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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार
श्री संवेगरंगशाला हजारों अनेक भव में बार-बार दोषों का सेवन करते हुए महा बलवान बने हुए लज्जा, अभिमान आदि का त्याग कर जो आलोचना करता है, वह जगत में दुष्कर कारक है, जो इस तरह सम्यक् प्रकार से आलोचना करता है, वही महात्मा सैंकड़ों भवों के दुःखों का नाश करने वाली निष्कलंक - शुद्ध आराधना को भी प्राप्त कर सकता है। (७) विनय सम्यग् आलोचना करने से श्री तीर्थंकर भगवंत की आज्ञा का पालन होने से प्रभु का विनय होता है, गुरुदेवों का विनय होता है और ज्ञानादि सफल होने से भी विनय गुण होता है। कहा है कि
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे ।
विणयाओ विप्पमुक्कस्स कओ धम्मो कओ तवो ।। ५०१२ ।।
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विनय यह शासन का मूल है, अतः संयत विनीत होते हैं, 'विनय रहित को धर्म की प्राप्ति कहाँ से और तप भी कहाँ से होता है?' क्योंकि कहा है कि - चातुरंत संसार से मुक्ति के लिए आठ प्रकार के कर्मों को विनय ही दूर करता है, इसलिए संसार मुक्त श्री अरिहंत भगवान ने विनय को ही श्रेष्ठ कहा है।
(८) निःशल्यता :- आलोचना करने से ही साधु अवश्य शल्य रहित होते हैं अन्यथा नहीं होते हैं, इस कारण से आलोचना का गुण निःशल्यता है । शल्य वाला निश्चय शुद्ध नहीं होता है, क्योंकि श्री वीतराग के शासन में कहा है कि 'सर्व शल्यों का उद्धार करने वाला ही जीव क्लेशों का नाश करके शुद्ध होता है।' इसलिए गारव रहित आत्मा नये-नये जन्म रूपी लता का मूलभूत मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य और नियाण शल्य को मूल में से उखाड़ता है, जैसे भार वाहक मजदूर भार को उतारकर अति हल्का होता है, वैसे गुरुदेव के पास में दुष्कृत्यों की आलोचना और निंदा करके सर्व शल्यों का नाश करने वाला साधु कर्म के भार को उतारकर अति हल्का होता है। इस तरह आलोचना के आठ गुण संक्षेप से कहें। इस तरह यह पाँचवां अंतर द्वार जानना। अब यह आलोचना किस तरह दे, उसे कहते हैं।
६. आलोचना किस तरह दे? आलोचना में इस तरह सात मर्यादा हैं - (१) व्याक्षेप चित्त की चंचलता को छोड़कर, (२) प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का योग प्राप्त कर, (३) प्रशस्त दिशा संमुख रखकर, (४) विनय द्वारा, (५) सरल भाव से, (६) आसेवन आदि क्रम से, और (७) छह कान के बीच आलोचना करनी चाहिए। उसे क्रमसर कहते हैं :
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(१) अव्याक्षिप्त मन से • इसमें अव्याक्षिप्त साधु नित्यमेव संयम स्थान के बिना अन्य विषय में व्याक्षेप रहित अनासक्त रहना चाहिए और आलोचना लेने में तो सविशेष व्याक्षेप रहित रहना चाहिए। दो अथवा तीन दिन में आलोचना लेनी चाहिए, उस कारण से सोकर या जागते अपराध को यादकर सम्यग् रूप से मन में स्थिर करो, फिर ऋजुता - सरलता को प्राप्तकर, उन सब दोषों को तीन बार यादकर लेश्या से विशुद्ध होते हुए शल्य के उद्धार के लिए श्री गुरुदेव के पास आओ और पुनः संवेग को प्राप्त करते उसी तरह सम्यग् दोषों को कहें कि - जिस प्रकार परिणाम की विशिष्टता से अन्य जन्मों में किये हुए कर्मों का भी छेदन-भेदन हो जाये ।
(२) प्रशस्त द्रव्यादि का योग द्रव्य, क्षेत्र आदि चारों भाव के प्रत्येक के प्रशस्त और अप्रशस्त इस तरह दो-दो भेद हैं, उसमें से अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त में आलोचना करनी चाहिए। उसमें द्रव्य के अंदर अमनोज्ञतुच्छ धान्य का ढेर और तुच्छ वृक्ष यह अप्रशस्त द्रव्य हैं, क्षेत्र में - गिरे हुए अथवा जला हुआ घर, उखड़ भूमि आदि स्थान, यह अप्रशस्त क्षेत्र हैं, काल में- दग्धातिथि, अमावस्या और दोनों पक्ष की अष्टमी, नौवीं, छठी, चतुर्थी तथा द्वादशी ये तिथियाँ तथा संध्यागत, रविगत आदि दुष्ट नक्षत्र और अशुभ योग ये सब अप्रशस्त काल जानना, भाव में-राग-द्वेष अथवा प्रमाद, मोह आदि अप्रशस्त भाव जानना । इसे स्वदोष
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