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________________ परिकर्म द्वार- कालक्षेप-पौषधशाला कैसी और कहाँ करानी ? श्री संवेगरंगशाला परंतु उस उसके दुःख से भी नहीं बतलाया । ऐसा करते वह एक दिन मर गया और उसका पुत्र कुछ दुःखी और विमूढ़ मन वाला बन गया । तथा पिता को उद्देश से कहने लगा- हा! हा! धरती में गुप्त रखकर तूंने निधान का कोई उपयोग किये बिना निष्फल क्यों नाश किया? हा ! पापी पिता! तूं पुत्र का परम वैरी हुआ । हे मूढ़ ! तेरे धर्म को भी धिक्कार हो और तेरे विवेक धन को भी धिक्कार होवे ! ऐसा विलाप करता हुआ मरकर वह भी तिर्यंच गति में उत्पन्न हुआ । इस तरह धर्म की आराधना करने वाला भी वह निश्चय पुत्र के कर्म बंध का हेतुभूत बना। धर्मीजन को किसी के भी कर्म बंधन में निमित्त रूप बनना योग्य नहीं है। इसलिए ही त्रिभुवन गुरु श्री वीर परमात्मा ने इसी तरह तापसों को अप्रीति रूप जानकर वर्षाकाल में भी अन्यत्र विहार किया था । वेही सत्पुरुष धन्य हैं और वे ही सत्यधर्म क्रिया को प्राप्त करते हैं कि जो जीवों के कर्म बंध के निमित्तरूप नहीं बनते हैं। इससे अनेक भव की वैर परम्परा नहीं होती हैं। इस कारण से प्रयत्नपूर्वक अपने पुत्र को अपने अधिकार पद पर स्थापन कर गृहस्थ को समाधिपूर्वक धर्म में प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह पुत्र शिक्षा नामक यह दूसरा अन्तर द्वार पूर्ण हुआ। अब कालक्षेप नामक तीसरा अन्तर द्वार कहते हैं ।। २६६०।। कालक्षेप द्वार : - पुत्र को अपने स्थान पर स्थापन करके पूर्व कहे अनुसार श्रावक अथवा राजा उस पुत्र की भी भावना जानने की इच्छा से यदि अमुक समय तक घर में रहने की इच्छा हो तो उसे पौषधशाला करवानी चाहिए। पौषधशाला कैसी और कहाँ करानी ? : सर्व प्राणियों के उपद्रव से रहित प्रदेश में, अच्छे चारित्र पात्र मनुष्यों के रहने के पास में और स्वभाव से ही सौम्य, प्रशस्त एकान्त प्रदेश में, भाँड़ या स्त्रियों आदि के संपर्क से रहित हो, वह भी परिवार की अनुमति से प्रसन्न चित्तवाले होकर, वह भी विशुद्ध ईंट, पत्थर, काष्ठ आदि से करवानी चाहिए, अच्छी तरह से रगड़कर मुलायम स्थिर बड़े स्तम्भ वाली, अति मजबूत दो किवाड़ वाली, चिकनी दिवार वाली, अच्छी तरह घिसकर नरम मणियों से जुड़े हुए भूमितल वाली, पडिलेहण - प्रमार्जना सरलता हो सके, अन्य मनुष्यों का प्रवेश होते ही आश्चर्य करने वाली, अनेक श्रावक रहे, बैठ सके, तीनों काल में एक समान स्वरूप वाली, स्थंडिल भूमि से युक्त, पापरूपी महारोग से रोगी जीवों के पाप रोग का नाश करने वाली और सद्धर्म रूपी औषध की दानशाला हो ऐसी पौषधशाला तैयार करवानी चाहिए। अथवा स्वीकार किये धर्मकार्य निर्विघ्न से पूर्ण हो सकें ऐसा योग्य किसी का घर जो पूर्व में तैयार हुआ मिल जाये तो उसे ही विशेष सुधारकर पौषधशाला बना दे । और वहीं प्रशस्त धर्म के अर्थ चिंतन में मन को स्थिरकर, पाप कार्यों का त्याग करने में उद्यमी बने, योग्य पात्र गुरु आदि को प्राप्त करके किसी समय पढ़ने में, किसी समय प्रश्न पूछने में तो किसी समय परावर्तन में, किसी समय शास्त्रों के परमगूढ़ अर्थ के चिंतन में (अनुप्रेक्षा में) किसी समय ध्यान में, तो किसी समय वीरासन आदि अनुकूल आसन से आसन बंध द्वारा गात्र को संकोच करते मौन में, किसी समय भावनाओं के चिंतन में, तो किसी समय सद्धर्म के श्रवण द्वारा समाधि में, इस तरह काल को व्यतीत करें और सिद्धान्त के महारहस्य रूपी मणियों के भंडार स्वरूप मुनि के प्रति सत्कार भक्ति वाला स्वयं उचित समय में उनके पास जाकर उनकी सेवा करें। तथा 'हे तात! कृपा करो, अनुग्रह करो और अब भोजन लेने मेरे घर पधारों।' इस तरह भोजन के समय पुत्र विनयपूर्वक निवेदन करे तब स्थिर मनवाला विधि से धीरे-धीरे चलते घर जाकर मूर्छा रहित भोजन करें तथा यदि सामर्थ्य हो तो आत्महित को चाहने वाला बुद्धिमान श्रेष्ठ वीर्य के वश सविशेष उद्यम वाला बनकर श्रावक 115 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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