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श्री संवेगरंगशाला
ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार में शक्ति होने पर भी प्रमाद के कारण जो अनाचरण किया हो वह अतिचार भी अवश्य आलोचना करने योग्य है।
वीर्याचार में शिवगति के कारणभूत कार्यों में अपना वीर्य - पराक्रम को छुपाने से जो अतिचार का सेवन किया हो उसे भी अवश्य आलोचना करने योग्य जानना ।
इस तरह राग द्वारा, द्वेष से, कषाय से, उपसर्ग से, इन्द्रियों से और परिषहों से पीड़ित जीव में जो कुछ दुष्ट वर्तन किया हो उसकी भी सम्यग् आलोचना करनी चाहिए । अवधारण शक्ति की मंदता से जो स्मृति पथ में नहीं आये उस अतिचार की भी अशठ भाव ओघ (सरलता) से आलोचना करनी चाहिए। इस प्रकार विविध भेद वाला आलोचना योग्य आचरण कहा। अब गुरु को आलोचना किस तरह देनी चाहिए? उसे कहते हैं।
८. गुरु आलोचना किस तरह दे? पूर्व में कहा है उसी तरह आलोचनाचार्य गुरु भी उसमें जो आगम व्यवहारी (जघन्य से नौ पूर्व का जानकार और उत्कृष्ट से केवली भगवंत) हो वह 'जो कहूँगा उसे स्वीकार करेगा ' ऐसा ज्ञान से जानकर आलोचक को विस्तारपूर्वक भूलों को याद करवा दे, परंतु जिसको यत्नपूर्वक अच्छी तरह समझाने पर भी स्वीकार नहीं करेगा, ऐसा ज्ञान से जाने उसको वह आचार्य भगवंत दोषों का स्मरण न करावें । क्योंकि-स्मरण करवाने से 'यह मेरे दोष जानते हैं ऐसी लज्जा को प्राप्त करते वह गुण समूह से शोभते उत्तम गच्छ का त्याग करें अथवा गृहस्थ बन जाये या मिथ्यात्व को प्राप्त करें। गुरु प्रथम आलोचक के गुण-दोष को ज्ञान से जानकर फिर आलोचना सुनने की इच्छा, फिर जिस देश काल आदि में आलोचक सम्यक् प्रायश्चित् स्वीकार करेगा। ऐसा जानकर उस देश काल में पुनः उसे आलोचना देने की प्रेरणा करें अथवा एकान्त से यदि अयोग्य जाने तो उसका अस्वीकार करें, इस तरह करे कि जिससे अल्प भी अविश्वास न हो। अन्य जो श्रुत व्यवहारी आदि आलोचनाचार्य कहे हैं, वे तीन बार आलोचना को सुने और समान विषय में आकार आदि से निष्कपटता को जानकर प्रायश्चित्त दे। क्योंकि - ज्ञानी गुरुदेव आलोचक की आकृति से, इससे और पूर्वापर बाधित शब्दों से प्रायःकर मायावी के स्वरूप को जानते हैं। जो सम्यग् आलोचना नहीं ले, माया करे उसे पुनः शिक्षा दे। फिर भी स्थिर न बनें ऋजुभाव से यथार्थ न कहे उसे केवल आलोचना करने का निषेध करें।
यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि - छद्मस्थ की आलोचना स्वीकार न करे और प्रायश्चित्त भी न दे क्योंकि ज्ञान का अभाव होने से दोष लगने का कारण उसका परिणाम और क्रिया किसकी कैसी थी, वह नहीं जान सकते हैं, और निश्चय नय से उस दोष की जानकारी बिना प्रायश्चित्त कर्म भी उस दोष के सेवन समान हो सकता है। इसका उत्तर देते हैं कि-जैसे शास्त्रों में परिश्रम करने वाले, शास्त्र के जानकार और बार-बार औषध को देने वाले अनुभवी वैद्य छद्मस्थ होने पर भी रोग का नाश करते हैं, वैसे यह छद्मस्थ होने पर भी प्रायश्चित्त शास्त्र के अभ्यासी और बार-बार पूर्व गुरु द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त को देखने वाले उसके अनुभवी गुरु महाराज आलोचक के दोषों को दूर कर सकते हैं। इस तरह गुरु को आलोचना जिस तरह देनी चाहिए, उस तरह कहा है। अब संक्षेप में प्रायश्चित्त द्वार कहते हैं।
९. प्रायश्चित्त क्या देना? :- आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र आदि प्रायश्चित्त दस प्रकार का है। उसमें जो अतिचार जिस प्रायश्चित्त से शुद्ध हो, वह प्रायश्चित्त उसके योग्य जानना । कोई अतिचार आलोचना मात्र से शुद्ध होता है, कोई प्रतिक्रमण करने से शुद्ध होता है, और कोई मिश्र से शुद्ध होता है, इस तरह कोई अंतिम पारांचित से शुद्ध होता है। पुनः ऐसा दोष नहीं लगाने में दृढ़ शुद्ध चित्तवाले और अप्रमत्त भाव से प्रायश्चित्त करने वाले
1. १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र, ४. विवेक, ५. कायोत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाय, १०. पारांचित ।
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