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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा भी आप मुझे धनुर्वेद पढ़ाओ। फिर उसके अति आग्रह से गुरु ने उसे धनुर्वेद का अध्ययन करवाया। उसने भी अति बुद्धिरूपी वैभव से वह धनुर्वेद ज्ञान प्राप्त किया और शब्दवेधी हुआ। किसी प्रकार से भी लक्ष्य को वह नहीं चूकता था। इस तरह वे दोनों पुत्र कलाओं में अति कुशल हुए। एक समय वहाँ शत्रु की सेना आयी, तब श्रेष्ठ सेना से शोभायमान, युद्ध करने का कुशल अभ्यासी छोटा पुत्र पिता की आज्ञा से शत्रु की सेना को जीतने चला, तब बड़े भाई विद्यमान होने पर भी छोटे भाई को ऐसा करना कैसे योग्य है? ऐसा कहकर अति क्रोध को धारण करते मत्सरपूर्वक शत्रु सेना को जीतने जाते अन्ध को पिता ने समझाया कि - हे पुत्र ! तेरी ऐसी अवस्था में जाना योग्य नहीं है। कला में अति कुशलता है, बल वाली भुजा अति बलवान हैं तो भी नेत्र बिना का होने से तूं युद्ध करने के लिए योग्य नहीं है । इत्यादि अनेक वचनों द्वारा कई बार अनेक प्रकार से रोका, फिर भी वह अन्धा उनकी अवहेलना कर मजबूत बख्तर से शरीर को सजाकर गंड स्थल से मदोन्मत्त और मजबूत पलाण का आडम्बर करने से भयंकर और श्रेष्ठ हाथी के ऊपर चढ़कर शीघ्र नगर से निकला और शब्द के अनुसार बाणों के समूह को फेंकते सर्व दिशाओं को भर दिया। इस प्रकार वह शत्रु सेना के साथ युद्ध करने लगा। फिर चारों ओर से शब्द के अनुसार आये हुए समूह प्रहार को देखकर, उसके कारण को जानकर शत्रुओं ने मौन धारण किया। इससे शत्रु के शब्द को नहीं सुनने से और उससे प्रहार को नहीं करते अन्धे पर शत्रु मौनपूर्वक सर्व दिशाओं से प्रहार करने लगे। तब चक्षुवाला छोटा भाई शीघ्र वहाँ आया और उसे महामुसीबत से बचाया। इस दृष्टान्त का उपनय तो यहाँ पूर्व में ही कह दिया है। अब प्रस्तुत को कहते हैं कि - इस कारण से गृहस्थ सर्वप्रथम जावज्जीव तक का सम्यग्दर्शन उच्चारण कर फिर निरतिचार दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करें और उसका सम्यग् परिपालन कर उन गुणों से युक्त वह पुनः दूसरी व्रत प्रतिमा को स्वीकार करें। २. व्रत प्रतिमा का स्वरूप : इस प्रतिमा में प्राणिवध, असत्य भाषण, अदत्त ग्रहण, अब्रह्म सेवन और परिग्रह, इसकी निवृत्ति रूप व्रतों को ग्रहण करें और उसके वध आदि अतिचार को छोड़कर तथा प्रयत्नपूर्वक इस धर्म श्रवण आदि कार्यों में सम्यक् सविशेष प्रवृत्ति करें एवं हमेशा अनुकम्पा भाव से वासित बनकर अन्तःकरण के परिणाम वाला बनें। उसके पश्चात् पूर्व कहे अनुसार सम्यक्त्वादि गुणों से शोभित और श्रेष्ठ उदासीनता से युक्त वह महान् आत्मा तीसरी सामायिक प्रतिमा स्वीकार करें। ३. सामायिक प्रतिमा : इस प्रतिमा में (१) उदासीनता, (२) माध्यस्थ्य, (३) संक्लेश की विशुद्धि, (४) अनाकुलता और (५) असंगता, ये पाँच गुण कहे हैं। इसमें - जो कोई और जैसा तैसा भी भोजन, शयन आदि से चित्त में जो सन्तोष हो उसे उदासीनता कहते हैं। यह उदासीनता संक्लेश की विशुद्धि का कारण होने से श्री जिनेश्वर भगवान ने उसे सामायिक का प्रथम मुख्य अंग कहा है। अब माध्यस्थ्य को कहते हैं - यह मेरा स्वजन है अथवा यह पराया है। ऐसी बुद्धि तुच्छ प्रकृति वालों को स्वभाव से ही होती है। स्वभाव से उदार मन वाले को तो "वसुधैवकुटुम्बकम्" यह समग्र विश्व भी मेरा कुटुम्ब है, क्योंकि अनादि अनंत इस संसाररूप महासरोवर में परिभ्रमण करते और कई सैंकड़ों भवों को उपार्जन करने के द्वारा कर्म समूह के आधीन हुए जीवों ने इस संसार में परस्पर किसके साथ अथवा कौन-कौन से अनेक प्रकार के सम्बन्ध नहीं किये? ऐसा जो चिंतन या भावना हो वह माध्यस्थ्य है। जिसके साथ रहे, उसके और अन्य के भी दोषों को देखने पर भी क्रोध नहीं करना, वह संक्लेश विशुद्धि जानना । 118 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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