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________________ परिकर्म द्वार--अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार श्री संवेगरंगशाला अनियत विहार नामक सातवाँ द्वार : इस तरह शिक्षा देने पर भी चित्त प्रायः नित्य स्थिर वास से राग के लेप से लिप्त होता है, परन्तु निःस्पृह नहीं बन सकता है। इसलिए अब समस्त दोषों का नाश करने वाला अनियत विहार को कहते हैं, उसे सुनकर आलस का त्यागकर उद्यमशील बनों। अवश्य वसति में, उपधि में, गाँव में, नगर में, साधु समुदाय में तथा भक्तजनों में इस तरह सर्वत्र राग बंधन का त्यागकर विशुद्ध सद्धर्म को करने में प्रीति रखने वाले साधु को सविशेष गुणों की इच्छा से सदा अनियत विहार में रहना चाहिए, अप्रतिबद्ध विचरण करे और श्रावक को भी सदा तीर्थ यात्रादि करने में प्रयत्न करना चाहिए। जो कि गृहस्थ को निश्चय स्पष्ट रूप में अनियत विहार नहीं है तो भी गृहस्थ 'मैं अभी तीर्थंकर भगवंतों के जन्म दीक्षादि कल्याणक जहाँ हुए हों उन तीर्थों में श्रीअरिहंत भगवंतों को द्रव्य स्तव का सारभूत वंदन नमस्कार करूँगा, फिर सर्व संग का त्यागकर दीक्षा स्वीकार करूँगा अथवा आराधना अनशन को स्वीकार करूँगा।' ऐसी बुद्धि से प्रशस्त तीर्थों में यात्रार्थ घूमते अथवा श्रेष्ठ आचार वाले गुरु भगवंतों की खोज करते गृहस्थ भी अनियत विहार कर सकता है। उसमें जो दीक्षा लेकर आराधना करने की इच्छा वाला है उसके लिए अच्छे आचार वाले गुरु वर्ग की प्राप्ति का स्वरूप आगे गण संक्रमण नामक दूसरे द्वार में कहेंगे। परंतु जो घर में रहकर ही एकमात्र आराधना करने का ही मन वाला है, उसके लिए श्रेष्ठ आचार वाले गच्छ की गवेषणा कीधि इस द्वार में आगे कहेंगे। अब श्री जिन मत की आज्ञानुसार चलने वाले सर्व साधु तथा श्रावकों को भी एक क्षेत्र में से अन्य क्षेत्र में गमन रूप विहार की यह विधि है कि-प्रथम निश्चय जिसने जिसके साथ में मन से, वचन से या काया से जो कोई भी पाप किया हो, करवाया हो, अथवा अनुमोदन किया हो, वह थोड़ा हो अथवा अधिक उस समस्त पाप का भी समाधि की इच्छा करने वाला सम्यग् भावपूर्वक उससे क्षमा याचना करे और इसमें ऐसा समझे कि मेरा किसी तरह मृत्यु के बाद भी वैर का अनुबन्ध न हो। इसमें यदि विहार करने वाला सामान्य मुनि हो तो आचार्य, उपाध्याय को और स्वयं पर्याय में छोटा हो तो शेष साधुओं को भी अभिवंदन करके कहे कि-मैं जिस-जिस नगरादि में जाऊँगा वहाँ-वहाँ चैत्य, साधुओं और संघ को तुम्हारी ओर से भी वंदन करूँगा। अथवा जो जाने वाला स्वयं बड़ा हो तो वहाँ रहने वाले साधु विहार करते मुनि को वंदन करके कहे कि-हमारी ओर से चैत्य, साधु और संघ को वंदन करना। उसके बाद उस क्षेत्र में चैत्य भवन (मंदिर) में जाकर भक्तिपूर्वक चैत्यालय के आगे उनका वंदना के लिए सम्यग् उपयोग करें। इसी तरह श्रावक भी निश्चय रहने वाला सर्व परिवार, स्वजन, संघ से सम्यग् रूप से क्षमा याचना कर, प्रतिमा, आचार्य और साधु आदि को वंदन की सम्यग् विधि करके, उन्होंने दिया हुआ निष्पाप संदेश को स्वीकार करके उपयोगपूर्वक उस गाँव, नगर आदि में आकर जहाँ जाये वहाँ बड़े यान वाहन आदि वैभव से और न्यायोपार्जित धन से जिस क्षेत्र में आवश्यक हो उसमें धन देकर, अनेक धर्म स्थानकों में नित्यमेव श्रीजिनशासन की परम उन्नति को करते और दीन अनाथों को अनुकंपादान से परम आनन्द देते हुए बुद्धिमान श्रावक समस्त तीर्थों में परिभ्रमण करें, उसके बाद गृहस्थ और साधु भी उन चैत्यों में जाकर 'निश्चय संघ यह वंदन करता है' इस प्रकार प्रथम उपयोगपूर्वक संघ सम्बन्धी सम्यग् वंदन करके, फिर उसी अवस्था में भावपूर्वक अपना भी सम्यग् वंदन करें, इस तरह किसी कारण से यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि का अभाव हो तो संक्षेप से भी प्रणिधान आदि तो अवश्य ही करें। उसके बाद ज्ञानादि गुणों की खान समान साधुओं को और श्रावकजनों को देखकर कहे कि-हमको आप अमुक स्थान पर श्री जिनेश्वरों के दर्शन वंदन करवाओ। फिर आदर के अतिशय से प्रकट हुए 91 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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