________________
परिवर्ल द्वार-मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा
श्री संवेगरंगशाला हुए का भी नाश होता है। सूत्र में जो बुद्धि के अविप्रयास-शुद्धि को समकित कहा है। वह भी पूर्व में कहे उन कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले मैं कैसे होगा? आज से मुझे मिथ्यादर्शनों में रागी देवों के देव और साधुओं को गुरु मानकर धर्मबुद्धि से उनका सत्कार, विनय, सेवा, भक्ति आदि करना योग्य नहीं है। उनके प्रति मुझे अल्प भी द्वेष नहीं है, और अल्प भक्ति भी नहीं है, परन्तु उनमें देव और गुरु के गुणों का अभाव होने से उदासीनता ही है।
दमान होगा कि जो सवर्ण का गाढ अर्थी होने पर भी सवर्ण के गण बिना की भी वस्त को 'यह सुवर्ण हैं' ऐसा मानेगा? ।।२७०० ।। असुवर्ण होने पर भी सुवर्ण मानकर स्वीकार करने पर सुवर्ण का प्रयोजन साधने में वह कैसे समर्थ हो सकता है? देव का देवत्व राग, द्वेष और मोह के अभाव के कारण होता है और वह रागादि अभाव उनका चरित्र, आगम और प्रतिमा को देखकर जान सकते हैं। विश्व में गुरु का गुरुत्व भी मुक्ति साधक गुण समूह से है, उससे गौरवता प्राप्त करते हैं और शास्त्रार्थ का सम्यग् उपदेश देते हैं वही यथार्थ और प्रशंसनीय बनते हैं। इस तरह अपने-अपने लक्षण से देव गुरु का स्वरूप जिसमें स्पष्ट रूप में दिखता है वे मेरे हैं, उनके कहे हुए तत्त्वों को स्वीकार करना वह दर्शन प्रतिमा है। गुणों से श्रेष्ठ दुर्लभ द्रव्यों द्वारा सात क्षेत्र
और चतुर्विध श्री संघ आदि दर्शन के अंगों का शक्ति अनुसार प्रकृष्ट गौरव बढ़ाने से प्रतिमा द्रव्य से शुद्ध होती है! और सर्व क्षेत्रों में रहे हुए कमजोर और श्रेष्ठ के विभागपूर्वक सर्व देव और गुरुओं की विनयादि सेवा मुझे भाव से ही करनी है। उसके द्वारा यह दर्शन प्रतिमा क्षेत्र से मेरी विशुद्ध हो! इस सम्यक्त्व का जावज्जीव तक निरतिचार पालन करना वह कालसे विशुद्ध है, और जब तक मैं दृढ़ शरीर से सशक्त और प्रसन्न हूँ तब तक भाव विशुद्धि हो! अथवा शाकिनी, ग्रह आदि के दोष से मैं चेतन रहित अथवा उन्माद से व्याप्त चित्त वाला न बनूँ तब तक यह प्रतिमा भाव विशुद्ध हो! अधिक क्या ? जब तक मेरा दर्शन प्रतिमा का परिणाम भाव किसी भी उपघातवश नाश न हो वहाँ तक मेरी यह दर्शन प्रतिमा भाव विशुद्ध रहे। आज से मैं शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, अन्य दर्शन का तथा उसके शास्त्रों का परिचय तथा प्रशंसा ये पाँचों दोषों का जावज्जीव तक त्याग करता हूँ। राजा, लोग समूह
और किसी देव का बलजबरी (बलात्कार) हो, चोरादि बलवान का आक्रमण हो, आजीविका की मुश्किल हो और माता-पिता आदि पूज्यों का आग्रह हो, ये ६ अभियोग मेरे इस प्रतिमा में आगार हैं। इस तरह प्रतिमा का अभिग्रह स्वीकार करने से सुंदर श्रावक, गुरु को भी उत्साहित करता है कि तूं पुण्यकारक है, तूं धन्य है, क्योंकि विश्व में जो धन्य हैं उन्हीं को नमस्कार हो! वही चिरंजीव है और वही पण्डित है कि जो इस श्रेष्ठ सम्यक्त्व रत्न का निरतिचार पालन करता है। यह सम्यक्त्व ही निश्चय सर्व कल्याण का तथा गुण समूह का श्रेष्ठ मूल है, इस समकित बिना की क्रिया ईख के पुष्प के समान निष्फल है। और क्रिया को भी करने वाला स्वजन धन भोग को छोड़ने वाला, आगे बढ़कर दुःखों को भोगने वाला, सत्त्वशाली भी अन्ध जैसे शत्रु को नहीं जीत सकता, वैसे पाप कार्यों से निवृत्त होने वाला भी स्वजन, धन भोगों को छोड़ने वाला भी और परिषह-उपसर्गों को सहन करने वाला भी मिथ्यादृष्टि मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है ।।२७१६।। इस विषय पर अन्ध की कथा इस प्रकार है :
मिथ्यात्व पर अन्ध की कथा वसन्तपुर नगर में रिपुमर्दन नामक राजा राज्य करता था। उसका प्रथम पुत्र अन्ध और दूसरा दिव्य चक्षु वाला था। राजा ने उन दोनों को अध्ययन के लिए अध्यापक को सौंपा। बड़ा पुत्र अन्ध होने से अध्यापक ने उसे संगीत वाजिंत्र, नृत्य आदि और दूसरे को धनुर्वेद आदि सारी कलाएँ सिखायीं, फिर 'अपना अपमान हुआ' ऐसा मानकर अन्ध ने उपाध्याय से कहा-मुझे तुम शस्त्रकला क्यों नहीं सिखाते? उपाध्याय ने कहा-अहो महाभाग! तूं उद्यमी है, परन्तु चक्षुरहित तुझे मैं उस कला को किस तरह समझाऊँ? अन्ध ने पुनः कहा-यदि अन्ध हूँ तो
- 117
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org