SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्य विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार समझना, इन अप्रशस्त द्रव्यादि में आलोचना नहीं करनी, परंतु उसके प्रतिपक्षी प्रशस्त द्रव्यादि में करनी, वह प्रशस्त द्रव्य में-सुवर्ण आदि अथवा क्षीर वृक्ष आदि के योग में आलोचना करनी। प्रशस्त क्षेत्र में-गल्ले के क्षेत्र, चावल के क्षेत्र या श्री जिनमंदिरादि हों वहाँ पर या जोर से आवाज करते या प्रदक्षिणावर्त वाले-जल के स्थान में आलोचना करनी, प्रशस्त काल में-पूर्व में कहे उससे अन्य शेष तिथियाँ, नक्षत्र करण योग आदि में आलोचना करनी और प्रशस्त भाव में-मन आदि की प्रसन्नता में और ग्रह आदि उच्च स्थान में हो अथवा प्रशस्त भावजनक सौम्य ग्रह से युक्त, पवित्र या पूर्ण लग्न में वर्तन हो, इस तरह शुभ द्रव्यादि का समुदाय इस विषय में प्रशस्त योग जानना उस समय आलोचना करनी। (३) प्रशस्त दिशा :- पूर्व, उत्तर अथवा श्री जिनेश्वर आदि से लेकर नौ-पूर्वधर तक ज्ञानी महाराज जिस दिशा में विचरते हों अथवा जिस-जिस दिशा में श्री जिनमंदिर हों वह दिशा उत्तम जानना, उसमें भी यदि आचार्य महाराज पूर्वाभिमुख बैठे हों तो आलोचक उत्तराभिमुख दाहिनी ओर, और यदि आचार्य उत्तराभिमुख हों तो आलोचक पूर्वाभिमुख बायी ओर खड़े रहें। इस तरह परोपकार करने में श्रेष्ठ मन वाले आचार्य श्री पूर्व अथवा उत्तर सन्मुख या चैत्य सन्मुख सुखपूर्वक बैठकर आलोचना को सुनें। (४) विनयपूर्वक :- भक्ति एवं अति मानपूर्वक गुरु महाराज को उचित आसन देकर, वंदन नमस्कारकर, दो हाथ जोड़कर, सन्मुख खड़े रहकर, संवेग रंग से निर्वेदी और विषयों से विरागी, वह महासात्त्विक आलोचक उत्कृष्ट से उत्कट आसन में और यदि बवासीर आदि रोग से पीड़ित हो या अनेक दोष सेवन किये हों और उसे कहने में अधिक समय लगने वाला हो तो गुरु महाराज की आज्ञा लेकर आसन पर बैठकर भक्ति और विनय से मस्तक नमाकर सर्व दोषों का यथार्थ स्वरूप निवेदन करे। (५) ऋजु भावपूर्वक :- जैसे बालक बोलते समय कार्य अथवा अकार्य को जैसे देखा हो उसके अनुसार सरल भाव से बोलता है वैसे माया और अभिमान रहित आलोचक बालक के समान सरल स्वभाव से दोषों की आलोचना करें। (६) क्रमपूर्वक :- इसमें आसेवना क्रम और आलोचना क्रम दो प्रकार का क्रम है। उसमें आसेवना क्रम अर्थात् जो दोष जिस क्रम से सेवन किया हो उसी क्रम से आलोचना करे। आलोचना क्रम में बड़े-बड़े अपराधों की बाद में आलोचना करे 'पंचक' आदि से प्रायश्चित्त के क्रम से प्रथम छोटे दोष को कहना फिर जैसेजैसे प्रायश्चित्त की वृद्धि हो उस-उस क्रम से आकुट्टि द्वारा सेवन किया हो, कपट से सेवन किया हो, प्रमाद से सेवन किया हो, कल्पना से सेवन किया हो, जयणापूर्वक सेवन किया हो, अथवा अवश्य करने योग्य, कारण प्राप्त होने पर जयणा से सेवन किया हो उन-उन सर्व दोषों को यथास्थित जैसा सेवन किया हो उस प्रकार आलोचना करें। (७) छह श्रवण :- इसमें साधु को आचार्य और आलोचक इन दोनों के चार कान और साध्वी के ६ कान जानना। वह इस तरह गुरु महाराज यदि वृद्ध हों तो अकेले और वृद्ध साध्वी हों, फिर भी दूसरी एक साध्वी को साथ में रखें। इस तरह तीन मिलकर छह कान में आलोचना करनी चाहिए और गुरु महाराज यदि युवा हों तो दूसरे साधु को रखकर और यदि साध्वी तरुण हों तो वृद्ध साध्वी को साथ रखकर, इस तरह दो साधु और दो साध्वी, इस प्रकार चार के समक्ष आठ कान में आलोचना लेनी चाहिए। इस प्रकार आलोचना जिस तरह लेनी, उस तरह संक्षेप से कहा है, अब आलोचना में जो अनेक प्रकार के दोषों की आलोचना करनी चाहिए, वह कहता हूँ। 216 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy