषा से आध्यान (आर्त्त-दुःखी होने का ध्यान) चार प्रकार का कहा है। और तीव्र कषाय रूपी भयंकर १-हिंसानुबंधि, २-मृषानुबंधि, ३-चौर्यानुबंधि और ४-धनादि संरक्षण के परिणाम। इस तरह रौद्र ध्यान को भी चार प्रकार का कहा है। आर्त ध्यान विषयों के अनुराग वाला होता है, रौद्र ध्यान हिंसादि का अनुराग वाला होता है, धर्म ध्यान धर्म के अनुराग वाला और शुक्ल ध्यान राग रहित होता है। चार प्रकार के आर्त ध्यान और चार प्रकार के रौद्र ध्यान में जो भेद हैं उन सबकों अनशन में रहे क्षपक साधु अच्छी तरह जानता है। उसके बाद ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य रूपी चार भावनाओं से युक्त चित्तवाला 399 For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-ध्यान नामक छट्टा द्वार क्षपक चारों प्रकार के श्रेष्ठ धर्म ध्यान का चिंतन करे, प्रथम आज्ञा विचय, दूसरा अपाय विचय, तीसरा विपाक और चौथा संस्थान विचय, इस प्रकार क्षपक मुनि चार प्रकार के धर्म ध्यान का चिंतन करे। उसमें-१. आज्ञा विचय - सूक्ष्म बुद्धि से श्री जिनेश्वर की आज्ञा को निर्दोष, निष्पाप, अनुपमेय, अनादि अनंत, महा अर्थवाली, चिरस्थायी, शाश्वत, हितकर, अजेय, सत्य, विरोध रहित, सफलतापूर्वक मोह को हरने वाली, गंभीर युक्तियों से महान्, कान को प्रिय, अबाधित, महा विषय वाली और अचिंत्य महिमा वाली है, ऐसा चिंतन करें। २. अपाय विचय - इन्द्रिय, विषय, कषाय और आश्रवादि पच्चीस क्रियाओं में, पाँच अव्रत आदि में वर्तन, मोहमूढ़ जीव के भावि नरकादि जन्मों में विविध अपाय का चिंतन करें। ३. विपाक विचय में - वह क्षपक मुनि मिथ्यात्वादि बंध हेतु वाली कर्मों की शुभाशुभ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और उसके तीव्र, मंद, अनुभव-रस, इस प्रकार कर्म के चारों विपाकों का चिंतन करें। ४. संस्थान विचय में – श्री जिनेश्वर कथित पंच अस्तिकाय स्वरूप अनादि अनंत लोक में अधोलोक आदि तीन भेद को तथा तिर्छलोक में असंख्य द्वीप समद्र आदि का विचार करें। और ध्यान पूर्ण होते नित्य अनित्यादि भावना से चिंतन वाला बनें, वह भावना सुविहित मुनियों को आगम के कथन से प्रसिद्ध है। वह इस ग्रंथ में चौथे द्वार के अनुशास्ति द्वार में कही है। क्षपक जब इस धर्म ध्यान को पूर्ण करे तब शुद्ध लेश्या वाला चार प्रकार के शुक्ल ध्यान का ध्यान करें। श्री जिनेश्वर प्रथम शुक्ल ध्यान 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' कहते हैं, दूसरे शुक्ल ध्यान को 'एकत्व वितर्क अविचार' कहते हैं, तीसरे शुक्ल ध्यान को 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' कहते हैं और चौथे शुक्ल ध्यान को 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति' कहते हैं। उसमें पृथक् अर्थात् विस्तार ऐसा अर्थ होता है इसलिए पृथक्त्व अर्थात् विस्तारपूर्वक ऐसा अर्थ होगा। वह विस्तारपूर्वक तर्क करे उसे वि+तर्क-वितर्क कहते हैं। यहाँ प्रश्न करते हैं कि विस्तारपूर्वक इसका क्या मतलब? उत्तर देते हैं कि-परमाणु जीव (जीव-जड़) आदि किसी एक द्रव्य में, उत्पत्ति, स्थिति और विनाश अथवा रूपी, अरूपी आदि उसके विविध पर्यायों का विस्तारपूर्वक उसे जो अनेक प्रकार के नय भेद द्वारा विचार करना वह पृथक्कत्व है. वितर्क अर्थात श्रत के लिए पूर्वगत श्रत के अनसार चिंतन करना अर्थात अन्योन्य पर्यायों में चिंतन करना यानि अर्थ में से व्यंजन में और व्यंजन में से अर्थ में संक्रमण करना वही चिंतन कहलाता है। प्रश्न करते हैं कि अर्थ और व्यंजन का क्या भावार्थ है? उत्तर देते हैं कि-द्रव्य (वाच्य पदार्थ) उस अर्थ और अक्षरों का नाम वाचक, वह व्यंजन तथा मन, वचन आदि योग जानना, उसे योगों द्वारा अन्यान्य अवान्तर भेदपर्यायों में जो प्रवेश करना उसे निश्चय से विचार कहा है, उस विचार से सहित को सविचार कहा है अर्थात् पदार्थ और उसके विविध पर्याय में, शब्द में अथवा अर्थ में मन आदि विविध योगों के द्वारा पूर्वगत श्रुत के अनुसार जो चिंतन किया जाय वह विचार 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' नामक प्रथम शुक्ल ध्यान जानना। एकत्व-वितर्क में एक ही पर्याय में अर्थात् उत्पाद, स्थिति, नाश आदि में किसी भी एक ही पर्याय में ध्यान होता है, अतः एकत्व और पूर्वगत श्रुत, उसके आधार पर जो ध्यान हो वह वितर्क युक्त है और अन्यान्य व्यंजन, अर्थ अथवा योग को धारण संक्रमण विचरण गमन नहीं करने के लिए अविचार कहा है। इस तरह पवन रहित दीपक के समान स्थिर दूसरे शुक्ल ध्यान को 'एकत्व वितर्क अविचार' कहा है। केवली को सूक्ष्म काययोग में योग निरोध करते समय तीसरा 'सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति' ध्यान होता है और अक्रिया (व्युच्छिन्न क्रिया) अप्रतिपाती यह चौथा ध्यान है, उसे योग निरोध के बाद शैलेशी में होता है। क्षपक को कषाय के साथ युद्ध में यह ध्यान आयुद्ध रूप है। शस्त्र रहित सभट के समान ध्यान रहित क्षपक यद्ध में कर्मों को नहीं जीत सकता है। इस प्रकार ध्यान करते क्षपक जब बोलने में अशक्य बनता है तब निर्यामकों को अपना अभिप्राय बताने के लिये हुँकार, अंजलि, भृकुटी अथवा अंगुलि 400 For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-लेश्या नामक सातवाँ द्वार-छह लेश्या का दृष्टांत श्री संवेगरंगशाला द्वारा या नेत्र के संकोच आदि करके अथवा मस्तक को हिलाकर आदि इशारे से अपनी इच्छा को बतलावे। तब निर्यामक क्षपक की आराधना में उपयोग को दे, सावधान बनें। क्योंकि श्रुत के रहस्य के जानकार वह संज्ञा करने को जान सकता है। इस प्रकार समता को प्राप्त करते तथा प्रशस्त ध्यान को ध्याते और लेश्या से विशुद्धि को प्राप्त करते वह क्षपक मुनि गुण श्रेणि के ऊपर चढ़ता है। इस प्रकार धर्मशास्त्र रूप मस्तक मणि तुल्य सद्गति में जाने के सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में ध्यान नाम का छट्ठा अंतर द्वार कहा है। अब ध्यान का योग होने पर भी शुभाशुभ गति तो लेश्या की विशेषता से ही होती है, अतः लेश्या द्वार को कहते हैं ।।९६६५।।। लेश्या नामक सातवाँ द्वार : __ कृष्ण, नील, कपोत, तेजस्, पद्म और शुक्ल, ये छह प्रकार की लेश्या हैं। ये विविध रूप वाली कर्म दल के सानिध्य से स्फटिक मणि समान स्वभाव से निर्मल भी जीव को मलिन कर देती है, जो जामुन खाने वाले छह पुरुषों के परिणाम की भिन्नता से समझ सकते हैं, जो हिंसादि भावों की विविधता के परिणाम वाली हो, उसे लेश्या कहते हैं। इस पर दो दृष्टांत कहते हैं। वह इस प्रकार : छह लेश्या का दृष्टांत किसी एक जंगल में भूख से व्याकुल छह पुरुष घूम रहे थे। वहाँ मानों आकाश के आखिर विभाग को खोजने के लिए ऊँचा बढ़ा न हो इस प्रकार विशाल मूल वाला, अच्छी तरह पके हुए फलों के भार से नमी हुई टहनी वाला, फैली हुई बहुत छोटी डाली वाला, सर्व प्रकार से जामुन गुच्छों से ढका हुआ, प्रत्येक गुच्छे में सुंदर दिखने वाले पक्के ताजे सुंदर जामुन वाला, तथा पवन के कारण नीचे गिरे हुए फल वाली भूमि वाला, कभी पूर्व में नहीं देखा हुआ साक्षात् कल्पवृक्ष के समान एक जामुन के वृक्ष को देखा। इसे देखकर परस्पर वे कहने लगे कि-अहो! किसी भी तरह अति पुण्योदय से इस वृक्ष को हमने प्राप्त किया है। इसलिए पधारो! थोड़े समय में इस महावक्ष के ये अमत समान फलों को खायेंगे। सभी ने खाने का स्वीकार किया। परंत फलों को किस प्रकार खाना चाहिए? तब वहाँ एक बोला कि-ऊपर चढ़ने वाले को प्राण का संदेह है, अतः वृक्ष को मूल में से काटकर नीचे गिरा देना चाहिए। दूसरे ने कहा कि इस तरह बड़े वृक्ष को संपूर्ण रूप में काटने से हमें क्या लाभ होगा? हमें फल खाने हैं तो सिर्फ इसकी एक बड़ी शाखा काटकर गिरा दो। तीसरे ने कहा कि-बड़ी शाखा तोड़ने से क्या लाभ? सिर्फ उसकी एक छोटी टहनी को ही काट दो। चौथा बोला कि-सिर्फ उसके गुच्छे तोड़ने से क्या फायदा? केवल पके हुए और खाने योग्य फलों को ही तोड़ लेना चाहिए। छट्ठा बोला कि-फल तोड़ने की क्या आवश्यकता है? जितने फलों की आवश्यकता है, उतने पके फल तो इस वृक्ष के नीचे गिरे हुए हैं, उन्हीं से भूख मिटाकर प्राणों का निर्वाह हो जायगा। इस दृष्टांत का उपनय इस प्रकार है कि-पेड़ को मूल से काटने वाला पुरुष कृष्ण लेश्या वाला है। बड़ी शाखा काटने वाला पुरुष नील लेश्या वाला है। छोटी टहनी काटने वाला कपोत लेश्या वाला है। और गुच्छों को तोड़ने वाला तेजो लेश्या वाला है, ऐसा जानना। वृक्ष के ऊपर रहे पक्के फलों को खाने की इच्छा वाला पद्म लेश्या वाला है और स्वयं नीचे गिरे पड़े फलों को ग्रहण करने का उपदेश देनेवाला शुक्ल लेश्या में रहा हुआ जानना चाहिए। 401 For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-दूसरा दृष्टांत-फल प्रापि नामक आठवाँ द्वार दूसरा दृष्टांत ___ गाँव को लूटनेवाले छह चोर थें। उनमें एक बोला कि-मनुष्य या पशु जो कोई देखो उन सबको मारो। दूसरे ने कहा-पशु को क्यों मारें? केवल सर्व मनुष्यों को ही मारें। तीसरे ने कहा कि-स्त्री को छोड़कर केवल पुरुष को ही मारें। चौथे ने कहा-केवल शस्त्रधारी को ही मारना चाहिए। पाँचवें ने कहा-जो शस्त्रधारी हमारे ऊपर प्रहार करे उसे ही मारना चाहिए। छट्ठा बोला कि-एक तो हम निर्दय बनकर उनका धन लूट रहे हैं और दूसरे मनुष्य को मार रहे हैं अहो! यह कैसा महापाप है? ऐसा मत करो, केवल धन को ही लेना चाहिए। क्योंकि दूसरे जन्म में तुमको भी ऐसा होगा। इसका उपनय इस प्रकार है :- जो गाँव को मारने को कहता है वह कृष्ण लेश्या वाला है। दूसरा नील लेश्या वाला, तीसरा कपोत लेश्या वाला, चौथा तेजो लेश्या वाला, पाँचवाँ पद्म लेश्या वाला और छट्ठा अंतिम शुक्ल लेश्या में रहा है। ___ इसलिए हे क्षपक मुनि! अति विशुद्ध क्रिया वाला विशिष्ट संवेग प्राप्त करने वाला तूं कृष्ण, नील और कपोत अप्रशस्त लेश्या को छोड़ दे और अनुत्तर श्रेष्ठतर-श्रेष्ठतम संवेग को प्राप्त कर तूं क्रमशः तेजोलेश्या, पद्म और शुक्ल लेश्या इन तीन सुप्रशस्त लेश्याओं को प्राप्त कर। जीव को लेश्या शुद्धि परिणाम की शुद्धि से होती है और परिणाम की विशुद्धि मंद कषाय वालों को होती है। कषायों की मंदता बाह्य वस्तुओं के राग को छोड़ने वाले को होती है अतः शरीर आदि में राग बिना का जीव लेश्या शुद्धि को प्राप्त करता है। जैसे छिलके वाले धान की शुद्धि नहीं होती है वैसे सरागी जीव को लेश्या शुद्धि नहीं होती है। यदि जीव शुद्ध लेश्याओं के विशुद्ध स्थानों में रहकर काल करे तो वह विशिष्ट आराधना को प्राप्त करता है। इसलिए लेश्या शुद्धि के लिए अवश्यमेव प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि जीव जिस लेश्या में मरता है उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। और लेश्या रहित परिणाम वाली आत्मा ज्ञान-दर्शन से संपूर्ण आत्मा सर्व क्लेशों का नाश कर अक्षय सुख समृद्धि वाली सिद्धि को प्राप्त करती है। ___ इस प्रकार आगम समुद्र की बाढ़ समान और सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा समाधि द्वार में लेश्या नाम का सातवाँ अंतर द्वार कहा है। लेश्या विशुद्धि से ऊपर चढ़कर क्षपक साधु जो आराधना को प्राप्त करते हैं उसे अब फल द्वार में कहते हैं। फल प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार : आराधना तीन प्रकार की होती हैं - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। इसकी स्पष्ट व्याख्या तारतम्य लेश्या द्वारा कही है। शुक्ल लेश्या की उत्कृष्ट अनासक्ति में परिणामी को अर्थात् सर्वथा अनासक्त बनकर जो आयुष्य पूर्ण करता है उसे अवश्यमेव उत्कृष्ट आराधना होती है। बाद के शेष रहे शुक्ल ध्यान के जो अध्यवसाय और पद्म लेश्या के जो परिणाम प्राप्त करते हैं उसे श्री वीतराग परमात्मा ने मध्यम आराधना कही है। फिर जो तेजो लेश्या के अध्यवसाय, उस परिणाम को प्रासकर जो आयुष्य पूर्ण करता है उसकी यहाँ जघन्य आराधना जाननी। वह तेजो लेश्या वाला आराधक समकित आदि से युक्त ही होता है वह आराधक होता है ऐसा जानना, केवल लेश्या से आराधक नहीं होता है क्योंकि तेजोलेश्या तो अभव्य देवों को भी होती है ।।९७०० ।। इस प्रकार कई उत्कृष्ट आराधना से समग्र कर्म के प्रदेशों को खत्म करके सर्वथा कर्मरज रहित बनें सिद्धि को प्राप्त करते हैं और कुछ शेष रहे कर्म के अंशों वाला मध्यम आराधना की साधना कर सुविशुद्ध शुक्ल लेश्या वाला लव सत्तम (अनुत्तर) 402 For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार- फल प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला देव होता है। अप्सराओं वाला कल्पोपपन्न (बारहवें देवलोक वाले) देव जो सुख का अनुभव करता है उससे अनंत गुणा सुख लव सत्तम देवों को होता है। चारित्र, तप, ज्ञान, दर्शन गुण वाला कोई मध्यम आराध वैमानिक इन्द्र और कई सामानिक देवों में उत्पन्न होते हैं । श्रुत भक्ति से युक्त उग्र तप वाले, नियम और योग की सम्यक् शुद्धि वाले, धीर आराधक लोकान्तिक देव होते हैं। आगामी आने वाले जन्म में स्पष्ट रूप में अवश्यमेव मुक्ति पानेवाले होतें हैं, वे आराधक देवों की जितनी ऋद्धियाँ और इन्द्रियजन्य सुख होता है उन सबको प्राप्त करते हैं। और तेजोलेश्या वाला जो जघन्य आराधना करता है वह भी जघन्य से सौधर्म देव की ऋद्धि को तो प्राप्त करता ही है । फिर अनुत्तर भोगों को भोगकर वहाँ से च्यवकर वह उत्तम मनुष्य जीवन को प्राप्तकर अतुल ऋद्धि को छोड़कर श्री जिन कथित धर्म का आचरण करता है। और जाति स्मरण वाला, बुद्धि वाला, श्रद्धा, संवेग और वीर्य उत्साह को प्राप्त कर वह परीषह की सेना को जीतकर और उपसर्ग रूपी शत्रुओं को हराकर शुक्ल ध्यान को प्राप्तकर, शुक्ल ध्यान से संसार का क्षयकर कर्म रूपी आवरण को सर्वथा तोड़कर सर्व दुःखों का नाश कर सिद्धि को प्राप्त करता है। क्योंकि जघन्य से भी आराधना करने वाला जीव सर्व क्लेशों का नाश कर सात-आठ जन्म में तो अवश्य परमपद को प्राप्त करता है। और सर्वज्ञ सर्वदर्शी जन्म जरा आदि दोष रहित निरुपम सुख वाला वह भगवंत सदा वहाँ रहता है। नारक और तिर्यंचों को दुःख, मनुष्यों को किंचित् दुःख, देवों को किंचित् सुख और मोक्ष में एकांत से सुख होता है। सिद्धों के सुख का स्वरूप :- रागादि दोषों के अभाव में और जन्म, जरा, मृत्यु आदि का असंभव होने से, पीड़ा का अभाव होने से सिद्धों को अवश्यमेव शाश्वत सुख ही होता है। क्योंकि राग, द्वेष, मोह एवं दोषों का पक्ष आदि संसार का चिह्न है अथवा अति संक्लेश जीवन संसार का कारण है। इन रागादि से पराभव प्राप्त करने वाला और इससे जन्म, मरणरूपी जल वाले संसार समुद्र में बार- बार भ्रमण करते संसारी आत्मा को किंचित् भी सुख कहाँ से मिल सकता है? रागादि के अभाव में जीव को सुख होता है उसे केवली भगवंत ही जानते हैं। क्योंकि सन्निपात रोग से पीड़ित जीव उनकी निरोगता के सुख को निश्चय से नहीं जान सकता। जैसे बीज जल जाने पर पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है । उसी तरह कर्म बीज रागादि जल जाने के बाद संसार अंकुर जन्म की उत्पत्ति नहीं होती है। जन्म के अभाव में जरा नहीं है, मरण नहीं है, भय नहीं है और संसार में अन्य गति में जाने का भी भय नहीं होता है तो उन सर्व के अभाव में मोक्ष परम सुख कैसे नहीं हो सकता है? सकल इन्द्रियों के विषय सुख भोगने के बाद उत्सुकता की निवृत्ति से अनुभव करते संसार सुखों के समान अव्याबाध से ही मोक्ष सुख की श्रद्धा करनी चाहिए। विशेष में सारे इन्द्रिय जन्य विषय सुख भोगने के बाद में उसकी उत्सुकता की जो निर्वृत्ति होती है उसकी इच्छा पुनः होने से वह केवल अल्प कालिक हैं और सिद्धों को पुनः वह अभिलाषा नहीं होने से वह निर्वृत्ति सर्वकाल की, एकान्तिक और आत्यन्तिकी है इसलिए उनको परम सुख है। इस प्रकार अनुभव से, युक्ति से, हेतु से, तथा श्री जिनेश्वर परमात्मा के आगम से भी सिद्ध सिद्धों का अनंत शाश्वत सुख श्रद्धा करने योग्य है। इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधना कर भूतकाल में सर्व क्लेशों का नाश करने वाले अनंत जीव सिद्ध हुए हैं। इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधनाकर वर्तमान काल में भी विवक्षित काल में निश्चय संख्याता सिद्ध हो रहे हैं। और इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यग् आराधनाकर भविष्य काल में निश्चय से अनंत जीव सिद्ध होंगे। इस तरह आगम में तीनों काल में इस आराधना विधि की विराधना कर संसार को बढ़ाने वाले भी अनेक जीव हैं। इस प्रकार इस बात को जानकर इस आराधना For Personal & Private Use Only 403 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-फल प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार में प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इस संसार समुद्र में जीव को निश्चय रूप से दूसरा कोई दुःख का प्रतिकार करने वाला नहीं है। भव्यात्माओं को 'एकांत श्रद्धा' आदि भावों से महान् आगम परतंत्रता को ही निश्चय इस आराधना का मूल भी जानना। क्योंकि छद्मस्थों को मोक्ष मार्ग में आगम को छोड़कर दूसरा कोई भी प्रमाण नहीं है। अतः उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए। इस कारण से सुख की अभिलाषा वाले को निश्चय सर्व अनुष्ठान को नित्यमेव अप्रमत्त रूप में आगम के अनुसार ही करना चाहिए। पूर्व में इस ग्रंथ में मरण विभक्ति द्वार में जो सूचन किया है कि- आराधना फल नामक द्वार में मरण के फल को स्पष्ट कहेंगे, इसलिए अब वह अधिगत द्वार प्राप्त होने से यहाँ पर मैं अनुक्रम से मरण के फल को भी अल्प मात्र कहता हूँ । उसमें वेहाणस और गृद्ध पृष्ठ मरण सहित दस प्रकार के मरण सामान्य और दुर्गतिदायक कहे हैं। एवं पूर्व में कहे विधानानुसार क्रम वाले शेष पंडित, मिश्र, छद्मस्थ, केवली, भक्त परिज्ञा, इंगित और पादपोपगमन ये सात मरण सामान्य से तो सद्गतिदायक हैं। केवल अंतिम तीन का सविशेष फल कहा है। और शेष चार का फल तो उसके प्रवेश के समान ही जानना अथवा उसउस संथारे के अनुसार जानना । उसमें भी भक्त परिज्ञा का फल तो उसमें वर्णन के समय कहा है इसलिए इंगिनी मरण का फल कहता हूँ । पूर्व के कथनानुसार विधि से इंगिनी अनशन से सम्यग् आराधनाकर सर्व क्लेशों का नाश करने वाले कई आत्मा सिद्ध हुए हैं और कई वैमानिक में देव हुए हैं। इस इंगिनी मरण का फल भी आगम कथित विधान अनुसार कहा है । अब पादपोपगमन नामक मरण का फल कहते हैं। सम्यक् त या पादपोपगमन में स्थिर रहा सम्यग् धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान का ध्यान करते कोई आत्मा शरीर छोड़कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और कोई क्रमशः कर्म का क्षय करते सिद्ध गति का सुख भी प्राप्त करता है। उस सिद्धि की प्राप्ति का क्रम और उसका स्वरूप सामान्य से कहता हूँ । युद्ध में अग्रेसर रहे सुभट स्वराज्य को प्राप्त करते हैं वैसे धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान, का ध्यान करते, शुभ लेश्या वाले अपूर्व करणादि के क्रम से यथोत्तर चारित्र शुद्धि से क्षपक श्रेणि में चढ़ते आराधक ज्ञानावरणीय आदि सहित मोह सुभट को खत्म कर केवल ज्ञान रूपी राज्य को प्राप्त करते हैं फिर वहाँ कुछ कम पूर्व करोड़ वर्ष तक अथवा अंतर्मुहूर्त्त उस तरह रहते हैं उसमें यदि वेदनीय कर्म बहुत और आयुष्य कर्म कम हो तो उस महात्मा की आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाय तब शेष कर्मों की स्थिति को आयुष्य के समान करने के लिए समुद्घात को करते हैं। जैसे गीले वस्त्र को चौड़ा करने से क्षण में सूख जाता है । उसी तरह शीघ्र नहीं सूखने से वेदनीय आदि कर्म अनुक्रम से बहुत काल में खत्म होते हैं, परंतु वह समुद्घात करने वाले को अवश्यमेव क्षण में भी क्षीण होते हैं। अतः समस्त घाती कर्म के आवरण को क्षण से बढ़ते वीर्योल्लास वाले उन कर्मों को शीघ्र खत्म करने के लिए उस समय समुद्घात का आरंभ करते हैं, उसमें चार समय में क्रमशः दण्ड (आकार), कपाट, मंथन और सर्व चौदह राजलोक में व्याप्त - पूरण करते हैं। फिर क्रमशः उसी तरह चार समय में वापिस सिकोड़ते हैं। इस तरह वेदनीय, नाम और गौत्र कर्म को आयुष्य कर्म के समान स्थिति वाले करके फिर शैलेशी करने के लिए योग निरोध करते हैं। उसमें प्रथम बादर काय योग से बादर मनोयोग का और बादर वचन योग का निरोध करते हैं फिर काय योग को सूक्ष्म काय योग से स्थिर करते हैं, फिर सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्म मन और वचन योग को रोककर केवल सूक्ष्म काय योग में केवली सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति नामक तीसरा शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं उसके बाद यह तीसरी सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान द्वारा सूक्ष्म काय योग को भी रोकते हैं, तब सर्व योगों का 404 For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-फल प्रापि नामक आठवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला निरोध होने से वह शैलेशी और निश्चल आत्म प्रदेश वाला होने से सर्वथा कर्म बंध रहित-अबंधक होता है, फिर शेष रहे कर्मों के अंशों को क्षय करने के लिए पाँच अक्षरों के उच्चारण काल में वह चौथा 'व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती' शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं। उस पाँच ह्रस्व अ-इ-उ-ऋ-M स्वरों के उच्चारण करते जितने समय में अंतिम ध्यान के बल से द्विचरिम समय में उदीरणा नहीं हुई उन सर्व प्रकृतियों को खत्म करते हैं। फिर अंतिम समय में वे तीर्थंकर हों तो बारह प्रकृति को और शेष सामान्य केवली ग्यारह प्रकृति को खपाते हैं, फिर ऋजुगति से अनंतर समय में ही अन्य क्षेत्र तथा अन्य काल को स्पर्श किये बिना ही जगत के चौदहवें राजलोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं। वह इस प्रकार जघन्य मनोयोग वाला संज्ञी पर्याप्ता को यह पर्याप्त होने के, प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य और उसका जितना व्यापार हो, उससे असंख्य गुण हीन मनोद्रव्यों का प्रति समय में निरोध करता है, असंख्याता समय में वह सर्व मन योग का निरोध करता है। इस तरह सर्व जघन्य वचन योग वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव को पर्याप्त होने के पहेले समय में जघन्य वचन योग के जो पर्याय अंश होता है उससे असंख्य गुणहीन अंशों का प्रति समय में निरोध करता है, असंख्यात समय में संपूर्ण वचन योग का निरोध करता है और फिर प्रथम समय में उत्पन्न हुए सूक्ष्म निगोद के जीव को जो सर्व जघन्य काययोग होता है, उससे असंख्यात गुणहीन काय योग का प्रत्येक समय में निरोध करता है। अवगाहन के तीसरे भाग को छोड़ते, असंख्यात समय में संपूर्ण काय योग का निरोध करते हैं, तब संपूर्ण योग का निरोध करनेवाले वे शैलेशीकरण को प्राप्त करते हैं। शैलेशी की व्याख्या इस प्रकार की है कि-शैलेश अर्थात् पर्वत का राजा मेरु पर्वत, के समान स्थिरता हो वह शैलेशी करण होता है। अथवा पूर्व में अशैलेश अर्थात् कंपन वाला होता है, उसे स्थिरता द्वारा शैलेश-मेरु तुल्य होता है। अथवा स्थिरता से वह ऋषि शैल समान है, अतः शैल+ऋषि शैलेशी होता है और उसी शैलेशी के लेश्या का लोप करने से अलेशी बनता है। अथवा शील अर्थात् समाधि वह निश्चय से सर्व संवर कहलाता है। शील+इश=शीलेश और शीलेश की जो अवस्था वह शब्द शास्त्र के नियम से शैलेशी होता है। शीघ्रता अथवा विलंब बिना जितने काल पाँच ह्रस्व स्वर बोले जाएँ उतने काल मात्र वह शैलेशी रहता है। काय योग निरोध के प्रारंभ से सर्व योग निरोध रूप शैलेशी करे तब तक वह तीसरा सूक्ष्म क्रिया-अनिवृत्ति ध्यान को तथा शैलेशी के काल में चौथा व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान को प्राप्त करते हैं। उसमें यदि पूर्व अपूर्वकरण गुण स्थानक में उस शैलेशीकरण से असंख्यात गुना गुण श्रेणि द्वारा जो कर्म दलिक की रचना निषेध किया था, उसे क्रमशः समय-समय पर खत्म करते शैलेशी काल में सर्व दलिक को खत्म कर, पुनः उसमें शैलेशी के द्विचरम समय में कुछ प्रकृतियों को संपूर्ण खत्म कर और चरम समय में कुछ संपूर्ण खपाते हैं। वह विभाग रूप में कहा है। मनुष्य गति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्ता और सौभाग्य, आदेय तथा यशनाम ये आठ नामकर्म, दो में से एक, वेदनीय, मनुष्यायु और उच्च गौत्र, तथा संभव-तीर्थंकर हों तो जिन नामकर्म अतिरिक्त नरानुपूर्वी ये तेरह अन्य ग्रंथों के आधार पर मतांतर से नरानुपूर्वी के बिना बारह और अंत समय में बहत्तर मतांतर से तिहत्तर को द्विचरम समय में केवली भगवंत सत्ता में से क्षय करते हैं। यहाँ पर जो औदारिकादि तीन शरीर को सर्व विप्पजहणाओं से त्याग करें ऐसा कहा है उन सर्व प्रकार के त्याग से छोड़े ऐसा जानना। पूर्व में जो संघातन के परिशाटन द्वारा दलिक बिखेरता था, वह नहीं, परंतु सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, अनंत सुख और सिद्धत्व, इनके बिना उसका भव्यत्व और सारे औदयिक भावों को एक साथ नाश करता है। और ऋजुगति को प्राप्त करते वह आत्मा, आत्मा की अचिंत्य शक्ति होने से बीच में अन्य समय एवं अन्य आकाश प्रदेशों को स्पर्श किये बिना ही 405 For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार- विजहना नामक नौवाँ द्वार एक ही समय में वह सिद्ध होता है। अर्थात् वह सात राज ऊँचे सिद्ध क्षेत्र में पहुँचता है। फिर साकार ज्ञान के उपयोग वाला उस बंधन मुक्त होने से तथा स्वभाव से ही जैसे एरंडी का फल बंधन मुक्त होते ही ऊँचा उछलता है, वैसे ऊँचा जाता है, फिर वहाँ चौदह राजलोक के ऊपर धर्मास्तिकाय के अभाव में कर्म मुक्त उसकी आगे ऊर्ध्व गति नहीं होती है और अधर्मास्तिकाय द्वारा उसकी वही सादि अनंत काल तक स्थिरता होती है। औदारिक, तेजस, कार्मण इन तीनों शरीर को यहाँ छोड़कर वहाँ जाकर स्वभाव में रहते सिद्ध होता है और घनीभूत जीव प्रदेश जितने स्थान में उतना चरम देह से तीसरे भाग में न्यून अवगाहना को प्राप्त करता है । 'इषत्प्राग्भार' नाम की सिद्धशिला से एक योजन ऊँचे लोकांत हैं उसमें नीचे उत्कृष्ट एक कोश का छट्ठा विभाग सिद्धों की अवगाहना के द्वारा व्याप्त हैं। तीन लोक के मस्तक में रहे वे सिद्धात्मा द्रव्य पर्यायों से युक्त जगत को तीन काल सहित संपूर्ण जानते हैं। और देखते हैं ।। ९७८० ।। जैसे सूर्य एक साथ समविषय पदार्थों को प्रकाशमय करता है वैसे निर्वाण हुए जीव लोक को और अलोक को भी प्रकाश करते हैं। उनकी सर्व पीड़ा बाधाएँ नाश होती हैं, उस कारण से सभी जगत को जानते हैं तथा उनको उत्सुकता नहीं होने से वे परम सुखी रूप में अति प्रसिद्ध हैं। अति महान् श्रेष्ठ ऋद्धि को प्राप्त होते हुए भी मनुष्यों को इस लोक में वह सुख नहीं है कि जो उन सिद्धों को पीड़ा रहित और उपमा रहित सुख होता है। स्वर्ग देवेन्द्र और मनुष्यों में चक्रवर्ती जो इन्द्रिय जन्य सुख का अनुभव करते हैं उससे अनंत गुणा और पीड़ा रहित सुख उन सिद्ध भगवंतों को होता है। सभी नरेन्द्र और देवेन्द्रों को तीन काल में जो श्रेष्ठ सुख है उसका मूल्य एक सिद्ध के एक समय के सुख जितना भी नहीं है। क्योंकि उन्हें विषयों से प्रयोजन नहीं है, क्षुधा आदि पीड़ाएँ नहीं हैं और विषयों के भोगने का रागादि कारण भी नहीं है। प्रयोजन समाप्त हुआ है, इससे सिद्ध को बोलना, चलना, चिंतन करना आदि चेष्टाओं का भी सद्भाव नहीं है। उन्हें उपमा रहित, माप रहित, अक्षय, निर्मल, उपद्रव बिना का, जरा रहित, रोग रहित, भय रहित, ध्रुव-स्थिर एकान्तिक, आत्यंतिक और अव्याबाध केवल सुख ही है। इस तरह केवली के योग्य पादपोपगमन नाम का अंतिम मरण का फल आगम की युक्ति अनुसार संक्षेप से कहा है । इस आराधना के फल को सुनकर बढ़ते संवेग के उत्साह वाले सर्व भव्यात्मा उस पादपोपगमन मरण प्राप्तकर मुक्ति सुख को प्राप्त करें । इस प्रकार इन्द्रिय रूपी पक्षी को पिंजरे तुल्य सद्गति में जाने का सरल मार्ग समान, चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला चौथा मूल समाधि लाभ द्वार में फल प्राप्ति नाम का आठवाँ अंतर द्वार कहा है। प्रथम से यहाँ तक जीव के निमित्त धर्म की योग्यता आदि से लेकर फल प्राप्ति तक द्वार कहा है। अब जीव रहित क्षपक मुनि के मृतक शरीर के विषय में जो कुछ कर्त्तव्य का विस्तार करणीय है उसे श्री जिनागमकथनानुसार न्याय से साधुओं के अनुग्रह के लिए 'विजहना' नामक द्वार से कहा जाता है। यहाँ विजहना, परिवणा, परित्याग, फेंक देना आदि शब्द एक समान अर्थ वाले हैं। विजहना नामक नौवाँ द्वार : पूर्व में कहे अनुसार आराधना करते क्षपक मुनि जब आयुष्य पूर्ण करें तब निर्यामक साधुओं को उसके शरीर विषय में यह विजहना सम्यक् करना । अहो ! तूंने महाभाग क्षपक को इस तरह चिरकाल औषधादि उपचारों से सार संभाल ली, चिरकाल तक सेवा की, चिरकाल सहवास में रहा, साथ रहा, चिरकाल पढ़ाया, और बहुत समय तक समाधि द्वारा अनुगृहीत किया, ज्ञानादि गुणों द्वारा तूं हमको भाई समान, पुत्र समान, मित्र समान, प्रिय और शुद्ध प्रेम का परम पात्र था। परंतु तुझे निर्दय मृत्यु ने आज क्यों छीन लिया? हा ! हा! हम लूटे गये । हम 406 For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला लूटे गये हैं। इस तरह रोने के शब्द बोलना आदि शोक नहीं करना, क्योंकि ऐसा करने से शीघ्र शरीर क्षीण होता है ।।९८००।। सारा बल क्षीण होता है. स्मति नाश होती है, बुद्धि विपरीत होती है, पागलपन प्रकट हृदय रोग भी हो सकता है। इन्द्रियों की शक्ति कम होती है, किसी तरह क्षुद्र देवी ठगती है और शास्त्र श्रवण से प्रकट हुआ शुभ विवेक का भी नाश होता है, लघुता होती है और लोग में अत्यंत विमूढत्व माना जाता है। अधिक क्या कहें? शोक सर्व अनर्थों का समूह है। इसलिए उसे दूर छोड़कर निर्यामक महामुनि अति अप्रमत्त चित्त से इस तरह संसार स्थिति का विचार करे कि-हे जीव! तूं शोक क्यों करता है? क्या तूं नहीं जानता कि जो यहाँ जन्म लेता है, उसका मरण है, पुनः जन्म और पुनः मरण अवश्यभावी हैं? यह मरण रुकता नहीं है, अन्यथा दुष्ट भस्म राशि ग्रह के उदय होने पर भी और इन्द्र की विनती होने पर भी अतुल बल-वीर्य वाले, तीन जगत के परमेश्वर श्री वीर परमात्मा ने सिद्धि गमन के समय थोड़ी भी राह नहीं देखी। और दीर्घ काल तक सुकृत्य का संचय करने वाले गुण श्रेणी के आधारभूत अतिचार रूप कीचड़ से रहित निरतिचार संयम के उद्यम में प्रयत्नशील और आराधना की साधना कर काल धर्म को प्राप्त करने वाले उस क्षपक मुनि का शोक करना अल्पमात्र भी योग्य नहीं है। इस विषय में अधिक क्या कहें? इस प्रकार सम्यग् विचारकर धीर वह निर्यामक उद्वेग रहित शीघ्र उसे करने योग्य समग्र विधि करें। केवल काल हुए का मृत शरीर वसति के अंदर अथवा बाहर भी हो, यदि अंदर हो तो निर्यामक इस विधि से उसे परठे, त्याग करे। महा पारिष्ठापना की विधि :- साधु जब मास कल्प अथवा वर्षा कल्प (चौमासा) रहे, वहाँ गीतार्थ सर्व प्रथम महा स्थंडिल अर्थात् मृतक परठने की निरवद्य भूमि की खोज करें। फिर किस दिशा में परठना? उसके लिए विधि कहते हैं-(१) नैऋत्य, (२) दक्षिण, (३) पश्चिम, (४) अग्नेयी, (५) वायव्य, (६) पूर्व, (७) उत्तर और (८) ईशान। इस क्रमानुसार प्रथम दिशा में परठने से अन्न पानी सुलभ होता है, दूसरी दिशा में दुर्लभ होता है, तीसरी में उपधि नहीं मिलती, चौथे में स्वाध्याय शुद्ध नहीं होता, पाँचवे में कलह उत्पन्न होता है, छटे में उनका गच्छ भेद होता है, सातवें में बीमारी और आठवें में मृत्यु होती है। उसमें भी यदि प्रथम दिशा में व्याघात किसी प्रकार का विघ्न हो तो दूसरे नंबर वाली दिशा आदि में क्रमशः वह गुणकारी होती है जैसे कि नैऋत्य प्रथम श्रेष्ठ कही है वहाँ यदि विघ्न हो तो दूसरी दक्षिण दिशा प्रथम दिशा के समान गुण करती है। दूसरी दिशा में भी यदि विघ्न आता हो तो तीसरी पश्चिम प्रथम दिशा के समान गुण करती है। इससे सर्व दिशाओं में मृतक को परठने की शुद्ध भूमि की खोज करना। जिस समय मुनि काल धर्म को प्राप्त करें उसी समय अंगूठे आदि अंगुलियों को बांध लेना और श्रुत के मर्म को जानने वाला धीर वृषभ समर्थ साधु अंग छेदन तथा जागृत रहना आदि कार्य करें। और यदि कोई व्यंतर आदि देव उस शरीर में आश्रय करें और इससे मृतक उठे, तो धीर साधु शास्त्र विधि से उसे शांत करना। और यदि डेढ़ भोगवाले नक्षत्र में काल धर्म प्राप्त करे तो दर्भ (घास) के दो पुतले और यदि समभोग वाले नक्षत्र में काल धर्म प्राप्त करे तो एक पुतला, यदि आधे भोग वाले में काल करे तो नहीं करना। उसमें तीन उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छह नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त के डेढ़ भोग वाले हैं। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र आधे भोग वाले हैं और शेष नक्षत्र समभोग वाले हैं। गाँव जिस दिशा में हो उस दिशा में गाँव की ओर मृतक का मस्तक रहे इस तरह उसे ले जाना चाहिए, और पीछे नहीं देखते उसे स्थंडिल परठने की भूमि की ओर ले जाना। इससे किसी समय में यक्षाविष्ट होकर यदि मृतक नाचे तो भी गाँव में नहीं जाना चाहिए। सूत्र, अर्थ और तदुभय का जानकार गीतार्थ एक साधु पानी और कृश तृण लेकर पहले स्थंडिल भूमि 407 For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार जाए और वहाँ सर्वत्र उस तृणों को समान रूप से बिछा दे। यदि उस तृण के ऊपर मृतक का मस्तक, मध्य में कटिभाग और नीचे पैर का भाग में विषम-ऊँचा, नीचा हो, तो अनुक्रम से आचार्य, वृषभ साधु और सामान्य साधु का मरण अथवा बीमारी होगी। जहाँ तृण न हो वहाँ चूर्ण-वास से अथवा केसर के पानी की अखंड धारा से स्थंडिल भूमि के ऊपर मस्तक के भाग में 'क' और नीचे पैर के भाग में 'त' अक्षर लिखे। मृतक किसी समय उठकर यदि भागे तो उसे गाँव की तरफ जाने से रोके, मृतक का मस्तक गाँव की दिशा तरफ रखना चाहिए। और अपने को उपद्रव नहीं करे इसलिए साधुओं द्वारा मृतक की प्रदक्षिणा हो इस तरह वापिस नहीं आना। साधु की मृतक निशानी के लिए रजोहरण, चोल पट्टक, मुहपत्ति मृतक के पास में रखे। निशानी नहीं रखने से दोष उत्पन्न होता है जैसे कि क्षपक मुनि देव हुआ हो फिर ज्ञान से मृतक को देखे तब चिन्ह के अभाव में पूर्व में स्वयं को मिथ्यात्वी मानकर वह मिथ्यात्व को प्राप्त करता है अथवा किसी लोगों ने इसका खून किया है ऐसा मानकर राजा गाँव के लोगों का वध बंधन करता है। इस तरह अन्य भी अनेक दोष श्री आवश्यक निर्यक्ति आदि अन्य ग्रंथ में कहे हैं। वहाँ से जान लें। जो साधु जहाँ खड़े हों वहाँ से प्रदक्षिणा न हो इस तरह वापिस आयें और गुरु महाराज के पास आकर परठने में अविधि हई हो उसका काउस्सग्ग करें, परंत वहाँ नहीं करे। काल करने वाला यदि आचार्यादि या रत्नादिक बड़े प्रसिद्ध साधु हो अथवा अन्य साधु के सगे संबंधी या जाति वाले हों तो अवश्यमेव उपवास करना और अस्वाध्याय रखना, परंतु स्व पर यदि अशिवादि (रोगादि) हो तो उपवास नहीं करना। सूत्रार्थ में विशारद गीतार्थ स्थवीर दूसरे दिन प्रातःकाल क्षपक के शरीर को देखे और उसके द्वारा उसकी शुभाशुभ गति जाने। यदि मृतक का मस्तक किसी मांसाहारी पशु-पक्षी द्वारा वृक्ष या पर्वत के शिखर पर ले गया होतो मुक्ति को प्राप्त करेगा। किसी ऊँची भूमि के ऊपर गया हो तो विमानवासी देव हुआ, समभूमि में पड़ा हो तो ज्योतिषी-वाण व्यंतर देव तथा खड़े में गिरा हो तो भवनपति देव हआ है ऐसा जानना। जितने दिन वह मतक दूसरे से अस्पर्शित और अखंड रहे उतने वर्षों तक उस राज्य में सुकाल कुशल और उपद्रव का अभाव होता है। अथवा माँसाहारी श्वापद क्षपक के शरीर को जिस दिशा में ले जाए उस दिशा में सुविहित साधु के विहार योग्य सुकाल होता है। इस तरह श्री जिनचन्द्र सूरीश्वर ने रची हुई सद्गति में जाने के सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौवाँ अंतर द्वारवाला चौथा समाधि लाभ द्वार में विजहना नाम का नौवाँ अंतर द्वार कहा। यह कहने से समाधि लाभ नामक चौथा मूल द्वार पूर्ण किया और यह पूर्ण होने से यहाँ यह आराधना शास्त्र-संवेगरंगशाला पूर्ण हुआ ।।९८३६ ।। इस प्रकार महामुनि महासेन को श्री गौतम गणधर देव ने जिस प्रकार यहाँ कहा था उसी प्रकार सब यहाँ पर बतलाया है। अब पूर्व में गाथा ६४० में जो कहा था कि जिस तरह उसकी आराधना कर वह महासेन मुनि सिद्ध पद को प्राप्त करेगा उसका शेष अधिकार को अब श्री गौतम स्वामी के कथनानुसार संक्षेप में कहता हूँ। महासेन मुनि की अंतिम आराधना :- तीन लोक के तिलक समान और इन्द्र से वंदित श्री वीर परमात्मा के शिष्य श्री गौतम स्वामी ने इस तरह पूर्व में जिसका प्रस्ताव किया था उसे साधु वर्ग और गृहस्थ संबंधी आराधना विधि को विस्तारपूर्वक दृष्टांत सहित परिपूर्ण महासेन मुनि को बतलाकर कहा है कि-भो! भो! महायश! तुमने जो पूछा था उसे मैंने कहा है, तो अब तुम अप्रमत्त भाव में इस आराधना में उद्यम करना। क्योंकि वे धन्य हैं, सत्पुरुष हैं जिन्होंने मनुष्य जन्म पुण्य से प्राप्त किया है और निश्चयपूर्वक जिन्होंने इस आराधना को संपूर्ण स्वीकार किया है। वही शूरवीर है, वही धीर है कि जिसने श्री संघ के मध्य में यह आराधना 408 For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्रीसंवेगरंगशाला स्वीकारकर सुखपूर्वक चार स्कंध द्वार वाली आराधना में विजय ध्वजा को प्राप्त किया है। उन महानुभावों ने इस लोक में क्या प्राप्त नहीं किया? अर्थात् उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया। और उद्यमशील होकर आदरपूर्वक जो आराधना करने वाले की सहायता करता है, वह भी प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करता है। जो आराधक मुनि की भक्ति पूर्वक सेवा करता है और नमस्कार करता है वह भी सद्गति के सुखस्वरूप आराधना के फल को प्राप्त करता है। इस प्रकार श्री गौतम स्वामी के कहने से राजर्षि महासेन मुनि की हर्षानंद से रोमरोम गाढ़ उछलने लगे फिर श्री गणधर भगवंत को तीन प्रदक्षिणा देकर पृथ्वी तल को मस्तक स्पर्श करते नमस्कार करके पुनरुक्ति दोष रहित अत्यंत महाअर्थ वाली भाषा से इस तरह स्तति करने लगे। श्री गौतम स्वामी की स्तुति :- हे मोहरूपी अंधकार से व्याप्त इस तीन जगत रूपी मंदिर को प्रकाशमय करने वाले प्रदीप! आप विजयी रहो। हे मोक्षनगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीव के साथी! आपकी जय हो। हे निर्मल केवल ज्ञानरूपी लोचन से समग्र पदार्थों के विस्तार के ज्ञाता। आपकी विजय हो। हे निरुपम अतिशायी रूप से सुरासुर सहित तीन लोक को जीतने वाले प्रभु! आपकी जय हो। हे शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से घन घाती कर्मों के गाढ़वन को जलाने वाले प्रभु आपकी जय हो। चंद्र और महेश्वर के हास्य समान उज्ज्वल अति आश्चर्यकारक चारित्र वाले हे प्रभु! आप विजयी रहो। हे निष्कारण वत्सल! हे सज्जन लोक में सर्व से प्रथम पंक्ति को प्राप्त करते प्रभु! आपकी विजय हो। हे साधुजन को इच्छित पूर्ण करने में अनन्य कल्पवृक्ष प्रभु! आपकी जय हो। हे चंद्रसम निर्मल यश के विस्तार वाले हे शरणागत के रक्षण में स्थिर लक्ष वाले! और हे राग रूपी शत्रु के घातक हे गणधर श्री गौतम प्रभु! आप विजयी हो! आप ही मेरे स्वामी, पिता हो, आप ही मेरी गति और मति हो, मित्र और बंधु भी आप ही हो आपसे अन्य मेरा हितस्वी कोई नहीं है। क्योंकि-इस आराधना विधि के उपदेशदाता आपने संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए मुझे हाथ का सहारा देकर बाहर निकाला है। आपके वचनामृत रूपी जल की धारा से सिंचन किया हुआ हूँ। इस कारण से मैं धन्य हूँ, कृतपुण्य हूँ और मैंने इच्छित सारा प्राप्त कर लिया है। हे परम गुरु! प्राप्त होने में अत्यंत दुर्लभ होने पर भी तीन जगत की लक्ष्मी मिल सकती है, परंतु आपकी वाणी का श्रवण कभी नहीं मिलता। हे भवन बंधु! यदि आपकी अनुज्ञा मिले तो अब मैं संलेखना पूर्वक आराधना विधि को करना चाहता हूँ। फिर फैलती मनोहर उज्ज्वल दांत की कांति के समूह से दिशाओं को प्रकाश करते श्री गौतम स्वामी ने कहा कि-अति निर्मल बुद्धि के उत्कृष्ट से संसार के दुष्ट स्वरूप को जानने वाले, परलोक में एक स्थिर लक्ष्य वाले, सुख की अपेक्षा से अत्यंत मुक्त और सद्गुरु की सेवा से विशेषतया तत्त्व को प्राप्त करने वाले हे महामुनि महासेन! तुम्हारे जैसे को यह योग्य है इसलिए इस विषय में थोड़ा भी विलंब नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह शुभ अवसर बहुत विघ्नवाला होता है और पुनः पुनः धर्म सामग्री भी मिलनी दुर्लभ है और कल्याण की साधना सर्व प्रकार के विघ्नवाली होती है, और ऐसा होने से जिसने सर्व प्रयत्न से धर्म कार्यों में उद्यम किया उसी ने ही लोक में जय पताका प्राप्त की है। उसी ने ही संसार के भय को जलांजलि दी है और स्वर्ग मोक्ष की लक्ष्मी को हस्त कमल में प्राप्त की है। अथवा तूंने क्या नहीं साधन किया? इसलिए साधुता का सुंदर आराधक तूं कृत पुण्य है कि तेरी चित्त प्रकृति सविशेष आराधना करने के लिए उत्साही हो रही है। हे महाभाग! यद्यपि तेरी सारी क्रिया अवश्यमेव आराधना रूप है फिर भी अब यह कही हुई उस विधि में दृढ़ प्रयत्न कर। यह सुनकर परम हर्ष से प्रकट हुए रोमांच वाले राजर्षि महासेन मुनि गणधर के चरणों में नमस्कारकर, मस्तक पर कर कमल लगाकर-हे भगवंत! अब से आपने जो आज्ञा की उसके अनुसार करूँगा। इस प्रकार 409 For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार प्रतिज्ञा करके वहाँ से निकला। फिर पूर्वोक्त दुष्कर तपस्या को सविशेष करने से दुर्बल शरीर वाले बनें हुए भी वह पूर्व में विस्तारपूर्वक कही हुई विधि से सम्यग् रूप से द्रव्य भाव संलेखना को करके, त्याग करने योग्य भाव के पक्ष को छोडकर सर्व उपादेय वस्त के पक्ष में लीन बनें। स्वयं कछ काल निःसंगता से एकाकी विचरण कर मांस रुधिर आदि अपनी शरीर की धातुओं को अति घटाया, और शरीर की निर्बलता को देखकर विचार करने लगे कि आज दिन तक मैंने अपने धर्माचार्य कथित विस्तृत आराधना के अनुसार समस्त धर्म कार्यों में उद्यम किया है, भव्य जीवों को प्रयत्नपूर्वक मोक्ष मार्ग में जोड़ना, सूत्र, अर्थ के चिंतन से आत्मा को भी सम्यग् वासित किया और अन्य प्रवृत्ति छोड़कर शक्ति को छुपाये बिना इतने काल, बाल, ग्लान आदि साधु के कार्यों में प्रवृत्ति (वैयावच्च) की। अब आँखों का तेज क्षीण हो गया है, वचन बोलने में भी असमर्थ और शरीर कमजोर होने से चलने में भी अशक्त हो गया हूँ अतः मुझे सुकृत की आराधना बिना के इस निष्फल जीवन से क्या लाभ? क्योंकि मुख्यता से धर्म की प्राप्ति हो उस शुभ जीवन की ज्ञानियों ने प्रशंसा की है। अतः धर्माचार्य को पूछकर और निर्यामणा की विधि के जानकार स्थविरों को धर्म सहायक बनाकर पूर्व में कहे अनुसार विधिपूर्वक, जीव विराधना रहित प्रदेश में शिला तल को प्रमार्जनकर भक्त परिज्ञा-आहार त्याग द्वारा शरीर का त्याग करना चाहिए। ऐसा विचारकर वे महात्मा धीरे-धीरे चलते श्री गणधर भगवंत के पास जाकर उनको नमस्कारकर कहने लगे कि-हे भगवंत! मैंने जब तक हाड़ चमड़ी शेष रही तब तक यथाशक्ति छट्ट, अट्ठम आदि दुष्कर तप द्वारा आत्मा की संलेखना की। अब मैं पुण्य कार्यों में अल्प मात्र भी शक्तिमान नहीं हूँ, इसलिए हे भगवंत! अब आप की आज्ञानुसार गीतार्थ स्थविरों की निश्रा में एकांत प्रदेश में अनशन करने की इच्छा है, क्योंकि अब मेरी केवल इतनी अभिलाषा है। भगवान श्री गौतम स्वामी ने निर्मल केवल ज्ञान रूपी नेत्र द्वारा उसकी अनशन की साधना को भावि में निर्विघ्न जानकर कहा कि--हे महायश! ऐसा करो और शीघ्र निस्तार पारक संसार से पार होने वाले बनों।' इस प्रकार महासेन मुनि को आज्ञा दी और स्थविरों को इस प्रकार कहा कि-हे महानुभावों! यह अनशन करने में दृढ़ उद्यमशील हुआ है, इस आराधक असहायक को सहायता देने में तत्पर तुम सहायता करो। एकाग्र मन से समयोचित सर्व कार्यों को कर पास में रहकर आदर पूर्वक उसकी निर्यामण करो! फिर हर्ष से पूर्ण प्रकट हुए महान् रोमांच वाले वे सभी अपनी भक्ति से अत्यंत कृत्रार्थ मानते श्री इन्द्रभूति की आज्ञा को मस्तक पर चढ़ाकर सम्यक् स्वीकार कर प्रस्तुत कार्य के लिए महासेन राजर्षि के पास आये, फिर निर्यामक से घिरे हुए वे महासेन मुनि जैसे भद्र जाति का हस्ति अति स्थिर उत्तम दांत वाले बड़े अन्य हाथियों से घिरा हुआ शोभता है, वैसे निर्यामक पक्ष से भद्रिक जातिवंत अति स्थिर और इन्द्रियों को वश करने वाले निर्यामकों से शोभित धीरे-धीरे श्री गौतम प्रभु के चरण कमलों को नमस्कारकर पूर्व में पडिलेहन की हुई बीज, त्रस जीवों से रहित शिला ऊपर बैठे और वहाँ पूर्व में कही विधि पूर्वक शेष कर्त्तव्य को करके महा पराक्रमी उन्होंने चार प्रकार के सर्व आहार का त्याग किया। स्थविर भी उनके आगे संवेगजनक प्रशममय महा अर्थ वाले शास्त्रों को सुनाने लगे। फिर अत्यंत स्वस्थ मन, वचन, काया के योग वाले, धर्म ध्यान के ध्याता, सुख दुःख अथवा जीवन मरणादि में समचित्त वाले, राधावेध के लिए सम्यक् तत्पर बनें मनुष्य के समान अत्यंत अप्रमत्त और आराधना करने में प्रयत्नपूर्वक स्थिर लक्ष्य वाले बनें उस महासेन मुनि की अत्यंत दृढ़ता को अवधिज्ञान से जानकर, अत्यंत प्रसन्न बनें सौधर्म सभा में रहे इन्द्र ने अपने देवों को कहा कि-हे देवों! अपनी स्थिरता से मेरु पर्वत को भी जीतने वाले समाधि में रहे और निश्चल चित्त वाले इस साधु को देखो देखो! मैं मानता हूँ कि प्रलय काल में प्रकट हुए पवन के अति आवेग से उछलते 410 For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार- विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला जल के समूह वाला समुद्र भी मर्यादा को छोड़ देता है परंतु यह मुनि अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ता । नित्य स्थिर रूप वाली नित्य की वस्तुओं को किसी निमित्त को प्राप्त कर अपनी विशिष्ट अवस्था को छोड़े किंतु यह साधु स्थिरता को नहीं छोड़ता है। जो लीला मात्र में कंकर मानकर सर्व कुल पर्वत को हथेली में उठा सकते हैं, और निमेषमात्र के समय में समुद्र का भी शोषण कर सकते हैं, उस अतुल बल से शोभित देव भी मैं मानता हूँ कि दीर्घकाल में भी इस साधु के निश्चल मन को अल्प भी चलित करने में समर्थ नहीं हो सकता है । । ९९०० ।। यह एक आश्चर्य है कि इस जगत में ऐसा भी कोई महापराक्रम वाला आत्मा जन्म लेता है कि जिसके प्रभाव से तिरस्कृत तीनों लोक असारभूत माने जाते है। इस प्रकार बोलते इन्द्र महाराज के वचन को सत्य नहीं मानते एक मिथ्यात्वी देव रोष पूर्वक विचार करने लगा कि - बच्चे के समान विचार बिना सत्ताधीश भी जैसे तैसे बोलते है, अल्पमात्र भी वस्तु की वास्तविकता का विचार नहीं करते हैं। यदि ऐसा न हो तो महाबल से युक्त देव भी इस मुनि को क्षोभ कराने में समर्थ नहीं है? ऐसा निःशंकता से इन्द्र क्यों बोलता है? अथवा इस विकल्प से क्या प्रयोजन ? स्वयंमेव जाकर मैं उस मुनि को ध्यान से चलित करता हूँ और इन्द्र वचन को मिथ्या करता हूँ। ऐसा सोचकर शीघ्र ही मन और पवन को जीते, इस तरह शीघ्र गति से वह वहाँ से निकलकर और निमेष मात्र महासेन मुनि के पास पहुँचा। फिर प्रलयकाल के समान भयंकर बिजली के समूहवाले, देखते ही दुःख हो और अतसी के पुष्प समान कांतिवाले, काले बादलों के समूह उसने सर्व दिशाओं में प्रकट किये। फिर उसी क्षण में मूसलधारा समान स्थूल और गाढ़ता से अंधकार समान भयंकर धाराओं से चारों तरफ वर्षा को करने लगा, ,फिर समग्र दिशाओं को प्रचंड समूह से भरा हुआ दिखाकर निर्यामक मुनि के शरीर में प्रवेश करके महासेन राजर्षि को वह कहने लगा कि- श्री मुनि! क्या तूं नहीं देखता कि यह चारों ओर फैलते पानी से आकाश के अंतिम भाग तक पहुँचा हुआ शिखर वाले बड़े-बड़े पर्वत भी डूब रहे हैं और जल समूह मूल से उखाड़ते विस्तृत डाली आदि के समूह से पृथ्वी मंडल को भी ढक देते ये वृक्ष के समूह भी नावों के समूह के समान तर रहे हैं, अथवा क्या तूं सम्यग् देखता नहीं है कि आकाश में फैलते जल के समूह से ढके हुए तारा मंडल भी स्पष्ट दिखते नहीं हैं? इस प्रकार इस जल के महा प्रवाह के वेग से खिंच जाते तेरा और मेरा भी जब तक यहाँ मरण न हो, वहाँ तक यहाँ से चला जाना योग्य है। हे मुनि वृषभ ! मरने की इच्छा छोड़कर प्रयत्नपूर्वक निश्चल आत्मा का रक्षण करना चाहिए, क्योंकि ओघ निर्युक्ति सूत्र गाथा ३७वीं में कहा है कि सव्वत्थ संजमं संज- माउ अप्पाणमेव रक्खंतो। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याऽविरई । । ९९१५ ।। मुनि सर्वत्र संयम की रक्षा करे, संयम से भी आत्मा की रक्षा करते मृत्यु से बचे, पुनः प्रायश्चित्त करे, परंतु मरकर अविरति न बनें। इस तरह यहाँ रहे तेरे मेरे जैसे मुनियों का विनाश होने के महान् पाप के कारण निश्चय थोड़े समय में भी मोक्ष नहीं होगा, क्योंकि हे भद्र! हम तेरे लिए यहाँ आकर रहे हैं, अन्यथा जीवन की इच्छा वाले कोई भी क्या इस पानी में रहे? इस प्रकार देव से अधिष्ठित उस साधु के वचन सुनकर अल्प भी चलित नहीं हुए और स्थिर चित्त वाले महासेन राजर्षि निपुण बुद्धि से विचार करने लगे कि क्या यह वर्षा का समय है? अथवा यह साधु महासात्त्विक होने पर भी दीन मन से ऐसा अत्यंत अनुचित कैसे बोले ? मैं मानता हूँ कि कोई असुरादि मेरे भाव की परीक्षार्थ मुझे उपसर्ग करने के लिए ऐसा अत्यंत अयोग्य कार्य किया है। और यदि यह स्वाभाविक सत्य ही होता तो जिसे For Personal & Private Use Only 411 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार तीन काल के सर्व ज्ञेय को जानते हैं वे श्री गौतम स्वामी मुझे और स्थविरों को इस विषय में आज्ञा ही नहीं देते! इसलिए यद्यपि निश्चय यह देव आदि का कोई भी दुष्ट प्रयत्न हो सकता है, फिर भी हे हृदय! प्रस्तुत कार्य में निश्चल हो जा! यदि लोक में निधान आदि की प्राप्ति में विघ्न होते हैं तो लोकोत्तर मोक्ष के साधक अनशन में विघ्न कैसे नहीं आते हैं? इस प्रकार पूर्व कवच द्वार में कथनानुसार धीरता रूप कवच से दृढ़ रक्षण करके अक्षुब्ध मनवाला वह बुद्धिमान महासेन मुनि धर्म ध्यान में स्थिर हुआ। फिर उस मुनि की इस प्रकार स्थिरता देखकर देव ने क्षण में बादल को अदृश्य करके सामने भयंकर दावानल को उत्पन्न किया, उसके बाद दावानल की फैलती तेजस्वी ज्वालाओं के समूह से व्याप्त ऊँचे जाती धुएँ की रेखा से सूर्य की किरण का विस्तार ढक गया, महावायु से उछलते बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से ताराओं का समूह जल रहा था। उछलते तड़-तड़ शब्दों से जहाँ अन्य शब्द सुनना बंद हो गया और भयंकर भय से कम्पायमान होती देवी और व्यंतरियाँ वहाँ अतीव कोलाहल कर रही थी। इससे सारा जगत चारों तरफ से जल रहा है, इस तरह देखा। इस प्रकार का भी उस दावानल को देखकर जब महासेन मुनि ध्यान से अल्प भी चलित नहीं हुए तब देव ने विविध साग, भक्ष्य भोजन और अनेक जाति के पेय (पानी) के साथ श्रेष्ठ भोजन को आगे रखकर मधुर वाणी से कहा कि-हे महाभाग श्रमण! निरर्थक भूखे रहकर क्यों दुःखी होते हो? निश्चय नव कोटि परिशुद्ध-सर्वथा निर्दोष इस आहार का भोजन कर। 'निर्दोष आहार लेने वाला साधु को हमेशा उपवास ही होता है।' इस सूत्र को क्या तुम भूल गये हो? कि जिससे शरीर का शोषण करते हो? कहा है कि-चित्त की समाधि करनी चाहिए, मिथ्या कष्टकारी क्रिया करने से क्या लाभ है? क्योंकि तप से सूखे हुए कंडरिक मुनि अधोगति में गया और चित्त के शुद्ध परिणाम वाला उसका बड़ा भाई महात्मा पुंडरिक तप किये बिना भी देवलोक में उत्पन्न हुआ। यदि संयम से थका न हो और उसका पालन करना हो तो हे भद्र! दुराग्रह को छोड़कर अति विशुद्ध इस आहार को ग्रहण करो। इस प्रकार मुनि वेशधारी के शरीर में रहे देव ने अनेक प्रकार से कहने पर भी महासेन मनि जब ध्यान से अल्पमात्र भी चलित नहीं हुए तब पुनः उसके मन को मोहित करने के लिए पवित्र वेशधारी और प्रबल श्रेष्ठ श्रंगार से मनोहर शरीर वाली युवतियों का रूप धारणकर वहाँ आया, फिर विकारपूर्वक नेत्र के कटाक्ष करती, सर्व दिशाओं को दूषित करती सुंदर मुखचंद्र की उज्ज्वल कांति के प्रकाश के प्रवाह से गंगा नदी की भी हंसी करती और हंसीपूर्वक भुजा रूपी लताओं को ऊँची करके बड़े-विशाल स्तनों को प्रकट करती, कोमल झनझन आवाज करती पैर में पहनी हुई पजेब से शोभती, कंदोरे के विविध रंगवाली मणियों की किरणों से सर्व दिशाओं में इन्द्रधनुष्य की रचना करती. कल्पवृक्ष की माला के सगंध से आकर्षित भ्रमर के समहवाली. नाडे के बाँधने के बहाने से क्षण-क्षण पुष्ट नाभि प्रदेश को प्रकट करती, निमित्त बीना ही गात्र भंग बताने से विकार को बतलाती. बहत हावभाव आश्चर्य आदि संदर विविध नखरे करने में कशल और हे नाथ! प्रसन्न हो! हमारा रक्षण करो! आप ही हमारी गति और मति हो। इस प्रकार दो हाथ से अंजलि करके बोलती वे देवांगनाएँ अनुकूल उपसर्ग करने लगी, फिर भी वह महासत्त्वशाली महासेन मुनि ध्यान से चलित नहीं हुए। इस प्रकार अपने प्रतिकूल और अनुकूल तथा महाउपसर्गों को भी निष्फल जानकर निराश होकर वह देव इस प्रकार चिंतन करने लगा कि-धिक्! धिक्! महामहिमा वाले इन्द्र की सत्य बात की अश्रद्धा करके पापी मैंने इस साधु की आशातना की। ऐसे गुण समूह रूपी रत्नों के भंडार मुनि को पीड़ा करने से पाप का जो बंध हुआ, अब मेरा किससे रक्षण होगा? बुद्धि की विपरीतता से यह जीव स्वयं कोई ऐसा कार्य करता है कि जिससे अंदर के शल्य से पीड़ित हो, वैसे वह दुःखपूर्व जीता है। इस प्रकार वह देव चिरकाल दुःखी होते श्रेष्ठ भक्ति से महासेन मुनि की स्तवना कर 412 For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला और आदरपूर्वक क्षमा याचना कर जैसे आया था वैसे वापस चला गया ।।९९४८।। ___ मान अपमान में और सुख दुःख में समचित्त वाले उत्तरोत्तर सविशेष बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाले वे महासेन मुनि भी अत्यंत समाधिपूर्वक काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में तैंतीस सागरोपम की आयुष्य वाले देदीप्यमान देव हुए। फिर उसका काल धर्म हुआ जानकर, उस समय के उचित कर्त्तव्य को जानकर और संसार स्वरूप के ज्ञाता स्थविरों ने उसके शरीर को आगम विधि के अनुसार त्रस, बीज, प्राणी और वनस्पति के अंकुर आदि से रहित पूर्व में शोधन की हुई शुद्ध भूमि में सम्यक् प्रकार से परठन क्रिया की। उसके बाद उस मुनि के पात्र आदि धर्मोपकरण को लेकर अत्वरित, अचपल मध्यगति से चलते श्री गौतम स्वामी के पास पहुँचे और तीन प्रदक्षिणा देकर उनको वंदन करके उनको उपकरण सौंपकर नमे सिर वाले इस प्रकार से कहने लगे कि-हे भगवंत! क्षमापूर्वक सहन करने वाले, दुर्जय काम के विजेता, सर्व संग से रहित, सावद्य-पाप के संपूर्ण त्यागी, स्वभाव से ही सरल, स्वभाव से ही उत्तम चारित्र के पालक. प्रकति से ही विनीत और प्रकति से ही महासात्त्विक वह आपका शिष्य महात्मा महासेन दुःसह परीषहों को सम्यक सहकर पंच नमस्कार का स्मरण करते और असाधारण आराधना कर स्वर्ग को प्राप्त किया है। फिर मालती के माला समान उज्ज्वल दांत की कांति से प्रकाश करते हो इस तरह श्री गौतम स्वामी ने मधुर वाणी से स्थविरों को कहा कि-हे महानुभाव! तुमने उसकी निर्यामण सुंदर रूप में करवाई है, श्री जिनवचन के जानकार मुनिवर्य को ऐसा ही करना योग्य है। क्योंकि-संयम का पालन करने वाले असहायक को सहायता करते हैं उस कारण से साधु नमने योग्य हैं, क्योंकि अंतिम आराधना के समय में सहायता करना, इससे दूसरा कोई उत्तम उपकार निश्चिय रूप से समग्र जगत में भी नहीं है। वह महात्मा भी धन्य है कि जिसने आराधना रूपी उत्तम नाव द्वारा दुःख रूपी मगरमच्छ के समूह से व्याप्त भयंकर संसार समुद्र से समुद्र के समान पार उतरे हैं। फिर स्थविरों ने पूछा कि-हे भगवंत! वह महासेन मुनि यहाँ से कहाँ उत्पन्न हुए हैं? और कर्मों का नाशकर वह कब निर्वाणपद प्राप्त करेंगे? उसे कहो ।।९९६३।। त्रिभुवन रूपी भवन में प्रसिद्ध यशवाले श्री वीर परमात्मा के प्रथम शिष्य श्री गौतम प्रभु ने कहा कि तुम सब एकाग्र मन से सुनों-आराधना में सम्यक् स्थिर चित्तवाला वह महासेन मुनिवर इन्द्र की प्रशंसा से कुपित हुए देव ने विघ्न किया, फिर भी मेरु पर्वत के समान ध्यान से निमेष मात्र भी चलित हुए बिना काल करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में देदीप्यमान शरीरवाला देव हुआ है। आयुष्य पूर्ण होते ही वहाँ से च्यवकर इसी जम्बू द्वीप में जहाँ हमेशा तीर्थंकर, चक्रवर्ती और वासुदेव उत्पन्न होते हैं वहाँ पूर्व विदेह की विजय में इन्द्रपुरी समान मनोहर अपराजिता नगरी में, वैरी समूह को जीतने से फैली हुई कीर्तिवाले कीर्तिधर राजा की मुख से चंद्र के बिंब की तुलना करने वाली लाल होठ वाली विजयसेना नाम की रानी होगी। उसके गर्भ में, चिरकाल से उगे हुए तेजस्वी, मुख में प्रवेश करते पूर्ण चंद्र के स्वप्न से सूचित वह महात्मा पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। और नौ मास अतिरिक्त साढ़े सात दिन होने के बाद उत्तम नक्षत्र, तिथि और योग में उसका जन्म होगा। अत्यंत पुण्य की उत्कृष्टता से आकर्षित मनवाले देव, उसके जन्म समय में पास आकर सर्व दिशाओं के विस्तार को अत्यंत शांत निर्मल रज वाली और पवन की मंद-मंद हवाकर, चारों ओर लोगों को क्रीड़ा करते-करते नगर में कुंभ भर-भरकर श्रेष्ठ रत्नों की वर्षा करने लगेंगे, फिर हजारों वीरांगनाओं के द्वारा धवल मंगल को गाती, एकत्रित किये मनोहर और मणिके मनोहर अलंकार से शोभित सर्व नागरिक तथा नागरिकों के द्वारा दिये हुए अधिक धन के दान से प्रसन्न हुए याचक, याचकों से गाये जाते प्रकट गुण के विस्तार वाले, गुण विस्तार के श्रवण से हर्ष उत्सुकता से सामंत समूह को प्रसन्न करते और ऋद्धि के महान समूह की वधाई होगी। फिर उचित समय में माता-पिता ने रत्नों के 413 For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-विजहना नामक नौवाँ द्वार समूह का वर्षा होने से यथार्थ रूप उसका नाम रत्नाकर करेंगे। क्रमशः बचपन व्यतीत होते समग्र शास्त्र अर्थ का जानकार होगा। कई समान उम्रवाले और पवित्र वेषवाले विद्वान उत्तम मित्रों से घिरा हुआ होगा, प्रकृति से ही विषय के संग से परांग्मुख, संसार के प्रति वैरागी, और मनोहर वन प्रदेश में लीला पूर्वक घूमते वह रत्नाकर एक समय नगर के नजदीक रहे पर्वत की झाड़ी में विशाल शिला ऊपर अणसण स्वीकार किये हुए और पास में बैठे मुनिवर उसको संपूर्ण आदरपूर्वक हित शिक्षा दे रहे थे। इस प्रकार विविध तप से कृश शरीर वाले दमघोष नामक महामुनिराज को देखेगा। उनको देखकर (कहीं मैंने भी ऐसी अवस्था को स्वयंमेव अनुभव की है।) ऐसा चिंतन करते उसे उसी समय जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न होगा। और उसके प्रभाव से पूर्व जन्म के अभ्यस्त सारी आराधना विधि का स्मरण वाला बुद्धि रूप नेत्रों से वह गृहवास को पारा रूप, विषयों को विष तुल्य, धन को भी नाशवाला और स्नेहीजन के सुख को दुःख समान देखते सर्व विरति को स्वीकार करने की इच्छावाला फिर भी माता-पिता की आज्ञा से विवाह से विमुख भी कुछ वर्ष तक कुमार रूप में घर में रहेगा और धर्ममय जीवन व्यतीत करते वह (विशाल जिनमंदिर बनवायेगा उसका वर्णन करते है) विशाल किल्ले और द्वार से सुशोभित ऊँचे शिखरों की शोभा से हिमवंत और शिखरी नामक पर्वतों के शिखरों को भी हँसते अथवा (निम्न दर्शाने वाला) पवन से नाच करती, ध्वजाओं की रणकार करती, मणि की छोटी-मोटी घंटियों से मनोहर, चंद्र, कुमुद-क्षीर समुद्र का फेन और स्फटिक समान उज्ज्वल कांतिवाला, गीत स्तुति करते एवं बोलते भव्य प्राणियों के कोलाहल से गूंजती दिशाओं वाला, हमेशा उत्सव चलने से नित्य विशिष्ट पूजा से पूजित, दिव्य वस्त्रों के चंद्रवों से शोभित, मध्य भाग वाला, मणि जड़ित भूमि तल में मोतियों के श्रेष्ठ ढ़ेर वाला, हमेशा जलते कुंद्रुप, कपूर, धूप, आदि सुगंधि धूप वाला, पुष्पों के विस्तार की सुगंध से भौंरों की ,-, की गूंज करने वाला तथा अति शांत दीप्य और सुंदर स्वरूपवाला श्री जिनबिंब से सुशोभित अनेक श्री जिनमंदिर को विधिपूर्वक बनायेगा। तथा अति दुष्कर तप और चारित्र में एकाग्र मुनिवरों की सेवा करने में रक्त होगा। साधर्मिक वर्ग के वात्सल्य वाला, मुख्य रूप उपशम गुण वाला, लोक विरुद्ध कार्यों का त्यागी, यत्नपूर्वक इन्द्रियों के समूह को जीतने वाला होगा, सम्यक्त्व सहित अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत को पालन करने में उद्यमी होगा, शांत वेश धारक और श्रावक की ग्यारह प्रतिमा की आराधना द्वारा सर्वविरति का अभ्यास करनेवाला होगा। इस प्रकार निष्पाप जीवन से कुछ समय व्यतीत करके वह महात्मा राज्य लक्ष्मी, नगर धन, कंचन, रत्नों के समूह, माता पिता और गाढ़ स्नेह से बंधे हुए बंधु वर्ग को भी वस्त्र पर लगे तृण के समान छोड़कर उपशम और इन्द्रियों के दमन करने में मुख्य चौदह पूर्व रूपी महा श्रुतरत्नों का निधान धर्मयश नामक आचार्य के पास में देवों के समूह द्वारा महोत्सवपूर्वक कठोर कर्मों रूपी पर्वत को तोड़ने में वज्र समान दीक्षा सम्यक् प्रकार से स्वीकार करेगा। फिर सूत्र अर्थ के विस्तार रूप महा उछलते तरंगों वाला और अतिशय रूपी रत्नों से व्याप्त आगम समुद्र में चिरकाल स्नान करते छट्ठ, अट्ठम आदि दुष्कर उग्र तप चारित्र और भावनाओं से प्रतिदिन आत्मा, शरीर और कषाय की दोनों प्रकार की तीव्र संलेखना करते, कायर मनुष्य के चित्त को चमत्कार करे इस प्रकार के वीरासन आदि आसनों से प्रतिक्षण उत्कृष्ट संलीनता का अभ्यास करते, ।।१०००० ।। तथा संसार से डरा हुआ भव्य जीवों को करुणा से उपदेश देने रूप रस्सी द्वारा मिथ्यात्व रूपी अंध कुएँ में से उद्धार करते, सूर्य के समान महा तेज वाला, चंद्र समान सौम्य, पृथ्वी सदृश सर्व सहन करते, सिंह समान किसी से पराभूत नहीं होने वाले, तलवार और पशु के श्रृंग के समान अकेला, वायु के समान अस्खलित, शंख के समान निरंजन राग से रहित, पर्वत के समान 414 For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि लाभ द्धार-विजहना नामक नौवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला स्थिर, भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त और क्षीर समुद्र के समान गंभीर इस तरह लोकोत्तर गुणों के समूह से शोभित पृथ्वी ऊपर विचरते अंत समय में संलेखना क्रिया को विशेष प्रकार से करेगा। फिर आत्मा की संलेखना करता वह महाभाग चारों आहार का त्याग करके एक महीने का पादपोपगमन अनशन में रहेगा वहाँ शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से शीघ्र संपूर्ण कर्मवन को जलाकर जरा-मरण से रहित, इष्ट वियोग, अनिष्ट योग और दरिद्रता से मुक्त, एकान्तिक, आत्यंतिक व्याबाधारहित और श्रेष्ठ सुख से मधुर तथा पुनः संसार में आने का अभाव वाला, अचल, रजरहित, रोग रहित, क्षय रहित, शाश्वत, अशुभ-शुभ सर्व कर्मों को नाश करने से होने वाला भयमुक्त, अनंत शत्रु रहित असाधारण निर्वाणपद को एक ही समय में प्राप्त करेगा। और भक्ति वश प्रकट हुए रोमांच द्वारा व्याप्त देह वाले एकाग्र मन वाले देव उसका निर्वाण महोत्सव करेंगे। इस प्रकार हे स्थविरों! महासेन महामुनि को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल वाली, उत्कृष्ट कल्याण परंपरा को सम्यक् प्रकार से सुनकर, सर्वथा प्रमाद रहित, माया, मद, काम और मान का नाश करनेवाले, संसार वास से विरामी मनवाले और दुष्ट विकल्पों से अथवा शंकाओं से मुक्त तुम जिनमत रूपी समुद्र में से प्रकट हुआ यह आराधना रूपी अमृत का पान करो कि जिससे हमेशा जरा, मरण रहित तुम परम शांति स्वरूप मुक्ति को प्राप्त करो। इस प्रकार निर्मल ज्ञान के प्रकाश से मोहरूपी अंधकार को चकचूर करने वाले श्री गौतम स्वामी ने यथास्थित वस्तु के रहस्य को कहा, तब मस्तक पर दो हस्तकमलों को स्थिर स्थापितकर हर्षपूर्वक विकसित ललाटवाले विनय पूर्वक नमस्कारकर स्थविर इस प्रकार से स्तुति करने लगे। हे निष्कारण वत्सल! हे तीव्र मिथ्यात्व के अंधकार को दूर करने वाले दिवाकर-सूर्य! आपकी जय हो। हे स्व-पर उभय के भय को खत्म करने वाले! हे तीन लोक का पराभव करने वाले! काम का नाश करने वाले! हे तीन जगत में फैली हुई बर्फ समान उज्ज्वल विस्तृत कीर्ति के समूहवाले! हे सुरासुर सहित मनुष्यों ने सर्व आदर पूर्वक की हुई मनोहर स्तुति वाद वाले! हे मोक्ष नगर की ओर प्रस्थान करते भव्य जीव समूह के परम सार्थवाह! और हे अति गहरे समुद्र की भ्रांति कराने वाले! भरपूर करुणा रस के प्रवाह वाले भगवंत! आप विजयी रहें। हे स्वामी! विश्व में ऐसी कोई उपमा नहीं है कि जिसके साथ आपकी तुलना कर सकूँ? केवल आप से ही आपकी तुलना कर सकता हूँ परंतु दूसरा कोई नहीं है। कम गुण वालों की उपमा से उपमेय की सुंदरता किस तरह हो सकती है? 'तालाब से समुद्र' इस तरह की हुई तुलना शोभायमान नहीं होती है। हे प्रभु! सौधर्माधिपति इन्द्र आदि भी आपके गुणों की प्रशंसा करने के लिए समर्थ नहीं है तो फिर तुच्छ बुद्धि वाला अन्य व्यक्ति आपकी स्तुति कैसे कर सकता है? हम हे नाथ! यद्यपि आप की उपमा और स्तुति के अगोचर है, फिर भी सद्गुरु हो, चक्षु दाता और अत्यंत श्रेष्ठ उपकारी हो, इससे भक्ति समूह से चंचल हम आपकी ही स्तुति करते हैं, क्योंकि निश्चय रूप में आप से अन्य कोई भी स्तुति पात्र नहीं है। इस कारण से आप ही इस विश्व में जय प्राप्त करते हो कि जिससे संसार समुद्र में डुबते भव्य जीवों को यह आराधना रूपी नाव का परिचय करवाया। इस तरह श्रमणों में सिंह तुल्य भगवान श्री गौतम स्वामी की स्तुति कर स्थविर प्रारंभ किये धर्म कार्यों को करने में सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त हुए। इस प्रकार यह संवेग रंग शाला नाम की आराधना-रचना समाप्त हुई है अब इसका कुछ अल्प रहा हुआ शेष भाग कहता हूँ ।।१००२५ । 415 For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसंवेगरंगशाला ग्रंथकार की प्रशस्ति ग्रंथकार की प्रशस्ति श्री ऋषभादि तीर्थंकरों में अंतिम भगवान और तीन लोक में विस्तृत कीर्तिवाले चौबीस वें जिनवरेन्द्र अथवा जिन्होंने तेजस्वी अंतरंग शत्रुओं को हराकर 'वीर' यथार्थ नाम प्राप्त किया है और तीन जगत रूपी मंडप में मोह को जीतने से अतुल मल्ल होने से महावीर बने हैं। उनके संयम लक्ष्मी की क्रीड़ा के लिए सुंदर महल तुल्य सुधर्मा नाम से शिष्य हुए और उनके गुणी जन रूप पक्षियों के श्रेष्ठ जम्बूफल समान जम्बू नाम से शिष्य हुए। उनसे ज्ञानादि गुणों की जन्म भूमि समान महाप्रभु प्रभव नामक शिष्य हुआ और उनके बाद भाग्यवंत शय्यंभव भगवान हुए। फिर उस महाप्रभु रूपी वंशवृक्ष के मूल में से साधुवंश उत्पन्न हुआ, परंतु उस वंश वृक्ष से विपरीत हुआ जैसे कि बांस जड़ होता है, साधुवंश में जड़ता रहित चेतन दशा वाला, और वांस ऊपर जाते पतला होता जाता है, परंतु साधुवंश तो विशाल शाखा, प्रशाखाओं से विस्तृत सर्व प्रकार से गुण वाला, वांस के फल आते तब वह नाश होता है परंतु यह वंश शिष्य प्रशिष्यादि से वृद्धि करनेवाला, वांस के पत्ते अंत में सड़ जाते हैं किंतु यह वंश सडाण रहित, श्रेष्ठ पात्र मुनियों वाला, सर्व दिशाओं में हमेशा छायावाला, कषाय तृप्त जीवों का आश्रय दाता, वांस का वृक्ष दूसरे से नाश होता है परंतु यह वंश दूसरों द्वारा पराभव नहीं होने वाला तथा कांटे रहित, वांस अमुक मर्यादा में बढता है परंतु यह वंश हमेशा बढ़ने के गणवाला तथा राजाओं के शिरसावंद्य-मस्तक में रहे हए फिर भी पृथ्वी में प्रतिष्ठा प्राप्त करते और वक्रता रहित अत्यंत सरल अपूर्व वंश प्रवाह बढ़ते उसमें अनुक्रम से परमपद को प्राप्त करने वाले महाप्रभु श्री वज्र स्वामी आचार्य भगवंत हुए हैं। उनकी परंपरा में काल क्रम से निर्मल यश से उज्ज्वल और कामी लोगों के समान गोरोचन का महा समूह सविशेष सेवा करने योग्य है, तथा सिद्धि की इच्छा वाले मुमुक्षु लोगों के लिए सविशेष वंदनीय और अप्रतिम प्रशमभाव रूप लक्ष्मी के विस्तार के लिए अखूट भंडार भूत श्री वर्धमान सूरीश्वर हुए हैं उनके व्यवहार और निश्चय समान, अथवा द्रव्यस्तव और भावस्तव समान परस्पर प्रीतिवाले धर्म की परम उन्नति करने वाले दो शिष्य हुए उसमें प्रथम आचार्य श्री जिनेश्वर सूरीश्वरजी हुए कि सूर्य के उदय के समान उनके उदय से दुष्ट तेजोद्वेषी चकोर की मिथ्यात्व प्रभा-प्रतिष्ठा लुप्त हुई। जिन्हों ने महादेव के हास्य और हंस समान उज्वल गुणों के स्मरण करते भव्य जीवों को आज भी शरीर में रोमांच का अनुभव होता है। पुनः निपुण श्रेष्ठ व्याकरण आदि अनेक शास्त्रों के रचने वाले, जग प्रसिद्ध बुद्धिसागरसूरि नामक दूसरे शिष्य हुए उनके चरण कमल रूपी गोद के संसर्ग से परम प्रभाव प्राप्त करने वाले श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी उनके प्रथम शिष्य हुए और पूर्णिमा के चंद्र के समान भव्यात्य रूपी कुमुद के वन को शीतलता करनेवाले, जगत में महा कीर्ति को प्राप्त करने वाले श्री अभयदेव सूरीश्वरजी दूसरे शिष्य हुए। राजा जैसे शत्रु का नाश करता है वैसे उन्होंने कुबोध रूपी महा शत्रु को नाश करने वाले श्री श्रुतधर्म रूपी राजा के नौ अंगों की वृत्ति को करने के द्वारा उसकी दृढ़ता की है। वे श्री अभयदेव सूरिजी की प्रार्थना वश होकर श्री जिनचंद्र सूरीजी ने माली के समान मूलसूत्र रूपी बाग में से वचन रूपी उत्तम पुष्पों को वाणी रूप से एकत्रित करके अपनी बुद्धि रूपी गुण-धागे से गूंथकर विविध विषय रूपी सुगंध के समूह वाली यह आराधना नाम की माला रची हुई है। श्रमण रूपी भ्रमरों के हृदय को हरण करने वाली इस माला को विलासी मनुष्यों के समान भव्य प्राणी अपने सुख के लिए सर्व आदरपूर्वक उपयोग करें। __ ग्रंथ रचना में सहायक और प्रेरक :- उत्तम गुणी मुनिवरों के चरणों में नमस्कार करने से जिसका ललाट पवित्र है उस सुप्रसिद्ध सेठ गोवर्धन के प्रसिद्ध पुत्र सा. जज्जनाग नामक पुत्र हुए हैं, इन्होंने अति प्रशस्त तीर्थ यात्रायें करने से प्रसिद्ध अप्रतिम गुणों द्वारा कुमुद सदृश निर्मल महान् कीर्ति को प्राप्त की है, तथा श्री जिन बिम्बों का प्रतिष्ठापन, आगम लिखवाना इत्यादि धर्म कार्यों से अन्य का आत्मोत्कर्ष करने वाले और इर्ष्या रखने 416 - For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथकार की प्रशस्ति श्री संवेगरंगशाला वालों के चित्त को चमत्कार कराने वाले जिनागम से संस्कार प्राप्तकर बुद्धिमान बनें हैं। उस श्री सिद्धवीर नामक सेठ की सहायता से और अत्यंत भावनापूर्वक इस आराधना माला की रचना की है। ग्रंथकार का आशीर्वाद :- इस रचना द्वारा हमने जो किंचित् भी पुण्य उपार्जन किया हो, उससे भव्य जीव श्री जिनाज्ञा के पालन रूप श्रेष्ठ आराधना को प्राप्त करें। ग्रंथ रचना का स्थान और समयादि :- 'आराधना' ऐसा प्रकट स्पष्ट अर्थवाली यह रचना छत्रावली नगरी में सेठ जेज्जय के पुत्र सेठ पासनाग की वसति में विक्रम राजा के समय से ग्यारह सौ के ऊपर पच्चीस वर्ष अर्थात् १९२५ विक्रम संवत् में यह ग्रंथ पूर्ण किया, एवं विनय तथा नीति से श्रेष्ठ समस्त गुणों के भंडार श्री जिनदत्त गणी नामक शिष्य ने इसे प्रथम पुस्तक रूप में लिखी है ।। १००५३।। भावि भ्रमण को मिटाने के लिए इस ग्रंथ सर्व गाथा (श्लोक) मिलाकर कुल दस हजार तिरेप्पन होते हैं। इस प्रकार श्री जिनचंद्र सूरीश्वर ने रचना की है, उनके शिष्य रत्न श्री प्रसन्नचंद्रसूरीजी की प्रार्थना से श्री गुणचंद्र गणी ने इस महा ग्रंथ को संस्कारित किया है और श्री जिनवल्लभ गणी ने संशोधन की हुई श्रीसंवेगरंगशाला नाम की आराधना पूर्ण हुई। वि.सं. १२०३ पाठांतर १२०७ वर्ष में जेठ शुद १४ गुरुवार के दिन दण्ड नायक श्री वोसरि ने प्राप्त किये ताम्र पत्र पर श्रीवट वादर नगर के अंदर संवेगरंगशाला पुस्तक लिखी गई है इति ऐसा अर्थ का संभव होता है। तत्त्व तो केवल ज्ञानी भगवंत जाने । इस ग्रंथ का उल्लेख श्री देवाचार्य रचित कथा रत्न कोष की प्रशस्ति में इस प्रकार से जानकारी मिलती है - आचार्यश्री जिनचंद्रसूरीश्वरजी वयरी वज्र शाखा में हुए हैं। वे आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरीश्वरजी के शिष्य थे और ग्रंथ रचना वि. सं. ११३९ में की थी। कहा है कि चांद्र कुल में गुण समूह से वृद्धि प्राप्त करते श्री वर्धमान सूरीश्वर के प्रथम शिष्य श्री जिनेश्वर सूरीजी और दूसरे शिष्य बुद्धिसागर सूरीजी हुए हैं। आचार्य श्री बुद्धि सागर सूरीजी के शिष्य चंद्रसूर्य की जोड़ी समान श्री जिनचंद्र सूरीजी और नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव सूरीजी हुए, अपनी शीत और ऊष्ण किरणों से जगत में प्रसिद्ध थे । उन श्री जिनचंद्र सूरीश्वरजी ने यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना रचना की है और श्री प्रसन्नचंद्र सूरीश्वर के सेवक अनुसुमति वाचक के शिष्य लेश श्री देवभद्र सूरि ने कथा रत्न कोश रचना की है और यह संवेगरंगशाला नामक आराधना शास्त्र को भी संस्कारित करके उन्होंने भव्य जीवों के योग्य बनाया है। इसके अतिरिक्त जेसलमेर तीर्थ के भंडार की ताड़पत्र ऊपर लिखा हुआ संवेगरंगशाला के अंतिम विभाग में लिखने की प्रशस्ति इस प्रकार है- जन्म दिन से पैर के भार से दबाये मस्तक वाला मेरु पर्वत के द्वारा भेंट स्वरूप मिली हुई सुवर्ण की कांति के समूह से जिनका शरीर शोभ रहा है वे श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं । सज्जन रूपी राजहंस की क्रीड़ा की परंपरा वाले और विलासी लोग रूपी पत्र तथा कमल वाले सरोवर समान श्री अणहिल्ल पट्टन (पाटन) नगर में रहनेवाला तथा जिसने भिल्लमाल नामक महागोत्र का समुद्धार या वृद्धि की है उस गुण संपदा से युक्त मनोहर आकृतिवाला, चंद्र समान सुंदर यश वाला, जगत में मान्य और धीर श्री जीववान (जीवन) नामक ठाकुर (राज या राजपुत्र) हुआ, उसने स्वभाव से ही ऐरावण के समान भद्रिक सदा वीतराग का सत्कार, भक्ति करने वाला आचार से दानेश्वरी वर्धमान ठाकुर नाम का पुत्र था । उसे नदीनाथ समुद्र को जिसका आगमन प्रिय है वह गंगा समान पति को जिसका आगमन प्रिय है उसे अत्यंत मनोहर आचार वाली यशोदेवी नामक उत्तम पत्नी थी। उन दोनों को चंद्र समान प्रिय और सदा विश्व में हर्ष वृद्धि का कारण तथा अभ्युदय के लिए गौरव को प्राप्त करनेवाला पंडितों में मुख्य, प्रशंसा पात्र पार्श्व ठाकुर नामक पुत्र हुआ। उस कुमार ने पल्ली में बनाया हुआ भक्ति के अव्यक्त शब्द से गूँजता सुवर्णमय कलश वाला श्री महावीर प्रभु का चौमुख मंदिर हिमवंत पर्वत की प्रकाश वाली औषधियों से युक्त ऊँचे शिखर के समान शोभता है। उस मंदिर के For Personal & Private Use Only 417 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संवेगरंगशाला 'ग्रंथकार की प्रशस्ति अंदर सुंदर चरण, जंघा, कटिभाग, गरदन और मुख के आभूषण से अनेक प्रकार की विलास करने वाली पुतलियों के समूह को अपने मुकुट समान धारण करता है। उस पार्श्व ठाकुर की महादेव को प्रिय गोरी के समान प्रिय प्रशस्त आचार की भूमि सदृश स्वजन वत्सला उत्तम धंधिका नाम की पत्नी थी। उन दोनों के तुच्छ जीभ रूपी लता वाले मनुष्य के मान को विस्तार करने में चतुर लोकपाल समान पाँच पुत्र हुए जो श्री जिन पूजा, मुनिदान और नीति के पालन से प्रकट हुई शरदचंद्र तथा मोगर के पुष्पों के समान उज्ज्वल और निर्मल कीर्ति आज भी विस्तृत है। उस पाँच में प्रथम नन्नुक महत्तम ठाकुर, दूसरा बुद्धिमान लक्ष्मण ठाकुर और तीसरा इन्द्र के समान सत्यवादी पुण्यशाली आनंद महत्तम ठाकुर था। उसकी वाणी रस से मिसरी सदृश विस्तार वाली है, चित्तवृत्ति अमृत की तुलना करने वाली है और उसका सुंदर आचरण शिष्टजनों के नेत्रों को उत्तम कूर्पर के अंजन के समान हमेशा शीतल करता है। अर्थात् सर्व अंग सुंदर थे। इसके अतिरिक्त चौथा पुत्र धनपाल ठाकुर और पाँचवाँ पुत्र नागदेव ठाकुर था और उसके ऊपर शील से शोभने वाली श्रीदेवी नाम से एक पुत्री ने जन्म लिया था। इन पाँचों पुत्रों में आनंद महत्तम को क्रमशः दो पत्नियाँ हुईं, जैसे पृथ्वी धान्य और पर्वत रूप संपत्ति को धारण करती है, वैसे प्रशस्त शियल की संपत्ति को धारण करने वाली विजयमती थी। दूसरी-भिल्लमाल कुलरूपी आकाश चंद्र समान शोभित सौहिक नामक श्रावक था उसे ज्योत्स्ना समान सम्यक् नीति की भूमिका लखुका (लखी) नामक पत्नी थी। उनको सौम्य कांति वाला छड्डक नाम से बड़ा पुत्र और मति तथा बुद्धि सदृश राजीनी और सीलुका दो पुत्रियाँ थीं। उसमें विनयवाली वह राजीनी को विधिपूर्वक मंत्री आनंद महत्तम से विवाह किया। उसकी पतिव्रता को देखकर लोग सीतादि महासतियों को याद करते हैं। इस मंत्री आनंद महत्तम को विजयमती से पृथ्वी में प्रसिद्ध और राजमान्य शरणित ठाकुर नामक पुत्र हुआ। वह रोहणाचल की खान के मणि समान तेजस्वी और अपने गोत्रों का अलंकार स्वरूप और हांसी रहित था। उसे धाउका नामक बहन थी। वह शांत होने के साथ सतीव्रत में प्रेम रखने वाली और सर्व को सुंदर उत्तर देने वाली तथा चतुर थी। राजीनी ने भी श्रेष्ठ निष्कलंक और स्वजन प्रिय पुत्र को जन्म दिया, उसका नाम 'पूर्ण प्रसाद' रखा। वह अपने भाई शरणिन को अति प्रिय था, तथा वह स्वयं पूज्यों के प्रति नम्र था और इससे राम, लक्ष्मण के समान बढ़ती मैत्रीभाव-हितचिंता वाले थे। राजीनी को कोमल भाषी और हंसनी जैसे सदा जलाशय में रागी समान वह देव स्थान में प्रेम रखने वाली पूर्ण देवी नामक पुत्री को भी जन्म दिया। फिर किसी एक दिन उस आनंद महत्तम ने गुरु महाराज के पास में मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्त कराने वाला उत्तम श्रृत और चारित्र रूप धर्म को सम्यक् रूप में सुना। उसमें भी श्री जिनेश्वर ने ज्ञान रहित क्रिया करने से जीवन की सफलता नहीं मानी है. इसलिए सर्व दानों में उस ज्ञान दान को प्रथम कहा है और भी कहा है कि जो उत्तम पुस्तक शास्त्रादि की रक्षा करता है अथवा दूसरों को लिखाकर ज्ञान दान करता है, वह अवश्यमेव मोह अंधकार का नाश करके केवलज्ञान द्वारा जगत को सम्यग् जानकर जन्म-मरणादि संसार से मुक्त हो जाता है। जो यहाँ पर जैनवाणी-आगम साहित्य को लिखाता है वह मनुष्य दुर्गति, अंधा, निर्बुद्धि, गूंगा और जड़ या शून्य मन वाला नहीं होता है। इसे सुनकर महत्तम आनंद ने अपनी पत्नी राजीनी के पुण्य के लिए मनोहर यह संवेगरंगशाला को ताड़पत्र के ऊपर लिखवाई है। जहाँ तक सिद्धि रूपी राजमहल, अरिहंत रूपी राजा, अनुपम ज्ञान लक्ष्मी रूपी उनकी पत्नी, सिद्धांत के वचन रूपी न्याय, श्री-शोभा अथवा संपत्ति तथा उसके त्याग रूप और उसके साधन रूप प्राप्त करने वाले गहस्थ धर्म दःख को प्राप्त करने वाला निर्गणी-पापी के लिए घम्मा, वंशा आदि सात कैदखाना (नरक) और गुणीजन के लिए स्वर्ग तथा मोक्ष धाम, अतिरिक्त नियोग-नौकर और साम्राज्य ये भाव इस जगत के हैं. वहाँ तक यह ग्रंथ प्रभाव वाला बनें। ।। इति शुभम् ।। 418 For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदश००००० आत्मा के तीन रुप है, बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा अनंत काल से आत्मा बहिरात्म भाव में रमण करता हुआ चारों गति के 84 लाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है / भवितव्यता की परिपक्वता के समय पर शुभ निमित्तों की प्राप्ति होती है / इन शुभ निमित्तों में सर्व श्रेष्ठ निमित्त है जिनेश्वर भगवंत द्वारा प्ररूपित जिनशासन की प्राप्ति / जिनशासन की प्राप्ति द्रव्य से हो जाने पर ही भाव से जिन शासन का परिणमन होता है, तब आत्मा अंतरात्म भाव में रमण करने लगता है / अतंरात्म भाव की रमणता को सतत जागृत रखने के लिए संवेग रस के पान की प्रवृत्ति अति आवश्यक है / अतः यह संवेग रंग शाला ग्रंथ संवेगरस की प्यास जगाने, संवेग रस की प्यास की तृप्ति एवं संवेग में आगे कदम बढ़ाते हुए अंतरात्म भाव से परमात्म भाव के प्रकटीकरण में सहायक सिद्ध होगा। आवश्यक है आप इसे मनन पूर्वक पढ़ें.... "ज्ञान दान आत्मा के उत्थान हेतु जो शिक्षा दी जाय वह ज्ञानदान.... सुसंस्कार पोषक जो शिक्षा दी जाय वह ज्ञान दान.... सद्ज्ञान के साधनो की पूर्ति करना ज्ञानदान है.... सदज्ञानियों का विनय, बहुमान एवं भक्ति करना भी परंपरा से ज्ञानदान है, सद्ज्ञान लिखना, लिखवाना, छपवाना भी ज्ञानदान है... श्रद्धा अमृत है, श्रद्धा द्वारा ही श्रद्धावान श्रद्धेय स्वरूप को प्राप्त करता है / यह एक सम्यग्दृष्टि है / इसी दृष्टि द्वारा साधक दान, शील, तप और भाव में निमज्जित होकर अमरत्व-मोक्षनगर के महापथ पर अग्रसरित होता है / गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित साहित्य जैन धर्म की मूलभूत मान्यताओं का प्रचार-प्रसार के सिद्धांत को लेकर ही प्रकाशित किया जा रहा है। आप तक साहित्य निःशुल्क पहुँचाया जा रहा है / आप इसे पढ़ते ही होंगे / पढ़कर आप इसे दूसरों से पढ़वाने का कार्य भी करते होंगे / इस साहित्य के वांचन मनन द्वारा आप सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर शिव पद प्राप्त करें यही..... -जयानंद Mesco Prints: -080-22380470 For Personal & Private Use Only