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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार आलोचना-प्रायश्चित्त करता है वह भी आराधक नहीं है। इस कारण से ही प्रायश्चित्त के लिए गीतार्थ की खोज करें, क्षेत्र से उत्कृष्ट सात सौ योजन तक और काल से बारह वर्ष तक करनी चाहिए। इस तरह आलोचना नहीं करने से होने वाले दोषों को संक्षेप से कहा है। अब प्रायश्चित्त करने से जो गुण प्रकट होते हैं उसे कहता हूँ। ५. आलोचना से गुण प्रकट :- (१) लघुता, (२) प्रसन्नता, (३) स्व-पर दोष निवृत्ति, (४) माया का त्याग, (५) आत्मा की शुद्धि, (६) दुष्कर क्रिया, (७) विनय की प्राप्ति, और (८) निशल्यता। ये आठ गुण आलोचना करने से प्रकट होते हैं, इसे अनुक्रम से कहता हूँ : (१) लघुता :- यहाँ पर कर्म के समूह को भार स्वरूप जानना क्योंकि वह जीवों को थकाता है, पराजित करता है, उस भार से थका हुआ जीव शिव गति में जाने में असमर्थ हो जाता है, संक्लेश को छोड़कर शुद्ध भाव से दोषों की आलोचना करने से बार-बार पूर्व में एकत्रित किये कर्म-बंध रूपी महान भार खत्म करता है, और ऐसा होने से जीव को भाव से शिव गति का कारणभूत चारित्र गुण की प्राप्ति होकर परमार्थ से महान कर्मों की लघुता प्राप्त करता है। अर्थात् वह आत्मा कर्मों से हल्का बन जाता है। (२) प्रसन्नता :- शुद्ध स्वभाव वाला मुनि जैसे-जैसे सम्यग् उपयोगपूर्वक अपने दोष गुरु महाराज को बताता है वैसे-वैसे नयी-नयी संवेग रूप श्रद्धा से प्रसन्न होता है 'मुझे यह दुर्लभ उत्तम वैद्य मिला है, भाव रोग में ऐसा वैद्य मिलना दुर्लभ है, व्याधि बढ़ाने वाले, लज्जा आदि अधम दोष भयंकर हैं, इसलिए इस गुरुदेव के चरण-कमल के पास लज्जादि छोड़कर सम्यग् आलोचना लेकर अप्रमत्त दशा में संसार के दुःखों की नाशक क्रिया अनशन स्वीकार करूँगा।' इस तरह शुभ भावपूर्वक आलोचना करता है और वह शुभ भाव वाले को 'मैं धन्य हूँ कि जो मैंने इस संसार रूपी अटवी में आत्मा को शुद्ध किया है' ऐसी प्रसन्नता प्रकट होती है। (३) स्व पर दोष निवृत्ति :- पूज्यों के चरण-कमल के प्रभाव से शुद्ध हुई आत्मा, लज्जा के कारण और प्रायश्चित्त के भय से पुनः अपराध न करें। इस तरह आत्मा स्वयं दोषों से रूकती है और इसी तरह उद्यम करते उस उत्तम साधु को देखकर पाप के भय से डरते हुए दूसरे भी अकार्य नहीं करते, केवल संयम के कार्यों को ही करते हैं ।।५०००।। इस तरह. अपने और दसरे के दोषों की निवत्ति होने से स्व पर उपकार होता है. और स्व पर उपकार से अत्यंत महान् दूसरा कोई गुण स्थानक नहीं है। (४)-(५) माया त्याग और शुद्धि :- श्री वीतराग भगवंतों ने आलोचना करने से भवभय का नाशक और परम निवृत्ति का कारण माया त्याग और शुद्धि की प्राप्ति कहा है। माया रहित सरल जीव की शुद्धि होती है, शुद्ध आत्मा को धर्म स्थिर होता है और इससे घी से सिंचन किये अग्नि के समान परम निर्वाण (परम तेज अथवा पवित्रता) प्राप्त करता है। परंतु मायावी क्लिष्ट चित्त वाला बहुत प्रमादी जीव पाप कार्यों का कारणभूत अनेक क्लिष्ट कर्मों का ही बंध करता है। और यहाँ पर उस अति कर्मों को भोगते जो परिणाम आते हैं वह प्रायः संक्लेश कारक पाप कर्म का कारक बनता है। इस तरह क्लिष्ट चित्त से पाप कर्मों का बंध और उसे भोगते हुए क्लिष्ट चित्त होता है, उसमें पुनः पाप कर्म का बंध होता है, इस तरह परस्पर कार्य कारण रूप में संसार की वृद्धि होती है और संसार बढ़ने से अनेक प्रकार के दुःख प्रकट होते हैं। इस प्रकार माया ही सर्व संक्लेशों-दुःखों का मूल मानना वह योग्य है। आलोचना से माया का उन्मूलन होता है, इससे आर्जव-सरलता प्रकट होती है और आलोचना से जीव की शुद्धि होती है, आलोचना करने से ये दो गुण प्रकट होते हैं। (६) दुष्कर क्रिया :- यह आलोचना करना अति दुष्कर है, क्योंकि-कर्म के दोष से जीव प्रमाद से दोषों का सेवन सुखपूर्वक करता है, और यथास्थित आलोचना करते उसे दुःख होता है। अतः कर्म के दोष से सैंकड़ों, 214 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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