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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ की प्रतिमाओं को स्वीकार करें। मोह का नाश करने वाली श्री जिनेश्वरों ने 'दर्शन प्रतिमा' आदि श्रावक की संख्या से ग्यारह प्रतिमा कही हैं ।। २६७६ । । वह इस प्रकार हैं : श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ : (१) दर्शन प्रतिमा, (२) व्रत प्रतिमा, (३) सामायिक प्रतिमा, (४) पौषध प्रतिमा, (५) प्रतिमा प्रतिमा, (६) अब्रह्म वर्जन प्रतिमा, (७) सचित्त वर्जन प्रतिमा, (८) स्वयं आरम्भ वर्जन प्रतिमा, (९) प्रेष्य- नौकर वर्जन प्रतिमा, (१०) उद्दिष्ट वर्जन प्रतिमा और (११) श्रमण भूत प्रतिमा। ये ग्यारह प्रतिमाएँ हैं। १. दर्शन प्रतिमा का स्वरूप : पूर्व कहे अनुसार गुणरूपी रत्नों से अलंकृत वह महात्मा श्रावक प्रथम दर्शन प्रतिमा को स्वीकार करें और उस प्रतिमा में मिथ्यात्व रूपी मैल नहीं होने से दुराग्रहवश होकर उस सम्यक्त्व को कलंक लगे ऐसा अल्प भी आचरण न करें, क्योंकि दुराग्रह की साधना में मिथ्यात्व ही समर्थ है और वह प्रतिमाधारी धर्म में उपयोग शून्य न हो तथा विपरीत आचरण न करे तथा वह आस्तिक्य आदि गुण वाला, शुभ अनुबंध वाला एवं अतिचार रहित होता है। यहाँ प्रश्न करते हैं कि-पूर्व में जिस गुण समूह का प्ररूपण किया, ऐसे श्रावक को सम्यक्त्व होने पर भी पुनः यह दर्शन प्रतिमा क्यों कहीं ? इसका उत्तर देते हैं कि - इस दर्शन प्रतिमा में राजाभियोग आदि छह आगारों का सर्वथा त्याग और आठ प्रकार के दर्शनाचार का सम्यक्रूप से संपूर्ण पालन करना है। इस तरह यहाँ पर सम्यग्दर्शन की सविशेष प्राप्ति में मुख्य होने से श्रावक को प्रथम दर्शन प्रतिमा बतलायी है। फिर प्रश्न करते हैं कि - निसर्ग से या अधिगम से भी प्रकट हुआ शुभ बोध वाला जो आत्मा 'मिथ्यात्व को यह देव, गुरु और तत्त्व के विषय में महान भ्रम को उत्पन्न करने वाला है।' ऐसा समझकर उसका त्याग करें और सम्यक्त्व को स्वीकार करें। उसे उसके स्वीकार करने की विधि का क्रम क्या है? इसका उत्तर - वह महात्मा दर्शन, ज्ञान आदि गुण रत्नों के रोहणाचल तुल्य सद्गुरु को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर कहे कि - हे भगवंत ! मैं आप श्री के पास जावज्जीव तक मिथ्यात्व का मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदन का पच्चक्खान (त्याग) कर जावज्जीव तक संसार से सम्पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने में एक कल्पवृक्ष तुल्य सम्यक्त्व को सम्यग्रूप से स्वीकार करता हूँ। आज से जब तक जीता रहूँगा तब तक सम्यक्त्व में रहते मुझे परम भक्तिपूर्वक ऐसे भाव प्राप्त हो। आज से अन्तर के कर्मरूप (शत्रुओं) को जीतने से जो अरिहंत बने हैं वे ही देव बुद्धि से मेरे देव हैं, मोक्ष साधक गुणों की साधना से जो साधु हैं वे ही मेरे गुरु हैं और निवृत्ति नगरी के प्रस्थान में निर्दोष पगदंडी जो श्री जिनेश्वर प्रभु कथित जीव- अजीवादि तत्त्वमय आगम ग्रन्थ हैं। उसी में ही मुझे उपादेयरूप श्रद्धा हो! और उत्तम समाधि वाला, मन, वचन, काया की वृत्ति वाला मेरा प्रतिदिन तीनों संध्या के उचित पूजापूर्वक श्री जिनेश्वर भगवान को वंदन हो और धर्म बुद्धि से मुझे लौकिक तीर्थों में स्नानदान या पिंडदान आदि कुछ भी करना नहीं कल्पता, तथा अग्नि हवन, यज्ञ क्रिया, रहट आदि सहित हल का दान, संक्रान्ति दान, ग्रहण दान और कन्या फल सम्बन्धी कन्यादान, छोटे बछड़े का विवाह करना तथा तिल, गुड़ या सुवर्ण की गाय बनाकर दान देना अथवा रुई का दान, प्याऊ का दान, पृथ्वी दान, किसी भी धातु का दान इत्यादि दान तथा धर्मबुद्धि से अन्य भी दान में नहीं दूँगा। क्योंकि अधर्म में भी धर्मबुद्धि को करने से सम्यक्त्व प्राप्त किये 116 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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