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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-दुर्गता नारी की कथा रोमांच द्वारा कंचुक समान बनी काया वाले, भक्ति से भरे हुए उत्तम मनवाले, स्थानिक श्रावक आदि भी उनके साथ में पृथ्वीतल ऊपर मस्तक जमाकर-हे त्रिलोक के महाप्रभु! हे प्रभृत-अनन्त गुण रत्नों के समुद्र! हे जिनेन्द्र परमात्मा! आप विजयी बनों इत्यादि श्री अरिहंत प्रभु के गुणों द्वारा अथवा 'नमोऽत्थुणं' इत्यादि शक्रस्तव के सूत्र से स्तुति करें, और आगन्तुक पधारें हुए यात्री उनके साथ आचार्य आदि का भेजा हुआ धर्मलाभ आदि को कहें, उसके बाद स्थानीय श्रावक अभिवंदन, वंदन, अनुवंदन रूप उचित मर्यादा का पालन करें। उसके बाद परस्पर कुशलता आदि विशेष पूछने में विकल्प जानना। अर्थात् प्रथम नमस्कार कौन करें और फिर कौन करें इस सम्बन्धी अनियम जानना। इस तरह परस्पर नमस्कार करने योग्य प्रेरणा रूप शुभयोग से उभय पक्ष को इष्ट की सिद्धि कराने वाला शुभपुण्य का अनुबन्ध होता है, ऐसा श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है। इस समाचारी को जानकर जो विधिपूर्वक अमल करते हैं, उन्हीं को ही इस विषय में कुशल जानना और अन्य सर्व को अकुशल जानना। इस तरह जो कहा है उस विधि अनुसार उस देश में विचरते गृहस्थ अपने और पर के जीवन में धर्म गुणों की सविशेष वृद्धि करता है। वह इस प्रकार से द्रव्यस्तव और भावस्तव आराधना में सविशेष रक्त श्रावक वर्ग को देखकर स्वयं भी उसे सविशेष करने में तत्पर होता है ।।२०७५ ।। और उस आने वाले को स्थान-स्थान पर ऐसी क्रिया करने में रक्त प्रवृत्ति करते देखकर धर्म परायण बनें अन्य जीवों में भी वह शुभ गुण विकासमय बनता है। और उसको देखकर अश्रद्धालु को भी प्रायः धर्म में श्रद्धा उत्पन्न होती है और स्वयं श्रद्धालु हो वह जीव पुनः वैसी प्रवृत्ति करने में उद्यमशील होता है। अस्थिर हो वह स्थिर होता है। तथा स्थिर हो वह अधिक गुणों को ग्रहण करता है। अगुणी भी गुणवान बनता है और गुणी गुणों में अधिक दृढ़ बनता है। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान का जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान, निर्वाण जहाँ-जहाँ हुआ हो उन-उन अति प्रशस्त तीर्थों में श्री सर्वज्ञ भगवंतों को वंदन करें और सुस्थिर गुरु की खोज करें, वहाँ तक तीर्थयात्रा-परिभ्रमण करे कि जहाँ तक परम श्रेष्ठ आचार वाले गुरु की प्राप्ति हो, फिर ऐसे गुरुदेव की प्राप्ति होते हर्ष से उछलते रोमांचित रूप कंचुक वाला वह स्वयं को मिलना था वह मिल गया और समस्त तीर्थ समूह से पाप धुल गये, ऐसा मानते विधि-पूर्वक उस गुरु भगवंत को अपने दोषों को सुनाये। उसके बाद गुरु देव के कहे हुए प्रायश्चित्त को सम्यग् भाव से स्वीकारकर ऐसा चिन्तन करें कि अहो! पाप से मलिन मुझे भी निष्कारण करुणा समुद्र इन आचार्य भगवंत ने प्रायश्चित्त रूप जल से शुद्धि करके परम विशुद्ध किया है। निश्चय ही इस गुरुदेव का वात्सल्य इतना अधिक है कि इनके सामने माता, पिता, बन्धु, स्वजन आदि किसी का भी नहीं है। इस प्रकार वात्सल्य भाव से जगत में विचरते हैं, अन्यथा कभी भी नहीं देखे, नहीं सुने, परदेश से आये हुए, ये महाभाग गुरुदेव इस तरह प्रिय पुत्र के समान मेरा सन्मान कैसे करते? उसके बाद परमानंद से विकसित आँखों वाला वह चिरकाल सेवा करके, उनके उपदेश को स्वीकार करें, गुरु महाराज को अपने क्षेत्र की ओर विहार करने का निमन्त्रण करें। ऐसा करने से पुण्य के समूह से पूर्ण इच्छावाला किसी उत्तम श्रावक को निश्चय ही निर्विघ्न से इच्छित सिद्धि होती है। और इस तरह यात्रार्थ प्रस्थान करने वाले किसी को संभव है क्योंकि सोपक्रम आयुष्य से 'भाग्य योग' से बीच में मृत्यु हो जाये तो तीर्थादि पूजा बिना भी शुभ ध्यान रूपी गुण से दुर्गता नारी के समान तीर्थयात्रा के साध्य रूप फल की सिद्धि होती है। वह इस प्रकार : दुर्गता नारी की कथा सिद्धार्थ नामक राजा के पुत्र देवों के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त चरणों वाले, लोगों को चारित्र मार्ग में जोड़ने वाले, लोकालोक के प्रकाशक, करुणा रूपी अमृत के समुद्र, तुच्छ और उत्तम जीवों के प्रति 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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