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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार
श्री संवेगरंगशाला ७. क्या-क्या आलोचना करे? - यह आलोचना ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इस प्रकार पाँच प्रकार के आचार में विरुद्ध प्रवृत्ति हो उसकी जानना। इसमें समस्त पदार्थों को प्रकाश करने में (जानने में) शरद ऋतु के सूर्य समान अतिशयों के भंडार और इससे तीन जगत से पूजनीय, ज्ञानी भगवंत का एवं ज्ञान का काल, विनय आदि आचार से विरुद्ध प्रवृत्ति करने से जो अतिचार लगा हो, आत्म सुख में विघ्नभूत, ऐसा कोई भी अतिचार लगा हो उसकी स
उसकी सम्यग रूप से आलोचना करनी चाहिए। इसी तरह सम्यग ज्ञान रूपी लक्ष्मी के विस्तार को धारण करने वाले पुरुष सिंह, ज्ञानी पुरुष तथा ज्ञान के आधारभूत पुस्तक, पट, पटड़ी आदि उपकरणों को पैर आदि के संघट्टन द्वारा, निंदा करने से अथवा अविनय करने द्वारा जो अतिचार लगा हो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए।
इसी तरह निश्चय ही दर्शनाचार में भी किसी तरह प्रमाद के दोष से शंका-कांक्षा आदि अकरणीय कार्य को करने से तथा प्रशंसा आदि कार्य को नहीं करने से, एवं लोक प्रसिद्ध प्रवचन आदि शासन प्रभावक विशिष्ट पुरुष प्रति उचित व्यवहार नहीं करने से तथा सम्यक्त्व के निमित्त भूत श्री जिनमंदिर, जिनप्रतिमा आदि की एवं श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, तपस्वी और उत्तम श्रावक, श्राविकाओं की अति आशातना अथवा अवज्ञा निंदा आदि करने से जो अतिचार लगा हो वह भी निश्चय आलोचना के योग्य जानना ।।५०५३।।
___ मूल गुणरूप और उत्तर गुणरूप तथा अष्ट प्रवचन माता रूप चारित्राचार में भी जो कोई अतिचार सेवन किया हो उसकी आलोचना करनी, उसमें मूल गुण में छह काय जीवों का संघट्टन (स्पर्श) परिताप तथा विविध प्रकार की पीड़ा आदि करने से प्रथम प्राणातिपात विरमण व्रत में अतिचार लगता है। इस तरह दूसरे व्रत में भी क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य अथवा भय से तथाविध असत्य वचन बोलने से अतिचार लगता है। मालिक के दिये बिना जो सचित्त, अचित्त या मिश्र द्रव्य का हरण करना वह तीसरे व्रत संबंधी अतिचार लगता है। देव, तिर्यंच या मनुष्य की स्त्रियों के भोग की मन से अभिलाषा करना, वचन से प्रार्थना करना और काया से स्पर्श आदि से लगे हुए चौथे व्रत के अतिचार को आलोचना के योग्य जानना। तथा अंतिम पाँचवें व्रत में देश, कुल अथवा गृहस्थ में तथा अतिरिक्त-अधिक वस्तु में ममत्व स्वरूप जो अतिचार लगा हो वह भी आलोचना करने योग्य जानना। दिन में लाया हुआ रात में, रात में लाया हुआ दिन में, रात में लाया हुआ रात में और पूर्व दिन में लाया हुआ दूसरे दिन में खाया हो, इस तरह चार प्रकार से रात्रि भोजन के अंदर जो अतिचार सेवन किया हो वह भी सम्यग् रूप से सद्गुरु देव के समीप में आलोचना करने योग्य जानना।।५०६०।।
उत्तर गुणरूप चारित्र में भी आहारादि पिंड विशुद्धि की प्राप्ति में अथवा साधु की बारह पडिमाओं में, बारह भावनाओं में तथा द्रव्यादि अभिग्रह में, प्रतिलेखना में, प्रमार्जन में, पात्र में, उपधि में अथवा बैठते-उठते आदि में जो कोई अतिचार सेवन किया हो वह भी निश्चय आलोचना करने योग्य जानना। ईर्या समिति में उपयोग बिना चलने-फिरने से, भाषा समिति में सावध या अवधारणी भाषा बोलने से, एषणा समिति में अशुद्ध आहार, पानी आदि लेने से, चौथी समिति में पडिलेहन-प्रमार्जन बिना के पात्र, उपकरण आदि लेने-रखने से, और पारिष्ठापनिका समिति में उच्चार, प्रश्रवण आदि को अशद्ध भमि में जैसे-तैसे परठने से. इस तरह पाँच समिति में तथा तीन गुप्ति में प्रमाद के कारण जो कोई भी अतिचार लगा हो उन सबको आलोचना करने योग्य जानना। इस प्रकार रागादि के वश होकर विवेक नष्ट होने से अथवा अशुभ लेश्या से भी चारित्र को जिस प्रकार दूषित किया हो उसकी हमेशा आलोचना करनी चाहिए। इसी प्रकार अनशन आदि छह प्रकार के बाह्य तप में तथा प्रायश्चित्त आदि छह भेद वाले अभ्यंतर तप
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