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________________ परिकर्म द्वार-दुर्गता नारी की कथा श्री संवेगरंगशाला समदृष्टि वाले एक समय श्री महावीर प्रभु काकंदीपुरी में पधारें, वहाँ देवों ने श्रेष्ठ, मनोहर, सुशोभित, विविध प्रकार से उज्ज्वल लहराती ध्वजाओं वाले और सिंहासन से युक्त मनोहर समवसरण की रचना की, फिर सुर असुर सहित तीन जगत के पूजनीय चरण कमल वाले, भव्य जीवों को प्रतिबोध करने वाले, जगत के नाथ श्री वीर प्रभु उसमें पूर्वाभिमुख बिराजमान हुए फिर हर्षित रोमांचित वाले असुर, देव, विद्याधर, किन्नर, मनुष्य और राजा उसी समय श्री जिन वंदन के लिए समवसरण में आयें, तब उत्तम श्रृंगार को सजाकर हाथी, घोड़े, वाहन, विमान आदि में बैठकर देव समूह के समान शोभते नगर निवासी भी धूप पात्र और श्रेष्ठ सुगंधमय पुष्प समूह आदि से हाथ भरे हुए अपने नौकर समूह को साथ लेकर शीघ्र श्री जिनवंदन के लिए चलें। तब उसी नगर में रहने वाली लकड़ियों को लेकर आती, अत्यन्त आश्चर्य प्राप्त करती एक दरिद्र वृद्धा ने एक मनुष्य से पूछा-अरे भद्र! ये सब लोग एक ही दिशा में कहाँ जाते हैं? उसने कहा-ये लोग, तीन जगत के बन्धु, दुःखदायी पापमैल को धोने वाले, जन्म जरा मरणरूपी लता विस्तार को विच्छेदन करने में कुल्हाड़े के समान श्री वीर परमात्मा के चरण कमल की पूजा करने के लिए और शिवसुख का कारणभूत धर्म को सुनने के लिए जा रहे हैं ।।२१००।। यह सुनकर शुभ पुण्य कर्म के योग से अतिशय भक्ति जागृत हुई और वह वृद्धा विचार करने लगी किमैं पुण्य बिना की दरिद्र अवस्था में क्या कर सकती हूँ? क्योंकि मेरे पास जिनवर के चरण कमल की पूजा कर सकूँ ऐसी अतिश्रेष्ठ निरवद्य पूजा के अंग समूह रूप सामग्री नहीं है अथवा नहीं है तो इससे क्या? पूर्व में जंगल के अंदर देखे हुए सिंदुवार-निगुंडी के मुफ्त मिलते फूलों को भी शीघ्र लाकर श्री जिनपूजा करूँ। उसके बाद पुष्पों को लेकर भावों में वृद्धि करती श्री जिनपूजा के लिए शीघ्र ही वह वृद्धा समवसरण के प्रति चली, परन्तु वृद्धावस्था से अत्यंत थक जाने से बढ़ती विशुद्ध भावना वाली वह अर्धमार्ग में ही मर गयी, और उसने श्रीजिनपूजा की एकाग्रता मात्र से भी कुशल पुण्य कर्म उपार्जन करके सौधर्म देवलोक में महर्द्धिक देव की संपत्ति प्राप्त की। 'वृद्धावस्था के कारण मूर्छा प्राप्त की है अथवा थक गयी होगी' ऐसा समझकर लोगों ने अनुकम्पा से उसके शरीर पर पानी का सिंचन किया। तो भी उसे शरीर की चेष्टा से रहित देखकर लोगों ने श्री जिनेश्वर भगवंत से पूछा-हे भगवंत! क्या वह जीती है या मर गयी है? प्रभु ने कहा-वह मर गयी है और उस वृद्धा का जीव देव रूप बनकर शीघ्र ही अवधिज्ञान से अपना पर्वभव जानकर परम भक्ति से आकर जगदगरु के चरण कमलों को अभिवंदन करके पास बैठा था। उस देव को भगवंत ने लोगों को बतलाया और जिस तरह उस वृद्धा का जीव यह देव हुआ वह बतलाया। इससे आश्चर्य चकित हुए लोगों ने कहा-हे नाथ! सुकृत बिना भी ऐसी देव ऋद्धि उसने किस तरह प्राप्त की? उसने सद्गति के कारणभूत ज्ञान, दान, तप, शील अथवा सर्वज्ञ पूजन कितना किया? हमेशा दारिद्र का बड़े कंद रूप, जन्म से दुखियारी और दूसरों की नौकरी से सदा संताप करती, उसने देव लोक किस तरह प्राप्त किया? इससे श्री तीन जगत के गुरु ने उसके पूजा की एकाग्रता का सारा वृत्तांत कहा। लोगों ने प्रभु को पुनः पूछा-हे भगवंत! श्री जिनेश्वर के गुणों से अज्ञात यह वृद्धा केवल पूजा के ध्यान से ही किस तरह देवलोक में उत्पन्न हुई? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा : जिसके गुण नहीं जानते ऐसे मणि आदि जैसे ज्वर रोगादि के समूह का नाश करता है वैसे जगद् गुरु श्री जिनेश्वर की भी आराधना करने वाला आराधक आत्मा उनको भले सामान्य रूप में जाने फिर भी स्वयं जिनेश्वर अनंत गुणों के कारण श्रेष्ठ होने से सत्कार करने वाले अन्य के अशुभ कर्मों का नाश करते हैं। इसी कारण ही इस शासन में गृहस्थों को द्रव्यस्तव की अनुज्ञा दी है, क्योंकि इसके अभाव में दर्शन शुद्धि भी नहीं होती है। इस तरह श्री जिनपूजा का ध्यान मुक्ति सुख का मूल है, पूर्वोपार्जित पाप रूपी पर्वत को तोड़ने में वज्रसमान है और 93 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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